shabd-logo

अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023

61 बार देखा गया 61

शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड्डा जमाने में सिद्धहस्त था, जो अभद्र भेलू और प्राणप्रिय पक्षी के लिए कुछ भी सहने को तैयार था ? राजनीति ने उस असली शरत्चन्द्र को ग्रस लिया था। लेकिन वे बिल्कुल ही न लिखते हों ऐसी बात भी नहीं थी। शरत् ग्रंथावली —के पांचवें खण्ड के अतिरिक्त 'नारी का मूल्य' (संदर्भ) और 'देना- पावना' उपन्यास इसी काल में प्रकाशित हुए । 'श्रीकान्त' का तीसरा पर्व, 'पथेर दाबी', नवविधान' और 'जागरण'; ये चार उपन्यास भी उन्होंने इसी काल में लिखने आरम्भ किए। इसी काल में प्रकाशित हुई उनकी दो प्रसिद्ध कहानियां 'महेश' और 'अभागी का स्वर्ग' ।

इसके अतिरिक्त उनके कुछ प्रसिद्ध भाषण और कुछ लेख भी इसी काल में प्रकाशित हुए और इसी काल में प्रकाशित हुआ 'श्रीकान्त' प्रथम पर्व का अंग्रेजी अनुवाद 21 यह अनुवाद के० सी० सेन और थियोडोसिया टामसन ने किया था। भूमिका लिखी थी ई० जे० टामसन ने प्रकशन हुआ था आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से।

देना-पावना' के साथ एक मधुर कहानी जुड़ी है। प्रसिद्ध नाटककार क्षीरोद प्रसाद विद्याविनोद बिन्दी का लल्ला' पढ़कर बिगड़ उठे थे। ऐसा लगता है वे उसे बिना पड़े ही बिगड़ पड़े थे। क्योंकि श्री यतीन्द्वमोहन सिंह ने अपनी पुस्तक 'भाहित्य की स्वास्थ्यरक्षा' में उन्हें अनीति क्त प्रचारक प्रमाणित करने में प्राणपण से चेष्टा की थी। परन्तु जब उन्होंने 'दत्ता' पढ़ा तो वे मुग्ध हो उठे। उसके बाद पढ़ा देना- पावना' । कैसी भाषा ! कैसा चरित्र- चित्रण! वे अभिभूत हो आए। उन्होंने नलिनीकान्त सरकार से कहा, मैं शरत् बाबू से मिलना चाहता हूं।"

"किसलिए?"

"उन्हें प्रणाम करके उनका अभिनन्दन करूंगा।"

वयोज्येष्ठ साहित्यकार इससे अधिक और क्या कहते । और सचमुच जब वे दोनों मिले तो क्षीरोद बार ने शरत् को ऐसे छाती में भर लिया, जैसे जब अलग ही नहीं होंगे।

इस काल की उनकी रचनाओं पर स्पष्ट ही उनकी राजनीतिक अभिज्ञता का प्रभाव है। उनके मस्तिष्क में अनुभवों के विशाल कोष थे, जो उन्हें प्रेरणा और सूझ प्रदान करते रहते थे। गरीबी, ज़मींदारों के अत्याचार और स्वाधीनता के प्रति अदम्य आकांक्षा का इन रचनाओं में प्रस्फुटन हुआ है। 'महेश' कहानी को पढ़कर श्री अरविन्द ने लिखा था,

"वीस्मित कर देनेवाली रचना - शैली, महान स्रष्टा - शिल्पी जो मानव हृदय में गम्भीर आवेग पैदा करने में सक्षम है।"

आश्चर्य! यह कहानी डिस्ट्रिक्ट बोर्ड से सहायताप्राप्त, सरकारी मत क्त प्रचार करनेवाली पत्रिका 'पल्लीश्री' में प्रकाशित हुई थी। इसे पढ़कर एक हिन्दू ज़मींदारों ने आक्षेप किया, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड से सहायता प्राप्त पत्र में ऐसी कहानियां नहीं छपनी चाहिए। में इससे प्रजा ज़मींदारों के विरुद्ध उठ खड़ी होगी, अर्थात् देश का सर्वनाश होगा।"

यह कहानी इस पत्र में कैसे छपी, इसका एक इतिहास है । शरत् बाबू के पड़ोसी अक्षय बाबू हुगली गवर्नमेंट कालेज में प्राध्यापक थे। वे पल्लीश्री' के सम्पादक होने को मजबूर थे। उन्होंने शरत् बाबू से एक कहानी देने की प्रार्थना की थी। वही कहानी थी 'महेश'। शरत् बाबू शायद उस क्षण यह कल्पना भी नहीं कर सके थे कि यह कहानी उनके साहित्य की ही नहीं विश्व - साहित्य की श्रेष्ठ कृति है लेकिन अक्षय बाबू अवश्य इस तथ्य को समझ गए थे। वे नहीं चाहते थे कि इतनी सुन्दर कहानी ऐसे पत्र में छपे । इसीलिए उन्होंने स्वयं इस बात की व्यवस्था की कि 'महेश' पल्ली श्री के साथ-साथ उसी महीने बंगवाणी' में भी प्रकाशित हो ।

