रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना ही हो तो 'प्रवासी' को छोड़कर और किसी पत्र में उसकी कोई भी रचना बिना अनुमति के न छापी जाए।” अचानक सुरेन्द्रनाथ की एक ऐसे व्यक्ति से भेंट हो गई जो इस काम में सहायक हो सकता था। भागलपुर के मुंसिफ श्री ज्ञानेन्द्र कुमार बंदोपाध्याय साहित्य रसिक व्यक्ति थे। 'प्रवासी' के संपादक श्री रामानन्द चट्टोपाध्याय से उनका परिचय भी था। वे सुरेन्द्रनाथ की 'साहित्य संहार सभा' नाम की संस्था के सदस्य बन गए थे। उस सभा में शरत्चन्द्र की रचनाएं पढ़ी जाती थीं । ज्ञानेन्द्र बाबू को ये रचनाएं बहुत अच्छी लगीं। 'प्रवासी' में छपवाने का वायदा करके उन्होंने 'बड़ी दीदी' की नकल प्राप्त कर ली।
उन्हीं दिनों श्रीमती सरला देवी चौधरानी 'भारती' निकालती थीं। लेकिन वह स्वयं अधिकतर लाहौर में रहती थीं। इसलिए प्रकाशन समय पर नहीं हो पाता था। उन्हें एक सम्पादक की आवश्यकता थी। संयोग से सौरिन्द्रमोहन मुखोपाध्याय को इस काम के लिए चुना गया। वह शरत् के मित्र थे। 'बड़ी दीदी' की एक प्रति उनके पास भी थी। उन्होंने यह प्रति सरला देवी को पढ़ने के लिए दी। पता नहीं ज्ञानेन्द्र बाबू ने उसे 'प्रवासी' में छपवाने का प्रबन्ध किया या नहीं पर सरला देवी से उसकी प्रशंसा अवश्य की थी। पढ़कर वे मुग्ध हो उठीं। बोलीं, "चमत्कार ! इसे 'भारती' में छपने के लिए दे दो । तीन-चार संख्याओं में छापो और शुरू में लेखक का नाम मत दो। लोग समझेंगे कि यह रचना रवीन्द्रनाथ की है और इस प्रकार पत्रिका के देरी से प्रकाशित होने की बात वे भूल जायेंगे।”
सौरीन्द्रमोहन ने कहा, “छापने से पहले लेखक की अनुमति लेनी होगी।”
सरला देवी बोलीं, “तो चिट्ठी लिखकर अनुमति ले लो।”
सौरीन्द्रमोहन ने कहा, “वह बर्मा में हैं लेकिन कहां हैं इसका कोई ठिकाना नहीं। बहुत देर से मैंने उनकी कोई खबर नहीं पाई। ”
सरला देवी बोलीं, “जहां भी होंगे छपने पर किसी न किसी से इसकी चर्चा सुन ही लेंगे। क्या बिना अनुमति के छापने का दायित्व तुम नहीं ले सकते?"
सौरीन्द्रमोहन गर्व से भर उठे। बोले, “क्यों नहीं ले सकता! वह प्रचार के भूखे नहीं हैं। कहते हैं लिखने में मुझे आनन्द आता है। तुम पढ़ो वही काफी है। छापने का क्या काम ? तुम्हारे अतिरिक्त मेरी कहानी और कौन पढ़ेगा ?”
सरला देवी बोलीं, “ऐसे शक्तिशाली लेखक का इस प्रकार शर्मीला होना अच्छा नही । तुम यह उत्तरदायित्व लो और छाप दो।”
सौरीन्द्रमोहन ने तुरन्त तीन संख्याओं में छापने के लिए तीन भाग करके कहानी प्रेस में दी। लेकिन इसी बीच में अन्तिम भाग न जाने कहां खो गया। अब क्या हो? मुकर्जी महाशय ने भागलपुर विभूतिभूषण भट्ट को लिखा । उन्होंने उत्तर दिया कि शरत् की सभी रचनाएं सुरेन्द्रनाथ के पास हैं।
मुकर्जी महाशय ने सुरेन्द्रनाथ को लिखा, “बड़ी दीदी का शेषांश नकल करके तुरन्त भेज दो। नहीं तो 'भारती' का जीवन संकट में पड़ जाएगा।”
सुरेन्द्रनाथ जानते थे कि शरत् कहां है। उन्होंने उसी पते पर लिखा । उत्तर आया, “दे दो, अब और कोई रास्ता ही नहीं है।”
'भारती' का वह अंक - प्रकाशित होते ही बंगाल के साहित्यिक क्षेत्र में हलचल पैदा हो गई, “इतनी सुन्दर रचना किसने लिखी है?”
