शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके सामने आ उपस्थित होता था । राजनारायण बसु पति पाठागार के द्वितीय वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्षता करने के लिए वे मेदिनीपुर गये थे । वहां उनके सम्मान में हुई एक गोष्ठी में किसी ने उनसे पूछा, “अच्छा शरत् बाबू, सतीत्व ही तो नारीत्व है। आपने इन दोनों में अन्तर क्यों किया?”
शरतचन्द्र ने कहा, "इस प्रश्न के उत्तर में आपको एक कहानी सुनानी पड़ेगी। मेरे बचपन की बात है। हमारे गांव में एक बाल विधवा रहती थी। गांव के नाते से वह हमारी बड़ी बहन लगती थी। दुर्भाग्य से विवाह के थोडे ही दिन बाद उनके पति मर गए। विधवा के वेश में वे नैहर लौट आई। भाई-बहन उनके कोई था नहीं और मां बाप कितने दिन जी सकते थे? तीस-बत्तीस की उम्र होते न होते वे दोनों भी चल बसे। तब से वे उस घर में अकेली ही रहती थीं। उनका वह मिट्टी का घर चारों ओर से ऊंची दीवारों से घिरा हुआ था। आने-जाने के लिए आंगन में एक ओर एक ही दरवाजा था। शाम होते ही वह दरवाजा अन्दर से बन्द हो जाता था।
"उस गांव में एक भी ऐसा परिवार नहीं था, जहां बहन की खातिरदारी और प्यार का कोई अभाव हो। इसका कारण भी था। लोगों के रोग- शोक में खाना-पीना भूलकर वह जी- जान से उन सबकी सेवा करती थीं। उनसे ज्यादा मेहनत करने वाला कोई भी दिखाई नहीं देता था। गांव में ऐसा एक भी घर नहीं था जो उनके उपकार और सहायता के बोझ से दबा न हो।
“तब मैं लड़का ही था। तरह-तरह की शैतानी में दिन कटते थे। एक दिन मुझे एक खुराफात सूझी कि बहन को डराना चाहिए। घर में वे अकेली रहती हैं। डर दिखाने का ऐसा अच्छा मोका नही मिलेगा।
“बस तय किया कि बहन की चारदीवारी से लगा हुआ जो जामुन का पेड़ है, शाम के अंधेरे, में उसी पर चढ़कर और भूत की बोली बोलकर बहन को इस तरह डराना होगा कि वे जिन्दगी भर याद रखें।
“यथासमय चुपचाप पेड़ पर जा बैठा। वहां से बहन का घर साफ दिखाई पड़ता था । मौका देखकर नकियाकर जैसे ही बोला, वैसे ही देखा कि एक आदमी बहन की खाट से झट उतरकर उसके नीचे जा छिपा।
“इसके बाद बहन के बारे में मेरी क्या धारणा होनी चाहिए? आप कह सक्ते हैं कि बहन में सतीत्व नाम की कोई चीज नहीं है। इस बात को माने लेता हूं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इसके साथ ही उनका नारीत्व भी लुप्त हो गया। इन्सान के रोग-शोक में रात-दिन सेवा करके, दीन-दुखियों को दान देकर सारी जिन्दगी उन्होंने जिस महानता का परिचय दिया था उसका क्या कोई स्वतंत्र मूल्य निर्धारित नहीं किया जाएगा? नारी का शरीर ही सब कुछ है, उसका अन्तर क्या कुछ भी नहीं है? यह बाल विधवा जवानी की दुस्सह ताड़ना से अपनी देह को पवित्र नहीं रख पाई तो क्या उसके अन्तर के सारे गुण झूठे पड़ जायेंगे? मनुष्य का सच्चा रूप हमें किस बात में मिलता है? उसकी देह के आवरण में या उसके अन्तर के आचरण में? आप ही बताएं ! इसीलिए सतीत्व और नारीत्व को पृथक् दिखाने के लिए बाध्य हुआ हूं।"
