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भूमिका : पहले संस्करण की

21 अगस्त 2023

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कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर, बम्बई, के स्वामी श्री नाथूराम प्रेमी ने शरत्साहित्य का प्रामाणिक अनुवाद हिन्दी में प्रकाशित किया है। उनकी इच्छा थी कि इसी माला में शरतचन्द्र की एक जीवनी भी प्रकाशित की जाए। उन्होंने इसकी चर्चा श्री यशपाल जैन से की और न जाने कैसे लेखक के रूप में मेरा नाम सामने आ गया। यशपालजी के आग्रह पर मैंने एकदम ही यह काम अपने हाथ में ले लिया हो, ऐसा नही था, लेकिन अन्ततः लेना पड़ा, यह सच है। इसका मुख्य कारण था शरत्चन्द्र के प्रति मेरी अनुरक्ति। उनके साहित्य को पढ़कर उनके जीवन के बारे में, विशेषकर श्रीकान्त और राजलक्ष्मी के बारे में, जानने की उत्कट इच्छा कई बार हुई है। शायद वह इच्छा पूरी होने का यह अवसर था । सोचा, बंगला साहित्य में निश्चय ही उनकी अनेक प्रामाणिक

नियां प्रकाशित हुई होंगी । लेख-संस्मरण तो न जाने कितने लिखे गये होंगे। वहीं से सामग्री लेकर यह छोटी-सी जीवनी लिखी जा सकेगी। लेकिन खोज करने पर पता लगा कि प्रामाणिक तो क्या, सही अर्थों में जिसे जीवनी कह सकें वैसी कोई पुस्तक बंगला भाषा में नहीं है। उनके जीवन की कल्पित कहानी को जीवनी का रूप देकर अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, पर उनमें शरत् बाबू का वास्तविक रूप तो क्या प्रकट होता वह और भी जटिल हो उठा है।

अब मैंने इधर-उधर खोज आरम्भ की, लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, उलझता ही गया। ढूंढ-ढूंढ़कर मैं उनके समकालीन व्यक्तियों से मिला। बिहार, बंगाल, बर्मा, सभी जगह गया। लेकिन कहीं भी तो, कुछ भी उत्साहजनक स्थिति नहीं दिखाई दी।

प्राय: सभी मित्रों ने मुझसे कहा, “तुम शरत् की जीवनी नहीं लिख सकते। अपनी भूमिका में यह बात स्पष्ट कर देना कि शरत् की जीवनी लिखना असम्भव है।”

ऐसे भी व्यक्ति थे जिन्होंने कहा, “छोड़ो भी, क्या था उसके जीवन में जो तुम पाठकों को देना चाहोगे। नितान्त स्वच्छन्द व्यक्ति का जीवन क्या किसी के लिए अनुकरणीय हो सकता है?"

“उनके बारे में जो कुछ हम जानते हैं वह हमारे बीच में ही रहे। दूसरे लोग उसे जानकर क्या करेंगे? रहने दो, उसे लेकर क्या होगा?

एक सज्जन तो अत्यन्त उग्र हो उठे। तीव्र स्वर में बोले, “कहे देता हूं, मैं उनके बारे में कुछ नहीं बताऊंगा।”

दूसरे सज्जन की घृणा का पार नहीं था। गांधीजी और शरद के सम्बन्ध में मैंने एक लेख लिखा था। उसीको लेकर उन्होंने कहा “छि:, तुमने उस दुष्ट की गांधीजी से तुलना कर डाली!”

एक बन्धु जो ऊंचे-ऊंचे पदों पर रह चुके थे, मेरी बात सुनकर मुस्कराये, बोले, “क्यों इतना परेशान होते हो, दो-चार गुण्डों का जीवन देख लो, शरच्चन्द्र की जीवनी तैयार हो जाएगी।”

इन प्रतिक्रियाओं का कोई अन्त नहीं था, लेकिन ये मुझे मेरे पथ से विरत करने के स्थान पर चुनौती स्वीकार करने की प्रेरणा ही देती रहीं। सन् 1959 में मैंने अपनी यात्रा आरम्भ की थी और अब 1973 है। 14 वर्ष लगे मुझे 'आवारा मसीहा' लिखने में। समय और धन दोनों मेरे लिए अर्थ रखते थे क्योंकि मैं मसिजीवी लेखक हूं। लेकिन ज्यूं-ज्यूं, आगे बढ़ता गया, मुझे अपने काम में रस आता गया, और आज मैं साधिकार कह सकता हूं कि मैंने जो कुछ किया है पूरी आस्था के साथ किया है। और करने में पूरा आनन्द भी पाया है। यह आस्था और यह आनन्द, यही मेरा सही अर्थों में पारिश्रमिक है।

मुझसे पहले भी बंगाल के एक-दो मित्रों ने इस क्षेत्र में प्रयत्न किये हैं। उनमें सर्वाधिक प्रामाणिक कार्य है श्री गोपालचन्द्र राय का । उन्होंने अत्यन्त परिश्रम के साथ शरद बाबू के जीवन को समझने की सामग्री जुटाने का स्तुत्य कार्य किया। मेरा प्रारम्भिक कार्य सन् 1965 तक समाप्त हो गया था। तभी उनकी लिखी ग्रन्थ- माला का पहला खंड प्रकाशित हुआ। इसमें शरत्चन्द्र की जीवनी तथा उसी संबंध में कुछ दूसरी सामग्री है। मैं उनसे अपने काम की तुलना नहीं करना चाहूंगा। वे मुझसे बहुत पहले से काम कर रहे थे। हम दोनों की क्षमता और दृष्टि में भी बहुत अन्तर है।

वे बंगाली हैं और शरद बाबू के सम्पर्क में भी आ चुके हैं। इसके विपरीत मैं न तो बंगाली हूं और न मुझे शरद बाबू के दर्शन करने का सौभाग्य ही प्राप्त हुआ है । बंगला भाषा भी मैं अच्छी तरह नहीं जानता। इसलिए जिन लोगों से मैं मिला, उनमें से अधिकतर को यह बड़ा अजीब लगा कि एक बाहर का व्यक्ति शरद बाबू की जीवनी के संबंध में इतना परेशान हो ।

वे इस बात से प्रभावित हुए और उन्होंने बड़ी ईमानदारी से मेरी सहायता की। कुछ ने उपेक्षा की दृष्टि से भी देखा, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक नहीं थी । और यह भी अधिकतर मेरी खोज के प्रथम दौर में ही ऐसा हुआ था। बाद में तो जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे मेरे प्रति उन लोगों का स्नेह बढ़ता गया। अगर ऐसा न होता तो क्या यह काम कभी पूरा हो पाता ?

