गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुलझाते वे परेशान हो उठते थे। तब मन होता था कि वहां से भाग चलें।
बार-बार उन्हें कलकत्ता जाना पड़ता था । उनकी सभी पुस्तकें वहीं से प्रकाशित हो रही थीं। सभा-सोसाइटियों के निमन्त्रण भी कम नहीं आते थे, लेकिन वहां तक पहुंचने में उन्हें बडी असुविधा होती थी। स्टेशन लगभग दो मील दूर था और रास्ता था नितान्त कच्चा । वर्षा ऋतु में वहां दलदल उफन उठती थी। उसकी चर्चा करते हुए एक बार उन्होंने अपनी सहज शैली में लिखा था, “वर्षा के दिनों में स्टेशन की ओर जानेवाला जो एकमात्र पथ है, उससे यात्रा करने की कल्पना से ही डर लगता है। पालकीवाले डरते हैं कि कहीं पांव फिसल जाने पर बांध से एकदम नीचे नहर में ही डूबना होगा। अच्छी जगह आ पड़ा हूं। यहां के लोगों को एक सुविधा है, वर्षा ऋतु में उनके पैरों में खुर उग आते हैं, इसीसे वे खट- खट करते चले जाते हैं। फिसलने का डर नहीं रहता। मेरे अभी तक खुर नहीं उगे हैं, लेकिन यह भरोसा है कि दो-एक वर्ष और रहने पर उग आएंगे। असम्भव कुछ नहीं है, किन्तु मैं कहता हूं, मुझे खुरों से क्या लेना? मैं जहां था वहीं वापस लौट जाऊंगा। -
उनका मन जैसे अब वहां नहीं रहा था। स्वास्थ्य उनका कभी भी अच्छा नहीं रहा । आयु के बढ़ने के साथ-साथ विकार बढ़ता ही गया। इन नाना कारणों से उन्होंने निश्चय किया कि वे शहर में भी एक मकान बनायेंगे। हिरण्मयी देवी बराबर यही अनुरोध करती आ रही थीं, लेकिन मकान के लिए तो रुपयों की आवश्यकता होती है। उन्होंने लिखने की ओर मन देने का प्रयत्न किया। प्रकाशकों से भी रुपयों की मांग की। एक पत्र में उन्होंने लिखा-
"मेरा कलकत्ता का मकान बन चुका है। इस समय मुझे यदि आप पांच हज़ार रुपये दें तो चिन्ता दूर हो जो तीन पुस्तकें समाप्त होने को हैं, आशा करता हूं, उनसे एक साल में ही यह कर्ज चुकता हो जाएगा। मकान का तखमीना चौदह हज़ार रुपये का था। जिन लोगों मे बातचीत की थी, उनसे तय था कि आधे रुपये इस साल दूंगा और बाकी आधे अगले साल । पर घटनाचक्र से खर्च बढ़ गया और तीन हज़ार रुपये ज्यादा लग गये। नहीं तो रुपयों की ज़रूरत नहीं होती। कर्ज़ बिना लिए भुगतान कर देता। यहां गांव के मकान पर सोलह-सत्रह हज़ार रुपये खर्च कर चुका हूं। कलकत्ता के मकान पर भी जान पड़ता है तीस हज़ार रुपये खर्च होंगे।
उनकी आय अच्छी-खासी थी, फिर यह कर्ज़ पर कर्ज़ क्यों? उनका स्वभाव था कि आवश्यक हो या अनावश्यक, बाज़ार जाकर कुछ न कुछ खरीदारी करेंगे ही। एक रुपये की आवश्यक वस्तु लेते तो पच्चीस रुपये की अनावश्यक वस्तुएं भी खरीद लेते। कोई कहता, "दादा, इनकी तो दरकार नहीं थी! क्यों खरीद रहे हैं?
उत्तर मिलता, “अरे, तुम समझते नहीं, फिर भी तो कभी दरकार हो सकती है।”
उस दिन एक सिगरेट केस देखा। सचमुच सुन्दर था। ले लिया। साथ में जो मित्र थे उन्होंने पूछा, "दादा आप तो हुक्का या पाइप पीते हैं। बेकार यह सिगरेट केस क्यों ले लिया?”
उत्तर दिया, "तुम समझोगे नहीं जी! कितना सुन्दर डिज़ाइन है ! चीज़ बनी रहेगी। हो सकता है कभी सिगरेट पीना शुरू कर दूं।"
इसी तरह सुन्दर नोटबुक, खूबसूरत विलायती मनीबैग, कांच की प्यारी सी दवात न जाने क्या-क्या खरीद लेते। पैसे जमा करने से जैसे नफ़रत थी । गम्भीर होकर अक्सर कहते, “छोड़ो, जीवन भर धन के लिए कष्ट उठाया। अब मरते वक्त भगवान ने वह चीज़ मुझे दी है। अब मुझे इसकी आवश्यकता क्या है?"
उन्होंने मॉरिस गाड़ी भी खरीद ली थी। मित्रों की सहायता करने के लिए वे सदा तत्पर रहते ही थे। बाज़ार में सात रुपये की चीज़ खरीदते और दुकानदार को दस का नोट दे देते। शेष लौटाने की चिन्ता उन्हें कभी नहीं रहती। याद दिलाने पर कहते, “छोड़ो भी, शायद भूल गया होगा, दे देगा।”
दवाएं तक थोक में खरीद लेते। सरदर्द की दवा सोने के कमरे की तिपाई पर एक शीशी, बरामदे की मेज़ पर दूसरी शीशी, शौचालय के कार्निस पर तीसरी शीशी और नीचे की बैठक में चौथी शीशी ऐसी बातों का कोई अन्त नहीं था और पैसा इसी तरह मुक्त होकर बहता रहता था।
चार महीने बाद आखिर कलकत्ते का यह मकान भी बनकर तैयार हो गया। जिस समय उन्होंने इस मकान में प्रवेश किया, उस समय अनेक गण्यमान्य अतिथियों के बीच में कविगुरु रवीन्द्रनाथ भी उपस्थित थे। मात्र उपस्थित ही नहीं थे, इस अवसर पर उन्होंने अपनी दो कविताएं भी पढ़ी थी। कैसी मादक स्तब्धता छा गई होगी उस वातावरण में, जब कविगुरु के गहन गम्भीर स्वर में यह कविता गूंजी होगी-
यदि ओ संध्या आसिछे मन्द मन्थरे
सब संगीत गेछे इंगिते थामिया ।
यदि ओ संगी नाहि अनन्त अम्बरे.
