shabd-logo

अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023

19 बार देखा गया 19

शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके सामने आ उपस्थित होता था । राजनारायण बसु पति पाठागार के द्वितीय वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्षता करने के लिए वे मेदिनीपुर गये थे । वहां उनके सम्मान में हुई एक गोष्ठी में किसी ने उनसे पूछा, “अच्छा शरत् बाबू, सतीत्व ही तो नारीत्व है। आपने इन दोनों में अन्तर क्यों किया?”

शरतचन्द्र ने कहा, "इस प्रश्न के उत्तर में आपको एक कहानी सुनानी पड़ेगी। मेरे बचपन की बात है। हमारे गांव में एक बाल विधवा रहती थी। गांव के नाते से वह हमारी बड़ी बहन लगती थी। दुर्भाग्य से विवाह के थोडे ही दिन बाद उनके पति मर गए। विधवा के वेश में वे नैहर लौट आई। भाई-बहन उनके कोई था नहीं और मां बाप कितने दिन जी सकते थे? तीस-बत्तीस की उम्र होते न होते वे दोनों भी चल बसे। तब से वे उस घर में अकेली ही रहती थीं। उनका वह मिट्टी का घर चारों ओर से ऊंची दीवारों से घिरा हुआ था। आने-जाने के लिए आंगन में एक ओर एक ही दरवाजा था। शाम होते ही वह दरवाजा अन्दर से बन्द हो जाता था।

"उस गांव में एक भी ऐसा परिवार नहीं था, जहां बहन की खातिरदारी और प्यार का कोई अभाव हो। इसका कारण भी था। लोगों के रोग- शोक में खाना-पीना भूलकर वह जी- जान से उन सबकी सेवा करती थीं। उनसे ज्यादा मेहनत करने वाला कोई भी दिखाई नहीं देता था। गांव में ऐसा एक भी घर नहीं था जो उनके उपकार और सहायता के बोझ से दबा न हो।

“तब मैं लड़का ही था। तरह-तरह की शैतानी में दिन कटते थे। एक दिन मुझे एक खुराफात सूझी कि बहन को डराना चाहिए। घर में वे अकेली रहती हैं। डर दिखाने का ऐसा अच्छा मोका नही मिलेगा।

“बस तय किया कि बहन की चारदीवारी से लगा हुआ जो जामुन का पेड़ है, शाम के अंधेरे, में उसी पर चढ़कर और भूत की बोली बोलकर बहन को इस तरह डराना होगा कि वे जिन्दगी भर याद रखें।

“यथासमय चुपचाप पेड़ पर जा बैठा। वहां से बहन का घर साफ दिखाई पड़ता था । मौका देखकर नकियाकर जैसे ही बोला, वैसे ही देखा कि एक आदमी बहन की खाट से झट उतरकर उसके नीचे जा छिपा।

“इसके बाद बहन के बारे में मेरी क्या धारणा होनी चाहिए? आप कह सक्ते हैं कि बहन में सतीत्व नाम की कोई चीज नहीं है। इस बात को माने लेता हूं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इसके साथ ही उनका नारीत्व भी लुप्त हो गया। इन्सान के रोग-शोक में रात-दिन सेवा करके, दीन-दुखियों को दान देकर सारी जिन्दगी उन्होंने जिस महानता का परिचय दिया था उसका क्या कोई स्वतंत्र मूल्य निर्धारित नहीं किया जाएगा? नारी का शरीर ही सब कुछ है, उसका अन्तर क्या कुछ भी नहीं है? यह बाल विधवा जवानी की दुस्सह ताड़ना से अपनी देह को पवित्र नहीं रख पाई तो क्या उसके अन्तर के सारे गुण झूठे पड़ जायेंगे? मनुष्य का सच्चा रूप हमें किस बात में मिलता है? उसकी देह के आवरण में या उसके अन्तर के आचरण में? आप ही बताएं ! इसीलिए सतीत्व और नारीत्व को पृथक् दिखाने के लिए बाध्य हुआ हूं।"

कई वर्ष बाद जब प्रेसिडेंसी कालेज में बंकिम शरत्-समिति ने उनके तिरपनवें जन्मदिन 2 के उपलक्ष्य में उनका अभिनन्दन किया था तब भी उन्होंने यही कहा था, “सम्पूर्ण मनुष्यत्व सतीत्व से बड़ा है। इस बात को मैंने एक दिन कहा था और इसी को अभद्र एवं गंदा बताकर मुझे गाली देने में कुछ उठा नहीं रखा गया। मनुष्य मानो विक्षिप्त हो गया। मैंने अत्यन्त सती नारी को चोरी - जुआखोरी और जालसाजी करते तथा झूठी गवाही देते देखा है। साथ ही इससे उलटी बात देखने का भी सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है।