"भाषा और शैली कैसी परिष्कृत, प्यारी और गठी हुई है!”
“यह तो बंगाल के घर-घर की कहानी है। किसी कुशल चितेरे ने कैसी सुघड़ता से इसे कागज़ पर उतारा है!”
जो साहित्य के मर्मज्ञ थे, उन्होंने सोचा, हो न हो रवीन्द्रनाथ ने छद्म नाम से यह कहानी लिखी है। उनके अतिरिक्त ऐसी सशक्त और उकृष्ट रचना और कौन कर सकता है? 'बंगदर्शन' के सम्पादक शैलेशचन्द्र मजूमदार की भी यही राय थी। लेकिन कुछ दिन पूर्व ही रवीन्द्रनाथ ने उनसे कहा था कि वह इस समय नया उपन्यास लिखने की स्थिति में नहीं हैं। अब जब मजूमदार महाशय ने 'भारती' में 'बड़ी दीदी की पहली किस्त पढ़ी तो चकित रह गए। तुरन्त उनके पास पहुंचे और बोले, “आप तो कहते थे कि अभी नया उपन्यास नहीं लिख सकूंगा। लेकिन 'भारती' के लिए बिना नाम दिये आप लिख रहे हैं।”
रवीन्द्रनाथ ने कहा, "हां, मैं उपन्यास नहीं लिख सकता। किसी ने मेरी कविता - वविता इधर-उधर से लेकर छाप दी होगी।”
नेत्र विस्फारित कर शैलेश बोले, “कविता - वविता नहीं महाशय, उपन्यास !”
रवीन्द्रनाथ अवाक् रह गए। बोले, “उपन्यास, क्या कहते हो शैलेश ! मैंने उपन्यास लिखा? और वह 'भारती' में प्रकाशित हुआ ! नहीं, नहीं, निश्चय ही कहीं भूल हुई है।”
विरक्त भाव से 'भारती' में प्रकाशित 'बड़ी दीदी' के अंश जेब से निकालकर शैलेश ने कहा, “नाम न देने से क्या आप छिप सकते हैं?"
शैलेश के अभियोग की तीव्रता के कारण हो या 'बड़ी दीदी' के प्रारम्भिक दो-चार पंक्तियों के आकर्षण के कारण, रवीन्द्रनाथ ने निस्तब्ध होकर उस अंश को पढ़ डाला। पढ़कर बोले, “सचमुच रचना बड़ी चमत्कारपूर्ण है। लेकिन, मेरी नहीं है किसी दूसरे ही व्यक्ति की है। पर जिसकी भी हो वह असाधारण रूप से शक्तिशाली लेखक है।”
ठाकुर परिवार के दूसरे लोगों ने भी इस कहानी को पढ़ा। वे सब भी यह जानने को उत्सुक हो उठे कि आखिर इसका लेखक कौन है? अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के दामाद मणीलाल गंगोपाध्याय 'भारती' के संपादक सौरीन्द्रमोहन मुकर्जी के अन्तरंग मित्र थे। उन्हीं से जाकर उन्होंने लेखक का परिचय पूछा। फिर एक दिन उनको अवनीन्द्रनाथ के पास ले आए। वहां से वे दोनों रवीन्द्रनाथ के पास गए। रवीन्द्रनाथ ने शरत्चन्द्र के बारे में सौरीन्द्रमोहन से अनेक प्रश्न पूछ डाले।
_सब कुछ बताने के बाद सौरीन्द्रमोहन ने कहा, “उसकी लिखी हुई ऐसी बहुत-सी कहानियां हैं।"
रवीन्द्रनाथ बोले, “तो जमा क्यों कर रखी हैं? उन्हें छापो, देश का मंगल होगा । "
सौरीन्द्रमोहन ने कहा, “लेकिन वह यहां नहीं है। रंगून में कहां रहता है, मुझ पता नहीं । उसकी अनुमति के बिना उसकी रचनाएं नहीं छप सकतीं।”
रवीन्द्रनाथ बोले, “कुछ भी करो, उसका पता लगाओ। उसे पकड़ लाओ, बंगाल में उसके जोड़ का लेखक नहीं मिल सकता।”
