हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बाबू का प्रेम सचमुच हार्दिक था। अल्पशिक्षिता, अनेक बातों से अनभिज्ञ, सरलप्राणा ग्रामीण महिला हिरण्मयी शरत्चन्द्र की प्रतिभा की तुलना में कहीं नहीं ठहरती थीं। जब भी कोई उनसे शरत्-साहित्य के अमर नारी पात्रों की चर्चा करता तो हंस पड़ती, कहतीं, “मैं मूर्ख भला उनको क्या जानूं। तुम्हारे दादू ही जानते हैं।” पार्वती की बातें चलने पर एक दिन बोलीं, “रहने दो अपने दादू की बात । ‘देवदास' चित्र के आते ही दो लड़के-लड़की झील में डूब मरे ।”
और एक दिन वे जलधर सेन की एक पुस्तक पढ़ रही थीं। आखों से झर-झर बह रहा था पानी कि शरत्चन्द्र आ गये। बोलीं “तुम यह सब क्या छाईपाश (कूड़ा करकट) लिखते रहते हो? ऐसी किताब लिखो न !”
कितनी भोली थीं वे, परन्तु अपने अन्तर के ऐश्वर्य और निश्छल प्रेम से उन्होंने उस सर्वजन चित्तजयी कथाशिल्पी के चित्त को जीत लिया था। वह जितनी धर्मशीला थीं उतनी ही कोमल हृदया और सेवापरायणा थीं। लेकिन वे शरत्चन्द्र के साथ कभी किसी मित्र या नातेदार के घर नहीं जाती थीं।
सुना गया था कि उनका अभियोग था - शरत्चन्द्र ने उनसे विधिवत् विवाह करके उन्हें अभी भी पत्नी की संज्ञा नहीं दी हैं। कहते हैं इसीलिए उन्होंने सामताबेड़ में वैदिक रीति से विवाह करके उन्हें विधिवत् पत्नी की संज्ञा दे दी। फिर भी वे कभी उनके साथ कहीं नही गई। हां, शरत् बाबू के रिश्तेदार और मित्र - प्रशंसक जो भी उनके घर आते थे उनका वे बड़े स्नेह से स्वागत-सत्कार करती थीं। खूब खिलातीं पिलातीं, घर- गिरस्ती की मीठी-मीठी बातें करती। उनके प्यार की सीमा नहीं थी। घर पर उनका एकछत्र शासन था।
लेकिन यह बात भी क्या आश्चर्यजनक नहीं है कि उन दोनों का एक भी चित्र ऐसा नहीं है, जिसमें वे दोनों साथ ही । स्वयं हिरण्मयी देवी का अकेले भी कोई चित्र नहीं मिलता। बर्मा में एक बार उन्होंने ऐसा करने का प्रयत्न किया था तो ठीक समय पर उनके पेट में तीव्र दर्द होने लगा था और वह चित्र नहीं खिंच सका था। ऐसा लगता है कि उन्हें चित्र खिंचवाने से तीव्र अरुचि थी। इसीलिए शरत् बाबू ने फिर कभी उनसे आग्रह नहीं किया। उस दिन उनके एक नाटक की मंच पर पचासवीं रात्रि थी। उनके प्रशंसकों ने आग्रह किया कि वे हिरण्मयी देवी के साथ मंच पर आएं और फोटा खिंचवाएं। तब शरत् बाबू ने उत्तेजित होकर कहा था, “नाटक मैंने लिखा है, हिरण्मयी देवी ने नहीं।”
उस उत्तेजना के पीछे वही तथ्य था। समाज ने उन्हें स्वीकार नहीं किया था। न किया हो, शरत्चन्द्र ने तो सम्पूर्ण मन से उनका वरण किया था। धार्मिक कर्मकाण्ड में उनका विश्वास नहीं था, लेकिन हिरण्मयी देवी के अनुष्ठानों में वे बराबर योग देते थे। काशी की असाध्य गरमी भी उन्हें इस कार्य से विरत नहीं कर सकी थी। कलकत्ता में उन्हें प्रतिदिन गंगास्नान के लिए ले जाते थे। उनके स्वास्थ्य के प्रति उनकी चिन्ता असीम थी। उस बार जब निमोनिया होने पर मणीन्द्रनाथ राय उन्हें देखने आये तो करुण स्वर से शरत् बाबू ने कहा था, “डबल निमोनिया है। ऐसा लगता है इस बार बचा न पाऊंगा। छाती-पीठ सब कहीं सर्दी जम गई है। ज्वर ख़ूब तेज है। अचेतन अवस्था में हैं..।”