फिर भी कठिनाइयों का कोई अन्त नहीं था। कुछ मित्र थे जिन्होंने बहुत कुछ बताया लेकिन प्रमाणित करने से इनकार कर दिया। कहा, “आप बिना हमारा नाम दिये अपने रूप में इसका उपयोग कर सकते हैं।"

इनमें ऐसे मित्र भी थे जिन्होंने मुझे चेतावनी दी कि यदि मैंने शरद बाबू के मुंह से कुछ ऐसा-वैसा कहलवाया या स्वयं ऐसा-वैसा लिखा तो उसका परिणाम बुरा भी हो सकता है। मुझे क्षमा नहीं मिलेगी। कुछ ऐसे भी थे जो स्वयं लिखना चाहते थे, लेकिन मुझे दुख है कि में से बहुत कम ही ऐसा कर सके। फिर भी जिन्होंने किया उन्हीं के कारण किसी न किसी रूप में प्रामाणिक सामग्री सामने आई। इसका मुझे भी लाभ मिला।

उनके समकालीन कुछ ऐसे व्यक्ति मुझे मिले जो सचमुच उनसे घृणा करते थे। रंगून के एक सज्जन ने मुझसे कहा था, “वे एक स्त्री के साथ रहते थे। उनके पास बहुत कम लोग जाते थे । मैं उनका पड़ोसी था, लेकिन उनके कमरे में कभी नहीं गया। वे अफीम खाते थे और शराब पीते थे। वे एक निकृष्ट प्रकार का जीवन बिता रहे थे। मैं उनसे हमेशा बचता था।”

यह प्रतिक्रिया मात्र इन्हीं सज्जन की नहीं थी । बहुत-से लोग उनके बारे में इसी तरह सोचते थे और जानते थे, लेकिन ऐसे भी व्यक्ति थे जो उनके पास जाकर उन्हें पहचान सके थे। उन्हींके माध्यम से मैं भी एक सीमा तक उनको पहचान सका । अफवाहों और किंवदन्तियों से भरे उनके जीवन को पूरी तरह पहचान पाना तो असम्भव जैसा ही है, लेकिन क्या सचमुच जो पास थे, वे उन्हें पहचानते थे? उनके बहुत पास रहने वाले कई व्यक्तियों ने उनके सम्बन्ध में बिलकुल परस्पर विरोधी बातें बताईं। स्वयं उनके मामा और बालसख़ा श्री सुरेन्द्रनाथ गांगुली ने उनके बारे में जो दो पुस्तकें लिखी हैं उनमें परस्पर विरोधी तथ्य हैं। कभी-कभी तो मुझे लगता था कि कोई मुझे चुनौती देने वाला है कि शरच्चन्द्र नाम का कोई व्यक्ति इस देश में नहीं हुआ, कुछ अज्ञातनाम लेखकों ने स्वयं कुछ उपन्यास लिखे और शरच्चन्द्र के नाम से चला दिये।

यह धारणा सत्य ही है कि मनुष्य शरच्चन्द्र की प्रकृति बहुत जटिल थी । साधारण बातचीत में वे अपने मन के भावों को छिपाने का प्रयत्न करते थे और उनके लिए कपोलकल्पित कथाएं गढ़ते थे। कितने अपवाद, कितने मिथ्याचार, कितने भ्रान्त विश्वास से वे घिरे रहे! इसमें उनका अपना योग भी कुछ कम नहीं था। वे परले दर्जे के अड्डेबाज़ थे। घण्टों कहानियां सुनाते रहते। जब कोई पूछता कि क्या यह धटना स्वयं उनके जीवन में घटी है, तो वे कहते, “न-न, गल्प कहता हूं सब गल्प, मिथ्या, एकदम सत्य नहीं।”

इतना ही नही, एक ही घटना को जितनी बार सुनाते, नये-नये रूपों में सुनाते। कोई प्रश्न करता, “दादा, कल तो आपने इस घटना को एक और ही रूप में सुनाया था !” तो वे क्रुद्ध हो उठते, “घटना मेरी है। मुझे अधिकार है कि मै उसको जिस प्रकार चाहूं सुनाऊं।”

चाहे किसी भी विधि से हुए हों, उनके दो विवाह हुए थे। उनकी दूसरी पत्नी हिरण्मयी देवी की मृत्यु उनके मरने के लगभग 22 वर्ष बाद हुई। वे उनकी विधिसम्मत उत्तराधिकारिणी थीं, लेकिन जीवन भर लोग यही समझते रहे (अब भी समझते हैं) कि वे अविवाहित थे। सभा-समितियों में उनका परिचय 'बाल ब्रह्मचारी' कहकर दिया जाता था। अनेक प्रवाद भी प्रचलित हो गये थे, पर उन्होंने एक बार भी स्थिति को स्पष्ट करने का प्रयत्न नहीं किया। बर्मा से लौटे एक मित्र ने, कलकत्ता की एक सभा में, जब स्वयं यह सब सुना तो चकित होकर शरद बाबू से पूछा, “आप ऐसा क्यों होने देते हैं?”

हंसकर शरद बाबू ने उत्तर दिया, “सुनकर बहुत मज़ा आता है।”

उन्होंने स्वयं लिखा है, “अपने विगत जीवन के बारे में मैं अत्यन्त उदासीन हूं। जानता हूं, उसको लेकर नाना प्रकार की जनश्रुतियां प्रचारित हो रही हैं, लेकिन मेरे निर्विकार आलस्य को वे बिन्दु मात्र भी विचलित नहीं कर सकती । शुभचिन्तक बीच-बीच में उत्तेजित होकर कहते हैं कि इस झूठ का प्रतिकार क्यों नहीं करते? मैं कहता हूं, झूठ यदि है तो उसका प्रचार मैंने तो नहीं किया, इसलिए प्रतिकार करने का दायित्व भी उनका ही है। उनको करने को कहो ।”