महान ताल्स्ताय ने अपनी प्रथम कहानी 'बचपन' एल०एन० के छद्म नाम से लिखी थी और उसे पढ़कर सेण्टपीटर्सबर्ग के साहित्यिक क्षेत्रों में जैसे तूफान आ गया था। एक लेखक तो घर-घर जाकर उस कहानी को सुनाते थे और तुर्गनेव ने उस अज्ञात लेखक की वैसी ही प्रशंसा की थी जैसी रवीन्द्रनाथ ने शरत् की। उसने संपादक को लिखा था, “वह निश्चय ही प्रतिभाशाली है। उसे लिखो कि वह लिखता रहे। उसे यह भी बता दो कि मैं उसे प्रणाम करता हू और अपनी शुभकामनाएं और प्रशंसा भेजता हूं।”
शरत् ने रंगून में 'बड़ी दीदी' के स्वागत की बात न सुनी हो, ऐसा नहीं । सुनकर वह प्रसन्न भी हुआ। लेकिन जैसा कि उसका स्वभाव था, उसने वहां किसी से इसकी चर्चा नहीं की। लेकिन जब तीसरी किस्त पर लेखक का नाम छपा तो मित्रों को शंका हुई कि कहीं यह हमारा 'पगला शरत्' तो नहीं है? उनमें से किसी ने शरत्चन्द्र से पूछा, “क्या बड़ी दीदी' के लेखक तुम ही हो?
शरत् ने दृढ़ता से उत्तर दिया, “मैंने अपनी कोई रचना 'भारती' को नहीं भेजी।”
लेकिन अपने अंतरंग मित्रों से उसने कुछ नहीं छिपाया । योगेन्द्रनाथ सरकार को सब कुछ बता दिया, कहा, “यह रचना मैंने बचपन में लिखी थी । सुरेन्द्र के पास छोड़ आया था। उसी ने दे दी।"
'बड़ी दीदी' के प्रकाशन के बाद वह कलकत्ता आया । हाइड्रोसील का आपरेशन कराना था। कारमाइकिल कालेज में वह आपरेशन हुआ। चार- एक 2 महीने तक वह कलकत्ता रहा, लेकिन इच्छा होने पर भी शर्म के मारे अपने किसी अंतरंग मित्र से नहीं मिला। जैसे अपने रंगून के जीवन के कारण वह उनका सामना करने से कतराता हो । लेकिन वह भले ही मित्रों से न मिल सका हो, विवाह के योग्य कन्याओं के पिताओं ने उसे ख़ूब परेशान किया। एक पत्र में उसने लिखा, “मेरे दुख के दिनों में वे न जाने कहां थे, किन्तु आज जब निश्चिंत होकर दिन काट देने का समय आया है, तो वे दया करके झुण्ड न जाने किस अज्ञात स्थान से बाहर आ रहे हैं, समझ में नहीं आता।”
जब कभी भी वह कलकत्ता आता तो न मित्रों के पास ठहरता और न रिश्तेदारों के पास। उसका आवास बदनाम गलियों में ही होता था । इन्हीं बदनाम गलियों की बदनाम नारियों में उसने नारीत्व की खोज की थी। न जाने कितनी अभागी नारियों का इतिहास उसने संचित किया था। उनके पास रहकर उसने गीत सीखे और अपने मुंह से अपनी यह सुख्याति करते हुए वह कभी नहीं झिझका
इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं कि 'बड़ी दीदी' का ऐसा भव्य स्वागत होने पर भी उसने सौरीन्द्रमोहन से मिलना ठीक नहीं समझा। जाते समय वह अपने छोटे भाई प्रभासचन्द्र से केवल इतना कह गया था कि 'भारती' के जिन अंकों में 'बड़ी दीदी' प्रकाशित हुई है वे अंक खरीदकर वह उसे भेज दे।
वह अपने मित्रों से क्यों नहीं मिल सका, इसका कारण उसने अपने उस पत्र में स्पष्ट किया है जो उसने रंगून लौटकर विभूतिभूषण भट्ट को लिखा था। इस पत्र से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अपने तथाकथित अज्ञातवास के दिनों में वह मित्रों को यदा-कदा पत्र लिखता रहा है। उन्होंने ही उसे उत्तर नहीं दिया।