" सतीत्व की धारणा सदा एक सी नहीं रही। पहले भी नहीं थी। बाद में भी शायद किसी दिन नहीं रहेगी। एकनिष्ठ प्रेम और सतीत्व एक ही वस्तु नहीं है । यह बात यदि साहित्य में स्थान नहीं पाती तो सत्य जीवित कहां रहेगा।”

और कई वर्ष पहले जब इलाचन्द्र जोशी ने भारतीय नारी के सतीत्व के आदर्श संबंध में उनके विचार जानने चाहे थे तब उन्होंने यही कहा था “मैं मानव धर्म को सती धर्म के बहुत ऊपर स्थान देता हूं। सतीत्व और नारीत्व यह दोनों आदर्श समान नहीं हैं। नारी- हृदय की मंगलमयी करुणा, उसकी जन्मजात मातृ वेदना उसके सतीत्व से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। बहुत-सी स्त्रियां मैंने ऐसी देखी हैं, जिनका दूसरे पुरुष से कभी किसी प्रकार का शारीरिक या मानसिक संबंध नहीं रहा, तथापि उनके स्वभाव में अत्यन्त नीचता, घोर संकीर्णता, विद्वेष भावना और चौरवृत्ति पाई गई है। इसके विपरीत ऐसी पतिताओं से मेरा परिचय रहा है, जिनके भीतर मैंने मातृ हृदय की निःस्वार्थ ममता और करुणा का अथाह सागर उमड़ता हुआ पाया है।” 

जोशीजी ने पूछा, “यदि यही बात है तो आपने 'श्रीकान्त' में अन्नदा दीदी के सतीत्व की महिमा ऐसे ज़ोरदार शब्दों में क्यों वर्णन की है कि उसके दीप्त प्रकाश के आगे आपके दूसरे नारी चरित्र प्तान पड़ जाते हैं?”

यह प्रश्न' सुनकर शरत् बाबू मन्द मन्द मुस्काये। बोले, “आपकी यह बात मैं मानता हूं। अन्नदा दीदी के प्रति वास्तव में मेरी भी आन्तरिक श्रद्धा रही है। मेरे जन्मगत संस्कार आखिर भारतीय ही हैं। फिर भी मैं इतना बता देना चाहता हूं कि उनके एकनिष्ठ पातिव्रत धर्म ने मेरी श्रद्धा उतनी नहीं उभारी हैं जितनी उनकी प्रेम-प्लावित आत्मा के मुक्त प्रवाह ने।”

शरत् बाबू ने अपने साहित्य में स्पष्ट रूप से यह अंकित किया है कि पुरुषों के बनाये हुए झूठे शास्त्र केवल स्त्रियों को बांध रखने की बेड़ियां हैं। जिस प्रकार हो उन्हें रोक रखकर उनसे सेवा लेने के खाली जाल हैं। सतीत्व की महिमा केवल स्त्रियों को बतलाई जाती है- पुरुषों के लिए कुछ नहीं। यह सब धोखा है । योनि-परीक्षण से ही नारी के वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचाना जा सकता।

उन्होंने बार-बार प्रल पूछा है कि नारी जीवन की सार्थकता कहां है? जिसे लोग आत्मा कहते हैं वह क्या स्त्रियों के शरीर में नहीं होती? वे क्या इस संसार में केवल पुरुषों की सेवादासी बनने के लिए ही आई हैं। 4

'शेष प्रश्न' की कमल कहती है, समस्त संयमों की भांति यौन संयम भी सत्य है किन्तु गौण सत्य। उसे मुख्य मानना एक प्रकार का असंयम है। उसका दण्ड भी है। आत्मनिग्रह के उग्र दम्भ से आध्यात्मिकता क्षीण हो जाती है। "

तथाकथित पतिता नारी को उन्होंने वह प्रतिष्ठा दी है कि कलुषित से कलुषित मन वाला व्यक्ति भी उसके सम्पर्क में आकर किसी न किसी रूप में प्रभावित होता ही है और स्वयं को सुधारने की प्रवृत्ति उसमें जग जाती है। रूपाकार केवल आकार एवं रूप को ही उद्भासित नहीं करता अपितु अतरंग को भी अनुरंजित करता है।