कई वर्ष बाद जब प्रेसिडेंसी कालेज में बंकिम शरत्-समिति ने उनके तिरपनवें जन्मदिन 2 के उपलक्ष्य में उनका अभिनन्दन किया था तब भी उन्होंने यही कहा था, “सम्पूर्ण मनुष्यत्व सतीत्व से बड़ा है। इस बात को मैंने एक दिन कहा था और इसी को अभद्र एवं गंदा बताकर मुझे गाली देने में कुछ उठा नहीं रखा गया। मनुष्य मानो विक्षिप्त हो गया। मैंने अत्यन्त सती नारी को चोरी - जुआखोरी और जालसाजी करते तथा झूठी गवाही देते देखा है। साथ ही इससे उलटी बात देखने का भी सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है।
" सतीत्व की धारणा सदा एक सी नहीं रही। पहले भी नहीं थी। बाद में भी शायद किसी दिन नहीं रहेगी। एकनिष्ठ प्रेम और सतीत्व एक ही वस्तु नहीं है । यह बात यदि साहित्य में स्थान नहीं पाती तो सत्य जीवित कहां रहेगा।”
और कई वर्ष पहले जब इलाचन्द्र जोशी ने भारतीय नारी के सतीत्व के आदर्श संबंध में उनके विचार जानने चाहे थे तब उन्होंने यही कहा था “मैं मानव धर्म को सती धर्म के बहुत ऊपर स्थान देता हूं। सतीत्व और नारीत्व यह दोनों आदर्श समान नहीं हैं। नारी- हृदय की मंगलमयी करुणा, उसकी जन्मजात मातृ वेदना उसके सतीत्व से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। बहुत-सी स्त्रियां मैंने ऐसी देखी हैं, जिनका दूसरे पुरुष से कभी किसी प्रकार का शारीरिक या मानसिक संबंध नहीं रहा, तथापि उनके स्वभाव में अत्यन्त नीचता, घोर संकीर्णता, विद्वेष भावना और चौरवृत्ति पाई गई है। इसके विपरीत ऐसी पतिताओं से मेरा परिचय रहा है, जिनके भीतर मैंने मातृ हृदय की निःस्वार्थ ममता और करुणा का अथाह सागर उमड़ता हुआ पाया है।”
जोशीजी ने पूछा, “यदि यही बात है तो आपने 'श्रीकान्त' में अन्नदा दीदी के सतीत्व की महिमा ऐसे ज़ोरदार शब्दों में क्यों वर्णन की है कि उसके दीप्त प्रकाश के आगे आपके दूसरे नारी चरित्र प्तान पड़ जाते हैं?”
यह प्रश्न' सुनकर शरत् बाबू मन्द मन्द मुस्काये। बोले, “आपकी यह बात मैं मानता हूं। अन्नदा दीदी के प्रति वास्तव में मेरी भी आन्तरिक श्रद्धा रही है। मेरे जन्मगत संस्कार आखिर भारतीय ही हैं। फिर भी मैं इतना बता देना चाहता हूं कि उनके एकनिष्ठ पातिव्रत धर्म ने मेरी श्रद्धा उतनी नहीं उभारी हैं जितनी उनकी प्रेम-प्लावित आत्मा के मुक्त प्रवाह ने।”
शरत् बाबू ने अपने साहित्य में स्पष्ट रूप से यह अंकित किया है कि पुरुषों के बनाये हुए झूठे शास्त्र केवल स्त्रियों को बांध रखने की बेड़ियां हैं। जिस प्रकार हो उन्हें रोक रखकर उनसे सेवा लेने के खाली जाल हैं। सतीत्व की महिमा केवल स्त्रियों को बतलाई जाती है- पुरुषों के लिए कुछ नहीं। यह सब धोखा है । योनि-परीक्षण से ही नारी के वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचाना जा सकता।
