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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023

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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बाबू का प्रेम सचमुच हार्दिक था। अल्पशिक्षिता, अनेक बातों से अनभिज्ञ, सरलप्राणा ग्रामीण महिला हिरण्मयी शरत्चन्द्र की प्रतिभा की तुलना में कहीं नहीं ठहरती थीं। जब भी कोई उनसे शरत्-साहित्य के अमर नारी पात्रों की चर्चा करता तो हंस पड़ती, कहतीं, “मैं मूर्ख भला उनको क्या जानूं। तुम्हारे दादू ही जानते हैं।” पार्वती की बातें चलने पर एक दिन बोलीं, “रहने दो अपने दादू की बात । ‘देवदास' चित्र के आते ही दो लड़के-लड़की झील में डूब मरे ।”

और एक दिन वे जलधर सेन की एक पुस्तक पढ़ रही थीं। आखों से झर-झर बह रहा था पानी कि शरत्चन्द्र आ गये। बोलीं “तुम यह सब क्या छाईपाश (कूड़ा करकट) लिखते रहते हो? ऐसी किताब लिखो न !”

कितनी भोली थीं वे, परन्तु अपने अन्तर के ऐश्वर्य और निश्छल प्रेम से उन्होंने उस सर्वजन चित्तजयी कथाशिल्पी के चित्त को जीत लिया था। वह जितनी धर्मशीला थीं उतनी ही कोमल हृदया और सेवापरायणा थीं। लेकिन वे शरत्चन्द्र के साथ कभी किसी मित्र या नातेदार के घर नहीं जाती थीं।

सुना गया था कि उनका अभियोग था - शरत्चन्द्र ने उनसे विधिवत् विवाह करके उन्हें अभी भी पत्नी की संज्ञा नहीं दी हैं। कहते हैं इसीलिए उन्होंने सामताबेड़ में वैदिक रीति से विवाह करके उन्हें विधिवत् पत्नी की संज्ञा दे दी। फिर भी वे कभी उनके साथ कहीं नही गई। हां, शरत् बाबू के रिश्तेदार और मित्र - प्रशंसक जो भी उनके घर आते थे उनका वे बड़े स्नेह से स्वागत-सत्कार करती थीं। खूब खिलातीं पिलातीं, घर- गिरस्ती की मीठी-मीठी बातें करती। उनके प्यार की सीमा नहीं थी। घर पर उनका एकछत्र शासन था।

लेकिन यह बात भी क्या आश्चर्यजनक नहीं है कि उन दोनों का एक भी चित्र ऐसा नहीं है, जिसमें वे दोनों साथ ही । स्वयं हिरण्मयी देवी का अकेले भी कोई चित्र नहीं मिलता। बर्मा में एक बार उन्होंने ऐसा करने का प्रयत्न किया था तो ठीक समय पर उनके पेट में तीव्र दर्द होने लगा था और वह चित्र नहीं खिंच सका था। ऐसा लगता है कि उन्हें चित्र खिंचवाने से तीव्र अरुचि थी। इसीलिए शरत् बाबू ने फिर कभी उनसे आग्रह नहीं किया। उस दिन उनके एक नाटक की मंच पर पचासवीं रात्रि थी। उनके प्रशंसकों ने आग्रह किया कि वे हिरण्मयी देवी के साथ मंच पर आएं और फोटा खिंचवाएं। तब शरत् बाबू ने उत्तेजित होकर कहा था, “नाटक मैंने लिखा है, हिरण्मयी देवी ने नहीं।”

उस उत्तेजना के पीछे वही तथ्य था। समाज ने उन्हें स्वीकार नहीं किया था। न किया हो, शरत्चन्द्र ने तो सम्पूर्ण मन से उनका वरण किया था। धार्मिक कर्मकाण्ड में उनका विश्वास नहीं था, लेकिन हिरण्मयी देवी के अनुष्ठानों में वे बराबर योग देते थे। काशी की असाध्य गरमी भी उन्हें इस कार्य से विरत नहीं कर सकी थी। कलकत्ता में उन्हें प्रतिदिन गंगास्नान के लिए ले जाते थे। उनके स्वास्थ्य के प्रति उनकी चिन्ता असीम थी। उस बार जब निमोनिया होने पर मणीन्द्रनाथ राय उन्हें देखने आये तो करुण स्वर से शरत् बाबू ने कहा था, “डबल निमोनिया है। ऐसा लगता है इस बार बचा न पाऊंगा। छाती-पीठ सब कहीं सर्दी जम गई है। ज्वर ख़ूब तेज है। अचेतन अवस्था में हैं..।” 

