एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन चरम उपेक्षाओं और अनन्त आशाओं की छया में बीत रहा था। न साधन न स्नेह का वरदहस्त, न सहानुभूति और न प्रोत्साहन की अमृतवाणी, मां क्तई मृत्यु के बाद तो जैसे जीवन में कुछ मधुर रह ही नहीं गया था। लेकि उसमें कहीं कुछ ऐसा था जो अतिशय भाबुक होने के बावजूद उसे जीवन से हार नहीं मानने दे रहा था। अपने आक्रोश और आकांक्षाओं, अभावों और आदर्शों को अभियक्ति देने का माध्यम उसे मिल गया था। इसी माध्यम ने उसमें जीने की अदम्य चाह पैदा कर दी थी।
सृजन के इन दिनौ में वह आकंठ प्रेम में डूबा हुआ था। इस आयु में हर युवक की आत्मा में प्रेम के लिए तड़प जागती है। विचारों ओर भावनाओं का एक तूफान मन और मस्तिष्क को आलोड़ित करता रहता है। कितनी विभिन्नता, कैसा विरोधाभास ! न सही हाड़-मांस की प्रेमिका, काल्पनिक प्रेमिका से भी तो यह भूमिका निभाई जा सकती है।
एक दिन वह मामा सुरेन्द्र के साथ उसके घर गया। कुछ दिन पहले तक वह इसी घर का सदस्य था। सब कुछ जाना-पहचाना, इसलिए बातों का अंत ही नहीं आ रहा था। रात बहुत बीत गई थी । सुरेन्द्र ने कहा, “चलो तुम्हें छोड आऊं।”
रास्ते में फिर बातें होती रहीं। इस बार शरत् ने कहा, “चलो मामा, मैं तुम्हें छोड़ आऊं।”
और इसी तरह रास्ता काटते-काटते वह रात कट गई। कितनी बातें की उन्होंने । सरस्वती उस समय शरत् की जिह्वा पर आ बैठी थी। इसी समय किसी प्रसंग में उसने कहा, “मैं सचमुच एक लड़की से प्रेम करता हूं।"
सुरेन्द्र आश्चर्य से उसकी ओर देखकर बोला, “क्या सच?”
“हां, तुमसे क्या कभी मैं कुछ छिपाता हूं?”
"कौन हे वह ?"
“न न, यह नहीं बताऊंगा।”
"अच्छा, उसका नाम तो बता !"
“उसका नाम है. नीरदा!”
शरत् ने यह भी कहा कि बनैली राज्य के काम से यात्रा करते हुए वह एक दिन नीरदा प्रेम में पड़ गया था। वह कहानी दादी के राजकुमार जैसी थी। तेज घोड़े पर चढ़कर शरत् भी अंधेरे में ही संथाल परगना की ओर चल देता था। वहीं तो थी उसकी यह प्रेमिका । उसके मन में तब एक ही बात रहती थी कि नीरदा उसकी राह देखती जागती बैठी है। हठात् वह घोड़े समेत एक दिन उस नदी में भी गिर पड़ा था। लेकिन इससे क्या वह रुका ? भीगे कपड़े पहने ही वह पवन गति से उड़ चला।
सुरेन्द्र ने बड़े आश्चर्य से यह कहानी सुनी, लेकिन वह उस नीरदा को कभी देख नहीं पाया। कोई भी नहीं देख पाया। हां, चर्चा बहुत लोग करते थे। कुछ लोगों ने यह भी कहा कि शरत् एक यहूदी लड़की से प्रेम करता है। कुछ लोगों ने उसे भिन्न-भिन्न लड़कियों के साथ एकांत में बात करते या बांसुरी बजाते भी देखा था, लेकिन आश्चर्य इस बात का था कि कोई किसी दूसरे को उसे इस स्थिति में नहीं दिखा सका। उसक प्रेम इतना मौन, इतना रहस्यमय था कि उसका ताप ही लोगों को छूता था। उसका रूप कभी किसी के सामने नहीं आ सका। नीरा कभी कल्पनालोक के एकांत में उसके पास ऐसे आती जैसे नींद में चल रही हो। उसे लिखते देखती रहती, देखती रहती, बोलती नहीं। शरत् को यह मौन असह्य हो उठता, तब नीरदा एकाएक पास आ बैठती, कहती, “सुनाओ तो, क्या लिखा है !”
शरत् सुनाने लगता, उसकी श्वास जोर-जोर से चलने लगती। नीरदा मुस्कराती हुई अपना मस्तक उस अभागे के कन्धे पर रख देती, और फिर उसे होश न रहता। उसी बेहोशी में बांसुरी बजाकर वह उसे मुग्ध कर देता। कभी उससे लड़ भी पड़ता और उसे छोड़कर चल देता। फिर नीरदा उसकी तलाश में निकल पड़ती, उसे ढूंढ लाती, अपने घर ले जाकर सबसे अच्छी शैया पर उसे सुलाती, उसके लिए हुक्का तैयार करती, अपने हाथों से संदे बनाकर खिलाती। फिर उसकी चारपाई के पास ही चटाई पर लेटकर उसकी बातें सुनती, अन्तहीन कल्पनालोक की बातें....
