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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023

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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना ही हो तो 'प्रवासी' को छोड़कर और किसी पत्र में उसकी कोई भी रचना बिना अनुमति के न छापी जाए।” अचानक सुरेन्द्रनाथ की एक ऐसे व्यक्ति से भेंट हो गई जो इस काम में सहायक हो सकता था। भागलपुर के मुंसिफ श्री ज्ञानेन्द्र कुमार बंदोपाध्याय साहित्य रसिक व्यक्ति थे। 'प्रवासी' के संपादक श्री रामानन्द चट्टोपाध्याय से उनका परिचय भी था। वे सुरेन्द्रनाथ की 'साहित्य संहार सभा' नाम की संस्था के सदस्य बन गए थे। उस सभा में शरत्चन्द्र की रचनाएं पढ़ी जाती थीं । ज्ञानेन्द्र बाबू को ये रचनाएं बहुत अच्छी लगीं। 'प्रवासी' में छपवाने का वायदा करके उन्होंने 'बड़ी दीदी' की नकल प्राप्त कर ली।

उन्हीं दिनों श्रीमती सरला देवी चौधरानी 'भारती' निकालती थीं। लेकिन वह स्वयं अधिकतर लाहौर में रहती थीं। इसलिए प्रकाशन समय पर नहीं हो पाता था। उन्हें एक सम्पादक की आवश्यकता थी। संयोग से सौरिन्द्रमोहन मुखोपाध्याय को इस काम के लिए चुना गया। वह शरत् के मित्र थे। 'बड़ी दीदी' की एक प्रति उनके पास भी थी। उन्होंने यह प्रति सरला देवी को पढ़ने के लिए दी। पता नहीं ज्ञानेन्द्र बाबू ने उसे 'प्रवासी' में छपवाने का प्रबन्ध किया या नहीं पर सरला देवी से उसकी प्रशंसा अवश्य की थी। पढ़कर वे मुग्ध हो उठीं। बोलीं, "चमत्कार ! इसे 'भारती' में छपने के लिए दे दो । तीन-चार संख्याओं में छापो और शुरू में लेखक का नाम मत दो। लोग समझेंगे कि यह रचना रवीन्द्रनाथ की है और इस प्रकार पत्रिका के देरी से प्रकाशित होने की बात वे भूल जायेंगे।”

सौरीन्द्रमोहन ने कहा, “छापने से पहले लेखक की अनुमति लेनी होगी।”

सरला देवी बोलीं, “तो चिट्ठी लिखकर अनुमति ले लो।”

सौरीन्द्रमोहन ने कहा, “वह बर्मा में हैं लेकिन कहां हैं इसका कोई ठिकाना नहीं। बहुत देर से मैंने उनकी कोई खबर नहीं पाई। ”

सरला देवी बोलीं, “जहां भी होंगे छपने पर किसी न किसी से इसकी चर्चा सुन ही लेंगे। क्या बिना अनुमति के छापने का दायित्व तुम नहीं ले सकते?"

सौरीन्द्रमोहन गर्व से भर उठे। बोले, “क्यों नहीं ले सकता! वह प्रचार के भूखे नहीं हैं। कहते हैं लिखने में मुझे आनन्द आता है। तुम पढ़ो वही काफी है। छापने का क्या काम ? तुम्हारे अतिरिक्त मेरी कहानी और कौन पढ़ेगा ?”

सरला देवी बोलीं, “ऐसे शक्तिशाली लेखक का इस प्रकार शर्मीला होना अच्छा नही । तुम यह उत्तरदायित्व लो और छाप दो।”

सौरीन्द्रमोहन ने तुरन्त तीन संख्याओं में छापने के लिए तीन भाग करके कहानी प्रेस में दी। लेकिन इसी बीच में अन्तिम भाग न जाने कहां खो गया। अब क्या हो? मुकर्जी महाशय ने भागलपुर विभूतिभूषण भट्ट को लिखा । उन्होंने उत्तर दिया कि शरत् की सभी रचनाएं सुरेन्द्रनाथ के पास हैं।

मुकर्जी महाशय ने सुरेन्द्रनाथ को लिखा, “बड़ी दीदी का शेषांश नकल करके तुरन्त भेज दो। नहीं तो 'भारती' का जीवन संकट में पड़ जाएगा।”

सुरेन्द्रनाथ जानते थे कि शरत् कहां है। उन्होंने उसी पते पर लिखा । उत्तर आया, “दे दो, अब और कोई रास्ता ही नहीं है।”

'भारती' का वह अंक - प्रकाशित होते ही बंगाल के साहित्यिक क्षेत्र में हलचल पैदा हो गई, “इतनी सुन्दर रचना किसने लिखी है?”

