राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प्रभाव निरन्तर बढ़ रहा था । हिन्दू और मुसलमानों के बीच मैत्री और सद्भावना बढ़ाने के लिए जो 'बंगाल समझौता' हो सका था उसका कारण वही थे। उनके प्रति शरत् बाबू के मन में अगाध श्रद्धा और ममता थी । लेकिन इस समझौते से वे शत-प्रतिशत सहमत नहीं थे। अवसर मिलने पर एक दिन देशबन्धु ने उनसे पूछा, “आप हिन्दू-मुस्तिम एकता पर विश्वास रखते हैं?”
शरत् ने कहा, "नहीं।"
देशबन्धु बोले, “आपकी मुस्लिम प्रीति तो बहुत प्रसिद्ध है।”
शरत् ने कहा, "मनुष्य की कोई भी अच्छी इच्छा गुप्त नहीं रह सकती । मेरी यह ख्याति इतने बड़े आदमी के कानों तक भी पहुंच गई। किन्तु अपनी प्रशंसा सुनकर मुझे सदैव लज्जा लगती है।”
देशबन्धु बोले, “किन्तु क्या आप बता सकते हैं कि इसके सिवाय और उपाय क्या है? इसी बीच वे संख्या में पचास लाख बढ़ गए और दस वर्ष बाद क्या होगा, बताइए तो?"
शरत् बाबू ने कहा, “यह यद्यपि ठीक मुस्लिम प्रीति का निदर्शन नहीं है। अर्थात् दस वर्ष बाद क्या होगा इसकी कल्पना करके आपका चेहरा जैसे सफेद हो उठता है उससे तो मेरे साथ आपका बहुत अधिक अन्तर नहीं जान पड़ता। सो वह चाहे जो हो, केवल संख्या ही मेरे विचार में बड़ी चीज नहीं है। अगर ऐसा भी होता, संख्या का ही महत्त्व होता तो चार करोड़ अंग्रेज एक सौ पचास करोड़ लोगों के सिर पर पैर रखकर संसार में न घूम पाते । नमः शूद्र, आलो' बट' ‘राजवंशी', 'पौध' आदि को समेट लीजिए, देश के बीच, दस आदमियों के बीच इनका एक मर्यादा का स्थान निर्दिष्ट करके इन्हें मनुष्य बनाइए । स्त्री जाति के प्रति जो अन्याय, निष्ठुर सामाजिक अविचार अरसे से चला आ रहा है, उसका प्रतिविधान कीजिए। फिर उधर की संख्या के लिए आपको चिन्तित होना नहीं पड़ेगा।"
कुछ भी हो, समझौते से देशबन्धु की ख्याति बहुत बढ़ गई। महात्माजी से भी उनका समझौता हो गया। अब उन्होंने अपना सारा समय गांवों में रचनात्मक कार्यों में लगाने का निश्चय किया। शरत् बाबू उनके साथ थे, लेकिन स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा था। जब परिषद में काले बिलों पर विचार किया जाने वाला था तब उन्हें स्टेचर पर डालकर परिषद भवन में ले जाया गया। इसके बाद डाक्टरों ने उन्हें पूर्ण विश्राम के लिए पटना जाने को कहा। जाने से पूर्व शरत् बाबू मिलने के लिए आए। उन्हें देखकर देशबन्धु ने पास आकर बैठने के लिए इशारा किया। बोले, “अबकी आखिरी है शरत् बाबू ।”
शरत् बाबू बोले, “आप तो कह चुके हैं कि स्वराज्य अपनी आंखों से देखकर जाइएगा!”
क्षण भर चुप रहकर देशबन्धु ने कहा, “उसके लिए समय नहीं मिला।”
शरत् बाबू बोले, “आप जब जेल में थे तब कुछ आदमी जेलखाने की दीवारों को प्रणाम कर रहे थे। उन्होंने कहा था, 'हमारे देशबन्धु जेल के भीतर हैं, उनको आखों से देखने का तो कोई उपाय नहीं है। इसी से हम जेल की दीवार को प्रणाम करते हैं।' वे लोग अब आपको कैसे छोडेंगे?”