और कहते-कहते आखें जल से भर उठीं। बाहर जाने पर यह चिन्ता और भी मुखर हो उठती थी। अपने देवघर-प्रवास में उन्होंने रामकृष्ण मुखोपाध्याय (पुकारने का नाम होंदल) को एक पत्र लिखा था। उससे हिरण्मयी देवी के प्रति उनकी चिन्ता स्पष्ट हो जाती है।
“होंदल, आठ-दस दिन में केवल एक चिट्ठी द्वारा ही घर की ख़बर मिली है। अस्वस्थ देह होने पर सबकी बड़ी चिन्ता हो जाती है। तुम्हारी मामी चिट्ठी लिखना नहीं जानतीं, इसलिए अनुग्रह करके यदि तुम ही रोज नहीं तो दो-एक दिन बाद एक पोस्टकार्ड लिख दो तो चिन्ता कम हो।”
देवघर पहुंचते ही उन्होंने स्वयं हिरण्मयी देवी को एक पत्र लिखा था। पत्नी को लिखे गये उनके केवल दो ही पत्र मिलते हैं, उनमें एक यह है -
कल्याणियाशु बड़ी बऊ,
कल साढ़े तीन बजे यहां आ पहुंचा। स्टेशन पर सत्य मामा और मृत्युंजय मोटर लेकर आ गये थे। रास्ते में ज़रा भी कष्ट नहीं हुआ। हरिदास का यह 'मालंच' भवन चमत्कार है। बहुत सुन्दर है, जगह भी बहुत है । पाख़ाना नीचे है लेकिन सुन्दर है। आज सवेरे चाय के लिए बकरी का दूध मिल गया। बता दिया है कि क्रमश: एक सेर दूध तक की मुझे आवश्यकता होगी। मच्छर बहुत हैं। कल रात मसहरी नहीं लगाई। सोचा मच्छर नहीं हैं, लेकिन तीन-साढ़े तीन बजे रात को मच्छरों ने काटना शुरू कर दिया। किसी तरह लिहाफ में मुंह दबाकर पड़ा रहा। जाड़ा है इसलिए रक्षा हो गई। सभी कहते हैं कि एक-दो महीने रहने पर शरीर पूरी तरह ठीक हो जाएगा। देखता हूं कितने दिन रह सकता हूं। चिन्ता मुझे तुम्हारी है। असावधानी बरतने के कारण तुम बीमार हो सकती हो। तुम्हारी बीमारी का समाचार जिस दिन भी मिलेगा उसी दिन देवघर छोड़कर कलकत्ता चला आऊंगा।
यहां का तेल और घी अच्छा नहीं है, इसलिए सत्य मामा ने कहा है कि ये दोनों चीजे वे ला देंगे। गेहूं खरीदकर उनके घर भेजने होंगे। वे जेलखाने में उनके पिसवाने का प्रबन्ध कर देंगे। ऐसा लगता है, यहां कोई खास कष्ट नहीं होगा। घूमने की आवश्यकता है। मोटर चाहिए। पैदल घूमने की शक्ति नहीं है। शायद काली को गाड़ी लेकर यहां आना हो। छह- सात दिन बाद ठीक निश्चित करके लिखूंगा।
बूड़ी, बाघा 2-कहीं अत्याचार करके बीमार न पड़ जाएं। दीदी घर चली गई होगी। अगर रह सकें तो तुम सबको सुविधा होगी। रसोइया मिल गया कि नहीं? मुझे चिन्ता है। जिस तरह हो, जितने पैसे देने पड़े, कोई आदमी रख लो। नहीं तो घर में सबको कष्ट होगा।
प्रकाश को यह पत्र दिखा देना और कहना कि अब उसी के ऊपर सब भार है। कोई बीमार हो तो मुझे तुरन्त सूचना दे। आज या कल डा० कुमुदशंकर को चिट्ठी लिखूंगा। प्रकाश उन्हें मेरे यहां आने का समाचार दे दे।
छोटी बहू, बच्चे, होंदल, प्रकाश और तुमको मेरा आशीर्वाद। दीदी का मेरा प्रणाम कहना। इति, 18 फाल्गुन, १३४३ । (फरवरी, 1937 ई०) ।