"भाषा और शैली कैसी परिष्कृत, प्यारी और गठी हुई है!”

“यह तो बंगाल के घर-घर की कहानी है। किसी कुशल चितेरे ने कैसी सुघड़ता से इसे कागज़ पर उतारा है!”

जो साहित्य के मर्मज्ञ थे, उन्होंने सोचा, हो न हो रवीन्द्रनाथ ने छद्म नाम से यह कहानी लिखी है। उनके अतिरिक्त ऐसी सशक्त और उकृष्ट रचना और कौन कर सकता है? 'बंगदर्शन' के सम्पादक शैलेशचन्द्र मजूमदार की भी यही राय थी। लेकिन कुछ दिन पूर्व ही रवीन्द्रनाथ ने उनसे कहा था कि वह इस समय नया उपन्यास लिखने की स्थिति में नहीं हैं। अब जब मजूमदार महाशय ने 'भारती' में 'बड़ी दीदी की पहली किस्त पढ़ी तो चकित रह गए। तुरन्त उनके पास पहुंचे और बोले, “आप तो कहते थे कि अभी नया उपन्यास नहीं लिख सकूंगा। लेकिन 'भारती' के लिए बिना नाम दिये आप लिख रहे हैं।”

रवीन्द्रनाथ ने कहा, "हां, मैं उपन्यास नहीं लिख सकता। किसी ने मेरी कविता - वविता इधर-उधर से लेकर छाप दी होगी।”

नेत्र विस्फारित कर शैलेश बोले, “कविता - वविता नहीं महाशय, उपन्यास !”

रवीन्द्रनाथ अवाक् रह गए। बोले, “उपन्यास, क्या कहते हो शैलेश ! मैंने उपन्यास लिखा? और वह 'भारती' में प्रकाशित हुआ ! नहीं, नहीं, निश्चय ही कहीं भूल हुई है।”

विरक्त भाव से 'भारती' में प्रकाशित 'बड़ी दीदी' के अंश जेब से निकालकर शैलेश ने कहा, “नाम न देने से क्या आप छिप सकते हैं?"

शैलेश के अभियोग की तीव्रता के कारण हो या 'बड़ी दीदी' के प्रारम्भिक दो-चार पंक्तियों के आकर्षण के कारण, रवीन्द्रनाथ ने निस्तब्ध होकर उस अंश को पढ़ डाला। पढ़कर बोले, “सचमुच रचना बड़ी चमत्कारपूर्ण है। लेकिन, मेरी नहीं है किसी दूसरे ही व्यक्ति की है। पर जिसकी भी हो वह असाधारण रूप से शक्तिशाली लेखक है।”

ठाकुर परिवार के दूसरे लोगों ने भी इस कहानी को पढ़ा। वे सब भी यह जानने को उत्सुक हो उठे कि आखिर इसका लेखक कौन है? अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के दामाद मणीलाल गंगोपाध्याय 'भारती' के संपादक सौरीन्द्रमोहन मुकर्जी के अन्तरंग मित्र थे। उन्हीं से जाकर उन्होंने लेखक का परिचय पूछा। फिर एक दिन उनको अवनीन्द्रनाथ के पास ले आए। वहां से वे दोनों रवीन्द्रनाथ के पास गए। रवीन्द्रनाथ ने शरत्चन्द्र के बारे में सौरीन्द्रमोहन से अनेक प्रश्न पूछ डाले।

_सब कुछ बताने के बाद सौरीन्द्रमोहन ने कहा, “उसकी लिखी हुई ऐसी बहुत-सी कहानियां हैं।"

रवीन्द्रनाथ बोले, “तो जमा क्यों कर रखी हैं? उन्हें छापो, देश का मंगल होगा । "