सचमुच अपने जीवन की कहानी वे इस प्रकर गुप्त रखते थे कि उनके घनिष्ठ तथा अन्तरंग से अन्तरंग बन्धु भी कुछ नहीं जानते थे । कवि नरेन्द्र देव तथा उनकी धर्मपत्नी कवयित्री श्रीमती राधारानी देवी के घर शरच्चन्द्र बहुत-सा समय बिताते थे किन्तु वे भी उनके जीवन के संबंध में कोई विशेष सामग्री इकट्ठी नहीं कर पाए। ठीक यही स्थिति उनके घनिष्ठ मित्र हरिदास चट्टोपाध्याय की थी। वे भी शरच्चन्द्र के संबंध में कोई ठीक-ठीक बात नहीं बता सकते थे। जब गम्भीरता से लोग उनसे उनके जीवन के बारे में चर्चा करते तो वे कहते, “देखो, लेखक के व्यक्तिगत जीवन को लेकर परेशान होने से क्या लाभ? वह लेखक है इसलिए अपने जीवन की सब बातें सबको बतानी होंगी, इसका आखिर क्या अर्थ है ? उसकी रचनाओं के भीतर से उसका जितना परिचय मिल सकता है, उसी को लेकर सन्तुष्ट होना उचित है। यही लेखक का सच्चा परिचय है। इसलिए मैं कहता हूं, लेखक का व्यक्तिगत जीवन और उसका लेखक जीवन दोनों एक ही नहीं होते। किसी भी कारण से इन दोनों को मिला देना उचित नहीं है। यह जान लो कि मैं अपनी रचनाओं में जितना अपने को व्यक्त कर सकता हूं, उतना ही मैं हूं। पाठकों के लिए मेरा उतना ही परिचय काफी है।

“एक दिन मैं नहीं रहूंगा, तुम भी नहीं रहोगे। लोग मेरे व्यक्तिगत जीवन के बारे में जानने की इच्छा नहीं करेंगे। तब यदि कोई मेरी लिखी हुई रचना बची रहेगी तो वे उसी को लेकर चर्चा करेंगे, मेरे चरित्र को लेकर नहीं।”

काश, वे देख सकते कि आज उनके जीवन को लेकर लोग कितने चिन्तित हैं और कैसी-कैसी मनगढ़ंत बातें उन्होंने फैला दी हैं। सत्य और मिथ्या के बीच कहीं कोई अन्तर नहीं रह गया है। ये ही बातें सुनकर कविगुरु रवीन्द्रनाथ कह उठे थे, “मैं इसीलिए तो मरना नहीं चाहता। "

कहते है, एक बार स्वयं श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उनसे कहा था, “शरद, ने तुम अपनी आत्मकथा लिखो।” उनका उत्तर था, “गुरूदेव, यदि मैं जानता कि मैं इतना बड़ा आदमी बनूंगा तो मैं किसी और प्रकार का जीवन जीता ।”

यह व्यंग्य भी हो सकता है और निखूट सत्य भी, लेकिन इस बात के प्रमाण उपलब्ध हैं, कि बचपन और यौवन में जिस प्रकार का जीवन उन्हें जीना पड़ा था, उससे वे सन्तुष्ट नहीं थे। वे निचली गहराइयों से होकर ऊपर उठे। प्रारंभिक जीवन मे जिस अभाव, अपमान और उपेक्षा में से उन्हें गुजरना पड़ा उससे उनके कलाकार को तो बल मिला, पर उनका जीवन टूट गया। जीवन - संध्या में क्या सचमुच उन्हें इस बात का दुख था कि उन्होंने आवारगी का जीवन बिताया, शराब पी, नशे में डूबे, वेश्याओं के बीच जाकर रहे, नाना प्रकार के वास्तविक और अवास्तविक प्रेम-प्रपंच किए?

शायद था, तभी तो उन्होंने गुरुदेव को वैसा उत्तर दिया था। एक अवसर पर उन्होंने यह भी कहा था, “मैं आत्मकथा नहीं लिख सकता, क्योंकि न तो मैं इतना सत्यवादी हूं और न इतना बहादुर ही, जितना एक आत्मकथा लेखक को होना चाहिए।”

क्या इससे यह स्पष्ट नहीं हो जाता, कि शरच्चन्द्र के मानव और साहित्य का सही मूल्यांकन इन्हीं विरोधाभासों और नीचाइयों के भीतर झांककर हो सकता है, मनुष्य को देवता या शैतान मानकर अर्थात् केवल अच्छाई या बुराई में से उसे पहचानकर चलने की चालू प्रवृत्ति से नहीं । इसीलिए एक मराठी बन्धु ने जैसे लेखक को चेतावनी दी थी, “शरद के भावी चरित्र-लेखक को अन्त में यही याद रखना होगा कि वे मनुष्य के भले-बुरे गुणों से परे नहीं थे।”

जीवनी लिखना निस्सन्देह कठिन काम है। यूं देखने में लगता है कि वह कुछ अद्भुत- असाधारण घटनाओं और कुछ क्रांतिकारी विचारों का समुच्चय है। किसी के जीवन को समझने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाएं आवश्यक अवश्य हैं, पर अनिवार्य नहीं। अनिवार्य हैं उन घटनाओं और उन विचारों के पीछे रहनेवाले प्रेरणास्रोत । जो दिखाई देता है वही सत्य नहीं होता। सत्य को पाने के लिए गहरे उतरना होता है और उस उतरने में जहां आस्था का प्रश्न है वहां वस्तुनिष्ठता का उससे भी अधिक है। यह सर्वोपरि अनिवार्यता है। डाक्टर जानसन ने कहा था, “वही व्यक्ति किसी की जीवनी लिख सकता है जो उसके साथ खाता- पीता, बैठता-उठता और बोलता - बतियाता रहा हो।”

यह उपयोगी हो सकता है, पर अनिवार्य नहीं है । जिस व्यक्ति को ऐसा सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ उसकी आस्था में शंका करने का कोई उचित कारण नहीं दिखाई देता। इसके विपरीत वस्तुनिष्ठता के अवसर बढ़ जाने की सम्भावना पूरी-पूरी है। दूरी वस्तुपरक दृष्टि देने में सहायक ही होती है।

एक विद्वान ने कहीं लिखा है, “जीवनी लेखन कोरा इतिहास मात्र होगा, अगर उसकी अभिव्यक्ति कलात्मक ढंग से न हो और उसमें लिखनेवाले का व्यक्तित्व प्रतिफलित न हो। वह व्यक्ति-विशेष का तटस्थ पर खुलकर किया गया अध्ययन होता है।