'अभागी का स्वर्ग' में शरत्चन्द्र ने गरीबी से पीड़ित दूले समाज का दारुण चित्र अंकित किया है। इनके मुर्दों के लिए लकड़ी का विधान नहीं है, लेकिन कंगाली की मां की साध थी चिता पर जलकर स्वर्ग जाने की। वह साध पूरी न हो पाई। गड्ढे में दबकर ही उसे गति पानी पड़ी। अपने हाथ से रोपे हुए पेड़ हो भी वे लोग न काट सके। नीच जाति के दूले कहीं ब्राह्मण-कायस्थों कई बराबरी कर सकते हैं?

'पथेर दाबी' उनके अपने राजनीतिक विश्वास का प्रतीक है। अपने आवारा जीवन में उन्होंने अनेक देशों की जो यात्रा की थी, उसका अनुभव ही मानो उसमें संचित हुआ है। जिस समय वे इसे लिख रहे थे, उस समय उनके सामने बंगाल का क्रांतिकारी आन्दोलन तो था ही सुप्रसिद्ध रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की का उपन्यास 'मां' भी था। वे मानते थे, "गोर्की की रचनाएं पढ़ने के बाद मुझे ऐसा लगता है कि जीवन की जैसी पकड़ उसमें है, वैसी न दास्तायव्स्की में पाई जाती है और न किसी और में।"

उन्होंने उनका अभी प्रकाशित कहानी-संग्रह 'क्रीचर दैट वन्स मैन' पढ़ा था। पढ़कर कहा था, "इन कहानियों में जीवन के प्रति एक नया दृष्टिकोण है, नई भावधारा, नई शैली, नई टेकनीक। गोर्की मानवता के लिए एक नया सन्देश लेकर आया है।"

इलाचन्द्र जोशी ने लिखा है, "तब वह पतित नर-नारियों से संबंधित युग पार कर चुके थे और अपने रचनाकाल के तीसरे चरण में प्रवेश कर रहे थे। 'पथेर दाबी' के कुछ परिच्छेद वे लिख चुके थे और अब वह उसे नया मोड़ देना चाहते थे, बल्कि गोर्की उन पर बड़े ज़ोर से हावी हो रहा था। 'पथेर दाबी पर निश्चय ही गोर्की का प्रभाव है। दोनों के जीवन में भी किसी सीमा तक साम्यता है। दोनों ने बहुत दिन तक आवारगी का जीवन बिताया था। दोनों ने जीवन को सचमुच बहुत पास से देखा था। दोनों ही मुक्ति आन्दोलन के प्रबल समर्थक थे। व्यक्तिगत रूप से अहिंसा के पथ के पथिक होने पर भी, शरत्चन्द्र देश की मुक्ति के लिए हिंसा का मार्ग अपनानेवालों को सच्चे मन से प्यार करते थे। "

राजनीतिक अभिज्ञता का प्रमाण उनके असमाप्त उपन्यास 'जागरण' से भी मिलता है। लगभग दो वर्ष तक वह 'वसुमति' में छपता रहा था। लेकिन वे उसे पूरा नहीं कर सके थे। कर पाते तो निश्चयही यह उपन्यास अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता, इसीलिए नहीं कि इसकी शैली प्रौढ़ है बल्कि इसलिए भी कि इसमें जो राजनीतिक विचार प्रकट हुए हैं, वे मानो भविष्यवाणी के रूप में हैं। साहित्यिक महाकाल का स्वामी होता है। आने वाले युग की कल्पना उसके लिए असाध्य नहीं है। इस उपन्यास में एक स्थान पर नायिका का ज़मींदार पिता कहता है, "प्रजा की मनःस्थिति में भारी परिवर्तन आ गया है। अब यह चाहे शिक्षा का परिणाम हो, चाहे युगधर्म का हो, चाहे ज़मींदारों के अत्याचारों का नतीजा हो जनता अब ज़मींदारी प्रथा का नाश चाहती है। दो रोज़ पहले हो या दो रोज बाद, ज़मींदारी मिटेगी ज़रूर। ज़मींदारी को विदा होना होगा। तुम किसी भी तरह इसे बचा न सकोगे।"

ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करने के बारे में इतना स्पष्ट मत उस समय शायद किसी भी कथाकार ने व्यक्त नहीं किया था। न जाने क्यों वे इसे पूरा न कर पाए । शायद अपने चिरसंगी आलस्य के कारण, शायद इस कारण भी कि देशबन्धु की मृत्यु के बाद उनका मन राजनीति में नही रहा था। 'पथेर दाबी' भी ये बड़ी कठिनता से 'बंगवाणी' के बार-बार आग्रह करने पर कई वर्ष में पूरा कर सके थे।

'नवविधान' 'पुराने ढर्रे की पुस्तक है, जिसमें नई साहबी सभ्यता के विरोध में प्राचीन हिन्दू रीति-नीति की (कर्मकाण्ड की नहीं) जय पताका फहराई गई है। शायद शरत् बाबू स्वयं इस बात को समझते थे। एक दिन असमंजस मुखोपाध्याय ने उनसे पूछा, "अपनी पुस्तकों में सबसे प्रिय पुस्तक आपको कौन-सी लगी है?"

उन्होंने तुरन्त उत्तर दिया, "नवविधान । "

फिर कुछ क्षण चुप रहकर बोले, "अचरज हुआ न! इस पुस्तक का कोई आदर नही करता। इसीलिए मैंने अपनी इस अनादृत रचना का नाम लिया है। देखो, तुम भी लेखक हो। तुम्हारे लेखन में भी अच्छा, बुरा और साधारण सब है।"

साहित्यिक मान्यताओं की चर्चा करने उनके पास अनेक व्यक्ति आते थे। उन्हीं में थे हिन्दी के एक नवयुवक लेखक इलाचन्द्र जोशी । शरत्चन्द्र में उनकी बड़ी श्रद्धा थी। बहुत खोज करने पर ही वे एक दिन उनका मकान ढूंढ सके थे| वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि एक अधेड़ सज्जन दातुन कर रहे हैं। जोशीजी ने कहा, मै शरत् बाबू से मिलना चाहता हूं।" उन्होंने उत्तर दिया, "कहिए क्या काम है? मैं ही हूं।"

अत्यन्त श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर संकोच भरे स्वर में जोशी ने कहा, "आपकी रचनाएं पढ़कर मैं बहुत प्रभावित हुआ हूं। बहुत दिनों से मिलने की तीव्र इच्छा थी । आज पूरी हुई ......."

सहसा उन्हें बीच में रोककर वे सज्जन बोले, "ओह, आप उपन्यासकार शरत् चाटुज्जे से मिलना चाहते हैं। वे उस तरफ रहते हैं। वह जो उस गली की बायीं ओर लाल मकान दिखाई दे रहा है न, वहीं वे मिलेंगे। "

तो ये सज्जन भी उनके प्रिय शरत् नहीं है !

निराशमन जोशीजी उसी ओर चल पड़े। बताए हुए मकान पर पहुंचकर वे बरामदे में जा खड़े हुए। सामने एक छोटा-सा कमरा था। तीन-चार व्यक्ति एक मेज़ को घेरकर बैठे शतरंज खेलने में व्यस्त थे। जोशीजी ने वहीं से पुकारा, "क्या विख्यात उपन्यासकार शरत् बाबू इसी मकान में रहते हैं?"

आवाज़ सुनकर एक अधेड़ सज्जन ने, जिनके सिर के आधे बाल पक चुके थे, दादी- मूंछ साफ थी, केवल चेहरे पर सफेद बालों की खूंटियां यहां-वहां दिखाई दे रही थीं और जो बडी तथा धोती पहने शतरंज के खेल में बड़ी दिलचस्पी ले रहे थे, सिर उठाकर उनकी ओर देखा, "कहिए, आप कैसे आए? आइए, बैठिए । "

जोशीजी ने भीतर प्रवेश करते हुए कहा, "मुझे उन्हीं से कुछ काम है।"

"बैठिए, मैं ही हूं शरत्चन्द्र।"

"विख्यात उपन्यासकार शरत्चन्द्र?"

एक बार धोखा खा चुके थे, इसीलिए जोशीजी ने यह अटपटा प्रश्न किया। शरत्चन्द्र बड़ी शालीनता से मुस्कराए, "हां, एक प्रकार से विख्यात ही हूं।"

वहां एकान्त नहीं था। जोशीजी को संकोच हो रहा था। इसलिए शरत् बाबू बोले, "चलिए मेरा मकान पास ही है, वहीं चलते हैं।"

तो वह भी उनका मकान नहीं था !!