उन्होंने बार-बार प्रल पूछा है कि नारी जीवन की सार्थकता कहां है? जिसे लोग आत्मा कहते हैं वह क्या स्त्रियों के शरीर में नहीं होती? वे क्या इस संसार में केवल पुरुषों की सेवादासी बनने के लिए ही आई हैं। 4
'शेष प्रश्न' की कमल कहती है, समस्त संयमों की भांति यौन संयम भी सत्य है किन्तु गौण सत्य। उसे मुख्य मानना एक प्रकार का असंयम है। उसका दण्ड भी है। आत्मनिग्रह के उग्र दम्भ से आध्यात्मिकता क्षीण हो जाती है। "
तथाकथित पतिता नारी को उन्होंने वह प्रतिष्ठा दी है कि कलुषित से कलुषित मन वाला व्यक्ति भी उसके सम्पर्क में आकर किसी न किसी रूप में प्रभावित होता ही है और स्वयं को सुधारने की प्रवृत्ति उसमें जग जाती है। रूपाकार केवल आकार एवं रूप को ही उद्भासित नहीं करता अपितु अतरंग को भी अनुरंजित करता है।
असहयोग आन्दोलन के प्रथम चरण में उन्होंने घोषणा की थी कि हमने नारी को जो “यनुष्य नहीं बनने दिया उसका प्रायश्चित स्वराज्य के पहले देश को करना ही चाहिए, अत्यन्त स्वार्थ की खातिर जिस देश ने जिस देन से केवल उसके सतीत्व को ही बड़ा करके देखा है उसके मनुष्यत्व का खयाल नहीं किया उसे उसका देना पहले चुका देना होगा।
"नारी जाति को मैं कभी छोटा करके नहीं देख सका। नारी के कलंक पर अविश्वास करके संसार में ठगा जाना भला है, किन्तु विश्वास करके पाप का भागी होना अच्छा नहीं । बहुत दिनों से नारी का अस्तित्व ही जैसे लोप हो गया था। वह स्वयं ही भूल गई थी कि उसकी कोई सत्ता भी है। मुख बन्द करके सब प्रकार के अत्याचार सहती आ रही थी । उसकी छाती विदीर्ण हो जाती थी पर मुंह नही खुलता था । उसका प्रतिवाद करने की आवश्यकता भी है, यह अनुभूति भी उसमें नहीं रह गई थी।”
शरत् बाबू ने इस वास्तविकता को पहचाना और स्वीकार किया कि नारी जाति के पुरुष ने कभी न्याय नहीं किया। 'नारी का मूल्य' प्रबन्ध में उन्होंने नारी मात्र का पक्ष लेते हुए स्पष्ट कहा, "जिस धर्म ने बुनियाद ही रखी है आदम- जननी हौवा के पाप पर, और जिस धर्म ने नारी को बैठा रखा है संसार के समस्त अध: पतन के मूल में, उस धर्म के संबंध में जिन लोगों के मन में यह विश्वास है कि सच्चा धर्म यही हे उन लोगों से यह कभी हो ही नहीं सकता कि वे नारी जाति को श्रद्धा की दृष्टि से देखें। ऐसे लोगों की श्रद्धा केवल उतनी ही हो सक्ती है जितने में उनका स्वार्थ लगा हुआ है। इससे अधिक चाहे श्रद्धा कहो चाहे उसका न्यायोचित अधिकार कहो वह न तो पुरुष ने उसे आज से हजार बरस पहले दिया है और न आज के हजार बरस बाद ही देगा । "
उसी अन्याय के प्रति उन्होंने युद्ध करने र्का घोषणा की। ललिारानी गंगोपाध्याय को उन्होंने लिखा था, “जारी का स्वामी परम पूजनीय व्यक्ति सबसे बड़ा गुरुजन है, पर इसी कारण स्त्री दासी नहीं है, इस संस्कार ने नारी को जितना छोटा, जितना क्षुद्र, जितना तुच्छ कर दिया है उसकी कोई तुलना नहीं।” 5