“जीवनी क्या है? अनुभवों का श्रृंखलाबद्ध कलात्मक चयन। इसमें वे ही घटनाएं पिरोई जाती हैं, जिनमें सम्वेदना की गहराई हो, भावों को आलोड़ित करने की शक्ति हो । घटनाओं का चयन लेखक किसी नीति, तर्क या दर्शन से प्रभावित होकर नहीं करता। वह गोताखोर की तरह जीवन - सागर में डूब - डूब कर मोतियां चुनता है । सशक्त और सच्ची सम्वेदना की हर घड़ी वही मोती है। श्रेष्ठ जीवनी लेखक काल, देश, व्यक्ति और घटना की सीमाओं को तोड़कर अनुभूतियों का सौन्दर्य में विक्षेपण करता है। विशुद्ध कला और मानदण्डों के बीच संतुलन और सामंजस्य का प्रणयन करता है।”

नहीं जानता कि ‘अवारा मसीहा' इस कसौटी पर कितना खरा उतरेगा। किन्तु एक बात पूरे बिश्वाश के साथ कह सकता हूं कि मैंने कला को भले ही खोया हो, आस्था को नहीं खोया और निरन्तर सशक्त और सच्ची सम्वेदना की घड़ियों को खोजने का प्रयत्न किया है। बहुत-से लोग यह मानते हैं कि साहित्यकार का जीवन उसका साहित्य ही होता है । पूर्ववर्ती मराठी बन्धु ने यह भी लिखा था, “हमारे प्रयत्नों का उद्देश्य यदि तथ्यपूर्ण सामग्री की खोज करना है तो यह प्रयत्न कुछ हास्यास्पद अवश्य है। वे कहां पैदा हुए, कहां स्वर्गवासी हुए, रंगून में कहां रहे, इस दुनिया में किन-किन स्त्रीरूपी देवताओं ने उनका साथ दिया, रोटी- रोज़ी की क्या व्यवस्था थी, स्वास्थ्य की ओर उन्होंने दुर्लक्ष्य क्यों किया, किसी से किसी प्रकार की सहायता की अपेक्षा क्यों नहीं की और फिर सबकी सहायता करने में अपना सब कुछ क्यों लुटा दिया, ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तर उनकी रचनाओं में से न पा सकें तो वे और कहां मिल सकेंगे?"

जेबुन्निसा के शब्दों में शरत् भी यही कहते थे -

दर सुखन पिनहा शुदम मानिन्द बू दर बर्गेगुल,

हर कि दीदन मैल दाल दर सुखन बीनद मरा।

जैसे खुशबू फूल की पंखुड़ियों में बसी है, वैसे ही मैं अपनी कविता में व्याप्त हूं। जो मुझसे मिलने का इच्छुक हो मेरे काव्य में मुझे पा ले।

मेरा हर शेर है अख्तर मेरी ज़िन्दा तस्वीर,

देखनेवालों ने हर लफ्ज़ में देखा है मुझे।

इसमें कोई शक नहीं कि उनका साहित्य महान है, किन्तु उनका जीवन भी उससे कुछ कम महान नहीं। उनका साहित्य घर-घर आदर सहित पढ़ा गया, किन्तु देशव्यापी समादर के पीछे उसका स्रष्टा अपने ऐकांतिक दुख को गोपन करके हंसते हुए दिन काट गया। उनके रिश्ते के मामा और चिर मित्र सुरेन्द्रनाथ गंगोपाध्याय ने लिखा है, “कहते हैं कि शरद ने साहित्य के माध्यम से आत्मप्रकाश किया है। उनकी अलग जीवनी दरकार नहीं, लेकिन शरद ने अपने साहित्य में अपने को छिपाया है।”

शरच्चन्द्र ने अपने साहित्य में ही अपने को नहीं छिपाया है, वास्तविक जीवन में भी निरन्तर अपने को छिपाने का प्रयत्न किया है। प्रसिद्धि से वे सदा पराङ्मुख रहे। लिखते रहे पर प्रकाशन का आग्रह उनकी ओर से कभी नहीं आया। यदि उनके स्वार्थी मित्र अनजाने ही उन्हें अन्धकार में से बाहर न खींच लाते और तब उनकी प्रतिभा तत्कालीन साहित्यजगत् को आलोड़ित न कर देती तो ये रंगून में ही अपने निर्वासित जीवन का अन्त कर देते । लेकिन फिर भी यह सत्य है कि लिखते वे अवश्य रहते थे। श्री इलाचन्द्र जोशी के शब्दों में यह भी कहा जा सकता है, “कुछ रहस्यमय मनोग्रन्थियों के कारण वे जीवनकाल में अपनी सम्भावित ख्याति से कतराते थे और लिखते केवल इसीलिए चले जाते थे कि मृत्यु के बाद उनका प्रकाशन हो और तब एक मृत लेखक की रचनाओं के भीतर से बोलनेवाली महान आत्मा समस्त लेखकों पर हावी हो जाए।”

इस प्रवृत्ति को हीन भाव भी कहा जा सकता है और वैरागी का मन भी। यह प्रारम्भिक जीवन के अभावों और अपमानों की अन्तर्मुखी प्रतिक्रिया भी हो सकती है। लेकिन इन्हीं कारणों से जीवन चरित्र लिखनेवाले का काम कितना दुष्कर हो गया है! और यह भी सत्य है कि यही चुनौती उनकी सबसे बड़ी शक्ति भी बनी है। तब यह कल्पना की जा सकती है कि मुझे यह सामग्री एकत्रित करने में 14-15 वर्ष क्यों लगे? और अब भी क्या यह विश्वास से कहा जा सकता है कि जो कुछ मैंने पाया है वह ऐकांतिक रूप से सत्य है ?