जब शरत् बाबू अपने मकान पर पहुंचे तो जोशीजी की देखते ही भेलू विकट स्वर में भौंकने लगा। शरत्चन्द्र के प्रेमपूर्वक डांटने पर ही वह चुप हो सका। जिस कमरे में वे जाकर बैठे, वह वैसे तो काफी बड़ा था, पर न तो उसमें कोई विशेष फर्नीचर था और न कोई दूसरे प्रकार की साजसज्जा थी। कुछ कुर्सियां, बेंच, दीवार से सटे हुए कुछ रैक, जिनमें पुस्तकें सजाकर रखी गई थीं। यही सब कुछ वहां था, लेकिन था एकान्त अच्छा लगा। दोनों आराम से एक-दूसरे के आमने-सामने बैठ गए। तभी एक नौकर हुक्का भरकर ले आया। शरतचन्द्र ने बड़े आराम से उसे गुड़गुड़ाते हुए प्रेम-भरे शब्दों में कहा, "अब कहिए।"

जोशीजी यद्यपि पहली बार मिल रहे थे, लेकिन पूछने को उनके पास बहुत कुछ था और बातें करने में तो शरत् पटु थे ही। न जाने किन-किन विषयों पर उस दिन चर्चा हुई। सतीत्व और नारीत्व, श्रीकान्त और अन्नदा दीदी, उपन्यास का यथार्थ और जीवन का यथार्थ, एक के बाद एक जोशीजी प्रश्न पूछते चले गए। कला के सम्बन्ध में अपना मत बताते हुए शरत् बाबू ने कहा, "हमारे यहां कला में कल्याण और मंगल की भावना को प्रमुख स्थान दिया गया है, इसलिए जिस कलात्मक सत्य की पृष्ठभूमि में यह भावना न हो, उसके प्रति मेरे मन में कभी आदर का भाव नहीं रहा है। मैंने कला को कभी कीड़ा - कौतुक के रूप में नहीं देखा है। मैं उसे मनुष्य के जीवन की चरम साधना के रूप में मानता हूं। '

अपने अतीत जीवन की अनेक कहानियां भी शरत् बाबू ने उन्हें सुनाई। इस अवसर पर रवीन्द्रनाथ की चर्चा होना भी स्वाभाविक था। जोशीजी ने पूछा, 'आपने बहुत सी रचनाओं में वेश्याओं और तथाकथित असती नारियों को नायिकाओं के रूप में चुना है। इसका कारण क्या आपकी व्यक्तिगत रुचि है? अथवा किसी विशेष आदर्शात्मक उद्देश्य से प्रेरित होकर केवल अपने सैद्धान्तिक पक्ष के समर्थन के लिए आपने ऐसे चरित्रों की अवतारणा की है?"

शरत् बाबू ने सहज भाव से उत्तर दिया "दोनों बातें हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसे चरित्रों के घनिष्ठ सम्पर्क में आया हूं और इसी कारण मैंने अत्यन्त तीव्रता से यह अनुभव किया है कि वे वेश्याएं समाज की सबसे अधिक शोषित और सबसे अधिक अत्याचार पीड़ित नारियां हैं। आर्थिक विषमता के कारण वे जिस प्रकार का गन्दा और घृणित जीवन बिताती हैं, उससे उबरने के लिए वे जाने या अनजाने सब समय छटपटाती रहती हैं। उनकी यह छटपटाहट देखने का संयोग सबको सब समय नहीं मिलता। पर जब कभी किसी को किसी कारणवश यह सुयोग मिल जाता है तब वह उसे जीवन-भर नहीं भूलता। उनके अन्तर के इस मूल विद्रोह को वाणी देने का निश्चय मैं बहुत पहले कर चुका था और अपने उस मिशन को कार्यान्वित करने में मैंने कोई बात उठा नहीं रखी।"

जोशीजी ने कहा, "एक बार रवीन्द्रनाथ ने अपने एक लेख में आप पर छीटें कसते हुए लिखा था - 'कला विशुद्ध आनन्दमूलक सौंदर्य से सम्बन्ध रखती है। इसका निवास चीतपुर की गन्दी गलियों में नहीं है, बल्कि वाणी के अकलुष मन्दिर में है।' इस सम्बन्ध में आप क्या कहते हैं?"

शरत् बाबू बोले, "उस लेख में किसी अज्ञात कारण से रवीन्द्रनाथ उलझ गए। नहीं तो उनके समान महान् द्रष्टा कला के क्षेत्र और उद्देश्य की व्यापकता के सम्बन्ध में अपरिचित हो, ऐसा मैं नहीं मानता। इस लेख में उन्होंने स्वयं अपनी पिछली बातों का खंडन किया है। इसमें सन्देह नहीं है कि वे आनन्दमूलक सौन्दर्य के कवि रहे हैं और हैं। पर साथ ही साथ दुख-दैन्य, अभाव, शोषण और अत्याचार से पीड़ित जीवन के कठोर वास्तविक पहलू की उपेक्षा भी उन्होंने नहीं की। जिस कवि ने अपनी एक कविता में वेश्याओं और दूसरी पतिता स्त्रियों को सती - शिरोमणि माना हो और 'पतिता' शीर्षक कविता म एक वेश्या के अन्तर में निहित देवत्व को अत्यन्त मार्मिक सुन्दरता से प्रस्फटित किया हो, वह आज कहे कि चीतपुर की गन्दी गलियों से कला का कोई सम्बन्ध नहीं है तब यह सन्देह होना स्वाभाविक है कि उनके इस लेख के पीछे कोई रहस्यमय कारण है। यह कारण व्यक्तिगत भी हो सकता है।"