यदि ओ क्लान्ति आसिछे अंगे नामिया ।
महा आशंका जपिछे मौन मन्तरे,
दिगदिगन्त अवगुण्ठने ढाका ।
तबु बिहंग, ओर बिहंग मोर
एनि अन्ध, बन्ध कोरी ना पाखा ।
इस मकान के बन जाने से उन्हें बहुत सुविधा हो गई। अब उनका इलाज आसानी से हो सकता था। जो लोग इतनी दूर गांव में उनसे मिलने-जुलने जाते थे वे भी उस परिश्रम से बच गये। नये-नये लेखक मन में अजस्र भक्ति और श्रद्धा लिए उनके पास आते और उनकी प्रत्येक गतिविधि का सूक्ष्मता से निरीक्षण करते। देखते कि शरत्चन्द्र बैठक में आरामकुर्सी पर बैठे हुए हैं। दोनों तरफ छोटी-छोटी मेजें हैं। उन पर एक जैसी सामग्री सजी हुई है। कटिंग पेपर, सुन्दर पैड, बहुमूल्य फाउंटेन पेन, पेंसिलें। जिस तरफ उनका मन होता है उसी तरफ से सामान लेकर लिखना शुरू कर देते हैं। रुपयों की गड्डीनुमा एक डिबिया में अफीम रहती है, पर वह एक ही है। लम्बी सटक की मुंह गाल उनके हाथ में रहती। जब चिलम बुझ जाती तो नौकर को आवाज़ देते, “वृन्दावन !”
पुराने मित्रों का आना भी बढ़ गया था। मिलने-जुलने और अड्डा जमाने की यह आदत जीवन भर बनी रही। वही खाना-पीना और गपशप समय किधर से आकर किधर चला जाता था किसी को पता ही नहीं लगता था । उस दिन ऐसे ही सवेरे से रात हो गई, हरिदास बाबू थे, दिलीपकुमार थे, और भी अनेक लेखक थे। सहसा हरिदास बोल उठे, “रात बहुत हो गई है, अब चलो नहीं तो शरत् दा नौकर से वसीयतनामा लाने को कहेंगे।”
शरत् बाबू ने हंसकर पूछा, “वसीयतनामा क्यों?”
हरिदास बोले, “आपकी ही तरह एक भला ब्राह्मण था । सरस्वती पूजा के दिन उसने अनेक व्यक्तियों को आमन्त्रित किया। खाना-पीना हुआ पर कोई जाने का नाम ही नहीं ले रहा था। तब उसने नौकर को पुकारकर कहा, देखो, यह चाबी लो और लोहे का संदूक खोलकर पिताजी का वसीयतनामा ले आओ।"
"बेचारे मेहमान अवाक् । नौकर ने अचकचाकर कहा, 'वसीयतनामा ?”
"गृहस्वामी बोले, 'हां, हां, देखना है कि बाबा ने यह मकान मुझको दिया है या इन सबको।" उससे बाद जो प्राणों को उन्मुक्त कर देने वाला अट्टहास उठा उसकी कल्पना ही की जा सकती है। प्रसिद्ध भाषाविद् सुनीतिकुमार चटर्जी शरत् बाबू से परिचित तो हो चुके थे, लकिन गांव में उनका जाना नहीं हो पाता था। सभा समितियों में ही मिल पाते थे, लेकिन अब शरत् बाबू का मकान उनके पास ही बन गया था। अक्सर आ जाते थे। एक दिन ऐसी ही एक भेंट में शरत् बाबू ने उनके सामने एक ऐसी मनोवैज्ञानिक समस्या रखी जिसका समाधान ढूंढ पाना आसान नहीं था। शरत् बाबू ने पूछा, “अच्छा बताओ तो सुनीति, तुम्हारा क्या खयाल है? प्रबल कौन है— संस्कार जो हम अपने पूर्वजों और सामाजिक वातावरण से ग्रहण करते हैं अथवा मनुष्य की मूल प्रकृति?"
सुनीति बाबू सहसा कुछ उत्तर नहीं दे पाए। बोले, “आपके मन में यह प्रश्न कैसे उठा ?” शरत् बाबू ने उत्तर दिया, तुम्हें देखकर न जाने क्यों मुझे बर्मा की एक घटना याद हो
आई! सुनाता हूं। शायद मेरे प्रश्न को समझने में तुम्हें सुविधा होगी। रंगून में रहते हुए मुझे कई वर्ष बीत चुके थे। एक दिन एक परिचित बंगाली सज्जन मेरे पास आए और बोले, 'शरत् बाबू, मेरे एक परिचित ब्राह्मण का लड़का चटगांव से यहां आया है। नौकरी की तलाश है। आप उसके लिए कुछ व्यवस्था कर सकें तो अच्छा हो।'
"मेरे एक मित्र का सागवान की लकड़ी का काफी बड़ा व्यापार था। उन्हीं के यहां उसे किराए के रूप में रखवा दिया, लेकिन कुछ महीने बाद अचानक उससे भेंट हुई, तो उसका रूप कुछ और ही था। शरीर पर धोती, कमीज और चप्पल नहीं थी। बस एक रामनामधारी चादर थी और थी सिर पर लम्बी-चौड़ी चुटिया, ललाट पर चन्दन। पक्का पुरोहित बना हुआ था। मुझे देखकर उसने नमस्कार किया। मैंने पूछा, यह क्या भाई, पुरोहिती शुरू कर दी है क्या?'
“उसने बड़े विनीत भाव से उत्तर दिया, क्या करता जी, वहां जो कुछ मिलता था, उससे गुजारा नहीं होता था । सोचा, यहां बहुत-से बंगाली हिन्दू रहते हैं, पूजा-पाठ के लिए उन्हें ब्राह्मण की जरूरत होती ही है और मैं ब्राह्मण का लड़का हूं, क्यों न पुरोहित का काम ही शुरू कर दूं। आपके आशीर्वाद से नौकरी से अधिक कमा लेता हूं।”
इसके बाद फिर कई वर्ष बीत गये। मैं जैसे उसको भूल ही गया, लेकिन अचानक एक बार मुझे उत्तरी बर्मा के मेमियो नगर में जाना पड़ा। यह पहाड़ी प्रदेश बहुत सुन्दर है। एक दिन एक सार्वजनिक उद्यान में अकेला टहल रहा था कि सहसा कानों में आवाज़ आई, 'शरत् बाबू! ओ शरत् बाबू!' मैं घूमकर देखता हूं, यहां कोई परिचित व्यक्ति नहीं है। बस एक मुसलमान मेरी ओर बढ़ा चला आ रहा है। पास आकर उसने कहा, 'मुझे पहचान नहीं पा रहे हो क्या?"
मैंने उत्तर दिया, 'हां भाई, तुमसे कभी मिला हूं, ऐसा याद नहीं आता।'
"सुनकर वह हंस पड़ा और बोला, 'मैं वही चक्रवर्ती ब्राह्मण हूं, जिसे आपने लकड़ी गोदाम में नौकरी दिलाई थी। '
"मैंने अब ध्यान से उसकी ओर देखा । बोला, 'लेकिन तुमने यह रूप क्यों धारण किया है? उसने उत्तर दिया, 'मैंने अब मुस्लिम धर्म अपना लिया है। क्या करता शरत् बाबू ? पुरोहित का काम तो शुरू किया था, लेकिन कुछ ही समय बाद आमदनी कम हो गई। अंग्रेजी जानता नहीं था, इसलिए अच्छी नौकरी भी नहीं मिल सकी। यहां मेमियों में आने पर कई बंगाली मुसलमानों से परिचय हुआ। उन्हीं में से एक ने मुझे अपने घर में आश्रय दिया। वह मांस का व्यापार करता था और व्यापार में उसे काफी लाभ था। धीरे- धीरे में उसी के साथ काम करने लगा और एक दिन मैंने धर्म परिवर्तन भी कर लिया। अचानक वह व्यक्ति बीमार होकर मर गया। उसके कुछ दिन बाद उसकी बीवी ने मेरे साथ शादी कर ली। उसका सारा कारबार, धन-सम्पत्ति मेरी हो गई। मैं धनवान हो गया।'
मैंने बड़े आश्चर्य से उसकी कहानी सुन रहा था। पूछ बैठा, 'किन-किन जानवरों का मांस बेचते हो?"
“सहज भाव से उसने उत्तर दिया, 'यही भेड़, बकरी और गाय का सभी जाति के लोग आते हैं। सभी का ध्यान हमें रखना पड़ता है।”
मैंने फिर पूछा, 'और जानवरों को काटता कौन है?”
"उसने उत्तर दिया, 'पहले तो दूसरे लोग काटत थे। उन्हें पैसा देना पड़ता था। वह पैसा बचाने के लिए धीरे-धीरे मैंने ही यह काम करना शुरू कर दिया। केवल गाय काटते समय कुछ आदमियों की सहायता लेनी पड़ती है । "
"सुनकर मैं हतप्रभ रह गया। वह ब्राह्मण का लड़का था। उसके रक्त में ब्राह्मण की संस्कृति थी। फिर यह सब कैसे हो गया? शिक्षा, सामाजिक वातावरण और पूर्वजों से जो संस्कार हम ग्रहण करते हैं, वे क्या हमारे ऊपर केवल एक पतली चादर की तरह फैले रहते हैं कि जब मन में आया उतारकर फेंक दिया?”
यह कहकर शरत् बाबू ने पूछा, “अब तो तुम मेरा प्रश्न समझ गये न? क्या विचार है तुम्हारा?”
सुनीति बाबू ने उत्तर दिया, “इसका कोई और पहलू भी तो हो सकता है। ऐसे लोग भी तो हो सकते हैं, जो प्राण दे देंगे पर जीवहत्या नहीं करेंगे। कैसी भी बाधा आने पर अपनी संस्कृति को नहीं छोड़ेंगे। वास्तव में यह इस बात पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति अपने संस्कारों को किस मात्रा में ग्रहण करता है। लेकिन आप भी तो बताइये, आप किस निष्कर्ष पर पहुंचे थे?"
मैं भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सका था। मनुष्य की प्रवृत्ति पर बहुत कुछ निर्भर करता है, लेकिन मेरे मन में यह बात अवश्य आती है कि संस्कार ऊपरी वस्तु है। संकट का सामना होने पर मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हो जाता है।”
इस प्रकार शरत् बाबू मित्र - गोष्ठियों में समस्याएं भी उठाते थे और उनका समाधान भी खोजते थे। केवल गप्प ही नहीं हांकते थे। यही समस्याएं उनके उपन्यासों में नाना रूपों में प्रकट होती थीं। 'विलासी' गल्प में उन्होंने लिखा है-
"एक अच्छे घराने के कायस्थ पुत्र को कसाई की लड़की के साथ विवाह करके कसाई होते भी मैंने देखा है। आज वह अपने हाथ से गाय काटकर बेचता है। उसे देखकर किसकी ताकत है जो कहे कि वह किसी समय कसाई के सिवा और भी कुछ था । "
केवल गोष्ठियों में ही नहीं, अधिकारी जनों के सामने भी वे अपनी समस्याएं रखते थे। उनकी एक समस्या इसी प्रकार महात्मा गांधी तक पहुंच गई थी। अपने एक पत्र में प्रवर्तक संघ के मति बाबू से उन्होंने पूछा था, “आचार्य लोग कह गये हैं कि कला - साधना का मूलसूत्र सत्य, शिव एवं सुन्दर है। अर्थात् साधना सत्य के ऊपर प्रतिष्ठित है, सुन्दर के ऊपर प्रतिष्ठित है और उसका फल होता है कल्याण । लेकिन जो वैज्ञानिक हैं- (तत्त्वज्ञानी नहीं, साधारण अर्थों में वैज्ञानिक) उनका एकमात्र मन्त्र है 'सत्य' साधना का फल सुन्दर- असुन्दर, कल्याण-अकल्याण कैसा भी हो, उन्हें कोई गरज नहीं हो तो अच्छा, न हो तो कोई अपराध नहीं।
“बहुत दिन से साहित्य सेवा का व्रती होने के कारण, निरन्तर अनुभव किया है कि सत्य एवं सुन्दर में पद-पद पर विरोध होता है। जगत् में जो घटनाएं सत्य हैं, हो सकता है। साहित्य में वे सुन्दर न हों, एवं जो सुन्दर हैं वे साहित्य में सर्वथा मिथ्या हो सकती हैं। जिसको मैं सत्य कहकर जानता हूं, उसको रूप देने पर देखता हूं कि वह वीभत्स हो उठा है। असत्य का वर्जन करने पर भी उसका सुन्दर रूप नहीं दिखाई देता । इसी प्रकार मंगल और अमंगल की बात है......। मैं जानना चाहता हूं कि सत्य यदि सुन्दर का परिपन्थी है, कल्याण-अकल्याण का प्रश्न गौण हो जाता है, तो साहित्य-साधना में इस समस्या की मीमांसा किस मार्ग से हो सकती है?"
मति बाबू के संबंध गांधीजी से काफी घनिष्ठ थे। उन्होंने शरत् बाबू के प्रश्न का स्वयं कोई उत्तर नहीं दिया। उनकी चिट्ठी गांधीजी को भेज दी।
गांधीजी ने इस पत्र का उत्तर देते हुए लिखा-
"जहां तक शरत् बाबू के पत्र क संबंध है, हमेशा यह राय रही हे कि वास्तविक सौंदर्य और सत्य में कोई विरोध नहीं है। इसलिए सत्य सर्वदा सुन्दर है। इसलिये मेरी राय में सत्य ही सम्पूर्ण कला है। सत्यविहीन कला कला नहीं है और सत्यविहीन सौन्दर्य एकदम कुरूपता है। इस संसार में बहुत-सी कुरूप वस्तुएं सुन्दर मान ली जाती हैं, यह भी सत्य है। यह इसीलिए होता है क्योंकि हम हमेशा सत्य को महत्त्व नहीं देते।”
लिखना कम हो गया था, लेकिन चिन्तन से उन्हें मुक्ति नहीं मिली थी । अनेक प्रश्न उन्हें घेरे रहते थे। उन दिनों यह प्रश्न बहुत तेजी से उभर रहा था कि क्यों कहानी - उपन्यास ही अधिक लिखे जाते हैं? ज्ञान-विज्ञान को लेकर दूसरा साहित्य क्यों प्रकाशित नहीं होता ?
नगर पाठकचक्र की बैठक के अध्यक्ष पद से भाषण देते हुए उन्होंने स्वयं इस समस्या का समाधान करने की चेष्टा की है। उन्होंने कहा, “कहानी - उपन्यास लिखनेवालों के विरुद्ध अभियोग करने से क्या होगा? धन के अभाव में कितनी बड़ी-बड़ी प्रतिभाएं नष्ट हो जाती हैं, इसकी खबर कौन रखता है? जवानी में मेरी एक कल्पना थी। आशा की थी कि 'द्वादश मूल्य' नाम देकर एक पुस्तकमाला तैयार करूंगा। जैसे, सत्य का मूल्य, मिध्या का मूल्य, दुख का मूल्य, नर का मूल्य, नारी का मूल्य, इसी तरह के मूल्यों का विचार उसमें होगा। उसी की भूमिका स्वरूप मैंने 'नारी का मूल्य' लिखा था। वह बहुत दिन तक अप्रकाशित पड़ा रहा। बाद में 'यमुना' पत्रिका में प्रकाशित अवश्य हुआ, किन्तु फिर वे 'द्वादश मूल्य' नहीं लिख सका। उसका कारण धन का अभाव ही था। मेरी ज़मींदारी नहीं है। रुपये नहीं थे। यहां तक कि उन दिनों दो बेला भोजन पाने के लिए भी पैसे नहीं थे। प्रकाशकों ने उपदेश दिया - यह सब नहीं चलेगा। तुम इसकी अपेक्षा किसी तरह जोड़- जाड़कर दो-चार कहानियां लिख दो। उनकी हजार कापियां बिक जाएंगी ।...... हमारी जाति की विशेषता कहिए या दुर्भाग्य ही कहिए, पुस्तक खरीदकर हम लेखक की सहायता नहीं करते। जो धनी हैं, खरीद सकते हैं, वे भी नहीं खरीदते बल्कि अभियोग करते हैं कि कहानी-उपन्यास लिखकर क्या होगा? अथच आज अन्तःपुर में जो थोडा बहुत स्त्री- शिक्षा का प्रचार हुआ है, वह इन कहानी- उपन्यासों के द्वारा.....। हमारे बड़े लोग यदि कम से कम सामाजिक कर्तव्य समझकर भी पुस्तकें खरीदें, अर्थात् जिससे देश के लेखकों की सहायता हो ऐसी चेष्टा को तो उससे साहित्य की उन्नति भी होगी। लेखक लोग उत्साह पाकर पेट भर खाने को पावेंगे और उन्हें खुद तरह-तरह की पुस्तकें पढ़ने का अवसर मिलेगा। इसके फलस्वरूप उनके ज्ञान की वृद्धि होगी। तभी तो वे ज्ञानगर्भ पुस्तकें लिख सकेंगे।"
उनके पास आनेवाले साहित्यिकों में तरुणों की संख्या काफी रहती थी। वे उनको प्यार भी खूब 'करते थे। बंगीय साहित्य परिषद ने अभी तक उनको अपना सदस्य नहीं बनाया था। जब-जब भी उन्हें विशिष्ट सदस्य बनाने का प्रश्न उठता, तब-तब ही प्राचीन दल वाले उस प्रस्ताव का घोर विरोध करते। उन्होंने उन्हें दुर्नीतिमूलक साहित्य की रचना करने वाला घोषित कर दिया था। ऐसे व्यक्ति को परिषद का सभ्य कैसे चुना जा सकता है? लेकिन तरुणों ने हर युग में विद्रोह किया है। उस दिन भी उन्होंने विद्रोह कर दिया और उनको परिषद का विशिष्ट सभ्य निर्वाचित कराकर ही रहे। गृहप्रवेश के दो महीने बाद उनका जन्मदिन आया। उस दिन गौरीनाथ मुकर्जी के घर पर विशेष अनुष्ठान किया गया। एक उपहार पुस्तिका उन्हें भेंट की गई और प्रशस्ति उच्चारण किया स्वयं आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय ने ।
यद्यपि कलकत्ता में रहने में अनेक सुविधाएं थी, लेकिन ऐसा लगता है वह भी उन्हें पूरी तरह बांध नहीं सका। बहुत जल्दी वे नागरिक जीवन से भी ऊब गये। इसीलिए अवसर पाते ही वे गांव चले जाते थे। जैसे वह घर उनको पुकारता रहता हो। जैसे एकान्तप्रियता और अपने में खो जाने की प्रवृत्ति उन्हें यहां से धकेलती रहती हो। बारीन्द्रकुमार घोष को लिखे एक पत्र से उनकी यह मनःस्थिति प्रकट होती है- देश का घर छोड़कर मैं कभी शहर में आ बसूंगा अर्थात् गांववासी होने के बदले नागरिक बनूंगा, यह काम तुम्हारे विवाह के समान ही है। (बारीन्द्रकुमार ने 53 वर्ष की आयु में कई बच्चों की मां एक विधवा से विवाह किया था। उसी ओर शरत् बाबू का इशारा है।) मैं उसके लिए आसानी से तैयार नहीं हो सकता। चाहे मुझे कितना ही उत्साहित किया जाए। यहां रोज दाढ़ी बनानी पड़ती है। यह कितनी बड़ी यंत्रणा का व्यापार है! मैं सोच भी नहीं सकता।
“बहुत दिनों से तुमसे भेंट नहीं हुई। किसी दिन दोपहर को आओ। उस समय भीड़ कुछ कम होती है। चार-पांच दिन और यहां हूं। उसके बाद भाग जाऊंगा और बहुत दिनों तक नहीं लौटूंगा।"
उनके जीवन के ये अन्तिम तीन साढ़े तीन वर्ष कलकत्ता और सामताबेड़ के बीच भागते-दौड़ते ही गुजरे। उनका जन्मदिन प्रतिवर्ष मनाया जाता था, पर इस वर्ष उसका महत्त्व और भी बढ़ गया। उनके जीवन के साठ वर्ष पूरे हो रहे थे। इसीलिए स्वयं गुरुदेव उत्सुक थे। उन्होंने शरत् बाबू को लिखा, “अगले रविवार को तुम्हारी प्रौढ़ आयु के आरम्भ होने के उपलक्ष्य में तुम्हारा अभिनन्दन करने का संकल्प किया है। उस दिन आशुतोष कालेज भवानीपुर के हाल में एक नाट्यगीत का अभिनय करने का आयोजन है। वहीं तुम्हारा सम्मान होगा। और कहीं, और किसी समय ऐसा करना सम्भव नहीं हुआ।
मै कल बृहस्पतिवार दोपहर बाद कलकत्ता पहुंचूंगा । तब यदि तुम्हारी सम्मति मिल गई तो बात पक्की कर दूंगा।”
उनकी षष्टिपूर्ति पर रविवासर' का विशेष उत्सव गौरीपुर दमदम में श्री सुशील मुखोपाध्याय की वाटिका 'अलका' में सम्पन्न हो चुका था । कविगुरु उसमें नहीं आ सके थे, इसीलिए उन्होंने यह विशेष उत्सव आयोजित करने का प्रस्ताव किया। उनके जन्मदिन के दो सप्ताह बाद यह सभा 'रविवासर' के तत्वावधान में 'प्रफुल्ल कानन' बेलियाघाट में हुई। उस दिन नौ बजे से ही सदस्य आने लगे थे। कविगुरु जलपान के बाद साढ़े दस बजे पधारे। जलधर सेन ने उनका स्वागत किया। रवीन्द्रनाथ और शरत्चन्द्र, साहित्य के सूर्य और चन्द्र, साथ-साथ बैठे। उस आनन्द और उल्लास के बीच कवि ने अपना आशीर्वाद पढ़ा-
“कल्याणायेष शरत्चन्द्र, तुम जीवन के निर्दिष्ट पथ पर प्रायः दो बटा तीन उत्तीर्ण हो गये हो। इस उपलक्ष्य में तुमको अभिनंदित करने के लिए तुम्हारे बंधुओं ने यह आमन्त्रण सभा बुलाई है। वय बढती है। आयु का क्षय होता है। उसको लेकर आनन्द मनाने का कोई कारण नहीं है। आनन्द इसलिए मानता हूं क्योंकि देखता हूं कि जीवन की परिणति के साथ-साथ जीवन के दान के परिमाण का क्षय नहीं है। तुम्हारे साहित्य रस- सत्र का निमन्त्रण आज भी उन्मुक्त है। अकृपण दाक्षिण्य से भर उठा है तुम्हारा परिवेषण पात्र इसलिए जयध्वनी करने को तुम्हारे देशवासो तुम्हारे द्वार पर आये हैं।
“आज शरत्चन्द्र के अभिनन्दन का मूल्य यह है कि देश के लोग केवल उनके दान की मनोहारिता का भोग ही नहीं करते, उसकी अक्षयता को भी अनुभव करते हैं जिस रचना में प्राण होते है, विरोध होने पर भी उसके यश का मूल्य उसके वास्तविक मूल्य को बढ़ा देता है। यह विरोधी काम जिनका है, वे दूसरे मार्ग के भक्त हैं। जैसे रावण राम का भयंकर भक्त है।
“ज्योतिषी असीम आकाश में डूबकर नाना रश्मियों के समूहों से निर्मित नाना जगतों का आविष्कार करता है, जो अनेक कक्षाओं के मार्ग में बड़ी तेजी से उतर रहे है। शरत्चन्द्र की दृष्टि बंगाली हृदय के रहस्य में डूब गई। सुख में, दुख में, मिलन विछोह में संगठित विचित्र शक्ति का उन्होंने इस प्रकार परिचय दिया है, जिससे बंगाली अपने को प्रत्यक्ष पहचान सके हैं........दूसरे लेखकों ने बहुतों की प्रशंसा पाई है, किन्तु सार्वजनिक हृदय का ऐसा आतिथ्य नहीं पाया। यह अद्भुत वस्तु नहीं है, यह प्यार है। अनायास ही जो प्रचुर सफलता उन्होंने पाई है, इससे वे मेरे ईर्ष्या-भाजन हो गये हैं।
“आज शरत्चन्द्र के अभिनन्दन में विशेष गर्व अनुभव करता यदि मैं उनको यह कह सकता कि तुम नितान्त मेरे द्वारा अविकृत हो । किन्तु उन्होंने किसी के हस्ताक्षरित परिचय- पत्र की अपेक्षा नहीं की। आज उनका अभिनन्दन देश के घर-घर में स्वतः ही उच्छ्वासित हुआ है।..... उन्होंने बंगाली वेदना के केन्द्र में अपनी वाणी का स्पन्दन पैदा किया है। साहित्य में उपदेष्टा से स्रष्टा का आसन बहुत ऊंचा है। चिन्ताशक्ति का वितर्क नहीं, कल्पनाशक्ति की पूर्ण दृष्टि ही साहित्य में शाश्वत मर्यादा के पद पर प्रतिष्ठित है । कवि के आसन से मैं विशेष रूप से उसी स्रष्टा, शरत्चन्द्र को माल्यार्पण करता हूं। वे शतायु होकर बंगला साहित्य को समृद्ध करें! अपने पाठकों को मनुष्य को सत्य रूप में देखने की शिक्षा दें। अपने दोष-गुणों, अच्छे-बुरे के साथ मनुष्य को प्रकाशित करें। चमत्कारजनक, शिक्षाजनक किसी दृष्टान्त को नहीं, अपनी स्वच्छ प्रांजल भाषा में मनुष्य की चिरन्तन अभिज्ञता को प्रतिष्ठित करें......।”
इस लिखित भाषण के बाद आलोचना के प्रसंग मे कवि ने फिर कहा, “अपने बचपन में बंकिमचन्द्र के अष्णुदय में बंगला साहित्य में मैंने एक नये भाव का प्लावन देखा था। बंकिमचन्द्र भगीरथ के समान जिस नये साहित्य को लेकर आये, उसने बंगला देश के सर्वसाधारण के अन्तर को छुआ। उन्होंने उनको सादर अपना कहकर ग्रहण किया। केवल उस समय के तरुण और युवकों में ही नहीं, अन्तःपुर तक में बांकेम-साहित्य की नयी हवा प्रवेश कर गई थी। विरोधियों ने निन्दा और प्रतिवाद करने में कोई कसर नहीं रखी, क्योंकि बंकिम साहित्य उस सबको लीलकर अपने को प्रतिष्ठित कर सका.......। | अपनी वृद्धावस्था में शरत्चन्द्र के अभुदय में मैंने फिर वही व्यापार देखा । शरत्चन्द्र कथा - साहित्य में एक ऐसी वस्तु लेकर आए जिसने बंगला देश के सर्व साधारण के अन्तर को स्पर्श किया। उसके निगूढ़तम वेदना के स्तर पर आघात किया । इसीलिए तो बंगला देश के सभी लोगों ने शरत्चन्द्र के साहित्य को अपना कहकर वरण किया। शरत्चन्द्र ने अपनी प्रतिभा के बल पर ही बंगला देश के हृदय को जीत लिया है। उन्हें किसी का प्रमाण-पत्र लेने की आवश्यकता नहीं पड़ी।”
उस दिन शरत् बाबू कवि के इस आशीर्वाद से बहुत प्रसन्न हुए । स्वीकार किया कि कवि ने अकृपण भाषा में दिल खोलकर मंगल कामनाएं की है। उनके मन में अब किसी प्रकार का क्षोभ नहीं रह गया। इससे अधिक और प्रशंसा उन्हें मिलती भी क्या, और कवि भी इससे सुन्दर शब्द और कहां से लाते ?
इस उत्सव से लगभग तीन माह पूर्व रवीन्द्रनाथ 'रविवासर' की एक और सभा में आये थे। शरत्चन्द्र के लिए उस सभा का महत्व इसीलिए था कि वह उनके कलकत्ता वाले मकान पर हुई थी। कवि गिरिजाकुमार बसु और अपनी भतीजी के साथ शरत् बाबू स्वयं कवि को लेने गये थे। कवि के आग्रह पर उनके आन की सूचना पहले से ही प्रचारित नही की गई थी। जब वे आये तो सदस्यों में उत्साह की सीमा नहीं थी। स्वयं कवि भी अनेक परिचितों और तरुण साहित्यकारों को एक स्थान पर देखकर बहुत प्रसन्न हुए। एक दीर्घ भाषण में उन्होंने अपनी और अपने साहित्य कई रचनाप्रक्रिया की चर्चा की। 'बलाका' से 'छवि' कविता का पाठ किया- तूमि कि केवलि छवि शुधु पटे लिखा ।”
उन्होंने 'रविवासर' में अधिनायक का पद भी ग्रहण करना स्वीकार किया ।
रत्ने मर्मस्पर्शी बातों द्वारा एक बार फिर कविगुरु में अपनी श्रद्धा प्रकट की। सभा रात में देर तक चलती रही, पर कवि चले गये। इन दिनों मान अभिमान सब समाप्त हो गया था। दोनों एक-दूसरे के बहुत पास आ गये थे।
अगले वर्ष उनकी बासठवीं जन्म जयन्ती जितने स्थानों पर मनाई गई, उतने स्थानों पर पहले कभी नहीं मनाई गई थी। इधर कई वर्षों से आकाशवाणी के कलकत्ता केन्द्र से 'शरत्-शर्वरी' नाम से एक आयोजन किया जाता था। इस वर्ष यह आयोजन असामान्य सफलता के साथ सम्पन्न हुआ। इस अधिवेशन में उनके अनेक प्रशंसक और प्रियजन उपस्थित थे. नाटौर के महाराजा, कासिम बाजार के महाराजा, रायबहादुर जलधर सेन, रायबहादुर एन० के० सेन, सर्वश्री कालिदास राय, गिरिजाकुमार बसु, काजी नजरुल इस्ताम, वसन्तकुमार चट्टोपाध्याय, नरेन्द्र देव, मुकुन्दचन्द्र देव, हेमेन्द्रकुमार राय, अविनाशचन्द्र घोषाल और असमंजस मुखोपाध्याय इत्यादि । शरत्चन्द्र की कहानी 'सती' का नाट्य रूपान्तर प्रस्तुत किया गया जो अत्यन्त सफल रहा।
सभा में उपस्थित सभी व्यक्तियों ने अपने अन्तर्तम से उनके दीर्घ जीवन की कामना की, लेकिन हेमेन्द्रकुमार राय ने मानो भविष्य को पहचान लिया था। उन्होंने कहा, “मैं मनुष्य शरत्चन्द्र के दीर्घ जीवन की कामना नहीं करता। मैं साहित्यिक शरत्चन्द्र के दीर्घ जीवन की कामना करता हूं।”
इन कामनाओं का हृदयस्पर्शी भाषा में उत्तर देते हुए शरत्चन्द्र ने कहा, बासठवें वर्ष में प्रवेश करते हुए अपनी जन्म जयन्ती के उपलब्ध में सबसे आशीर्वाद चाहने से पहले रवीन्द्रनाथको, जो रोगशय्या पर हैं, प्रणाम करता हूं। इस संसार में साहित्य साधना के लिए उनका आशीर्वाद केवल मेरी ही नही हर साहित्यकार की सम्पदा है। वही आशीर्वाद आज के दिन मैंने मांग लिया है। अपनी साहित्य साधना के बारे में अपने मुंह से कुछ नही कहा जा सकता। केवल इतना ही कह सकता हूं कि बहुत से दुखों के बीच से होकर यह साधना धीरे-धीरे आगे बड़ी है। किसी दिन यह नहीं सोचा था कि मैं साहित्यिक हो सकूंगा या किसी दिन मेरी कोई पुस्तक छपेगी। जो कुछ लिखा वह संकोच और दुविधा के कारण दूसरों के नाम से लिखा । उसका कोई मूल्य है, यह सोच भी नहीं सका। उसके बाद बहुत दिनों तक, जान पड़ता है पन्द्रह-सोलह साल तक, साहित्य चर्चा के पास भी नहीं फटका | भूलकर भी मन में नहीं होता था कि किसी दिन लिखूंगा। उसके बाद नाना कारणों से फिर यह जीवन .......। शायद यही मेरा सच्चा जीवन है। जान पड़ता है अन्ततः भगवान ने मेरे लिए यही जीवन निर्दिष्ट कर रखा था, इसलिए इच्छा न होने पर भी घूम-फिरकर फिर इसी के बीच में मुझे इकसठ वर्ष काटने पड़े। आप लोगों के बीच में बहुत दिन रहूं या न रहूं यह बात आपको बीच-बीच में याद आयेगी कि वे कह गये थे, अनेक दुखों के बीच में उनकी साहित्य-साधना धीरे-धीरे बाधाओं को ठेलकर चलती रही थी।"
उन्होंने हेमेन्द्रकुमार राय के भाषण का समर्थन करते हुए यह भी कहा था कि दीर्घ जीवन की कामना तभी अच्छी है जब स्वास्थ्य और कर्मशक्ति अटूट हो। देश की सेवा करने की अपनी क्षमता हो । यदि ऐसा नहीं होता, यदि रोगी और पंगु होकर जीना पड़ता है तो वह जीवन किसी के लिए काम्य नहीं हो सकता, विशेषकर साहित्यिक के लिए तो कभी नहीं ।
जैसे वे समझ गये थे कि अब उस पार से राजदूत निमन्त्रण लेकर आने ही वाला है, क्योंकि स्काटिश चर्च कालेज की बांग्ला साहित्य समिति के अभिनन्दन के उत्तर में वे बोल, “शायद 31 भाद्र फिर नहीं आयेगा, इसलिए आना पड़ा। तुम्हारी पुकार की उपेक्षा नहीं कर सका। इकसठ वर्ष बीत गये। कुछ नही कर सका। नहीं जानता बासठवां कैसे बीतेगा। यदि 31 भाद्र का दिन फिर आया तो निश्चय ही तुम्हारे पास आऊंगा।”
एक और स्थान पर उन्होंने कहा, “31 भाद्र प्रतिवर्ष बार-बार आएगा, किन्तु एक दिन मैं नहीं होऊंगा। उस दिन यह कथा किसी के मन में व्यथा के साथ याद आएगी, कोई दूसरे कामों में लगा होने से भूल जाएगा। आज इसीलिए कृतज चित्त से सबको याद करता हूं। फिर यदि 31 भाद्र आएगा तो आपसे मिलना होगा, नहीं तो विदा ।"
और सचमुच यह विदा थी, क्योंकि फिर 31 भाद्र तो आया, लेकिन वे नहीं रहे थे।
इससे लगभग एक वर्ष पूर्व ढाका विश्वविद्यालय ने उन्हें डी० लिट० की उपाधि प्रदान कर सम्मानित किया। उन्हीं के साथ सम्मानित किये गये थे आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय और सर यदुनाथ सरकार । सदा की तरह इस बार भी एक पक्ष ने मुक्त मन से उनका समर्थन किया तो दूसरे दल ने उतना ही प्रबल विरोध भी । लेकिन अन्ततः डा० रमेशचन्द्र मजूमदार विश्वविद्यालय के अधिकारियों को कायल करने में सफल हो गये। जब वे यह उपाधि ग्रहण करने के लिए ढाका गये तो वहां उनका आतिथ्य करने की होड़ सी लग गई। मुस्लिम साहित्य सम्मेलन के दसवें वार्षिक अधिवेशन की उन्होंने अध्यक्षता की। इसके अतिरिक्त विश्वविद्यालय की विभिन्न छात्र समितियां, कमरुन्निसा गर्ल्स कालेज, मिलन परिषद, शान्ति साहित्य सम्मिलनी ने भी उनका अभिनन्दन किया। बारी-बारी वे अपने कई मित्रों के घर ठहरे। अध्यापक चारुचन्द्र बन्दोपाध्याय के घर पर बंकिम साहित्य को लेकर श्री मोहितलाल मजूमदार से उनकी बहुत लम्बी चर्चा हुई। उन्होंने अनेक बार बंकिम- साहित्य का विरोध किया है। उस विरोध को न्यायोचित ठहराते हुए उन्होंने देवानन्दपुर की बाल विधवा नीरू दीदी की कथा सुनाई थी। उस पर दुख कातर नारी का बत्तीस वर्ष की आयु में पदस्खलन हो गया था। तब धर्मधुरीण समाज ने उसे तिल-तिलकर मरने को विवश कर दिया था। यह कथा कहते-कहते उनका गला भर आया। कुछ देर वे चुप बैठे रहे। फिर धीरे-धीरे बोले, “मनुष्य में जो देवता है, इसी तरह से हम उसका अपमान करते हैं। रोहिणी का कलंक और उसकी सज़ा इसी तरह की है। एक ऐसे नारी चरित्र की न जाने कितनी दुर्गति बंकिमचन्द्र ने की है। ”
लेकिन वे बंकिमचन्द्र की सीमाएं न समझते हों, यह बात नहीं। पर उनकी शिकायत यही थी कि बंकिमचन्द्र रवीन्द्रनाथ की तरह युग के संस्कारों से ऊपर उठकर 'आंख की किरकिरी' क्यों न लिख सके? यहीं वे भूलते थे। हर व्यक्ति की क्षमता होती है और अक्षमता अपराध नहीं है। यह बात स्वयं उन्होंने बार-बार घोषित की है। इसके अतिरिक्त बंकिमचन्द्र ने भी अपने युग से विद्रोह किया था। एक सीमा पर आकर वे अक्षम हो उठे या ऐसे होते दिखाई दिये तो क्या स्वयं शरत् भी उसी अक्षमता का शिकार नहीं हुए थे? युग को देखते हुए बंकिमचन्द्र प्रगतिशील ही थे। उन्होंने गतानुगतिकता के स्थान पर बुद्धिवाद को मानने का प्रयत्न किया है। उन्होंने लिखा है, “तीन-चार हजार वर्ष पहले भारतवर्ष के लिए जो कायदे कानून बने थे आज उनको हरफ-ब-हरफ मानकर चलना असम्भव है।"
इसी वर्ष वे शान्तिपुर में साहित्य सम्मेलन के बारहवें अधिवेशन के मूल सभापति हुए। उन्हें सम्मान मिलना ही चाहिए था। मिल भी रहा था, परन्तु जिस प्रकार वे कभी- कभी अपनी आलोचना सुनकर उद्विग्न हो उठते थे उसी प्रकार अपनी प्रशंसा सुनकर भी उन्हें अच्छा नहीं लगता था। उस दिन एक युवक ने आकर घोषणा की कि वे सबसे अच्छा •लिखते हैं। आरामकुर्सी पर लेटे वे हुक्का गुडूगुडाते रहे और बीच-बीच में हां-हूं करते रहे। युवक ने अन्त में कहा 'बहुत से विदेशी उपन्यास पढे हैं, पर आपकी रचनाओं में जो दर्द है वह कहीं नहीं मिला। उनकी रचनाएं पढकर आंखें भीगतीं ही नही । आपकी रचनाएं पढ़कर कितना रोया हू!”
शरतचन्द्र एकदम बोल उठे, “ना, ना, इतना रोना ठीक नहीं आंखें खराब हो जाएंगी। बीच-बीच में हास्य कथाएं पढ़ा करो।”
उसके बाद वह युवक क्षमा मांगकर चला गया। वे बोले, “अपनी प्रशंसा सुनते-सुनते तम्बाकू तक खराब हो गया।"
एक और दिन एक और युवक ने घोषणा की, “आपकी कहानी 'सती' पढ़ी। ऐसी कहानी आप ही लिख सकते हैं। बंगला साहित्य में ऐसी कहानी दुर्लभ है।” शरतचन्द्र ने पूछा, “रवीन्द्रनाथ की कहानियां पढ़ी हैं?”
