शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड्डा जमाने में सिद्धहस्त था, जो अभद्र भेलू और प्राणप्रिय पक्षी के लिए कुछ भी सहने को तैयार था ? राजनीति ने उस असली शरत्चन्द्र को ग्रस लिया था। लेकिन वे बिल्कुल ही न लिखते हों ऐसी बात भी नहीं थी। शरत् ग्रंथावली —के पांचवें खण्ड के अतिरिक्त 'नारी का मूल्य' (संदर्भ) और 'देना- पावना' उपन्यास इसी काल में प्रकाशित हुए । 'श्रीकान्त' का तीसरा पर्व, 'पथेर दाबी', नवविधान' और 'जागरण'; ये चार उपन्यास भी उन्होंने इसी काल में लिखने आरम्भ किए। इसी काल में प्रकाशित हुई उनकी दो प्रसिद्ध कहानियां 'महेश' और 'अभागी का स्वर्ग' ।
इसके अतिरिक्त उनके कुछ प्रसिद्ध भाषण और कुछ लेख भी इसी काल में प्रकाशित हुए और इसी काल में प्रकाशित हुआ 'श्रीकान्त' प्रथम पर्व का अंग्रेजी अनुवाद 21 यह अनुवाद के० सी० सेन और थियोडोसिया टामसन ने किया था। भूमिका लिखी थी ई० जे० टामसन ने प्रकशन हुआ था आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से।
देना-पावना' के साथ एक मधुर कहानी जुड़ी है। प्रसिद्ध नाटककार क्षीरोद प्रसाद विद्याविनोद बिन्दी का लल्ला' पढ़कर बिगड़ उठे थे। ऐसा लगता है वे उसे बिना पड़े ही बिगड़ पड़े थे। क्योंकि श्री यतीन्द्वमोहन सिंह ने अपनी पुस्तक 'भाहित्य की स्वास्थ्यरक्षा' में उन्हें अनीति क्त प्रचारक प्रमाणित करने में प्राणपण से चेष्टा की थी। परन्तु जब उन्होंने 'दत्ता' पढ़ा तो वे मुग्ध हो उठे। उसके बाद पढ़ा देना- पावना' । कैसी भाषा ! कैसा चरित्र- चित्रण! वे अभिभूत हो आए। उन्होंने नलिनीकान्त सरकार से कहा, मैं शरत् बाबू से मिलना चाहता हूं।"
"किसलिए?"
"उन्हें प्रणाम करके उनका अभिनन्दन करूंगा।"
वयोज्येष्ठ साहित्यकार इससे अधिक और क्या कहते । और सचमुच जब वे दोनों मिले तो क्षीरोद बार ने शरत् को ऐसे छाती में भर लिया, जैसे जब अलग ही नहीं होंगे।
इस काल की उनकी रचनाओं पर स्पष्ट ही उनकी राजनीतिक अभिज्ञता का प्रभाव है। उनके मस्तिष्क में अनुभवों के विशाल कोष थे, जो उन्हें प्रेरणा और सूझ प्रदान करते रहते थे। गरीबी, ज़मींदारों के अत्याचार और स्वाधीनता के प्रति अदम्य आकांक्षा का इन रचनाओं में प्रस्फुटन हुआ है। 'महेश' कहानी को पढ़कर श्री अरविन्द ने लिखा था,
"वीस्मित कर देनेवाली रचना - शैली, महान स्रष्टा - शिल्पी जो मानव हृदय में गम्भीर आवेग पैदा करने में सक्षम है।"
आश्चर्य! यह कहानी डिस्ट्रिक्ट बोर्ड से सहायताप्राप्त, सरकारी मत क्त प्रचार करनेवाली पत्रिका 'पल्लीश्री' में प्रकाशित हुई थी। इसे पढ़कर एक हिन्दू ज़मींदारों ने आक्षेप किया, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड से सहायता प्राप्त पत्र में ऐसी कहानियां नहीं छपनी चाहिए। में इससे प्रजा ज़मींदारों के विरुद्ध उठ खड़ी होगी, अर्थात् देश का सर्वनाश होगा।"