असहयोग आन्दोलन के प्रथम चरण में उन्होंने घोषणा की थी कि हमने नारी को जो “यनुष्य नहीं बनने दिया उसका प्रायश्चित स्वराज्य के पहले देश को करना ही चाहिए, अत्यन्त स्वार्थ की खातिर जिस देश ने जिस देन से केवल उसके सतीत्व को ही बड़ा करके देखा है उसके मनुष्यत्व का खयाल नहीं किया उसे उसका देना पहले चुका देना होगा।

"नारी जाति को मैं कभी छोटा करके नहीं देख सका। नारी के कलंक पर अविश्वास करके संसार में ठगा जाना भला है, किन्तु विश्वास करके पाप का भागी होना अच्छा नहीं । बहुत दिनों से नारी का अस्तित्व ही जैसे लोप हो गया था। वह स्वयं ही भूल गई थी कि उसकी कोई सत्ता भी है। मुख बन्द करके सब प्रकार के अत्याचार सहती आ रही थी । उसकी छाती विदीर्ण हो जाती थी पर मुंह नही खुलता था । उसका प्रतिवाद करने की आवश्यकता भी है, यह अनुभूति भी उसमें नहीं रह गई थी।”

शरत् बाबू ने इस वास्तविकता को पहचाना और स्वीकार किया कि नारी जाति के पुरुष ने कभी न्याय नहीं किया। 'नारी का मूल्य' प्रबन्ध में उन्होंने नारी मात्र का पक्ष लेते हुए स्पष्ट कहा, "जिस धर्म ने बुनियाद ही रखी है आदम- जननी हौवा के पाप पर, और जिस धर्म ने नारी को बैठा रखा है संसार के समस्त अध: पतन के मूल में, उस धर्म के संबंध में जिन लोगों के मन में यह विश्वास है कि सच्चा धर्म यही हे उन लोगों से यह कभी हो ही नहीं सकता कि वे नारी जाति को श्रद्धा की दृष्टि से देखें। ऐसे लोगों की श्रद्धा केवल उतनी ही हो सक्ती है जितने में उनका स्वार्थ लगा हुआ है। इससे अधिक चाहे श्रद्धा कहो चाहे उसका न्यायोचित अधिकार कहो वह न तो पुरुष ने उसे आज से हजार बरस पहले दिया है और न आज के हजार बरस बाद ही देगा । "

उसी अन्याय के प्रति उन्होंने युद्ध करने र्का घोषणा की। ललिारानी गंगोपाध्याय को उन्होंने लिखा था, “जारी का स्वामी परम पूजनीय व्यक्ति सबसे बड़ा गुरुजन है, पर इसी कारण स्त्री दासी नहीं है, इस संस्कार ने नारी को जितना छोटा, जितना क्षुद्र, जितना तुच्छ कर दिया है उसकी कोई तुलना नहीं।” 5

अपने एक मित्र की पत्नी से उन्होंने कहा था, “रीदी, पुरुष जाति ने तुम्हारे साथ अन्याय किया है। मैं सदा उसके विरुद्ध लड़ता रहूंगा।”

और सचमुच वे जीवन भर लड़ते रहे। इसी कारण सही अर्थों में वे नारी जाति के मसीहा बन गये। इसी कारण बंगाल की नारियों ने उनका अभूतपूर्व अभिनन्दन किया। उनकी 57वी जन्म जयन्ती के अवसर पर उनको अभिनन्दन पत्र भेंट करते हुए गद्गद् होकर उन्होंने कहा, “पराधीन देश के अध:पतित समाज क्ये असहाया अन्तःपुरचारिणियों के हृदय की मूक आनन्द वेदना को तुमने भाषा में मूर्त कर दिया है। उनके दुर्गतिपूर्ण जीवन के सुख-दुखों की सभी अनुभूतियों को निविड सहानुभूति में ढालकर तुमने साहित्य में सत्य करके प्रत्यक्ष करा दिया है। तुम्हारी अनाविष्ट दृष्टि, सूक्ष्म पर्यवेक्षण सामर्थ, सुगंभीर उपलब्धि, शक्ति तथा विचित्र मानव चरित्र की अतलस्पर्शी अभिज्ञता ने निखिल नारी चित्र खई निगूढ़ प्रकृति का गुप्ततम पता पा लिया है। हे नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता, हम लोग तुम्हारी वन्दना करती हैं।