पुनश्चः
शुभाकांक्षी,
श्री शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय
बाज़ार से लौटकर अभी मृत्युंजय ने बताया है कि उसने तार द्वारा मेरे यहां पहुंच जाने की सूचना तुम्हें दे दी है।
श० चं०
इस पत्र में शरत् बाबू ने हिरण्मयी देवी को 'कल्याणियाशु' कहकर सम्बोधित किया है। यह कोई प्रेम संबोधन नहीं है, लेकिन उसके शब्द शब्द से उनका गहरा प्रेम प्रकट होता है। वे उन्हें सदा बहू या बड़ी बहू कहकर पुकारते रहे। वह सुन्दर नही थीं किन्तु उनकी दृष्टि में वह प्रेम का अंजन लगाती थीं। वह उनके रूप की प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। कहते, बड़ी बहू का रंग खूब गोरा न होकर भी उनके जैसी फिगर (देहयष्टि) बंगाली नारी में बहुत कम देखने को मिलती है। "
समय-समय पर अपने मित्रों और प्रशंसकों को जो उन्होंने पत्र लिखे है, उसमें उन्होंने बड़ी आत्मीयता के साथ अपने गृहस्थ जीवन की चर्चा की है और अपनी सफलता का श्रेय बड़ी बहू को दिया है। उनके पत्रों से यह भी पता लगता है कि हिरण्मयी देवी उनके खान- पान और आने-जाने पर भी अंकुश रखती थीं। एक सेर तम्बाकू सात दिन चलाने का आदेश था, परन्तु आयु बढ़ने के साथ-साथ प्रेम का उच्यवास हार्दिकता और गहन आत्मीयता में बदल गया था। इस पत्र से यह भी स्पष्ट है कि भाई के बच्चों के लिए वे कितने चिन्तित रहते थे और और अपनी दीदी के प्रति कितनी श्रद्धा थी उनमें। अनजाने अपरोक्ष में इस दीदी ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था। तभी वे उन्हें अपने साहित्य में अमर कर गये।
देवघर से लौटने के बाद वे अधिक दिन स्वस्थ नहीं रह सके। बार-बार पत्रों में उसी बात की चर्चा करते थे। हरिदास को लिखा, 'मैं ठीक नहीं हूं शरीर सचमुच ही टूट गया है।
कुछ न कुछ लगा रहता है। कितने दिन कटेंगे, प्रतिदिन मन ही मन इसका हिसाब रखता हूं। आशा है अब बहुत दिन नहीं लगेंगे। बैरागी का जीवन जितना शीघ्र जाए उतना ही मंगल । '
मामा डा० सत्येन्द्रनाथ गांगुली को लिखा, “जीर्णगृह में कितने भूतों ने आश्रय लिया है, आरामकुर्सी पर लेटे-लेटे यही बात सोचता हूं और कहता हूं - दयामय देर कितनी है?' 4 मृत्यु के पदचाप पास और पास आ रहे थे पर उनका मन ज़रा भी स्वस्थ होता तो वे मित्रों के सुख-दुख और मान-सम्मान को लेकर व्यस्त हो उठते। देवघर से लौटने के बाद उन्होंने अनुभव किया उनके स्नेही मित्र असमंजस मुखोपाध्याय का सही मूल्यांकन नहीं हो रहा। इसलिए उन्होंने निश्चय किया कि रसचक्र' के तत्त्वावधान में उनका सम्मान किया जाए।
और प्राय: सभी लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकारों के सामने बेलगछिया के द्वारका कानन में पूरे विधि-विधान के साथ अपने सामने बिठाकर उन्होंने मुकर्जी महाशय का अभिनन्दन किया। उन्हें बहूमूल्य उपहार दिये, मानपत्र पढ़ा और उसके बाद प्रचुर भोजन की व्यवस्था भी कोई त्रुटि नहीं हुई।
