वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौंगी (बौद्ध साधु) बनकर घूमना उसके लिए उतना ही सहज था, जितना बांसुरी बजा लेना। लेकिन प्रश्न अब केवल उसी का नहीं था। देश में छोटे भाई-बहन को निराश्रित छोड़ आया था। इसलिए पांच-छ: महीने के उच्छृंखल जीवन के बाद उसने एग्जामिनर, पब्लिक वर्क्स एकाउंट्स के दफ्तर में तीस रुपये मासिक पर एक अस्थायी नौकरी कर ली।
पब्लिक वर्क्स एकाउंट्स, बर्मा के डिप्टी एग्जामिनर श्री मणीन्द्रकुमार मित्र एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर के कार्यालय में हिसाब की जांच करने पेगू आये थे। उस समय शरत् उनके रिश्ते के एक भाई के पास यहीं रहता था। उसके मधुर कण्ठ के कारण वे उसे बहुत प्यार करते थे। एक दिन उन्होंने मित्र महोदय के सम्मान में सांध्य भोज का प्रबन्ध किया। उसमें अनेक मित्र आमंत्रित होकर आये शरत् तो था ही उसका गाना सुनने को सभी आतुर रहते थे। पुकार हुई, “शरत् दा, वही 'ओहे जीवन बल्लभ, साधन दुर्लभ है' गीत सुनाओ।"
वह बार-बार मना करता रहा, परन्तु बिना सुनाये मुक्ति कैसे मिल सकती थी ! सभ्य समाज से जोड़ने वाला यही एक गुण तो उसके पास था। इसलिए एक ही नहीं, कई और गीत भी सुनाने पड़े। जितनी देर गाता रहा मित्र महाशय मंत्रमुग्ध सुनते रहे। वे अत्यन्त सरल प्राण सहृदय व्यक्ति थे। गद्गद् होकर बोले, “शरत् दा, निश्चय ही आपके स्वर में माधुर्य है।”
शरत् मुस्कराकर रह गया, परन्तु इसी सूत्र को लेकर वे दोनों शीघ्र ही दोस्ती के अटूट बन्धन में बंध गये। उन्हीं की कृपा से उसे यह नौकरी मिल सकी थी। उसका कार्यकाल समाप्त होने पर वह रंगून आकर उन्हीं के पास रहने लगा। लेकिन एक महीने के बाद ही वह फिर पेगू चला गया। वहां उसे एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर, पेगू डिवीज़न के कार्यालय में काम मिल गया था। उसने चतुर्थ श्रेणी के पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट एकाउंटेंटशिप की परीक्षा भी दी, पर सफल न हो सका।
एक के बाद एक कई नौकरियां उसे मिलीं, लेकिन वे सब अस्थायी थीं। बीच-बीच में बेकार रहना पडता था। इस बेकारी का अर्थ था बांसुरी बजाना, शतरंज खेलना, शिकार करना या फिर गेरुवे वस्त्रों की शरण लेना। पौंगी बनकर वह अपनी चिर-परिचित दिशाहीन यात्रा पर निकल पड़ता। थक जाता तो फिर रंगुन लौट आता बर्मा में हर व्यक्ति को जीवन में एक बार पौंगी बनना ही होता है। उसकी अवधि सात दिन से लेकर जीवनपर्यन्त हो सकती है। उस वेश में उन्हें खूब सम्मान मिलता है और वे बहुत कुछ करने को स्वतन्त्र होते हैं। चुरुट-सिनेमा कुछ भी वर्जित नहीं होता। इसलिए शरत् को यह वेश धारण करने में कोई असुविध नहीं होती थी। वैसे भी लम्बे-लम्बे बालों और दाढ़ी से उस विशेष प्रेम था। बाउलों का वेश थान, सोचता होगा बाउलों के वेश में एकतारा लिए गाता रहूं, घूमता रहूं।
आखिर मित्र महोदय की कृपा से उसे एग्जामिनर, पब्लिक वर्क्स एकाउंट्स रंगून के दफ्तर में 'अस्थायी' क्लर्क की 'स्थायी' नौकरी मिल गई। वेतन था पचास रुपये मासिक,
तीन माह बाद ही सन्तोषजनक कार्य के कारण पैंसठ रुपये हो गया। लगा, जैसे उसका अनिश्चित, और एक दृष्टि से, बोहेमियन जीवन समाप्त हो गया है। दस वर्ष बाद जब उसने त्यागपत्र दिया, तो उसका वेतन नब्बे रुपये तक पहुंच गया था और उसका यह विभाग एकाउंटेण्ट जनरल के कार्यालय में मिल गया था।
अभी भी वह मणीन्द्र मित्र के पास रहता था। दोनों संगीत और दर्शन की चर्चा करते अघाते नहीं थे। इसके अतिरिक्त वह मित्र महाशय के बच्चों को संगीत की शिक्षा भी देता था।
रंगून में बंगालियों का अपना एक क्लब था, 'बंगाल सोशल क्लब' । प्रतिदिन संध्या को लोग यहां इकट्टे होकर संगीत, नाटक और अध्ययन में भाग लेते थे। उसके सदस्यों में अधिकतर सरकारी कर्मचारी थे। इसलिए शरत् भी उस क्लब में आने लगा और शीघ्र ही वहां का प्रमुख गायक हो गया। उसके मधुर कण्ठ से रवीन्द्रनाथ के गीत सुनकर भावुक श्रोता रस-विभोर हो उठते । नीलकण्ठ, निधु बाबू, दाशरथीराय आदि प्राचीन कवियों के गीतों के अतिरिक्त वैष्णव पदावली तथा दूसरे दोहे और भजन भी यह खूब गा लेता था । बाउल गान और कीर्तन की विशेषता उसके कण्ठ का परस पाकर और भी दीप्त हो उठती। उस दिन जब उसने ज्ञानदास का यह पद गाया :
तोमार गर्बे गरबिन राई, रूपसी तोमारि रूपे ।
तो लगा जैस उसका रुग्ण-शीर्ण कण्ठ संगीत के भार से फट जाएगा । प्राणों की वह वेदना कैसी अद्भुत थी। कैसा था वह मार्मिक क्रन्दन जो संगीत के भीतर से होकर सभी के मर्म में प्रवेश कर गया था! उस क्षण उसने न जाने कितने भक्त पाए ।
और उसी दिन क्यों, शरत् जितना भागता था दफ्तर के संगी-साथी उतना ही उसको पकड़ते थे। मेम में किसी के पास हारमोनियम था । न जाने कब से उस पर धूल चढ़ रही थी, उसी को झाड़-पोंछ कर एक दिन मित्रों ने शरत् को थमा दिया। बोले, “शरत् दा ! आज तो गाना ही होगा।"
और उसे गाना पड़ा।
श्रीमुख पंकज देखबो बॅले हे, ताई एशे छिलाम एक गोकुले।
आमा स्थान दिये राई चरण तले।
उन लोगों ने यह गाना एक सुगायक के मुख से भी सुना था। संगीत विद्या के व्याकरण की दृष्टि से उसका गाना शरत् से श्रेष्ठ था, परन्तु जहां तक प्राण का सम्बन्ध है, वह च ही शरत् के कण्ठ में अधिक था । इसीलिए तो उस दिन यह गीत सुनकर वे लोग हंस पडे थे, लेकिन आज आंखों से अविरल अश्रु बहा रहें थे।
बहुत वर्षों बाद 'शेष प्रश्न' के स्त्रष्टा ने शिवनाथ का परिचय देते हुए लिखा- “इसके अतिरिक्त वह शराबी भी है, शराबी होने के कारण वह आवारा कालेज की प्रोफेसरी से भी निकाला गया है और कभी-कभी शायद वेश्यागमन भी करता है। हां, वह गवैया बहुत ऊंच दर्जे का है, इसीलिए इन तमाम कारणों के बावजूद वह मजलिसों में आदर के साथ बुलाया जाता है। "
क्या यह उसका अपना ही चरित्र नहीं है? सुगायक के रुप मे उसकी ख्याति शिवनाथ से कम नहीं थी । इसी मधुर कण्ठ के कारण उसने मजलिस में आदर पाया और पाये अनेक मित्र। इसी समय के आस-पास 'प्लासी युद्ध' के सुप्रसिश्द लेखक और कवि भी नवीनचन्द सेन रंगून आए । 'बंगाल सोशल कल्ब' ने एक दिन उनके सम्मान में एक विशाल सभा का आयोजन किया। इस अवसर पर मणीन्द्रनाथ ने शरत से आग्रह किया, “शरत् दा, इस सभा में अभ्यर्थना - गीत आपको ही गाना होगा।”
उसने गाया, लेकिन परदे के पीछे बैठकर । मित्रों की गोष्ठी में निःसंकोच वह गा सकता था लेकिन विशाल जनसमूह के सामने गाना या भाषण देना उसके लिए असंभव था। अपने को छिपाने की प्रवृत्ति उसमें भयानक रूप से बढ चुकी थी। वह दम्भ नहीं था, थी आत्मविश्वास की कमी, इसलिए पलायन में ही उसे सुख मिलता था। लेकिन परदे के पीछे बैठने से कण्ठ का माधुर्य तो नष्ट नहीं होता, इसलिए उस दिन उसका गाना सुनकर सभा ही स्तब्ध नहीं हुई, स्वयं सेन महाशय भी विभोर हो उठे।
रवीन्द्रनाथ का एक गीत भी उसने गाया । समाप्त होने पर सेन महाशय ने कहा, “मैं इस व्यक्ति से मिलना चाहता हूं।"
लेकिन वह तो तब तक वहां से पलायन कर चूका था। कविवर ने कहा, कण्ठ से बंगला संगीत बहुत कम सुना है। आप उसे ढूंढकर लाइए।”
बार-बार अनुरोध करने पर भी शरत् उनसे मिलने के लिए तैयार नहीं हुआ किसी तरह हुआ भी तो एक अद्भुत दृश्य उपस्थित कर दिया। सेन महाशय जहां ठहरे हुए थे, वहां पहुंचकर वह सीढी पर चढने लगा। अंतिम पैड़ी पर पैर रखते ही उसने देखा कि सामने ड्राइंग रूम है और कविवर सेन रंगून हाईकोर्ट के जज श्री यतीन्द्रनाथ सरकार से बातें कर रहे हैं। सहसा वह पीछे मुड़ा और तेजी के साथ नीचे उतरता चला गया। आवाज होने पर सब लोग बाहर आए। चकित - विस्मित सेन महाशय ने देखा कि ऊपर सीढ़ी पर एक जूता पड़ा हुआ है और शरत् नंगे पैर भागा जा रहा है।
लेकिन एक दिन शरत् को उनके घर आना ही पड़ा। वे बोले, “आपका गाना सुनने की आशा से मैं प्यासे चातक के समान लालायित हूं।"
शरत् ने उत्तर दिया, “मैं गाना सुनाने नहीं आया हूं। आपके पुत्र निर्मलचन्द्र सुगायक हैं। उनका गाना सुनने आया हूं।"
कविवर बोले, “शरच्चन्द्र के साथ निर्मलचन्द्र की तुलना नहीं है।"
उस समय रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष, स्वामी रामकृष्णानन्द वहीं उपस्थित थे। उन्होंने कहा, “आज यहां निर्मलचन्द्र, शरच्चन्द्र और नवीनचन्द्र सभी उपस्थित हैं। पर मैं शरत्-सुधा-पान करना चाहता हूं।"
लेकिन शरत् निर्मलचन्द्र से पहले गाने के लिए किसी भी तरह सहमत नहीं हुआ। पहले निर्मलचन्द्र ने गाया और फिर शरत् ने:
आमा रिक्त शून्य जीवने सखा बाकी किछु नाईं।
ओदाओ बाचीवार मत तार बेशी नाईं चाई।।
कविवर निर्मलचन्द्र जैसे विभोर हो उठे। बोले, “आपके गाने के भाव उद्दीपन से वही चिर सुन्दर मन में उतर आया है। नहीं जानता था कि रंगून में ऐसा रत्न छिपा है। मैं आपको 'रंगून रत्न' की उपाधि देता हूं।"
लेकिन क्या वह इस उपाधि की रक्षा कर सका? उपेक्षा और अभिमान से एक दिन उसने कण्ठ के माधुर्य को खो दिया। धीरे- धीरे संगीत से अरुचि होने लगी। दूसरा गीत गाने का प्रश्न ही नहीं उठता था। पहला गीत गाते-गाते ही वह उठकर भाग जाता। मित्र कहते रह जाते, “शरत् दा! यह क्या किया? घाट पर लाकर नाव दुबो दी। दूसरा गीत नहीं गाते तो गाओ, इसे तो पूरा कर दो।"
लेकिन उसने कभी किसी के अनुरोध की चिन्ता नहीं की और एक दिन इस अस्थिर- चंचल स्वभाव ने संगीत के रस को सोख लिया। लोग भूल गये कि शरत् गाना भी जाना है। उसका स्वास्थ्य बहुत खराब था । गाते-गाते वह थक जाता था। इसके अतिरिक्त क में अध्ययन करने का उसका शौक निरन्तर बढ़ता जा रहा था। एक दिन वही शौक सब कुछ को परे धकेलकर सर्वोपरि हो उठा। तब कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि इस पलायन के पीछे उसके लेखक बनने की मौन साधना ही छिपी हुई है।