गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने का आग्रह करती रहती थी। इसीलिए इस अवधि में और इसके बाद भी मौलिक सृजन की दृष्टि से लिखना अ विशेष नहीं हुआ। पुराना उत्साह फिर लौटकर ही नहीं आया। 'भारतवर्ष' के सम्पादक जलधर सेन भी यहां उतनी आसानी से नहीं आ सकते थे, जितनी आसानी से शिवपुर में चिट्ठियां शरत् बाबू को बहुत परेशान नहीं करती थीं। इसलिए इस काल में कुछ छोटी-मोटी कहानियों के अतिरिक्त तीन उपन्यास ही वे पूरे कर सके । 'श्रीकान्त' तीसरा और चौथा - पर्व तथा शेष प्रश्न' ।
'शेष प्रश्न' भी शेष रचनाओं की तरह नियमित रूप से नहीं लिखा जा सका। लगभग चार वर्ष तक वह अनियमित रूप से छपता रहा। बहुत कड़ा तगादा आने पर एक बार उन्होंने उत्तर दिया-
"मेरे लिखने के बारे में यह जो त्रुटि है इसे आप पन्द्रह वर्ष से देखते आ रहे हैं.... इसी तरह अन्त में एक दिन यह पुस्तक पूरी हो जाएगी।
दो और नये उपन्यास उन्होंने इसी काल में शरू किए- 'विप्रदास' और 'शेषेर परिचय' । इनमें 'शेषेर परिचय' एक महत्त्वपूर्ण रचना थी, परन्तु दुर्भाग्य से 'जागरण' की तरह यह भी कभी पूरी नहीं हो सकी। इस समय के उनके दो लेख बहुत प्रसिद्ध हुए, 'साहित्य की रीति और नीति ' तथा 'तरुणों का विद्रोह । षोडशी - और रमा ये दो नाटक भी उन्होंने इसी काल में अपने दो उपन्यासों देना - पावना' और पल्ली समाज' के आधार पर तैयार किए।
इसी समय उनकी प्रसिद्ध कहानी 'बिन्दो का लल्ला' का अंग्रेजी अनुवाद 'माडर्न रिव्यू' में प्रकाशित हुआ। डा० कानाई गांगुली ने 'श्रीकान्त' (प्रथम पर्व) का अनुवाद इटालवी भाषा में किया। बिन्दो का लल्ला का अनुवाद श्री रामानन्द चट्टोपाध्याय के पुत्र श्री अशोक चट्टोपाध्याय ने किया था। वे शरत् बाबू के पास आया करते थे। एक दिन अच्छे अनुवादों की चर्चा चल रही थी कि शरत् बाबू ने अशोक से पूछा, "क्या तुम बिना कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन किए मेरी किसी रचना का अनुवाद कर सकते हो?”
अशोक तुरन्त तैयार हो गए और उसी के परिणामस्वरूप बिन्दी का लल्ला' का अनुवाद 'माडर्न रिव्यू' में प्रकाशित हुआ। इस काल की रचनाओं में 'शेष प्रश्न' कई कारणों से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। दिलीपकुमार को एक पत्र लिखते हुए उन्होंने इस उपन्यास की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला है-
मण्टू !
'शेष प्रश्न' पढ़कर तुम खुश हुए हो, यह जानकर बड़ा आनन्द हुआ। क्योंकि खुश होना तो तुम लोगों का नियम नहीं है। 'प्रवर्तक संघ' ने इस साल अक्षय तृतीया पर मुझे फिर नहीं बुलाया। उन्होंने अनुरोध किया था कि इस पुस्तक में अन्त की ओर आश्रम का जयगान करूं। लेकिन स्पष्ट है कि मुझसे वह नहीं हो सका। 'शेष प्रश्न' में आधुनिक साहित्य कैसा होना चाहिए इसी का कुछ आभास देने की चेष्टा की है। 'खूब गर्जन करूंगा, गर्जन करके गन्दी बातें लिखूंगा' यही मनोभाव अति आधुनिक साहित्य का केन्द्रीय आधार नहीं है। इसीका थोड़ा-सा नमूना-भर दिया है। लेकिन बूढ़ा हो गया हूं। शक्ति, सामर्थ्य पश्चिम की ओर ढल गए हैं अब तुम्हीं लोगों पर इसका दायित्व रहा।.
...... अच्छा, यह तो बताओ कि क्या श्रीअरविन्द बंगला पड़ लेते हैं? 'शेष प्रश्न' देने पर क्या क्रुद्ध होंगे? जानता हूं इन चीजों को पढ़ने के लिए उनके पास समय नहीं है। पढ़ने के लिए कहा जाए तो क्या अपमान समझेंगे? 'प्रवर्तक संघ' क्रुद्ध हो गया है, यही देखकर डर लगता हे। नहीं तो उनके जैसे गम्भीर पंडित की राय जानने से मेरी रचना की धारा शायद कोई दूसरा रास्ता ढूंढती। उपन्यास के माध्यम से मनुष्य को बहुतेरी बातें सुनने के लिए बाध्य किया जा सकता है, इस बात को क्या श्री अरविन्द स्वीकार नहीं करते? जिसे हलका (रोचक) साहित्य कहते हैं, उसके प्रति क्या वे अत्यन्त उदासीन हैं?..