और इस सबका खर्च वहन किया स्वयं शरत्चन्द्र ने।
लेकिन यह उत्साह अल्पजीवी था। दयामय अब अधिक देर करने के मूड में नहीं थे, इसलिए इस बार रोग ने पेट पर आक्रमण किया। डाक्टरों ने परीक्षा करने के बाद घोषणा की कि डिसपेप्सिया है।
अब डिस्पेप्सिया का इलाज आरम्भ हुआ। दवा पर दवा खानी पड़ी। लेकिन सुधार के खाते में शून्य के आगे उन्नति नहीं हुई। परिजन चिंतित हो उठे। ऐसे अवसर पर प्राय: उन्हें अपने मित्र और मामा सुरेन्द्रनाथ गांगुली की याद आती थी। सूचना मिलने पर वे आये, देखा कि सब कुछ गड़बड़ है। आवश्यकता इस बात की है कि रोगी का खाना व्यवस्थित किया जाए। लेकिन बड़ी कुछ नहीं सुनना चाहतीं। उनकी मान्यता है कि यह सब न खाने के कारण हुआ है। वे सदा इस बात की चिन्ता करती हैं कि शरत् खूब खाएं। वे खाते हैं और तड़फड़ाते हैं। डाक्टर के बहुत कहने पर चाय छोड़ने का प्रयत्न किया, पर इतने पुराने और इतने घनिष्ठ मित्र की ममता कैसे छूटे? मामा ने कहा, "अभी बहुत काम करने को हैं।"
वे बोले, “अब तो रोग की यंत्रणा भोगने के अलावा और कोई काम नहीं रह गया है। “ मामा ने उत्तर दिया, “देश अभी तुमसे बहुत आशा रखता है।"
एक दीर्घ निःश्वास खींचकर शरत् बाबू बोले, “सचमुच बहुत काम बाकी पड़ा है। समय पा सकता तो असमाप्त पुस्तकों को पूरा कर देता।
सुरेन्दनाथ ने विश्वास दिलाया, “समय मिलेगा।”
लेकिन वे समझ गये थे कि अब समय नहीं रह गया है। वैरागी मन और भी वैरागी हो उठा था। मामा कुछ दिन बाद लौट गये। अधिक रहना उनके लिए सम्भव नहीं था। वैद्यों ने कहा, "राजग्रह जाने से लाभ हो सकता है।”
लेकिन तबीयत तेज़ी से गिरती आ जा रही थी। वहां जाना अब सम्भव नहीं
था। स्वास्थ्य जब बहुत गिर गया तो प्रकाशचन्द्र ने फिर मामा को सूचना दी। लिखा - तुरन्त चले आओ।”
सुरेन्द्रनाथ आये। कालीपूजा का उत्सव समाप्त हो चुका था। शरत् के जराजीर्ण शरीर को देखकर वे चकित रह गये। समझ गये कि यहां से बाहर ले जाए बिना उनका बचना असम्भव है।
शरत्चन्द्र ने कहा, “इस रोग की कोई चिकित्सा नहीं है। मुझे शान्ति से जाने दो। यही रूपनारायण के किनारे, प्रभास की समाधि के पास।”
सुरेन्द्रनाथ बोले, यह क्या व्यर्थ की बातें करते हो? '
लेकिन ये व्यर्थ की बातें नहीं थीं। मृत्यु की पदचाप वे दोनों ही सुन पा रहे थे, फिर भी भूलने का प्रयत्न करते थे। कभी मछलियों की चिन्ता करते तो कभी बगीचे में फूलों को लेकर व्यस्त हो उठते। परिजन, मित्र और प्रशंसक अब भी सदा की तरह उनसे मिलने के लिए आते और उनकी यह अवस्था देखकर चिन्तातुर हो उठते । एक दिन आये हिन्दी के एक लेखक अमृतलाल नागर । उनका एक मित्र शरत् बाबू का इतना भक्त था कि पुस्तकों की अलमारी पर 'श्री गणेशाय नमः' के स्थान पर श्री शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय नमः' लिखा हुआ था। स्वयं शरत्चन्द्र ऐसी ही एक भक्त नारी से मिले थे। उसने घर में मन्दिर बनाकर वेदी पर शरत् बाबू की पुस्तकें सजा रखी थीं। प्रतिदिन पूजा और पाठ का क्रम निर्बाध रूप से चलता था। उसी एकान्त में उसने शरत् बाबू को अपनी सारी कहानी सुनाई थी। एक भद्र पुरुष की रक्षिता थी।
कैसी सांत्वना मिली थी शरत् बाबू को उस दिन ! जैसे उनका साहित्य सार्थक हो गया था। नागर भी उनसे कम प्रभावित नहीं थे। अक्सर मिलने आते थे। इस बार आये तो देखकर चकित रह गये। 'पाया कि संग्रहणी की शिकायत है। जो कुछ खाते है वह हजम नहीं होता। क्वेटर ओट तक हजम नहीं कर पाते। सूखकर कांटा हो गये हैं।
शरत् बाबू नागर को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। बोले, “तुम्हारे आने से मुझे बहुत ख़ुशी हुई। अब इस जौवन में मुझे कोई भी लालसा बाकी नहीं है। यह शरीर भी प्राय: निर्जीव-सा हो चुका है। बहुत थक गया हूं। यमराज, जिस वक़्त भी मुझे इनविटेशन कार्ड भेजेंगे, मैं उसी वक़्त जाने को तैयार बैठा हूं।”
कई क्षण चुप रहने के बाद जैसे अन्तर में आवारा मन जाग आया हो। बोले, “इच्छा होती है कि जलवायु परिवर्तन के लिए बंगाल छोड़कर चला जाऊं, लेकिन किसी एक जगह मकर रहने की तबियत नही होती है। सोचता हूँ, ट्रेन ही ट्रेन घूमूं, अधिक से अधिक एक- एक जगह एक-एक दो-दो दिन ठहरता हुआ।”
नागर ने कहा, “यह तो शायद आपके लिए ठीक न होगा। आप बहुत कमज़ोर हो गये हैं। ”
उन्होंने कुछ उत्तर नहीं दिया । चुपचाप आखें बन्द करके लेट गये। नागर ने फिर कहा, “आप हमारे देश चलें। लखनऊ में इस रोग के एक विशेषज्ञ हैं। कनखल में भी इस रोग का इलाज बहुत अच्छा हो सकता है। ऋषिकेश, हरिद्वार, कनखल कहीं भी आपके रहने का प्रबन्ध कर सकता हूं। आप स्वस्थ हो उठेंगे।”
शरत् बाबू को जैसे कुछ उत्साह हुआ। बोले, “वहां तो बहुत सर्दी पड़ती है; में उसे कैसे सह सकूंगा! अच्छा सोचकर देखूंगा। परसों कलकत्ता जा रहा हूं। वहां से मैं तुमको पत्र लिखूंगा।”
संध्या के समय जब नागर उनके चरण छूकर पालकी में बैठने लगे तो सहसा उन्होंने का, “ठहरो अमरित, मैं इस समय तुम्हें रूपनारायण की शोभा दिखलाना चाहता हूं।”
पालकी से उतरकर नागर उनके साथ किनारे तक गये। आकाश में तारे छिटक रहे थे। शायद पूर्णिमा थी। हाथ से इशारा करते हुए उन्होंने बतलाया, जब बाढ़ आती है तो पानी मेरे बंगले की सतह को छूता है। तब मुझे बहुत अच्छा मालूम होता है। जी करता है कि एक जहाज़ ले लें और घूमते रहें। कभी धरती पर न आयें।”
जैसे वही चिरपरिचित आवारा मन बोल रहा हो । नागर समझ गये थे कि उस दिन अन्तिम बार रूपनारायण के तट पर खड़े हुए उस महान कलाकार के दर्शन कर रहे
हैं। उस रूपनारायण नद से शरत् बाबू को बहुत प्यार था। अक्सर किनारे पर बैठकर उसे देखा करते। जो कोई उनसे मिलने आता, स्वयं उसके साथ जाकर उस नद की चर्चा करते। कुछ दिन पूर्व एक और हिन्दी लेखक वाचस्पति पाठक उनसे मिलने आये थे। जब वह लौट रहे थे तो उन्होंने उन्हें रोका था और कहा था, "एक चीज़ देखते जाओ।"
वे देखते ही रह गये थे। उनके सामने रूपनारायण नद का विस्तार फैला पड़ा था। उस समय उसमें पानी नहीं था, लेकिन रेत का विस्तार कम प्रभावशाली नहीं होता। उन्हें वहां खड़ा करके वे पीछे हट गये। उस विस्तार ने जैसे पाठक को जकड़ लिया।
वे सचमुच कलाकार थे। सौंदर्य के उपासक। जो सौंदर्य है, वही पुरुष है, वही प्रकृति है। इसीलिए जो सौंदर्य का उपासक है, वह प्रकृति का भी उपासक है। मनोरम और भयानक, प्रकृति के इन दोनों रूपों का, और स्वयं भगवान का भी । क्योंकि सर्वोत्तम सौंदर्य ही तो भगवान है।
नागर लौट गये। सोच रहे थे कि आज यह महान लेखक कितना भावुक हो उठा है! कितना स्नेह भरा है इसके अन्तर में ? यशस्वी होकर लोग गर्वोन्मत्त हो उठते हैं और अपने चरित्र को भ्रष्ट कर डालते हैं। लेकिन एक ऐसा व्यक्ति भी हे जिसने दुखों के बीच अपनी यात्रा आरम्भ की, न जाने कितने पथ-घाटों की धूल फांकी तथाकथित पाप भी किये पर ईमानदारी, साहस और करुणा को कभी नहीं छोड़ा और अन्त में इन्हीं गुणों के कारण महान बन गया। उन्नत ललाट, लम्बी नाक और बड़ी-बड़ी अन्तभेदी आखें । उस दिन, कितनी पुरानी बात है वे स्वस्थ थे। कितनी चर्चा की साहित्य की, साहित्य में घुस आई राजनीति की, प्रेमचन्द की। उनकी कहानियां शरत् बाबू ने पड़ी थीं। बहुत वर्ष पहले 'सप्त- सरोज' पढ़कर उन्होंने हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, क्लकत्ता के श्री महावीरप्रसाद पोद्दार' को, जो अक्सर उनके पास जाते थे, लिखित सम्मति दी थी- गल्पें सचमुच बहुत उत्तम और भावपूर्ण हैं। रवीन्द्र बाबू के साथ इनकी तुलना करना अन्याय और अनुचित साहस है, पर और कोई भी बंगला लेखक इतनी अच्छी गल्पें लिख सकता है, इसमें सन्देह है। ” 8
उन्होंने यह भी कहा था, तुम लोग अपने साहित्य का सभापति किसी साहित्य महारथी को न बनाकर राजनीतिक नेताओं को क्यों बनाया करते हो?”
नागर ने उत्तर दिया, हिन्दी में स्वयंभू कर्णधारों का एक दल है, जो अपनी तबीयत से यब सब किया करता है। वरना हमारी हिन्दी में भी प्रेमचन्द | जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, निराला, पंत आदि कुछ ऐसे व्यक्ति हैं, जिन पर हम गर्व कर सकते हैं।”
शरत् बाबू ने कहा, “हमारे यहां बंगाल में भी अधिकतर साहित्य सम्मेलन के सभापति बड़े-बड़े जमींदार ही बनते हैं। लेकिन यह बात मुझे पसन्द नहीं है। जिन्हें 'साहित्य' शब्द के वास्तविक अर्थ का ज्ञान नहीं, उन्हें सम्मेलन का सभापति बनाना महज हिमाकत है।”
लेकिन इस सबके बीच उन्होंने कई बार बड़े स्नेह से नागर से कहा था, देखो अमरित, तुम अभी बच्चे हो। फिर तुम्हारे सिर से तुम्हारे पिता का साया भी उठ चुका है। दुनिया ऐसे आदमियों को हर तरह से ठगने की कोशिश करती है। तुम्हारे साथ गृहस्थी भी है, इसी से मैं तुमसे यह सब कहता हूं। इस बात को हमेशा ध्यान में रखना कि अगर तुम्हारे पास चार पैसे हों तो अधिक से अधिक इन्हीं चारों को खर्च करना, लेकिन कभी किसी से पांचवां पैसा उधार मत लेना...
बहुत दिन पहले नागर से उन्होंने कहा था, “मेरे प्रोफेसर ने मुझे दो बाते बताई थीं। एक तो यह कि कभी किसी की व्यक्तिगत आलोचना न करना और दूसरे, जो कुछ भी लिखो वह तुम्हारे अनुभव के बाहर की चीज न हो। यही दो बातें मैं तुम्हें बतलाता हूं भाई।"
किरणमयी भी तो दिवाकर की कहानी “विष की छुरी' पढ़कर यही कहती है, जिसे तुम खुद नहीं समझते उसे दूसरों को समझाने की मिध्या चेष्टा मत करो। जिसे नहीं पहचानते उसका अनाप शनाप परिचय दूसरों को मत दो। कोरी कल्पना केवल गढ़ ही सकती है, उसमें जान नहीं डाल सकती। ढो सकती है, पर राह नहीं दिखा सकती।”
उस दिन ग्रामोफोन पर इनायत खां सितारवादक का रिकार्ड बज रहा था। आखिर में उसने अपना नाम बताया। वे मुसकराए, फिर हुक्के का कश खींचते हुए बोले, “भाई, तबीयत मेरी भी करती है कि मैं अपना रिकार्ड भरवाऊं और आखिर में मैं भी इसी लहजे के साथ कहूं कि, मेरा नाम है शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय।”
नागर का आना घर के लोगों को बहुत अच्छा लगा। शरत् बाबू में कलकत्ता जाने का उत्साह दिखाई दिया। जैसे गहन अंधकार में कोई प्रकाश की खिड़की खोल गया हो।
मराठी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार मामा वरेरकर से भी उनका बड़ा स्नेह था। एक दिन लेखक ने मामा से कहा, मामा, शरत् बाबू पशुओं से बड़ा प्रेम करते थे......”
वह अपनी बात पूरी कर पाता कि मामा बोले उठे, “इसीलिए तो वे मुझे भी प्यार करते थे।”
और अट्टहास के बीच मामा ने बताया, मैंने एक दिन शरत् बाबू से कहा, 'आपके कोई सन्तान नहीं हे?" उन्होंने उत्तर दिया, 'मामा, तुम जानते हो मैं क्या हूं? क्या मैंने नहीं किया? कौन-से रोग मेरे शरीर में नहीं है? क्या तुम चाहते हो कि अपने पीछे मैं ऐसी सन्तान छोड़ जाऊं?"
उन दिनों जैसे उनकी सम्वेदना मुक्त हो चुकी थी। सुबह चाय पीने के बाद वे पैसे लेकर बैठ जाते और भिखारियों को बांटते रहते। जब कभी पुजारी अस्वस्थ हो जाता तो स्वयं राधाकृष्ण की पूजा करते। आखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती।
आखिर निश्चित हुआ कि रविवार के दिन कलकत्ता जाएंगे।
तभी अचानक विवाद खड़ा हो गया। पण्डितजी को बुलाकर बड़ी बहू ने पूछा, “रविवार को जाना क्या ठीक होगा?”
पत्रा खोलकर पण्डितजी ने गणित किया, बोले रविवार के दिन कलकत्ता जाने का योग नहीं है।"
सुनकर बड़ी बहू एकदम घबरा उठीं। शरत्चन्द्र इन बातों में विश्वास नहीं करते थे, लेकिन बडी बहू करती थीं। उन्होंने घोषणा की, 'रविवार का जाना नहीं हो सकता।"
परन्तु इस निश्चय की सूचना शरत् बाबू को कौन दे? वे तुरन्त मना कर देंगे और कहेंगे, 'नहीं, रविवार को ही जाऊंगा।”
अन्त मे सबने मिलकर एक उपाय ढूंढ निकाला। प्रकाशचन्द्र पण्डितजी और सबसे अन्त में आखों में औसू भरे बडी बहू, तीनों शरत् बाबू के पास पहुंचे। आँखे बन्द किए वे आरामकुर्सी पर लेटे थे। पगध्वनि सुनकर उन्होंने दृष्टि उठाई और प्रकाश से पूछा, “क्या हे खोका?”
“रविवार को जाना न होगा।"
मामा क्या कहते हैं?"
“सोमवार!"
"भी यही सोचता हूं। कल सब काम पूरे भी नहीं होंगे। सोमवार ही ठीक है।”
कलकत्ता जाने के लिए वे तैयार हो गये थे, लेकिन इसी शर्त पर कि शुक्रवार को लौट आएंगे। सोमवार के सवेरे सब कामो से छुट्टी पाकर उन्होंने राधाकृष्ण को प्रणाम किया और मन्द-मन्द स्वर में रवीन्द्रनाथ का यह गीत गाते हुए चल पडे -
पथेर पथिक करेछो आमाए, सेई भालो ये सेई भालो ।
आलेया ज्वालाले प्रान्तर भाले, सेई आलो मोर सेई आलो।।
गांव से विदा लेते हुए उन्हें अत्यन्त पीड़ा हो रही थी। शरीर बहुत दुर्बल हो चुका था। मांसहीन पैरों में सुन्दर मोजे और पालिश किया हुआ बादामी जूता ऐसा लगता था जैसे किसी ने महाप्रयाण के लिए श्रृंगार किया हो। फक्कड़ कबीर ने गाया हे न -
कर ले श्रृंगार चतुर अलबेली, साजन के घर जाना होगा।
यह साजन के घर जाने की तैयारी ही तो थी। स्टेशन पर पहुंचकर सुरेन्द्रनाथ ने कहा, "तुम्हारे लिए सेकण्ड क्लास का और अपने तथा गोपाल के लिए थर्ड क्लास का टिकट ले आता हूं।”
शरत् बाबू ने उत्तर दिया, यह कैसे हो सकता है? सब इन्टर क्लास में साथ चलेंगे।” उस दिन केवल भावुकता के कारण ही वे ऐसा नहीं कह रहे थे, मनुष्य से सदा ही उन्हें ऐसा प्रेम रहा है। उड़िया देश का वह भोला अनेक वर्षों तक उनके साथ रहा। सामताबेड़ आने पर भी वह कई वर्ष उनके साथ था। जहां कहीं भी वे जाते थे, वह उन्का चिरसंगी था, उनका अन्तरंग । एक दिन अचानक छुट्टी लेकर वह सदा के लिए अपने देश चला गया। तब उन्होंने जिस सेवक को अपने साथ रखा वह था ननी । सांप के काटने से अचानक उसकी मृत्यु हो गई थी। उसको बचाने के लिए शरत् बाबू अत्यन्त व्यस्त हो उठे थे। अपने खर्च पर उसे इलाज के लिए कलकत्ता भेजा। रात भर उसकी चिन्ता करते रहे, लेकिन वह बच नहीं सका। यह समाचार पाकर उनकी व्यथा का पार नहीं रहा। कहा, सवेरे से रात तक रास्ते की ओर देखता हुआ बैठा हूं कि कोई अच्छी खबर लेकर आएगा। वह तो नहीं हुआ, तुम यह क्या खबर ले आये?”
जब तक वे जीवित रहे ननी के परिवार की आर्थिक सहायता करते रहे। उनके नहीं रहने पर हिरण्मयी देवी ने यह सहायता जारी रखी। ड्राइवर काली को तो शरत् बाबू अपने घर का सदस्य मानते थे। उस दिन वे असमंजस मुखोपाध्याय के साथ एक योरोपियन होटल में चाय पीने के लिए गये। एक कप का मूल्य था आठ आने । बंगाली दुकान में वही चाय दो पैसे में मिलती थी। काली ने कहा, “मैं वहीं जाकर चाय पी आता हूं।
शरतचन्द्र तुरन्त बोले, “जब हम यहां पी रहे हैं तो तुम वहां किसलिए जाओगे?" इसीलिए उस दिन भी वे गोपाल के साथ एक ही डिब्बे में बैठे। मार्ग में किसी स्टेशन पर गाडी रुकी तो एक परिचित डाक्टर ने आकर प्रणाम किया। पूछा, "आप कैसे हैं दादा?" शरत्चन्द्र बोले, “तुम्हीं बताओ कैसा लगता हूं?"
“पहले से अच्छे दिखाई देते हैं।”
तुम डाक्टर जाति के हो, मेरा यही विश्वास था। आज यह विश्वास और भी दृढ हो गया।”
डाक्टर ने कहा, “इतना बड़ा सर्टिफिकेट क्यों दे रहे हैं आप?"
एक क्षण चुप रहकर शरत् बाबू फिर बोले, “डाक्टर, तुम बहुत अच्छी तरह जानते हो कि मैं ठीक नहीं हूं। यह भी जानते हो कि मुझसे ऐसी बात नहीं कही जानी
चाहिए। इसीलिए तुमको बड़ा मानता हूं।”
कई क्षण इसी तरह की बातें करते रहे। अन्त में बोले, “बहुत दिनों से मैं अपनी स्थिति जानता हूं। पेड़-पौधों को लेकर भूलने की कोशिश कर रहा हूं। किसी दिन सामता आओगे तो देखोगे।"
“दादा, अच्छा होने के लिए लगता है वही एक उपाय है, मन को निरुद्वेग कर दीजिए । तब देखेगें कि कैसे आप ठीक हो गये हैं। ”
उन्होंने सिर हिलाकर उत्तर दिया, ”अब कुछ नहीं हो सकता।"