यह कहानी इस पत्र में कैसे छपी, इसका एक इतिहास है । शरत् बाबू के पड़ोसी अक्षय बाबू हुगली गवर्नमेंट कालेज में प्राध्यापक थे। वे पल्लीश्री' के सम्पादक होने को मजबूर थे। उन्होंने शरत् बाबू से एक कहानी देने की प्रार्थना की थी। वही कहानी थी 'महेश'। शरत् बाबू शायद उस क्षण यह कल्पना भी नहीं कर सके थे कि यह कहानी उनके साहित्य की ही नहीं विश्व - साहित्य की श्रेष्ठ कृति है लेकिन अक्षय बाबू अवश्य इस तथ्य को समझ गए थे। वे नहीं चाहते थे कि इतनी सुन्दर कहानी ऐसे पत्र में छपे । इसीलिए उन्होंने स्वयं इस बात की व्यवस्था की कि 'महेश' पल्ली श्री के साथ-साथ उसी महीने बंगवाणी' में भी प्रकाशित हो ।
'अभागी का स्वर्ग' में शरत्चन्द्र ने गरीबी से पीड़ित दूले समाज का दारुण चित्र अंकित किया है। इनके मुर्दों के लिए लकड़ी का विधान नहीं है, लेकिन कंगाली की मां की साध थी चिता पर जलकर स्वर्ग जाने की। वह साध पूरी न हो पाई। गड्ढे में दबकर ही उसे गति पानी पड़ी। अपने हाथ से रोपे हुए पेड़ हो भी वे लोग न काट सके। नीच जाति के दूले कहीं ब्राह्मण-कायस्थों कई बराबरी कर सकते हैं?
'पथेर दाबी' उनके अपने राजनीतिक विश्वास का प्रतीक है। अपने आवारा जीवन में उन्होंने अनेक देशों की जो यात्रा की थी, उसका अनुभव ही मानो उसमें संचित हुआ है। जिस समय वे इसे लिख रहे थे, उस समय उनके सामने बंगाल का क्रांतिकारी आन्दोलन तो था ही सुप्रसिद्ध रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की का उपन्यास 'मां' भी था। वे मानते थे, "गोर्की की रचनाएं पढ़ने के बाद मुझे ऐसा लगता है कि जीवन की जैसी पकड़ उसमें है, वैसी न दास्तायव्स्की में पाई जाती है और न किसी और में।"
उन्होंने उनका अभी प्रकाशित कहानी-संग्रह 'क्रीचर दैट वन्स मैन' पढ़ा था। पढ़कर कहा था, "इन कहानियों में जीवन के प्रति एक नया दृष्टिकोण है, नई भावधारा, नई शैली, नई टेकनीक। गोर्की मानवता के लिए एक नया सन्देश लेकर आया है।"
इलाचन्द्र जोशी ने लिखा है, "तब वह पतित नर-नारियों से संबंधित युग पार कर चुके थे और अपने रचनाकाल के तीसरे चरण में प्रवेश कर रहे थे। 'पथेर दाबी' के कुछ परिच्छेद वे लिख चुके थे और अब वह उसे नया मोड़ देना चाहते थे, बल्कि गोर्की उन पर बड़े ज़ोर से हावी हो रहा था। 'पथेर दाबी पर निश्चय ही गोर्की का प्रभाव है। दोनों के जीवन में भी किसी सीमा तक साम्यता है। दोनों ने बहुत दिन तक आवारगी का जीवन बिताया था। दोनों ने जीवन को सचमुच बहुत पास से देखा था। दोनों ही मुक्ति आन्दोलन के प्रबल समर्थक थे। व्यक्तिगत रूप से अहिंसा के पथ के पथिक होने पर भी, शरत्चन्द्र देश की मुक्ति के लिए हिंसा का मार्ग अपनानेवालों को सच्चे मन से प्यार करते थे। "
राजनीतिक अभिज्ञता का प्रमाण उनके असमाप्त उपन्यास 'जागरण' से भी मिलता है। लगभग दो वर्ष तक वह 'वसुमति' में छपता रहा था। लेकिन वे उसे पूरा नहीं कर सके थे। कर पाते तो निश्चयही यह उपन्यास अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता, इसीलिए नहीं कि इसकी शैली प्रौढ़ है बल्कि इसलिए भी कि इसमें जो राजनीतिक विचार प्रकट हुए हैं, वे मानो भविष्यवाणी के रूप में हैं। साहित्यिक महाकाल का स्वामी होता है। आने वाले युग की कल्पना उसके लिए असाध्य नहीं है। इस उपन्यास में एक स्थान पर नायिका का ज़मींदार पिता कहता है, "प्रजा की मनःस्थिति में भारी परिवर्तन आ गया है। अब यह चाहे शिक्षा का परिणाम हो, चाहे युगधर्म का हो, चाहे ज़मींदारों के अत्याचारों का नतीजा हो जनता अब ज़मींदारी प्रथा का नाश चाहती है। दो रोज़ पहले हो या दो रोज बाद, ज़मींदारी मिटेगी ज़रूर। ज़मींदारी को विदा होना होगा। तुम किसी भी तरह इसे बचा न सकोगे।"
ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करने के बारे में इतना स्पष्ट मत उस समय शायद किसी भी कथाकार ने व्यक्त नहीं किया था। न जाने क्यों वे इसे पूरा न कर पाए । शायद अपने चिरसंगी आलस्य के कारण, शायद इस कारण भी कि देशबन्धु की मृत्यु के बाद उनका मन राजनीति में नही रहा था। 'पथेर दाबी' भी ये बड़ी कठिनता से 'बंगवाणी' के बार-बार आग्रह करने पर कई वर्ष में पूरा कर सके थे।
'नवविधान' 'पुराने ढर्रे की पुस्तक है, जिसमें नई साहबी सभ्यता के विरोध में प्राचीन हिन्दू रीति-नीति की (कर्मकाण्ड की नहीं) जय पताका फहराई गई है। शायद शरत् बाबू स्वयं इस बात को समझते थे। एक दिन असमंजस मुखोपाध्याय ने उनसे पूछा, "अपनी पुस्तकों में सबसे प्रिय पुस्तक आपको कौन-सी लगी है?"
उन्होंने तुरन्त उत्तर दिया, "नवविधान । "
फिर कुछ क्षण चुप रहकर बोले, "अचरज हुआ न! इस पुस्तक का कोई आदर नही करता। इसीलिए मैंने अपनी इस अनादृत रचना का नाम लिया है। देखो, तुम भी लेखक हो। तुम्हारे लेखन में भी अच्छा, बुरा और साधारण सब है।"
साहित्यिक मान्यताओं की चर्चा करने उनके पास अनेक व्यक्ति आते थे। उन्हीं में थे हिन्दी के एक नवयुवक लेखक इलाचन्द्र जोशी । शरत्चन्द्र में उनकी बड़ी श्रद्धा थी। बहुत खोज करने पर ही वे एक दिन उनका मकान ढूंढ सके थे| वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि एक अधेड़ सज्जन दातुन कर रहे हैं। जोशीजी ने कहा, मै शरत् बाबू से मिलना चाहता हूं।" उन्होंने उत्तर दिया, "कहिए क्या काम है? मैं ही हूं।"
अत्यन्त श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर संकोच भरे स्वर में जोशी ने कहा, "आपकी रचनाएं पढ़कर मैं बहुत प्रभावित हुआ हूं। बहुत दिनों से मिलने की तीव्र इच्छा थी । आज पूरी हुई ......."
सहसा उन्हें बीच में रोककर वे सज्जन बोले, "ओह, आप उपन्यासकार शरत् चाटुज्जे से मिलना चाहते हैं। वे उस तरफ रहते हैं। वह जो उस गली की बायीं ओर लाल मकान दिखाई दे रहा है न, वहीं वे मिलेंगे। "
तो ये सज्जन भी उनके प्रिय शरत् नहीं है !
निराशमन जोशीजी उसी ओर चल पड़े। बताए हुए मकान पर पहुंचकर वे बरामदे में जा खड़े हुए। सामने एक छोटा-सा कमरा था। तीन-चार व्यक्ति एक मेज़ को घेरकर बैठे शतरंज खेलने में व्यस्त थे। जोशीजी ने वहीं से पुकारा, "क्या विख्यात उपन्यासकार शरत् बाबू इसी मकान में रहते हैं?"
आवाज़ सुनकर एक अधेड़ सज्जन ने, जिनके सिर के आधे बाल पक चुके थे, दादी- मूंछ साफ थी, केवल चेहरे पर सफेद बालों की खूंटियां यहां-वहां दिखाई दे रही थीं और जो बडी तथा धोती पहने शतरंज के खेल में बड़ी दिलचस्पी ले रहे थे, सिर उठाकर उनकी ओर देखा, "कहिए, आप कैसे आए? आइए, बैठिए । "
जोशीजी ने भीतर प्रवेश करते हुए कहा, "मुझे उन्हीं से कुछ काम है।"
"बैठिए, मैं ही हूं शरत्चन्द्र।"
"विख्यात उपन्यासकार शरत्चन्द्र?"
