संस्करण सन् 1999 की
‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं।
जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही मन डर रहा था कि कहीं बंगाली मित्र मेरी कुछ स्थापनाओं को लेकर क्रुद्ध न हो उठें। लेकिन मेरे हर्ष का पार नहीं था जब सबसे पहला पत्र मुझे एक बंगला भाषा की पत्रिका के संपादक का मिला। उन्होंने लिखा था कि आपने एक अत्यंत महत्वपूर्ण और चिरस्थायी कार्य किया जो हम नहीं कर सके।
मैं तो जैसे जी उठा । वैसे कुछ अपवादों को छोड़कर सभी पाठकों ने मुझे साधुवाद दिया। उन पाठकों में सभी वर्गों और श्रेणियों के व्यक्ति थे। तब से यह क्रम अभी तक जारी है।
इसकी रचना प्रक्रिया पर प्रथम संस्करण की भूमिका में मैंने विस्तार से प्रकाश डाला है। उसके प्रकाशित होने के बाद मुझे यह आशा थी कि शायद कुछ और तथ्य सामने आयें लेकिन तीसरा संस्करण प्रकाशित होने तक कुछ विशेष उपलब्धि नहीं हुई परंतु कुछ ऐसी घटनाएँ अवश्य सामने आइ जो उनके चरित्र को और उजागर करती थीं। उनका वर्णन तीसरे संस्करण की भूमिका में ( सितम्बर 1977 ) किया। वे सब अंश इस संस्करण की भूमिका में भी शामिल कर लिए गए हैं।
दूसरे संस्करण में टंकण और मुद्रण या किसी और प्रमादवश जो अशुद्धियों रह गईं थीं उन्हें भी ठीक कर दिया था। यहाँ-वहाँ आए कुछ उद्धरण या तो निकाल दिए थे या उनका कलेवर कुछ कम कर दिया था।
मैंने उस संस्करण में बंगला शब्दों का प्रचुरता से प्रयोग किया था। समीक्षकों और सुधी पाठकों के सुझाव पर उन्हें भी कम कर दिया। महात्मा गाँधी पर शरत् बाबू ने जो मार्मिक लेख लिखा था उसे परिशिष्ट में दे दिया था। उस लेख को देने का कारण यह था कि शायद सभी लोग उन्हें गाँधी जी का कट्टर विरोधी मानते थे पर उस लेख में शरत् बाबू ने उनका जो विश्लेषण प्रस्तुत किया है, उनके प्रति विरोध के रहते भी जो गहरी आस्था प्रकट की है, वह अद्भुत है।
उसे परिशिष्ट में देने का कारण यह था कि तीसरे खंड में भारीपन की जो शिकायत कुछ मित्रों ने की थी वो कम हो जाए। शायद हुई भी है।
शरत बाबू की जन्म शताब्दी के उत्सव सितम्बर 1977 तक समाप्त हो गए थे। उस समय बंगला में उन्हें लेकर बहुत कुछ लिखा गया । उन्हें फिर से खोजने की चेष्टा की गयी। मुझे आशा थी कि सम्भवतः उनके जीवन के सम्बन्ध में कुछ नए तत्व उजागर हों। कहने को कुछ हुए भी पर उनमें कोई ऐसा नहीं था जो इस पुस्तक की मूल स्थापनाओं को प्रभावित कर सकता ।
फिर भी कुछ बातें ऐसी हैं जिनका उल्लेख करना आवश्यक है। गुजराती में सबसे पहले सन् 1925 के आसपास महात्मा गाँधी के आदेश पर उनकी कुछ रचनाओं का अनुवाद श्री महादेव देसाई ने किया था। वे रचनाएँ थीं 'विराज बहू', 'बिन्दो का लल्ला', 'राम की सुमति', और 'मंझली दीदी' ।