पढ़ी हैं, किन्तु वे इतनी अच्छी नहीं हैं। '
'अच्छी तरह पढ़ो। पाओगे कि ऐसी कहानियां विश्व साहित्य में दुर्लभ हैं।”
प्रशंसा और निन्दा शरत्चन्द्र जैसे व्यक्ति के जीवन में सहज सुलभ हैं। विशेषकर निन्दा उनके लिए कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। लेकिन जो मृत्युलोक के द्वार पर पहुंच रहे होते हैं, उनके लिए इसका कोई विशेष अर्थ नहीं रह जाता। उनके साथ भी यही हुआ। मृत्यु जब द्वार खटाखटा रही थी, तब प्रबोधकुमार सान्याल ने उन पर तीव्र आक्रमण किया। कुछ वर्ष पूर्व 18 इन्हीं प्रबोधकुमार ने शरत्-साहित्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। उनके सहज चरित्र-चित्रण, उनकी विपुल अभिज्ञता, उनकी मधुर- कोमल भाषा और शब्द- निर्वाचन की दक्षता पर जैसे वे मुग्ध हो उठे थे। उन्हीं प्रबोधकुमार ने अब न केवल उनके साहित्य की कटु आलोचना की, बल्कि उनके व्यक्तित्व पर भी गहरी चोट की। कहा, “शरत् बाबू के पास कहने का ढंग भाव है। भविष्य के लिए कोई सन्देश उनके पास नहीं है। उनके वचन और व्यवहार, चरित्र और आचरण में कोई संगति नहीं हैं।”
इस प्रकार के उनके दो लेख 'श्रीहर्ष' पत्रिका में प्रकाशित हुए। जैसे तूफान आ गया हो। देखते-देखते पक्ष और विपक्ष में प्रतिवादों की बाढ़ आ गई। भरतचन्द के मित्रों ने कहा कि यह सब ईर्ष्या का परिणाम है। प्रबोध बाबू के एक समर्थक ने तो शरत्चन्द्र के एक प्रशंसक के नाम से ही लेख लिख डाला। लिखा- बंकिम, माइकेल और रवीन्द्र ने जिस बंग भाषा की सेवा की, उसके पवित्र अंगों में बर्मा में पले आवारा शरत्चन्द्र की लेखनी ने भयंकर घाव कर दिये हैं। उससे उसका सारा शरीर गल उठा है।”
वे लेखक बन्धु शरत् बाबू के पास पहुंचे। बोले, “मैं इसका प्रतिवाद करना चाहता हूं।” शरत्चन्द्र ने उत्तर दिया, "न, यह सब न करो। मैं यह सब नहीं सह सकता। मुझे लेकर अब यह वाद-प्रतिवाद क्यों? मेरी बात सुनो, चुप होकर बैठ जाओ।”
प्रबोधकुमार ने यह भी लिखा था कि शरत्चन्द्र ने विदेशी भावधारा दिलीपकुमार राय से ली है, राजनीति श्री किरणशंकर राय से सीखी है और व्याकरण सीखा है कालिदास राय से।
कालिदास राय ने इसके प्रतिवाद में एक लेख लिखा और उसे लेकर शरत् बाबू के पास आये। उन्होंने इस लेख को सुना। उसकी प्रशंसा की और फिर उसे अपने हाथ में लेकर टुकड़े-टुकड़े कर डाला। इतना ही नहीं उन टुकड़ों को जलती हुई चिलम पर रख दिया। क्षण-भर में सब कुछ राख हो गया। बोले, “कालिदास, युवकों पर यदि तीव्र आक्रमण किया जाए तो उसका कुछ परिणाम निकल सकता है। -वे आघात सह सकते हैं, सुधार भी कर सकते हैं, लेकिन मेरे जैसे मृत्युपथ के राही पर ऐसे आक्रमण करने से क्या लाभ? दो दिन बाद ही पछताना होगा। मेरे तो दिन बीत गए हैं। जाने से पहले अब किसी के साथ विरोध करने की इच्छा नहीं है। जो जिसकी इच्छा हो कहे, तुम लोग कोई प्रतिवाद मत करो।
प्रबोधकुमार सहसा इतने कटु क्यों हो उठे थे? क्या इसका एकमात्र कारण यौवन का आवेश और पीड़ितों का संघर्ष ही था? उनके नाम शरत् बाबू के एक पत्र से पता लगता है कि उन्होंने शरत् बाबू से अपनी पुस्तक 'महाप्रस्थानेरे पथ' की भूमिका लिखने की प्रार्थना की थी लेकिन, किसी भी कारण से हो, शरत् बाबू ऐसा नहीं कर सके थे। क्या प्रबोध बाबू की असंयत कटुता का यह एक कारण नहीं हो सकता?
ताल्स्ताय जीवन-भर अन्याय के विरुद्ध और अपने विरुद्ध लड़ते रहे, पर अन्त में उन्होंने कहा, “आप कल्पना नहीं कर सकते कि जैसे-जैसे मनुष्य बुढ़ापे अर्थात् मृत्यु के पास आता है वैसे-वैसे उसका जीवन बदलने लगता है। अब मुझे सबसे अच्छा यही लगता है कि ज़ार हो या भिखारी हो, सबके साथ स्नेह का व्यवहार करूं।”
शरत्चन्द्र की आन्तरिक इच्छा भी यही थी । मृत्यु से लगभग छ: माह पूर्व ऐसे ही एक आक्रमण के उत्तर में उन्होंने कहा, “जाने का दिन आ गया है। नालिश करके और अशान्ति मोल लेना नहीं चाहता - यह संकल्प कर रखा है। जानता हूं, जो मुझे सचमुच प्यार करते हैं उन्हें दुख होगा, पर सहन करने के अतिरिक्त प्रतिकार का और मार्ग भी तो नहीं है । "
सचमुच उनके पथ का भी अंत आ पहुंचा था। बहुत दिन पहले से ही सृजनशक्ति जैसे प्राणहीन हो चुकी थी। नौका मानो डांडों के बल से नहीं, रस्सी के बल से खींची जा रही हो । उस दिन हेमेन्द्र उनसे लेख मांगने के लिए आये तो बड़े दुख से उन्होंने कहा, मै और लेख न दे सकूंगा। सिर में बेहद पीड़ा है। कलम पकड़ना असम्भव है।”
मेन्द्र ने फिर प्रार्थना की तो वे कातर हो उठे। बोले, “विश्वास करो हेमेन्द्र, मैं और नहीं लिख सकता। तुम मेरे शरीर की अवस्था नहीं जानते। मुझसे लिखा ही नहीं जा सकता।