" त्रय तरह का आत्मापमान तथा सब तरह की हीनता की हालत में भी नारी की प्राकृतिक विशेषताएं सब देशों के सब समाजों में मौजूद हैं। तुमने उसके अकृत्रिम रूप को प्रत्यक्ष किया है। उसकी सत्य प्रकृति का अध्ययन किया । हे सन्नारियों के अन्तर्यामी, हम तुम्हारी वन्दना करती हैं।

“आज के इस विशेष दिन हम यह बताने आई हैं कि हम तुम्हारा सम्मान करती हैं। हम लोग तुमको श्रद्धा करती हैं। हम तुमको प्यार करती हैं। तुमकी हम लोग अपना करके ही समझती हैं। नारियों के परम श्रद्धेय मित्र ! तुम हम लोगों को परम प्रिय हो। तुम हम लोगों के परम आत्मीय हो। हम तुम्हारी वन्दना करती हैं।”

ऐसी प्रशंसा कदाचित् ही किसी देश के साहित्यिक को मिली हो, लेकिन शरत् की नारी बंगाल क्तई होकर भी शिल्प की दृष्टि से किसी सीमा को स्वीकार नहीं करती। वातावरण का चित्रण करते समय शरत्चन्द्र बंगाली है, परन्तु जीवन रस के परिवेश में शिल्पी हैं। शरत् की जननी' बंगाल की जननी हैं, लेकिन प्रेमिका का परिवेश समस्त विश्व है । जो व्यथा वह भोगती हे जो अपमान वह सहती है वह नारी मात्र ने किसी न किसी रूप में सदा सहा है।

बंकिमचन्द्र के साहित्य में विधवा विवाह का हल मारात्मक हुआ । रवीन्द्रनाथ ने नारी मात्र को स्नेह दिया, पर सहानुभूति दी शरत्चन्द्र ने । यद्यपि जोर-जबर्दस्ती उन्होंने भी नहीं की। उनके साहित्य में भी विधवा विवाह नहीं है । 'पण्डितजी' की कुसुम तो ऐसे लोगों को कुत्ता - बिल्ली समझती है। 'पथ-निर्देश' में हेम बार-बार विधवा विवाह की निन्दा करती है, लेकिन उसके पक्ष में दलील भी कम नहीं है। गुणेन्द्र कहता है, “हिन्दुओं को छोड़कर संसार की और सभी जातियों में विधवा-विवाह होता है।” यहां तक कि बचपन की रचना 'शुभदा ' में जब सुरेन्द्रनाथ पूछते हैं, “क्यों क्या विधवा से विवाह नहीं करना चाहिए?” तो मालती का उत्तर है, “विधवा से विवाह करना चाहिए मगर वेश्या से नहीं।” अनुपमा के पिता तो यहां तक कहते हैं, “मैंने बहुत विचार कर देखा है। दो बार विवाह करने से ही धर्म नहीं जाता। विवाह के साथ धर्म का कोई संबंध नहीं बल्कि अपनी बच्ची की इस तरह हत्या करने में ही धर्महानि की संभावना है।”

लेकिन अनुपमा तैयार नही हुई, अर्थात् शरत् तैयार नहीं हुए, क्योंकि समाज तैयार नहीं था। शरत् मानते थे कि नारी की दासता मानवीय अधिकारों का हनन है, परन्तु क्रान्ति का स्वर हृदय के भीतर से ही उठना चाहिए। समाज को यदि जीवित रहना है तो हृदय के गुण से ही रहना है। इसलिए सामाजिक अत्याचारों कं प्रति विद्रोह उनके साहित्य मैं उतना मुखर नहीं हुआ। शेष प्रश्न' र्का कमल और श्रीकान्त' (द्वितीय पर्व) की अभया अपवाद हैं। लेकिन यह स्वीकार करना पड़ेगा कि शरत्चन्द्र उन परिस्थितियों का चित्रण करने में निश्चय ही सफल हुए जो पाठक के अन्तर में विद्रोह की अनिवार्यता तें स्पष्ट करती हैं और यह विद्रोह दृढ़ और सत्य सिद्धान्तों पर आधारित है। उन्होंने बार-बार कहा है कि विधवा होना ही नारी जीवन की चरम हानि और सधवा होना ही सार्थकता है- इन दोनों में से कोई सत्य नहीं है।