और कहते-कहते आखें जल से भर उठीं। बाहर जाने पर यह चिन्ता और भी मुखर हो उठती थी। अपने देवघर-प्रवास में उन्होंने रामकृष्ण मुखोपाध्याय (पुकारने का नाम होंदल) को एक पत्र लिखा था। उससे हिरण्मयी देवी के प्रति उनकी चिन्ता स्पष्ट हो जाती है।

“होंदल, आठ-दस दिन में केवल एक चिट्ठी द्वारा ही घर की ख़बर मिली है। अस्वस्थ देह होने पर सबकी बड़ी चिन्ता हो जाती है। तुम्हारी मामी चिट्ठी लिखना नहीं जानतीं, इसलिए अनुग्रह करके यदि तुम ही रोज नहीं तो दो-एक दिन बाद एक पोस्टकार्ड लिख दो तो चिन्ता कम हो।” 

देवघर पहुंचते ही उन्होंने स्वयं हिरण्मयी देवी को एक पत्र लिखा था। पत्नी को लिखे गये उनके केवल दो ही पत्र मिलते हैं, उनमें एक यह है -

कल्याणियाशु बड़ी बऊ,

कल साढ़े तीन बजे यहां आ पहुंचा। स्टेशन पर सत्य मामा और मृत्युंजय मोटर लेकर आ गये थे। रास्ते में ज़रा भी कष्ट नहीं हुआ। हरिदास का यह 'मालंच' भवन चमत्कार है। बहुत सुन्दर है, जगह भी बहुत है । पाख़ाना नीचे है लेकिन सुन्दर है। आज सवेरे चाय के लिए बकरी का दूध मिल गया। बता दिया है कि क्रमश: एक सेर दूध तक की मुझे आवश्यकता होगी। मच्छर बहुत हैं। कल रात मसहरी नहीं लगाई। सोचा मच्छर नहीं हैं, लेकिन तीन-साढ़े तीन बजे रात को मच्छरों ने काटना शुरू कर दिया। किसी तरह लिहाफ में मुंह दबाकर पड़ा रहा। जाड़ा है इसलिए रक्षा हो गई। सभी कहते हैं कि एक-दो महीने रहने पर शरीर पूरी तरह ठीक हो जाएगा। देखता हूं कितने दिन रह सकता हूं। चिन्ता मुझे तुम्हारी है। असावधानी बरतने के कारण तुम बीमार हो सकती हो। तुम्हारी बीमारी का समाचार जिस दिन भी मिलेगा उसी दिन देवघर छोड़कर कलकत्ता चला आऊंगा।

यहां का तेल और घी अच्छा नहीं है, इसलिए सत्य मामा ने कहा है कि ये दोनों चीजे वे ला देंगे। गेहूं खरीदकर उनके घर भेजने होंगे। वे जेलखाने में उनके पिसवाने का प्रबन्ध कर देंगे। ऐसा लगता है, यहां कोई खास कष्ट नहीं होगा। घूमने की आवश्यकता है। मोटर चाहिए। पैदल घूमने की शक्ति नहीं है। शायद काली को गाड़ी लेकर यहां आना हो। छह- सात दिन बाद ठीक निश्चित करके लिखूंगा।

बूड़ी, बाघा 2-कहीं अत्याचार करके बीमार न पड़ जाएं। दीदी घर चली गई होगी। अगर रह सकें तो तुम सबको सुविधा होगी। रसोइया मिल गया कि नहीं? मुझे चिन्ता है। जिस तरह हो, जितने पैसे देने पड़े, कोई आदमी रख लो। नहीं तो घर में सबको कष्ट होगा।

प्रकाश को यह पत्र दिखा देना और कहना कि अब उसी के ऊपर सब भार है। कोई बीमार हो तो मुझे तुरन्त सूचना दे। आज या कल डा० कुमुदशंकर को चिट्ठी लिखूंगा। प्रकाश उन्हें मेरे यहां आने का समाचार दे दे।

छोटी बहू, बच्चे, होंदल, प्रकाश और तुमको मेरा आशीर्वाद। दीदी का मेरा प्रणाम कहना। इति, 18 फाल्गुन, १३४३ । (फरवरी, 1937 ई०) ।