निश्चय ही यह दावा मैं नहीं कर सकूंगा । इसके विपरीत यदि कोई यह कहेगा कि मैंने जो कुछ लिखा है वह मिथ्या है तो, मैं उसका प्रतिवाद नहीं करूंगा।

कला के लिए सत्य भले ही सम्पूर्ण आदर्श न हो परन्तु जीवन चरित्र लिखना इस दृष्टि से विज्ञान के अधिक पास है और उसका आदर्श सत्य ही है, पर जैसा कि पहले कहा जा चुका है घटना तो सत्य नहीं है। उसका जीवन में महत्त्व है, लेकिन उससे अधिक महत्व है। घटना के पीछे की प्रेरणा का । वही प्रेरणा सत्य है । मैंने इतना समय इसीलिए लगाया कि मैं भ्रान्त और अभ्रान्त घटनाओं के पीछे के सत्य को पहचान सकूं, जिससे घटनाओं से परे जो वास्तविक शरच्चन्द्र है उसका रूप पाठकों के सामने प्रस्तुत किया जा सके। यह सब कैसे और किस प्रकार हुआ, यह मैं नहीं बता सकूंगा। जिसे 'सिक्स्थ सेंस' कहते हैं, शायद वही मेरी सहायक रही। मैं अधिक से अधिक उन व्यक्तियों से मिला, जिनका किसी न किसी रूप में शरच्चन्द्र से संबंध था। उन सभी स्थानों पर गया जहां वे या उनके उपन्यासों के पात्र रहे थे। उस वातावरण में रमने की कोशिश की जिसमें वे जिये थे। शायद इसी प्रयत्न के फलस्वरूप मैं एक ऐसी तस्वीर बनाने में यत्किंचित सफल हो सका, जो शरीर-रचना- विज्ञान (एनोटॉमी) की दृष्टि से भले ही सही न हो पर उसके पीछे जो चेतन तत्व होता है। उसको समझने में अवश्य ही सहायक हुई है।

शरद बाबू के चरित्र को लेकर समाज में जो भ्रान्त धारणा बन गई थी, उसकी चर्चा करना असंगत न होगा। कलाकार का चरित्र साधारण मानव से किसी न किसी रूप में भिन्न होता ही है। फिर शरद बाबू तो बचपन से ही अभाव और अपमान के उस वातावरण में जिये जहां आदमी या तो विद्रोह कर सकता है या आत्महत्या । उनके अन्तर में जो साहित्यकार सोया पड़ा था, उसने उन्हें पहला मार्ग अपनाने की ही प्रेरणा दी। इसलिए उन्होंने तत्कालीन समाज के कठोर विधि-विधान का मानने से इनकार कर दिया। सदाचार के प्रचलित मानदण्डों पर चोट करते हुए उन्होंने वही किया जो यथास्थितिवादी मुखियाओं के लिए अकरणीय था। तब वे चरित्रहीन का विरुद्ध न पाते तो आश्चर्य ही होता ।

उन्होंने अपने साहित्य में वेश्याओं और दुराचारिणियों को ऊंचा पद दिया और तत्कालीन सामाजिक मूल्यों के आगे बार-बार प्रश्नचिह लगाये। उन्होंने घोषणा की कि सतीत्व ही नारीत्व नहीं है, परन्तु एक क्षण के लिए भी, कहीं भी, उच्छृंखलता को प्रश्रय नहीं दिया। उन्होंने यही कहा, “मैं अपनी रचना के द्वारा मनुष्य का अपमान नहीं करना चाहता। पुरुष हो या स्त्री, गिरकर उठने का रास्ता सबके लिए खुला रहना चाहिए।”

वे हृदय जीतने में विश्वास करते थे। यह नहीं देखना चाहते थे कि जीतने वाला हीन जाती है या विजातीय, विधर्मी-विदेशी है अथवा कुमार्गी कुचाली। जो हृदय जीतने का महान कार्य कर सकता हे वह कुमार्गी कुचाली हो ही नहीं सकता, और यह भी कि जो वास्तविक जीवन को देखना चाहता है वह शुचिता अशुचिता के चक्कर में नहीं पड़ता। इसी अभिज्ञता के कारण गोर्की, ताल्स्ताय और शेक्सपियर शुचिता के चक्कर में नहीं पड़े। इसीलिए शरद बाबू भी तथाकथित छोटे वर्ग के लोगों और पतितों के बीच जाकर रहे और संस्कारिता से परे सदा चिर व्रात्य बने रहे। भद्र समाज में प्रवेश पाने की उन्होंने कभी कल्पना तक नहीं की ।

उन्होंने शराब पी और फिर छोड़ दी, परन्तु उसके बाद भी वे एक खाली बोतल ऐसे स्थान पर रखते थे कि हर आनेवाले के दृष्टि-पथ में आ सके। अफीम खाने का प्रदर्शन करने का कोई अवसर वे नही चूकते थे । कुत्ता भी उन्होंने ऐसा पाला था जो न केवल देखने में अशोभनीय था, अपितु हर प्रकार की संस्कारिता से सौ योजन दूर था, और उससे वह इतना और ऐसा प्यार जताते थे जैसे उनका इकलौता पुत्र हो । भद्र समाज को नीचा दिखाने में उन्हें सचमुच मज़ा आता था।

स्त्रियों से उनके व्यक्तिगत संबंधों को लेकर भी न जाने कितनी अतिरंजना हुई। वे न तो योगी-यती थे और न कामी-कुमार्गी। एक कलाकार की भांति वे मात्र रोमांटिक थे। जब परिवार, समाज, यहां तक कि मित्रों तक ने उनके लिए अपने द्वार बन्द कर दिये थे तब वे ऐसी बस्तियों में जाकर रहते थे जिनके द्वार भद्रलोक के लिए दिन के प्रकाश में नहीं खुलते। समाज के सभी वर्गों की नारियों से उनके संबंध सहज और आत्मीय थे । अपनी प्रसिद्धि के स्वर्णकाल में भी वे उनसे मिलने से कभी नहीं कतराये। उन्होंने उन सभी को सहज भाव से अपने साहित्य में मनुष्य की मर्यादा दी। इसलिए वे उनमें अगाध भक्ति रखती थीं, उनकी ओर आकर्षित होती थीं, उनकी कहानी कहने की भंगिमा पर वे मुग्ध थीं और उनके विचारों पर प्राण निछावर करती थीं । अनीति के प्रचारक के रूप में इसी कारण उनकी प्रसिद्धि चरम सीमा तक पहुंच गई थी। उन्हें कोयले से अधिक काला प्रमाणित करने के लिए न जाने कितनी कहानियां गढ़ ली गई थीं। अचरज तो यह है कि इस गढ़ने में उनका योग भी कम नहीं रहता था। परस्पर विरोधी बातें कहने में भी वे नहीं चूकते थे। एक मित्र वे यह कह सकते थे “नारी जाति के सम्बन्ध में मैं कभी उच्छृंखल नहीं था और अब भी नहीं हूं ।” तो दूसरे मित्र को यह भी लिख सकते थे कि वे डेढ़ वर्ष तक एक धोबन के साथ प्रेम करते रहे हैं। उनका सारा जीवन इसी तरह की असंगतियों और परस्पर विरोधी स्थापनाओं से भरा है। उसका सही अर्थ परिस्थिति- विशेष और पूर्वापर के संबंध को जाने बिना नहीं समझा जा सकता। संदर्भ से बाहर उनका कोई अर्थ नहीं है और परिस्थिति को समझने के लिए उनके सम्पूर्ण जीवन की पृष्ठभूमि को समझना होगा। ऐसा लगता है कि समाज से बदला लेने की भावना अनायास ही उनके अन्तर में कुण्डली मारकर बैठ गई थी। अन्यथा उनके चरित्र में ऐसी कोई बात नहीं थी जो किसी के लिए लज्जा का कारण हो सके। होती तो वे यह कैसे कह सकते, “मेरा जीवन अन्ततः मानो एक उपन्यास ही है। इस उपन्यास में सब कुछ किया, पर छोटा काम कभी नहीं किया। जब मरूंगा निर्मल खाता छोड़ जाऊंगा। उसके बीच स्याही का दाग कहीं भी नहीं होगा।