सौरीन्द्रमोहन ने कहा, “लेकिन वह यहां नहीं है। रंगून में कहां रहता है, मुझ पता नहीं । उसकी अनुमति के बिना उसकी रचनाएं नहीं छप सकतीं।”

रवीन्द्रनाथ बोले, “कुछ भी करो, उसका पता लगाओ। उसे पकड़ लाओ, बंगाल में उसके जोड़ का लेखक नहीं मिल सकता।”

महान ताल्स्ताय ने अपनी प्रथम कहानी 'बचपन' एल०एन० के छद्म नाम से लिखी थी और उसे पढ़कर सेण्टपीटर्सबर्ग के साहित्यिक क्षेत्रों में जैसे तूफान आ गया था। एक लेखक तो घर-घर जाकर उस कहानी को सुनाते थे और तुर्गनेव ने उस अज्ञात लेखक की वैसी ही प्रशंसा की थी जैसी रवीन्द्रनाथ ने शरत् की। उसने संपादक को लिखा था, “वह निश्चय ही प्रतिभाशाली है। उसे लिखो कि वह लिखता रहे। उसे यह भी बता दो कि मैं उसे प्रणाम करता हू और अपनी शुभकामनाएं और प्रशंसा भेजता हूं।”

शरत् ने रंगून में 'बड़ी दीदी' के स्वागत की बात न सुनी हो, ऐसा नहीं । सुनकर वह प्रसन्न भी हुआ। लेकिन जैसा कि उसका स्वभाव था, उसने वहां किसी से इसकी चर्चा नहीं की। लेकिन जब तीसरी किस्त पर लेखक का नाम छपा तो मित्रों को शंका हुई कि कहीं यह हमारा 'पगला शरत्' तो नहीं है? उनमें से किसी ने शरत्चन्द्र से पूछा, “क्या बड़ी दीदी' के लेखक तुम ही हो?

शरत् ने दृढ़ता से उत्तर दिया, “मैंने अपनी कोई रचना 'भारती' को नहीं भेजी।”

लेकिन अपने अंतरंग मित्रों से उसने कुछ नहीं छिपाया । योगेन्द्रनाथ सरकार को सब कुछ बता दिया, कहा, “यह रचना मैंने बचपन में लिखी थी । सुरेन्द्र के पास छोड़ आया था। उसी ने दे दी।"

'बड़ी दीदी' के प्रकाशन के बाद वह कलकत्ता आया । हाइड्रोसील का आपरेशन कराना था। कारमाइकिल कालेज में वह आपरेशन हुआ। चार- एक 2 महीने तक वह कलकत्ता रहा, लेकिन इच्छा होने पर भी शर्म के मारे अपने किसी अंतरंग मित्र से नहीं मिला। जैसे अपने रंगून के जीवन के कारण वह उनका सामना करने से कतराता हो । लेकिन वह भले ही मित्रों से न मिल सका हो, विवाह के योग्य कन्याओं के पिताओं ने उसे ख़ूब परेशान किया। एक पत्र में उसने लिखा, “मेरे दुख के दिनों में वे न जाने कहां थे, किन्तु आज जब निश्चिंत होकर दिन काट देने का समय आया है, तो वे दया करके झुण्ड न जाने किस अज्ञात स्थान से बाहर आ रहे हैं, समझ में नहीं आता।”

जब कभी भी वह कलकत्ता आता तो न मित्रों के पास ठहरता और न रिश्तेदारों के पास। उसका आवास बदनाम गलियों में ही होता था । इन्हीं बदनाम गलियों की बदनाम नारियों में उसने नारीत्व की खोज की थी। न जाने कितनी अभागी नारियों का इतिहास उसने संचित किया था। उनके पास रहकर उसने गीत सीखे और अपने मुंह से अपनी यह सुख्याति करते हुए वह कभी नहीं झिझका

इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं कि 'बड़ी दीदी' का ऐसा भव्य स्वागत होने पर भी उसने सौरीन्द्रमोहन से मिलना ठीक नहीं समझा। जाते समय वह अपने छोटे भाई प्रभासचन्द्र से केवल इतना कह गया था कि 'भारती' के जिन अंकों में 'बड़ी दीदी' प्रकाशित हुई है वे अंक खरीदकर वह उसे भेज दे।