एक बार धोखा खा चुके थे, इसीलिए जोशीजी ने यह अटपटा प्रश्न किया। शरत्चन्द्र बड़ी शालीनता से मुस्कराए, "हां, एक प्रकार से विख्यात ही हूं।"
वहां एकान्त नहीं था। जोशीजी को संकोच हो रहा था। इसलिए शरत् बाबू बोले, "चलिए मेरा मकान पास ही है, वहीं चलते हैं।"
तो वह भी उनका मकान नहीं था !!
जब शरत् बाबू अपने मकान पर पहुंचे तो जोशीजी की देखते ही भेलू विकट स्वर में भौंकने लगा। शरत्चन्द्र के प्रेमपूर्वक डांटने पर ही वह चुप हो सका। जिस कमरे में वे जाकर बैठे, वह वैसे तो काफी बड़ा था, पर न तो उसमें कोई विशेष फर्नीचर था और न कोई दूसरे प्रकार की साजसज्जा थी। कुछ कुर्सियां, बेंच, दीवार से सटे हुए कुछ रैक, जिनमें पुस्तकें सजाकर रखी गई थीं। यही सब कुछ वहां था, लेकिन था एकान्त अच्छा लगा। दोनों आराम से एक-दूसरे के आमने-सामने बैठ गए। तभी एक नौकर हुक्का भरकर ले आया। शरतचन्द्र ने बड़े आराम से उसे गुड़गुड़ाते हुए प्रेम-भरे शब्दों में कहा, "अब कहिए।"
जोशीजी यद्यपि पहली बार मिल रहे थे, लेकिन पूछने को उनके पास बहुत कुछ था और बातें करने में तो शरत् पटु थे ही। न जाने किन-किन विषयों पर उस दिन चर्चा हुई। सतीत्व और नारीत्व, श्रीकान्त और अन्नदा दीदी, उपन्यास का यथार्थ और जीवन का यथार्थ, एक के बाद एक जोशीजी प्रश्न पूछते चले गए। कला के सम्बन्ध में अपना मत बताते हुए शरत् बाबू ने कहा, "हमारे यहां कला में कल्याण और मंगल की भावना को प्रमुख स्थान दिया गया है, इसलिए जिस कलात्मक सत्य की पृष्ठभूमि में यह भावना न हो, उसके प्रति मेरे मन में कभी आदर का भाव नहीं रहा है। मैंने कला को कभी कीड़ा - कौतुक के रूप में नहीं देखा है। मैं उसे मनुष्य के जीवन की चरम साधना के रूप में मानता हूं। '
अपने अतीत जीवन की अनेक कहानियां भी शरत् बाबू ने उन्हें सुनाई। इस अवसर पर रवीन्द्रनाथ की चर्चा होना भी स्वाभाविक था। जोशीजी ने पूछा, 'आपने बहुत सी रचनाओं में वेश्याओं और तथाकथित असती नारियों को नायिकाओं के रूप में चुना है। इसका कारण क्या आपकी व्यक्तिगत रुचि है? अथवा किसी विशेष आदर्शात्मक उद्देश्य से प्रेरित होकर केवल अपने सैद्धान्तिक पक्ष के समर्थन के लिए आपने ऐसे चरित्रों की अवतारणा की है?"
शरत् बाबू ने सहज भाव से उत्तर दिया "दोनों बातें हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसे चरित्रों के घनिष्ठ सम्पर्क में आया हूं और इसी कारण मैंने अत्यन्त तीव्रता से यह अनुभव किया है कि वे वेश्याएं समाज की सबसे अधिक शोषित और सबसे अधिक अत्याचार पीड़ित नारियां हैं। आर्थिक विषमता के कारण वे जिस प्रकार का गन्दा और घृणित जीवन बिताती हैं, उससे उबरने के लिए वे जाने या अनजाने सब समय छटपटाती रहती हैं। उनकी यह छटपटाहट देखने का संयोग सबको सब समय नहीं मिलता। पर जब कभी किसी को किसी कारणवश यह सुयोग मिल जाता है तब वह उसे जीवन-भर नहीं भूलता। उनके अन्तर के इस मूल विद्रोह को वाणी देने का निश्चय मैं बहुत पहले कर चुका था और अपने उस मिशन को कार्यान्वित करने में मैंने कोई बात उठा नहीं रखी।"
जोशीजी ने कहा, "एक बार रवीन्द्रनाथ ने अपने एक लेख में आप पर छीटें कसते हुए लिखा था - 'कला विशुद्ध आनन्दमूलक सौंदर्य से सम्बन्ध रखती है। इसका निवास चीतपुर की गन्दी गलियों में नहीं है, बल्कि वाणी के अकलुष मन्दिर में है।' इस सम्बन्ध में आप क्या कहते हैं?"