कभी ऐसा भी होता कि वह अभिमान से उसे छोड़कर चली जाती। कहती, "तुम्हारा- मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। तुम कुछ भी तो नहीं करते।”
“मैं.... मैं..... कृतिकार हूं। एक दिन......
“ कृतिकार !” वह हंस पड़ती, “कृतिकार भूखे मरते हैं। आवारा, चरित्रहीन, भला तुमसे मेरी शादी कैसे हो सकती है? कुल-मर्यादा का विचार भी तो ..
“कुल-मर्यादा? मैं कुल-मर्यादा में विश्वास नहीं करता। इस लोग दिखाऊ मर्यादा के ऊपर निर्भर करके तुम्हें दो प्राणों का नाश नहीं करना चाहिए।”
फिर उग्र होकर कहता, जुम यह सब कैसे कह सकीं ? तुम इतनी स्वाभिमानिनी हो, यह मैं नही जानता था। मैं तुम्हें नहीं चाहता। बिलकुल नहीं चाहता। तुम जो चाहो करो.. .I."
“नाराज़ हो गये ? मैं जानती हूं तुम मुझे प्यार नहीं करते। मैं चाहती भी नहीं कोई मुझसे प्यार करे। यह तो केवल मैं ही तुम्हें प्यार करना चाहती हूं.......”
इस प्रकार नीरदा के साथ मान-मनव्वल का यह कार्यक्रम चलता रहता, लेकिन कब और कहां, यह कोई नहीं जानता था । सब यही जानते थे कि शरत् दुश्चरित्र है। यह नीरदा बचपन की साथिन धीरू भी हो सकती है। कितनी कहानियां इस नाम के साथ जुड़ गई थीं। सुना कि वह शरत् से विवाह करने को आतुर थी। यह भी सुना कि विधवा होने के बाद उसकी भेंट फिर शरत् से हुई थी।
कहानियां ही कहानियां, सत्य कभी प्रकट नहीं हुआ, पर जाने दें धीरू को, नीरदा का नाम राजलक्ष्मी भी हो सकता है। उसे पार्वती व माधवी भी कहकर पुकारा जा सकता है। और यह भी हो सकता है कि यह नीरदा निरुपमा ही हो। उसकी रचनाएं पढ़ा- पढ़कर अभिभूत होती रहती थी और शरत् उसकी कविताओं की प्रशंसा करता रहता था। इसी प्रशंसा के माध्यम से मन ही मन प्रेम का अंकुर सब बाधाओं को ठेलकर ऊपर आ रहा था। एक दिन ऐसा हुआ कि वह घर में अकेली थी और शरत् बाहर बैठक में बैठा हुआ था। अक्सर वहीं बैठकर वह कभी पढ़ता तो कभी लिखता । दिन का अधिकांश भाग उसका वहीं बीतता था। उस दिन न जाने क्या हुआ, वह अपने को रोक न सका । एकाएक उसके सामने आकर खड़ा हो गया। बोला, “अजी कैसी हो?”
अत्यन्त धर्मपरायणा वह विधवा सहसा शरत् को देखकर हतप्रभ रह गई। उस एक क्षण में जैसे सहस्त्र युग समा गए। किसी तरह साहस बटोरकर उसने कहा, “तुम यहां से चले जाओ। तुम्हें यहां नहीं आना चाहिए।"
“बूड़ी.."
" ............"
''....... "
“जाओ, नहीं तो.."
और शरत् मस्तक नीचा किए धीरे-धीरे वहां से लौट आया। निरुपमा उसे इस बात के लिए क्षमा न कर सकी। उसने अपने दादा से इसकी शिकायत की। कहा, “यह तुम्हारा मित्र कैसा है? घर में कोई नहीं, फिर भी वह मुझसे बातें करने चला आया।”
दादा शरत् के सहपाठी थे। उन्होंने सोचा होगा कि निर्धन, निरीह और तत्कालीन मानदण्डों के अनुसार दुस्साहसी और दुराचारी शरत् यह साहस कैसे कर सका? कोई सुन लेगा तो क्या होगा? क्या होगा नीतिपरायण सम्भ्रान्त परिवार की इस विधवा का ... ..? लेकिन क्या इन दोनों का विवाह नहीं हो सकता?
नहीं, नहीं, नहीं, यह दुस्साहस है।
उस युग में विधवा-विवाह के लिए आन्दोलन तो बहुत हुए थे, लेकिन समाज ने उसे अभी स्वीकार नहीं किया था। यह प्रस्ताव भी कैसे स्वीकृत हो सकता था? शायद किसी ने इस बात पर विचार भी नहीं किया होगा। शायद यह सब कुछ उसके उर्वर कल्पना-जगत् में घटित हुआ होगा, या फिर..... कुछ भी हुआ हो, यौवन की उस प्रथम बेला में यह प्यार व्यर्थ हो गया। लेकिन समस्त उच्छृंखलताओं के बीच वह हमेशा के लिए उसके अन्तर में समा गया।
यद्यपि निरुपमा उसकी रचनाओं को पढ़कर अभिभूत हुई थी, फिर भी तत्कालीन सामाजिक कठोरता को देखते हुए उसके मन की बात जानने का कोई मार्ग नहीं था। जानने के लिए प्रयत्न करना भी अपमानजनक हो सकता था । समाज-शास्त्री सिर उठाकर कठोर स्वर में कह सकता था, “तुम एक उच्च कुल की विधवा को अपमानित करना चाहते हो ! जिसने पर-पुरुष की छाया तक नहीं देखी, वह प्रेम कैसे कर सकती है? ऐसा सोचना ही पाप है।”
लेकिन क्या एकतरफा प्रेम कम शक्तिशाली होता है? क्या वह अपने आप में मधुर नहीं होता? क्या सफलता ही उसके होने का प्रमाण है? मन ही मन किसी के लिए अपने को विसर्जित नहीं किया जा सकता है क्या? इस वेदना को स्नेह कहो, प्रेम कहो, आयु का दोष कहो, पर इसके अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता। उसमें प्रेम की भूख अपार है, लकिन तृप्ति का कहीं कोई साधन नहीं है। यह अतृप्ति दर्द के रूप में कुण्डली मारकर उसके अंतर में रम गई और उसकी अभिव्यक्ति हुई 'देवदास' और 'बड़ी दीदी' आदि रचनाओं में। इन रचनाओं में असफल प्रेम का वही दर्द परिव्याप्त है। नीरदा हो या निरुपमा, 'देवदास' की पारो हो या 'बड़ी दीदी' की माधवी, वे सब एक ही हैं। असफल प्रेम के दर्द की प्रतिमाएं । निरुपमा उसे चले जाने के लिए कहती है। माधवी भी सुरेन्द्रनाथ के आने पर छोटी बहन प्रमिला से कहती है, “प्रमिला, मास्टर साहब से बाहर जाने के लिए कह दे ।”
लेकिन वह निरुपमा के समान कठोर नहीं है। वह जाने के लिए कहती है, पर कोमल स्वर में। सिर पर लम्बा घूंघट खींचकर एक कोने में खिसक जाती है और बाद में लाज के मारे सुरेन्द्रनाथ की देखरेख में कुछ कमी भी कर देती है।
ये सब उपन्यास की बातें हैं। लेकिन भित्तिहीन वे नहीं हैं। उसके भोगे हुए यथार्थ पर आधारित हैं। बहुत वर्षों बाद अपराजेय कथा-शिल्पी शरत्चन्द्र ने सुप्रसिद्ध कवयित्री राधारानी देवी को लिखा था, “कभी सम्भव हुआ तो तुम्हें एक कहानी सुनाऊंगा। सुनने में कथा-कहानी की तरह अवास्तविक लगेगी, लेकिन इससे अधिक वास्तव सत्य मेरे जीवन में और कुछ नहीं है।"
क्या यह कहानी निरुपमा की कहानी ही नहीं है? इस सत्य पर पहुंचने का कोई मार्ग अब शेष नहीं है। केवल इतना ही ज्ञात है कि प्रेम में असफल होकर भी शरत् न तो आत्महत्या कर सका और न संन्यासी बन सका, लेकिन स्त्रष्टा बनने का मार्ग निश्चय हो उसे मिल गया। इस मार्मिक अनुभूति ने साहित्य में प्रतिबिम्बित होने का मार्ग पा लिया। नीरदा या निरुपमा से मिलन उसको व्यक्तिगत तृप्ति का कारण हो सकता था, परन्तु बिछोह ने एक शक्तिशाली कलाकार को जन्म दिया। विरहबोध ही जीवन और यौवन का आवेग है। बुद्धि इसकी थाह नहीं पा सकती, हृदय से ही इसका स्वरूप जाना जा सकता है। उसके साहित्य में यही विरहबोध मुखर हुआ। आदर्श और यथार्थ, समस्या और समाधान, सब कुछ हृदय-रस की संजीवनी में डूबे हुए हैं।
एक और क्षेत्र से उसकी इस प्रवृत्ति को बल मिला। 'बंगदर्शन' में उसने 'आख की किरकिरी' पढ़ी थी। रवीन्द्रनाथ ने अपनी इस युगान्तरकारी रचना में विधवा के प्रणय को स्वर दिया है और बंकिमचन्द्र की तरह आदर्श की रक्षा के नाम पर उसकी हत्या नहीं की। स्पष्ट कहा कि यदि किसी विशेष अवस्था में कोई विधवा किसी पुरुष के प्रति आसक्त हो जाती है तो उसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं है, इसके विपरीत 'कृष्णकान्त के वसीयतनामा' में रोहिणी की प्रणय-आकांक्षा को सार्थक न करके बंकिमचन्द्र ने उसकी हत्या करा दी है। इसके लिए शरत् जीवन-भर उन्हें क्षमा नहीं कर सका, और रवीन्द्रनाथ की संस्कार मुक्ति के कारण जीवन भर उनको गुरु मानता रहा ।
उसके अन्तर के संघर्ष के मूल में ये दो साहित्यस्स्रष्टा शुरू से ही आसन मारके बैठ गये थे।