उनके मधुर कंठ की चर्चा इस पुस्तक में विस्तार से हुई है। पर उनका रचा कोई गीत भी है इसकी प्रमाणिक जानकारी मुझे नहीं थी। श्री सत्येश्वर मुखोपाध्याय ने अपने लेख 'सुर - प्यारी शरच्चन्द्र' में यह दावा किया है कि ' षोडशी' नाटक का यह गीत उन्हीं की रचना है-
तोर पावार छिल जखन
ओरे अबोध मन
मरण खेलार नेशा मेते इलि अचेतन ।
ओरे अबोध मन।
तखन छिल मणि, छिल माणिक
पथेर धारे,
एखन डूबल तारा दिनेर शेषे
विषम अन्धकारे ।
आज मिध्ये दे तोरे खोंजा खूंजि
मिथ्ये चोखेर जल
तारे कोथाय पाबि बल? तारे अतल तले तलिये गेल
शेष साधनार धन ।
ओरे अबोध मन।
हिरण्मयी देवी के विवाह को लेकर एक बार फिर विवाद उठ खड़ा हुआ था। लेकिन वसीयतनामे में शरद बाबू ने उन्हें अपनी पत्नी स्वीकार किया है। वही हमारे लिए सत्य है। शास्त्रसम्मत विधि विधान से उन्हें यह पद मिला अथवा ह्दय के मिलन द्वारा यह विवाद अब अर्थ खो बैठा है।
वे मुक्त मन से क्रांतिकारियों की आर्थिक सहायता करते थे यह बात भी इस पुस्तक में बार-बार कही गई है। इस बात को प्रमाणित करने वाले कुछ और तथ्य सामने आए हैं।
हेनरी वुड के उपन्यास 'इस्टलीन' के आधार पर शरच्चन्द्र ने एक उपन्यास 'अभिमान' लिखा था जिसे पढ़कर एक युवक इतना क्रुद्ध हुआ कि उनसे मारपीट करने के लिए तैयार हो गया था। श्री गोपालचन्द्र राय का अनुमान हैं कि वह युवक ब्रह्मसमाजी रहा होगा, क्योंकि ‘अभिमान' में एक ब्रह्मसमाज परिवार की नारी अपने पहले पति को त्यागकर दूसरा विवाह कर लेती है। 'इस्टलीन' जिस परिवेश का उपन्यास है उस परिवेश में ऐसा करना पाप नहीं समझा जाता था परन्तु इस युग के भारतीय परिवेश में ऐसा चित्रित करना निस्संदेह निंदनीय समझा जाता था ।
एक और महत्वपूर्ण तथ्य जिसका उल्लेख करना आवश्यक है, वह यह है कि श्रीमती निरुपमा देवी ने पत्र लिखकर उनसे प्रार्थना की थी कि वे अपनी रचनाओं में विधवा चरित्र की आलोचना न करें। तब उन्होंने निरुपमा देवी को वचन दिया था : “तुम्हारे मन को आघात पहुँचाकर ऐसा कुछ कभी नहीं लिखूँगा।”
निरुपमा देवी से उनके सम्बन्धों की विवेचना करते समय इस तथ्य को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। मेरी स्थापना को इससे समर्थन ही मिलता है।
उनके अपने चरित्र के विभिन्न पहलुओं को उजागर करने वाली कुछ और कथाएँ सामने आई हैं। उनमें से दो घटनाओं का हम उल्लेख करना चाहेंगे।
एक रात वह अचानक सोते-सोते जाग पड़े। गांव में शोर मच रहा था। बीच-बीच में किसी का चीत्कार भी सुनाई दे जाता था। वह विचलित हो उठे। तुरन्त बाहर आए। पता लगा कि दो युवक चोरी करते हुए पकड़े गए हैं, उन्हीं को गाँववाले पीट रहे हैं।
पशु का क्रन्दन सुनकर जो विकल हो उठते थे वह मनुष्य को पिटते देखकर कैसे शान्त रह सकते थे। तुरन्त घटनास्थल पर पहुँचे। लोगों को समझाया बुझाया। कहा कि मारो मत। चोरी की है तो पुलिस को सूचना दो।
गाँव वालों ने उनकी बात मान ली। शरदबाबू उन दोनों युवकों को अपने घर ले गए। पुलिस के आने तक वे वहीं रहे। बेचारों के प्राण बचे ।