शरत् बाबू बोले, "उस लेख में किसी अज्ञात कारण से रवीन्द्रनाथ उलझ गए। नहीं तो उनके समान महान् द्रष्टा कला के क्षेत्र और उद्देश्य की व्यापकता के सम्बन्ध में अपरिचित हो, ऐसा मैं नहीं मानता। इस लेख में उन्होंने स्वयं अपनी पिछली बातों का खंडन किया है। इसमें सन्देह नहीं है कि वे आनन्दमूलक सौन्दर्य के कवि रहे हैं और हैं। पर साथ ही साथ दुख-दैन्य, अभाव, शोषण और अत्याचार से पीड़ित जीवन के कठोर वास्तविक पहलू की उपेक्षा भी उन्होंने नहीं की। जिस कवि ने अपनी एक कविता में वेश्याओं और दूसरी पतिता स्त्रियों को सती - शिरोमणि माना हो और 'पतिता' शीर्षक कविता म एक वेश्या के अन्तर में निहित देवत्व को अत्यन्त मार्मिक सुन्दरता से प्रस्फटित किया हो, वह आज कहे कि चीतपुर की गन्दी गलियों से कला का कोई सम्बन्ध नहीं है तब यह सन्देह होना स्वाभाविक है कि उनके इस लेख के पीछे कोई रहस्यमय कारण है। यह कारण व्यक्तिगत भी हो सकता है।"
वह व्यक्तिगत कारण क्या था कोई स्पष्ट रूप से नहीं जानता, पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि जिग प्रकार ऋषिकुमार अपनी पुण्य दृष्टि के स्पश से 'पतिता' के अन्तर में सोये देवता को जग देते हैं, उसी प्रकार 'देवदास' की चन्द्रमुखी के अन्तस्तल में सोया देवता चरित्रहीन पर सरलप्राण ******* *** देवदास की निष्कपट आत्मा के स्पर्श से जाग उठा था। शरत्-साहित्य की यही विशेषता है, पर उनमें और कविगुरु में एक अन्तर है। रवीन्द्रनाथ देवत्व को जगाने के लिए तपोवन का पवित्र वातावरण उपयुक्त समझते हैं, शरत्चन्द्र उसी देवत्व को चीतपुर की गन्दी गलियों में खोज लेते हैं। यह अन्तर आभिजात्य और ब्रात्य संस्कारों का है। शरतचन्द्र इसी कारण हीन न होकर कुछ महान् ही प्रमाणित होते हैं। रवीन्द्रनाथ आनन्दमूलक सौंदर्य के कवि थे। साहित्य के माध्यम से वह विश्वमानव की खोज करना चाहते थे। इसके विपरीत शरत् अपनी धरती से चिपके हुए थे। इसी कारण सविनय अवज्ञा आन्दोलन को लेकर एक दिन दोनों में तीव्र मतभेद पैदा हो गया था। लेकिन यह सब होने पर भी अपने गुरुदेव के प्रति उनकी श्रद्धा तनिक भी धूमिल नहीं हुई थी । गुरुदेव उनसे बहुत प्रसन्न हैं, यह सुनकर इन्हीं दिनों उन्होंने उन्हें एक पत्र लिखा था-
श्री चरणेषु,
लड़की से सुना था कि आप मुझसे अतिशय असन्तुष्ट हैं। उत्तेजना में आकर गुस्से में हो सकता है कि आपके बारे में कोई मिध्या बात कही हो। लेकिन जो व्यक्ति इसकी सच्चाई-झुठाई की जांच करने आपके पास गए थे, उन्होंने भी कुछ कम अपराध नहीं किया है। इंग्लैण्ड के बर्ताव से आप क्षुब्ध हुए है और सब कुछ वही पंजाबवाली चिट्ठी के लिए, उसके न लिखने से यह सब नहीं होता, इन बातों को मैंने उस समय ठीक-ठीक कहा था, मुझे याद नहीं। आमतौर पर मैं बनाकर झूठ नहीं बोलता, पर बोलना एकदम असम्भव है, ऐसा भी नहीं। कम से कम इन बातों को अवश्य ही कहा है कि इस बार विलायत से लौटकर आप बहुत बदल गए हैं, और बंगाल के लोगों के प्रति आपका पहला स्नेह और ममत्व अब नहीं है। चर्खा, असहयोग आदि पर आपकी तनिक भी आस्था या विश्वास नहीं है, इत्यादि ।
आपके पास से एक दिन गुस्से में ही चला आया । उसके बाद शायद झूठी बातों का प्रचार किया हो। शायद मेरे मन में यह भाव था कि लोग गलत समझते हैं तो समझें।
आपके प्रति मैंने बहुत अपराध किया है, पर प्रथम अपराध होने के कारण मुझे क्षमा करेंगे। आपके सिवा और किसी बड़े आदमी के यहां मैं जानबूझकर कभी नहीं जाता। पर मेरे लिए उसका रास्ता भी मेरे अपने ही दोष से बन्द हो गया है । सोचने पर दुख होता है।
आपके अनेकों शिष्यों में एक मैं भी हूं। उनकी तरह इतने दिनों तक मैंने भी कभी आपकी निन्दा नहीं की, लेकिन इस बार क्यों शामत आई, मैं नही जानता ।
तीन दिन बाद फिर लिखा-
श्री चरणेषु
क्षुद्र स्वार्थ के लिए आप देश का अमंगल करेंगे, इतनी बड़ी निन्दा अगर की ही हो तो उसके बाद चिट्ठी लिखकर आपसे क्षमा मांगने जाना केवल विडम्बना ही नहीं है, आपका विदूप करना भी है। अतएव आपके पत्र का स्वर इतना कठोर होगा इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। भारी अपराध कै बात जिन लोगों ने आप तक पहुंचाई है, उन्होंने कहीं इसकी सीमा नहीं रखी।
इसके बाद मैं क्या कहूं? मेरा प्रणाम स्वीकार करें। 2
अपनी दृष्टि में शरत् बाबू निश्चय ही धनवान हो गए थे, परन्तु बहुत कम लोग यह जानते हैं कि उनका वह पैसा कैसे खर्च होता था । एलायन्स बैंक आफ इण्डिया, उनका प्रिय बैंक था। -उनकी सब जमा पूंजी इसी बैंक में सुरक्षित थी। उनके कहने पर आसपास के सभी किसान और परिचित व्यक्ति इसी बैंक में पैसे जमा करवाते थे। अचानक वही बैंक एक दिन फेल हो गया । शरत्चन्द्र बड़ी परेशानी में पड़े। वे अपना मकान बनवा रहे थे, वह अभी पूरा नहीं हा सका था, लेकिन उसकी उन्हें इतनी चिन्ता नहीं थी, जितनी इन व्यक्तियों की । वे बेचारे अपना सब कुछ लुटाकर सड़क पर खड़े थे। शरत् बाबू उनकी यह दुर्दशा नहीं देख सके। वैधानिक दायित्व न होते हुए भी उन्होंने निश्चय किया कि यदि बैंक पैसा न देता तो उन्हें ही इनकी पाई-पाई चुकता करनी होगी।
अपने इस विचार को व्यावहारिक रूप देने में उन्हें घोर परिश्रम करना पड़ सकता था, लेकिन सौभाग्य से उस बैंक में जिन लोगों के पैसे थे उनमें अंग्रेजों की संख्या बहुत अधिक थी। इस कारण सरकार ने बैंक की सहायता की और सभी लेनदारों को अपनी जमा पूंजी का पचास प्रतिशत वापस मिल गया। फिर भी शरत्चन्द्र को उनका शेष रुपया चुकाने के लिए काफी भार उठाना पड़ा।
अचानक इसी समय उनके मित्र और रवीन्द्रनाथ के बाद जिनका नाम लिया जा सकता था, बंगाल के सुप्रसिद्ध कवि सत्येन्द्रनाथ दत्त का देहान्त हो गया। उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद स्वयं कविगुरु ने इंगलिश में किया था। उनकी मृत्यु पर शोक प्रकट करने के लिए जो सभा सरस्वती इंस्टीट्यूट की ओर से थियोसोफिकल हाल में नियोजित की गई थी, उसका सभापतित्व शरतचन्द्र को करना था । भाषण देने में वे बहुत घबराते थे। लेकिन इस बार वे किसी भी तरह बच नहीं सके। उन्हें यह पद स्वीकार करना ही पड़ा। शायद इसलिए भी कि सत्येन्द्र के प्रति उनके मन में एक सहज ममता थी। फिर भी वे सभा में नियत समय पर नहीं पहुंच सके। काफी देर हो जाने पर जब एक वृद्ध सज्जन को अध्यक्ष के आसन पर बिठाकर कार्यवाही आरम्भ कर दी गई थी तभी वे आते हुए दिखाई दिए। अस्थायी सभापति ने तुरन्त उनके लिए कुर्सी छोड़ दी। बार-बार मना करने पर भी वे नहीं माने। शरतचन्द्र को बैठना ही पड़ा। एक-एक करके जब सभी वक्ता बोल चुके तब', सभापति की हैसियत से वे बोलने के लिए उठे। मेज पर दोनों हाथ रखकर उन्होंने अपनी पीठ को नीचे की ओर झुकाया। उसके बाद अस्पष्ट स्वर में कुछ बुदबुदाना आरम्भ कर दिया। कुछ क्षण बाद शायद उन्होंने यह अनुभव किया कि उनकी आवाज जनता तक नहीं पहुंच रही है, तो उन्होंने स्वर को ऊंचा करते हुए कहा, “हां ठीक है। सत्येन्द्रनाथ की मृत्यु से आज हमारे बंगीय साहित्य समाज में शोक - सागर उमड़ रहा है। हम लोग कुछ समय के लिए खूब मजे में रो लिए । बस हमारा कर्त्तव्य समाप्त हुआ। चलिए, अब सब लोग घर चलें।”
सुनने वाले अवाक् होकर देखते ही रह गए, लेकिन शरत् बाबू बोलते जा रहे थे - आज हम लोगों ने आविष्कार किया है कि सत्येन्द्र कितने प्रिय कवि थे। आज उनके लिए जगह- जगह साहित्यिक सभाएं हो रही हैं पर जब वे जीवित थे तब कभी किसी सभा के संयोजक को इतना तक न सूझा कि सत्येन्द्र भी किसी साहित्य सभा के अध्यक्ष होने की योग्यता रखते हैं। बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं को या बड़े-बड़े पदाधिकारियों को सभापति बनाया जाता था। साहित्य के प्रति श्रद्धा प्रकट करने का मार्ग उनके ग्रंथो का पाठ करना है। सत्येन्द्र बाबू की पुस्तकें आपमें से किस-किसने अभी तक पढ़ी हैं? यह पता लगाने पर ही उनकी श्रद्धा का हिसाब लगाया जा सकता है। बहुतों को तो उनकी सब पुस्तकों के नामों का भी पता न होगा, लेकिन उनकी रचनाएं पड़े बिना यह पता लगाना कि वे कितने बड़े कवि थे बड़ा कठिन है। मन्मथ बाबू ने उनके बारे में बहुत देर तक भाषण दिया था। शायद इन्होंने उनको पढा होगा। और भी बहुत से व्यक्ति बोले थे, अच्छा ही बोले थे। नजरुल ने गीत गाया था, अच्छा ही गाया था। नलिनी इस बार तुम गाओ। अच्छा ही गाओगे..|”
बड़ी कठिनता से वे इतने शब्द कह सके थे। लेकिन ऐसे अवसर पर भी वे स्पष्टवादिता से बाज नहीं आए। सत्य के प्रति उनकी यह निर्भीकता उन्हें अच्छा लेखक ही नहीं, अच्छा मनुष्य भी प्रमाणित करती है।
वे मित्र जाति के व्यक्ति थे, लेकिन सभा समितियों से उन्हें बड़ी अरुचि थी। उनके बचपन के मित्र विभूतिभूषण भट्ट और उनको बहन निरुपमा देवी, जो लेखिका के रूप मे प्रसिद्ध हो चुकी थी, बहरामपुर में रहते थे। उनसे मिलने के लिए एक बार वे वहां गए। जहां भी वे जाते थे लोग उनक घेरने की चेष्टा करते थे। यहां भी उनके सम्मान में एक सम्बर्द्धना सभा का आयोजन किया गया। महाराजकुमार श्रीशचन्द्र नन्दी उस बोट पार्टी में उनकी राह देखने लगे। पर 'उत्सव के राजा' का कहीं पता नहीं था।
वह तो चुपचाप कवि यतीन्द्रनाथ के साथ मुर्शिदाबाद देखने चले गए थे। सभा का समय पांच बजे था। तीन बजे तक वे घूमते रहे। थक गए तो गंगा- तीर पर जा बैठे। यतीन्द्र कहा, “दादा अब लौटना चाहिए। तीन बज चुके हैं।”
शरत्चन्द्र बोले, “लेकिन सभा तो पांच बजे है। चार बजने दो।”
चार भी बज गए, लेकिन बातों का अन्त नहीं आ रहा था। यतीन्द्र ने फिर कहा, “दादा, अब नहीं चलेंगे तो पांच बजे पहुंचना नहीं हो सकेगा।”
शरत्चन्द्र ने उत्तर दिया, “तुमने कितनी सभाएं देखी हैं? कोई सभा कभी ठीक समय पर आरम्भ होती है? बैठो, बैठो। सभा ही तो है ।”
इसी समय गंगा में एक शव बहता हुआ दिखाई दिया। बस वे उदास हो उठे। अपलक उसे देखते रहे और मनुष्य के जीवन-दर्शन पर चर्चा करते रहे । यतीन्द्र की दृष्टि घड़ी पर थी, लेकिन शरत् की दृष्टि उस शव पर से होती हुई न जाने किस अदृश्य में जा अटकी थी। यतीन्द्र ने कहा, “दादा, पांच बज गए।"
“पांच बज गए। वहां पहुंचते-पहुंचते छ: बज जाएंगे। अब वहां जाकर क्या होगा?” यतीन्द्र बोला, “होगा दादा, सब राह देख रहे होंगे।”
उसी निर्विकार भाव से शरत् ने उत्तर दिया, “तुम पागल हो गए हो। सभा पांच बजे है और वे लोग साढ़े छः बजे तक बैठे रहेंगे? मानो किसी को और काम ही नहीं है। सब चले गए होंगे। अब वहां जाना व्यर्थ है। इससे तो अच्छा यही है कि यहीं बैठकर मन की बातें करें।"
यह मात्र एक ही घटना हो ऐसा नहीं है। बार-बार वह ऐसा करते थे। वचन देकर ठीक समय पर घर से गायब हो जाते! उस दिन ठीक दोपहर में नरेन्द्रदेव के घर जा पहुंचे। उन्होंने पूछा, “इतनी दोपहर में ! बात क्या है?”
“अरे क्या बताऊं। एक सभा में जाने की बात है । इसीलिए भाग आया हूं । वे लोग
देखकर लौट जाएंगे।”
“परन्तु सोचेंगे क्या?”
“जो चाहे सोचें। मैं नहीं जा सकता।"
“लेकिन जाने की सम्मति जो दे चुके हैं !”
“सम्मति क्या, मैंने मन से दी थी। जोर करके उन्होंने ले ली । “
कई वर्ष बाद हरिपद साहित्य मन्दिर, बाढागार, पुरलिया के अधिवेशन में जाकर भी वे पूरी तरह योग न दे सकें। सम्मेलन कई दिन चला, पर वे एकाध बार ही वहां गए। पूरे समय मामा डा० सत्येन्द्रनाथ गांगुली के पास ही रहे।
इसे परले सिरे की गैरजिम्मेदारी कहा जा सकता है। पर साहित्यकार क्या किसी जिम्मेदारी को ओढ़ता है? शरत् बाबू को, इस आदर्श के पीछे अपनी सहज दुर्बलता को छिपाने का, जो उनके आवारा जीवन का ही एक अंग थी, बड़ा अच्छा अवसर मिल जाता था। लेकिन यह मन्तव्य क्या एकांगी नहीं है? इतने लोकप्रिय लेखक को सभी अपने बीच में चाहते हैं। उसकी सुविधा-असुविधा की चिन्ता नहीं करते। ऐसी स्थिति में लेखक यदि बचने का उचित-अनुचित कैसा भी मार्ग ढूंढ लेता है तो उसे निन्दनीय नहीं कहा जा सकेगा। फिर शरत् बाबू तो सभा-समितियों से सचमुच घबराते थे। भाषण यदि देना ही पड़ता तो बहु धीरे-धीरे बोलते बोलते-बोलते बैठ जाते । बैठे-बैठे बोलते, फिर खड़े हो जाते ।