“मैंने अनीति का प्रचार करने के लिए कलम नही पकड़ी। मैंने तो मनुष्य के अन्तर में छिपी हुई मनुष्यता को, उस महिमा को, जिसे सब नहीं देख पाते, नाना रूपों में अंकित करके प्रस्तुत किया है।”

बहुत कम लोग जानते हैं कि अपराजेय कथाशिल्पी शरच्चन्द्र ने राजनीति में भी सक्रिय योगदान दिया था। वे अपने देश को प्यार करते थे और मानते थे कि साहित्यकार ही देश की मुक्ति के आन्दोलन में भाग नहीं लेंगे तो और कौन लेगा! उनके जीवन के इस पक्ष को उजागर करने का मैंने पूरा प्रयत्न किया है। जैसा कि हो सकता था, बहुत-सी बातें यहां भी विवादास्पद हैं पर, सबसे अधिक विवादास्पद प्रशन है- बंगला साहित्य में उनके स्थान का। कुछ लोगों को विश्वास है कि वे साहित्यिक थे ही नहीं, वे तो आवाराओं, दुराचारियों और वेश्याओं के प्रवक्ता थे। दूसरे कहते है कि उन्होंने कुछ भी तो नया नहीं दिया, बंकिमचन्द्र और रवीन्द्रनाथ की जूठन ही अपने पात्रों में सजाकर रखी है, मात्र कहने का ढंग उनका अपना है। कुछ है कि इतना श्रेय भी नहीं देना चाहते और उन पर भाषा के भ्रष्ट करने का आरोप लगाते हैं। लेकिन स्वयं कविगुरु रवीन्द्रनाथ ने उनकी मृत्यु से पन्द्रह मास पूर्व उनके लिए जो कुछ कहा था वह इन सब धारणाओं को झुठला देता है।

शरच्चन्द्र रवीन्द्रनाथ को सदा अपना गुरु मानते रहे। कई बार मतभेद हुए, गाली- गलौज जैसी स्थिति पैदा हुई, पर अन्तत: दोनों ने एक-दूसरे की प्रतिभा का वैसे ही वरण दुख में, किया जैसे उन्हें करना चाहिए था। 

शरद बाबू ने रवीन्द्रनाथ को व्यास के बाद भारत का सर्वोत्तम कवि घोषित किया तो रवीन्द्रनाथ ने भी बार-बार उनके कथा साहित्य की विशेषताओं का अभिनन्दन किया। उनकी षष्ठिपूर्ति 2 के अवसर पर, जिसका आयोजन उन्होंने स्वयं किया था, उन्होंने कहा, “ज्योतिषी असीम आकाश में डूबकर नाना रश्मियों के समूहों से निर्मित नाना जगतों का आविष्कार करता है जो अनेक कक्षाओं के मार्ग में तेज़ी से उतर रहे हैं। शरच्चन्द्र की दृष्टि बंगाली हृदय के रहस्य में डूब गई है। सुख में, मिलन विछोह में संगठित विचित्र शक्ति का उन्होंने इस प्रकार परिचय दिया है, जिससे बंगाली अपने को प्रत्यक्ष पहचान सकें। दूसरे लेखकों ने बहुतों की प्रशंसा पाई है किन्तु सार्वजनिक हृदय का ऐसा आतिथ्य नहीं पाया। यह अद्भुत वस्तु नहीं है, यह प्यार है। अनायास ही जो प्रचुर सफलता उन्होंने पाई है, इससे वे मेरे ईर्ष्या भाजन हो गए हैं। आज शरच्चन्द्र के अभिनन्दन में विशेष गर्व अनुभव करता, यदि मैं उनको यह कह सकता कि तुम नितान्त मेरे द्वारा आविष्कृत हो । किन्तु उन्होंने किसी के हस्ताक्षरित परिचय-पत्र की अपेक्षा नहीं की। आज उनका अभिनन्दन देश के घर-घर में स्वतः ही उच्छ्वसित हुआ है। उन्होंने बंगाली वेदना के केन्द्र में अपनी वाणी का स्पन्दन पैदा किया है। साहित्य में उपदेष्टा से स्त्रष्टा का आसन बहुत ऊंचा है। चिन्ताशक्ति का वितर्क नहीं, कल्पना-२ -शक्ति की पूर्ण दृष्टि ही साहित्य में शाश्वत मर्यादा के पद पर प्रतिष्ठित है । कवि के आसन से मैं विशेष रूप से उसी स्त्रष्टा शरच्चन्द्र को माला अर्पण करता हूं। वे शतायु होकर बंगला साहित्य को समृद्ध करें!