“बहुत दिन बाद पत्र लिख रहा हूं । प्रार्थना करता हूं तुम्हें मिल जाए। मेरे सभी दुष्कर्मो को भूलकर इसे प्यार की दृष्टि से पढ़ना भाई, जिससे यह लिखना सार्थक हो जाए। तुम्हें चिट्ठी लिखते लज्जा आती है, डर भी लगता है कि मेरे इस हिज्जों की गलती से भरे विश्रृंखल लेख को देखकर तुम हंसोगे और सोचोगे कि बचपन में इसे कैसे प्यार करता रहा ?... कैसा अभागा हूं मैं? चार- एक महीने कलकत्ता रहने पर भी तुमसे मिल नहीं सका। उन दिनों तुम भी कलकत्ता में आए हुए थे। अब ऐसा लगता है कि फिर कभी तुमसे भेंट नहीं होगी। एक बार आशु के साथ, एक बार अकेले ही तुम्हारे घर जाने को तैयार हुआ, किन्तु शर्म के मारे जा नहीं सकता हूं?...
“पंटु, कैसा दुर्भाग्यपूर्ण है जीवन मेरा! कैसे अर्थहीन, निष्फल, नीरस दिन, मास, वर्ष सिर पर से गुज़र जाते हैं, सोच नहीं पाता। भगवान ने जब बुद्धि दी थी तो थोड़ी सुबुद्धि भी दे सकते थे। नहीं दी तो इतना प्यार करना क्यों सिखाया? प्यार करने के लिए एक पात्र मुझे भी दे देते तो क्या उनके विश्व में मनुष्यों की कमी पड़ जाती? नहीं जानता यह उनका कैसा न्याय है?
“सोचता हूं जो मेरे आत्मीय बन्धु बान्धव हैं उन सभी का मैं घृणा का पात्र हूं। इस बात का ज्ञान कितना मर्मान्तक है, यह बताने पर भी लोग विश्वास नही करेंगे। जानता हूं, विश्वास करने का कोई मार्ग ही मैंने नहीं छोड़ा है। चिर प्रवासी, दुखी, कुत्सित आचार वाला, मैं किसी के सामने आने के योग्य नहीं हूं, किन्तु पुंटु, क्या इस सबका कारण मैं ही हूं? मेरी पतंग के नीचे भार नहीं है। मेरे तीर के सिर पर फलक नहीं है। मेरी नाव में पाल नहीं है। सीधा नहीं चलता यह कह धिक्कार देकर दोनों हाथों से उसे धकेल देते हैं। यह सब क्या मेरा ही दोष है? साधु नहीं बनता, इस पंकिल जीवन में साधुत्व का कृत्रिम आचरण नहीं टिकेगा, लेकिन तुम तो भले हो। तब तुम इतने निष्ठुर क्यों हो गए ? सुरेन्द्र, गिरीन को पत्र लिखा, जवाब नहीं मिला। तुमने भी नहीं दिया। मुझे एक लाइन लिख भेजने पर क्या तुम पतित हो जाते? इतनी दूर रहकर तुम्हें कोई हानि नहीं पहुंचा सकूंगा। एक चिट्ठी लिखने से ही तुम्हारा चरित्र मलिन हो जाता? ऐसी चीज़ के निर्मल रहने से क्या, मलिन होने से क्या? एक दिन तुम मुझे प्यार करते थे। आज मैं मिन्नत करता हूं कि इस चिट्ठी का जवाब देना भाई। हमेशा मेरे मन में यह विश्वास रहा है कि तुम और बुड़ी (निरुपमा देवी) कभी मुझसे विमुख नहीं होगे। मेरा यह विश्वास भंग मत करना । यदि मिथ्या भी हो तो उससे क्या हानि ? यह मिथ्या किसी की कोई हानि नहीं करेगा, बल्कि एक व्यक्ति को आश्रय देगा। नैतिक अवनति. के कारण मैं कितना गिर चुका हूं, यह मापकर देखने की शिक्षा मुझे नहीं मिली । किन्तु दयामाया और प्यार के स्वर्णांग में एक तिल भी दाग नहीं लगेगा, यह निश्चित रूप से कह सकता हूं...।"
