शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से | 2
‘विराजबहू' का रूपान्तर शिशिर भादुड़ी ने किया था और उन्होंने ही इसे अपने सुन्दर अभिनय सहित मंच पर प्रस्तुत किया। लेकिन जो रूपान्तर बाजार में है वह किया या कानाई बसु ने । 'विजया' का नाट्य रूपान्तर भी स्टार रंगमंच पर नव नाट्य मन्दिर ने प्रस्तुत किया । शिशिर उसमें नरेन्द्र का अभिनय करना चाहते थे, परन्तु इस बात को लेकर पत्रों में बड़ी चर्चा हुई और अन्ततः उन्होंने रासबिहारी का अभिनय किया ।
शिशिर बाबू ने 'नवविधान' और 'गृहदाह' का नाट्य रूपान्तर करने का भी अनुरोध किया था। लेकिन उनके अचानक अधिक बीमार हो जाने और शरत् बाबू के योरोप जाने की चर्चा चल पड़ने के कारण यह सम्भव नहीं हो सका। 'गृहदाह' के दो अंक उन्होंने स्वयं लिखे थे। शेष रूपान्तर बाद में बंगला माप्ताहिक के यतीन्द्रनाथ राय ने पूरा किया, लेकिन वह अच्छा नहीं हो सका। मंच पर भी उसे सफलता नहीं मिली ।
इन्हीं दिनों न्यू थियेटर्स ने उनके उपन्यासों को रजतपट पर उतारना आरम्भ किया । न्यू थियेटर्स ने आपनी स्थापनत्नं 4 के बाद उसी वर्ष के उत्तरार्द्ध में प्रेमांकुर आतर्थी के दिग्दर्शन में देना - पावना का निर्माण करके अपनी यात्रा आरम्भ की । इस चित्र से वीरेन्द्रनाथ सरकार को न केवल पर्याप्त अर्थ ही मिला, एक रोमांचक अनुभूति भी प्राप्त हुई । शरत् बाबू को इसके लिए मिले केवल एक हजार रूपये 'देवदास' के लिए दो हजार रुपये मिले।
सरकार से उनके संबंध बहुत अच्छे थे। उनके सिनेमागृह 'न्यू सिनेमा ' का उद्घाटन भी उन्होंने ही किया था । 'विजया' का चित्रपट उन्हें बहुत पसन्द आया और उसकी उन्होंने भूरि-भूरि प्रशंसा की लेकिन जो सफलता 'देवदास' का सवाक् चित्रपट तैयार करने में प्रमथेश बरुआ को मिली वह किसी और को नहीं मिली। गौरीपुर के राजकुमार प्रमथेश बरुआ जब 'देवदास' के चित्रपट की योजना लेकर शरत् बाबू के पास गये तो उन्होंने अनुमति देने से साफ इनकार कर दिया। कहा, “मेरा देवदास' भसपग भाबुक है । उसे रजतपट पर चित्रांकित करना सहज नहीं है। मैं किसी भी प्रकार तुम्हें अनुमति नहीं दे सकता । मेरे और भी उपन्यास है, उनमे से कोई एक चुन लो। 'देवदास' मैं तुमका छूने भी नहीं दूंगा। बहुत इमोशनल हे मेरा 'देवदास' ।"
बरुआ उदास तो हुए, लेकिन हताश नहीं । इसीलिए अन्त में शरत् बाबू को उनसे समझौता करना पड़ा उन्हें कहना पड़ा, “मैं तुम्हें 'देवदास' फिल्म बनाने की अनुमति देता हूं, किन्तु रजतपट पर उसे वास्तविक रूप देना ही होगा। मुझे पूर्ण आशा है कि देवदास की भूमिका में तुम खरे उतरोगे । किन्तु पारो और चुन्नीलाल की भूमिकाएं भी तो कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। उन पर भी विशेष ध्यान देना होगा ।"
