शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण बुद्धि और अध्यवससाय के बल पर थोड़े ही दिनों में उच्च पद प्राप्त कर लिया था। कानून के क्षेत्र में वह अप्रतिम थे। पन्द्रह-बीस वर्ष की अवधि में ही उन्होंने न केवल प्रचुर धन ही अर्जित किया बल्कि सरकार से राजा की उपाधि भी पाई। उनकी फिटन के साथ-साथ तलवार लिए हुए घुड़सवार सिपाही चला करते थे। प्रत्येक शुभ अनुष्ठान में उनका योगदान रहता था। वह उदार व्यक्ति थे।
कहते हैं, एक बार उन्हें उन्माद रोग हो गया। इसी कारण वह स्वास्थ्य लाभ के लिए यूरोप गये। लेकिन वापस लौटने पर बंगाली समाज ने उन्हें जाति- बहिष्कृत कर दिया। बात यहां तक बढ़ गई थी कि यदि किसी घर में वे आमन्त्रित होते तो दूसरे अतिथि आसन छोड़- छोड़कर चल देते। इस बहिष्कार अन्दोलन के मुखियाओं में शरत् के नाना केदारनाथ भी थे। इनका आरोप था कि विदेश जाकर राजा साहब ने अपने ब्राह्मणत्व का विसर्जन कर दिया है। आरम्भ में राजा शिवचन्द्र भी समाज की अवहेलना करना नहीं चाहते थे। किसी न किसी रूप में प्रायश्चित करने को वे प्रस्तुत थे। परन्तु नाना कारणों से उन्हें सफलता नहीं मिली, तब वह हिन्दू समाज की संकीर्णता और अविचार के विरुद्ध दृढ़संकल्प हो उठे। दोनों दलों में ईर्ष्या-द्वेष की तीव्र अग्नि भड़कने लगी। यह अग्नि इतनी प्रबल थी कि एक समय तो सारा समाज जर्जर हो उठा। गंगोपाध्याय परिवार के पास ही बन्दोपाध्याय परिवार का घर था। दो पड़ोसियों में इस प्रकार मतभेद होने पर समाज में तीव्र हलचल मच गई। कुछ लोग केदारनाथ के पास जाकर अड्डा जमाते और हिन्दू धर्म का गौरवगान करते, तो कुछ लोग राजा शिवचन्द्र के दल में जाकर कट्टरपंथियों की संकीर्णता पर आक्षेप करते ।
गांगुली परिवार के किशोर और तरुणों को उस घर में जाना एकदम मना था। लेकिन समय- समय पर इस निषेध की अवज्ञा होती रहती थी। उस घर के कर्ता लोग भी इतने कठोर नहीं थे कि इस घर के व्यक्तियों के वहां जाने पर उनकी अवहेलना करते। उलटे आदर ही करते थे।
वे बच्चों को पतंग उड़ाने का शौक पूरा करने के लिए बाज़ार से पतंग खरीद देते थे। तम्बाकू, चुरुट पीने की इच्छा होने पर बेंत से पीटा नहीं जाता था। वह अपराध हंसी में ही उड़ा दिया जाता था। पिकनिक पार्टी खूब जमती थी। संपेरे सांप खिलाते, मदारी बन्दर- भालू नचाते, कठपुतली वाले कठपुतलियों का नाच दिखाते। संध्या होते ही यात्रा दल का साज-संगीत पड़ोस के बच्चों का मन विचलित करने लगता। शासन के लौहपिंजर में बद्ध गांगुली परिवार के किशारे इस आनन्द मेले के प्रति कैसी लोलुप दृष्टि से देखते होंगे, इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है। इस यात्रा दल का नाम था, 'नवहुल्लोड़' । इस शब्द का अर्थ करना कठिन है पर समझना सरल है। इस नवहुल्लोड़ में कोई बेहाला सीखता था, कोई तबले पर थाप देता था। कहीं बांसुरी की मादक ध्वनि उठती थी तो कहीं नुपूरों की छन्छन्न छन् । कहीं इस श्लोक के साथ हुक्के का धुआं उठता था-
ताम्रकूटम् महाद्रव्यम् स्वेच्छया पीयते यदि,
टाने टाने महाफलं मर्त्ये दिव्य महत् सुखम् ।
दूसरे मादक द्रव्यों पर भी कोई रोक नहीं थी। वृद्ध-युवा-बालक किसी का प्रवेश वर्जित नहीं था।
शरत् का शिल्पी मन बहुत दिन तक इस मौन-मधुर आमंत्रण को अस्वीकार नहीं कर सका। चोरी-छिपे उसने वहां जाना शुरू कर दिया और जब जान-पहचान हो गई तब प्रकट रूप में जाने लगा। गांगुली परिवार का शासन उसे किसी भी तरह बांधकर नहीं रख सका। उल्लंघन करने में उसे मज़ा आता था। बांसुरी, बेहाला, हारमोनियम और तबला आदि बजाना उसे आता ही था । 'चरित्रहीन' का सतीश भी तो इन विद्याओं में दक्ष है। इसके अतिरिक्त कण्ठ उसका मधुर था ही। इसलिए शीघ्र ही वह दल का प्रधान पण्डा बन गया। राजू उस दल का दाहिना हाथ था। जिस काम में वह हाथ डालता उसमें चरम दक्षता प्राप्त किए बिना वह पीछे नहीं हटता ।
शरत् को यात्रा दल का शौक बचपन से ही था, परन्तु वह उसे सम्पूर्ण रूप से पागल न कर सका। क्योंकि उसका आनन्द स्थूल था। उसमें सूक्ष्म रस-बोध का अभाव था। यों यात्रा करना हंसी-खेल नहीं। निरन्तर 10-12 घण्टे मजदूर की तरह परिश्रम करने पर कहीं खेल जमता है। निर्विकार भाव से इस प्रकार खटना सरल काम नहीं है। यहीं नशे की आवश्यकता होती है। पैसा न हो तो शराब के अभाव में गांजा और भांग का जुगाड़ ही हो सकता है।
जैसे-जैसे नई सभ्यता का प्रसार होता गया, लोगों का मन उधर से हटता गया। और इस प्रकार भागलपुर के बंगाली समाज में थियेटर का उदय हुआ। लोग थियेटर देखना बहुत पसन्द करते थे। अच्छा-बुरा कैसा भी नाटक हो दर्शकों की खूब भीड़ होती थी। लेकिन उनके बच्चे उसमें भाग लें यह वह नहीं चाहते थे ।
एक दिन इसी तरह अभिनय चल रहा था, चारों ओर लोगों की भीड़ थी। एक युवक स्त्री की भूमिका में मधुर संगीत से श्रोताओं को मुग्ध कर वार्तालाप शुरू करने ही वाला था कि उसका पिता दर्शकों की भीड़ में से गर्जन-तर्जन करता हुआ मंच पर आ पहुंचा। प्रचंड धमाके के कारण बड़े परिश्रम और कोशिश से तैयार की गई फुट लाइट की मोमबत्ती न जाने कहां जा गिरी। कालीन में आग लग गई। मंच पर प्रज्वलित इस अग्निकाण्ड में दर्शकों ने देखा कि पिता पुत्र पर निर्मम प्रहार कर रहा है। उस रात सब कुछ भंग करने के अतिरिक्त और हो ही क्या सकता था।
यह 'आर्य थियेटर' वयस्कों का था। राजू शरत् के दल को यह सन्तुष्ट नहीं कर सका। उनके प्रयत्नों से एक नये थियेटर का जन्म हुआ। इसमें जो पहला नाटक उन्होंने खेला, वह था बंकिमचन्द्र का 'मृणालिनी । इसमें मृणालिनी का अभिनय स्वयं शरत् ने किया था। यद्यपि इस विद्या में भी राजू उसका गुरु था फिर भी शरत् का अभिनय देखकर सभी दर्शक मुग्ध हो उठे थे। लेकिन गुरुजनों के प्रबल विरोध के कारण इसे बन्द कर देना पड़ा। कई वर्ष बाद 'आदमपुर क्लब' की एक प्रवृत्ति के रूप में इसका पुनर्जन्म हुआ। राजा शिवचन्द्र का बेटा कुमार सतीशचन्द्र इस दल का प्राण था । संगीत और नाटक में उसकी रुचि असाधारण थी। उसके संगी-साथी इसके उत्साही सदस्य थे। अपने दल को पुष्ट करने के लिए वे समय- समय पर कलकत्ता जाते थे और वहां नाटक देखते थे। फिर लौटकर अपनी कला में सुधार करते थे। कुमार सतीश के पुत्र के अन्नप्राशनोत्सव के अवसर पर कलकत्ता के सुप्रसिद्ध मिनर्वा थियेटर के अभिनेता भागलपुर पधारे थे और राजबाड़ी में बड़ी धूमधाम के साथ उन्होंने ‘अलीबाबा’ नाटक खेला था। शरत् ने इसमें मुस्तफा का पार्ट किया था और इस निपुणता से उसे निभाया था कि दर्शकों में से एक आदमी भी उसे पहचान न सका था।
इस प्रकार विरोध की ये जड़ें गहरी और गहरी होती जा रही थीं। हर क्षेत्र में प्रतियोगिता चलती थी। साधारणतया मृत्यु के अवसर पर सभी वैर-विरोध शान्त हो जाते हैं, परन्तु यहां वह स्थिति भी नहीं रही थी।
इसी समय राजा शिवचन्द्र के नाते के साले और बंगला स्कूल के अध्यापक कान्तिचन्द्र की मृत्यु हो गई। प्रतिशोध का इतना बड़ा अवसर कट्टरपन्धी लोग कैसे जाने देते। उन्होंने शवयात्रा में शामिल होने से इनकार कर दिया। आखिर आदमपुर क्लब के सदस्यों ने यह क्रिया सम्पन्न की।
उन सबको जाति-च्युत कर दिया गया। नगर में ऐसा हाहाकार मचा कि घर-घर में दलादली आरम्भ हो गई। जो दुर्बल थे उन्होंने सिर मुंडवाकर प्रायश्चित कर लिया। परन्तु शरत् के पिता इस बारे में उदासीन थे। इसलिए उस समय तो वह बच गया, परन्तु आगे चलकर उसे बड़ी लांछना सहनी पड़ी। गांगुली परिवार में प्रति वर्ष बड़े समारोह के साथ जगद्धात्री पूजा होती थी। सभी प्रवासी बंगाली उसमें योग देते थे, लेकिन जब से दलादली ने उग्र रूप धारण किया तब से राजा शिवचन्द्र के दल का निमन्त्रण बन्द हो गया।
शरत् को लोग जिस प्रकार आनन्दोत्सव में बुलाते, आपद- विपद में भी उसकी वैसी ही पुकार होती थी। रात रात जागकर रोगियों की सेवा करना, समय-असमय में श्मशान जाकर दाह संस्कार करना, विवाह - पूजा आदि में आगन्तुकों की सेवा करना, इन सब कामों में वह पटु था। गली में बारोयारी पूजा में और नाना के घर जगद्धात्री पूजा के अवसर पर खिलाने-पिलाने का भार उसी पर रहता था। किन्तु इस बार उसे निमन्त्रित नहीं किया गया। उसकी कोई ज़रूरत भी नहीं थी। इसलिए अपने मन से वह वहां जाकर काम करने लगा। ब्राह्मण भोजन चल रहा था। खाना परोसते सभी लोग चारों ओर घूम रहे थे कि दलपति गर्जन-तर्जन कर उठे। मंझले नाना महेन्द्रनाथ दौड़े दौड़े आए। पूछा, “क्या हुआ दादा?"
दलपति चीख उठे, “क्या हुआ? हुआ क्या नहीं? इस शरता हरामजादे ने कांति का दाह संस्कार किया था। हमारी जान लेने आया है पाजी, हरामजादा ।”
सभी हाय-हाय करते हुए उठ खड़े हुए तब महेन्द्रनाथ ने शरत् से कहा, “शरत्, तुम्हारा परोसना नहीं चलेगा।"
राग और अभिमान से शरत् की आखों से पानी बहने लगा। हाथ का बर्तन धरती पर रखकर वह वहां से चला गया। वह इतना मर्माहत हुआ कि कई दिन तक घर भी नहीं आया। जाने कहां-कहां घूमता रहा.......