इसके प्रकाशित होते ही उन पर चारों ओर से तीव्र आक्रमण होने लगे। किसी ने कहा, शरतचन्द्र मूर्ख है। किसी ने कहा, 'शेष प्रश्न' क्या सचमुच कोई प्रश्न है? किसी ने उसे 'शेषेर कविता' का अनुकरण बताया तो किसी ने 'शेषेर कविता' की व्यंगोक्ति। एक आलोचक ने लिखा, "यह गोरा साहब का लड़का है, इसीलिए कमल का चरित्र गोरा की नकल के सिवाय और कुछ नहीं है"
उन लोगों की भी कमी नहीं थी, जो मानते थे कि ऐसी रचनाएं प्रकाशित होती रहीं तो हिन्दू समाज जीवित नहीं रह सकेगा। पत्रों में उनके विरुद्ध लेख ही नहीं निकले, कार्टून भी छपे। आक्रमण की जैसे बाढ़ सी आ गई लेकिन बंगाल की नारी ने 'शेष प्रश्न' को अन्तर्मन से स्वीकार किया।
सुमन्द भवन की श्रीमती सेन ने 'शेष प्रश्न' की आलोचना को लेकर एक विस्तृत पत्र उन्हें लिखा। वे शरत बाबू की प्रशंसक थीं और उनकी कटु आलोचनाओं से बहुत खिन्न हो उठी थीं। उनके पत्र का विस्तार से उत्तर देते हुए शरत बाबू ने लिखा- "हां, 'शेष प्रश्न' को लेकर आन्दोलन की लहर मेरे कानों तक आई है। कम से कम जो अत्यन्त तीव्र और कटु हैं। वे कहीं संयोगवश मेरी आखों और कानों में पड़ने से ग्ड न जाएं इसकी ओर मेरे जो अत्यन्त शुभचिंतक हैं, उनकी तेज़ नज़र है। ऐसे लेखों को बडे यत्न से संग्रह करके लाल, नीली, हरी, बैंगनी अनेक रंगों की पेंसिलों से निशान लगा लगाकर उन्होंने डाक द्वारा महसूल देकर बड़ी सावधानी से भेज दिया है और बाद को अलग चिट्ठी लिखकर खबर दी है कि मुझ तक पहुंचे या नहीं। उन का आग्रह, क्रोध और सम्वेदन हृदय को स्पर्श करता है।
"खुद तुमने अखबार तो नहीं भेजे किन्तु क्रोध तुम्हें भी कम नहीं आया। समालोचक के चरित्र, रुचि यहां तक कि पारिवारिक संबंध पर भी तुमने कटाक्ष किया है। एक बार भी सोचकर नहीं देखा कि कड़ी बात कह सकना ही संसार में कठिन काम नहीं है। मनुष्य का अपमान करने से अपनी मर्यादा को ही सबसे अधिक चोट पहुंचती है। जौ लोग जीवन में यह भूल जाते हैं वे एक बड़ी बात भूल जाते हैं। इसके सिवाय ऐसा भी तो हो सकता है कि 'पथेर दाबी' और 'शेष प्रश्न' उनको सचमुच ही बुरे लगे हों। दुनिया में सभी पुस्तकें सभी के लिए नहीं हैं। कोई ऐसा बंधा हुआ नियम नहीं है कि वे सभी को अच्छी लगें और सभी प्रशंसा करें। हां, बात प्रकट करने का ढंग अच्छा नहीं बन पडा, यह मैं मानता हूं। भाषा अकारण ही रूढ़ और हिंस्त्र हो उठी है, किन्तु यही तो रचनाशैली की बडी साधना है। मन के भीतर क्षोभ और उत्तेजना का यथेष्ट कारण रहने पर भी भले आदमी को असंयत भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए; यह बात बड़े दुख उठाकर मन में बैठानी होती है। अपनी चिट्ठी में तुमने यह भूल उनसे भी अधिक की है। इतनी बड़ी आत्म- अवमानना और नहीं है।
भाव या ढंग से जान पड़ता है, तुमकी कालिज छोड़े अभी थोड़े ही दिन हुए हैं। तुमने लिखा है, कि तुम्हारी सखियों के मन का भी यही भाव है। यदि है तो दुख की बात है। यह मेरा लेख यदि तुम्हारे हाथ में पड़े तो उनको दिखाना । शील स्त्रियों का बड़ा आभूषण है। यह अपनी सम्पत्ति किसी के लिए, किसी बात के लिए भी नहीं छोड़नी चाहिए।
"तुमने जानना चाहा है कि मैं इन बातों का जवाब क्यों नहीं देता? इसका उत्तर यह है कि मेरा जी नहीं चाहता। क्योंकि यह मेरा काम नहीं है। आत्मरक्षा के बहाने मनुष्य का असम्मान करना मुझसे नहीं होता। देखो न, लोग कहते हैं कि मैं पतिताओं का समर्थन करता हूं। समर्थन मैं नहीं करता केवल उनका अपमान करने को ही मेरा मन नहीं चाहता। मैं कहता हूं कि वे भी मनुष्य हैं। उन्हें भी फरियाद करने का अधिकार है और महाकाल के दरबार में इसका विचार एक दिन अवश्य होगा । अथच संस्कारों से अंधे हो रहे लोग इस बात को किसी तरह स्वीकार करना नहीं चाहते । किन्तु यह मेरी निहायत व्यक्तिगत बातें हैं, और नहीं कहूंगा।
तुमने संकोच के साथ प्रश्न किया है-बहुत लोग कहते हैं कि आपने 'शेष प्रश्न' में एक विशेष मतवाद का प्रचार करने की चेष्टा की है। क्या यह सत्य है?