देशबन्धु की आखों में आंसू भर आए। संभलने में कई क्षण लग गए। उसके बाद उन्होंने इस बात की चर्चा नहीं की। दूसरी बातें करने लगे। लगभग बीस मिनट बीत चुके थे। डाक्टर दासगुप्त घर के कोने में रखी हुई शरत् बाबू की मोटी लाठी उठा लाए और उनके हाथ में थमा दी। यह देखकर देशबन्धु को हंसी आ गई। बोले, “इशारा समझ गए शरत् बाबू? ये लोग हमें थोड़ी-सी बातचीत भी नहीं करने देना चाहते। "
देशबन्धु पटना चले गए। स्वास्थ्य कुछ सुधरा, परन्तु विधान परिषद का अधिवेशन आ पहुंचा था। वे फिर कलकत्ता लौट आए। वे राजनीतिक हत्याओं और हिंसा के विरोधी थे। उन्होंने एक वक्तव्य देते हुए इस बात की पुष्टि की। इस वक्तव्य से ब्रिटिश गवर्नमेण्ट बहुत प्रभावित हुई। उन्होंने एक बार फिर समझौते की चर्चा आरम्भ करनी चाही देशबन्धु को विश्वास हो चला था कि सचमुच ब्रिटिश गवर्नमेण्ट का हृदय परिवर्तन हो रहा है। लेकिन इस बात से उनके साथी और उनके शिष्य बहुत रुष्ट हो चुके थे। इतने कि उन्होंने आक्षेप किया कि दास बाबू प्राविंशियल एटानामी स्वीकार करके गवर्नर बनने के लोभ में फंस गए है। लेकिन शरत्चन्द्र संकट के इस क्षण में भी उनके पीछे खड़े रहे। दास बाबू ने एक दिन उनसे कहा था, “शरत् बाबू समझौते करना जिसने नहीं सीखा, जान पड़ता है, इस दुनिया में उसने कुछ नहीं सीखा। अनुदार दल की सरकार दुनिया में सबसे बढ़कर बेरहम सरकार है। पृथ्वी पर ऐसा कोई अनाचार नहीं, जिसे ये लोग नहीं कर सकते। पर समझौता और मिटमाट कर लेने में भी जान पड़ता है कि ऐसा मित्र और कोई नहीं है।"
यह विश्वास ही लांछन का कारण बन गया। उनका स्वास्थ्य और भी गिरने लगा। उन्होंने पटना होकर दार्जिलिंग जाने का निश्चय किया। उस समय' शरत् बाबू उनसे मिलने के लिए स्टेशन पर आए थे। शचिनन्दन ने लिखा है- “अपने इस मित्र से अपने मन की व्यथा प्रकट करते हुए दास बाबू ने कहा, 'शरत्बाबू, मैं माडरेट हो गया हूं। मैं गवर्नर होना चाहता हूं। बंगाल ने अन्त में मेरे बारे में यही धारणा बनाई है।"
“शरत् बाबू चुपचाप अपने दोनों हाथों में देशबन्धु के दोनों क्षीण कर पल्लव पकडे रहे। फिर धीरे-धीरे मानो अपने प्राणों का समस्त आदर उड़ेलते हुए बोले, 'दुखी न होइए।
दुखी होकर भविष्य में देश के प्रायश्चित्त करने के मार्ग को ही अवरुद्ध न कर दीजिए। समग्र देश के लिए, सारी जाति के लिए इस दुख को संचित किए रखिए। सोच लीजिए, सीता को भी अग्निपरीक्षा देनी पड़ी थी। जो असाधारण हैं वे ही यदि तुच्छ को ताच्छिल्य नहीं कर सकते तो जो स्वयं तुच्छ है उनकी तुच्छता कैसे दूर होगी? इस दुख को आप ग्रहण न कीजिए। हम सबके लिए रखे रहिए ।'
परन्तु देशबन्धु का मन टूट चुका था। अवरुद्ध कष्ट से वे बोले, “मां, अब और नहीं सहा जाता। इस बार तुम मुझको स्वीकार करो।'
“शरत्चन्द्र बैठे-बैठे, उनके हाथ की दस उंगलियों को अपने हाथ की दस उंगलियों में लिए चुपचाप समस्त श्रद्धा और विश्वास और सम्बेदना उंडेलते रहे। कई क्षण बाद फिर बोले, 'आप स्वस्थ होकर दार्जिलिंग से लौट आइए, सब ठीक हो जाएगा। आप सर्वत्यागी है, अभ्रान्त हैं, अग्निशुद्ध हैं, आप ही देश के नेता हैं। देश आपका है। किसी ऐरे-गेरे, नत्थू- खैरे का नहीं। "
लेकिन देशबन्धु स्वस्थ नहीं हो सके। कुछ दिन बाद ही दार्जिलिंग में उनका देहांत हो गया।' 2 सारे देश में क्रन्दन फूट पड़ा। बंगाल में जैसें तूफान आ गया। उनके कट्टर विरोधी श्री श्यामसुन्दर चक्रवर्ती ने अत्यन्त मार्मिक शब्दों में लिखा, “ओ बंगाल, यदि तेरे पास आंसू हैं तो उन्हें आज बहा दे ।” श्मशान घाट में हुई शोकसभा के एक मात्र वक्ता महात्मा गान्धी भी एक स्थान पर फूट-फूटकर रो उठे थे।
शरतचन्द्र की विकलता का पार नहीं था। आरामकुर्सी पर लेटे-लेटे शोक के आवेग से वे हांफने लगे। रोते-रोते बोले, सब कुछ समाप्त हो गया। हमने ही तो उन्हें समाप्त कर दिया। इतनी मार क्या कोई सह सकता है?"
श्मशान भूमि में अपार भीड़ देखकर उन्होंने कहा, “यदि ये लोग उनके जीवनकाल में जरा भी उनके अनुकूल होते तो शायद उनकी अकाल मृत्यु न होती। बाउल कवि गोविन्ददास ने ठीक ही कहा है, 'ओ भाई बंगवासी, मेरे मरने पर मेरी चिता पर तुम मठ बनवा दोगे।”
कई दिन तक उनकी ऐसी ही अवस्था रही। उत्तेजना से उठकर बैठ जाते और जोश में कहने लगते, “अजी हमारा अपराध क्षमा करो। हम तुम्हारा विश्वास करते हैं। हम तुमको चाहते हैं। हम केवल तुम्हारे हैं।..... उन्होंने इस बात का बदला लिया, उनको हमने रूलाया, उन्होंने हमें रूलाया। सूद और असल सब वसूल कर लिया। अच्छा किया, वे हमारे योग्य नहीं थे।"
उन्होंने देशबन्धु के संबंध में एक अत्यन्त मार्मिक संस्मरणात्मक लेख लिखा। सुदूर मांडले जेल में बैठे हुए देशबन्धु दास के परम शिष्य सुभाषचन्द्र बोस ने उस 'स्मृति कथा' को तीन बार पढ़ा और उन्हें एक लम्बा पत्र लिखते हुए कहा, मनुष्य चरित्र को पहचानने में आपकी अद्भुत दृष्टि हे। देशबन्धु के साथ अपने घनिष्ठ परिचय और आत्मीयता एवं छोटी-छोटी घटनाओं का विलेषण करके आपमें रस और सत्य का उद्धार करने की क्षमता है। ऐसा करके ही आपने कितना सुन्दर लेख लिखा है।"
देशबन्धु और शरत्चन्द्र के संबंध सचमुच निराले थे। देशबन्धु उनके प्रति इतनी श्रद्धा रखते थे कि कई बार परामर्श करने के लिए उनके धर चले जाते थे। एक बार एक सभा के बाद गाड़ी के भीतर शरत् बाबू से उन्होंने पूछा था, बहुत-से लोग मुझे सलाह देते है कि फिर बैरिस्टरी करके देश के लिए रुपये कमाऊं। आप क्या कहते हैं?"
शरत् बाबू ने कहा, ना। रुपयों के काम का अन्त है, किन्तु इस आदर्श का कोई अन्त नहीं है। आपका त्याग सदैव हमारी जातीय सम्पत्ति बनकर रहे। यह हमारे लिए असंख्य रुपयों से भी कहीं बड़ा है।"
उन दोनों की चिन्तनधारा में अद्भुत समानता थी। इसीलिए दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते थे। जमाने समाने हाये प्रणयेर विनिमय' ।