शरत् शास्त्र को स्वीकार करते है, पर उसे हृदय के ऊपर नहीं मानते। कमल विवाह को संसार में होनेवाली अनेक घटनाओं में से एक घटना मानती है। मानती है कि उसी को जिस दिन से नारी क सर्वस्व मान लिया गया उसी दिन से स्त्रियों के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी शुरू हो गई। हृदय में प्रेम नहीं तो मंत्रपूत विवाह विडम्बना मात्र है। 'बारी का मूत्य' निबन्ध में उन्होंने मानो भविष्यवाणी की, “आगे चलकर एक ऐसा समय आएगा जबकि प्रेम के द्वारा दोनों का मिलकर एक होना अधिक महत्व का समझा जाएगा और कानून के द्वारा दोनों क मिलकर एक होना गौण माना जाएगा।” शरत् साहित्य में प्रिया है, जाया है, जननी है, पतिता है, विप्लवी भी है। लेकिन बाहर से एक दिखाई देकर भी वे एक नहीं हैं। राजलक्ष्मी की त्रासदी इतनी गढ़ और रहस्यमय है कि उसे समझ पाना असम्भव जैसा ही है। उसका अन्तर्विरोध, उसका द्वन्द्व वही उसकी सफलता है। उसके विषाद में ही शिल्पी चेतना मूर्त हुई है। जिन्होंने प्रेम पाया, सुखी हुईं वे किसी के हृदय को उद्वेलित नहीं कर सकीं। कर सकीं राजलक्ष्मी, पार्वती और सावित्री जैसी ही याद रह सकी अन्नदा और ताल जैसी ही जो स्वामी को प्यार करके पीड़ा ही पा सकीं, और अचला तो निर्धन महिम को एकनिष्ठ प्यार करती है, पर उसका व्यक्ति स्वातंन्य दरिद्रता के सामाजिक वातावरण को नहीं सह पाता और अनजाने-अनचाहे वह सुरेश को समर्पित हो जाती है। फिर भी सारी त्रासदी के अन्त में यह कहने का साहस उसमे हे, “चिट्ठी लिखने पर तुम जवाब दोगे?”

याद रह सकी अभया की। शरत् साहित्य में अभया एक ही है, पर वह उनके इस विश्वास का कि सतीत्व और नारीत्व एक ही नहीं है, जीवन्त प्रतीक है। वह प्रतीक है इस सत्य का कि स्त्री-पुरुष का मिलन तभी तक सत्य है जद तक वह पति-पली की प्रसन्नता का कारण बनता है। जिस क्षण लाभ से हानि का पलड़ा भारी हो जाता है, पति जब एकमात्र बेंत के जोर से स्त्री के समस्त अधिकारों को छीन लेता है, उसी क्षण वह स्वतः ही समाप्त हो जाता है। वह अपने प्रेमी रोहिणी बाबू के लिए अपने अत्याचारी पति को छोडू देती है और यह कहने का साहस करती है, “येसे मनुष्य के सारे जीवन को लंगड़ा बनाकर मैं सती का खिताब नहीं खरीदना चाहती श्रीकान्त बाबू! निश्चयपूर्वक मैं क्क सकती हूं कि हमारे निष्पाप प्रेम क्तै संतान संसार में मनुष्यत्व के लिहाज से किसी से भी हीन न होगी। उसकी माता उस को यह भरोसा अवश्य दे जाएगी कि वह सत्य के बीच पैदा हुई है। सत्य से बढ़कर सहारा संसार में और कुछ नहीं है। इस वस्तु से भ्रष्ट होना उसके लिए कठिन होगा।”

..उन्होंने (पति) भी तो मेरे ही साथ उन्हीं मंत्रों का उच्चारण किया था किन्तु वह एक निरर्थक बकवाद ही रहा, उनकी इच्छा पर जरा भी रोक न लगा सका .......क्या वह सारा बन्धन, सारा उत्तरदायित्व में स्त्री हूं इसलिए केवल मेरे ही ऊपर रह गया? वह मात्र बंगाल की नारी का स्वर नहीं है। यह मनोभूमि है शाश्चत नारी की। शरत् की सबसे दुर्बल नारी है विप्लवी नारी । वह विचारों की प्रतिमा है। रक्त-मांस की सहज सुख दुखमयी नारी नहीं । उनकी सबसे सशक्त नारी है पतिता । इस वर्ग को उन्होंने मात्र सहानुभूति ही नहीं दी, अन्तर में छिपी नारी को मर्यादा भी दी। प्रेमी के लिए ही प्रेमी को त्याग करने का साहस दिया। चन्द्रमुखी कह सकी, “रूप का मोह तुम लोगों की अपेक्षा हम लोगों में बहुत ही कम होता हे, इसलिए तुम लोगों की तरह हम लोग उन्मत्त नहीं हो जाते।”