प्रारम्भ में शरत् बाबू श्हूइटैग के समय स्वयं सेट पर मौजूद रहते थे । परन्तु शीघ्र ही जब उन्हें विश्वास हो गया कि बरुआ ईमानदारी के साथ प्रयत्न कर रहे हैं तो फिर उन्होंने जाना छोड़ दिया । उन्होंने देख लिया था कि निर्देशक और अभिनेता दोनों को ही हैसियत से बरुआ चित्र के मार्मिक और भावुकतापूर्ण स्थलों पर संयम और सतर्कता से काम ले रहे हैं ।
आखिर देवदास' बनकर तैयार हो गया। बड़े अरमान के साथ बरुआ शरत् बाबू को दिखाने के लिए लाये । पूरी फिल्म देखने के बाद शरत् बाबू बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने बरुआ को अन्तर्मन से आशीर्वाद दिया । जनता ने भी मुक्त मन से 'देवदास' का स्वागत किया ।
न्यू थियेटर्स को उन्होंने अपनी और भी रचनाओं के सिने अधिकार बेच दिये थे। बाद में इन्हीं से छाया सिनेमा के श्री शचीन्द्रनाथ वारिक ने 1500 रुपये देकर 'चन्द्रनाथ' के अधिकार खरीद लिये थे । उनकी बहुत-सी रचनाओं के आधार पर बहुत से चित्रपट तैयार हुए, लेकिन भीषण भावुक 'देवदास' ने उन्हें जो यश दिया, वह अभूतपूर्व था ।
शरत् ग्रन्थावली का छठा और सातवां भाग तथा उनके लेखों का एक संग्रह भी इसी युग में प्रकाशित हुए। अभी भी वे अपनी पुरानी रचनाओं में हेरफेर करते रहते थे । 'चन्द्रनाथ' के १४वें संस्करण की भूमिका में उन्होंने स्वीकार किया है, “ चन्द्रनाथ ' मेरी बचपन की रचना है। उन दिनों कहानी और उपन्यासों में जिस भाषा का उपयोग किया जाता था, इस पुस्तक में वही भाषा थी। वर्तमान संस्करण में केवल इसी में परिवर्तन कर दिया है।
लेकिन इस काल की एक उल्लेखनीय घटना है 'निष्कृति' का अंग्रेजी में अनुवाद | यह अनुवाद दिलीपकुमार राय ने किया हे। वे शरत् बाबू की तीन सर्वश्रेष्ठ गल्पों में इसकी गणना करते थे। शेष दो गल्पें थीं । रामेर सुमति', और बिदूर छेले । इन तीनों का ही अनुवाद वे करना चाहते थे। शरत् बाबू के प्रति उनकी श्रद्धा अपार थी। उनसे भी उन्होंने गहरी आत्मीयता और अगाध स्नेह पाया था । उसका प्रतिदान चुकाने के लिए ही मानो वे यह काम करने के लिए तैयार हुए थे। उन्होंने श्रीअरविन्द से कहा, “मैं निष्कृति' का अनुवाद करना चाहता हूं, आपको इसे देखना होगा ।"
सहमत हो गये । शरत् बाबू का आशीर्वाद तो उन्हें प्राप्त था ही। बड़े उत्साह से वे अनुवाद करने लगे। श्रीअरविन्द साथ-साथ संशोधन करते जाते थे । अनुवाद पूरा होने पर उसकी प्रशंसा में उन्होंने कुछ पंक्तियां भी लिख दी थीं -
“श्री शरत्चन्द्र की रचनाओं में, उनकी विशाल मेधा, मानवों तथा वस्तुओं के सूक्ष्म तथा सही पर्यवेक्षण और दुख तथा पीड़ा के प्रति सहानुभूति से भरे हृदय की अमिट छाप है। । वह इतने अधिक संवेदनशील हैं कि उन्हें इस संसार से चैन कैसे प्राप्त हो सकता है । उनकी दृष्टि भी सम्भवतः उतनी ही अधिक पैनी है। उनका मन बहुत निर्मल है और उनकी प्राणिक प्रकृति बहुत उदात्त है।"
इस अनुवाद की भूमिका के लिए दिलीपकुमार राय ने कविगुरु रवीन्द्रनाथ से प्रार्थना की। उस समय रवीन्द्रनाथ और शरतचन्: क बीच मनावन गहन हो त्रठा था । इसलिए उन्हे आशा नहीं था कि कवि उनके अनुरोध की रक्षा कर सकेंगे। लेकिन उन्होने अपने लम्बे पत्र में बड़े विस्तार से शरत्चन्द्र की मनोव्यथा की चर्चा की । अन्ततः कवि ने शरत्छान्द्र की प्रतिभा का वरण करते हुए 'निष्कृति' की छोटी-सी भूमिका लिख भेजी, चह नवीनतम नेता, जिसने मुक्ति के मार्ग के द्वारा बंगाली उपन्यास को धुएं, विश्व साहित्य की भावना के पास लाने का कार्य किया है, शरतचन्द्र है। उन्होंने हमारी भाषा को नइ शक्ति दी है। अपनी कहानियों में उन्होने बंगाली हृदय को नई दृष्टि के प्रकाश से आलोकित किया है। उन्होंने जनता के व्यक्तित्व की छिपी हुई साधारण बातों के जीवन्त महत्व को प्रकट किया है। उन्होंने एक उपन्यासकार के लिए जो सर्वोत्तम पारितोषिक हो सकता है पा लिया है । उन्होंने सम्पूर्ण रूप से बंगाली पाठकों का हृदय जीत लिया है।'
जब शरतचन्द्र को यह पता लगा कि श्रीअरविन्द उस अनुवाद में संशोधन कर रहे हैं तो उन्होंन दिलीपकुमार को एक पत्र लिखा । वह पत्र कई दृष्टियों से एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है :
परम कल्याणयेषु मटू
पी ५५६६ मनोहर पुकुर कलकत्ता
3 माघ, 1341
क्त रात को गांव के घर से यहां आ गया हूं। तुम्हारी चिट्ठियां मिलीं एक-एक करके काम की बातों का जवाब दूं ।
(1) तुम्हारी निशिकान्त की तसवीर अच्छी बनी है। बहुत दिनों के बाद फिर तुम्हारा मुंह देखा, बड़ी प्रसन्नता हुई। अब सचमुच ही देखने की बड़ी इच्छा होती है। लेकिन आशा छोड़ दी है । सोचा है, इस जीवन में अब नहीं देख सकूंगा ।
(2) टाइपराइटर सही-सलामत पहुंच गया है, यह संतोष की बात है। डर था कि कहीं विकलांग होकर तुम्हारे आश्रम में न जा पहुंचेर । उस दिन हीरेने ने आकर कहा कि मण्टू दादा का अपना टाइपराइटर पुराना हो गया है, उन्हें एक नई मशीन चाहिए। कहा, जरा दौड़-धूप कर भेज दो न हीरेन ।' वह उसीने किया है। मैं। मुझसे भी नहीं होता । मैंने केवल राजी हुआ । यह सब कुछ जड़ वस्तु हूं कुछ रुपये का चेक लिख दिया था । तुम्हें पसंद आया है, इससे 'बढ़कर मेरे लिए आनन्द की बात नहीं। जिस आदमी ने अपना सब कुछ दे दिया, उसे देना देना नहीं है, पाना है। मुझे बहुत कुछ मिला, तुमसे बहुत अधिक ।
(3) श्री अरविन्द के हाथ की लिखी चिदमई संभालकर रख दी है। यह एक रत्न है । (4) निष्कृति का अच्छा अनुवाद करने के लिए तुम यथासाध्य प्रयत्न करोगे, इसे मैं जानता था। तुम मुझे सचमुच प्यार करते हो, इसलिए नहीं, बल्कि जो यथार्थ में साधु का व्रत ग्रहण करते हैं यह उनका स्वभाव है। ऐसा किये बगैर उनसे नहीं रहा जाता । या तो करते नहीं है, पर करने पर बेगार नहीं करते ।
(5) जब श्रीअरविन्द ने स्वयं देख देने का संकल्प किया है तो अनुवाद अच्छा ही होगा । लेकिन मण्टू पुस्तक में अपना कौन-सा गुण है, श्री अरविन्द को क्यों अच्छी लगी, नहीं जानता । कम से कम अच्छी नहीं लगती तो अचरज नहीं होता, खिन्न भी नहीं होता । तुम जब 'श्रीकान्त' का प्रचार कर सकोगे, तभी आशा करूंगा कि एक बंगाली कहानीकार को पश्चिम वाले कुछ श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। तुम्हारा उद्यम और श्रीअरविन्द का आशीर्वाद रहा तो यह असम्भव भी एक दिन संभव होगा। इसकी मुझे उम्मीद हे ।
(6) अनुवाद के मामले में तुम्हारी पूर्ण स्वतन्त्रता मैंने स्वीकार की है। इसका कारण यह है कि तुम तो केवल अनुवादक र्हा नहीं हो, खुद भी बड़े लेखक ही । तुम्हें अकिचितकर साबित करने वाले लोगों की कमी नहीं।......लेकिन उनकी समवेत चेष्टा से तुम्हारी प्रतिभा और एकाग्र साधना कहीं बड़ी है। तुम्हारे गुरु की शुभाकांक्षा तो सब कुछ के पीछे है ही । उनकी सारी कुचेष्टायें सफल होंगी और तुम्हारे अंतर की जाग्रत शक्ति सार्थक नहीं होगी, ऐसा हो ही नहीं सकता मण्टू
(7) रवीन्द्रनाथ मुझे इण्टोड्यूस करना चाहेंगे इसका भरोसा नहीं करता । मेरे प्रति तो वह प्रसन्न नहीं हैं। इसके अलावा उनके पास समय ही कहां है! साहित्य- सेवा के काम के बारे में वह मेरे गुरुकल हैं उनका क्या मैं कभी चुका नहीं सकूंगा। मन ही मन उन पर इतनी श्रद्धा-भक्ति रखता हूं । लेकिन भाग्य ने गवाही नहीं दी। मेरे प्रति उनकी विमुखता का अंत नहीं । अतएव इसकी चेष्टा करना बेकार है।
(8) हीरेन शायद आजकल में ही आवेगा। उसे तुम्हारे कागज भेज देने के लिए कहूंगा
(9) बाकी रही तुम्हारी बात मैं तुम्हारा बहुत ही कुरत हूं मण्टू इससे अधिक क्या कहूं! चिट्ठी लिखने की बात सदा से मेरे लिए जटिल रही है। संभालकर लिख ही नहीं पाता । इसलिए मुझे जो बातें कहनी चाहिए थीं कह नहीं सका था। वह मेरी अक्षमता है, अनिच्छा कभी नहीं। इस पर विश्वासकरना ।
मेरा स्नेहाशीर्वाद लेना और सौरीन को कहना । लड़के की बात याद नहीं आ रही है। स्वर्गीय दादा महाशय के यहां या तक्र के यहां शायद देखा होगा ।
(10) श्रीअरविन्द की नववर्ष की प्रार्थना सचमुच ही बहुत अच्छी लगी । यथार्थ में वह बहुत बड़े कवि हैं ।
शुभाकांक्षी
श्री शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
इस पत्र को दिलीपकुमार ने श्रीअरविन्द के पास भेज दिया । लिखा, 'मनुष्य की प्राणशक्ति की लीला ही इस जीवन के मूल को सरस और बसन्त को रंगीन रखती है।.
इसका जो उत्तर श्री अरविन्द ने दिया, वह भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, शरत्चन्द्र के पत्र की महिमा उसकी प्राणवन्तता के कारण नहीं है । यद्यपि वह प्राणशक्ति के बीच से ही प्रकट हुई है, किन्तु प्राणशक्ति उसकी मूल प्रेरणा नहीं है। उसकी प्रत्येक पंक्ति में अन्तरात्मा का प्रकाश फूटा पड़ता है । यदि कोई मुझसे पूछे कि भनुष्य के भीतर यह प्रकाश किस तरह सक्रिय होता है तो मैं अकुण्ठ भाव से कहूंगा कि इस चिट्ठी की तरह । यह अन्तरात्मा हमारी असली सत्ता है। वस्तु, प्राण और मन को यही जीवन्त शक्ति से भरती है और इसी के माध्यम से अपने को प्रकाशित और विकसित करती है - लावण्य और सौकुमार्य के रसायन में। मनुष्य से निम्न स्तर के जीव जगत् में भी यह काम करती है। -उनको धीरे- धीरे मानवता की ओर लाते हुए । केवल मनुष्यों में ही यह शक्ति और स्वतन्त्रता से काम करती है। यद्यपि बहुत अज्ञान दुर्बलता 'और कर्कशता और काठिन्य का बोझा इसे उठाना पडता है। योग की भूमिका मे यह अन्तः शक्ति अपने लक्ष्य के संबंध में सचेतन होकर भीतर ही भीतर भगवत्मुखी होती है। यह पीछे और ऊपर देखती है। यही इसमें अन्तर है। 12
शरत् बाबू के पत्र की यह व्याख्या बहुतों को विस्मित कर सकती है। परन्तु यह 'है बहुत सही । शरत् बाबू की भक्ति श्रीअरविन्द के प्रति कम नहीं थी । यद्यपि वे उनके दर्शन को पूर्णरूप से हृदयंगम नहीं कर सके थे, फिर भी उनकी प्रतिभा और विद्वत्ता को उन्होंने बार-बार स्वीकार किया है।
और मतभेद को भी बडे सहज भाव से प्रकट कर दिया है, 'श्रीअरविन्द जो छोटे-छोटे सन्देश तथा तुम लोगों के प्रश्नों के उत्तर देते हैं, जिन्हें तुम यत्न से मेरे पास भेजते हो, उन्हें पड़ता हूं सोचता हूं और फिर पड़ता हूं। हां यह मानता हूं कि अधिकांश को समझ नहीं पाता । कभी-कभी वे मन, चेतना या कांशसनेस के इतने भिन्न-भिन्न और सूक्ष्मातीत सूक्ष्म पर्याय या स्तर बतलाते हैं कि वे मेरी बुद्धि से परे हैं। कविता के संबंध में भी उनके विचारों को सर्वदा नहीं मान पाता हूं...........
श्री अरविन्द के प्रति श्रद्धानत होते हुए भी उनके शिष्यों के प्रति वे उस सीमा तक कभी श्रद्धावान नही हो सके। दिलीपकुमार के साधु का बाना धारण कर लेने पर वे अत्यन्त व्यथित हो उठे थे । इस बात को उन्होंनं कभी छिपाया नहीं । बहुत पहले दिलीपकुमार को उन्होने स्पष्ट लिखा था । तुम्हारे नाम से तो वारण्ट नहीं था, जो तुम साधु बनने गये। बस, अब आगे नही। इस पत्र क्तें पाते ही चले आना न हो तो ख दिनों के बाद फिर चले जाना। इससे कोई क्षति नहीं होगी। मैं अनुभवी व्यक्ति हूं मेरी बात सुनो। तुम्हारी उम्र में मैं चार-चार बार संन्यासी बना था। उस ओर शायद मक्खियां और मच्छर कम्र हैं, नहीं तो हिन्दुस्तानियों की पीठ के चमड़े के सिवा उनके दंशन के सहना किसके बूते की बात है! भैया, यह बंगाली का पेशा नहीं है, बात सुनो, चले आओ! तुम्हारे आने पर इस बार बरसात के बाद एक साथ हम उत्तर और दक्षिण भारत बूमने चलेंगे। तुम्हारे साथ न होने पर खातिरदारी नहीं मिलेगी, खाने-पीने का भी उतना सुभीता नहीं रहेगा। कब आ रहे हो, पत्र पाते ही लिखना मैं स्टेशन पर जाऊंगा।
एक बात और सुना है बारीन (श्रीअरविन्द के छोटे भाई बारीन्द्रकुमार घोष ) किसी भी पेड़ क्य पत्ता तुम्हारी नाक पर रगड़कर किसी भी फूल की सुगन्धि सुधा सकता है। उपेन बन्दोपाध्याय बता है कि उसने इस चीज को कर्ता (श्री अरविन्द घोष) से हथिया लिया है। आते समय तुम इसे सीख लेना। वह एकएक नहीं मानेगा, मगर तुम छोड़ना मत। कुछ दिनों तक उसकी अण्डमन की वंशी की खूब तारीफ करते रहना और पुस्तक को हमेशा साथ लेकर घूमना, और डप्त पुस्तक को इतने दिनों तक नहीं पड़ा, यह ककर बीच-बीच में उसके सामने अफसोस जाहिर करना । बहुत सम्भव है कि इतने से ही विभूति को हथिया ले सकोगे। उत्तर भारत घूमते समय वह खास काम में आयेगी।
सुना है, अनिलवरण धूल को चीनी बना सक्ता है, यद्यपि ज्यादा देर तक वह नहीं टिकती है, मगर पांच-सात घण्टे तक देखने और खाने में चीनी ही लगती है। इसे अवश्य ही सीख आने अई चेष्टा करना । अनिलवरण सरल और भला आदमी है। अगर सिखाने में आपत्ति करे तो भूतों और चुड़ैलों की खूब कहानियां कहना । शपथ खाकर कहना कि तुमने चुड़ैल अपनी आखों से देखी है। फिर आगे चिन्ता नहीं करनी पड़ेगी अनायास ही अऐशल' को हथिया लोगे। और अगर इन दोनों को सचमुच ही सीख लेते हो तो वहां कष्ट उठाकर रहने की कौन-सी जरूरत है?
बहुत दिनों से तुम्हें नहीं देखा। देखने की बड़ी इच्छा होती है, गाना सुनने की साध होती है। क्म उद्यओगे, लिखना मेरा स्नेहाशीर्वाद लेना ।
- श्री शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय पुनश्चः विशतइयो' को लाना ही होगा। समय कुसमय बड़े काम आती हैं। जो भी हो, शीघ्र चले आओ। संन्यासी होना बहुत खराब है मण्टू । मेरी बात पर विस्वास करो । आजकल के जुमाने में इसमें कुछ भी मजा नहीं है। कब आ रहे हो, ठीक-ठीक लिखना ।.......
दो वर्ष बाद फिर एक पत्र में लिखा, 15त से शीघ्र ही एक दिन मुलाकात करूंगा। यह नहीं बतलाऊंगा कि तुमने उसके बारे में कुछ लिखा है। लेकिन तुमने मुझे जो कुछ सूचित किया है, उसी पर जिरह करके सत्य का आविष्कार करने की चेष्टा करूंगा। देखूं ऊ क्या कहता है? श्री अरविन्द के संबंध में कहीं भी तो मैंने वह बात नहीं कहीं है। देश के सारे लोग उनपर गहरी श्रद्धा रखते है। क्या केवल मैं ही नहीं रखता? लेकिन आश्रमवासियों के प्रति मेरा मन बहुत प्रसन्न नहीं है। कारण हैं कुछ झ' की बातें और कुछ दूसरे आश्रमवासियों के संबंध में मेरी कुछ जानकारी। इसके अलावा, तुम्हारा चले जाना मुझे बहुत खटका है। जब आई० सी० एस० या कानून नही पढ़ा तब दुख हुआ था, मगर जब गाने-बजाने और उसके साथ ही साहित्य को तुमने अपनाया तब वह क्षोभ दूर हो गया था। सोचा था, सभी नौकरी करेंगे और अपने देश के लोगों को, हाकिम या बैरिस्टर बनकर, जेल भेजेंगे, ऐसा क्यों हो? मण्टू को खाने-पहनने की चिन्ता नहीं है। वह अगर भारत के क्लाशिल्प को विदेशियों की नजरों में बड़ा बना सके बुद्धि से, इसके पिटे-पिटाए पथ से, एक नया मार्ग निकाल सके तो क्या इससे देश को क्य गौरव होगा हैं. इसके बाद एक दिन सुना कि तुम बस सब कुछ क्षेडूकर बैरागी बनने चले गये हो। तब अचानक ही लगा कि मेरी अपनी ही कोई बहुत बड़ी क्षति हो गई है। इस जीवन में शायद तुम्हें फिर नहीं देख पाऊंगा। क्या तुम समझते हो कि यह मेरे लिए कोई छोटा दुख है? और कोई भले ही विश्वास न करे, मगर तुम तो जानते हो। यह बात मुझे चिर दिन घोर दुख देगी, इसमें मुझे सन्देह नहीं ।.
“सुना है, तुम्हारा अनिलवरण धूल को चीनी बना सकता है। कहा जाता है, आश्रम को सारी चीनी वही सप्लाई करता है। क्या यह सच है? मैं विश्वास नहीं करता। क्योंकि तब तो वह आश्रम में क्यों रहने जाता? कलकत्ता आकर अनायास ही एक चीनी की दुकन खोल सकता।
"बारीन से अक्सर मुलाकात होती है। वह कहता है कि अब वह उधर कभी नहीं जाएगा। उतनी भीषण सख्ती में उसकी आत्मा पिंजड़े को छोड़कर नहीं निकल गई, यह बड़े सौभाग्य की बात है। लेकिन तुम्हारी मदर' के बारे में उसके दिल में गहरी भक्ति है। कहता है, उस प्रकार की अद्भुत व्यक्ति देखने में नहीं आती। कहता है कि उनकी सूक्ष्म दृष्टि एक अद्भुत वस्तु है। जितनी काम करने की शक्ति है, जितना अनुशासन है, बुद्धि भी उतनी ही प्रखर है। प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक मामला उनकी नज़रों के सामने रहता है। उनके आदेश और उपदेश के अतिरिक्त वहां कुछ भी नहीं हो सकता। इसलिए जो लोग बाहर से अचानक जाते हैं, वे उनके संबंध में तरह-तरह की उलटी सीधी धारणाएं लेकर लौटते हैं।.
'निष्कृति' के अनुवाद को लेकर उनके मन में बड़ी आशाएं पैदा हो गई थी. 'निष्कृति' के फ्रांसीसी अनुवाद की कल्पना भी तुम्हारे मन में है। मुझे तो विश्वास नहीं होता, पर श्री अरविन्द के आशीर्वाद से अघटित भी घट सकता है। "
दिलीपकुमार ने अनुवाद किया है और श्रीअरविन्द ने उसे देखा है, यह जानकर और भी बहुत-से लोग उसके प्रकाशन में रुचि लेने लगे। एक अमरीकन महिला जो कभी 'एशिया' पत्रिका की सम्पादिक रही थीं और अब जिन्होंने एक बंगाली भद्रलोक से विवाह कर लिया था, उस अनुवाद को अमरीका में प्रकाशित करने के लिए उत्सुक हो उठीं। लेकिन शरत् बाबू का अब भी यही विचार था कि 'निष्कृति' के स्थान पर 'श्रीकान्त' का अनुवाद होना चाहिए था, होना चाहिए। उस देश में 'निष्कृति' किस गुण के आधार पर आदर पा सकती है? बार-बार उन्होंने दिलीपकुमार को लिखा.... 'तुम 'श्रीकान्त' का अनुवाद करते हुए झिझकते क्यों हो? अगर होगा तो तुम्हारे द्वारा ही होगा.....।"
..इस बार तुम 'श्रीकान्त ' लो। जीते जी उसका अनुवाद देख जाना चाहता हूं...।”
लेकिन उनकी यह कामना पूरी नहीं हो सकी। दिलीपकुमार 'श्रीकान्त' का अनुवाद नहीं कर सके। कुछ दूसरे लोगों ने प्रयत्न किया, पर व्यर्थ ही प्रमाणित हुआ।
अपवादों ने अभी भी उनका पीछा नही छोड़ा था। इसी समय एक अपवाद उठा कि उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलने वाला है। दिलीपकुमार राय तथा उनके अन्य शुभाकांक्षियों ने कविगुरु रवीन्द्रनाथ से उनके नाम का प्रस्ताव करने के लिए प्रार्थना की है, पर किसी अज्ञात कारण से कवि ऐसा नहीं कर सके।
बात वास्तव में यह थी कि डा० कानाई गांगुली और दिलीपकुमार राय के विशेष आग्रह पर शरत्चन्द्र योरोप की यात्रा करने के लिए तैयार हो गये थे। उसी को लेकर 'आनन्द बाजार पत्रिका' ने उड़ा दिया कि शरत् बाबू नोबेल पुरस्कार के लिए प्रयत्न करने योरोप जा रहे है।
यह सब आपसी ईर्ष्या और ईर्ष्या क परिणाम था। राजनीति में उन दिनों शरत्चन्द्र सत्याग्रह और चर्खे के विरुद्ध थे। इसी कारण दूसरे दल के लोग नाना प्रकार के अपवाद प्रचारित करते रहते थे। कभी-कभी तो वे हास्यस्पद स्तर पर उतर आते थे। किसी अभिनेता का नाम भी शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय था। कुछ दिन पूर्व शनिवारेर चिठि में नटराज की वेशभूषा में उसका एक चित्र छपा था। उसके नीचे केवल इतना लिखा था, “शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय 18
लेकिन ये अपवाद उनके सन्तुलन को जरा भी डिगा नहीं पाते थे। आक्रमण जितना तीव्र होता उतने ही वे निर्भीक होते। इसी समय उन्होंने एक नया उपन्यास लिखना शुरू किया था। उसका नाम था 'अनागत' | 'आनन्द बाज़ार पत्रिका' ने उनकी पगड़ी उछाली थी, परन्तु उसके एक सम्पादक प्रफुल्लकुमार सरकार का भी इसी नाम का एक उपन्यास था। उनका यह भय स्वाभाविक ही था कि शरत्चन्द्र के उपन्यास के सामने उनके उपन्यास को कोई नहीं पूछेगा। उन्होंने डरते-डरते श्री अविनाशचन्द्र घोषाल के माध्यम से शरत् बाबू से अपने उपन्यास का नाम बदल देने की प्रार्थना की। शरत् बाबू तुरन्त तैयार हो गये। उसका दूसरा परिच्छेद 'आगामी कल' के नाम से छपा। यह दूसरी बात है कि वह उपन्यास उनके असमाप्त उपन्यासों में एक संख्या और बढ़ाकर ही रह गया।
यूरोप जाने की बात काफी आगे बढ़ गई थी। यह समाचार पाकर लन्दन में एक अभ्यर्थना समिति का गठन करने का निर्णय किया गया था और चेष्टा की जा रही थी कि सर्वश्री बनाई शा, एच० जी० बेल्स और आल्डुअस हक्सले उसमें आ सकें, परन्तु स्वास्थ्य खराब हो जाने के कारण शरत् बाबू ने जाने का विचार ही स्थगित कर दिया।