अपने एक मित्र की पत्नी से उन्होंने कहा था, “रीदी, पुरुष जाति ने तुम्हारे साथ अन्याय किया है। मैं सदा उसके विरुद्ध लड़ता रहूंगा।”
और सचमुच वे जीवन भर लड़ते रहे। इसी कारण सही अर्थों में वे नारी जाति के मसीहा बन गये। इसी कारण बंगाल की नारियों ने उनका अभूतपूर्व अभिनन्दन किया। उनकी 57वी जन्म जयन्ती के अवसर पर उनको अभिनन्दन पत्र भेंट करते हुए गद्गद् होकर उन्होंने कहा, “पराधीन देश के अध:पतित समाज क्ये असहाया अन्तःपुरचारिणियों के हृदय की मूक आनन्द वेदना को तुमने भाषा में मूर्त कर दिया है। उनके दुर्गतिपूर्ण जीवन के सुख-दुखों की सभी अनुभूतियों को निविड सहानुभूति में ढालकर तुमने साहित्य में सत्य करके प्रत्यक्ष करा दिया है। तुम्हारी अनाविष्ट दृष्टि, सूक्ष्म पर्यवेक्षण सामर्थ, सुगंभीर उपलब्धि, शक्ति तथा विचित्र मानव चरित्र की अतलस्पर्शी अभिज्ञता ने निखिल नारी चित्र खई निगूढ़ प्रकृति का गुप्ततम पता पा लिया है। हे नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता, हम लोग तुम्हारी वन्दना करती हैं।
" त्रय तरह का आत्मापमान तथा सब तरह की हीनता की हालत में भी नारी की प्राकृतिक विशेषताएं सब देशों के सब समाजों में मौजूद हैं। तुमने उसके अकृत्रिम रूप को प्रत्यक्ष किया है। उसकी सत्य प्रकृति का अध्ययन किया । हे सन्नारियों के अन्तर्यामी, हम तुम्हारी वन्दना करती हैं।
“आज के इस विशेष दिन हम यह बताने आई हैं कि हम तुम्हारा सम्मान करती हैं। हम लोग तुमको श्रद्धा करती हैं। हम तुमको प्यार करती हैं। तुमकी हम लोग अपना करके ही समझती हैं। नारियों के परम श्रद्धेय मित्र ! तुम हम लोगों को परम प्रिय हो। तुम हम लोगों के परम आत्मीय हो। हम तुम्हारी वन्दना करती हैं।”
ऐसी प्रशंसा कदाचित् ही किसी देश के साहित्यिक को मिली हो, लेकिन शरत् की नारी बंगाल क्तई होकर भी शिल्प की दृष्टि से किसी सीमा को स्वीकार नहीं करती। वातावरण का चित्रण करते समय शरत्चन्द्र बंगाली है, परन्तु जीवन रस के परिवेश में शिल्पी हैं। शरत् की जननी' बंगाल की जननी हैं, लेकिन प्रेमिका का परिवेश समस्त विश्व है । जो व्यथा वह भोगती हे जो अपमान वह सहती है वह नारी मात्र ने किसी न किसी रूप में सदा सहा है।
बंकिमचन्द्र के साहित्य में विधवा विवाह का हल मारात्मक हुआ । रवीन्द्रनाथ ने नारी मात्र को स्नेह दिया, पर सहानुभूति दी शरत्चन्द्र ने । यद्यपि जोर-जबर्दस्ती उन्होंने भी नहीं की। उनके साहित्य में भी विधवा विवाह नहीं है । 'पण्डितजी' की कुसुम तो ऐसे लोगों को कुत्ता - बिल्ली समझती है। 'पथ-निर्देश' में हेम बार-बार विधवा विवाह की निन्दा करती है, लेकिन उसके पक्ष में दलील भी कम नहीं है। गुणेन्द्र कहता है, “हिन्दुओं को छोड़कर संसार की और सभी जातियों में विधवा-विवाह होता है।” यहां तक कि बचपन की रचना 'शुभदा ' में जब सुरेन्द्रनाथ पूछते हैं, “क्यों क्या विधवा से विवाह नहीं करना चाहिए?” तो मालती का उत्तर है, “विधवा से विवाह करना चाहिए मगर वेश्या से नहीं।” अनुपमा के पिता तो यहां तक कहते हैं, “मैंने बहुत विचार कर देखा है। दो बार विवाह करने से ही धर्म नहीं जाता। विवाह के साथ धर्म का कोई संबंध नहीं बल्कि अपनी बच्ची की इस तरह हत्या करने में ही धर्महानि की संभावना है।”