लेकिन शरत् की यह निविड़ सहानुभूति मात्र मौखिक ही नहीं थी । व्यवहार में भी वे नारियों के प्रति उतने ही सम्बेदनशील थे। इलाचन्द्र जोशी ने लिखा है, “जो साधारण से साधारण स्त्रियां भी उनके सम्पर्क में आईं, उनके प्रति भी शरत् के मन में करुणा, सवेदनशीलता और सहृदयता की भावना उमड़ती रही। कभी किसी भी नारी की आर्थिक या सहृदयताजनित विवशता से अनुचित लाभ उठाने की प्रवृत्ति उनके मन में नहीं जागी । यह बात स्वयं शरत् ने मुझसे कही थी। उनके निकट और घनिष्ट सम्पर्क में आने के कारण स्वयं मुझे भी उनके स्वभाव और व्यवहार के अध्ययन से जो अनुभव हुआ उससे उनकी वह बात प्रत्यक्ष स्म में पूर्णत: प्रमाणित होती थी । "

उन्होंने अनेक असहाय नारियों की न केवल आर्थिक सहायता ही ल्टई थी बल्कि कइयों को अपने घर में आश्रय भी दिया था। शिवपुर के एक युवक प्रतुल मुकर्जी को वे बहुत अरसे से जानते थे। उसने अपने परिजनों और मित्रों के विरोध के बावजूद दुर्गादिवी नाम की एक विधवा से विवाह किया था। विरोध के उस वातावरण में दुर्गादेवी को शरत् बाबू ने कुछ समय के लिए अपने घर में शरण दी थी और लिखना पढ़ना सिखाने की चेष्टा भी की थी।

और स्वयं उनका अपना विवाह क्या इसका सबसे बड़ा प्रमाण नहीं है? और क्या वे अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर उन तथाकथित दुश्चरित्र नारियों को भूल सके, जिनकी बस्ती में वे रंगून से आकर ठहरा करते थे? अनेक मित्रों ने उनसे बातें करते देखकर लज्जा अनुभव की थी।

उस दिन वे कविगुरु रवीन्द्रनाथ से मिलकर जोड़ासाकी से लौट रहे थे। बहुत देर हो गई थी, कविगुरु ने किन्हीं सज्जन को आदेश दिया, “गओ, शरत् को सड़क तक पहुंचा आओ।"

सड़क पर आने पर शरत्चन्द्र ने ऐसा अनुभव किया कि बहुत देर बैठना पड़ा है, इसलिए कुछ दूर पैदल चल लेना उचित ही होगा।

इसलिए बातचीत करते हुए अचानक वे एक मोहल्ले के पास जा निकले। सहसा एक नारी ने पुकारा, "रादाजी, ओ दादाजी !”

शरतचन्द्र ने देखकर पहचाना कि वह तो पाएं की मां है। पास आकर पाएं की मां प्रणाम के अनन्तर बोली, “आज मेरा बड़ा सौभाग्य है कि दादाजी के दर्शन हो गए। आप बड़े वैसे हैं। हम लोगों को बिलकुल ही बिसार दिया। बताओ तो कितने दिनों से इधर नहीं आये? आज मैं नहीं जाने दूंगी। मेरे धर में चरणफूलइ देनी ही होगी।”

साथ आनेवाले सज्जन हतप्रभ यह सब देख रहे थे। शरतचन्द्र ने उनसे कहा, “आप अब जाएं। पकड़ा जब गया ही हूं तो छुटकारा नहीं मिलने का।”

वे सज्जन लौट गये और शरतचन्द्र पाएं क्तई मां के घर की ओर चल पड़े। देखते- देखते कितने ही लड़के-लड़कियों ने 'दादाजी आए हैं, दादाजी आए है' कहते हुए उन्हें घेर लिया। किसी तरह उनसे छुट्टी पाकर आगे बड़े तो पाया कि सात साल का पाएं विद्यासागर महाशय का 'चर्ण परिचय' खोले मुंह लटकाए है। बोले, “प्पांचू की मां, तुम्हारा लड़का इस तरह से क्यों बैठा है? पढ़ना पड़ रहा हे शायद इसीलिए क्या?"