"सत्य है या नहीं, मैं नहीं कहूंगा। किन्तु 'प्रचार किया है, बुरा किया' कहकर शोर मचा देने से ही जो लोग लज्जा से सिर नीचा कर लेते हैं और नहीं नहीं कहकर ऊंचे स्वर से प्रतिवाद करने लगते हैं, उनमें मैं नहीं हूं। अथच उलटे यदि में ही छ कि भला इसमें इतना बड़ा अपराध हुआ क्या? तो मेरा विश्वास है कि वादी प्रतिवादी कोई भी उसका सुनिश्चित उत्तर न दे पाएगा।..... उनसे यह बात नहीं कही जा सकती कि जगत का जो चिरस्मरणीय काव्य और साहित्य है, उसमें भी किसी न किसी रूप में यह चीज है । 'रामायण' में है, 'महाभारत' में है, कालिदास के काव्यग्रंथों में है, बंकिम के 'आनन्द मठ' और देवी चौधरानी' में है। इकन, मेटरलिंक, टाल्स्टाय में है......। किन्त इससे क्या ? कला-कला के लिए' नारा यहां पश्चिम से आया है। यह सब उनके नखाग्र में है। कहते हैं कहानी का कहानीपन ही मिट्टी है। कारण, इसमें चित्त का रंजन जो नहीं हुआ है। अरे भाई किसका चित्तरंजन ? मेरा, गांव में मुखिया कौन है, मैं और मेरा मामा ।
तुमने चित्तरंजन' शब्द को लेकर बहुत कुछ लिखा है, किन्तु यह एक बार भी सोचकर नहीं देखा कि इसमें दो शब्द हैं। केवल 'रंजन' नहीं, 'चित्त' नाम की भी एक चीज़ है और वह चीज़ बदलती है । चित्तपुर के दफ्तरी खाने में गुलबकावली' की जगह है। उस तरफ वह चित्तरंजन का दावा रखती है। किन्तु उस दावे के जोर से बर्नार्ड शा को गाली देने का अधिकार तो नहीं मिल आता।
"अन्त में तुमसे एक बात कहता हूं समाज-संस्कार की कोई दुरभिसंधि मेरी नहीं है। इसी से इस पुस्तक के भीतर मनुष्य के दुख और वेदना का विवरण है। समस्या भी शायद है, किन्तु समाधान नहीं। यह काम दूसरों का है। मैं केवल कहानी लेखक हूं। इसके सिवा और कुछ नहीं ।"
राधारानी देवी को लिखा- " 'शेष प्रश्न' तुमकी अच्छा लगा हे, सुनकर बहुत आनन्द हुआ। सोचता था कि जिनको यह पुस्तक अच्छी लगेगी ऐसे व्यक्ति शायद बंगाल में नहीं मिलेंगे। केवल गाली-गलौज ही भाग्य में होगी। किन्तु देखता हूं भय का इतना बड़ा कारण नहीं है। रेगिस्तान मैं भी बीच-बीच में नखलिस्तान मिलते हैं। कई पत्र पड़े। एक नारी ने लिखा है कि उनके पास यदि यथेष्ट धन होता तो इस पुस्तक को विना मूल्य बाइबिल के समान वितरण करतीं। एक तरफ तो यह बात है, दूसरी तरफ अभी सब छिपा हुआ है। शुरू होने पर उसका पता लगेगा। अति आधुनिक आवारा साहित्य कैसा होना चाहिए, इसका ही उसमें थोड़ा-सा इशारा है बूढ़ा हो गया हूं। शक्ति सामर्थ पश्चिम कई ओर दूबने का इशारा दिन-रात अपने अन्दर अनुभव करता हूं। इस समय शक्तिमान जो नये साहित्यिक हैं उनके लिए केवल इतना ही कह दिया है। अब यह उनका ही काम है- फूलें- फलें। शोगा-सम्पदा को बड़ा करना यह अब उन्ही का दायित्व है। भाषा पर मेरा सदा ही क्य अधिकार रह है। शब्द-सम्पदा कितनी साधारण है, यह संवाद किसी और से भले छिपा हो पर तुम लोगों से ष्ण नहीं है। साथ ही कहने से बहुत-सी बातें रह गईं। समय न बीत जाए, इसलिए 'शेष प्रश्न में कुछ कहने तई चेष्टा की है।.
भूपेन्द्रकिशोर रक्षित राय को लिखा- 'शेष प्रश्न' उपन्यास तुमकी इतना अच्छा लगा है, जानकर की हुई। इसमें बहुत-से सामाजिक प्रश्नों की आलोचना है, पर समाधान का भार तुम लोगों पर है। भविष्य की इस कठिन जिम्मेदारी की सम्भावना ने शायद तुम लोगों को आनन्द दिया है, मगर मेरी धारणा है कि यह किताब बहुतों को निराश करेगी। उन्हें किसी भी तरह का आनन्द नहीं मिलेगा। एक तो गल्पांज्ञ बहुत कम हैं। बड़ी तेजी से समय काटना या नींद की खुराक की तरह निश्चित हो आराम से अधमुंदी आखों से आनन्दानुभव करना नहीं हो सका है। इसके अच्छे लगने की बात नहीं। फिर भी यह सोचकर लिखा था कि कुछ लोग समझेंगे और मेरा काम इसी से चल जाएगा। सभी प्रकार के रस सभी के लिए नहीं हो । अधिकारी भेद को मैं मानता हूं।
'और एक बात याद थी कि वह अति आधुनिक साहित्य हे सोचा था, इस दिशा में एक संकेत छोड जाऊंगा । बूढ़ा हो गया हूं लिखने की शक्ति असंगत प्राय: है । फिर भी सोचता हूं कि आगामी कल के तुम लोगों को शायद इसका आभास मिल जाएगा कि गंदा किए बगैर अच्छा साहित्य भी लिखा जा सकता है। केवल कोमल पेलव रसानुभूति ही नहीं, बुद्धि के लिए बलकारक भोजन उपलब्ध करना भी अति आधुनिक साहित्य का एक बड़ा काम है। इसके बाद तुम लोग जब लिखोगे तो तुम्हें भी बहुत पढ़ना पड़ेगा, बहुत सोचना पड़ेगा। केवल मनोरंजन के हल्के बोझ को देने से ही छुटकारा नहीं मिलेगा।
ये सब लोग भरत बाबू के भक्त और प्रशंसक थे। उन्हें यह रचना पसन्द आई, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं । परन्तु प्रसिद्ध क्रान्तिकारी मानवेन्द्रनाथ राय ने भी इसे जेल में पढ़ा और वे इससे बहुत प्रभावित हुए, यह अवश्य आश्चर्य की बात है। उन्होंने लिखा-