वह अपने मित्रों से क्यों नहीं मिल सका, इसका कारण उसने अपने उस पत्र में स्पष्ट किया है जो उसने रंगून लौटकर विभूतिभूषण भट्ट को लिखा था। इस पत्र से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अपने तथाकथित अज्ञातवास के दिनों में वह मित्रों को यदा-कदा पत्र लिखता रहा है। उन्होंने ही उसे उत्तर नहीं दिया।

“बहुत दिन बाद पत्र लिख रहा हूं । प्रार्थना करता हूं तुम्हें मिल जाए। मेरे सभी दुष्कर्मो को भूलकर इसे प्यार की दृष्टि से पढ़ना भाई, जिससे यह लिखना सार्थक हो जाए। तुम्हें चिट्ठी लिखते लज्जा आती है, डर भी लगता है कि मेरे इस हिज्जों की गलती से भरे विश्रृंखल लेख को देखकर तुम हंसोगे और सोचोगे कि बचपन में इसे कैसे प्यार करता रहा ?... कैसा अभागा हूं मैं? चार- एक महीने कलकत्ता रहने पर भी तुमसे मिल नहीं सका। उन दिनों तुम भी कलकत्ता में आए हुए थे। अब ऐसा लगता है कि फिर कभी तुमसे भेंट नहीं होगी। एक बार आशु के साथ, एक बार अकेले ही तुम्हारे घर जाने को तैयार हुआ, किन्तु शर्म के मारे जा नहीं सकता हूं?...

“पंटु, कैसा दुर्भाग्यपूर्ण है जीवन मेरा! कैसे अर्थहीन, निष्फल, नीरस दिन, मास, वर्ष सिर पर से गुज़र जाते हैं, सोच नहीं पाता। भगवान ने जब बुद्धि दी थी तो थोड़ी सुबुद्धि भी दे सकते थे। नहीं दी तो इतना प्यार करना क्यों सिखाया? प्यार करने के लिए एक पात्र मुझे भी दे देते तो क्या उनके विश्व में मनुष्यों की कमी पड़ जाती? नहीं जानता यह उनका कैसा न्याय है?

“सोचता हूं जो मेरे आत्मीय बन्धु बान्धव हैं उन सभी का मैं घृणा का पात्र हूं। इस बात का ज्ञान कितना मर्मान्तक है, यह बताने पर भी लोग विश्वास नही करेंगे। जानता हूं, विश्वास करने का कोई मार्ग ही मैंने नहीं छोड़ा है। चिर प्रवासी, दुखी, कुत्सित आचार वाला, मैं किसी के सामने आने के योग्य नहीं हूं, किन्तु पुंटु, क्या इस सबका कारण मैं ही हूं? मेरी पतंग के नीचे भार नहीं है। मेरे तीर के सिर पर फलक नहीं है। मेरी नाव में पाल नहीं है। सीधा नहीं चलता यह कह धिक्कार देकर दोनों हाथों से उसे धकेल देते हैं। यह सब क्या मेरा ही दोष है? साधु नहीं बनता, इस पंकिल जीवन में साधुत्व का कृत्रिम आचरण नहीं टिकेगा, लेकिन तुम तो भले हो। तब तुम इतने निष्ठुर क्यों हो गए ? सुरेन्द्र, गिरीन को पत्र लिखा, जवाब नहीं मिला। तुमने भी नहीं दिया। मुझे एक लाइन लिख भेजने पर क्या तुम पतित हो जाते? इतनी दूर रहकर तुम्हें कोई हानि नहीं पहुंचा सकूंगा। एक चिट्ठी लिखने से ही तुम्हारा चरित्र मलिन हो जाता? ऐसी चीज़ के निर्मल रहने से क्या, मलिन होने से क्या? एक दिन तुम मुझे प्यार करते थे। आज मैं मिन्नत करता हूं कि इस चिट्ठी का जवाब देना भाई। हमेशा मेरे मन में यह विश्वास रहा है कि तुम और बुड़ी (निरुपमा देवी) कभी मुझसे विमुख नहीं होगे। मेरा यह विश्वास भंग मत करना । यदि मिथ्या भी हो तो उससे क्या हानि ? यह मिथ्या किसी की कोई हानि नहीं करेगा, बल्कि एक व्यक्ति को आश्रय देगा। नैतिक अवनति. के कारण मैं कितना गिर चुका हूं, यह मापकर देखने की शिक्षा मुझे नहीं मिली । किन्तु दयामाया और प्यार के स्वर्णांग में एक तिल भी दाग नहीं लगेगा, यह निश्चित रूप से कह सकता हूं...।"