लेकिन अनुपमा तैयार नही हुई, अर्थात् शरत् तैयार नहीं हुए, क्योंकि समाज तैयार नहीं था। शरत् मानते थे कि नारी की दासता मानवीय अधिकारों का हनन है, परन्तु क्रान्ति का स्वर हृदय के भीतर से ही उठना चाहिए। समाज को यदि जीवित रहना है तो हृदय के गुण से ही रहना है। इसलिए सामाजिक अत्याचारों कं प्रति विद्रोह उनके साहित्य मैं उतना मुखर नहीं हुआ। शेष प्रश्न' र्का कमल और श्रीकान्त' (द्वितीय पर्व) की अभया अपवाद हैं। लेकिन यह स्वीकार करना पड़ेगा कि शरत्चन्द्र उन परिस्थितियों का चित्रण करने में निश्चय ही सफल हुए जो पाठक के अन्तर में विद्रोह की अनिवार्यता तें स्पष्ट करती हैं और यह विद्रोह दृढ़ और सत्य सिद्धान्तों पर आधारित है। उन्होंने बार-बार कहा है कि विधवा होना ही नारी जीवन की चरम हानि और सधवा होना ही सार्थकता है- इन दोनों में से कोई सत्य नहीं है।
शरत् शास्त्र को स्वीकार करते है, पर उसे हृदय के ऊपर नहीं मानते। कमल विवाह को संसार में होनेवाली अनेक घटनाओं में से एक घटना मानती है। मानती है कि उसी को जिस दिन से नारी क सर्वस्व मान लिया गया उसी दिन से स्त्रियों के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी शुरू हो गई। हृदय में प्रेम नहीं तो मंत्रपूत विवाह विडम्बना मात्र है। 'बारी का मूत्य' निबन्ध में उन्होंने मानो भविष्यवाणी की, “आगे चलकर एक ऐसा समय आएगा जबकि प्रेम के द्वारा दोनों का मिलकर एक होना अधिक महत्व का समझा जाएगा और कानून के द्वारा दोनों क मिलकर एक होना गौण माना जाएगा।” शरत् साहित्य में प्रिया है, जाया है, जननी है, पतिता है, विप्लवी भी है। लेकिन बाहर से एक दिखाई देकर भी वे एक नहीं हैं। राजलक्ष्मी की त्रासदी इतनी गढ़ और रहस्यमय है कि उसे समझ पाना असम्भव जैसा ही है। उसका अन्तर्विरोध, उसका द्वन्द्व वही उसकी सफलता है। उसके विषाद में ही शिल्पी चेतना मूर्त हुई है। जिन्होंने प्रेम पाया, सुखी हुईं वे किसी के हृदय को उद्वेलित नहीं कर सकीं। कर सकीं राजलक्ष्मी, पार्वती और सावित्री जैसी ही याद रह सकी अन्नदा और ताल जैसी ही जो स्वामी को प्यार करके पीड़ा ही पा सकीं, और अचला तो निर्धन महिम को एकनिष्ठ प्यार करती है, पर उसका व्यक्ति स्वातंन्य दरिद्रता के सामाजिक वातावरण को नहीं सह पाता और अनजाने-अनचाहे वह सुरेश को समर्पित हो जाती है। फिर भी सारी त्रासदी के अन्त में यह कहने का साहस उसमे हे, “चिट्ठी लिखने पर तुम जवाब दोगे?”
याद रह सकी अभया की। शरत् साहित्य में अभया एक ही है, पर वह उनके इस विश्वास का कि सतीत्व और नारीत्व एक ही नहीं है, जीवन्त प्रतीक है। वह प्रतीक है इस सत्य का कि स्त्री-पुरुष का मिलन तभी तक सत्य है जद तक वह पति-पली की प्रसन्नता का कारण बनता है। जिस क्षण लाभ से हानि का पलड़ा भारी हो जाता है, पति जब एकमात्र बेंत के जोर से स्त्री के समस्त अधिकारों को छीन लेता है, उसी क्षण वह स्वतः ही समाप्त हो जाता है। वह अपने प्रेमी रोहिणी बाबू के लिए अपने अत्याचारी पति को छोडू देती है और यह कहने का साहस करती है, “येसे मनुष्य के सारे जीवन को लंगड़ा बनाकर मैं सती का खिताब नहीं खरीदना चाहती श्रीकान्त बाबू! निश्चयपूर्वक मैं क्क सकती हूं कि हमारे निष्पाप प्रेम क्तै संतान संसार में मनुष्यत्व के लिहाज से किसी से भी हीन न होगी। उसकी माता उस को यह भरोसा अवश्य दे जाएगी कि वह सत्य के बीच पैदा हुई है। सत्य से बढ़कर सहारा संसार में और कुछ नहीं है। इस वस्तु से भ्रष्ट होना उसके लिए कठिन होगा।”
..उन्होंने (पति) भी तो मेरे ही साथ उन्हीं मंत्रों का उच्चारण किया था किन्तु वह एक निरर्थक बकवाद ही रहा, उनकी इच्छा पर जरा भी रोक न लगा सका .......क्या वह सारा बन्धन, सारा उत्तरदायित्व में स्त्री हूं इसलिए केवल मेरे ही ऊपर रह गया? वह मात्र बंगाल की नारी का स्वर नहीं है। यह मनोभूमि है शाश्चत नारी की। शरत् की सबसे दुर्बल नारी है विप्लवी नारी । वह विचारों की प्रतिमा है। रक्त-मांस की सहज सुख दुखमयी नारी नहीं । उनकी सबसे सशक्त नारी है पतिता । इस वर्ग को उन्होंने मात्र सहानुभूति ही नहीं दी, अन्तर में छिपी नारी को मर्यादा भी दी। प्रेमी के लिए ही प्रेमी को त्याग करने का साहस दिया। चन्द्रमुखी कह सकी, “रूप का मोह तुम लोगों की अपेक्षा हम लोगों में बहुत ही कम होता हे, इसलिए तुम लोगों की तरह हम लोग उन्मत्त नहीं हो जाते।”
लेकिन शरत् की यह निविड़ सहानुभूति मात्र मौखिक ही नहीं थी । व्यवहार में भी वे नारियों के प्रति उतने ही सम्बेदनशील थे। इलाचन्द्र जोशी ने लिखा है, “जो साधारण से साधारण स्त्रियां भी उनके सम्पर्क में आईं, उनके प्रति भी शरत् के मन में करुणा, सवेदनशीलता और सहृदयता की भावना उमड़ती रही। कभी किसी भी नारी की आर्थिक या सहृदयताजनित विवशता से अनुचित लाभ उठाने की प्रवृत्ति उनके मन में नहीं जागी । यह बात स्वयं शरत् ने मुझसे कही थी। उनके निकट और घनिष्ट सम्पर्क में आने के कारण स्वयं मुझे भी उनके स्वभाव और व्यवहार के अध्ययन से जो अनुभव हुआ उससे उनकी वह बात प्रत्यक्ष स्म में पूर्णत: प्रमाणित होती थी । "
उन्होंने अनेक असहाय नारियों की न केवल आर्थिक सहायता ही ल्टई थी बल्कि कइयों को अपने घर में आश्रय भी दिया था। शिवपुर के एक युवक प्रतुल मुकर्जी को वे बहुत अरसे से जानते थे। उसने अपने परिजनों और मित्रों के विरोध के बावजूद दुर्गादिवी नाम की एक विधवा से विवाह किया था। विरोध के उस वातावरण में दुर्गादेवी को शरत् बाबू ने कुछ समय के लिए अपने घर में शरण दी थी और लिखना पढ़ना सिखाने की चेष्टा भी की थी।
और स्वयं उनका अपना विवाह क्या इसका सबसे बड़ा प्रमाण नहीं है? और क्या वे अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर उन तथाकथित दुश्चरित्र नारियों को भूल सके, जिनकी बस्ती में वे रंगून से आकर ठहरा करते थे? अनेक मित्रों ने उनसे बातें करते देखकर लज्जा अनुभव की थी।
उस दिन वे कविगुरु रवीन्द्रनाथ से मिलकर जोड़ासाकी से लौट रहे थे। बहुत देर हो गई थी, कविगुरु ने किन्हीं सज्जन को आदेश दिया, “गओ, शरत् को सड़क तक पहुंचा आओ।"
सड़क पर आने पर शरत्चन्द्र ने ऐसा अनुभव किया कि बहुत देर बैठना पड़ा है, इसलिए कुछ दूर पैदल चल लेना उचित ही होगा।
इसलिए बातचीत करते हुए अचानक वे एक मोहल्ले के पास जा निकले। सहसा एक नारी ने पुकारा, "रादाजी, ओ दादाजी !”
शरतचन्द्र ने देखकर पहचाना कि वह तो पाएं की मां है। पास आकर पाएं की मां प्रणाम के अनन्तर बोली, “आज मेरा बड़ा सौभाग्य है कि दादाजी के दर्शन हो गए। आप बड़े वैसे हैं। हम लोगों को बिलकुल ही बिसार दिया। बताओ तो कितने दिनों से इधर नहीं आये? आज मैं नहीं जाने दूंगी। मेरे धर में चरणफूलइ देनी ही होगी।”
साथ आनेवाले सज्जन हतप्रभ यह सब देख रहे थे। शरतचन्द्र ने उनसे कहा, “आप अब जाएं। पकड़ा जब गया ही हूं तो छुटकारा नहीं मिलने का।”
वे सज्जन लौट गये और शरतचन्द्र पाएं क्तई मां के घर की ओर चल पड़े। देखते- देखते कितने ही लड़के-लड़कियों ने 'दादाजी आए हैं, दादाजी आए है' कहते हुए उन्हें घेर लिया। किसी तरह उनसे छुट्टी पाकर आगे बड़े तो पाया कि सात साल का पाएं विद्यासागर महाशय का 'चर्ण परिचय' खोले मुंह लटकाए है। बोले, “प्पांचू की मां, तुम्हारा लड़का इस तरह से क्यों बैठा है? पढ़ना पड़ रहा हे शायद इसीलिए क्या?"
पांचू की मां ने कहा, “देखो न दादाजी, कब से कह रही हूं स्कूल में कल जो पढ़ा है उसे धर में अच्छी तरह पढ़ ले तभी तो मास्टर के सामने सबक सुना सकेगा । लेकिन अभागा लड़का हर्गिज सुनने के लिए तैयार नहीं। इतने पैसे नही है कि घर पर मास्टर रखकर पदाऊं।"
शरतचन्द्र ने कहा, “अच्छा, तुम अर्ब जरा तम्बाकू भर लाओ। मैं इसे पढ़ाता हूं।”
हुक्का सामने रखते हुए पांचू की मां ने फिर कहा, “दादाजी, तुम ही बताओ, अभागे को कितना समझाती हूं कि ज्यादा न पड़े तो कम से कम पहली और दूसरी किताब तो पढ़ । कहती हूं यह जो हमारे दादाजी हैं, सुनती हूं वे किताबें लिखते है। अगर कुछ न भी कर सका तो पहली दूसरी किताब पढ़कर हमारे दादाजी की तरह चार किताबें लिखकर पेट तो पाल सकेगा। लेकिन अभागा किसी तरह पड़ता ही नहीं। आप कृपा करके इसे जरा समझा दो दादाजी । आपकी बातें सुनकर थोड़ी-सी अकल तो आए । मैं तब तक आपके लिए भोजन का इंतजाम करती हूं। न, न, यह नहीं होने का दादाजी। आज आप कितने दिनों के बाद आए है। थोड़ा-सा भोजन कराए बिना नहीं जाने दूंगी।”
उस दिन भोजन करते-करते और बस्ती के हर घर में पगधूलि देते-देते दिन का अन्त हो गया।
और इसीलिए अनीति के प्रचारक के रूप में उनकी प्रसिद्धि जरा भी कम नहीं हो सकी होती तो क्यों एक उच्चशिक्षिता भद्र महिला वीणा देवी सरस्वती क्ते अपने ही घर में अपमानित होना पड़ता वह स्वयं लेखिका थी । शरत् बाबू के प्रति श्रद्धा का कोई पार नहीं था। अक्सर उनसे मिलने के लिए आया करती थीं। एक दिन उन्होंने शरत् बाबू को भोजन के लिए निमन्त्रित किया।
जिस दिन उन्हें भोजन करने के लिए आना था उसी दिन वीणा देवी की एक अल्पशिक्षित ननद ने अपनी मां से कहा, “जानती हो मां, आज भाभी ने किसको खाने पर बुलाया है? अरे, वही अरलू चाटुज्जै, शराबी और चरित्रहीन । सुना है वेश्याओं के यहां पड़ा रहता है।"
मां ठहरी निरक्षर भट्टाचार्य । सुनकर स्व हो उठी । तुरन्त बहू के पास गई और बोली, बहू तुमने यह क्या किया? मैं यदि पहले जानती तो लड़की को मछली आदि लाने को मना कर देती। जो भी हो वह इस घर में नहीं आ सकता।”
वीणा देवी सुनकर परेशान हो उठीं। अनुनय-विनय के स्वर में उन्होंने का, या, केवल आज के लिए आज्ञा दे दो। फिर किसी दिन उन्हें नही बुलाऊंगी। निमन्त्रण देकर उन्हें न बुलाने से उनका अपमान होगा।”
लेकिन मां किसी तरह से राजी नहीं हुई। अपना अन्तिम निर्णय देते हुए उसने कहा, “जुम अभी उसके पास जाओ और कहो कि अचानक मेरी सास बहुत बीमार हो गई है, इसलिए आज भोजन की व्यवस्था नहीं ही सकेगी।”
भारी मन लेकर वीणा देवी जरत बाबू के पास गई, लेकिन वे झूठ नहीं बोल सकीं। रोते-रोते उन्होंने सारी कथा कह सुनाई। बोलीं, “अगर मेरे स्वामी या जेठ घर पर होते तो मां को समझाया जा सकता था। मेरी बात वे किसी भी तरह मानने को तैयार नहीं है।”
शरत् बाबू सहसा गम्भीर हो उठे। बोले, “ग्स बात को लेकर तुम अपने मन में किसी प्रकार का दुख न मानो मेरे संबंध में लोग इसी तरह की भूल करते हैं। न जाने क्या-क्या कहते रहते हैं। तुम्हारी भाभी से मैंने धर्म के अनुसार विवाह किया है, फिर भी लोग कहते हैं कि यह मेरी रखैल है।”
ऐसी भी नारियां थीं जो इस प्रकार की भूल नही करती थीं। उन्हीं में थी कानपुर की लीलारानी गंगोपाध्याय । उनसे अजस्र पत्र-व्यवहार तो चलता ही था, उनके घर निमन्त्रित होकर भी वे रह आये थे। उनके पति बहुत उदार थे। शरत् बाबू की बड़ी इच्छा थी, उनको निरुपमा देवी बनाने की। एक बार नवद्वीप के उनके घर में आकर वे उनसे रात भर बैठे बातें करते रहे थे। उन बातों का अन्त नहीं आ रहा था। लेकिन रात का अन्त आ गया था। उनके मित्र ने आखें खोलकर देखा, वे तब भी बातें कर रहे थे। लीलारानी ने उन्हें लिखा था, "रादा, एक बार मिलने के लिए आओ।"
और दादा दौड़े चले गए। लीलारानी ने उनके स्वागत-सत्कार का कैसा विराट आयोजन किया ! विदा की वेला भी कितनी भीग आई ! बार-बार आने की प्रतिज्ञा, कैसा अकपट स्नेह था उन दोनों में!
समाज के सभी वर्ग की नारियों से उनके सदा सहज और आत्मीय संबंध रहे। उनकी कहानियां सुनने को वे नारियां जैसे लालायित रहती थी। उनके कहने की भावभंगिमा पर वे मुग्ध थी। उनके विचारों पर वे प्राण निछावर करती थीं। ऐसा निःस्वार्थ, ऐसा उदार, ऐसा मुक्त मनुष्य अब से पहले उन्होंने कहां देखा था। उनकी इसी अगाध भक्ति के करण तो वे उन्हें जान सके और उनके प्रति होने वाले अन्याय के विरुद्ध संघर्ष कर सके, उन्हें मनुष्य की मर्यादा दिला सके। यह मर्यादा दिलाने के लिए ही उन्होंने मूक नारी को स्वर दिया और पतिता के अन्तर में छिपे मनुष्य को खोजा। लेकिन इतना सब कुछ करने पर भी क्या वे अपने मन की आदर्श नारी को (राजलक्ष्मी को) अपने जीवन में पा सके !
यह न पाना ही उनके साहित्य की शक्ति है।