"शेष प्रश्त की तुलना इस युग में सिंक्तलेयर लीविस की पुस्तकों से नहीं हो सकती। किन्तु अनतोले फ्रांस, ज़ोला और इब्सन से इसकी अच्छी तरह तुलना हो सकती है। इसका अभी तक किसी भी विदेशी भाषा में अनुवाद नहीं हुआ । इस पुस्तक का मध्य बिन्दु एक लड़की है, जो सचमुच एक दायोनिमस है। किस प्रकार वह युगान्ता से आदृत सारे बुतों, रिवाजों तथा परम्परा को कुचल देती है और रवीन्द्रनाथ तथा गाँधी के धार्मिक रूप से अनुसरण करनेवाले नौजवान भारत को सबक देती है। जो कुछ भी हो, जो भी शरत् बाबू की दायोनिसीय लड़की को पश्चिम में परिचित करा देगा वह एक भारतीय को फिर से नोबल पुरस्कार दिलाने का मार्ग प्रशस्त कर देगा। विश्वास करो, रवि बाबू मे शरत् बाबू नोबल पुरस्कार के लिए कम हकदार नहीं हैं। वैयक्तिक रूप में मैं 'शेष प्रश्न' को गीताजलि' से बढ़कर समझता हूं। हो सकता है, उच्च साहित्य को कूतने की मेरी योग्यता संदिग्ध हो, किन्तु यह रुचि की बात है। 'शेष प्रश्न' भारतीय पुनर्जीवन की एक क्रोश शिला है। इसने बंगाली रोमांसवाद तथा रहस्यवादी भावाविलता से ग्रस्त तथा स्थिर वातावरण को दूर कर दिया। शरत् बाबू छई अन्य रचनाओं की पात्रियां मुनमुनाती थी, यहां तक कि विद्रोह भी कर बैठती थी, किन्तु अन्त में खुशी से वे सिर झुका देती थी। शरत् बाबू के लिए दो रास्ते थे एक तो यह कि ते निष्ठुर प्रतिक्रिया की और जाकर नबी पहली पात्रियो का गला घाट देते, किन्तु नहीं, उन्होंने दूसरे रास्ते का अपनाया। वे क्रमश: आगे बढ़ते गए और अन्त में चलकर उन्होंने 'दायोनिसीय' कन्या की सृष्टि की। जिसके हाथ में विद्रोह का नहीं, बल्कि क्रान्ति का झण्डा है। हां, यह कृति भी आद वादी है। देश की वर्तमान अवस्था में ऐसा होना अनिवार्य है, किन्तु यह आदर्शवादिता 'कला कला के लिए' दृष्टिकोण से ही है और यह दृष्टिकोण आदर्शवाद का निकृष्टतम रूप है। '
राय महोदय ने ठीक ही लिखा है कि कमल शरत् के नारी पात्रों के क्रमागत विकास की चरम परिणति है। सर्वबन्धन- विमुक्त भारतीय नारी का वह प्रतीक है। यद्यपि वह नारी अभी तक मानसिक ही है, हाड़-मास की नहीं, फिर भी इस पात्र के माध्यम से शरत् बाबू ने नवयुग की झलक का संकेत किया है। 'शेष प्रश्न वही प्रभाव पैदा करने के लिए उन्होंने लिखा था। चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने स्पष्ट कहा था, मेरा कहना है, प्राचीन वस्तुओं को लेकर गर्व करने से बात नहीं बनेगी। नूतन गढ़ डालो । जाति के संबंध में वही है । जाति यदि नहीं रहती तो उससे क्या आता-जाता है। इस प्रकार के लड़के मिलते है जिनके पास वंश परिचय देने को कुछ नहीं है। वे अपने बल पर बड़े हुए हैं सफल हुए हैं। मेरा तात्पर्य भी वही है । मेरी एक पुस्तक अधूरी पड़ी है। शेष प्रश्न । उसमें इसी संबंध में चर्चा की है। आजकल जो कुछ चल रहा है, उसमें उसके बहुत-से पहलुओं पर कटाक्ष किया गया है। पुस्तक अभी तक समाप्त नहीं हुई। लगता है दो-चार दिनों में समाप्त होगी।"
एक और स्थान पर उन्होंने लिखा अन्त तक चलकर ' शेष प्रश्न' में मैं शायद बहुतों को व्यथित करूंगा। फिर भी जो कुछ ठीक है, उसे कहना जरूरी है। इसके बाद जो होगा देखा जाएगा।
'शेष प्रश्न' का विरोध वयोवृद्ध या पुराने विचार के लोगों ने ही नहीं किया, नये लेखकों ने भी इसकी कटु आलोचना की । अन्नदाशंकर राय और प्रबोधकुमार सान्याल दोनों ही शरत् बाबू के प्रशंसक थे। पर 'शेष प्रश्न ! पढ़कर वे निराश हुए। प्रबोधकुमार ने सुदेश' में लिखा, 'शरत् बाबू आधुनिक विचार और बुद्धि से बिलकुल परिचित नहीं हैं। प्रगति और मुक्ति का ना समर्थन झूठा है।
'कुछ और लोगों ने कहा कि वह तर्कजाल मात्र है। कथा अंश नाममात्र को है । चरित्र बहुत हैं, पर वे सभी रक्त-मांस-हीन हैं। इसमें न साहित्य है और न रस- सौन्दर्य, न भाव - सौष्ठव है। है केवल विकृत यौनभाव-संस्कार। सब कुछ लेखक ही कह डालना चाहता है। पात्रों के प्राणों की वह पुकार इसमें कहां सुनाई देती है जो 'चरित्रहीन' आदि में है?
इस कटु आलोचना के कारण नये लेखकों से उनके संबंध कुछ खिंच से गए। लेकिन इसमे सन्देह नहीं कि ये आरोप आधारहीन थे। ' शेष प्रश्न' की सबसे बड़ी दुर्बलता यही है कि वह एक विचार-बहुल सायास लेखन है, सहज नहीं । परन्तु तार्किक क्या चुप रह सकता है? अपना स्वर और भी ऊंचा करके वह कह सकता है, "महाशय, यह सब उनके समूचे साहित्य को दृष्टि में रखकर तुलनात्मक दृष्टि से ही कहा जा रहा है। अगर उन्होंने केवलमात्र 'शेष प्रश्न' ही लिखा होता तो क्या तब भी उनकी ऐसी ही आलोचना होती? क्या वे एक क्रातिकारी लेखक के रूप में रातों-रात प्रसिद्ध नहीं हो जाते?'