लेकिन ऐसा लगता है कि अगले चार वर्षों में इस विश्वास की बहुत रक्षा नहीं हो सकी। स्वयं उसने भी अपने को प्रकट करने की कोई चेष्टा नहीं की। यश की कामना उसे ज़रा भी नहीं थी। मामा गिरीन्द्रनाथ को उसने लिखा था, “यदि मैं यश-लोलुप होता तो इतने दिन इतना समय इतने सहजभाव से नष्ट न कर पाता।”

'मन्दिर' गल्प पर पारितोषिक मिलने पर भी उसने अपने को प्रकट नहीं किया । 'बड़ी दीदी' के छपने पर भी नहीं किया । रवीन्द्रनाथ की भूरि-भूरि प्रशंसा पाकर भी वह अन्धकार में छिपा रहा। लेकिन निश्चय ही कुछ ऐसा हो चुका था जिसने न केवल उसके जीवन को ही बदल दिया बल्कि भारतीय साहित्य की धारा को भी नया मोड़ दिया। जन-मन को अभिभूत कर देने वाली एक जीवन्त सृजनात्मक शक्ति, मानव की अभिज्ञता को रूप देने वाला एक महान लोकप्रिय कथाशिल्पी ! क्या सचमुच उसका जन्म हुआ होता यदि सौरीन्द्रमोहन ने 'भारती' में 'बडी दीदी' को प्रकाशित न कर दिया होता? यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि यदि ऐसा न होता तो अपने को छिपाने की प्रवृत्ति में सिद्धहस्त शरत् की प्रतिभा रंगून के एकाउंटेंट जनरल के दफ्तर की फाइलों में ही दफन होकर रह जाती। अपने को छिपाने की इस प्रवृत्ति का कारण उपर्युक्त पत्र में ढूंढा जा सकता है। कुछ और लोगों ने भी नाना रूपों मे इसका विश्लेषण किया है। हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री इलाचन्द्र जोशी ने, जो कलकत्ता में कई वर्ष उनके सम्पर्क में रहे, लिखा है, “ऐसा जान पड़ता है कि साहित्य- समाज में अपरिचित और अज्ञात बने रहने में उसे एक विचित्र प्रकार के सुख का अनुभव होता था। उसके अन्तर में कुछ ऐसी ग्रन्थियां थीं कि जिनके कारण वह अपने जीवनकाल ख्याति का सामना करने से कतराता था । और लिखता इसलिए चला जाता था कि उसकी मृत्यु के बाद उनका प्रकाशन हो। तब एक स्वर्गीय लेखक की रचनाओं के भीतर से बोलने वाली महान आत्मा समस्त लेखकों पर हावी हो जाए ।"

शायद इसीलिए लिखना उसका किसी दिन नहीं रुका। धीमी गति से वह निरन्तर चलता रहा। फिर भी उसके बर्मा के साथियों में बहुत कम लोग जानते थे कि शरत् सचमुच एक सुन्दर लेखक है। यह रहस्य प्रकट हुआ उसके एक निबन्ध से जो उसने 'बंगाल क्लब' की 'साहित्य गोष्ठी' के लिए लिखा था।

इस क्लब की स्थापना 'बंगाल सोशल क्लब' से अलग हो जाने वाले कुछ सदस्यों ने की थी। इसकी गोष्ठियों में कविता, कहानी तथा विभिन्न विषयों पर प्रबन्ध पढ़े जाते थे। उन पर चर्चा होती थी। शरत् वाक्पटु तो था ही। आलोचना करने में आगे रहता । तब कई बार मित्रों ने उससे कहा, “इतना बोलते हो तो स्वयं क्यों नहीं लिखते?”