लेकिन ऐसा लगता है कि अगले चार वर्षों में इस विश्वास की बहुत रक्षा नहीं हो सकी। स्वयं उसने भी अपने को प्रकट करने की कोई चेष्टा नहीं की। यश की कामना उसे ज़रा भी नहीं थी। मामा गिरीन्द्रनाथ को उसने लिखा था, “यदि मैं यश-लोलुप होता तो इतने दिन इतना समय इतने सहजभाव से नष्ट न कर पाता।”
'मन्दिर' गल्प पर पारितोषिक मिलने पर भी उसने अपने को प्रकट नहीं किया । 'बड़ी दीदी' के छपने पर भी नहीं किया । रवीन्द्रनाथ की भूरि-भूरि प्रशंसा पाकर भी वह अन्धकार में छिपा रहा। लेकिन निश्चय ही कुछ ऐसा हो चुका था जिसने न केवल उसके जीवन को ही बदल दिया बल्कि भारतीय साहित्य की धारा को भी नया मोड़ दिया। जन-मन को अभिभूत कर देने वाली एक जीवन्त सृजनात्मक शक्ति, मानव की अभिज्ञता को रूप देने वाला एक महान लोकप्रिय कथाशिल्पी ! क्या सचमुच उसका जन्म हुआ होता यदि सौरीन्द्रमोहन ने 'भारती' में 'बडी दीदी' को प्रकाशित न कर दिया होता? यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि यदि ऐसा न होता तो अपने को छिपाने की प्रवृत्ति में सिद्धहस्त शरत् की प्रतिभा रंगून के एकाउंटेंट जनरल के दफ्तर की फाइलों में ही दफन होकर रह जाती। अपने को छिपाने की इस प्रवृत्ति का कारण उपर्युक्त पत्र में ढूंढा जा सकता है। कुछ और लोगों ने भी नाना रूपों मे इसका विश्लेषण किया है। हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री इलाचन्द्र जोशी ने, जो कलकत्ता में कई वर्ष उनके सम्पर्क में रहे, लिखा है, “ऐसा जान पड़ता है कि साहित्य- समाज में अपरिचित और अज्ञात बने रहने में उसे एक विचित्र प्रकार के सुख का अनुभव होता था। उसके अन्तर में कुछ ऐसी ग्रन्थियां थीं कि जिनके कारण वह अपने जीवनकाल ख्याति का सामना करने से कतराता था । और लिखता इसलिए चला जाता था कि उसकी मृत्यु के बाद उनका प्रकाशन हो। तब एक स्वर्गीय लेखक की रचनाओं के भीतर से बोलने वाली महान आत्मा समस्त लेखकों पर हावी हो जाए ।"
शायद इसीलिए लिखना उसका किसी दिन नहीं रुका। धीमी गति से वह निरन्तर चलता रहा। फिर भी उसके बर्मा के साथियों में बहुत कम लोग जानते थे कि शरत् सचमुच एक सुन्दर लेखक है। यह रहस्य प्रकट हुआ उसके एक निबन्ध से जो उसने 'बंगाल क्लब' की 'साहित्य गोष्ठी' के लिए लिखा था।
इस क्लब की स्थापना 'बंगाल सोशल क्लब' से अलग हो जाने वाले कुछ सदस्यों ने की थी। इसकी गोष्ठियों में कविता, कहानी तथा विभिन्न विषयों पर प्रबन्ध पढ़े जाते थे। उन पर चर्चा होती थी। शरत् वाक्पटु तो था ही। आलोचना करने में आगे रहता । तब कई बार मित्रों ने उससे कहा, “इतना बोलते हो तो स्वयं क्यों नहीं लिखते?”
