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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023

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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुलझाते वे परेशान हो उठते थे। तब मन होता था कि वहां से भाग चलें।

बार-बार उन्हें कलकत्ता जाना पड़ता था । उनकी सभी पुस्तकें वहीं से प्रकाशित हो रही थीं। सभा-सोसाइटियों के निमन्त्रण भी कम नहीं आते थे, लेकिन वहां तक पहुंचने में उन्हें बडी असुविधा होती थी। स्टेशन लगभग दो मील दूर था और रास्ता था नितान्त कच्चा । वर्षा ऋतु में वहां दलदल उफन उठती थी। उसकी चर्चा करते हुए एक बार उन्होंने अपनी सहज शैली में लिखा था, “वर्षा के दिनों में स्टेशन की ओर जानेवाला जो एकमात्र पथ है, उससे यात्रा करने की कल्पना से ही डर लगता है। पालकीवाले डरते हैं कि कहीं पांव फिसल जाने पर बांध से एकदम नीचे नहर में ही डूबना होगा। अच्छी जगह आ पड़ा हूं। यहां के लोगों को एक सुविधा है, वर्षा ऋतु में उनके पैरों में खुर उग आते हैं, इसीसे वे खट- खट करते चले जाते हैं। फिसलने का डर नहीं रहता। मेरे अभी तक खुर नहीं उगे हैं, लेकिन यह भरोसा है कि दो-एक वर्ष और रहने पर उग आएंगे। असम्भव कुछ नहीं है, किन्तु मैं कहता हूं, मुझे खुरों से क्या लेना? मैं जहां था वहीं वापस लौट जाऊंगा। -

उनका मन जैसे अब वहां नहीं रहा था। स्वास्थ्य उनका कभी भी अच्छा नहीं रहा । आयु के बढ़ने के साथ-साथ विकार बढ़ता ही गया। इन नाना कारणों से उन्होंने निश्चय किया कि वे शहर में भी एक मकान बनायेंगे। हिरण्मयी देवी बराबर यही अनुरोध करती आ रही थीं, लेकिन मकान के लिए तो रुपयों की आवश्यकता होती है। उन्होंने लिखने की ओर मन देने का प्रयत्न किया। प्रकाशकों से भी रुपयों की मांग की। एक पत्र में उन्होंने लिखा-

"मेरा कलकत्ता का मकान बन चुका है। इस समय मुझे यदि आप पांच हज़ार रुपये दें तो चिन्ता दूर हो जो तीन पुस्तकें समाप्त होने को हैं, आशा करता हूं, उनसे एक साल में ही यह कर्ज चुकता हो जाएगा। मकान का तखमीना चौदह हज़ार रुपये का था। जिन लोगों मे बातचीत की थी, उनसे तय था कि आधे रुपये इस साल दूंगा और बाकी आधे अगले साल । पर घटनाचक्र से खर्च बढ़ गया और तीन हज़ार रुपये ज्यादा लग गये। नहीं तो रुपयों की ज़रूरत नहीं होती। कर्ज़ बिना लिए भुगतान कर देता। यहां गांव के मकान पर सोलह-सत्रह हज़ार रुपये खर्च कर चुका हूं। कलकत्ता के मकान पर भी जान पड़ता है तीस हज़ार रुपये खर्च होंगे। 

उनकी आय अच्छी-खासी थी, फिर यह कर्ज़ पर कर्ज़ क्यों? उनका स्वभाव था कि आवश्यक हो या अनावश्यक, बाज़ार जाकर कुछ न कुछ खरीदारी करेंगे ही। एक रुपये की आवश्यक वस्तु लेते तो पच्चीस रुपये की अनावश्यक वस्तुएं भी खरीद लेते। कोई कहता, "दादा, इनकी तो दरकार नहीं थी! क्यों खरीद रहे हैं?

उत्तर मिलता, “अरे, तुम समझते नहीं, फिर भी तो कभी दरकार हो सकती है।”

उस दिन एक सिगरेट केस देखा। सचमुच सुन्दर था। ले लिया। साथ में जो मित्र थे उन्होंने पूछा, "दादा आप तो हुक्का या पाइप पीते हैं। बेकार यह सिगरेट केस क्यों ले लिया?”

उत्तर दिया, "तुम समझोगे नहीं जी! कितना सुन्दर डिज़ाइन है ! चीज़ बनी रहेगी। हो सकता है कभी सिगरेट पीना शुरू कर दूं।"

इसी तरह सुन्दर नोटबुक, खूबसूरत विलायती मनीबैग, कांच की प्यारी सी दवात न जाने क्या-क्या खरीद लेते। पैसे जमा करने से जैसे नफ़रत थी । गम्भीर होकर अक्सर कहते, “छोड़ो, जीवन भर धन के लिए कष्ट उठाया। अब मरते वक्त भगवान ने वह चीज़ मुझे दी है। अब मुझे इसकी आवश्यकता क्या है?"

उन्होंने मॉरिस गाड़ी भी खरीद ली थी। मित्रों की सहायता करने के लिए वे सदा तत्पर रहते ही थे। बाज़ार में सात रुपये की चीज़ खरीदते और दुकानदार को दस का नोट दे देते। शेष लौटाने की चिन्ता उन्हें कभी नहीं रहती। याद दिलाने पर कहते, “छोड़ो भी, शायद भूल गया होगा, दे देगा।”

दवाएं तक थोक में खरीद लेते। सरदर्द की दवा सोने के कमरे की तिपाई पर एक शीशी, बरामदे की मेज़ पर दूसरी शीशी, शौचालय के कार्निस पर तीसरी शीशी और नीचे की बैठक में चौथी शीशी ऐसी बातों का कोई अन्त नहीं था और पैसा इसी तरह मुक्त होकर बहता रहता था।

चार महीने बाद आखिर कलकत्ते का यह मकान भी बनकर तैयार हो गया। जिस समय उन्होंने इस मकान में प्रवेश किया, उस समय अनेक गण्यमान्य अतिथियों के बीच में कविगुरु रवीन्द्रनाथ भी उपस्थित थे। मात्र उपस्थित ही नहीं थे, इस अवसर पर उन्होंने अपनी दो कविताएं भी पढ़ी थी। कैसी मादक स्तब्धता छा गई होगी उस वातावरण में, जब कविगुरु के गहन गम्भीर स्वर में यह कविता गूंजी होगी-

यदि ओ संध्या आसिछे मन्द मन्थरे

सब संगीत गेछे इंगिते थामिया ।

यदि ओ संगी नाहि अनन्त अम्बरे.

यदि ओ क्लान्ति आसिछे अंगे नामिया ।

महा आशंका जपिछे मौन मन्तरे,

दिगदिगन्त अवगुण्ठने ढाका ।

तबु बिहंग, ओर बिहंग मोर

एनि अन्ध, बन्ध कोरी ना पाखा ।

इस मकान के बन जाने से उन्हें बहुत सुविधा हो गई। अब उनका इलाज आसानी से हो सकता था। जो लोग इतनी दूर गांव में उनसे मिलने-जुलने जाते थे वे भी उस परिश्रम से बच गये। नये-नये लेखक मन में अजस्र भक्ति और श्रद्धा लिए उनके पास आते और उनकी प्रत्येक गतिविधि का सूक्ष्मता से निरीक्षण करते। देखते कि शरत्चन्द्र बैठक में आरामकुर्सी पर बैठे हुए हैं। दोनों तरफ छोटी-छोटी मेजें हैं। उन पर एक जैसी सामग्री सजी हुई है। कटिंग पेपर, सुन्दर पैड, बहुमूल्य फाउंटेन पेन, पेंसिलें। जिस तरफ उनका मन होता है उसी तरफ से सामान लेकर लिखना शुरू कर देते हैं। रुपयों की गड्डीनुमा एक डिबिया में अफीम रहती है, पर वह एक ही है। लम्बी सटक की मुंह गाल उनके हाथ में रहती। जब चिलम बुझ जाती तो नौकर को आवाज़ देते, “वृन्दावन !”

पुराने मित्रों का आना भी बढ़ गया था। मिलने-जुलने और अड्डा जमाने की यह आदत जीवन भर बनी रही। वही खाना-पीना और गपशप समय किधर से आकर किधर चला जाता था किसी को पता ही नहीं लगता था । उस दिन ऐसे ही सवेरे से रात हो गई, हरिदास बाबू थे, दिलीपकुमार थे, और भी अनेक लेखक थे। सहसा हरिदास बोल उठे, “रात बहुत हो गई है, अब चलो नहीं तो शरत् दा नौकर से वसीयतनामा लाने को कहेंगे।”

शरत् बाबू ने हंसकर पूछा, “वसीयतनामा क्यों?”

हरिदास बोले, “आपकी ही तरह एक भला ब्राह्मण था । सरस्वती पूजा के दिन उसने अनेक व्यक्तियों को आमन्त्रित किया। खाना-पीना हुआ पर कोई जाने का नाम ही नहीं ले रहा था। तब उसने नौकर को पुकारकर कहा, देखो, यह चाबी लो और लोहे का संदूक खोलकर पिताजी का वसीयतनामा ले आओ।"

"बेचारे मेहमान अवाक् । नौकर ने अचकचाकर कहा, 'वसीयतनामा ?”

"गृहस्वामी बोले, 'हां, हां, देखना है कि बाबा ने यह मकान मुझको दिया है या इन सबको।" उससे बाद जो प्राणों को उन्मुक्त कर देने वाला अट्टहास उठा उसकी कल्पना ही की जा सकती है। प्रसिद्ध भाषाविद् सुनीतिकुमार चटर्जी शरत् बाबू से परिचित तो हो चुके थे, लकिन गांव में उनका जाना नहीं हो पाता था। सभा समितियों में ही मिल पाते थे, लेकिन अब शरत् बाबू का मकान उनके पास ही बन गया था। अक्सर आ जाते थे। एक दिन ऐसी ही एक भेंट में शरत् बाबू ने उनके सामने एक ऐसी मनोवैज्ञानिक समस्या रखी जिसका समाधान ढूंढ पाना आसान नहीं था। शरत् बाबू ने पूछा, “अच्छा बताओ तो सुनीति, तुम्हारा क्या खयाल है? प्रबल कौन है— संस्कार जो हम अपने पूर्वजों और सामाजिक वातावरण से ग्रहण करते हैं अथवा मनुष्य की मूल प्रकृति?"

सुनीति बाबू सहसा कुछ उत्तर नहीं दे पाए। बोले, “आपके मन में यह प्रश्न कैसे उठा ?” शरत् बाबू ने उत्तर दिया, तुम्हें देखकर न जाने क्यों मुझे बर्मा की एक घटना याद हो

आई! सुनाता हूं। शायद मेरे प्रश्न को समझने में तुम्हें सुविधा होगी। रंगून में रहते हुए मुझे कई वर्ष बीत चुके थे। एक दिन एक परिचित बंगाली सज्जन मेरे पास आए और बोले, 'शरत् बाबू, मेरे एक परिचित ब्राह्मण का लड़का चटगांव से यहां आया है। नौकरी की तलाश है। आप उसके लिए कुछ व्यवस्था कर सकें तो अच्छा हो।'

"मेरे एक मित्र का सागवान की लकड़ी का काफी बड़ा व्यापार था। उन्हीं के यहां उसे किराए के रूप में रखवा दिया, लेकिन कुछ महीने बाद अचानक उससे भेंट हुई, तो उसका रूप कुछ और ही था। शरीर पर धोती, कमीज और चप्पल नहीं थी। बस एक रामनामधारी चादर थी और थी सिर पर लम्बी-चौड़ी चुटिया, ललाट पर चन्दन। पक्का पुरोहित बना हुआ था। मुझे देखकर उसने नमस्कार किया। मैंने पूछा, यह क्या भाई, पुरोहिती शुरू कर दी है क्या?'

“उसने बड़े विनीत भाव से उत्तर दिया, क्या करता जी, वहां जो कुछ मिलता था, उससे गुजारा नहीं होता था । सोचा, यहां बहुत-से बंगाली हिन्दू रहते हैं, पूजा-पाठ के लिए उन्हें ब्राह्मण की जरूरत होती ही है और मैं ब्राह्मण का लड़का हूं, क्यों न पुरोहित का काम ही शुरू कर दूं। आपके आशीर्वाद से नौकरी से अधिक कमा लेता हूं।”

इसके बाद फिर कई वर्ष बीत गये। मैं जैसे उसको भूल ही गया, लेकिन अचानक एक बार मुझे उत्तरी बर्मा के मेमियो नगर में जाना पड़ा। यह पहाड़ी प्रदेश बहुत सुन्दर है। एक दिन एक सार्वजनिक उद्यान में अकेला टहल रहा था कि सहसा कानों में आवाज़ आई, 'शरत् बाबू! ओ शरत् बाबू!' मैं घूमकर देखता हूं, यहां कोई परिचित व्यक्ति नहीं है। बस एक मुसलमान मेरी ओर बढ़ा चला आ रहा है। पास आकर उसने कहा, 'मुझे पहचान नहीं पा रहे हो क्या?"

मैंने उत्तर दिया, 'हां भाई, तुमसे कभी मिला हूं, ऐसा याद नहीं आता।'

"सुनकर वह हंस पड़ा और बोला, 'मैं वही चक्रवर्ती ब्राह्मण हूं, जिसे आपने लकड़ी गोदाम में नौकरी दिलाई थी। '

"मैंने अब ध्यान से उसकी ओर देखा । बोला, 'लेकिन तुमने यह रूप क्यों धारण किया है? उसने उत्तर दिया, 'मैंने अब मुस्लिम धर्म अपना लिया है। क्या करता शरत् बाबू ? पुरोहित का काम तो शुरू किया था, लेकिन कुछ ही समय बाद आमदनी कम हो गई। अंग्रेजी जानता नहीं था, इसलिए अच्छी नौकरी भी नहीं मिल सकी। यहां मेमियों में आने पर कई बंगाली मुसलमानों से परिचय हुआ। उन्हीं में से एक ने मुझे अपने घर में आश्रय दिया। वह मांस का व्यापार करता था और व्यापार में उसे काफी लाभ था। धीरे- धीरे में उसी के साथ काम करने लगा और एक दिन मैंने धर्म परिवर्तन भी कर लिया। अचानक वह व्यक्ति बीमार होकर मर गया। उसके कुछ दिन बाद उसकी बीवी ने मेरे साथ शादी कर ली। उसका सारा कारबार, धन-सम्पत्ति मेरी हो गई। मैं धनवान हो गया।'

मैंने बड़े आश्चर्य से उसकी कहानी सुन रहा था। पूछ बैठा, 'किन-किन जानवरों का मांस बेचते हो?"

“सहज भाव से उसने उत्तर दिया, 'यही भेड़, बकरी और गाय का सभी जाति के लोग आते हैं। सभी का ध्यान हमें रखना पड़ता है।”

मैंने फिर पूछा, 'और जानवरों को काटता कौन है?”

"उसने उत्तर दिया, 'पहले तो दूसरे लोग काटत थे। उन्हें पैसा देना पड़ता था। वह पैसा बचाने के लिए धीरे-धीरे मैंने ही यह काम करना शुरू कर दिया। केवल गाय काटते समय कुछ आदमियों की सहायता लेनी पड़ती है । "

"सुनकर मैं हतप्रभ रह गया। वह ब्राह्मण का लड़का था। उसके रक्त में ब्राह्मण की संस्कृति थी। फिर यह सब कैसे हो गया? शिक्षा, सामाजिक वातावरण और पूर्वजों से जो संस्कार हम ग्रहण करते हैं, वे क्या हमारे ऊपर केवल एक पतली चादर की तरह फैले रहते हैं कि जब मन में आया उतारकर फेंक दिया?”

यह कहकर शरत् बाबू ने पूछा, “अब तो तुम मेरा प्रश्न समझ गये न? क्या विचार है तुम्हारा?”

सुनीति बाबू ने उत्तर दिया, “इसका कोई और पहलू भी तो हो सकता है। ऐसे लोग भी तो हो सकते हैं, जो प्राण दे देंगे पर जीवहत्या नहीं करेंगे। कैसी भी बाधा आने पर अपनी संस्कृति को नहीं छोड़ेंगे। वास्तव में यह इस बात पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति अपने संस्कारों को किस मात्रा में ग्रहण करता है। लेकिन आप भी तो बताइये, आप किस निष्कर्ष पर पहुंचे थे?"

मैं भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सका था। मनुष्य की प्रवृत्ति पर बहुत कुछ निर्भर करता है, लेकिन मेरे मन में यह बात अवश्य आती है कि संस्कार ऊपरी वस्तु है। संकट का सामना होने पर मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हो जाता है।”

इस प्रकार शरत् बाबू मित्र - गोष्ठियों में समस्याएं भी उठाते थे और उनका समाधान भी खोजते थे। केवल गप्प ही नहीं हांकते थे। यही समस्याएं उनके उपन्यासों में नाना रूपों में प्रकट होती थीं। 'विलासी' गल्प में उन्होंने लिखा है-

"एक अच्छे घराने के कायस्थ पुत्र को कसाई की लड़की के साथ विवाह करके कसाई होते भी मैंने देखा है। आज वह अपने हाथ से गाय काटकर बेचता है। उसे देखकर किसकी ताकत है जो कहे कि वह किसी समय कसाई के सिवा और भी कुछ था । "

केवल गोष्ठियों में ही नहीं, अधिकारी जनों के सामने भी वे अपनी समस्याएं रखते थे। उनकी एक समस्या इसी प्रकार महात्मा गांधी तक पहुंच गई थी। अपने एक पत्र में प्रवर्तक संघ के मति बाबू से उन्होंने पूछा था, “आचार्य लोग कह गये हैं कि कला - साधना का मूलसूत्र सत्य, शिव एवं सुन्दर है। अर्थात् साधना सत्य के ऊपर प्रतिष्ठित है, सुन्दर के ऊपर प्रतिष्ठित है और उसका फल होता है कल्याण । लेकिन जो वैज्ञानिक हैं- (तत्त्वज्ञानी नहीं, साधारण अर्थों में वैज्ञानिक) उनका एकमात्र मन्त्र है 'सत्य' साधना का फल सुन्दर- असुन्दर, कल्याण-अकल्याण कैसा भी हो, उन्हें कोई गरज नहीं हो तो अच्छा, न हो तो कोई अपराध नहीं।

“बहुत दिन से साहित्य सेवा का व्रती होने के कारण, निरन्तर अनुभव किया है कि सत्य एवं सुन्दर में पद-पद पर विरोध होता है। जगत् में जो घटनाएं सत्य हैं, हो सकता है। साहित्य में वे सुन्दर न हों, एवं जो सुन्दर हैं वे साहित्य में सर्वथा मिथ्या हो सकती हैं। जिसको मैं सत्य कहकर जानता हूं, उसको रूप देने पर देखता हूं कि वह वीभत्स हो उठा है। असत्य का वर्जन करने पर भी उसका सुन्दर रूप नहीं दिखाई देता । इसी प्रकार मंगल और अमंगल की बात है......। मैं जानना चाहता हूं कि सत्य यदि सुन्दर का परिपन्थी है, कल्याण-अकल्याण का प्रश्न गौण हो जाता है, तो साहित्य-साधना में इस समस्या की मीमांसा किस मार्ग से हो सकती है?"

मति बाबू के संबंध गांधीजी से काफी घनिष्ठ थे। उन्होंने शरत् बाबू के प्रश्न का स्वयं कोई उत्तर नहीं दिया। उनकी चिट्ठी गांधीजी को भेज दी।

गांधीजी ने इस पत्र का उत्तर देते हुए लिखा-

"जहां तक शरत् बाबू के पत्र क संबंध है, हमेशा यह राय रही हे कि वास्तविक सौंदर्य और सत्य में कोई विरोध नहीं है। इसलिए सत्य सर्वदा सुन्दर है। इसलिये मेरी राय में सत्य ही सम्पूर्ण कला है। सत्यविहीन कला कला नहीं है और सत्यविहीन सौन्दर्य एकदम कुरूपता है। इस संसार में बहुत-सी कुरूप वस्तुएं सुन्दर मान ली जाती हैं, यह भी सत्य है। यह इसीलिए होता है क्योंकि हम हमेशा सत्य को महत्त्व नहीं देते।”

लिखना कम हो गया था, लेकिन चिन्तन से उन्हें मुक्ति नहीं मिली थी । अनेक प्रश्न उन्हें घेरे रहते थे। उन दिनों यह प्रश्न बहुत तेजी से उभर रहा था कि क्यों कहानी - उपन्यास ही अधिक लिखे जाते हैं? ज्ञान-विज्ञान को लेकर दूसरा साहित्य क्यों प्रकाशित नहीं होता ?

नगर पाठकचक्र की बैठक के अध्यक्ष पद से भाषण देते हुए उन्होंने स्वयं इस समस्या का समाधान करने की चेष्टा की है। उन्होंने कहा, “कहानी - उपन्यास लिखनेवालों के विरुद्ध अभियोग करने से क्या होगा? धन के अभाव में कितनी बड़ी-बड़ी प्रतिभाएं नष्ट हो जाती हैं, इसकी खबर कौन रखता है? जवानी में मेरी एक कल्पना थी। आशा की थी कि 'द्वादश मूल्य' नाम देकर एक पुस्तकमाला तैयार करूंगा। जैसे, सत्य का मूल्य, मिध्या का मूल्य, दुख का मूल्य, नर का मूल्य, नारी का मूल्य, इसी तरह के मूल्यों का विचार उसमें होगा। उसी की भूमिका स्वरूप मैंने 'नारी का मूल्य' लिखा था। वह बहुत दिन तक अप्रकाशित पड़ा रहा। बाद में 'यमुना' पत्रिका में प्रकाशित अवश्य हुआ, किन्तु फिर वे 'द्वादश मूल्य' नहीं लिख सका। उसका कारण धन का अभाव ही था। मेरी ज़मींदारी नहीं है। रुपये नहीं थे। यहां तक कि उन दिनों दो बेला भोजन पाने के लिए भी पैसे नहीं थे। प्रकाशकों ने उपदेश दिया - यह सब नहीं चलेगा। तुम इसकी अपेक्षा किसी तरह जोड़- जाड़कर दो-चार कहानियां लिख दो। उनकी हजार कापियां बिक जाएंगी ।...... हमारी जाति की विशेषता कहिए या दुर्भाग्य ही कहिए, पुस्तक खरीदकर हम लेखक की सहायता नहीं करते। जो धनी हैं, खरीद सकते हैं, वे भी नहीं खरीदते बल्कि अभियोग करते हैं कि कहानी-उपन्यास लिखकर क्या होगा? अथच आज अन्तःपुर में जो थोडा बहुत स्त्री- शिक्षा का प्रचार हुआ है, वह इन कहानी- उपन्यासों के द्वारा.....। हमारे बड़े लोग यदि कम से कम सामाजिक कर्तव्य समझकर भी पुस्तकें खरीदें, अर्थात् जिससे देश के लेखकों की सहायता हो ऐसी चेष्टा को तो उससे साहित्य की उन्नति भी होगी। लेखक लोग उत्साह पाकर पेट भर खाने को पावेंगे और उन्हें खुद तरह-तरह की पुस्तकें पढ़ने का अवसर मिलेगा। इसके फलस्वरूप उनके ज्ञान की वृद्धि होगी। तभी तो वे ज्ञानगर्भ पुस्तकें लिख सकेंगे।"

उनके पास आनेवाले साहित्यिकों में तरुणों की संख्या काफी रहती थी। वे उनको प्यार भी खूब 'करते थे। बंगीय साहित्य परिषद ने अभी तक उनको अपना सदस्य नहीं बनाया था। जब-जब भी उन्हें विशिष्ट सदस्य बनाने का प्रश्न उठता, तब-तब ही प्राचीन दल वाले उस प्रस्ताव का घोर विरोध करते। उन्होंने उन्हें दुर्नीतिमूलक साहित्य की रचना करने वाला घोषित कर दिया था। ऐसे व्यक्ति को परिषद का सभ्य कैसे चुना जा सकता है? लेकिन तरुणों ने हर युग में विद्रोह किया है। उस दिन भी उन्होंने विद्रोह कर दिया और उनको परिषद का विशिष्ट सभ्य निर्वाचित कराकर ही रहे। गृहप्रवेश के दो महीने बाद उनका जन्मदिन आया। उस दिन गौरीनाथ मुकर्जी के घर पर विशेष अनुष्ठान किया गया। एक उपहार पुस्तिका उन्हें भेंट की गई और प्रशस्ति उच्चारण किया स्वयं आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय ने ।

यद्यपि कलकत्ता में रहने में अनेक सुविधाएं थी, लेकिन ऐसा लगता है वह भी उन्हें पूरी तरह बांध नहीं सका। बहुत जल्दी वे नागरिक जीवन से भी ऊब गये। इसीलिए अवसर पाते ही वे गांव चले जाते थे। जैसे वह घर उनको पुकारता रहता हो। जैसे एकान्तप्रियता और अपने में खो जाने की प्रवृत्ति उन्हें यहां से धकेलती रहती हो। बारीन्द्रकुमार घोष को लिखे एक पत्र से उनकी यह मनःस्थिति प्रकट होती है- देश का घर छोड़कर मैं कभी शहर में आ बसूंगा अर्थात् गांववासी होने के बदले नागरिक बनूंगा, यह काम तुम्हारे विवाह के समान ही है। (बारीन्द्रकुमार ने 53 वर्ष की आयु में कई बच्चों की मां एक विधवा से विवाह किया था। उसी ओर शरत् बाबू का इशारा है।) मैं उसके लिए आसानी से तैयार नहीं हो सकता। चाहे मुझे कितना ही उत्साहित किया जाए। यहां रोज दाढ़ी बनानी पड़ती है। यह कितनी बड़ी यंत्रणा का व्यापार है! मैं सोच भी नहीं सकता।

“बहुत दिनों से तुमसे भेंट नहीं हुई। किसी दिन दोपहर को आओ। उस समय भीड़ कुछ कम होती है। चार-पांच दिन और यहां हूं। उसके बाद भाग जाऊंगा और बहुत दिनों तक नहीं लौटूंगा।" 

उनके जीवन के ये अन्तिम तीन साढ़े तीन वर्ष कलकत्ता और सामताबेड़ के बीच भागते-दौड़ते ही गुजरे। उनका जन्मदिन प्रतिवर्ष मनाया जाता था, पर इस वर्ष उसका महत्त्व और भी बढ़ गया। उनके जीवन के साठ वर्ष पूरे हो रहे थे। इसीलिए स्वयं गुरुदेव उत्सुक थे। उन्होंने शरत् बाबू को लिखा, “अगले रविवार को तुम्हारी प्रौढ़ आयु के आरम्भ होने के उपलक्ष्य में तुम्हारा अभिनन्दन करने का संकल्प किया है। उस दिन आशुतोष कालेज भवानीपुर के हाल में एक नाट्यगीत का अभिनय करने का आयोजन है। वहीं तुम्हारा सम्मान होगा। और कहीं, और किसी समय ऐसा करना सम्भव नहीं हुआ।

मै कल बृहस्पतिवार दोपहर बाद कलकत्ता पहुंचूंगा । तब यदि तुम्हारी सम्मति मिल गई तो बात पक्की कर दूंगा।”

उनकी षष्टिपूर्ति पर रविवासर' का विशेष उत्सव गौरीपुर दमदम में श्री सुशील मुखोपाध्याय की वाटिका 'अलका' में सम्पन्न हो चुका था । कविगुरु उसमें नहीं आ सके थे, इसीलिए उन्होंने यह विशेष उत्सव आयोजित करने का प्रस्ताव किया। उनके जन्मदिन के दो सप्ताह बाद यह सभा 'रविवासर' के तत्वावधान में 'प्रफुल्ल कानन' बेलियाघाट में हुई। उस दिन नौ बजे से ही सदस्य आने लगे थे। कविगुरु जलपान के बाद साढ़े दस बजे पधारे। जलधर सेन ने उनका स्वागत किया। रवीन्द्रनाथ और शरत्चन्द्र, साहित्य के सूर्य और चन्द्र, साथ-साथ बैठे। उस आनन्द और उल्लास के बीच कवि ने अपना आशीर्वाद पढ़ा-

“कल्याणायेष शरत्चन्द्र, तुम जीवन के निर्दिष्ट पथ पर प्रायः दो बटा तीन उत्तीर्ण हो गये हो। इस उपलक्ष्य में तुमको अभिनंदित करने के लिए तुम्हारे बंधुओं ने यह आमन्त्रण सभा बुलाई है। वय बढती है। आयु का क्षय होता है। उसको लेकर आनन्द मनाने का कोई कारण नहीं है। आनन्द इसलिए मानता हूं क्योंकि देखता हूं कि जीवन की परिणति के साथ-साथ जीवन के दान के परिमाण का क्षय नहीं है। तुम्हारे साहित्य रस- सत्र का निमन्त्रण आज भी उन्मुक्त है। अकृपण दाक्षिण्य से भर उठा है तुम्हारा परिवेषण पात्र इसलिए जयध्वनी करने को तुम्हारे देशवासो तुम्हारे द्वार पर आये हैं।

“आज शरत्चन्द्र के अभिनन्दन का मूल्य यह है कि देश के लोग केवल उनके दान की मनोहारिता का भोग ही नहीं करते, उसकी अक्षयता को भी अनुभव करते हैं जिस रचना में प्राण होते है, विरोध होने पर भी उसके यश का मूल्य उसके वास्तविक मूल्य को बढ़ा देता है। यह विरोधी काम जिनका है, वे दूसरे मार्ग के भक्त हैं। जैसे रावण राम का भयंकर भक्त है।

“ज्योतिषी असीम आकाश में डूबकर नाना रश्मियों के समूहों से निर्मित नाना जगतों का आविष्कार करता है, जो अनेक कक्षाओं के मार्ग में बड़ी तेजी से उतर रहे है। शरत्चन्द्र की दृष्टि बंगाली हृदय के रहस्य में डूब गई। सुख में, दुख में, मिलन विछोह में संगठित विचित्र शक्ति का उन्होंने इस प्रकार परिचय दिया है, जिससे बंगाली अपने को प्रत्यक्ष पहचान सके हैं........दूसरे लेखकों ने बहुतों की प्रशंसा पाई है, किन्तु सार्वजनिक हृदय का ऐसा आतिथ्य नहीं पाया। यह अद्भुत वस्तु नहीं है, यह प्यार है। अनायास ही जो प्रचुर सफलता उन्होंने पाई है, इससे वे मेरे ईर्ष्या-भाजन हो गये हैं।

“आज शरत्चन्द्र के अभिनन्दन में विशेष गर्व अनुभव करता यदि मैं उनको यह कह सकता कि तुम नितान्त मेरे द्वारा अविकृत हो । किन्तु उन्होंने किसी के हस्ताक्षरित परिचय- पत्र की अपेक्षा नहीं की। आज उनका अभिनन्दन देश के घर-घर में स्वतः ही उच्छ्वासित हुआ है।..... उन्होंने बंगाली वेदना के केन्द्र में अपनी वाणी का स्पन्दन पैदा किया है। साहित्य में उपदेष्टा से स्रष्टा का आसन बहुत ऊंचा है। चिन्ताशक्ति का वितर्क नहीं, कल्पनाशक्ति की पूर्ण दृष्टि ही साहित्य में शाश्वत मर्यादा के पद पर प्रतिष्ठित है । कवि के आसन से मैं विशेष रूप से उसी स्रष्टा, शरत्चन्द्र को माल्यार्पण करता हूं। वे शतायु होकर बंगला साहित्य को समृद्ध करें! अपने पाठकों को मनुष्य को सत्य रूप में देखने की शिक्षा दें। अपने दोष-गुणों, अच्छे-बुरे के साथ मनुष्य को प्रकाशित करें। चमत्कारजनक, शिक्षाजनक किसी दृष्टान्त को नहीं, अपनी स्वच्छ प्रांजल भाषा में मनुष्य की चिरन्तन अभिज्ञता को प्रतिष्ठित करें......।”

इस लिखित भाषण के बाद आलोचना के प्रसंग मे कवि ने फिर कहा, “अपने बचपन में बंकिमचन्द्र के अष्णुदय में बंगला साहित्य में मैंने एक नये भाव का प्लावन देखा था। बंकिमचन्द्र भगीरथ के समान जिस नये साहित्य को लेकर आये, उसने बंगला देश के सर्वसाधारण के अन्तर को छुआ। उन्होंने उनको सादर अपना कहकर ग्रहण किया। केवल उस समय के तरुण और युवकों में ही नहीं, अन्तःपुर तक में बांकेम-साहित्य की नयी हवा प्रवेश कर गई थी। विरोधियों ने निन्दा और प्रतिवाद करने में कोई कसर नहीं रखी, क्योंकि बंकिम साहित्य उस सबको लीलकर अपने को प्रतिष्ठित कर सका.......। | अपनी वृद्धावस्था में शरत्चन्द्र के अभुदय में मैंने फिर वही व्यापार देखा । शरत्चन्द्र कथा - साहित्य में एक ऐसी वस्तु लेकर आए जिसने बंगला देश के सर्व साधारण के अन्तर को स्पर्श किया। उसके निगूढ़तम वेदना के स्तर पर आघात किया । इसीलिए तो बंगला देश के सभी लोगों ने शरत्चन्द्र के साहित्य को अपना कहकर वरण किया। शरत्चन्द्र ने अपनी प्रतिभा के बल पर ही बंगला देश के हृदय को जीत लिया है। उन्हें किसी का प्रमाण-पत्र लेने की आवश्यकता नहीं पड़ी।”

उस दिन शरत् बाबू कवि के इस आशीर्वाद से बहुत प्रसन्न हुए । स्वीकार किया कि कवि ने अकृपण भाषा में दिल खोलकर मंगल कामनाएं की है। उनके मन में अब किसी प्रकार का क्षोभ नहीं रह गया। इससे अधिक और प्रशंसा उन्हें मिलती भी क्या, और कवि भी इससे सुन्दर शब्द और कहां से लाते ?

इस उत्सव से लगभग तीन माह पूर्व रवीन्द्रनाथ 'रविवासर' की एक और सभा में आये थे। शरत्चन्द्र के लिए उस सभा का महत्व इसीलिए था कि वह उनके कलकत्ता वाले मकान पर हुई थी। कवि गिरिजाकुमार बसु और अपनी भतीजी के साथ शरत् बाबू स्वयं कवि को लेने गये थे। कवि के आग्रह पर उनके आन की सूचना पहले से ही प्रचारित नही की गई थी। जब वे आये तो सदस्यों में उत्साह की सीमा नहीं थी। स्वयं कवि भी अनेक परिचितों और तरुण साहित्यकारों को एक स्थान पर देखकर बहुत प्रसन्न हुए। एक दीर्घ भाषण में उन्होंने अपनी और अपने साहित्य कई रचनाप्रक्रिया की चर्चा की। 'बलाका' से 'छवि' कविता का पाठ किया- तूमि कि केवलि छवि शुधु पटे लिखा ।”

उन्होंने 'रविवासर' में अधिनायक का पद भी ग्रहण करना स्वीकार किया ।

रत्ने मर्मस्पर्शी बातों द्वारा एक बार फिर कविगुरु में अपनी श्रद्धा प्रकट की। सभा रात में देर तक चलती रही, पर कवि चले गये। इन दिनों मान अभिमान सब समाप्त हो गया था। दोनों एक-दूसरे के बहुत पास आ गये थे।

अगले वर्ष उनकी बासठवीं जन्म जयन्ती जितने स्थानों पर मनाई गई, उतने स्थानों पर पहले कभी नहीं मनाई गई थी। इधर कई वर्षों से आकाशवाणी के कलकत्ता केन्द्र से 'शरत्-शर्वरी' नाम से एक आयोजन किया जाता था। इस वर्ष यह आयोजन असामान्य सफलता के साथ सम्पन्न हुआ। इस अधिवेशन में उनके अनेक प्रशंसक और प्रियजन उपस्थित थे. नाटौर के महाराजा, कासिम बाजार के महाराजा, रायबहादुर जलधर सेन, रायबहादुर एन० के० सेन, सर्वश्री कालिदास राय, गिरिजाकुमार बसु, काजी नजरुल इस्ताम, वसन्तकुमार चट्टोपाध्याय, नरेन्द्र देव, मुकुन्दचन्द्र देव, हेमेन्द्रकुमार राय, अविनाशचन्द्र घोषाल और असमंजस मुखोपाध्याय इत्यादि । शरत्चन्द्र की कहानी 'सती' का नाट्य रूपान्तर प्रस्तुत किया गया जो अत्यन्त सफल रहा।

सभा में उपस्थित सभी व्यक्तियों ने अपने अन्तर्तम से उनके दीर्घ जीवन की कामना की, लेकिन हेमेन्द्रकुमार राय ने मानो भविष्य को पहचान लिया था। उन्होंने कहा, “मैं मनुष्य शरत्चन्द्र के दीर्घ जीवन की कामना नहीं करता। मैं साहित्यिक शरत्चन्द्र के दीर्घ जीवन की कामना करता हूं।”

इन कामनाओं का हृदयस्पर्शी भाषा में उत्तर देते हुए शरत्चन्द्र ने कहा, बासठवें वर्ष में प्रवेश करते हुए अपनी जन्म जयन्ती के उपलब्ध में सबसे आशीर्वाद चाहने से पहले रवीन्द्रनाथको, जो रोगशय्या पर हैं, प्रणाम करता हूं। इस संसार में साहित्य साधना के लिए उनका आशीर्वाद केवल मेरी ही नही हर साहित्यकार की सम्पदा है। वही आशीर्वाद आज के दिन मैंने मांग लिया है। अपनी साहित्य साधना के बारे में अपने मुंह से कुछ नही कहा जा सकता। केवल इतना ही कह सकता हूं कि बहुत से दुखों के बीच से होकर यह साधना धीरे-धीरे आगे बड़ी है। किसी दिन यह नहीं सोचा था कि मैं साहित्यिक हो सकूंगा या किसी दिन मेरी कोई पुस्तक छपेगी। जो कुछ लिखा वह संकोच और दुविधा के कारण दूसरों के नाम से लिखा । उसका कोई मूल्य है, यह सोच भी नहीं सका। उसके बाद बहुत दिनों तक, जान पड़ता है पन्द्रह-सोलह साल तक, साहित्य चर्चा के पास भी नहीं फटका | भूलकर भी मन में नहीं होता था कि किसी दिन लिखूंगा। उसके बाद नाना कारणों से फिर यह जीवन .......। शायद यही मेरा सच्चा जीवन है। जान पड़ता है अन्ततः भगवान ने मेरे लिए यही जीवन निर्दिष्ट कर रखा था, इसलिए इच्छा न होने पर भी घूम-फिरकर फिर इसी के बीच में मुझे इकसठ वर्ष काटने पड़े। आप लोगों के बीच में बहुत दिन रहूं या न रहूं यह बात आपको बीच-बीच में याद आयेगी कि वे कह गये थे, अनेक दुखों के बीच में उनकी साहित्य-साधना धीरे-धीरे बाधाओं को ठेलकर चलती रही थी।"

उन्होंने हेमेन्द्रकुमार राय के भाषण का समर्थन करते हुए यह भी कहा था कि दीर्घ जीवन की कामना तभी अच्छी है जब स्वास्थ्य और कर्मशक्ति अटूट हो। देश की सेवा करने की अपनी क्षमता हो । यदि ऐसा नहीं होता, यदि रोगी और पंगु होकर जीना पड़ता है तो वह जीवन किसी के लिए काम्य नहीं हो सकता, विशेषकर साहित्यिक के लिए तो कभी नहीं ।

जैसे वे समझ गये थे कि अब उस पार से राजदूत निमन्त्रण लेकर आने ही वाला है, क्योंकि स्काटिश चर्च कालेज की बांग्ला साहित्य समिति के अभिनन्दन के उत्तर में वे बोल, “शायद 31 भाद्र फिर नहीं आयेगा, इसलिए आना पड़ा। तुम्हारी पुकार की उपेक्षा नहीं कर सका। इकसठ वर्ष बीत गये। कुछ नही कर सका। नहीं जानता बासठवां कैसे बीतेगा। यदि 31 भाद्र का दिन फिर आया तो निश्चय ही तुम्हारे पास आऊंगा।”

एक और स्थान पर उन्होंने कहा, “31 भाद्र प्रतिवर्ष बार-बार आएगा, किन्तु एक दिन मैं नहीं होऊंगा। उस दिन यह कथा किसी के मन में व्यथा के साथ याद आएगी, कोई दूसरे कामों में लगा होने से भूल जाएगा। आज इसीलिए कृतज चित्त से सबको याद करता हूं। फिर यदि 31 भाद्र आएगा तो आपसे मिलना होगा, नहीं तो विदा ।"

और सचमुच यह विदा थी, क्योंकि फिर 31 भाद्र तो आया, लेकिन वे नहीं रहे थे।

इससे लगभग एक वर्ष पूर्व  ढाका विश्वविद्यालय ने उन्हें डी० लिट० की उपाधि प्रदान कर सम्मानित किया। उन्हीं के साथ सम्मानित किये गये थे आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय और सर यदुनाथ सरकार । सदा की तरह इस बार भी एक पक्ष ने मुक्त मन से उनका समर्थन किया तो दूसरे दल ने उतना ही प्रबल विरोध भी । लेकिन अन्ततः डा० रमेशचन्द्र मजूमदार विश्वविद्यालय के अधिकारियों को कायल करने में सफल हो गये। जब वे यह उपाधि ग्रहण करने के लिए ढाका गये तो वहां उनका आतिथ्य करने की होड़ सी लग गई। मुस्लिम साहित्य सम्मेलन के दसवें वार्षिक अधिवेशन  की उन्होंने अध्यक्षता की। इसके अतिरिक्त विश्वविद्यालय की विभिन्न छात्र समितियां, कमरुन्निसा गर्ल्स कालेज, मिलन परिषद, शान्ति साहित्य सम्मिलनी ने भी उनका अभिनन्दन किया। बारी-बारी वे अपने कई मित्रों के घर ठहरे। अध्यापक चारुचन्द्र बन्दोपाध्याय के घर पर बंकिम साहित्य को लेकर श्री मोहितलाल मजूमदार से उनकी बहुत लम्बी चर्चा हुई। उन्होंने अनेक बार बंकिम- साहित्य का विरोध किया है। उस विरोध को न्यायोचित ठहराते हुए उन्होंने देवानन्दपुर की बाल विधवा नीरू दीदी की कथा सुनाई थी। उस पर दुख कातर नारी का बत्तीस वर्ष की आयु में पदस्खलन हो गया था। तब धर्मधुरीण समाज ने उसे तिल-तिलकर मरने को विवश कर दिया था। यह कथा कहते-कहते उनका गला भर आया। कुछ देर वे चुप बैठे रहे। फिर धीरे-धीरे बोले, “मनुष्य में जो देवता है, इसी तरह से हम उसका अपमान करते हैं। रोहिणी का कलंक और उसकी सज़ा इसी तरह की है। एक ऐसे नारी चरित्र की न जाने कितनी दुर्गति बंकिमचन्द्र ने की है। ”

लेकिन वे बंकिमचन्द्र की सीमाएं न समझते हों, यह बात नहीं। पर उनकी शिकायत यही थी कि बंकिमचन्द्र रवीन्द्रनाथ की तरह युग के संस्कारों से ऊपर उठकर 'आंख की किरकिरी' क्यों न लिख सके? यहीं वे भूलते थे। हर व्यक्ति की क्षमता होती है और अक्षमता अपराध नहीं है। यह बात स्वयं उन्होंने बार-बार घोषित की है। इसके अतिरिक्त बंकिमचन्द्र ने भी अपने युग से विद्रोह किया था। एक सीमा पर आकर वे अक्षम हो उठे या ऐसे होते दिखाई दिये तो क्या स्वयं शरत् भी उसी अक्षमता का शिकार नहीं हुए थे? युग को देखते हुए बंकिमचन्द्र प्रगतिशील ही थे। उन्होंने गतानुगतिकता के स्थान पर बुद्धिवाद को मानने का प्रयत्न किया है। उन्होंने लिखा है, “तीन-चार हजार वर्ष पहले भारतवर्ष के लिए जो कायदे कानून बने थे आज उनको हरफ-ब-हरफ मानकर चलना असम्भव है।"

इसी वर्ष  वे शान्तिपुर में साहित्य सम्मेलन के बारहवें अधिवेशन के मूल सभापति हुए। उन्हें सम्मान मिलना ही चाहिए था। मिल भी रहा था, परन्तु जिस प्रकार वे कभी- कभी अपनी आलोचना सुनकर उद्विग्न हो उठते थे उसी प्रकार अपनी प्रशंसा सुनकर भी उन्हें अच्छा नहीं लगता था। उस दिन एक युवक ने आकर घोषणा की कि वे सबसे अच्छा •लिखते हैं। आरामकुर्सी पर लेटे वे हुक्का गुडूगुडाते रहे और बीच-बीच में हां-हूं करते रहे। युवक ने अन्त में कहा 'बहुत से विदेशी उपन्यास पढे हैं, पर आपकी रचनाओं में जो दर्द है वह कहीं नहीं मिला। उनकी रचनाएं पढकर आंखें भीगतीं ही नही । आपकी रचनाएं पढ़कर कितना रोया हू!”

शरतचन्द्र एकदम बोल उठे, “ना, ना, इतना रोना ठीक नहीं आंखें खराब हो जाएंगी। बीच-बीच में हास्य कथाएं पढ़ा करो।”

उसके बाद वह युवक क्षमा मांगकर चला गया। वे बोले, “अपनी प्रशंसा सुनते-सुनते तम्बाकू तक खराब हो गया।"

एक और दिन एक और युवक ने घोषणा की, “आपकी कहानी 'सती' पढ़ी। ऐसी कहानी आप ही लिख सकते हैं। बंगला साहित्य में ऐसी कहानी दुर्लभ है।” शरतचन्द्र ने पूछा, “रवीन्द्रनाथ की कहानियां पढ़ी हैं?”