वह व्यक्तिगत कारण क्या था कोई स्पष्ट रूप से नहीं जानता, पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि जिग प्रकार ऋषिकुमार अपनी पुण्य दृष्टि के स्पश से 'पतिता' के अन्तर में सोये देवता को जग देते हैं, उसी प्रकार 'देवदास' की चन्द्रमुखी के अन्तस्तल में सोया देवता चरित्रहीन पर सरलप्राण ******* *** देवदास की निष्कपट आत्मा के स्पर्श से जाग उठा था। शरत्-साहित्य की यही विशेषता है, पर उनमें और कविगुरु में एक अन्तर है। रवीन्द्रनाथ देवत्व को जगाने के लिए तपोवन का पवित्र वातावरण उपयुक्त समझते हैं, शरत्चन्द्र उसी देवत्व को चीतपुर की गन्दी गलियों में खोज लेते हैं। यह अन्तर आभिजात्य और ब्रात्य संस्कारों का है। शरतचन्द्र इसी कारण हीन न होकर कुछ महान् ही प्रमाणित होते हैं। रवीन्द्रनाथ आनन्दमूलक सौंदर्य के कवि थे। साहित्य के माध्यम से वह विश्वमानव की खोज करना चाहते थे। इसके विपरीत शरत् अपनी धरती से चिपके हुए थे। इसी कारण सविनय अवज्ञा आन्दोलन को लेकर एक दिन दोनों में तीव्र मतभेद पैदा हो गया था। लेकिन यह सब होने पर भी अपने गुरुदेव के प्रति उनकी श्रद्धा तनिक भी धूमिल नहीं हुई थी । गुरुदेव उनसे बहुत प्रसन्न हैं, यह सुनकर इन्हीं दिनों उन्होंने उन्हें एक पत्र लिखा था-

श्री चरणेषु,

लड़की से सुना था कि आप मुझसे अतिशय असन्तुष्ट हैं। उत्तेजना में आकर गुस्से में हो सकता है कि आपके बारे में कोई मिध्या बात कही हो। लेकिन जो व्यक्ति इसकी सच्चाई-झुठाई की जांच करने आपके पास गए थे, उन्होंने भी कुछ कम अपराध नहीं किया है। इंग्लैण्ड के बर्ताव से आप क्षुब्ध हुए है और सब कुछ वही पंजाबवाली चिट्ठी के लिए, उसके न लिखने से यह सब नहीं होता, इन बातों को मैंने उस समय ठीक-ठीक कहा था, मुझे याद नहीं। आमतौर पर मैं बनाकर झूठ नहीं बोलता, पर बोलना एकदम असम्भव है, ऐसा भी नहीं। कम से कम इन बातों को अवश्य ही कहा है कि इस बार विलायत से लौटकर आप बहुत बदल गए हैं, और बंगाल के लोगों के प्रति आपका पहला स्नेह और ममत्व अब नहीं है। चर्खा, असहयोग आदि पर आपकी तनिक भी आस्था या विश्वास नहीं है, इत्यादि ।

आपके पास से एक दिन गुस्से में ही चला आया । उसके बाद शायद झूठी बातों का प्रचार किया हो। शायद मेरे मन में यह भाव था कि लोग गलत समझते हैं तो समझें।

आपके प्रति मैंने बहुत अपराध किया है, पर प्रथम अपराध होने के कारण मुझे क्षमा करेंगे। आपके सिवा और किसी बड़े आदमी के यहां मैं जानबूझकर कभी नहीं जाता। पर मेरे लिए उसका रास्ता भी मेरे अपने ही दोष से बन्द हो गया है । सोचने पर दुख होता है।

आपके अनेकों शिष्यों में एक मैं भी हूं। उनकी तरह इतने दिनों तक मैंने भी कभी आपकी निन्दा नहीं की, लेकिन इस बार क्यों शामत आई, मैं नही जानता ।