लेकिन जब पुलिस उनको लेकर चली गई तब क्या हुआ उनको । दिन चढ़ गया पर वे कमरे से बाहर नहीं निकले। हिरण्मयी देवी ने अनुनय-विनय की । मित्र आए पर वे रोते ही रहे। कहते रहे, कितना बड़ा पाप किया मैंने । दो युवकों को चोर बना दिया। उन्हें पुलिस को सौंप दिया। वहाँ से आने पर वे दागी चोर बन कर ही निकलेंगे।
वह जितने सम्वेदनशील थे उतने ही दृष्टा भी थे, और उतनी ही तीव्र थी उनकी सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति। एक दिन उन्होंने अचानक अपने मित्रों से कहा, “आओ, किसी गाँव में चला जाए ।"
मित्र लोग तैयार हो गए और शहर से सात-आठ मील दूर दुर्गापुर गाँव की ओर चल पड़े। जैसे ही गाँव के पास पहुँचे तो कुत्तों ने जोर-जोर से भौंकते हुए उनका स्वागत किया। मित्र लोग उन्हें डाँटने लगे तो शरद् बाबू ने उन्हें रोक दिया, “वे अपना काम कर रहे हैं। अभी चुप हो जाएँगे। बढ़िया कुत्ते हैं।”
एकदम देसी कुत्ते थे। बढ़िया कैसे हो सकते हैं यह बात मित्रों की समझ में नहीं आई पर उन्हें गाँव में जाना था। गए, गाँव के पुरुषों से कथा-वार्ता हुई। शरद बाबू खूब प्रसन्न हुए।
लौटते समय गाड़ी में बैठे-बैठे शरद बाबू ने, जैसा कि उनका स्वभाव था, खूब बातें कीं। कुत्तों की चर्चा भी हुई। वह बोले, “देखो, कुत्ते गाँव के लोगों की आर्थिक स्थिति थर्मामीटर होते हैं। अगर गाँव के कुत्ते खूब हष्ट-पुष्ट है तो समझ लो कि गाँव के लोगों को खाने-पीने का अभाव नहीं है। यहाँ यही सब देखने को मिला। "
मुजफ्फरपुर प्रवास के बारे में और 'देवदास' उपन्यास के चरित्रों के बारे में भी लेख पढ़ने को मिले पर 'आवारा मसीहा' में जैसा वर्णन मैंने किया है, उन लोगों के कारण उसमें कोई संशोधन करने की आवश्यकता मुझे महसूस नहीं हुई।
बनारस के श्री विश्वनाथ मुखर्जी (अब स्वर्गीय) ने श्री शरद बाबू की एक और जीवनी लिखी है। मैं उसे पढ़ नहीं पाया पर जिन मित्रों ने पढ़ा उन्होंने उसकी प्रशंसा की पर यह भी कहा कि उसके कारण 'आवारा मसीहा' पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला ।
मेरे समीक्षक मित्रों ने मेरी रचना का जहाँ मुक्त मन से स्वागत किया वहीं कुछ ने आलोचना भी की। कुछ त्रुटियों की ओर भी संकेत किया, कुछ सुझाव भी दिए। कृतज्ञ भाव से उस दिशा में जो कुछ कर सकता था मैंने किया है। जो नहीं कर सका उसका मुख्य कारण था प्रामाणिकता का अभाव। कहीं-कहीं मतभेद भी है, जो स्वाभाविक है।