उसने उत्तर दिया, “मैं लिखना नहीं जानता, बहुत कम पढ़ा-लिखा हूं।”
वही झूठ, वही अपने को छिपाने की प्रवृत्ति। लेकिन एक दिन जब नारी चरित्र को लेकर उस गोष्ठी में तुमुल तर्कयुद्ध मच उठा, तब अनेक विद्वानों की पुस्तकों से उद्धरण पर उद्धरण देकर उसने सबको चकित कर दिया। यहीं पर वह फंस गया। मित्रों ने कहा, “तुम तो कहते थे कि बहुत कम पढ़े-लिखे हो। इतना ज्ञान बिना पढ़े कैसे हो सकता है? अगली बा तुम्हें निबन्ध लिखना होगा।”
बचने का कोई मार्ग शेष नहीं रहा था। उसी समय यह घोषणा कर दी गई कि 'नारी के सामाजिक जीवन पर यौन प्रभाव' विषय को लेकर आगामी बैठक में शरत् एक निबन्ध पढ़ेगा। शीर्षक होगा- 'नारी का इतिहास | '
इस स्वीकृति के बाद सदस्यों में, विशेषकर युवकों में उत्साह की जैसे कोई सीमा न रही। बड़ी उत्सुकता से वे उस दिन की राह देखने लगे। निश्चित दिन और निश्चित समय पर वह सभा आरम्भ हुई। विषय की रोचकता के अनुरूप उस दिन काफी भीड़ थी। लेकिन वक्ता शरत् कहीं नहीं दिखाई दे रहा था। समय बीतने लगा, भीड़ में व्यग्रता भी बढ़ने लगी। सभापति कुर्सी पर बैठे-बैठे थक गए। आखिर यह निश्चय किया गया कि दो सदस्य शरत् को बुलाने के लिए उसके घर रवाना हों और इस बीच में उद्बोधन संगीत के साथ सभा का कार्य आरम्भ कर दिया जाए।
खूब वर्षा हो रही थी। योगन्द्रनाथ सरकार एक अन्य सदस्य के साथ डेढ़ मील की यात्रा पर निकले लेकिन जब घर पहुंचे तो पाया कि शरत् वहां भी नहीं है। बहुत पुकारने पर एक व्यक्ति बाहर आया। सरकार ने कहा, “क्या शरत् अन्दर नहीं है?”
उस व्यक्ति ने पूछा, “आप कौन हैं, और कहां से आए हैं?”
सरकार ने कहा, “हम बंगाल क्लब से आए हैं। आज शरत् को वहां
पूरी बात सुने बिना वह व्यक्ति अन्दर चला गया। दोनों सदस्य चकित रह गए, लेकिन करते इससे पूर्व ही वह व्यक्ति फिर बाहर आया। उसके हाथ में नत्थी किए हुए कागज़ों का एक ढेर था। सरकार को वे कागज़ देते हुए उसने कहा, “बाबू विशेष काम से बाहर चले गए हैं, सभा में नहीं आ सकेंगे। मुझे ये कागज़ देने को कह गए हैं।”
प्रबन्ध का रूप देखते ही वे दोनों सदस्य घबरा गए। छोटे-छोटे अक्षरों में लिखा हुआ मानो वह महाभारत ही था। लौटकर उन्होंने सभा में इस बात की सूचना दी। निश्चय हुआ कि यदि शरत् बाबू नही आ सके हैं तो उनका यह निबन्ध पढ़ा जाए। लेकिन पढ़े कौन ? अक्षर यद्यपि सुन्दर थे फिर भी इतने छोटे थे, और कागज़ इतने अधिक थे कि उनको पढ़ने के लिए कोई भी राज़ी नहीं हो सका। अन्त में यह भार योगेन्द्रनाथ सरकार को ही उठाना पड़ा।
सुना गया कि शरत् ने निबन्ध इसी शर्त पर लिखा था कि वह स्वयं उसे नहीं पढ़ेगा, वह पढ़ ही नहीं सकता था। राशि राशि कोटेशनों से भरे हुए उस निबन्ध को पढ़ने में योगेन्द्र को पूरे दो घण्टे लगे। लेकिन जब वह निबन्ध पूर्ण हुआ तो सभा स्तब्ध थी। भाषा ऐसी ललित, शैली ऐसी मोहक, विषयवस्तु का निरूपण ऐसा सहज और तर्कसम्मत, ऐसा मौलिक और गंभीर कि सबने मुक्तकण्ठ से उसकी प्रशंसा की। उसकी बचपन की रचना 'बड़ी दीदी' प्रकाशित हो चुकी थी, लेकिन उसकी सहज प्रतिभा और प्रौढ़ रचनाकौशल का वास्तविक परिचय पहली बार ही प्रकट हुआ।