पढ़ी हैं, किन्तु वे इतनी अच्छी नहीं हैं। '

'अच्छी तरह पढ़ो। पाओगे कि ऐसी कहानियां विश्व साहित्य में दुर्लभ हैं।”

प्रशंसा और निन्दा शरत्चन्द्र जैसे व्यक्ति के जीवन में सहज सुलभ हैं। विशेषकर निन्दा उनके लिए कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। लेकिन जो मृत्युलोक के द्वार पर पहुंच रहे होते हैं, उनके लिए इसका कोई विशेष अर्थ नहीं रह जाता। उनके साथ भी यही हुआ। मृत्यु जब द्वार खटाखटा रही थी, तब प्रबोधकुमार सान्याल ने उन पर तीव्र आक्रमण किया। कुछ वर्ष पूर्व 18 इन्हीं प्रबोधकुमार ने शरत्-साहित्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। उनके सहज चरित्र-चित्रण, उनकी विपुल अभिज्ञता, उनकी मधुर- कोमल भाषा और शब्द- निर्वाचन की दक्षता पर जैसे वे मुग्ध हो उठे थे। उन्हीं प्रबोधकुमार ने अब न केवल उनके साहित्य की कटु आलोचना की, बल्कि उनके व्यक्तित्व पर भी गहरी चोट की। कहा, “शरत् बाबू के पास कहने का ढंग भाव है। भविष्य के लिए कोई सन्देश उनके पास नहीं है। उनके वचन और व्यवहार, चरित्र और आचरण में कोई संगति नहीं हैं।”

इस प्रकार के उनके दो लेख 'श्रीहर्ष' पत्रिका में प्रकाशित हुए। जैसे तूफान आ गया हो। देखते-देखते पक्ष और विपक्ष में प्रतिवादों की बाढ़ आ गई। भरतचन्द के मित्रों ने कहा कि यह सब ईर्ष्या का परिणाम है। प्रबोध बाबू के एक समर्थक ने तो शरत्चन्द्र के एक प्रशंसक के नाम से ही लेख लिख डाला। लिखा- बंकिम, माइकेल और रवीन्द्र ने जिस बंग भाषा की सेवा की, उसके पवित्र अंगों में बर्मा में पले आवारा शरत्चन्द्र की लेखनी ने भयंकर घाव कर दिये हैं। उससे उसका सारा शरीर गल उठा है।”

वे लेखक बन्धु शरत् बाबू के पास पहुंचे। बोले, “मैं इसका प्रतिवाद करना चाहता हूं।” शरत्चन्द्र ने उत्तर दिया, "न, यह सब न करो। मैं यह सब नहीं सह सकता। मुझे लेकर अब यह वाद-प्रतिवाद क्यों? मेरी बात सुनो, चुप होकर बैठ जाओ।”

प्रबोधकुमार ने यह भी लिखा था कि शरत्चन्द्र ने विदेशी भावधारा दिलीपकुमार राय से ली है, राजनीति श्री किरणशंकर राय से सीखी है और व्याकरण सीखा है कालिदास राय से।

कालिदास राय ने इसके प्रतिवाद में एक लेख लिखा और उसे लेकर शरत् बाबू के पास आये। उन्होंने इस लेख को सुना। उसकी प्रशंसा की और फिर उसे अपने हाथ में लेकर टुकड़े-टुकड़े कर डाला। इतना ही नहीं उन टुकड़ों को जलती हुई चिलम पर रख दिया। क्षण-भर में सब कुछ राख हो गया। बोले, “कालिदास, युवकों पर यदि तीव्र आक्रमण किया जाए तो उसका कुछ परिणाम निकल सकता है। -वे आघात सह सकते हैं, सुधार भी कर सकते हैं, लेकिन मेरे जैसे मृत्युपथ के राही पर ऐसे आक्रमण करने से क्या लाभ? दो दिन बाद ही पछताना होगा। मेरे तो दिन बीत गए हैं। जाने से पहले अब किसी के साथ विरोध करने की इच्छा नहीं है। जो जिसकी इच्छा हो कहे, तुम लोग कोई प्रतिवाद मत करो। 

प्रबोधकुमार सहसा इतने कटु क्यों हो उठे थे? क्या इसका एकमात्र कारण यौवन का आवेश और पीड़ितों का संघर्ष ही था? उनके नाम शरत् बाबू के एक पत्र  से पता लगता है कि उन्होंने शरत् बाबू से अपनी पुस्तक 'महाप्रस्थानेरे पथ' की भूमिका लिखने की प्रार्थना की थी लेकिन, किसी भी कारण से हो, शरत् बाबू ऐसा नहीं कर सके थे। क्या प्रबोध बाबू की असंयत कटुता का यह एक कारण नहीं हो सकता?

ताल्स्ताय जीवन-भर अन्याय के विरुद्ध और अपने विरुद्ध लड़ते रहे, पर अन्त में उन्होंने कहा, “आप कल्पना नहीं कर सकते कि जैसे-जैसे मनुष्य बुढ़ापे अर्थात् मृत्यु के पास आता है वैसे-वैसे उसका जीवन बदलने लगता है। अब मुझे सबसे अच्छा यही लगता है कि ज़ार हो या भिखारी हो, सबके साथ स्नेह का व्यवहार करूं।”

शरत्चन्द्र की आन्तरिक इच्छा भी यही थी । मृत्यु से लगभग छ: माह पूर्व ऐसे ही एक आक्रमण के उत्तर में उन्होंने कहा, “जाने का दिन आ गया है। नालिश करके और अशान्ति मोल लेना नहीं चाहता - यह संकल्प कर रखा है। जानता हूं, जो मुझे सचमुच प्यार करते हैं उन्हें दुख होगा, पर सहन करने के अतिरिक्त प्रतिकार का और मार्ग भी तो नहीं है । "

सचमुच उनके पथ का भी अंत आ पहुंचा था। बहुत दिन पहले से ही सृजनशक्ति जैसे प्राणहीन हो चुकी थी। नौका मानो डांडों के बल से नहीं, रस्सी के बल से खींची जा रही हो । उस दिन हेमेन्द्र उनसे लेख मांगने के लिए आये तो बड़े दुख से उन्होंने कहा, मै और लेख न दे सकूंगा। सिर में बेहद पीड़ा है। कलम पकड़ना असम्भव है।”

मेन्द्र ने फिर प्रार्थना की तो वे कातर हो उठे। बोले, “विश्वास करो हेमेन्द्र, मैं और नहीं लिख सकता। तुम मेरे शरीर की अवस्था नहीं जानते। मुझसे लिखा ही नहीं जा सकता।

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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भूमिका

21 अगस्त 2023
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संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

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भूमिका : पहले संस्करण की

21 अगस्त 2023
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कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

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तीसरे संस्करण की भूमिका

21 अगस्त 2023
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लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

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" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

21 अगस्त 2023
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किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

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अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

21 अगस्त 2023
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भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

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अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
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नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

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अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
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मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

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अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
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शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

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अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
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तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

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अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
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शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

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अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
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इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

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अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

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अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
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शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

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अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
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उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

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अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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