इसके रचनाकाल में कैसी-कैसी कठिनाइयाँ मेरे सामने आईं, उसकी एक झलक मैंने प्रथम संस्करण की भूमिका में दी है पर उससे मेरे समीक्षक और पाठक संतुष्ट नहीं हो सके। सबकी चर्चा करना तो कई कारणों से अब भी संभव नहीं होगा पर एक बात की ओर संकेत अवश्य करना चाहूँगा । शरद बाबू का जीवन क्रम इतना उलझा हुआ, इतना विशृंखल है कि उसमें तारतम्य बैठाना, उसके क्रम को ठीक करना बड़ा दुष्कर कार्य है। कौन-सी घटना कब, कैसे घटी, कब कहाँ रहे, कितने दिन रहे, कौन-सा भाषण कब दिया, क्या ठीक-ठीक कहा, इसका लेखा-जोखा कहीं उपलब्ध नहीं है। जो है वह एकदम विशृंखल है। उसकी तलाश में मुझे बरसों यहाँ-वहाँ भटकना पड़ा। ज्योतिषियों की शरण ली, विश्वविद्यालय के कैलेंडर देखे, स्कूल-कालेज के रजिस्टर टटोले, पुरानी पत्रिकाएँ ढूँढ़ी, तब कुछ रूप दे सका।
वह भागलपुर से कब भागे, इसका कुछ-कुछ सही पता तब चला जब भागलपुर में ही रचित और हस्तलिखित पत्रिका में प्रकाशित उनकी जुलाई सन् 1901 की एक रचना देखने में आई। दिसंबर 1902 के अन्त में उन्होंने अपनी बहन के घर गोविंदपुर से मामा गिरीन्द्रनाथ को जो पत्र लिखा था वह मुझे दिल्ली में ही उनके पुत्र श्री अमलकुमार गांगुली के सौजन्य से सन् 1973 में मिल सका। उसके मिलने से बहुत-सी तिथियाँ
ठीक हो गईं। वह वहाँ से कब लौटे, इसकी तिथि भी अनुमान प्रमाण के सहारे निश्चित की गई है। नहीं तो एक लेखक ने उन्हें उसके बाद भी रंगून में रवीन्द्रनाथ से मिलते दिखाया है।
उनके प्रायः सभी जीवनीकारों ने लिखा है कि उन्होंने मैट्रिक दिसंबर सन् 1894 में पास किया लेकिन जब मैंने विश्वविद्यालय जाकर कैलेंडर देखा तो परीक्षाएं सोमवार 12 फरवरी सन् 1894 में आरम्भ हुईं। परीक्षाफल अधिक से अधिक अप्रैल 1894 में घोषित हुआ होगा। कैलेंडर में वह दिसंबर में ही छप सका। उसी को देखकर सबने मान लिया कि उन्होंने दिसंबर 1894 में मैट्रिक पास किया। यदि ऐसा हुआ होता तो वे उस वर्ष कालेज में प्रवेश कैसे पा सकते थे?
बंगाली निश्चित रूप से बंगाब्द का प्रयोग करते हैं। इसलिए मेरे सामने एक और समस्या थी कि इन तिथियों को ईसवी सन् के अनुसार तिथियों में कैसे परिवर्तित करूँ । पुराने कैलेंडरों की तलाश में अनेक मित्रों और पुस्तकालयों की शरण लेनी पड़ी क्योंकि तिथियों का अपना महत्व है। जो ज्योतिषशास्त्र में विश्वास करते हैं, वे इस बात को खूब समझते हैं।
तो इन विसंगतियाअंत नहीं था। बेशक ये विसंगतियाँ शरच्चन्द्र को प्रभावित नहीं करतीं। वे कब कहां रहे, कब कहां गए, यह अन्ततः कोई महत्व नहीं रखता पर जीवन क्रम को समझने के लिए इनकी आवश्यकता होना स्वाभाविक ही है।
'आवारा मसीहा' नाम को लेकर काफी ऊहापोह मची। वे वे अर्थ किए गए जिनकी मैं कल्पना भी नहीं की थी। मैं तो इस नाम के माध्यम से यही बताना चाहता था कि कैसे एक आवारा लड़का अन्त में पीड़ित मानवता का मसीहा बन जाता है। आवारा और मसीहा दो शब्द हैं। दोनों में एक ही अन्तर है। आवारा मनुष्य में सब गुण होते हैं पर उसके सामने दिशा नहीं होती। जिस दिन उसे दिशा मिल जाती है उसी दिन वह मसीहा बन जाता है। मुझे खुशी है कि अधिकांश मित्रों ने इस नाम को इसी सन्दर्भ में स्वीकार किया।