“अपने बचपन में बंकिमचन्द्र के अभ्युदय में बंगला साहित्य में मैंने एक नये भाव का प्लावन देखा था। बंकिमचन्द्र भगीरथ के समान जिस नये साहित्य को लेकर आए उसने बंगला देश के सर्वसाधारण के अन्तर को छुआ। उन्होंने उनको सादर अपना कहकर ग्रहण किया। केवल उस समय के तरुण और युवकों ने ही नही, अन्तःपुर तक में बंकिम- साहित्य की नई हवा प्रवेश कर गई थी। विरोधियों ने निन्दा और प्रतिवाद करने में कोई कसर नहीं रखी, क्योंकि बंकिम - साहित्य उन सबको लीलकर अपने को प्रतिष्ठित कर सका। अपनी वृद्धावस्था में शरच्चन्द्र के अभ्युदय में मैंने फिर वही व्यापार देखा । शरच्चन्द्र क्या - साहित्य में एक ऐसी वस्तु लेकर आये, जिसने बंगला देश के सर्वसाधारण के अन्तर को स्पर्श किया। उसकी निगूढ़तम वेदना के स्तर पर आघात किया । इसीलिए तो बंगला देश के सभी लोगों ने शरच्चन्द्र के साहित्य को अपना कहकर वरण किया.... ।”

किसी ने कहा है, “बंगाल के नवजागरण के वैतालिक थे राममोहन राय । मध्याह के चारण हुए बंकिमचन्द्र और उसकी परिणति हुई रवीन्द्रनाथ के साहित्य में शरच्चन्द्र इसी रवीन्द्र युग के उज्जवल नक्षत्र थे। बंकिम देव के उपासक हैं, रवीन्द्र में अतीन्द्रिय अनुभूति है, पर शरद ने धरती की धूल को ही महिमामय किया। उन्होंने बंगाल की अपनी भाषा का प्रयोग किया और अपने निरंकुश मनका परिचय दिया। उनके यथार्थवादं में, यदि वह यथार्थवाद है, सम्वेदन और करुणामय चित्त का स्पर्श है।”

इस देश में ऐसे बहुत कम साहित्यिक हुए हैं, जिनका केवल सजातीय साहित्यिकों ने ही नहीं बल्कि राजनीतिज्ञों, वैज्ञानिकों, कानूनवेत्ताओं और धर्मतत्व के ज्ञाताओं ने सहज भाव से वरण किया हो। शरद बाबू उन्हीं विरल साहित्यकारों में थे जिनको सभी का प्यार मिला था। श्री अरविन्द की अन्तर्भेदी दृष्टि ने जैसे उन्हें पहचान लिया था। उन्होंने मानो सभी के स्वर में कहा है, “श्री शरच्चन्द्र की रचनाओं में उनकी विशाल मेंधा, मानवों तथा वस्तुओं के सूक्ष्म तथा सही पर्यवेक्षण और दुख तथा पीड़ा के प्रति सहानुभूति से भरे हृदय की अमिट छाप है। वे इतना अधिक संवेदनशील हैं कि उन्हें उस संसार से चैन कैसे प्राप्त हो सकता है। उनकी दृष्टि भी सम्भवतः उतनी ही अधिक फैली है। उनका मन बहुत निर्मल है और उनकी प्राणिक प्रकृति बहुत उदात्त ।”

नवयुग का संदेश बंकिमचन्द्र ने नहीं दिया, ऐसा नहीं है, पर वे मूलतः संस्कारक शिल्पी थे। साधारण और सहज मानव के ऊपर उन्होंने आदर्श महत्तर मनुष्य की प्रतिष्ठा की। दोषी मनुष्य को उन्होंने कठोर दण्ड दिया। परम्परा को वे पुनीत मानते थे। पाप से उन्हें घृणा थी। शरच्चन्द्र भी पाप का प्रचार नहीं करते । परम्परा से भी उन्हें घृणा नहीं है, पर वे मनुष्य को देवता के नाते नहीं, मनुष्य के नाते ही प्यार करते हैं। कोई शास्त्र, श्लोक, मंत्र- तंत्र मनुष्य से बड़ा नहीं है। उनके पात्र विशेषत्व रखते हुए भी इसी धरती की मिट्टी से बने हाड़-मांस के पुतले हैं। भीषण भावुकता के बावजूद विपरीत चित्तवृत्तियों का आन्तरिक संघर्ष जैसा यहां है सा बंकिम के साहित्य में नहीं।

रवीन्द्रनाथ ने जिस नवयुग का सूत्रपात किया, शरच्चन्द्र ने उसमें माटी की गंध बसाकर उसे घर-घर में पहुंचा दिया। रवीन्द्रनाथ के कथा-साहित्य में घटनाएं व्याख्या के बोझ से दब-सी गई हैं। विवरण पर विश्लेषण का आधिपत्य है। पर शरद के बात कहने की भंगिमा सुमधुर, सहज और सरल है। कहीं भी वे अपने को जीवन से अलग नहीं करते। वह जीवन एक साथ त्याग से उज्जवल और स्वार्थ से पीड़ित है, अनुभूति से गम्भीर और शासन-संस्कार से क्लिष्ट है। न बुद्धि, न युक्ति, बस अपूर्व सहानुभूति से दैन्य और संस्कारपीड़ित विधि-निषेध - निर्यातित हमारे वास्तव जीवन को हमारे हृदय के निकट ना दिया है।

संस्कृत से मुक्त लचीली प्रवाहमयी भाषा उन्हें रवीन्द्रनाथ से विरासत में मिली थी। रवीन्द्रनाथ ने बंकिमचन्द्र की भाषा को सहज-सरल बनाया था। शरच्चन्द्र ने उसे और प्रांजल तथा अंतःस्पर्शी बना दिया। जीवन के तुच्छ सुख-दुख की बात कहने की शक्ति भाषा में आ गई थी। शरद ने उसे व्यापकता और गहराई के साथ अद्भुत सहजता देकर पूर्ण रूप से अपनी बना लिया। उनकी भाषा में बाइबिल की सी सरलता है। ऐसी सरलता जो उनके जीवन में घुल-मिल गई थी। मिथ्याडम्बरों से दूर केवल अभिज्ञता के बल पर ही उन्होंने सरलता और सादगी की शक्ति से पूर्ण अभिनव शैली का आविष्कार किया था।

रवीन्द्रनाथ मानवीय, घटनाओं को विश्व प्रकृति के साथ मिलाकर देखते थे। उनका अन्तर्द्वन्द्व निर्वैक्तिक है। उनके चरित्र विचारों के मानवीय संस्करण है। उनका लक्ष्य है। देशातीत-कालातीत मानव। इसका मूल्य होने पर भी यह मनुष्य की क्षुधा को शांत नहीं करता। उन्होंने जीवन के वास्तविक सुख-दुख को अस्वीकार नहीं किया, पर दुखाती महाजीवन की वाणी ही उनकी रचनाओं में प्रकट हुई। रवीन्द्रनाथ ने जो कुछ किया शरद ने उसे आगे बढ़ाया। कविगुरु जहां केवल उस समय के सामाजिक नियमों से वर्जित बहुत-से विषयों को, जैसे विधवा में प्रेम-लिप्सा को, स्वाभाविक बताकर रह गए वहां शरद ने आगे बढ़कर समाज के सामने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। प्रीतिहीन, धर्महीन, क्षमाहीन समाज से बार-बार पूछा, “तुमसे कुछ मानवीय कल्याण भी हुआ है क्या?"