पुनश्चः

शुभाकांक्षी,

श्री शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय

बाज़ार से लौटकर अभी मृत्युंजय ने बताया है कि उसने तार द्वारा मेरे यहां पहुंच जाने की सूचना तुम्हें दे दी है।

श० चं०

इस पत्र में शरत् बाबू ने हिरण्मयी देवी को 'कल्याणियाशु' कहकर सम्बोधित किया है। यह कोई प्रेम संबोधन नहीं है, लेकिन उसके शब्द शब्द से उनका गहरा प्रेम प्रकट होता है। वे उन्हें सदा बहू या बड़ी बहू कहकर पुकारते रहे। वह सुन्दर नही थीं किन्तु उनकी दृष्टि में वह प्रेम का अंजन लगाती थीं। वह उनके रूप की प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। कहते, बड़ी बहू का रंग खूब गोरा न होकर भी उनके जैसी फिगर (देहयष्टि) बंगाली नारी में बहुत कम देखने को मिलती है। "

समय-समय पर अपने मित्रों और प्रशंसकों को जो उन्होंने पत्र लिखे है, उसमें उन्होंने बड़ी आत्मीयता के साथ अपने गृहस्थ जीवन की चर्चा की है और अपनी सफलता का श्रेय बड़ी बहू को दिया है। उनके पत्रों से यह भी पता लगता है कि हिरण्मयी देवी उनके खान- पान और आने-जाने पर भी अंकुश रखती थीं। एक सेर तम्बाकू सात दिन चलाने का आदेश था, परन्तु आयु बढ़ने के साथ-साथ प्रेम का उच्यवास हार्दिकता और गहन आत्मीयता में बदल गया था। इस पत्र से यह भी स्पष्ट है कि भाई के बच्चों के लिए वे कितने चिन्तित रहते थे और और अपनी दीदी के प्रति कितनी श्रद्धा थी उनमें। अनजाने अपरोक्ष में इस दीदी ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था। तभी वे उन्हें अपने साहित्य में अमर कर गये।

देवघर से लौटने के बाद वे अधिक दिन स्वस्थ नहीं रह सके। बार-बार पत्रों में उसी बात की चर्चा करते थे। हरिदास को लिखा, 'मैं ठीक नहीं हूं शरीर सचमुच ही टूट गया है।

कुछ न कुछ लगा रहता है। कितने दिन कटेंगे, प्रतिदिन मन ही मन इसका हिसाब रखता हूं। आशा है अब बहुत दिन नहीं लगेंगे। बैरागी का जीवन जितना शीघ्र जाए उतना ही मंगल । '

मामा डा० सत्येन्द्रनाथ गांगुली को लिखा, “जीर्णगृह में कितने भूतों ने आश्रय लिया है, आरामकुर्सी पर लेटे-लेटे यही बात सोचता हूं और कहता हूं - दयामय देर कितनी है?' 4 मृत्यु के पदचाप पास और पास आ रहे थे पर उनका मन ज़रा भी स्वस्थ होता तो वे मित्रों के सुख-दुख और मान-सम्मान को लेकर व्यस्त हो उठते। देवघर से लौटने के बाद उन्होंने अनुभव किया उनके स्नेही मित्र असमंजस मुखोपाध्याय का सही मूल्यांकन नहीं हो रहा। इसलिए उन्होंने निश्चय किया कि रसचक्र' के तत्त्वावधान में उनका सम्मान किया जाए।

और प्राय: सभी लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकारों के सामने बेलगछिया के द्वारका कानन में पूरे विधि-विधान के साथ अपने सामने बिठाकर उन्होंने मुकर्जी महाशय का अभिनन्दन किया। उन्हें बहूमूल्य उपहार दिये, मानपत्र पढ़ा और उसके बाद प्रचुर भोजन की व्यवस्था भी कोई त्रुटि नहीं हुई।

और इस सबका खर्च वहन किया स्वयं शरत्चन्द्र ने।

लेकिन यह उत्साह अल्पजीवी था। दयामय अब अधिक देर करने के मूड में नहीं थे, इसलिए इस बार रोग ने पेट पर आक्रमण किया। डाक्टरों ने परीक्षा करने के बाद घोषणा की कि डिसपेप्सिया है।

अब डिस्पेप्सिया का इलाज आरम्भ हुआ। दवा पर दवा खानी पड़ी। लेकिन सुधार के खाते में शून्य के आगे उन्नति नहीं हुई। परिजन चिंतित हो उठे। ऐसे अवसर पर प्राय: उन्हें अपने मित्र और मामा सुरेन्द्रनाथ गांगुली की याद आती थी। सूचना मिलने पर वे आये, देखा कि सब कुछ गड़बड़ है। आवश्यकता इस बात की है कि रोगी का खाना व्यवस्थित किया जाए। लेकिन बड़ी कुछ नहीं सुनना चाहतीं। उनकी मान्यता है कि यह सब न खाने के कारण हुआ है। वे सदा इस बात की चिन्ता करती हैं कि शरत् खूब खाएं। वे खाते हैं और तड़फड़ाते हैं। डाक्टर के बहुत कहने पर चाय छोड़ने का प्रयत्न किया, पर इतने पुराने और इतने घनिष्ठ मित्र की ममता कैसे छूटे? मामा ने कहा, "अभी बहुत काम करने को हैं।"

वे बोले, “अब तो रोग की यंत्रणा भोगने के अलावा और कोई काम नहीं रह गया है। “ मामा ने उत्तर दिया, “देश अभी तुमसे बहुत आशा रखता है।"

एक दीर्घ निःश्वास खींचकर शरत् बाबू बोले, “सचमुच बहुत काम बाकी पड़ा है। समय पा सकता तो असमाप्त पुस्तकों को पूरा कर देता।

सुरेन्दनाथ ने विश्वास दिलाया, “समय मिलेगा।”

लेकिन वे समझ गये थे कि अब समय नहीं रह गया है। वैरागी मन और भी वैरागी हो उठा था। मामा कुछ दिन बाद लौट गये। अधिक रहना उनके लिए सम्भव नहीं था। वैद्यों ने कहा, "राजग्रह जाने से लाभ हो सकता है।”

लेकिन तबीयत तेज़ी से गिरती आ जा रही थी। वहां जाना अब सम्भव नहीं

था। स्वास्थ्य जब बहुत गिर गया तो प्रकाशचन्द्र ने फिर मामा को सूचना दी। लिखा - तुरन्त चले आओ।”

सुरेन्द्रनाथ आये। कालीपूजा का उत्सव समाप्त हो चुका था। शरत् के जराजीर्ण शरीर को देखकर वे चकित रह गये। समझ गये कि यहां से बाहर ले जाए बिना उनका बचना असम्भव है।

शरत्चन्द्र ने कहा, “इस रोग की कोई चिकित्सा नहीं है। मुझे शान्ति से जाने दो। यही रूपनारायण के किनारे, प्रभास की समाधि के पास।”

सुरेन्द्रनाथ बोले, यह क्या व्यर्थ की बातें करते हो? '

लेकिन ये व्यर्थ की बातें नहीं थीं। मृत्यु की पदचाप वे दोनों ही सुन पा रहे थे, फिर भी भूलने का प्रयत्न करते थे। कभी मछलियों की चिन्ता करते तो कभी बगीचे में फूलों को लेकर व्यस्त हो उठते। परिजन, मित्र और प्रशंसक अब भी सदा की तरह उनसे मिलने के लिए आते और उनकी यह अवस्था देखकर चिन्तातुर हो उठते । एक दिन आये हिन्दी के एक लेखक अमृतलाल नागर । उनका एक मित्र शरत् बाबू का इतना भक्त था कि पुस्तकों की अलमारी पर 'श्री गणेशाय नमः' के स्थान पर श्री शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय नमः' लिखा हुआ था। स्वयं शरत्चन्द्र ऐसी ही एक भक्त नारी से मिले थे। उसने घर में मन्दिर बनाकर वेदी पर शरत् बाबू की पुस्तकें सजा रखी थीं। प्रतिदिन पूजा और पाठ का क्रम निर्बाध रूप से चलता था। उसी एकान्त में उसने शरत् बाबू को अपनी सारी कहानी सुनाई थी। एक भद्र पुरुष की रक्षिता थी।

कैसी सांत्वना मिली थी शरत् बाबू को उस दिन ! जैसे उनका साहित्य सार्थक हो गया था। नागर भी उनसे कम प्रभावित नहीं थे। अक्सर मिलने आते थे। इस बार आये तो देखकर चकित रह गये। 'पाया कि संग्रहणी की शिकायत है। जो कुछ खाते है वह हजम नहीं होता। क्वेटर ओट तक हजम नहीं कर पाते। सूखकर कांटा हो गये हैं।

शरत् बाबू नागर को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। बोले, “तुम्हारे आने से मुझे बहुत ख़ुशी हुई। अब इस जौवन में मुझे कोई भी लालसा बाकी नहीं है। यह शरीर भी प्राय: निर्जीव-सा हो चुका है। बहुत थक गया हूं। यमराज, जिस वक़्त भी मुझे इनविटेशन कार्ड भेजेंगे, मैं उसी वक़्त जाने को तैयार बैठा हूं।”

कई क्षण चुप रहने के बाद जैसे अन्तर में आवारा मन जाग आया हो। बोले, “इच्छा होती है कि जलवायु परिवर्तन के लिए बंगाल छोड़कर चला जाऊं, लेकिन किसी एक जगह मकर रहने की तबियत नही होती है। सोचता हूँ, ट्रेन ही ट्रेन घूमूं, अधिक से अधिक एक- एक जगह एक-एक दो-दो दिन ठहरता हुआ।”

नागर ने कहा, “यह तो शायद आपके लिए ठीक न होगा। आप बहुत कमज़ोर हो गये हैं। ”

उन्होंने कुछ उत्तर नहीं दिया । चुपचाप आखें बन्द करके लेट गये। नागर ने फिर कहा, “आप हमारे देश चलें। लखनऊ में इस रोग के एक विशेषज्ञ हैं। कनखल में भी इस रोग का इलाज बहुत अच्छा हो सकता है। ऋषिकेश, हरिद्वार, कनखल कहीं भी आपके रहने का प्रबन्ध कर सकता हूं। आप स्वस्थ हो उठेंगे।”

शरत् बाबू को जैसे कुछ उत्साह हुआ। बोले, “वहां तो बहुत सर्दी पड़ती है; में उसे कैसे सह सकूंगा! अच्छा सोचकर देखूंगा। परसों कलकत्ता जा रहा हूं। वहां से मैं तुमको पत्र लिखूंगा।”

संध्या के समय जब नागर उनके चरण छूकर पालकी में बैठने लगे तो सहसा उन्होंने का, “ठहरो अमरित, मैं इस समय तुम्हें रूपनारायण की शोभा दिखलाना चाहता हूं।”

पालकी से उतरकर नागर उनके साथ किनारे तक गये। आकाश में तारे छिटक रहे थे। शायद पूर्णिमा थी। हाथ से इशारा करते हुए उन्होंने बतलाया, जब बाढ़ आती है तो पानी मेरे बंगले की सतह को छूता है। तब मुझे बहुत अच्छा मालूम होता है। जी करता है कि एक जहाज़ ले लें और घूमते रहें। कभी धरती पर न आयें।”

जैसे वही चिरपरिचित आवारा मन बोल रहा हो । नागर समझ गये थे कि उस दिन अन्तिम बार रूपनारायण के तट पर खड़े हुए उस महान कलाकार के दर्शन कर रहे

हैं। उस रूपनारायण नद से शरत् बाबू को बहुत प्यार था। अक्सर किनारे पर बैठकर उसे देखा करते। जो कोई उनसे मिलने आता, स्वयं उसके साथ जाकर उस नद की चर्चा करते। कुछ दिन पूर्व एक और हिन्दी लेखक वाचस्पति पाठक उनसे मिलने आये थे। जब वह लौट रहे थे तो उन्होंने उन्हें रोका था और कहा था, "एक चीज़ देखते जाओ।" 

वे देखते ही रह गये थे। उनके सामने रूपनारायण नद का विस्तार फैला पड़ा था। उस समय उसमें पानी नहीं था, लेकिन रेत का विस्तार कम प्रभावशाली नहीं होता। उन्हें वहां खड़ा करके वे पीछे हट गये। उस विस्तार ने जैसे पाठक को जकड़ लिया।

वे सचमुच कलाकार थे। सौंदर्य के उपासक। जो सौंदर्य है, वही पुरुष है, वही प्रकृति है। इसीलिए जो सौंदर्य का उपासक है, वह प्रकृति का भी उपासक है। मनोरम और भयानक, प्रकृति के इन दोनों रूपों का, और स्वयं भगवान का भी । क्योंकि सर्वोत्तम सौंदर्य ही तो भगवान है।

नागर लौट गये। सोच रहे थे कि आज यह महान लेखक कितना भावुक हो उठा है! कितना स्नेह भरा है इसके अन्तर में ? यशस्वी होकर लोग गर्वोन्मत्त हो उठते हैं और अपने चरित्र को भ्रष्ट कर डालते हैं। लेकिन एक ऐसा व्यक्ति भी हे जिसने दुखों के बीच अपनी यात्रा आरम्भ की, न जाने कितने पथ-घाटों की धूल फांकी तथाकथित पाप भी किये पर ईमानदारी, साहस और करुणा को कभी नहीं छोड़ा और अन्त में इन्हीं गुणों के कारण महान बन गया। उन्नत ललाट, लम्बी नाक और बड़ी-बड़ी अन्तभेदी आखें । उस दिन, कितनी पुरानी बात है वे स्वस्थ थे। कितनी चर्चा की साहित्य की, साहित्य में घुस आई राजनीति की, प्रेमचन्द की। उनकी कहानियां शरत् बाबू ने पड़ी थीं। बहुत वर्ष पहले 'सप्त- सरोज' पढ़कर उन्होंने हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, क्लकत्ता के श्री महावीरप्रसाद पोद्दार' को, जो अक्सर उनके पास जाते थे, लिखित सम्मति दी थी- गल्पें सचमुच बहुत उत्तम और भावपूर्ण हैं। रवीन्द्र बाबू के साथ इनकी तुलना करना अन्याय और अनुचित साहस है, पर और कोई भी बंगला लेखक इतनी अच्छी गल्पें लिख सकता है, इसमें सन्देह है। ” 8

उन्होंने यह भी कहा था, तुम लोग अपने साहित्य का सभापति किसी साहित्य महारथी को न बनाकर राजनीतिक नेताओं को क्यों बनाया करते हो?”

नागर ने उत्तर दिया, हिन्दी में स्वयंभू कर्णधारों का एक दल है, जो अपनी तबीयत से यब सब किया करता है। वरना हमारी हिन्दी में भी प्रेमचन्द | जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, निराला, पंत आदि कुछ ऐसे व्यक्ति हैं, जिन पर हम गर्व कर सकते हैं।”

शरत् बाबू ने कहा, “हमारे यहां बंगाल में भी अधिकतर साहित्य सम्मेलन के सभापति बड़े-बड़े जमींदार ही बनते हैं। लेकिन यह बात मुझे पसन्द नहीं है। जिन्हें 'साहित्य' शब्द के वास्तविक अर्थ का ज्ञान नहीं, उन्हें सम्मेलन का सभापति बनाना महज हिमाकत है।”

लेकिन इस सबके बीच उन्होंने कई बार बड़े स्नेह से नागर से कहा था, देखो अमरित, तुम अभी बच्चे हो। फिर तुम्हारे सिर से तुम्हारे पिता का साया भी उठ चुका है। दुनिया ऐसे आदमियों को हर तरह से ठगने की कोशिश करती है। तुम्हारे साथ गृहस्थी भी है, इसी से मैं तुमसे यह सब कहता हूं। इस बात को हमेशा ध्यान में रखना कि अगर तुम्हारे पास चार पैसे हों तो अधिक से अधिक इन्हीं चारों को खर्च करना, लेकिन कभी किसी से पांचवां पैसा उधार मत लेना...


बहुत दिन पहले नागर से उन्होंने कहा था, “मेरे प्रोफेसर ने मुझे दो बाते बताई थीं। एक तो यह कि कभी किसी की व्यक्तिगत आलोचना न करना और दूसरे, जो कुछ भी लिखो वह तुम्हारे अनुभव के बाहर की चीज न हो। यही दो बातें मैं तुम्हें बतलाता हूं भाई।"

किरणमयी भी तो दिवाकर की कहानी “विष की छुरी' पढ़कर यही कहती है, जिसे तुम खुद नहीं समझते उसे दूसरों को समझाने की मिध्या चेष्टा मत करो। जिसे नहीं पहचानते उसका अनाप शनाप परिचय दूसरों को मत दो। कोरी कल्पना केवल गढ़ ही सकती है, उसमें जान नहीं डाल सकती। ढो सकती है, पर राह नहीं दिखा सकती।”

उस दिन ग्रामोफोन पर इनायत खां सितारवादक का रिकार्ड बज रहा था। आखिर में उसने अपना नाम बताया। वे मुसकराए, फिर हुक्के का कश खींचते हुए बोले, “भाई, तबीयत मेरी भी करती है कि मैं अपना रिकार्ड भरवाऊं और आखिर में मैं भी इसी लहजे के साथ कहूं कि, मेरा नाम है शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय।”

नागर का आना घर के लोगों को बहुत अच्छा लगा। शरत् बाबू में कलकत्ता जाने का उत्साह दिखाई दिया। जैसे गहन अंधकार में कोई प्रकाश की खिड़की खोल गया हो।

मराठी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार मामा वरेरकर से भी उनका बड़ा स्नेह था। एक दिन लेखक ने मामा से कहा, मामा, शरत् बाबू पशुओं से बड़ा प्रेम करते थे......”

वह अपनी बात पूरी कर पाता कि मामा बोले उठे, “इसीलिए तो वे मुझे भी प्यार करते थे।”

और अट्टहास के बीच मामा ने बताया, मैंने एक दिन शरत् बाबू से कहा, 'आपके कोई सन्तान नहीं हे?" उन्होंने उत्तर दिया, 'मामा, तुम जानते हो मैं क्या हूं? क्या मैंने नहीं किया? कौन-से रोग मेरे शरीर में नहीं है? क्या तुम चाहते हो कि अपने पीछे मैं ऐसी सन्तान छोड़ जाऊं?"

उन दिनों जैसे उनकी सम्वेदना मुक्त हो चुकी थी। सुबह चाय पीने के बाद वे पैसे लेकर बैठ जाते और भिखारियों को बांटते रहते। जब कभी पुजारी अस्वस्थ हो जाता तो स्वयं राधाकृष्ण की पूजा करते। आखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती।

आखिर निश्चित हुआ कि रविवार के दिन कलकत्ता जाएंगे।

तभी अचानक विवाद खड़ा हो गया। पण्डितजी को बुलाकर बड़ी बहू ने पूछा, “रविवार को जाना क्या ठीक होगा?”

पत्रा खोलकर पण्डितजी ने गणित किया, बोले रविवार के दिन कलकत्ता जाने का योग नहीं है।"

सुनकर बड़ी बहू एकदम घबरा उठीं। शरत्चन्द्र इन बातों में विश्वास नहीं करते थे, लेकिन बडी बहू करती थीं। उन्होंने घोषणा की, 'रविवार का जाना नहीं हो सकता।"

परन्तु इस निश्चय की सूचना शरत् बाबू को कौन दे? वे तुरन्त मना कर देंगे और कहेंगे, 'नहीं, रविवार को ही जाऊंगा।”

अन्त मे सबने मिलकर एक उपाय ढूंढ निकाला। प्रकाशचन्द्र पण्डितजी और सबसे अन्त में आखों में औसू भरे बडी बहू, तीनों शरत् बाबू के पास पहुंचे। आँखे बन्द किए वे आरामकुर्सी पर लेटे थे। पगध्वनि सुनकर उन्होंने दृष्टि उठाई और प्रकाश से पूछा, “क्या हे खोका?”

“रविवार को जाना न होगा।"

मामा क्या कहते हैं?"

“सोमवार!"

"भी यही सोचता हूं। कल सब काम पूरे भी नहीं होंगे। सोमवार ही ठीक है।”

कलकत्ता जाने के लिए वे तैयार हो गये थे, लेकिन इसी शर्त पर कि शुक्रवार को लौट आएंगे। सोमवार के सवेरे सब कामो से छुट्टी पाकर उन्होंने राधाकृष्ण को प्रणाम किया और मन्द-मन्द स्वर में रवीन्द्रनाथ का यह गीत गाते हुए चल पडे -

पथेर पथिक करेछो आमाए, सेई भालो ये सेई भालो ।

आलेया ज्वालाले प्रान्तर भाले, सेई आलो मोर सेई आलो।।

गांव से विदा लेते हुए उन्हें अत्यन्त पीड़ा हो रही थी। शरीर बहुत दुर्बल हो चुका था। मांसहीन पैरों में सुन्दर मोजे और पालिश किया हुआ बादामी जूता ऐसा लगता था जैसे किसी ने महाप्रयाण के लिए श्रृंगार किया हो। फक्कड़ कबीर ने गाया हे न -

कर ले श्रृंगार चतुर अलबेली, साजन के घर जाना होगा।

यह साजन के घर जाने की तैयारी ही तो थी। स्टेशन पर पहुंचकर सुरेन्द्रनाथ ने कहा, "तुम्हारे लिए सेकण्ड क्लास का और अपने तथा गोपाल के लिए थर्ड क्लास का टिकट ले आता हूं।”

शरत् बाबू ने उत्तर दिया, यह कैसे हो सकता है? सब इन्टर क्लास में साथ चलेंगे।” उस दिन केवल भावुकता के कारण ही वे ऐसा नहीं कह रहे थे, मनुष्य से सदा ही उन्हें ऐसा प्रेम रहा है। उड़िया देश का वह भोला अनेक वर्षों तक उनके साथ रहा। सामताबेड़ आने पर भी वह कई वर्ष उनके साथ था। जहां कहीं भी वे जाते थे, वह उन्का चिरसंगी था, उनका अन्तरंग । एक दिन अचानक छुट्टी लेकर वह सदा के लिए अपने देश चला गया। तब उन्होंने जिस सेवक को अपने साथ रखा वह था ननी । सांप के काटने से अचानक उसकी मृत्यु हो गई थी। उसको बचाने के लिए शरत् बाबू अत्यन्त व्यस्त हो उठे थे। अपने खर्च पर उसे इलाज के लिए कलकत्ता भेजा। रात भर उसकी चिन्ता करते रहे, लेकिन वह बच नहीं सका। यह समाचार पाकर उनकी व्यथा का पार नहीं रहा। कहा, सवेरे से रात तक रास्ते की ओर देखता हुआ बैठा हूं कि कोई अच्छी खबर लेकर आएगा। वह तो नहीं हुआ, तुम यह क्या खबर ले आये?”

जब तक वे जीवित रहे ननी के परिवार की आर्थिक सहायता करते रहे। उनके नहीं रहने पर हिरण्मयी देवी ने यह सहायता जारी रखी। ड्राइवर काली को तो शरत् बाबू अपने घर का सदस्य मानते थे। उस दिन वे असमंजस मुखोपाध्याय के साथ एक योरोपियन होटल में चाय पीने के लिए गये। एक कप का मूल्य था आठ आने । बंगाली दुकान में वही चाय दो पैसे में मिलती थी। काली ने कहा, “मैं वहीं जाकर चाय पी आता हूं।

शरतचन्द्र तुरन्त बोले, “जब हम यहां पी रहे हैं तो तुम वहां किसलिए जाओगे?" इसीलिए उस दिन भी वे गोपाल के साथ एक ही डिब्बे में बैठे। मार्ग में किसी स्टेशन पर गाडी रुकी तो एक परिचित डाक्टर ने आकर प्रणाम किया। पूछा, "आप कैसे हैं दादा?" शरत्चन्द्र बोले, “तुम्हीं बताओ कैसा लगता हूं?"

“पहले से अच्छे दिखाई देते हैं।”

तुम डाक्टर जाति के हो, मेरा यही विश्वास था। आज यह विश्वास और भी दृढ हो गया।”

डाक्टर ने कहा, “इतना बड़ा सर्टिफिकेट क्यों दे रहे हैं आप?"

एक क्षण चुप रहकर शरत् बाबू फिर बोले, “डाक्टर, तुम बहुत अच्छी तरह जानते हो कि मैं ठीक नहीं हूं। यह भी जानते हो कि मुझसे ऐसी बात नहीं कही जानी

चाहिए। इसीलिए तुमको बड़ा मानता हूं।”

कई क्षण इसी तरह की बातें करते रहे। अन्त में बोले, “बहुत दिनों से मैं अपनी स्थिति जानता हूं। पेड़-पौधों को लेकर भूलने की कोशिश कर रहा हूं। किसी दिन सामता आओगे तो देखोगे।"

“दादा, अच्छा होने के लिए लगता है वही एक उपाय है, मन को निरुद्वेग कर दीजिए । तब देखेगें कि कैसे आप ठीक हो गये हैं। ”

उन्होंने सिर हिलाकर उत्तर दिया, ”अब कुछ नहीं हो सकता।"

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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भूमिका

21 अगस्त 2023
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संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

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भूमिका : पहले संस्करण की

21 अगस्त 2023
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कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

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तीसरे संस्करण की भूमिका

21 अगस्त 2023
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लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

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" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

21 अगस्त 2023
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किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

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अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

21 अगस्त 2023
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भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

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अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
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नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

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अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
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मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

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अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
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शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

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अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
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तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

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अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
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शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

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अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
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इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

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अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

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अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
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शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

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अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
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उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

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अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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