उसने उत्तर दिया, “मैं लिखना नहीं जानता, बहुत कम पढ़ा-लिखा हूं।”

वही झूठ, वही अपने को छिपाने की प्रवृत्ति। लेकिन एक दिन जब नारी चरित्र को लेकर उस गोष्ठी में तुमुल तर्कयुद्ध मच उठा, तब अनेक विद्वानों की पुस्तकों से उद्धरण पर उद्धरण देकर उसने सबको चकित कर दिया। यहीं पर वह फंस गया। मित्रों ने कहा, “तुम तो कहते थे कि बहुत कम पढ़े-लिखे हो। इतना ज्ञान बिना पढ़े कैसे हो सकता है? अगली बा तुम्हें निबन्ध लिखना होगा।”

बचने का कोई मार्ग शेष नहीं रहा था। उसी समय यह घोषणा कर दी गई कि 'नारी के सामाजिक जीवन पर यौन प्रभाव' विषय को लेकर आगामी बैठक में शरत् एक निबन्ध पढ़ेगा। शीर्षक होगा- 'नारी का इतिहास | '

इस स्वीकृति के बाद सदस्यों में, विशेषकर युवकों में उत्साह की जैसे कोई सीमा न रही। बड़ी उत्सुकता से वे उस दिन की राह देखने लगे। निश्चित दिन और निश्चित समय पर वह सभा आरम्भ हुई। विषय की रोचकता के अनुरूप उस दिन काफी भीड़ थी। लेकिन वक्ता शरत् कहीं नहीं दिखाई दे रहा था। समय बीतने लगा, भीड़ में व्यग्रता भी बढ़ने लगी। सभापति कुर्सी पर बैठे-बैठे थक गए। आखिर यह निश्चय किया गया कि दो सदस्य शरत् को बुलाने के लिए उसके घर रवाना हों और इस बीच में उद्बोधन संगीत के साथ सभा का कार्य आरम्भ कर दिया जाए।

खूब वर्षा हो रही थी। योगन्द्रनाथ सरकार एक अन्य सदस्य के साथ डेढ़ मील की यात्रा पर निकले लेकिन जब घर पहुंचे तो पाया कि शरत् वहां भी नहीं है। बहुत पुकारने पर एक व्यक्ति बाहर आया। सरकार ने कहा, “क्या शरत् अन्दर नहीं है?”

उस व्यक्ति ने पूछा, “आप कौन हैं, और कहां से आए हैं?”

सरकार ने कहा, “हम बंगाल क्लब से आए हैं। आज शरत् को वहां

पूरी बात सुने बिना वह व्यक्ति अन्दर चला गया। दोनों सदस्य चकित रह गए, लेकिन करते इससे पूर्व ही वह व्यक्ति फिर बाहर आया। उसके हाथ में नत्थी किए हुए कागज़ों का एक ढेर था। सरकार को वे कागज़ देते हुए उसने कहा, “बाबू विशेष काम से बाहर चले गए हैं, सभा में नहीं आ सकेंगे। मुझे ये कागज़ देने को कह गए हैं।”

प्रबन्ध का रूप देखते ही वे दोनों सदस्य घबरा गए। छोटे-छोटे अक्षरों में लिखा हुआ मानो वह महाभारत ही था। लौटकर उन्होंने सभा में इस बात की सूचना दी। निश्चय हुआ कि यदि शरत् बाबू नही आ सके हैं तो उनका यह निबन्ध पढ़ा जाए। लेकिन पढ़े कौन ? अक्षर यद्यपि सुन्दर थे फिर भी इतने छोटे थे, और कागज़ इतने अधिक थे कि उनको पढ़ने के लिए कोई भी राज़ी नहीं हो सका। अन्त में यह भार योगेन्द्रनाथ सरकार को ही उठाना पड़ा।

सुना गया कि शरत् ने निबन्ध इसी शर्त पर लिखा था कि वह स्वयं उसे नहीं पढ़ेगा, वह पढ़ ही नहीं सकता था। राशि राशि कोटेशनों से भरे हुए उस निबन्ध को पढ़ने में योगेन्द्र को पूरे दो घण्टे लगे। लेकिन जब वह निबन्ध पूर्ण हुआ तो सभा स्तब्ध थी। भाषा ऐसी ललित, शैली ऐसी मोहक, विषयवस्तु का निरूपण ऐसा सहज और तर्कसम्मत, ऐसा मौलिक और गंभीर कि सबने मुक्तकण्ठ से उसकी प्रशंसा की। उसकी बचपन की रचना 'बड़ी दीदी' प्रकाशित हो चुकी थी, लेकिन उसकी सहज प्रतिभा और प्रौढ़ रचनाकौशल का वास्तविक परिचय पहली बार ही प्रकट हुआ।