उसके चित्र देखते-देखते एक दिन योगेन्द्रनाथ ने एक पाण्डुलिपि खोज निकाली थी। मोटे मेलट की कापी पर मोतियों जैसें अक्षरों में आठ-नौ अध्याय लिखे हुए थे। नाम था 'चरित्रहीन'। पढ़ना शुरू किया तो छोड़ते न बना । रवीन्द्रनाथ के 'गोरा' को छोड़कर ऐसी सुन्दर रचना उन्होंने नहीं पढ़ी थी। अभी कुछ दिन पहले ही तो उसका प्रकाशन हुआ था। उन्होंने यह भी देखा कि उस पाण्डुलिपि के प्रथम पृष्ठ पर कुछ व्यक्तियों के नाम लिखे हुए हैं। पूछा, “ये कौन हैं?”
शरत् ने उत्तर दिया, “भागलपुर में हमारी एक साहित्य सभा थी। उसीके ये भी सदस्य थे।”
उनमें से सौरीन्द्रमोहन मुखोपाध्याय की कहानियों का एक संग्रह 'शेफाली' के नाम प्रकाशित हो चुका था। योगेन्द्रनाथ ने उसकी बड़ी प्रशंसा की । तब शरत् ने कहा, "हां-हां, वह खूब मिलता है, और तुम उससे पूछोगे तो वह मुझे अपना गुरु बताएगा।”
सरकार ने कहा, “ठीक है, किन्तु ऐसा लगता है कि अब शिष्य ने गुरु को पराजित कर दिया है।”
हंसकर शरत् ने जवाब दिया, अरे, मैं भी एकदम खराब नहीं लिखता । लिखूं तो बहुतों से अच्छा लिख सकता हूं।”
योगेन्द्र जानते थे कि अन्तर में जो आग है वह बहुत दिनों तक दबी नहीं रह सकती। इसीलिए वे उसे बराबर प्रोत्साहित करने और उकसाने लगे। उसी का परिणाम था यह ‘नारी का इतिहास।' बंगाल में कुल त्याग करने वाली भिन्न-भिन्न ज़िलों की सात सौ अभागिनी नारियों के करुण जीवन की कहानी इसमें अंकित थी । नाम, पते उम्र, जाति, परिचय और कुल-त्याग का संक्षिप्त विवरण तक दिया था। नारी के यौन जीवन के रहस्य और उसके दैवी और मानवीय अगोचर, विचित्र चरित्र के संबंध में गम्भीर विवेचना और अनुशीलन करके सत्य का उद्घाटन किया था। इसके लिए उसे देश-विदेश के इतिहास और साहित्य का मंथन करना पड़ा था | अपने इस संग्रह के सम्बन्ध मै बहुत दिन बाद उसने लिखा, "इस बात को असंघिग्ध रुप से जान सका की जो कुल त्याग करके आती है उनमे अस्सी प्रतिसत प्राय: सध्वाए है विधवाए बहुत ही कम है। पति के जीवित रहने से ही क्या कड़े पहरे रखने से ही क्या? और विधवा होने से भी क्या ? अनेक दुखो से नारी अपना धर्म नष्ट करने के लिए तैयार होती है, और जिस लिए होती है वह पर पुरुस का रुप नहीं, किसी वीभत्स प्रवृति का लोभ भी नहीं| जब वे अपनी इतनी बड़ी वस्तु को नष्ट करती है, तो बाहर जा कर किसी आश्रय वस्तु को पाने के लोभ से नहीं, सिर्फ किसी बात से अपने को मुक्त करने के लिए ही इस दुख को सिर पर उठा लेती है |
लेकिन साधारण लोग यह मानने को तैयार नहीं थे कि शरत् जैसा क्लर्क पश्चिम के दर्शनशास्त्रियों का अध्ययन भी कर सकता है। इसलिए जब भी वह गंभीरता से बातचीत करता तो वे कुछ न समझ पाने और मज़ाक उड़ाने लगते, “अरे क्या शरत् चाटुज्जे है, न जाने यह क्या बकता रहता है?"
