एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का दिया, लेकिन दरवाज़ा सचमुच बन्द था। उसने पुकारा, "भीतर कौन है?"
कोई उत्तर नहीं ।
फिर पुकारा, बार-बार पुकारा । मानो चीख पड़ा हो। तब कहीं आहट हुई दरवाज़ा खुला । विस्मित-विमूढ़ शरत् ने देखा, आधी में पुरइन के पत्ते की तरह कांपती नीचे के तल्ले में रहने वाली यज्ञेश्वर मिस्त्री की लड़की शांति उसके सामने खड़ी है। आखों से आसुओं का झरना बह रहा है। नीची दृष्टि किए बस वह खड़ी की खड़ी रह गई है। शरत् देखता रहा, सोचता रहा। युगों जितने दो क्षण बाद उसने पूछा, “बात क्या है शांति ? तुम यहां क्या करने आई हो?”
कई क्षण फिर सन्नाटा छाया रहा। बार-बार आश्वासन देने पर किसी तरह सुस्थिर होकर उसने कहा, "बाबा ने कुछ पैसा लेकर शराबी और बदमाश बूढ़े घोषाल के साथ मेरा विवाह कर देने का फैसला किया है। आज नशे में धुत होकर उसने मेरे साथ स्वतन्त्रता बरतने की कोशिश की। उसी के डर के मारे मैं यहां घुस आई थी
कहते-कहते शांति शरत् के चरणों में गिर पड़ी और करुण स्वर में बोली, "मेरी रक्षा कीजिए, मुझे बचाइए!"
अब कुछ सोचने को शेष नहीं रह गया था। शांति उसकी शरण में आई है। वह पीछे कैसे हट सकता है। बोला, "डरो नहीं शांति ! आज की रात तुम यहीं सोओ। मैं कहीं और चला जाता हूं। सवेरे आकर कुछ उपाय करूंगा।"
वह जानता था कि यज्ञेश्वर मिस्त्री का घर आवारा लोगों का अड्डा है। नशेबाज़, गंजेड़ी, ये ही सब उसके संगी-साथी हैं। स्त्री है नहीं, बेचारी शांति ही उनकी फरमाइश पूरी करते - करते तंग आ जाती है। ज़रा चूक हुई नहीं कि चक्रवर्ती उसको निर्मम होकर मारता है। 'अधिकार' में भारती ऐसे ही एक बंगाली मिस्त्री के वासे में जाती है। वह अधेड़ उम्र का है। कारखाने में पीतल ढलाई का काम करता है। शराब पीकर काठ के फर्श पर पड़ा पड़ा किसी को बुरी - बुरी गालियां दे रहा है। भारती ने पुकारा, "मानिक, किस पर गुस्सा हो रहे हो ? सुशीला कहां है? आज दो दिन से वह पढ़ने क्यो नहीं जाती ?"
मानिक किसी कदर हाथ-पैरों के सहारे उठकर बैठ गया और गौर से देखकर पहचानने के बाद बोला, "बहनजी हैं! आओ बैठो। सुशीला तुम्हारे स्कूल में कैसे जाये, बताओ? खानापकाना चौका- बासन करना, लड़के को संभालना सभी तो उसे करना पड़ता है। छाती फट जाती है बहनजी। जदुआ साले को कतल न कर दिया तो मैं कायथ की पैदाइश नहीं हूं। बड़े साहब को ऐसी दरखास्त दूंगा कि साले की नौकरी ही खतम हो जाय।”
अनजाने ही शरत् को शांति से सहानुभूति हो आई थी । इसीलिए सवेरे आकर उसने उसके पिता से कहा, “सुना है, तुम शांति का विवाह बूड़े घोषाल से करना चाहते हो।” यज्ञेश्वर ने उत्तर दिया, “जी हां।”
“लेकिन वह तो उसके लिए उपयुक्त वर नहीं है। बूढ़ा है, नशा करता है ।"
चक्रवर्ती ने उत्तर दिया, “गरीब आदमी हूं। इस विदेश में उससे अच्छा पात्र कहां से पा सकूंगा। उसके पास पैसा है। लड़की को खाने-पीने का दुख नही होगा। नशा करता है तो क्या? मैं भी करता हूं, आप भी करते हैं। रही उम्र की बात, तो भला आदमी जात की उम्र कौन देखता है?"
मिस्त्री का तर्क सुनकर शरत् मुस्कराने लगा। समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन व्यर्थ । जैसी स्थिति थी, उसमें किसी को भी समझा पाना असंभव जैसा था। फिर भी शरत् ने उससे कहा, “तुम्हें घोषाल का जो कुछ देना है वह मैं चुका दूंगा।"
चक्रवर्ती बोला, “तो इससे क्या हुआ, लड़की की शादी आखिर करनी ही है। और बाबू साहब, आपके अन्दर यदि इतनी ही दया माया है, तो क्यों नहीं इस गरीब ब्राह्मण की लड़की से शादी करके मेरी जाति और कुल की रक्षा करते ?”
सुनकर शरत् अवाक् रह गया। स्वयं विवाह करने की बात उसके दिमाग में शायद ही उठी हो। शायद कैशोर्य का वह असफल प्रेम उसे अभी तक साल रहा था। इसलिए उस क्षण वह वहां से चला गया। लेकिन मन ही मन उसने लड़की के साथ होने वाले अन्याय का प्रतिकार करने का फैसला कर लिया था। बहुत दौड़-धूप की । इधर-उधर हाथ-पैर मारे, लेकिन उसके उपयुक्त वर नहीं जुटा सका। अन्त में एक दिन उसने चक्रवर्ती से कहा, “मैं तैयार हूं।”
यह विवाह किस रीति से सम्पन्न हुआ, रंगून के कितने कुलीन बंगाली उसमें शामिल हुए इसका लेखा-जोखा किसी के पास नहीं है। वे तो यह भी नहीं जानते थे कि शरत् ने वास्तव में विवाह किया था। यही मानते रहे कि वह किसी निम्न श्रेणी की औरत के घर जाकर रहता है। और इस तरह किसी औरत के पास रहना निरी चरित्रहीनता है।
जो भी हो। अब उसके अव्यवस्थित जीवन में एक नारी पदार्पण कर चुकी थी। उसका कोमल परस पाकर उसके जीवन की धारा आनन्द के स्रोत को ओर मुड़ गई। नारियां उसके जीवन में न आई हों यह बात नहीं, परन्तु संसारी होने का यह पहला अवसर था। उस दिन से उसके लिए जीवन का अर्थ ही कुछ और हो गया। वह अब अकेला नहीं था। उसके पास थी उसकी प्रियतमा, जो उसे अपने अन्तरतम से प्यार करती थी, क्योंकि वह उसका पति ही नहीं त्राता भी था।
न जाने कितने दुखों के बीच से होकर उन्होंने यह सुख पाया था। दोनों न जाने कितनी - कितनी देर तक बातें करते रहते। एक-दूसरे की आखों में झांकते रहते। दफ्तर के मित्रों ने उसे स्त्रैण कहना शुरू कर दिया, लेकिन उसने किसी बात की चिन्ता नहीं की । मिस्त्री पल्ली के लोग पुकारते तभी वह होमियोपैथी का बक्स उठाकर बाहर निकलता। या फिर कभी अध्ययन-लेखन की प्रेरणा होती तो नयी अनुभूति के साथ साधना में लग जाता, नहीं तो उसका संसार शांति में सीमित होकर रह गया था।
धीरे-धीरे, एक वर्ष बीत गया। एक और नया प्राणी उसके संसार में आ पहुंचा। शिशु की किलकारियों से वह घर गूंजने लगा। जो अब तक प्यार और सहानुभूति के अभाव में निराश्रित होकर भटकता रहा था, जिसने सदा उन्हीं स्थानों पर आश्रय पाया था जो भलेमानुसों के लिए वर्जित थे, उसके जीवन में, यह कैसा अप्रत्याशित सुख ।
लेकिन दुर्भाग्य अभी भी मुस्करा रहा था। नये जीवन के अभी दो वर्ष भी पूरे नहीं हुए थे कि प्लेग की महामारी ने एक बार फिर रंगून शहर पर आक्रमण किया। चारों ओर हाहाकार मच उठा। इधर-उधर लाशें दिखाई देने लगी। तभी एक दिन शरत् ने घर लौटकर पाया कि शांति को ज्वर हो आया है। वह कांप उठा। उसने बहुत पास से उस ज्वर के उग्र रूप को देखा था। तुरन्त पहचान गया कि यह प्लेग ही है। सहायता के लिए पड़ोसियों से प्रार्थना की, लेकिन ऐसे समय कौन आगे आता । दौड़ा हुआ वह अपने मित्र गिरीन्द्र सरकार के पास पहुंचा और अवरुद्ध कण्ठ से बोला, “भाई गिरीन! मैं बड़ी विपद में फंस गया हूं। शांति तीव्र ज्वर में छटपटा रही है।"
“क्या कहते हो शरत् दा, किसी को दिखाया है?”
“अभी तक किसी को नहीं। महीने का अन्त है, हाथ में पैसा नहीं है । "
“कोई चिन्ता नही। मैं अभी डाक्टर अपूर्व या डाक्टर डे को बुलाता हूं।”
गिरीन्द्रनाथ सरकार ने एक सत्कार समिति का गठन किया था। वह ऐसे समय रोगियों के इलाज तथा मरने पर उनके दाहकर्म में सहायता करती थी । शरत् बोला “तुमने सत्कार समिति बनाकर बहुत पुण्य अर्जित किया है। इस विपत्ति में मेरी रक्षा करो भाई।”
फिर हताश भाव से कुर्सी पर जैसे गिर गया। दीर्घ निःश्वास खींचकर बोला, “भाग्य है भाई, सब भाग्य है। जो लिखवाकर लाया हूं वही तो होना है।”
सरकार ने उसे सांत्वना दीं। समिति की अलमारी खोलकर रोगी के इस्तेमाल में आने वाली कुछ चीज़ें और कुछ दवाइयां भी दीं। कहा, “तुम घर चलो, मैं अभी आता हूं।”
कुछ देर बाद डाक्टर के साथ जब वह वहां पहुंचे तो पाया, लकड़ी के एक तख्त के ऊपर चादर से मुंह ढके रोगिणी अचेतन अवस्था में छटपटा रही है। प्राण कण्ठ में आ गए हैं। एक बुढ़िया उसके सिरहाने बैठी पंखा झल रही है। डाक्टर तुरन्त समझ गए कि प्लेग है और बचने की कोई आशा नहीं है। दो क्षण उसे देखकर वह बाहर आ गए। शरत् और भी कातर हो उठा। विकल-विहल वह शान्ति की प्राणरक्षा के लिए बार-बार डाक्टर से अनुरोध करने लगा। लेकिन वे क्या कर सकते थे ? सांत्वना देकर तथा उपचार बताकर वहां से चले गए। शरत् फिर रोगिणी की शैया के पास आ गया।
अन्त में कुछ क्षण पूर्व शान्ति की संज्ञा लौटी। क्षीण कण्ठ से धीरे- धीरे उसने कहा, “मेरे कारण आपको बहुत दुख पहुंचा है। उस सबके लिए क्षमा कर दो।”
शरत् आर्त स्वर में बोल उठा, “ऐसी बात मत कहो। मुझे डर लगता है।”
शान्ति ने कहा, “छि:! डर किस बात का ? लाओ, मुझे जरा अपने पैरों की धूलि तो दो। आशीर्वाद भी दो ।”
शरत् समझ गया कि अब आशीर्वाद देने को कुछ नहीं बचा है। सारे प्रयत्न व्यर्थ हो गए हैं। शांति संसार के दुख-कष्टों को तुच्छ करके परलोक चली गई। वह अपलक दृष्टि से स्त्री के मृत्यु से विवर्ण मुख को देखता हुआ रो उठा।
उस समय जैसी अवस्था थी, पड़ोसियों से कोई सहायता मिलने की आशा नहीं थी । और जो भद्र बंगाली थे उनसे वह सदा दूर रहा। वे भी क्यों आते? इसलिए केवल गिरीन्द्रनाथ की सहायता से ही उसे सब कुछ करना पड़ा। बड़ी कठिनता से एक कुलीगाड़ी भाड़े पर ली और उस पर रखकर शव को श्मशान ले गये ।
वहां एक संन्यासी रहते थे। इन्हें निसंग देखकर उन्होंने स्वयं ही चिता निर्मित की और इस प्रकार शान्ति देवी का दाह संस्कार सम्पन्न हुआ ।
शरत् के शोक की कोई सीमा नहीं थी। कैर्शार्य के उस असफल प्रेम के समान इस सदमे का भी उसके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। छूट गया अध्ययन, छूट गया लिखना और चित्रांकन, बस बावलों की तरह इधर-उधर घूमता रहता। इसी बीच में शिशु भी महामारी का शिकार बन गया था। वर्षों बाद अपने मित्र के युवा पुत्र की मृत्यु पर उसकी मां से उसने दार्शनिक उपेक्षा से कहा था, “दीदी, तुम तो इतने दिन तक पुत्र सुख देख चुकी मैं तो एक वर्ष भी उस सुख को नहीं भोग सका था।” पर उस दिन उसकी व्यथा का अन्त नहीं था। सब कुछ लुटाकर एक बार फिर वह अकेला रह गया।
मित्रों ने सलाह दी, 'कुछ दिन घूम आओ।”
उसका सारा जीवन एक यात्रा ही था। एक निरुद्देश्य दिशाहीन यात्रा। एक बार फिर वह धूमने निकल गया। लेकिन अब पहले की तरह मुक्त नहीं था । छुट्टी की एक सीमा होती है, आखिर उसे अपने काम पर लौटना पड़ा। फिर, दर्द सहा जाता है, प्रचारित नहीं किया जाता, तभी तो वह शक्ति बनता है, इसलिए अध्ययन, लेखन, चित्रांकन सब कुछ फिर आरम्भ हो गया। उस दर्द ने उन्हें गहराई दी और दी विशालता, लेकिन उस घर में वह नहीं रह सका। उसके कण-कण में उसके अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन की स्मृति अंकित थी।
पास ही एक और घर लेकर वह उसमें चला गया।