तीन दिन बाद फिर लिखा-

श्री चरणेषु

क्षुद्र स्वार्थ के लिए आप देश का अमंगल करेंगे, इतनी बड़ी निन्दा अगर की ही हो तो उसके बाद चिट्ठी लिखकर आपसे क्षमा मांगने जाना केवल विडम्बना ही नहीं है, आपका विदूप करना भी है। अतएव आपके पत्र का स्वर इतना कठोर होगा इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। भारी अपराध कै बात जिन लोगों ने आप तक पहुंचाई है, उन्होंने कहीं इसकी सीमा नहीं रखी।

इसके बाद मैं क्या कहूं? मेरा प्रणाम स्वीकार करें। 2

अपनी दृष्टि में शरत् बाबू निश्चय ही धनवान हो गए थे, परन्तु बहुत कम लोग यह जानते हैं कि उनका वह पैसा कैसे खर्च होता था । एलायन्स बैंक आफ इण्डिया, उनका प्रिय बैंक था। -उनकी सब जमा पूंजी इसी बैंक में सुरक्षित थी। उनके कहने पर आसपास के सभी किसान और परिचित व्यक्ति इसी बैंक में पैसे जमा करवाते थे। अचानक वही बैंक एक दिन फेल हो गया । शरत्चन्द्र बड़ी परेशानी में पड़े। वे अपना मकान बनवा रहे थे, वह अभी पूरा नहीं हा सका था, लेकिन उसकी उन्हें इतनी चिन्ता नहीं थी, जितनी इन व्यक्तियों की । वे बेचारे अपना सब कुछ लुटाकर सड़क पर खड़े थे। शरत् बाबू उनकी यह दुर्दशा नहीं देख सके। वैधानिक दायित्व न होते हुए भी उन्होंने निश्चय किया कि यदि बैंक पैसा न देता तो उन्हें ही इनकी पाई-पाई चुकता करनी होगी।

अपने इस विचार को व्यावहारिक रूप देने में उन्हें घोर परिश्रम करना पड़ सकता था, लेकिन सौभाग्य से उस बैंक में जिन लोगों के पैसे थे उनमें अंग्रेजों की संख्या बहुत अधिक थी। इस कारण सरकार ने बैंक की सहायता की और सभी लेनदारों को अपनी जमा पूंजी का पचास प्रतिशत वापस मिल गया। फिर भी शरत्चन्द्र को उनका शेष रुपया चुकाने के लिए काफी भार उठाना पड़ा।

अचानक इसी समय उनके मित्र और रवीन्द्रनाथ के बाद जिनका नाम लिया जा सकता था, बंगाल के सुप्रसिद्ध कवि सत्येन्द्रनाथ दत्त का देहान्त हो गया। उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद स्वयं कविगुरु ने इंगलिश में किया था। उनकी मृत्यु पर शोक प्रकट करने के लिए जो सभा सरस्वती इंस्टीट्यूट की ओर से थियोसोफिकल हाल में नियोजित की गई थी, उसका सभापतित्व शरतचन्द्र को करना था । भाषण देने में वे बहुत घबराते थे। लेकिन इस बार वे किसी भी तरह बच नहीं सके। उन्हें यह पद स्वीकार करना ही पड़ा। शायद इसलिए भी कि सत्येन्द्र के प्रति उनके मन में एक सहज ममता थी। फिर भी वे सभा में नियत समय पर नहीं पहुंच सके। काफी देर हो जाने पर जब एक वृद्ध सज्जन को अध्यक्ष के आसन पर बिठाकर कार्यवाही आरम्भ कर दी गई थी तभी वे आते हुए दिखाई दिए। अस्थायी सभापति ने तुरन्त उनके लिए कुर्सी छोड़ दी। बार-बार मना करने पर भी वे नहीं माने। शरतचन्द्र को बैठना ही पड़ा। एक-एक करके जब सभी वक्ता बोल चुके तब', सभापति की हैसियत से वे बोलने के लिए उठे। मेज पर दोनों हाथ रखकर उन्होंने अपनी पीठ को नीचे की ओर झुकाया। उसके बाद अस्पष्ट स्वर में कुछ बुदबुदाना आरम्भ कर दिया। कुछ क्षण बाद शायद उन्होंने यह अनुभव किया कि उनकी आवाज जनता तक नहीं पहुंच रही है, तो उन्होंने स्वर को ऊंचा करते हुए कहा, “हां ठीक है। सत्येन्द्रनाथ की मृत्यु से आज हमारे बंगीय साहित्य समाज में शोक - सागर उमड़ रहा है। हम लोग कुछ समय के लिए खूब मजे में रो लिए । बस हमारा कर्त्तव्य समाप्त हुआ। चलिए, अब सब लोग घर चलें।”