वे कुछ भी समझते हों पर वह खूब पढ़ता था। मिल, स्पेंसर और कांट उसको बहुत प्रिय थे। स्पेंसर की सहज-सरल अभिव्यक्ति पर वह मुग्ध था। मानता था कि सत्य की सहज उपलब्धि के बिना अभिव्यक्ति सहज नहीं हो सकती। 'डिस्क्रिप्टिव सोशियोलॉजी' का उसने खूब अध्ययन किया था।
उपन्यासकार डिकेंस का वह अब भी बहुत प्रशंसक था। तालस्ताय भी डिकेंस को प्यार करते थे और दोनों का ऐसा करने का कारण भी एक था। तालस्ताय ने अपनी डायरी में लिखा था, “लेखक की लोकप्रियता की पहली शर्त वह प्यार है जो वह अपने द्वारा सृजित चरित्रों के प्रति प्रकट करता है। इसीलिए तो डिकेंस के चरित्र तमाम विश्व के समान मित्र हैं।” शरत् अमेरिका और रूस के मनुष्य को एक करने वाले इन्हीं चरित्रों की तलाश में था। डिकेंस के अतिरिक्त तालस्ताय तथा ज़ोला और हेनरी वुड भी उसके प्रिय रहे थे, लेकिन रविन्द्रनाथ के प्रति उसकी भक्ति की सीमा नहीं थी । उनसे बड़ा कोई कवि है यह मानने को वह तैयार नहीं था। कहता था, “दूसरे कवियों जैसा होने की चेष्टा की जा सकती है, पर रवि बाबू, देखो तो उनकी यह कविता ! ऐसी सुन्दर कविता कोई सकता है?
"जीवने यत पूजा हल ना सारा
जान है जानि ताओ हर्यान हाग
जे फूल ना फूटते झरेछे धरणीत
जे नदी मरुपये हारालो धारा
जानि जानि ताओ हयनि हारा
जीवने आज जाहारेयेछे पिछे
जानि हे जानि ताओ हयनि मिछे
आमार अनागत, आमार अनाहत
तोमार वीणातारे बाजिछे तारा
जानि जानि ताओ हयनि हारा।”
पढ़ते-पढ़ते उसके नयन भीग आए, बोला “कविता के मूल में कल्पना होने से ही वह महान् नहीं हो जाती, सत्य की उपलब्धि भी होनी चाहिए, तभी साहित्य की सृष्टि होती है।” सरकार ने कहा, “बहुत-से लोग कहते हैं कि रवि बाबू की कविता बहुत कठिन है?"
शरत् बोला, “यह तो ठीक है, परन्तु सहानुभूति की ऊष्मा से जो वस्तु क्लिष्टता को सरलता में बदल देती है, उसकी उपलब्धि अन्तर से ही हो सकती है। नहीं तो कविता को समझने की चेष्टा विडम्बना मात्र है । कविता ऐसी हो, जो पढने-सुनने में सुन्दर लगे एक बार पढ़ने-सुनने मात्र से तृप्ति न हो, जिसमें ऐसा गहरा भाव हो जो सहज धारणा से परे हो. नहीं तो 'तुमि मारले धाक्का, आमी मारलाम ठेला' इसे क्या कविता कहते हैं? यह तो उन श्रीमान वंशीमोहन की 'ओहे तालगाछ, तुमि केनो एतो लम्बा, भीत जगदम्बा' जैसी कविता है । "