पांचू की मां ने कहा, “देखो न दादाजी, कब से कह रही हूं स्कूल में कल जो पढ़ा है उसे धर में अच्छी तरह पढ़ ले तभी तो मास्टर के सामने सबक सुना सकेगा । लेकिन  अभागा लड़का हर्गिज सुनने के लिए तैयार नहीं। इतने पैसे नही है कि घर पर मास्टर रखकर पदाऊं।"

शरतचन्द्र ने कहा, “अच्छा, तुम अर्ब जरा तम्बाकू भर लाओ। मैं इसे पढ़ाता हूं।”

हुक्का सामने रखते हुए पांचू की मां ने फिर कहा, “दादाजी, तुम ही बताओ, अभागे को कितना समझाती हूं कि ज्यादा न पड़े तो कम से कम पहली और दूसरी किताब तो पढ़ । कहती हूं यह जो हमारे दादाजी हैं, सुनती हूं वे किताबें लिखते है। अगर कुछ न भी कर सका तो पहली दूसरी किताब पढ़कर हमारे दादाजी की तरह चार किताबें लिखकर पेट तो पाल सकेगा। लेकिन अभागा किसी तरह पड़ता ही नहीं। आप कृपा करके इसे जरा समझा दो दादाजी । आपकी बातें सुनकर थोड़ी-सी अकल तो आए । मैं तब तक आपके लिए भोजन का इंतजाम करती हूं। न, न, यह नहीं होने का दादाजी। आज आप कितने दिनों के बाद आए है। थोड़ा-सा भोजन कराए बिना नहीं जाने दूंगी।”

उस दिन भोजन करते-करते और बस्ती के हर घर में पगधूलि देते-देते दिन का अन्त हो गया।

और इसीलिए अनीति के प्रचारक के रूप में उनकी प्रसिद्धि जरा भी कम नहीं हो सकी होती तो क्यों एक उच्चशिक्षिता भद्र महिला वीणा देवी सरस्वती क्ते अपने ही घर में अपमानित होना पड़ता वह स्वयं लेखिका थी । शरत् बाबू के प्रति श्रद्धा का कोई पार नहीं था। अक्सर उनसे मिलने के लिए आया करती थीं। एक दिन उन्होंने शरत् बाबू को भोजन के लिए निमन्त्रित किया।

जिस दिन उन्हें भोजन करने के लिए आना था उसी दिन वीणा देवी की एक अल्पशिक्षित ननद ने अपनी मां से कहा, “जानती हो मां, आज भाभी ने किसको खाने पर बुलाया है? अरे, वही अरलू चाटुज्जै, शराबी और चरित्रहीन । सुना है वेश्याओं के यहां पड़ा रहता है।"

मां ठहरी निरक्षर भट्टाचार्य । सुनकर स्व हो उठी । तुरन्त बहू के पास गई और बोली, बहू तुमने यह क्या किया? मैं यदि पहले जानती तो लड़की को मछली आदि लाने को मना कर देती। जो भी हो वह इस घर में नहीं आ सकता।”

वीणा देवी सुनकर परेशान हो उठीं। अनुनय-विनय के स्वर में उन्होंने का, या, केवल आज के लिए आज्ञा दे दो। फिर किसी दिन उन्हें नही बुलाऊंगी। निमन्त्रण देकर उन्हें न बुलाने से उनका अपमान होगा।”

लेकिन मां किसी तरह से राजी नहीं हुई। अपना अन्तिम निर्णय देते हुए उसने कहा, “जुम अभी उसके पास जाओ और कहो कि अचानक मेरी सास बहुत बीमार हो गई है, इसलिए आज भोजन की व्यवस्था नहीं ही सकेगी।”

भारी मन लेकर वीणा देवी जरत बाबू के पास गई, लेकिन वे झूठ नहीं बोल सकीं। रोते-रोते उन्होंने सारी कथा कह सुनाई। बोलीं, “अगर मेरे स्वामी या जेठ घर पर होते तो मां को समझाया जा सकता था। मेरी बात वे किसी भी तरह मानने को तैयार नहीं है।”

शरत् बाबू सहसा गम्भीर हो उठे। बोले, “ग्स बात को लेकर तुम अपने मन में किसी प्रकार का दुख न मानो मेरे संबंध में लोग इसी तरह की भूल करते हैं। न जाने क्या-क्या कहते रहते हैं। तुम्हारी भाभी से मैंने धर्म के अनुसार विवाह किया है, फिर भी लोग कहते हैं कि यह मेरी रखैल है।”