तर्क का अन्त नहीं है, लेकिन सब कुछ कहने के बाद यह तो मानना ही पड़ेगा कि ' शेष प्रश्न' का अध्ययन उनके विकास और उनकी क्षमता के आधार पर होना चाहिए। उन्होंने अपने मित्र कुमुदिनीकांत कर से कहा था, "दस वर्ष बाद बंगाल के घर-घर में कमल जैसी नारियां पैदा हो जाएंगी।
'शेष प्रश्न' एक क्रांतिकारी रचना है या नहीं, इस पर विवाद हो सकता है, लेकिन आश्चर्य यह है कि एक ओर तो शरत् बाबू इस प्रकार की विवादग्रस्त रचनाएं करते थे, दूसरी ओर लगभग उसी अवधि में ऐसी रचनाएं भी उन्होंने कीं जो यथास्थितिवादी विचारधारा का समर्थन करती हैं।' शेष प्रश्न ' के प्रकाशित होने से पूर्व ही उन्होंने एक और उपन्यास हाथ में लिया था, जो विप्रदास' के नाम से प्रकाशित हुआ। शेष प्रश्न में प्राचीन आचार और विचार का जितना विरोध हुआ है, विप्रदास ' उतना ही आचार और संस्कारनिष्ठ है। एक ही का में एक ही लेखक ने ऐसी परस्पर विरोधी विचारधारा - प्रधान रचनाएं कीं, यह बात बहुतों की समझ में नहीं आएगी। ऐसा लाता है कि लोग शंष प्रश्न' की ध्वंसमूलक नीति को उनके जीवन र्की चरम अनुभूति मानने की भूल न करे, इसीलिए उन्होंने साथ-साथ ही 'विप्रदास' के समान समाजनिष्ठ रचना की सृष्टि की। प्रकट रूप में शरतचन्द्र अपने साहित्य में एक वैज्ञानिक की दृष्टि से समाज की त्रुटियों को देखते थे, समाज संरकार की दृष्टि से नहीं। इसी कारण किसी विशेष मतवाद के प्रति उनका पक्षपात नहीं मालूम होता। ऐसा वे चाहते भी नहीं थे। वे मात्र अन्याय के विरोधी थे। बहुत वर्ष पूर्व जब उन्होंने चरित्रहीन ' का सृजन किया था तब उसके संबंध में उन्होंने अपने एक मित्र को लिखा था' 10 लोगों की जैसी इच्छा हो मेरे संबंध में सोचें। किन्तु 'यमुना' के संपादक यह विश्वास करते हैं कि 'चरित्रहीन' द्वारा ही उनके पत्र ई श्रीवृद्धि होगी और अनैतिक नैतिक जो हो लोग खूब आग्रह से उसे पढ़ेंगे। तब उन्हें जो अच्छा लगे करें। फिर भी एक उपाय करना होगा राम की सुमति' के समान सरल-स्पष्ट कहानी साथ-साथ ही लिखकर 'चरित्रहीन' के प्रभाव को कुछ हल्का करना होगा।
इसलिए यह बात समझ में आ जाती हे कि 'शेष प्रश्न' के प्रभाव को हलका करने के लिए ही उन्होंने 'विप्रदास' में की रचना की । विप्रदास' का नामकरण उन्होंने अपने सगे मामा के नाम पर किया। उन्होंने विप्रदास को जैसे वे अपने जीवन में थे ठीक उसी रूप में चित्रित किया है। वे स्वधर्मपरायण, आचारनिष्ठ, गुरु और देवताओं में भक्ति रखनेवाले थे। और तीनों समय संध्या, आहिक और पूजा-पाठ के बिना पानी तक नहीं पीते थे। वे उसी वस्तु को खाने योग्य समझते थे जो देवता के भोग के काम आती है। अखाद्य वे नहीं खाते थे। धर्म का अर्थ उनके लिए केवल सनातन हिन्दू धर्म था और यात्रा का अर्थ था तीर्थयात्रा । संस्कृत भाषा और साहित्य से उन्हें परम अनुराग था । कालिज में प्रवेश करने से पहले ही उन्होंने जटिल संस्कृत व्याकरण को अच्छी तरह बस में कर लिया था। अपने इन धर्मनिष्ठ मामा को शरत् अपनी पुस्तकें भेंट करते हुए भी डरते थे। जगद्धात्री पूजा के अवसर पर वे प्रतिवर्ष भागलपुर जाते थे। उस बार गए तो सहसा मामा विप्रदास से भेंट हो गई। उन्हें देखकर वे प्रणाम करने के लिए आगे बड़े । लेकिन जैसे ही वे आगे बड़े मामा पीछे हट गए । बोले, "बस-बस, रहने दे। काफी हो गया। अब और प्रणाम करने की आवश्यकता नहीं।
जो व्यक्ति उस समय वहां उपस्थित थे वे चकित हो आए, लेकिन मामा के चले जाने पर शरत् बाबू ने उनसे कहा, 'कुछ दिन पहले मामा ने मुझसे मेरी पुस्तकें मांगी थीं। भला इन नीतिवागीश मामा को मैं अपनी चरित्रहीन' जैसी पुस्तके कैसे दे सकता हूं। इसीलिए तो यह क्रोध है, प्रणाम तक नहीं लिया। '
विप्रदास' को लेकर कई अपवाद प्रचलित हो गए थे, इनमें एक यह था कि इसकी रचना उन्होंने अधिकारियों के कहने पर की थी। परन्तु यह सत्य नहीं हो सकता। वे कुछ भी कर सकते थे, पर छोटा काम उन्होंने कभी नहीं किया। कलाकार किसी के आदेश पर लिखे इससे 'छोटा काम' और क्या हो सकता है? परन्तु जाने दें ये बातें। कला की दृष्टि से भी इस पुस्तक के संबंध में बहुत मतभेद हैं। 'स्वदेशी ' के जिस टंकार से यह आरम्भ होती है, वह टंकार शीघ्र ही सनातन विधि - निषेधों और अपरिपक्व रोमांस के रेगिस्तान में जाकर खो जाती है। ऐसा लगता है कि इस उपन्यास को लिखते समय उनके सामने मामा विप्रदास ही नहीं, नाते के दूसरे मामा मणीन्द्रनाथ और नाना केदारनाथ की मूर्ति भी रही थी। किसी से उन्होंने कहा भी था कि विप्रदास में मैंने मणि मामा का ऋणशोध किया है। उनके नाना केदारनाथ भी घोर आदर्शवादी और हिन्दू धर्म के प्रति एकान्त अनुरक्त तथा आस्थावान थे।