उसके चित्र देखते-देखते एक दिन योगेन्द्रनाथ ने एक पाण्डुलिपि खोज निकाली थी। मोटे मेलट की कापी पर मोतियों जैसें अक्षरों में आठ-नौ अध्याय लिखे हुए थे। नाम था 'चरित्रहीन'। पढ़ना शुरू किया तो छोड़ते न बना । रवीन्द्रनाथ के 'गोरा' को छोड़कर ऐसी सुन्दर रचना उन्होंने नहीं पढ़ी थी। अभी कुछ दिन पहले ही तो उसका प्रकाशन हुआ था। उन्होंने यह भी देखा कि उस पाण्डुलिपि के प्रथम पृष्ठ पर कुछ व्यक्तियों के नाम लिखे हुए हैं। पूछा, “ये कौन हैं?”

शरत् ने उत्तर दिया, “भागलपुर में हमारी एक साहित्य सभा थी। उसीके ये भी सदस्य थे।”

उनमें से सौरीन्द्रमोहन मुखोपाध्याय की कहानियों का एक संग्रह 'शेफाली' के नाम प्रकाशित हो चुका था। योगेन्द्रनाथ ने उसकी बड़ी प्रशंसा की । तब शरत् ने कहा, "हां-हां, वह खूब मिलता है, और तुम उससे पूछोगे तो वह मुझे अपना गुरु बताएगा।”

सरकार ने कहा, “ठीक है, किन्तु ऐसा लगता है कि अब शिष्य ने गुरु को पराजित कर दिया है।”

हंसकर शरत् ने जवाब दिया, अरे, मैं भी एकदम खराब नहीं लिखता । लिखूं तो बहुतों से अच्छा लिख सकता हूं।”

योगेन्द्र जानते थे कि अन्तर में जो आग है वह बहुत दिनों तक दबी नहीं रह सकती। इसीलिए वे उसे बराबर प्रोत्साहित करने और उकसाने लगे। उसी का परिणाम था यह ‘नारी का इतिहास।' बंगाल में कुल त्याग करने वाली भिन्न-भिन्न ज़िलों की सात सौ अभागिनी नारियों के करुण जीवन की कहानी इसमें अंकित थी । नाम, पते उम्र, जाति, परिचय और कुल-त्याग का संक्षिप्त विवरण तक दिया था। नारी के यौन जीवन के रहस्य और उसके दैवी और मानवीय अगोचर, विचित्र चरित्र के संबंध में गम्भीर विवेचना और अनुशीलन करके सत्य का उद्घाटन किया था। इसके लिए उसे देश-विदेश के इतिहास और साहित्य का मंथन करना पड़ा था | अपने इस संग्रह के सम्बन्ध मै बहुत दिन बाद उसने लिखा, "इस बात को असंघिग्ध रुप से जान सका की जो कुल त्याग करके आती है उनमे अस्सी प्रतिसत प्राय: सध्वाए है विधवाए बहुत ही कम है। पति के जीवित रहने से ही क्या कड़े पहरे रखने से ही क्या? और विधवा होने से भी क्या ? अनेक दुखो से नारी अपना धर्म नष्ट करने के लिए तैयार होती है, और जिस लिए होती है वह पर पुरुस का रुप नहीं, किसी वीभत्स प्रवृति का लोभ भी नहीं| जब वे अपनी इतनी बड़ी वस्तु को नष्ट करती है, तो बाहर जा कर किसी आश्रय वस्तु को पाने के लोभ से नहीं, सिर्फ किसी बात से अपने को मुक्त करने के लिए ही इस दुख को सिर पर उठा लेती है | 

लेकिन साधारण लोग यह मानने को तैयार नहीं थे कि शरत् जैसा क्लर्क पश्चिम के दर्शनशास्त्रियों का अध्ययन भी कर सकता है। इसलिए जब भी वह गंभीरता से बातचीत करता तो वे कुछ न समझ पाने और मज़ाक उड़ाने लगते, “अरे क्या शरत् चाटुज्जे है, न जाने यह क्या बकता रहता है?"