शरद के पात्र भी असाधारण हैं, पर उनका समजातीय रूप समाज में पाया जा सकता है। वे रोज़मर्रा के जीवन से बेमेल नहीं लगते। कारण, उनके पीछे उनके स्रष्टा की अभिज्ञता का असीम कोष है। उनकी मौलिकता से इनकार करना मात्र दुराग्रह है। जिस प्रतिभा के बल पर उन्होंने रवीन्द्र - युग में, बरगद के पेड़ के नीचे, न केवल अपना स्थान बनाया बल्कि समूचे देश को अपनी ओर आकर्षित भी किया, वह क्या कम अभिनन्दनीय है? उनके साहित्य का क्षेत्र सीमित अवश्य है, पर अपूर्व भी है। वे प्रेम के चित्रण में अद्भुत सृजनात्मक शक्ति का परिचय देते हैं। उन पर चरित्रहीनता का आरोप लगाया गया है, पर उस चित्रण में अश्लीलता खोजे भी नहीं मिलती। मिलता है अद्भुत संयम । यही संयम शरद की विशेषता है, जो अपने आप में अद्वितीय ही है।

अनुभूति की मार्मिकता और प्राणावेग, जहां तक इन दो गुणों का संबंध है, वे उन्हें पूर्ण रूप से प्राप्त थे।

समानता और असमानता के और भी अनेक बिन्दु खोजे जा सकते हैं, पर सत्य यही है कि बंकिम, रवीन्द्र और शरद अपने-अपने स्थान पर अप्रतिम और अनिवार्य हैं। परम्परा की कड़ियों की तरह एक-दूसरे से जुड़े हैं और प्रत्येक आगे आने वाले की तरह शरच्चन्द्र अपने दोनों महान् पूर्ववर्तियों के ऋणी हैं। रवीन्द्रनाथ के तो वे परम शिष्य हैं। रवीन्द्रनाथ न होते तो शरद भी न होते।

और शरद है इसीलिए 'आवारा मसीहा' भी है। यह केवल मेरे ही परिश्रम का परिणाम नहीं हो सकता। न जाने किस-किसके विचार-सौरभ और स्नेहस्पर्श ने उसमें प्राण उंडेले हैं। परिशिष्ट में उनके नामों का उल्लेख ही है। उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट नहीं की जा सकती। प्रेम का अर्ध्य ही उनको दिया जा सकता है।

उनके प्रारम्भिक जीवन को समझने के लिए उस काल के अनेक व्यक्तियों के साथ- साथ मैं उनके मामा और मित्र श्री सुरेन्द्रनाथ गांगुली का विशेष रूप से ऋणी हूं। जो कुछ मैंने लिखा है वह प्राय: सब उन्हीं का है। मैं तो मात्र शोधक हूं। उसी प्रकार उनके बर्मा- प्रवास की कहानी के लिए मैं जिस एक व्यक्ति का सबसे अधिक ऋणी हूं वे हैं योगेन्द्रनाथ सरकार। गिरीन्द्रनाथ सरकार ओर सतीशचन्द्र दासगुप्ता का योगदान भी कम नही है। इन सब व्यक्तियों की रचनाओं के आधार पर ही मैंने 'अवारा मसीहा' के प्रथम दो खण्डों की इमारत खड़ी की है। उनके राजनीतिक जीवन की सबसे अधिक सामग्री मिली थी शचीनन्दन चट्टोपाध्याय की पुस्तक से।

इस प्रकार इस पुस्तक की सामग्री के तीन प्रमुख स्रोत रहे है एक तो उन व्यक्तियों से साक्षात्कार जो किसी न किसी रूप में शरद बाबू से संबंधित रहे। दूसरे उनके समकालीन मित्रों के लेख-संस्मरण और तीसरे उनकी अपनी रचनाओं में इधर-उधर बिखरे वे स्थल और प्रसंग जिनका उनके जीवन से सीधा संबंध रहा । इतने अनुभव के बाद उन्हे, ढूंढ लेना बहुत कठिन नहीं हुआ।

मैं स्वीकार करूंगा कि पुस्तक को अधिक से अधिक प्रामाणिक बनाने के लिए मैंने इन विवरणों का यथाशक्ति उपयोग किया है। जीवित व्यक्तियों में मैं सबसे अधिक ऋणी हूं सुपरिचित पर्यटक स्वनामधन्य उमाप्रसाद मुकर्जी का, जिन्होंने सहज भाव से मुझे अपना लिया और शरद बाबू की सभी सामग्री जो उनके पास सुरक्षित है, मेरे लिए सुलभ कर दी। उनके स्नेह के प्रतिदान की कल्पना करना भी उसके महत्व को कम करना है। इसी प्रकार गंगोत्री निवासी सुपरिचित पर्यटक और फोटोग्राफर स्वामी सुन्दरानन्द ने मेरे साथ घूमकर जो अनेक चित्र सुलभ कर दिये उसके लिए सन्यासी को क्या धन्यवाद दूं? उन्हें प्रणामही कर सकता हूं।

अन्त में मैं स्वर्गीय श्री नाथूराम प्रेमी को प्रणाम करता हूं जिनके कारण 'आवारा मसीहा' का सृजन सम्भव हो सका। मुझे खेद है कि इसके पूर्ण होने से पूर्व ही उन्हें चले जाना पड़ा, पर इस बात का सन्तोष भी है कि अन्ततः मैं उनकी इच्छा पूर्ण कर सका। उन्हीं की पावन स्मृति को मेरा यह यत्किंचित प्रयास समर्पित है।

मार्च 1974

818, कुण्डेवालान,

अजमेरी गेट, दिल्ली-110006

- विष्णु प्रभाकर

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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भूमिका

21 अगस्त 2023
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संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

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भूमिका : पहले संस्करण की

21 अगस्त 2023
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कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

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तीसरे संस्करण की भूमिका

21 अगस्त 2023
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लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

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" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

21 अगस्त 2023
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किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

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अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

21 अगस्त 2023
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भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

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अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
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नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

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अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
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मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

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अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
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शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

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अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
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तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

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अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
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शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

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अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
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इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

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अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

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अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
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शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

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अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
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उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

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अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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