यह संस्करण आते-आते मुझे कुछ घटनाओं और तथ्यों के बारे में भी जानकारी मिली। पृष्ठ 138 पर उनके मामा उपेन्द्रनाथ उन्हें खोजते खोजते जब वेश्यालय गए और शरत् के बारे में पूछा तो उन्हें जो उत्तर मिला वह ऐसे था, 'ओह, दादा ठाकुर के बारे में पूछते हैं। ऊपर चले जाओ। सामने ही पुस्तकों के बीच में जो मानुष बैठा है वही शरत् है।' पृष्ठ 255 पर 'पर्थर दाबी' के जब्त होने की तारीख सरकारी दस्तावेज के अनुसार जनवरी 1927 है, अर्थात 31 अगस्त 1926 को प्रकाशित होने के चार माह बाद पुस्तक जब्त हुई ।
पृष्ठ 397 पर प्रेमचन्द के कहानी संग्रह पर अपनी सम्मति देते हुए उनकी बहुत प्रशंसा की पर साथ ही यह भी लिखा कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के साथ उनकी तुलना करना अनुचित है। उन्होंने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि इस पुस्तक की भूमिका में श्री मन्नन द्विवेदी ने लिखा था, 'कुछ लोगों का विचार है कि आपकी गल्प साहित्यमार्त्तण्ड रवीन्द्र बाबू की रचना से टक्कर लेती है।"
'सप्त सरोज' में निम्नलिखित कहानियाँ संकलित थीं- 1. बड़े घर की बेटी 2. सौत 3. सज्जनता का दंड 4. पंच परमेश्वर 5 नमक का दारोगा 6. उपदेश और 7 परीक्षा। प्रथम खंड अध्याय 10 में राजा शिवचन्द्र की चर्चा आई । वे तत्कालीन सुधारक दल के नेता माने जाते थे। वे इतने प्रसिद्ध हो गए थे कि उनके बारे में एक कहावत बन गई थी-
राजन पाट शिवचन्द्र राजा
ढोल न ढाक अंगरेज़ी बाजा
आज भी लोग इस कहावत का प्रयोग करते हैं।
यहाँ एक बात और स्पष्ट कर दूँ। 'आवारा मसीहा' में आई किसी घटना के बारे में मैंने कल्पना नहीं की। जितनी और जैसी जानकारी पा सका हूँ उतना ही मैंने लिखा है। प्रथम पुरुष के रूप में उनके मुख से जो कुछ कहलवाया है, वह सब उनके उन मित्रों के संस्मरणों से लिया है जो उसके साक्षी रहे हैं। यथासम्भव उन्हीं की भाषा का प्रयोग मैंने किया है। प्रामाणिकता की दृष्टि से एक दो स्थानों पर उनकी रचनाओं में आए उन्हीं स्थलों के वर्णन का भी सहारा लिया है पर ऐसा बहुत कम किया है। मैंने अगर स्वतंत्रता ली भी है तो उतनी ही जितनी एक अनुवादक ले सकता है।
मनचाहा तो कभी होता नहीं पर विसंगतियों और असंगतियों के बावजूद मित्रों ने, विशेषकर बंगाली मित्रों ने मेरे इस तुच्छ प्रयत्न का जैसा स्वागत किया है उससे मेरा उत्साह ही बढ़ा है। प्रसन्नता की बात है कि इसका अनुवाद अंग्रेजी तथा भारत की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में हो चुका है। उन सबके प्रति मैं नतमस्तक हूँ।
अन्त में शरच्चन्द्र के प्रति नतमस्तक होकर बंगला के मूर्धन्य कवि नजरुल इस्लाम के शब्दों में इतना ही कहूँगा-
अवमाननार अतल गहरे ये मानुष छिलो लुकाये
शरतचांदेर ज्योत्सना तादेर दिलो राजपथ दिखाए
- विष्णु प्रभाकर
28 जुलाई 1999
818 कुण्डेवालान, अजमेरी गेट
दिल्ली-6