वे कुछ भी समझते हों पर वह खूब पढ़ता था। मिल, स्पेंसर और कांट उसको बहुत प्रिय थे। स्पेंसर की सहज-सरल अभिव्यक्ति पर वह मुग्ध था। मानता था कि सत्य की सहज उपलब्धि के बिना अभिव्यक्ति सहज नहीं हो सकती। 'डिस्क्रिप्टिव सोशियोलॉजी' का उसने खूब अध्ययन किया था।

उपन्यासकार डिकेंस का वह अब भी बहुत प्रशंसक था। तालस्ताय भी डिकेंस को प्यार करते थे और दोनों का ऐसा करने का कारण भी एक था। तालस्ताय ने अपनी डायरी में लिखा था, “लेखक की लोकप्रियता की पहली शर्त वह प्यार है जो वह अपने द्वारा सृजित चरित्रों के प्रति प्रकट करता है। इसीलिए तो डिकेंस के चरित्र तमाम विश्व के समान मित्र हैं।” शरत् अमेरिका और रूस के मनुष्य को एक करने वाले इन्हीं चरित्रों की तलाश में था। डिकेंस के अतिरिक्त तालस्ताय तथा ज़ोला और हेनरी वुड भी उसके प्रिय रहे थे, लेकिन रविन्द्रनाथ के प्रति उसकी भक्ति की सीमा नहीं थी । उनसे बड़ा कोई कवि है यह मानने को वह तैयार नहीं था। कहता था, “दूसरे कवियों जैसा होने की चेष्टा की जा सकती है, पर रवि बाबू, देखो तो उनकी यह कविता ! ऐसी सुन्दर कविता कोई सकता है?

"जीवने यत पूजा हल ना सारा

 जान है जानि ताओ हर्यान हाग

 जे फूल ना फूटते झरेछे धरणीत 

जे नदी मरुपये हारालो धारा

जानि जानि ताओ हयनि हारा

 जीवने आज जाहारेयेछे पिछे 

जानि हे  जानि ताओ हयनि मिछे 

आमार अनागत, आमार अनाहत 

तोमार वीणातारे बाजिछे तारा

जानि जानि ताओ हयनि हारा।”

पढ़ते-पढ़ते उसके नयन भीग आए, बोला “कविता के मूल में कल्पना होने से ही वह महान् नहीं हो जाती, सत्य की उपलब्धि भी होनी चाहिए, तभी साहित्य की सृष्टि होती है।” सरकार ने कहा, “बहुत-से लोग कहते हैं कि रवि बाबू की कविता बहुत कठिन है?"

शरत् बोला, “यह तो ठीक है, परन्तु सहानुभूति की ऊष्मा से जो वस्तु क्लिष्टता को सरलता में बदल देती है, उसकी उपलब्धि अन्तर से ही हो सकती है। नहीं तो कविता को समझने की चेष्टा विडम्बना मात्र है । कविता ऐसी हो, जो पढने-सुनने में सुन्दर लगे एक बार पढ़ने-सुनने मात्र से तृप्ति न हो, जिसमें ऐसा गहरा भाव हो जो सहज धारणा से परे हो. नहीं तो 'तुमि मारले धाक्का, आमी मारलाम ठेला' इसे क्या कविता कहते हैं? यह तो उन श्रीमान वंशीमोहन की 'ओहे तालगाछ, तुमि केनो एतो लम्बा, भीत जगदम्बा' जैसी कविता है । "

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
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मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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भूमिका

21 अगस्त 2023
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संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

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भूमिका : पहले संस्करण की

21 अगस्त 2023
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कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

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तीसरे संस्करण की भूमिका

21 अगस्त 2023
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लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

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" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

21 अगस्त 2023
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किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

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अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

21 अगस्त 2023
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भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

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अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
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नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

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अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
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मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

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अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
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शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

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अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
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तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

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अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
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शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

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अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
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इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

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अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

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अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
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शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

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अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
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उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

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अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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