ऐसी भी नारियां थीं जो इस प्रकार की भूल नही करती थीं। उन्हीं में थी कानपुर की लीलारानी गंगोपाध्याय । उनसे अजस्र पत्र-व्यवहार तो चलता ही था, उनके घर निमन्त्रित होकर भी वे रह आये थे। उनके पति बहुत उदार थे। शरत् बाबू की बड़ी इच्छा थी, उनको निरुपमा देवी बनाने की। एक बार नवद्वीप के उनके घर में आकर वे उनसे रात भर बैठे बातें करते रहे थे। उन बातों का अन्त नहीं आ रहा था। लेकिन रात का अन्त आ गया था। उनके मित्र ने आखें खोलकर देखा, वे तब भी बातें कर रहे थे। लीलारानी ने उन्हें लिखा था, "रादा, एक बार मिलने के लिए आओ।"

और दादा दौड़े चले गए। लीलारानी ने उनके स्वागत-सत्कार का कैसा विराट आयोजन किया ! विदा की वेला भी कितनी भीग आई ! बार-बार आने की प्रतिज्ञा, कैसा अकपट स्नेह था उन दोनों में!

समाज के सभी वर्ग की नारियों से उनके सदा सहज और आत्मीय संबंध रहे। उनकी कहानियां सुनने को वे नारियां जैसे लालायित रहती थी। उनके कहने की भावभंगिमा पर वे मुग्ध थी। उनके विचारों पर वे प्राण निछावर करती थीं। ऐसा निःस्वार्थ, ऐसा उदार, ऐसा मुक्त मनुष्य अब से पहले उन्होंने कहां देखा था। उनकी इसी अगाध भक्ति के करण तो वे उन्हें जान सके और उनके प्रति होने वाले अन्याय के विरुद्ध संघर्ष कर सके, उन्हें मनुष्य की मर्यादा दिला सके। यह मर्यादा दिलाने के लिए ही उन्होंने मूक नारी को स्वर दिया और पतिता के अन्तर में छिपे मनुष्य को खोजा। लेकिन इतना सब कुछ करने पर भी क्या वे अपने मन की आदर्श नारी को (राजलक्ष्मी को) अपने जीवन में पा सके !

यह न पाना ही उनके साहित्य की शक्ति है।

68
रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
1

भूमिका

21 अगस्त 2023
42
1
0

संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

2

भूमिका : पहले संस्करण की

21 अगस्त 2023
19
0
0

कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

3

तीसरे संस्करण की भूमिका

21 अगस्त 2023
11
0
0

लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

4

" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

21 अगस्त 2023
11
0
0

किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

5

अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

21 अगस्त 2023
8
0
0

भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

6

अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
7
0
0

नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

7

अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
7
0
0

मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

8

अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
4
0
0

शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

9

अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
4
0
0

तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

10

अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
5
0
0

शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

11

अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
5
0
0

इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

12

अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
5
0
0

जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

13

अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
5
0
0

शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

14

अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
4
0
0

उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

15

अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
4
0
0

इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

16

अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
4
0
0

इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

17

अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
4
0
0

इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

18

अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
3
0
0

एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

19

अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
5
0
0

गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

20

अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
5
0
0

घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

21

अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
4
0
0

इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

22

" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
4
0
0

श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

23

अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
4
0
0

वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

24

अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
4
0
0

वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

25

अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
4
0
0

एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

26

अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
4
0
0

शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

27

अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
5
0
0

रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

28

अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
3
0
0

एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

29

अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
3
0
0

शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

30

अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
3
0
0

'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

31

अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
3
0
0

गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

32

अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
3
0
0

रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

33

अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
3
0
0

‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

34

अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
2
0
0

छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

35

अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
3
0
0

द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

36

अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
2
0
0

अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

37

अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
2
0
0

' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

38

अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
2
0
0

अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

39

अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
2
0
0

वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

40

" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

41

अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

42

अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
2
0
0

'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

43

अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

44

अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
2
0
0

चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

45

अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
2
1
0

उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

46

अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

47

अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

48

अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
2
0
0

अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

49

अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
2
0
0

किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

50

अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
2
0
0

राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

51

अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
2
0
0

देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

52

अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

53

अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

54

अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

55

अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
2
0
0

किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

56

अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

57

अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
2
0
0

केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

58

अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
2
0
0

चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

59

अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
2
0
0

साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

60

अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
2
0
0

जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

61

अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

62

अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
2
0
0

शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

63

अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

64

अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
2
0
0

राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

65

अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
2
0
0

सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

66

अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
2
0
0

हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

67

अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
2
0
0

कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

68

अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
2
0
0

इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए