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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023

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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से | 2

‘विराजबहू' का रूपान्तर शिशिर भादुड़ी ने किया था और उन्होंने ही इसे अपने सुन्दर अभिनय सहित मंच पर प्रस्तुत किया। लेकिन जो रूपान्तर बाजार में है वह किया या कानाई बसु ने । 'विजया' का नाट्य रूपान्तर भी स्टार रंगमंच पर नव नाट्य मन्दिर ने प्रस्तुत किया । शिशिर उसमें नरेन्द्र का अभिनय करना चाहते थे, परन्तु इस बात को लेकर पत्रों में बड़ी चर्चा हुई और अन्ततः उन्होंने रासबिहारी का अभिनय किया ।

शिशिर बाबू ने 'नवविधान' और 'गृहदाह' का नाट्य रूपान्तर करने का भी अनुरोध किया था। लेकिन उनके अचानक अधिक बीमार हो जाने और शरत् बाबू के योरोप जाने की चर्चा चल पड़ने के कारण यह सम्भव नहीं हो सका। 'गृहदाह' के दो अंक उन्होंने स्वयं लिखे थे। शेष रूपान्तर बाद में बंगला माप्ताहिक के यतीन्द्रनाथ राय ने पूरा किया, लेकिन वह अच्छा नहीं हो सका। मंच पर भी उसे सफलता नहीं मिली ।

इन्हीं दिनों न्यू थियेटर्स ने उनके उपन्यासों को रजतपट पर उतारना आरम्भ किया । न्यू थियेटर्स ने आपनी स्थापनत्नं 4 के बाद उसी वर्ष के उत्तरार्द्ध में प्रेमांकुर आतर्थी के दिग्दर्शन में देना - पावना का निर्माण करके अपनी यात्रा आरम्भ की । इस चित्र से वीरेन्द्रनाथ सरकार को न केवल पर्याप्त अर्थ ही मिला, एक रोमांचक अनुभूति भी प्राप्त हुई । शरत् बाबू को इसके लिए मिले केवल एक हजार रूपये 'देवदास' के लिए दो हजार रुपये मिले।

सरकार से उनके संबंध बहुत अच्छे थे। उनके सिनेमागृह 'न्यू सिनेमा ' का उद्घाटन भी उन्होंने ही किया था । 'विजया' का चित्रपट उन्हें बहुत पसन्द आया और उसकी उन्होंने भूरि-भूरि प्रशंसा की लेकिन जो सफलता 'देवदास' का सवाक् चित्रपट तैयार करने में प्रमथेश बरुआ को मिली वह किसी और को नहीं मिली। गौरीपुर के राजकुमार प्रमथेश बरुआ जब 'देवदास' के चित्रपट की योजना लेकर शरत् बाबू के पास गये तो उन्होंने अनुमति देने से साफ इनकार कर दिया। कहा, “मेरा देवदास' भसपग भाबुक है । उसे रजतपट पर चित्रांकित करना सहज नहीं है। मैं किसी भी प्रकार तुम्हें अनुमति नहीं दे सकता । मेरे और भी उपन्यास है, उनमे से कोई एक चुन लो। 'देवदास' मैं तुमका छूने भी नहीं दूंगा। बहुत इमोशनल हे मेरा 'देवदास' ।"

बरुआ उदास तो हुए, लेकिन हताश नहीं । इसीलिए अन्त में शरत् बाबू को उनसे समझौता करना पड़ा उन्हें कहना पड़ा, “मैं तुम्हें 'देवदास' फिल्म बनाने की अनुमति देता हूं, किन्तु रजतपट पर उसे वास्तविक रूप देना ही होगा। मुझे पूर्ण आशा है कि देवदास की भूमिका में तुम खरे उतरोगे । किन्तु पारो और चुन्नीलाल की भूमिकाएं भी तो कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। उन पर भी विशेष ध्यान देना होगा ।"

प्रारम्भ में शरत् बाबू श्हूइटैग के समय स्वयं सेट पर मौजूद रहते थे । परन्तु शीघ्र ही जब उन्हें विश्वास हो गया कि बरुआ ईमानदारी के साथ प्रयत्न कर रहे हैं तो फिर उन्होंने जाना छोड़ दिया । उन्होंने देख लिया था कि निर्देशक और अभिनेता दोनों को ही हैसियत से बरुआ चित्र के मार्मिक और भावुकतापूर्ण स्थलों पर संयम और सतर्कता से काम ले रहे हैं ।

आखिर देवदास' बनकर तैयार हो गया। बड़े अरमान के साथ बरुआ शरत् बाबू को दिखाने के लिए लाये । पूरी फिल्म देखने के बाद शरत् बाबू बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने बरुआ को अन्तर्मन से आशीर्वाद दिया । जनता ने भी मुक्त मन से 'देवदास' का स्वागत किया ।

न्यू थियेटर्स को उन्होंने अपनी और भी रचनाओं के सिने अधिकार बेच दिये थे। बाद में इन्हीं से छाया सिनेमा के श्री शचीन्द्रनाथ वारिक ने 1500 रुपये देकर 'चन्द्रनाथ' के अधिकार खरीद लिये थे । उनकी बहुत-सी रचनाओं के आधार पर बहुत से चित्रपट तैयार हुए, लेकिन भीषण भावुक 'देवदास' ने उन्हें जो यश दिया, वह अभूतपूर्व था ।

शरत् ग्रन्थावली का छठा और सातवां भाग तथा उनके लेखों का एक संग्रह भी इसी युग में प्रकाशित हुए। अभी भी वे अपनी पुरानी रचनाओं में हेरफेर करते रहते थे । 'चन्द्रनाथ' के १४वें संस्करण की भूमिका में उन्होंने स्वीकार किया है, “ चन्द्रनाथ ' मेरी बचपन की रचना है। उन दिनों कहानी और उपन्यासों में जिस भाषा का उपयोग किया जाता था, इस पुस्तक में वही भाषा थी। वर्तमान संस्करण में केवल इसी में परिवर्तन कर दिया है। 

लेकिन इस काल की एक उल्लेखनीय घटना है 'निष्कृति' का अंग्रेजी में अनुवाद | यह अनुवाद दिलीपकुमार राय ने किया हे। वे शरत् बाबू की तीन सर्वश्रेष्ठ गल्पों में इसकी गणना करते थे। शेष दो गल्पें थीं । रामेर सुमति', और बिदूर छेले । इन तीनों का ही अनुवाद वे करना चाहते थे। शरत् बाबू के प्रति उनकी श्रद्धा अपार थी। उनसे भी उन्होंने गहरी आत्मीयता और अगाध स्नेह पाया था । उसका प्रतिदान चुकाने के लिए ही मानो वे यह काम करने के लिए तैयार हुए थे। उन्होंने श्रीअरविन्द से कहा, “मैं निष्कृति' का अनुवाद करना चाहता हूं, आपको इसे देखना होगा ।"

सहमत हो गये । शरत् बाबू का आशीर्वाद तो उन्हें प्राप्त था ही। बड़े उत्साह से वे अनुवाद करने लगे। श्रीअरविन्द साथ-साथ संशोधन करते जाते थे । अनुवाद पूरा होने पर उसकी प्रशंसा में उन्होंने कुछ पंक्तियां भी लिख दी थीं -

“श्री शरत्चन्द्र की रचनाओं में, उनकी विशाल मेधा, मानवों तथा वस्तुओं के सूक्ष्म तथा सही पर्यवेक्षण और दुख तथा पीड़ा के प्रति सहानुभूति से भरे हृदय की अमिट छाप है। । वह इतने अधिक संवेदनशील हैं कि उन्हें इस संसार से चैन कैसे प्राप्त हो सकता है । उनकी दृष्टि भी सम्भवतः उतनी ही अधिक पैनी है। उनका मन बहुत निर्मल है और उनकी प्राणिक प्रकृति बहुत उदात्त है।"

इस अनुवाद की भूमिका के लिए दिलीपकुमार राय ने कविगुरु रवीन्द्रनाथ से प्रार्थना की। उस समय रवीन्द्रनाथ और शरतचन्: क बीच मनावन गहन हो त्रठा था । इसलिए उन्हे आशा नहीं था कि कवि उनके अनुरोध की रक्षा कर सकेंगे। लेकिन उन्होने अपने लम्बे पत्र में बड़े विस्तार से शरत्चन्द्र की मनोव्यथा की चर्चा की । अन्ततः कवि ने शरत्छान्द्र की प्रतिभा का वरण करते हुए 'निष्कृति' की छोटी-सी भूमिका लिख भेजी, चह नवीनतम नेता, जिसने मुक्ति के मार्ग के द्वारा बंगाली उपन्यास को धुएं, विश्व साहित्य की भावना के पास लाने का कार्य किया है, शरतचन्द्र है। उन्होंने हमारी भाषा को नइ शक्ति दी है। अपनी कहानियों में उन्होने बंगाली हृदय को नई दृष्टि के प्रकाश से आलोकित किया है। उन्होंने जनता के व्यक्तित्व की छिपी हुई साधारण बातों के जीवन्त महत्व को प्रकट किया है। उन्होंने एक उपन्यासकार के लिए जो सर्वोत्तम पारितोषिक हो सकता है पा लिया है । उन्होंने सम्पूर्ण रूप से बंगाली पाठकों का हृदय जीत लिया है।'

जब शरतचन्द्र को यह पता लगा कि श्रीअरविन्द उस अनुवाद में संशोधन कर रहे हैं तो उन्होंन दिलीपकुमार को एक पत्र लिखा । वह पत्र कई दृष्टियों से एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है :

परम कल्याणयेषु मटू

पी ५५६६ मनोहर पुकुर कलकत्ता

3 माघ, 1341

क्त रात को गांव के घर से यहां आ गया हूं। तुम्हारी चिट्ठियां मिलीं एक-एक करके काम की बातों का जवाब दूं ।

(1) तुम्हारी निशिकान्त की तसवीर अच्छी बनी है। बहुत दिनों के बाद फिर तुम्हारा मुंह देखा, बड़ी प्रसन्नता हुई। अब सचमुच ही देखने की बड़ी इच्छा होती है। लेकिन आशा छोड़ दी है । सोचा है, इस जीवन में अब नहीं देख सकूंगा ।

(2) टाइपराइटर सही-सलामत पहुंच गया है, यह संतोष की बात है। डर था कि कहीं विकलांग होकर तुम्हारे आश्रम में न जा पहुंचेर । उस दिन हीरेने ने आकर कहा कि मण्टू दादा का अपना टाइपराइटर पुराना हो गया है, उन्हें एक नई मशीन चाहिए। कहा, जरा दौड़-धूप कर भेज दो न हीरेन ।' वह उसीने किया है। मैं। मुझसे भी नहीं होता । मैंने केवल राजी हुआ । यह सब कुछ जड़ वस्तु हूं कुछ रुपये का चेक लिख दिया था । तुम्हें पसंद आया है, इससे 'बढ़कर मेरे लिए आनन्द की बात नहीं। जिस आदमी ने अपना सब कुछ दे दिया, उसे देना देना नहीं है, पाना है। मुझे बहुत कुछ मिला, तुमसे बहुत अधिक ।

(3) श्री अरविन्द के हाथ की लिखी चिदमई संभालकर रख दी है। यह एक रत्न है । (4) निष्कृति का अच्छा अनुवाद करने के लिए तुम यथासाध्य प्रयत्न करोगे, इसे मैं जानता था। तुम मुझे सचमुच प्यार करते हो, इसलिए नहीं, बल्कि जो यथार्थ में साधु का व्रत ग्रहण करते हैं यह उनका स्वभाव है। ऐसा किये बगैर उनसे नहीं रहा जाता । या तो करते नहीं है, पर करने पर बेगार नहीं करते ।

(5) जब श्रीअरविन्द ने स्वयं देख देने का संकल्प किया है तो अनुवाद अच्छा ही होगा । लेकिन मण्टू पुस्तक में अपना कौन-सा गुण है, श्री अरविन्द को क्यों अच्छी लगी, नहीं जानता । कम से कम अच्छी नहीं लगती तो अचरज नहीं होता, खिन्न भी नहीं होता । तुम जब 'श्रीकान्त' का प्रचार कर सकोगे, तभी आशा करूंगा कि एक बंगाली कहानीकार को पश्चिम वाले कुछ श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। तुम्हारा उद्यम और श्रीअरविन्द का आशीर्वाद रहा तो यह असम्भव भी एक दिन संभव होगा। इसकी मुझे उम्मीद हे ।

(6) अनुवाद के मामले में तुम्हारी पूर्ण स्वतन्त्रता मैंने स्वीकार की है। इसका कारण यह है कि तुम तो केवल अनुवादक र्हा नहीं हो, खुद भी बड़े लेखक ही । तुम्हें अकिचितकर साबित करने वाले लोगों की कमी नहीं।......लेकिन उनकी समवेत चेष्टा से तुम्हारी प्रतिभा और एकाग्र साधना कहीं बड़ी है। तुम्हारे गुरु की शुभाकांक्षा तो सब कुछ के पीछे है ही । उनकी सारी कुचेष्टायें सफल होंगी और तुम्हारे अंतर की जाग्रत शक्ति सार्थक नहीं होगी, ऐसा हो ही नहीं सकता मण्टू

(7) रवीन्द्रनाथ मुझे इण्टोड्यूस करना चाहेंगे इसका भरोसा नहीं करता । मेरे प्रति तो वह प्रसन्न नहीं हैं। इसके अलावा उनके पास समय ही कहां है! साहित्य- सेवा के काम के बारे में वह मेरे गुरुकल हैं उनका क्या मैं कभी चुका नहीं सकूंगा। मन ही मन उन पर इतनी श्रद्धा-भक्ति रखता हूं । लेकिन भाग्य ने गवाही नहीं दी। मेरे प्रति उनकी विमुखता का अंत नहीं । अतएव इसकी चेष्टा करना बेकार है।

(8) हीरेन शायद आजकल में ही आवेगा। उसे तुम्हारे कागज भेज देने के लिए कहूंगा

(9) बाकी रही तुम्हारी बात मैं तुम्हारा बहुत ही कुरत हूं मण्टू इससे अधिक क्या कहूं! चिट्ठी लिखने की बात सदा से मेरे लिए जटिल रही है। संभालकर लिख ही नहीं पाता । इसलिए मुझे जो बातें कहनी चाहिए थीं कह नहीं सका था। वह मेरी अक्षमता है, अनिच्छा कभी नहीं। इस पर विश्वासकरना ।

मेरा स्नेहाशीर्वाद लेना और सौरीन को कहना । लड़के की बात याद नहीं आ रही है। स्वर्गीय दादा महाशय के यहां या तक्र के यहां शायद देखा होगा ।

(10) श्रीअरविन्द की नववर्ष की प्रार्थना सचमुच ही बहुत अच्छी लगी । यथार्थ में वह बहुत बड़े कवि हैं ।

शुभाकांक्षी

श्री शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

इस पत्र को दिलीपकुमार ने श्रीअरविन्द के पास भेज दिया । लिखा, 'मनुष्य की प्राणशक्ति की लीला ही इस जीवन के मूल को सरस और बसन्त को रंगीन रखती है।.

इसका जो उत्तर श्री अरविन्द ने दिया, वह भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, शरत्चन्द्र के पत्र की महिमा उसकी प्राणवन्तता के कारण नहीं है । यद्यपि वह प्राणशक्ति के बीच से ही प्रकट हुई है, किन्तु प्राणशक्ति उसकी मूल प्रेरणा नहीं है। उसकी प्रत्येक पंक्ति में अन्तरात्मा का प्रकाश फूटा पड़ता है । यदि कोई मुझसे पूछे कि भनुष्य के भीतर यह प्रकाश किस तरह सक्रिय होता है तो मैं अकुण्ठ भाव से कहूंगा कि इस चिट्ठी की तरह । यह अन्तरात्मा हमारी असली सत्ता है। वस्तु, प्राण और मन को यही जीवन्त शक्ति से भरती है और इसी के माध्यम से अपने को प्रकाशित और विकसित करती है - लावण्य और सौकुमार्य के रसायन में। मनुष्य से निम्न स्तर के जीव जगत् में भी यह काम करती है। -उनको धीरे- धीरे मानवता की ओर लाते हुए । केवल मनुष्यों में ही यह शक्ति और स्वतन्त्रता से काम करती है। यद्यपि बहुत अज्ञान दुर्बलता 'और कर्कशता और काठिन्य का बोझा इसे उठाना पडता है। योग की भूमिका मे यह अन्तः शक्ति अपने लक्ष्य के संबंध में सचेतन होकर भीतर ही भीतर भगवत्मुखी होती है। यह पीछे और ऊपर देखती है। यही इसमें अन्तर है। 12

शरत् बाबू के पत्र की यह व्याख्या बहुतों को विस्मित कर सकती है। परन्तु यह 'है बहुत सही । शरत् बाबू की भक्ति श्रीअरविन्द के प्रति कम नहीं थी । यद्यपि वे उनके दर्शन को पूर्णरूप से हृदयंगम नहीं कर सके थे, फिर भी उनकी प्रतिभा और विद्वत्ता को उन्होंने बार-बार स्वीकार किया है।

और मतभेद को भी बडे सहज भाव से प्रकट कर दिया है, 'श्रीअरविन्द जो छोटे-छोटे सन्देश तथा तुम लोगों के प्रश्नों के उत्तर देते हैं, जिन्हें तुम यत्न से मेरे पास भेजते हो, उन्हें पड़ता हूं सोचता हूं और फिर पड़ता हूं। हां यह मानता हूं कि अधिकांश को समझ नहीं पाता । कभी-कभी वे मन, चेतना या कांशसनेस के इतने भिन्न-भिन्न और सूक्ष्मातीत सूक्ष्म पर्याय या स्तर बतलाते हैं कि वे मेरी बुद्धि से परे हैं। कविता के संबंध में भी उनके विचारों को सर्वदा नहीं मान पाता हूं...........

श्री अरविन्द के प्रति श्रद्धानत होते हुए भी उनके शिष्यों के प्रति वे उस सीमा तक कभी श्रद्धावान नही हो सके। दिलीपकुमार के साधु का बाना धारण कर लेने पर वे अत्यन्त व्यथित हो उठे थे । इस बात को उन्होंनं कभी छिपाया नहीं । बहुत पहले दिलीपकुमार को उन्होने स्पष्ट लिखा था ।  तुम्हारे नाम से तो वारण्ट नहीं था, जो तुम साधु बनने गये। बस, अब आगे नही। इस पत्र क्तें पाते ही चले आना न हो तो ख दिनों के बाद फिर चले जाना। इससे कोई क्षति नहीं होगी। मैं अनुभवी व्यक्ति हूं मेरी बात सुनो। तुम्हारी उम्र में मैं चार-चार बार संन्यासी बना था। उस ओर शायद मक्खियां और मच्छर कम्र हैं, नहीं तो हिन्दुस्तानियों की पीठ के चमड़े के सिवा उनके दंशन के सहना किसके बूते की बात है! भैया, यह बंगाली का पेशा नहीं है, बात सुनो, चले आओ! तुम्हारे आने पर इस बार बरसात के बाद एक साथ हम उत्तर और दक्षिण भारत बूमने चलेंगे। तुम्हारे साथ न होने पर खातिरदारी नहीं मिलेगी, खाने-पीने का भी उतना सुभीता नहीं रहेगा। कब आ रहे हो, पत्र पाते ही लिखना मैं स्टेशन पर जाऊंगा।

एक बात और सुना है बारीन (श्रीअरविन्द के छोटे भाई बारीन्द्रकुमार घोष ) किसी भी पेड़ क्य पत्ता तुम्हारी नाक पर रगड़कर किसी भी फूल की सुगन्धि सुधा सकता है। उपेन बन्दोपाध्याय बता है कि उसने इस चीज को कर्ता (श्री अरविन्द घोष) से हथिया लिया है। आते समय तुम इसे सीख लेना। वह एकएक नहीं मानेगा, मगर तुम छोड़ना मत। कुछ दिनों तक उसकी अण्डमन की वंशी की खूब तारीफ करते रहना और पुस्तक को हमेशा साथ लेकर घूमना, और डप्त पुस्तक को इतने दिनों तक नहीं पड़ा, यह ककर बीच-बीच में उसके सामने अफसोस जाहिर करना । बहुत सम्भव है कि इतने से ही विभूति को हथिया ले सकोगे। उत्तर भारत घूमते समय वह खास काम में आयेगी।

सुना है, अनिलवरण धूल को चीनी बना सक्ता है, यद्यपि ज्यादा देर तक वह नहीं टिकती है, मगर पांच-सात घण्टे तक देखने और खाने में चीनी ही लगती है। इसे अवश्य ही सीख आने अई चेष्टा करना । अनिलवरण सरल और भला आदमी है। अगर सिखाने में आपत्ति करे तो भूतों और चुड़ैलों की खूब कहानियां कहना । शपथ खाकर कहना कि तुमने चुड़ैल अपनी आखों से देखी है। फिर आगे चिन्ता नहीं करनी पड़ेगी अनायास ही अऐशल' को हथिया लोगे। और अगर इन दोनों को सचमुच ही सीख लेते हो तो वहां कष्ट उठाकर रहने की कौन-सी जरूरत है?

बहुत दिनों से तुम्हें नहीं देखा। देखने की बड़ी इच्छा होती है, गाना सुनने की साध होती है। क्म उद्यओगे, लिखना मेरा स्नेहाशीर्वाद लेना ।

- श्री शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय पुनश्चः विशतइयो' को लाना ही होगा। समय कुसमय बड़े काम आती हैं। जो भी हो, शीघ्र चले आओ। संन्यासी होना बहुत खराब है मण्टू । मेरी बात पर विस्वास करो । आजकल के जुमाने में इसमें कुछ भी मजा नहीं है। कब आ रहे हो, ठीक-ठीक लिखना ।.......

दो वर्ष बाद फिर एक पत्र में लिखा, 15त से शीघ्र ही एक दिन मुलाकात करूंगा। यह नहीं बतलाऊंगा कि तुमने उसके बारे में कुछ लिखा है। लेकिन तुमने मुझे जो कुछ सूचित किया है, उसी पर जिरह करके सत्य का आविष्कार करने की चेष्टा करूंगा। देखूं ऊ क्या कहता है? श्री अरविन्द के संबंध में कहीं भी तो मैंने वह बात नहीं कहीं है। देश के सारे लोग उनपर गहरी श्रद्धा रखते है। क्या केवल मैं ही नहीं रखता? लेकिन आश्रमवासियों के प्रति मेरा मन बहुत प्रसन्न नहीं है। कारण हैं कुछ झ' की बातें और कुछ दूसरे आश्रमवासियों के संबंध में मेरी कुछ जानकारी। इसके अलावा, तुम्हारा चले जाना मुझे बहुत खटका है। जब आई० सी० एस० या कानून नही पढ़ा तब दुख हुआ था, मगर जब गाने-बजाने और उसके साथ ही साहित्य को तुमने अपनाया तब वह क्षोभ दूर हो गया था। सोचा था, सभी नौकरी करेंगे और अपने देश के लोगों को, हाकिम या बैरिस्टर बनकर, जेल भेजेंगे, ऐसा क्यों हो? मण्टू को खाने-पहनने की चिन्ता नहीं है। वह अगर भारत के क्लाशिल्प को विदेशियों की नजरों में बड़ा बना सके बुद्धि से, इसके पिटे-पिटाए पथ से, एक नया मार्ग निकाल सके तो क्या इससे देश को क्य गौरव होगा हैं. इसके बाद एक दिन सुना कि तुम बस सब कुछ क्षेडूकर बैरागी बनने चले गये हो। तब अचानक ही लगा कि मेरी अपनी ही कोई बहुत बड़ी क्षति हो गई है। इस जीवन में शायद तुम्हें फिर नहीं देख पाऊंगा। क्या तुम समझते हो कि यह मेरे लिए कोई छोटा दुख है? और कोई भले ही विश्वास न करे, मगर तुम तो जानते हो। यह बात मुझे चिर दिन घोर दुख देगी, इसमें मुझे सन्देह नहीं ।.

“सुना है, तुम्हारा अनिलवरण धूल को चीनी बना सकता है। कहा जाता है, आश्रम को सारी चीनी वही सप्लाई करता है। क्या यह सच है? मैं विश्वास नहीं करता। क्योंकि तब तो वह आश्रम में क्यों रहने जाता? कलकत्ता आकर अनायास ही एक चीनी की दुकन खोल सकता।

"बारीन से अक्सर मुलाकात होती है। वह कहता है कि अब वह उधर कभी नहीं जाएगा। उतनी भीषण सख्ती में उसकी आत्मा पिंजड़े को छोड़कर नहीं निकल गई, यह बड़े सौभाग्य की बात है। लेकिन तुम्हारी मदर' के बारे में उसके दिल में गहरी भक्ति है। कहता है, उस प्रकार की अद्भुत व्यक्ति देखने में नहीं आती। कहता है कि उनकी सूक्ष्म दृष्टि एक अद्भुत वस्तु है। जितनी काम करने की शक्ति है, जितना अनुशासन है, बुद्धि भी उतनी ही प्रखर है। प्रत्येक व्यक्ति का प्रत्येक मामला उनकी नज़रों के सामने रहता है। उनके आदेश और उपदेश के अतिरिक्त वहां कुछ भी नहीं हो सकता। इसलिए जो लोग बाहर से अचानक जाते हैं, वे उनके संबंध में तरह-तरह की उलटी सीधी धारणाएं लेकर लौटते हैं।.

'निष्कृति' के अनुवाद को लेकर उनके मन में बड़ी आशाएं पैदा हो गई थी. 'निष्कृति' के फ्रांसीसी अनुवाद की कल्पना भी तुम्हारे मन में है। मुझे तो विश्वास नहीं होता, पर श्री अरविन्द के आशीर्वाद से अघटित भी घट सकता है। "

दिलीपकुमार ने अनुवाद किया है और श्रीअरविन्द ने उसे देखा है, यह जानकर और भी बहुत-से लोग उसके प्रकाशन में रुचि लेने लगे। एक अमरीकन महिला जो कभी 'एशिया' पत्रिका की सम्पादिक रही थीं और अब जिन्होंने एक बंगाली भद्रलोक से विवाह कर लिया था, उस अनुवाद को अमरीका में प्रकाशित करने के लिए उत्सुक हो उठीं। लेकिन शरत् बाबू का अब भी यही विचार था कि 'निष्कृति' के स्थान पर 'श्रीकान्त' का अनुवाद होना चाहिए था, होना चाहिए। उस देश में 'निष्कृति' किस गुण के आधार पर आदर पा सकती है? बार-बार उन्होंने दिलीपकुमार को लिखा.... 'तुम 'श्रीकान्त' का अनुवाद करते हुए झिझकते क्यों हो? अगर होगा तो तुम्हारे द्वारा ही होगा.....।" 

..इस बार तुम 'श्रीकान्त ' लो। जीते जी उसका अनुवाद देख जाना चाहता हूं...।”

लेकिन उनकी यह कामना पूरी नहीं हो सकी। दिलीपकुमार 'श्रीकान्त' का अनुवाद नहीं कर सके। कुछ दूसरे लोगों ने प्रयत्न किया, पर व्यर्थ ही प्रमाणित हुआ।

अपवादों ने अभी भी उनका पीछा नही छोड़ा था। इसी समय एक अपवाद उठा कि उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलने वाला है। दिलीपकुमार राय तथा उनके अन्य शुभाकांक्षियों ने कविगुरु रवीन्द्रनाथ से उनके नाम का प्रस्ताव करने के लिए प्रार्थना की है, पर किसी अज्ञात कारण से कवि ऐसा नहीं कर सके।

बात वास्तव में यह थी कि डा० कानाई गांगुली और दिलीपकुमार राय के विशेष आग्रह पर शरत्चन्द्र योरोप की यात्रा करने के लिए तैयार हो गये थे। उसी को लेकर 'आनन्द बाजार पत्रिका' ने उड़ा दिया कि शरत् बाबू नोबेल पुरस्कार के लिए प्रयत्न करने योरोप जा रहे है।

यह सब आपसी ईर्ष्या और ईर्ष्या क परिणाम था। राजनीति में उन दिनों शरत्चन्द्र सत्याग्रह और चर्खे के विरुद्ध थे। इसी कारण दूसरे दल के लोग नाना प्रकार के अपवाद प्रचारित करते रहते थे। कभी-कभी तो वे हास्यस्पद स्तर पर उतर आते थे। किसी अभिनेता का नाम भी शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय था। कुछ दिन पूर्व शनिवारेर चिठि में नटराज की वेशभूषा में उसका एक चित्र छपा था। उसके नीचे केवल इतना लिखा था, “शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय 18

लेकिन ये अपवाद उनके सन्तुलन को जरा भी डिगा नहीं पाते थे। आक्रमण जितना तीव्र होता उतने ही वे निर्भीक होते। इसी समय उन्होंने एक नया उपन्यास लिखना शुरू किया था। उसका नाम था 'अनागत' | 'आनन्द बाज़ार पत्रिका' ने उनकी पगड़ी उछाली थी, परन्तु उसके एक सम्पादक प्रफुल्लकुमार सरकार का भी इसी नाम का एक उपन्यास था। उनका यह भय स्वाभाविक ही था कि शरत्चन्द्र के उपन्यास के सामने उनके उपन्यास को कोई नहीं पूछेगा। उन्होंने डरते-डरते श्री अविनाशचन्द्र घोषाल के माध्यम से शरत् बाबू से अपने उपन्यास का नाम बदल देने की प्रार्थना की। शरत् बाबू तुरन्त तैयार हो गये। उसका दूसरा परिच्छेद 'आगामी कल' के नाम से छपा। यह दूसरी बात है कि वह उपन्यास उनके असमाप्त उपन्यासों में एक संख्या और बढ़ाकर ही रह गया।

यूरोप जाने की बात काफी आगे बढ़ गई थी। यह समाचार पाकर लन्दन में एक अभ्यर्थना समिति का गठन करने का निर्णय किया गया था और चेष्टा की जा रही थी कि सर्वश्री बनाई शा, एच० जी० बेल्स और आल्डुअस हक्सले उसमें आ सकें, परन्तु स्वास्थ्य खराब हो जाने के कारण शरत् बाबू ने जाने का विचार ही स्थगित कर दिया।

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
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नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

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अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
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मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

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अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
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शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

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अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
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तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

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अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
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शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

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अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
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इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

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अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

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अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
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शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

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अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
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उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

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अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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