सुनने वाले अवाक् होकर देखते ही रह गए, लेकिन शरत् बाबू बोलते जा रहे थे - आज हम लोगों ने आविष्कार किया है कि सत्येन्द्र कितने प्रिय कवि थे। आज उनके लिए जगह- जगह साहित्यिक सभाएं हो रही हैं पर जब वे जीवित थे तब कभी किसी सभा के संयोजक को इतना तक न सूझा कि सत्येन्द्र भी किसी साहित्य सभा के अध्यक्ष होने की योग्यता रखते हैं। बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं को या बड़े-बड़े पदाधिकारियों को सभापति बनाया जाता था। साहित्य के प्रति श्रद्धा प्रकट करने का मार्ग उनके ग्रंथो का पाठ करना है। सत्येन्द्र बाबू की पुस्तकें आपमें से किस-किसने अभी तक पढ़ी हैं? यह पता लगाने पर ही उनकी श्रद्धा का हिसाब लगाया जा सकता है। बहुतों को तो उनकी सब पुस्तकों के नामों का भी पता न होगा, लेकिन उनकी रचनाएं पड़े बिना यह पता लगाना कि वे कितने बड़े कवि थे बड़ा कठिन है। मन्मथ बाबू ने उनके बारे में बहुत देर तक भाषण दिया था। शायद इन्होंने उनको पढा होगा। और भी बहुत से व्यक्ति बोले थे, अच्छा ही बोले थे। नजरुल ने गीत गाया था, अच्छा ही गाया था। नलिनी इस बार तुम गाओ। अच्छा ही गाओगे..|”

बड़ी कठिनता से वे इतने शब्द कह सके थे। लेकिन ऐसे अवसर पर भी वे स्पष्टवादिता से बाज नहीं आए। सत्य के प्रति उनकी यह निर्भीकता उन्हें अच्छा लेखक ही नहीं, अच्छा मनुष्य भी प्रमाणित करती है।

वे मित्र जाति के व्यक्ति थे, लेकिन सभा समितियों से उन्हें बड़ी अरुचि थी। उनके बचपन के मित्र विभूतिभूषण भट्ट और उनको बहन निरुपमा देवी, जो लेखिका के रूप मे प्रसिद्ध हो चुकी थी, बहरामपुर में रहते थे। उनसे मिलने के लिए एक बार वे वहां गए। जहां भी वे जाते थे लोग उनक घेरने की चेष्टा करते थे। यहां भी उनके सम्मान में एक सम्बर्द्धना सभा का आयोजन किया गया। महाराजकुमार श्रीशचन्द्र नन्दी उस बोट पार्टी में उनकी राह देखने लगे। पर 'उत्सव के राजा' का कहीं पता नहीं था।

वह तो चुपचाप कवि यतीन्द्रनाथ के साथ मुर्शिदाबाद देखने चले गए थे। सभा का समय पांच बजे था। तीन बजे तक वे घूमते रहे। थक गए तो गंगा- तीर पर जा बैठे। यतीन्द्र कहा, “दादा अब लौटना चाहिए। तीन बज चुके हैं।”

शरत्चन्द्र बोले, “लेकिन सभा तो पांच बजे है। चार बजने दो।”

चार भी बज गए, लेकिन बातों का अन्त नहीं आ रहा था। यतीन्द्र ने फिर कहा, “दादा, अब नहीं चलेंगे तो पांच बजे पहुंचना नहीं हो सकेगा।”

शरत्चन्द्र ने उत्तर दिया, “तुमने कितनी सभाएं देखी हैं? कोई सभा कभी ठीक समय पर आरम्भ होती है? बैठो, बैठो। सभा ही तो है ।”

इसी समय गंगा में एक शव बहता हुआ दिखाई दिया। बस वे उदास हो उठे। अपलक उसे देखते रहे और मनुष्य के जीवन-दर्शन पर चर्चा करते रहे । यतीन्द्र की दृष्टि घड़ी पर थी, लेकिन शरत् की दृष्टि उस शव पर से होती हुई न जाने किस अदृश्य में जा अटकी थी। यतीन्द्र ने कहा, “दादा, पांच बज गए।"

“पांच बज गए। वहां पहुंचते-पहुंचते छ: बज जाएंगे। अब वहां जाकर क्या होगा?” यतीन्द्र बोला, “होगा दादा, सब राह देख रहे होंगे।”

उसी निर्विकार भाव से शरत् ने उत्तर दिया, “तुम पागल हो गए हो। सभा पांच बजे है और वे लोग साढ़े छः बजे तक बैठे रहेंगे? मानो किसी को और काम ही नहीं है। सब चले गए होंगे। अब वहां जाना व्यर्थ है। इससे तो अच्छा यही है कि यहीं बैठकर मन की बातें करें।"

यह मात्र एक ही घटना हो ऐसा नहीं है। बार-बार वह ऐसा करते थे। वचन देकर ठीक समय पर घर से गायब हो जाते! उस दिन ठीक दोपहर में नरेन्द्रदेव के घर जा पहुंचे। उन्होंने पूछा, “इतनी दोपहर में ! बात क्या है?”