'विचित्रा' में प्रकाशित होने से पूर्व उसके कुछ अंश वेणु' में प्रकाशित हुए थे। चेणु युवकों का पत्र था। उसके संपादक भूपेन्द्रकिशोर रक्षित राय शरत् के प्रिय थे। उस पत्रिका के पीछे विप्लवी दल का समर्थन था। बार-बार उस पर सरकार की कोपदृष्टि होती थी। इसीलिए वह चल नही सका और विप्रदास का प्रकाशन भी बन्द हो गया। पुलिस ने भी उन्हें चेतावनी दे दी थी कि वेणु' में विप्रदास' अब और नही छप सकेगा ।
शरत् बाबू को इस पत्र से कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता था। उनसे इस संबंध में जब प्रश्न किया गया तो उन्होंने उत्तर दिया- वेणु' के लोग अपने देश को प्यार करते हैं, यही मेरा शल्क है। वे गरीब हैं, वे मुझे क्या देंगे? मुझे ही उन्हें देना चाहिए, लेख ही नहीं, अर्थ भी ।
तब यह कल्पना असंगत न होगी कि यदि विप्रदास' वेणु' में प्रकाशित होता रहता तो शायद उसका अन्त संस्कारनिष्ठा के जयघोष में न होता। स्वयं उन पर भी तो इन दिनों सरकार की कोपदृष्टि थी। उनकी रिवाल्वर और राइफल भी ज़ब्त हो गई थी, लेकिन उन्होंने कभी इन बातों की निन्दा नहीं की। 'वेणु' में आन्दोलन के संबंध में भी कहानियां छपती थीं।
उन्हीं का एक संग्रह भी निकला था। उसकी भूमिका स्वयं शरतचन्द्र ने लिखी थी' 13 और जैसा कि हो सकता था वह तुरन्त ज़ब्त कर लिया गया था। लेकिन ज़ब्त होने से पहले ही पुस्तक का पूरा संस्करण बिक चुका था।
जिस समय वे दोनों उपन्यास लिखे जा रहे थे, उसी काल में उन्होंने दो कहानियां भी लिखीं सती' और 'अनुराधा' पूर्ण रचना की दृष्टि से 'अनुराधा' उनकी अन्तिम रचना कही जा सकती है। जिस समय यह प्रकाशित हुई 14, उस समय अति आधुनिक साहित्यिकों के देह समर्पण करने वाले प्रेम की बाढ़ आई हुई थी । यह कहानी मानो उस प्रवृत्ति का गुप्त प्रतिवाद है। लेकिन शरत् बाबू ने इस बात को स्वीकार नहीं किया। इसकी रचना प्रक्रिया की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है मैंने किसी का प्रतिवाद करने के लिए 'अनुराधा' नहीं लिखी। इसमें नायिका अनुराधा की जो मातृमूर्ति सेवापरायणता और चरित्र के माधुर्य से नायक विजय को मुग्ध कर लेती है, और उसके कारण नायक का चित्त जिस अनुराग रंग से रंजित होता है, वह तो व्यर्थ मिथ्या नहीं है। वही तो प्रेम है। नारी चरित्र की इस विभिन्न प्रकार की रसधारा का जो शिल्पी उपभोग नहीं कर पाता अर्थात् नारी के विभिन्न रूपों को जो नहीं पहचानता, उसकी देह को ही सब कुछ मान लेता है, उसकी साहित्य- सृष्टि कभी सार्थक नहीं हो सकती। प्रेम में देह का कोई स्थान नहीं, यह बात नहीं, किन्तु उसका स्थान पेड़ मैं जड़ के समान है, मिट्टी के नीचे।.
'सती' कहानी 'अनुराधा' के कई वर्षपूर्व 15 लिखी गई थी। उसका स्वर व्यंग्यात्मक है। एकनिष्ठ प्रेम और सतीत्व ठीक एक ही वस्तु नही हैं।' यह बात साहित्य में स्थान नहीं पाती तो सत्य कहां बचेगा ? शरतचन्द्र की यह मान्यता मानो ग्ती' कहानी में मूत हुई है। इस कहानी के लिखे जाने का भी एक इतिहास है। शिवपुर वाले घर में उनके पास एक बहुत बड़ा डेस्क था। उसमें उनकी कई असमाप्त रचनाएं पड़ी थी। शरत् बाबू ने उमाप्रसाद मुकर्जी से कहा, उन्हें लाकर मेरे पास रख दो। ' उमा बाबू ने वैसा हो किया। उनमें सचमुच
अधूरी कहानियां थी। उन्हें एक कहानी की आवश्यकता थी। बार-बार वायदा करने पर भी शरत् बादू कुछ लिख नहीं पा रहे थे। उमाप्रसाद ने उन्हीं में से एक सबसे बड़ी अधूरी कहानी लेकर शरत् बाबू से कहा, इस कहानी को पूरा कर दीजिए ।
उस अधूरी कहानी को पढ़ते-पढ़ते वे जैसे शून्य में खो गए, मानो समाधिस्थ हो गए हों। कई क्षण बाद दीर्घ नि: श्वास खींचकर वे बोल, इसे मेरे पास रहने दो।
देखता हूं क्या हो सकता है।
लेकिन जब वह कहानी तैयार हुई तो उस अधूरी कहानी से उसका कोई संबंध नही था।
'श्रीकान्त' (चतुर्थ पर्व), 'विप्रदास' के प्रकाशन से पूर्व समूर्ण हो चुका था। दिलीपकुमार राय ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए एक विस्तृत निबन्ध लिखा था। उसे पढ़कर शरत् बाबू ने कहा,. ने 'श्रीकान्त' (चतुर्थ पर्व) तुम्हें इतना अच्छा लगा यह जानकर कितनी प्रसन्नता हुई बतला नहीं सक्ता। इसका कारण यह है कि इस पुस्तक को मैंने सचमुच ही बड़े यत्न से मन लगाकर हृदयवान पाठकों को अच्छा लगने के लिए ही लिखा है। तुम्हारे जैसा एक पाठक ही 'श्रीकान्त' को भाग्य से मिला है, यही मेरे लिए परम आनन्द की बात है। अब दूसरा पाठक नहीं चाहिए। कम से कम, न मिले तो दुख नहीं।"
अपनी इस रचना को वे स्वयं सर्वश्रेष्ठ मानते थे। मतभेद हो सकता है, परन्तु उनका यह सहज विश्वास था। जब कोई व्यक्ति इस संबंध में शंका व्यक्त करता तो वे कह देते, “यह बात तुम बडे होकर समझोगे ।" दिलीपकुमार को उन्होंने लिखा , “और कुछ भी अच्छा न बना हो पर कम से कम असंगत होकर उछृंखलता का स्वरूप प्रकट नहीं कर बैठा हूं......."
'श्रीकान्त' (चतुर्थ पर्व) की रचना की कहानी बहुत विचित्र है। यदि इसके पीछे किसी का आग्रह न होता तो शायद वह इसकी रचना न कर पाते। वह 'विचित्रा' में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ था। इस पत्रिका के सम्पादक थे मामा उपेन्द्रनाथ। कई वर्ष पूर्व एक दिन वे शरत्चन्द्र से एक उपन्यास मांगने के लिए आए थे। उस दिन उन्हें निराश होकर लौट जाना पड़ा था। इस मनोमालिन्य के पीछे एक पूरा इतिहास है । हावड़ा डिस्ट्रिक्ट कांग्रेस कमेटी के प्रधान होने के नाते वहां की म्युनिसिपल कमेटी के चुनाव में उनका भी एक पक्ष रहता था। ऐसे ही एक अवसर पर वे जिस पक्ष की सहायता कर रहे थे, उसके विरोध में नित्यधन मुकर्जी नाम के एक सज्जन थे। इन्हीं नित्यधन के परम मित्र थे योगीन्द्रनाथ मुकर्जी, जो उपेन्द्रनाथ के समधी थे।
इस प्रकार अनायास ही ये नातेदार दो दलों में बंट गए। ऐसे अवसरों पर उन लोगों की बन आती है, जो फूट डालने का काम किया करते हैं। इन्हीं लोगों में एक ऐसा व्यक्ति भी था, जिस पर योगीन्द्रनाथ के एहसान थे। वह शरत् बाबू के पास आकर उनके कान भरने लगा। कहता कि वह प्रतिदिन शाम को योगीन्द्रनाथ के घर पर भोजन करता है और उस समय उनकी पुत्रवधू शरत् बाबू की बड़ी निन्दा करती है।
यह पुत्रवधू उपेन्द्रनाथ की लड़की थी और शरत् की ममेरी बहन लगती थी। बार-बार यह कथा सुनते-सुनते शरत्चन्द्र का मन योगीन्द्रनाथ के परिवार के प्रति विमुख हो उठा। ऐसा होना नहीं चाहिए था, परन्तु यह बात भी सच थी कि शरत् के प्रति मामा लोगों का व्यवहार कभी सहज नहीं रहा। केवल सुरेन्द्रनाथ ही उनके मित्र थे। एक ही क्षेत्र में होने के कारण उपेन्द्रनाथ से भी मिलना-जुलना होता रहता था, पर वैसी अनुरक्ति नहीं थी, इसलिए शरत् बाबू को यह बात मानने में बहुत कठिनाई नहीं हुई कि उपेन्द्रनाथ की लड़की उनकी निन्दा कर सकती है।
पांच वर्ष बाद 18 अचानक यह रहस्य खुला कि शरत् बाबू के कान भरनेवाले सज्जन कभी भी योगिन्द्रनाथ के घर खाना खाने नहीं गए और उन्होंने शरत् बाबू से जो कुछ कहा था. वह सब झूठ था। यह जानकर उन्हें बड़ी वेदना हुई और वे उपेन्द्रनाथ से मिलने के लिए छटपटाने लगे। एक दिन सहसा उन्होंने उपेन्द्रनाथ को फोन किया। संध्या के साढ़े सात बजे थे। दफ्तर बन्द हो चुका था। केवल उपेन्द्रनाथ और परिचालक सुशीलकुमार ही दफ्तर में बैठे हुए थे। टेलीफोन की घंटी बज उठी। रिसीवर उठाकर उपेन्द्रनाथ ने कहा, "हलो!". उधर से आवाज आई, चपीन है क्या?"
स्वर परिचित था और पांच-छ: वर्ष के बाद सुनाई दिया था । उपेन्द्रनाथ ने तुरन्त कहा, 'मैं बोल रहा हूं, कैसे हो शरत्?"
“जैसा रहता हूं, वैसा ही हूं। तुम्हारे पत्र की अवस्था क्या बहुत खराब है?' "किस दृष्टि से पूछते हो?"
“आर्थिक दृष्टि से।"
वह ज़रा टेढ़ी बात है। बहुत खराब है कि नहीं, एकदम नहीं कहा जा सकता। लेकिन तब भी बहुत अच्छी नहीं है।"
"मेरा लेख मिलने पर तुम्हें सुविधा होगी?.
"होनी तो चाहिए।'
चाहते हो!'
स्वयं शरत् के मुख से यह बात सुनकर उपेन्द्रनाथ का मन एकदम उल्लास और अभिमान से भर आया। सुशील भी शरत् का नाम सुनकर उत्सुक हो उठे थे। जब उपेन्द्रनाथ ने बताया कि शरत् लेख देने के लिए कहते हैं, क्या तुम लोगे? तो उनका मुख हर्ष से खिल उठा। बोले, इसमें पूछने की क्या बात है? निश्चय ही लेंगे। '
दोनों जानते थे कि शरत् का लेख छपने पर विचित्रा' की लोकप्रियता बढ़ जाएगी। पाठक और ग्राहक दोनों ही शरत् को चाहते हैं, इसलिए व्यक्तिगत मान-अपमान का कोई प्रझ नहीं है । उपेन्द्रनाथ ने शरत् से कहा, चाहते हैं या नहीं, यह क्यों पूछो हो शरत्? मैं तो चाहने के लिए ही गया था। तुमने ही लौटा दिया था।'
इस शिकायत और अभिमान का कोई उत्तर न देकर शरत् ने कहा, 'दफ्तर में कितनी देर हो?"
"क्या तुम आ रहे हो?"
पस, बीसेक मिनट में पहुंच रहा हूं।"
लेकिन आठ मिनट बीतते न बीतते शरत् बाबू ने हंसते हुए उपेन्द्रनाथ के कमरे में प्रवेश किया। फिर तो ऐसे बातें होने लगी, जैसे कभी भी उनके बीच में झगड़ा नहीं हुआ हो किसी ने भी पुरानी बात का कभी भी संकेत नहीं किया । इसलिए शिकायत, कैफियत और माफी मांगने की कोई बात ही पैदा नहीं हुई । दो-चार मिनट इधर-उधर की बात करने पर असली बात उठी। शरत् ने पूछा, चुझसे क्या चाहते हो?"
उपेन्द्रनाथ ने कहा, 'निश्चय ही उपन्यास ।.
शरत् वाबू बोले, उपन्यास तो निश्चय ही, पर किस विषय का उपन्यास?.
उपेन्द्रनाथ इसी बीच में मन ही मन निर्णय कर चुके थे। तुरन्त बोले, "श्रीकान्त' चौथा पर्व। ' विस्मित स्वर में शरत् ने कहा, 'क्या चाहते हो? 'श्रीकान्त' चौथा पर्व; तीन पर्वों के बाद चौथा पर्व पढ़ने का धैर्य क्या पाठकों को होगा?"
उपेन्द्रनाथ बोले, निश्चय ही होगा। 'श्रीकान्त' के तीसरे पर्व के अन्त में तुमने राजलक्ष्मी को काशीधाम में सद्गुरु के हाथ में सौंपकर उसकी कहानी पर हमेशा के लिए यवनिका डाल दी। इसके बाद अब राजलक्ष्मी और श्रीकान्त को रांगामाटी से वापस लाकर फिर से कहानी आरम्भ करने से पाठकों का धैर्य खत्म हो जाएगा, यह कहना कठिन है। किन्तु जिस अभया के ज़ोरदार आमन्त्रण के कारण श्रीकान्त आग्रह के साथ रंगून जाने के लिए तैयार हुआ था, उस अभया को तुमने ऐसे ही छोड़ दिया, पुकित पल्लवित नहीं किया? लेकिन उस अवस्था में ही तुमने अभया का जो परिचय दिया है, उसके फल होकर पुष्पित होने की कहानी यदि लिखो तो निश्चय ही अपूर्व होगी। केवल विचित्रा' के पाठक ही नहीं, गौडजन भी उससे आनन्द उठायेंगे।'
सुशील ने भी इस प्रस्ताव का समर्थन किया। शरत्चन्द्र सहमत हो गये। 'विचित्रा' की अगली संख्या में यह विज्ञापन प्रकाशित हुआ कि माघ मास की संख्या से "विचित्रा' में धारावाहिक रूप से 'श्रीकान्त' का चौथा पर्व प्रकाशित होगा और उसमें अभया के सौरभ से सुगन्धित 'श्रीकान्त' के पाठकों का मन विभोर हो उठेगा।
विज्ञापन के अनुसार 'विचित्रा' में 'श्रीकान्त' का चौथा पर्व प्रकाशित होना भी शुरू हो गया लेकिन आरम्भ से ही उसमें अभया का कहीं कुछ पता नहीं लगा। कहानी आरम्भ हुई, कवि गौहर और वैष्णवी कमललता का लेकर । शरत् का मन बदल गया और अभया की कहानी हमेशा के लिए अधूरी रह गई। शायद इसलिए भी कि ये दोनों चरित्र पूर्ण रूप से काल्पनिक नहीं है। दोनों से उसका प्रत्यक्ष परिचय रहा है। अभिज्ञता के इस मोह ने ही अभया तक पहुंचने के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया। लेकिन स्वयं अभया का चरित्र भी तो काल्पनिक नहीं है। मिस्त्री की एक स्त्री से बर्मा में उनका परिचय हुआ था। पति से बुरी तरह सताई जाकर भी वह उसके जीते जी प्रेमी के पास नहीं गई। उसके मरने पर ही वे दोनों एक हो सके थे। थोड़े से परिवर्तन के साथ इस घटना के आधार पर अभया का जन्म हुआ, लेकिन यह थोड़ा-सा परिवर्तन महत्त्व की दृष्टि से कितना बड़ा है! उसने जीते-जी अत्याचारी पति को छोड़ने का साहस किया। मिस्त्री के अत्याचारों को आखों से देखकर शरत् बाबू को लगा यदि ऐसे पति को नारी छोडू देती है तो कोई पाप नहीं करती।
उनके साहित्यिक चरित्रों में हम उनके जीवन में आये वास्तविक व्यक्तियों की खोज करते हैं खोज करने पर बहुत कुछ मिल भी सकता है, पर साहित्य में आते-जाते जैसे मिस्त्री की पत्नी अभया बन गई वैसे औरों के साथ भी तो हुआ, इसलिए 'श्रीकान्त' शरत् होकर भी शरत् नहीं है। कृतिकार की जादू- भरी लेखनी का परस पाकर वह इतना परिवर्तित हो गया है कि कुछ का कुछ हो गया। अभया को लेकर पांचवां पर्व लिखने का विचार उनके मन में अब भी था। दिलीपकुमार को उन्होंने लिखा 'श्रीकान्त' का पांचवां पर्व लिखकर समाप्त कर दूंगा - अभया आदि के संबंध में। और यदि तुम लोग कहते हो कि चौथा पर्व अच्छा नहीं हुआ तो बस रथ यहीं रुका......
लेकिन चिर आलस्य के कारण दिलीपकुमार के चौथे पर्व की प्रशंसा करने पर भी रथ आगे नहीं बढ़ सका।
इन्हीं दिनो . उनके निबन्धों का संग्रह 'सुदेश और साहित्य' के नाम से प्रकाशित हुआ। पिछले अनेक वर्षों में उन्होंने जो लेख लिखे थे या भाषण दिये थे उन्हीं का यह संकलन था। इसके दो भाग थे - सुदेश' विभाग में राजनीतिक लेख थे और 'साहित्य' विभाग में वे लेख थे, जिनका संबंध साहित्य से था। यह संग्रह इसलिए अधिक उल्लेखनीय है कि इसका सर्वस्व उन्होंने आर्य पब्लिशिंग कम्पनी के स्वत्वाधिकारी श्री अश्विनीकुमार बर्मन को दान कर दिया था। अश्विनीकुमार स्वतंत्रता संग्राम के एक सेनानी थे। जेल हो आये थे। इस समय उनकी संस्था आर्थिक संकट में से गुजर रही थी। पूंजी के अभाव में लेखकों को धन देकर उनसे पुस्तकें लेना सम्भव नहीं था। उसी की सहायता करने के उद्देश्य से उन्होंने ऐसा किया। 'सुदेश और साहित्य' के अतिरिक्त 'तरुणों का विद्रोह' प्रकाशित करने का अधिकार भी उन्होंने इसी संस्था को दे दिया। इस संग्रह में चत्य और मिध्या 'प्रबन्ध भी संगृहीत है।
इन निबन्धों से यह सहज रूप से प्रमाणित हो जाता है कि भले ही उनके पास कोई सुस्पष्ट दर्शन न हो, लेकिन चिन्तनशीलता का अभाव उनमें नहीं था । प्रबन्ध के रूप में अपनी बात कहनान्हें आता था। इसी प्रकार की अनेक रचनाएं हैं जो उनकी मृत्यु के बाद संकलित हुई। उनमें सुद्रेर गाव! जैसी रम्य रचना और 'आमार आशय' जैसी रम्य कथा भी थी। ये माधुर्य-मण्डित रचनाएं उनके कवि मन का परिचय देती हैं।