“अरे क्या बताऊं। एक सभा में जाने की बात है । इसीलिए भाग आया हूं । वे लोग

देखकर लौट जाएंगे।”

“परन्तु सोचेंगे क्या?”

“जो चाहे सोचें। मैं नहीं जा सकता।"

“लेकिन जाने की सम्मति जो दे चुके हैं !”

“सम्मति क्या, मैंने मन से दी थी। जोर करके उन्होंने ले ली । “

कई वर्ष बाद  हरिपद साहित्य मन्दिर, बाढागार, पुरलिया के अधिवेशन में जाकर भी वे पूरी तरह योग न दे सकें। सम्मेलन कई दिन चला, पर वे एकाध बार ही वहां गए। पूरे समय मामा डा० सत्येन्द्रनाथ गांगुली के पास ही रहे।

इसे परले सिरे की गैरजिम्मेदारी कहा जा सकता है। पर साहित्यकार क्या किसी जिम्मेदारी को ओढ़ता है? शरत् बाबू को, इस आदर्श के पीछे अपनी सहज दुर्बलता को छिपाने का, जो उनके आवारा जीवन का ही एक अंग थी, बड़ा अच्छा अवसर मिल जाता था। लेकिन यह मन्तव्य क्या एकांगी नहीं है? इतने लोकप्रिय लेखक को सभी अपने बीच में चाहते हैं। उसकी सुविधा-असुविधा की चिन्ता नहीं करते। ऐसी स्थिति में लेखक यदि बचने का उचित-अनुचित कैसा भी मार्ग ढूंढ लेता है तो उसे निन्दनीय नहीं कहा जा सकेगा। फिर शरत् बाबू तो सभा-समितियों से सचमुच घबराते थे। भाषण यदि देना ही पड़ता तो बहु धीरे-धीरे बोलते बोलते-बोलते बैठ जाते । बैठे-बैठे बोलते, फिर खड़े हो जाते ।

68
रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
1

भूमिका

21 अगस्त 2023
42
1
0

संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

2

भूमिका : पहले संस्करण की

21 अगस्त 2023
19
0
0

कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

3

तीसरे संस्करण की भूमिका

21 अगस्त 2023
11
0
0

लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

4

" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

21 अगस्त 2023
11
0
0

किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

5

अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

21 अगस्त 2023
8
0
0

भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

6

अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
7
0
0

नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

7

अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
7
0
0

मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

8

अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
4
0
0

शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

9

अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
4
0
0

तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

10

अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
5
0
0

शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

11

अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
5
0
0

इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

12

अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
5
0
0

जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

13

अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
5
0
0

शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

14

अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
4
0
0

उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

15

अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
4
0
0

इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

16

अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
4
0
0

इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

17

अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
4
0
0

इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

18

अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
3
0
0

एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

19

अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
5
0
0

गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

20

अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
5
0
0

घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

21

अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
4
0
0

इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

22

" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
4
0
0

श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

23

अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
4
0
0

वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

24

अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
4
0
0

वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

25

अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
4
0
0

एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

26

अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
4
0
0

शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

27

अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
5
0
0

रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

28

अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
3
0
0

एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

29

अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
3
0
0

शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

30

अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
3
0
0

'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

31

अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
3
0
0

गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

32

अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
3
0
0

रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

33

अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
3
0
0

‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

34

अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
2
0
0

छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

35

अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
3
0
0

द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

36

अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
2
0
0

अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

37

अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
2
0
0

' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

38

अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
2
0
0

अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

39

अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
2
0
0

वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

40

" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

41

अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

42

अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
2
0
0

'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

43

अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

44

अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
2
0
0

चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

45

अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
2
1
0

उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

46

अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

47

अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

48

अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
2
0
0

अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

49

अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
2
0
0

किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

50

अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
2
0
0

राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

51

अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
2
0
0

देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

52

अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

53

अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

54

अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

55

अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
2
0
0

किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

56

अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

57

अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
2
0
0

केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

58

अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
2
0
0

चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

59

अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
2
0
0

साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

60

अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
2
0
0

जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

61

अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

62

अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
2
0
0

शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

63

अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

64

अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
2
0
0

राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

65

अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
2
0
0

सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

66

अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
2
0
0

हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

67

अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
2
0
0

कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

68

अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
2
0
0

इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए