वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने के लिए लिख रहे थे। उन्होंने उसे विश्वास दिलाया कि यह उसके लिए सौ रुपये मासिक का प्रबन्ध कर देंगे। इन सब बातों का परिणाम यह हुआ कि उसका हमेशा का खराब स्वास्थ्य और भी खराब होता चला गया। शारीरिक असमर्थता को जन मन का सहारा मिल जाता है तो उसके सुधरने की सभी सम्भावनाएं नष्ट हो जाती हैं। वह बार-बार अपने मित्रों को लिखने लगा, "इस बार हालत और भी खराब है। डर लगता है कि जिन्दगी भर के लिए पंगु हो ही जाऊंगा । मानसिक चंचलता के कारण कुछ भी लिखने को इच्छा नहीं होती। मेरे इस लकड़ी जैसे शरीर में इस तरह की कठिन बीमारी सम्भव होगी, यह कभी नहीं सोचा था । "
फिर लिखा, यहां अच्छा होने की आशा नहीं है। शरीर के और अंगों को ठीक करके जगदीश्वर यदि मुझे पंगु होने की सजा देते है तो यही अच्छा है। बीच-बीच में दोनों पैरों को बंद करके केवल हाथों से ही काम करने को कहते हैं।.
उसके पैर सूज जाते थे। किसी तरह ठीक नहीं हो रहे थे। डाक्टर ने उसे बताया कि बर्मा छोड़ देने पर ही यह रोग दूर हो सकता है। वह अफीम बहुत खाता था। इस कारण भी उसका स्वास्थ्य बिगड़ चुका था। शायद किसी के कहने पर उसने एक बार अफीम छोड़ने की चेष्टा की थी। तब स्थिति और भी खराब हो गई थी। दुबारा खाना शुरू करने पर ही प्राण बच सके थे। जो अफीम के आदी हो जाते हैं, वे सहसा उसको छोड़ नहीं सकते। इस बात की चर्चा उसने अपने एक पत्र में की है, मुझे इतना दुख शायद इसलिए मिला है कि मैंने अफीम छोड़ने की चेष्टा की है। अब मैं कभी अफीम छोड़ने का नाम नहीं लूंगा। जब अच्छी तरह अफीम फिर से शुरू की तभी पैर अच्छा हुआ। अब थोड़ी मात्रा और बढ़ा दूं तो शायद हाथ भी ठीक हो जाए। अफीम कम करने के कारण दिमाग खाली सा हो गया था। फिर धीरे-धीरे भरता जा रहा है। यह भी क्या चीज है ! आप लोगों को भी शुरू करना चाहिए। मैं तो समझता हूं कि हर शरीफ़ आदमी को अफीम का सेवन करना चाहिए।'
अफीम की चर्चा अभी रहने दें। मज़ाक करने का उसका स्वभाव था। लेकिन बर्मा छोड़ देने का अब उसने निश्चय कर लिया था। उसने श्री हरिदास चट्टोपाध्याय को लिखा, 'आपने मुझे जो कुछ देना चाहा हे, वही मेरे लिए यथेष्ट है। इस वर्ष के अन्दर मर नहीं जाता तो हो सकता है रुपये-पैसे का कर्ज अदा हो जाए। पर कृतज्ञता का ऋण तो अदा नहीं हो सकता....... मैं एक वर्ष की छुट्टी लेने का कार्यक्रम बना रहा हूं। यदि आप २०० रुपये भेज दें तो आने में सुविधा होगी। इस हतभाग्य स्थान को छोड़ने में आप मेरे लिए जो अतिरिक्त आर्थिक क्षति उठायेंगे उसको पूरा करने की मैं इसी वर्ष चेष्टा करूंगा।
कभी-कभी तो वह अहंकारी अत्यन्त करुण हो उठता था। पंगु होने और रुपया भेजने की बात उसने बार-बार लिखी है। अंत में श्री हरिदास ने रुपया भेज दिया और तब उसने सूचना दी कि वह 11 अप्रैल को रवाना हो रहा है। मन में इतना विमर्ष है कि किसी काम में हाथ लगाने की इच्छा नहीं होती । लगाने पर भी अच्छा नहीं होता। अब कलकत्ता जाकर ही वह लिखेगा।
इसी समय रंगून में एक ऐसा काण्ड हो गया जिसने उसे वहां से चले जाने के लिए अन्तिम रूप से विवश कर दिया। उसका मन दफ़्तर के काम में नहीं लगता था। वह पड़ा रह जाता था और उसकी रिपोर्ट ऊपर के अधिकारियों तक पहुंचती थी। कई बार उसे चेतावनी दी गई, लेकिन उसका कोई परिणाम नहीं निकला । आखिर इसी बात को लेकर एक दिन आफिस सुपरिन्टेण्डेण्ट मेजर बनाई से उसका भयंकर झगड़ा हो गया।
उसने कोई फ़ाइल मांगी थी। शरत् ने उत्तर दिया, मैं उसके बारे में कुछ नहीं जानता। वह मेरे पास नहीं है। लेकिन खोज करने पर वह उसी की दराज में मिली। यह देखकर सुपरिण्टेण्डेण्ट क्रोध से भर उठा। ऐसा होना स्वाभाविक था, लेकिन शायद कुछ अति हो गई। इतनी कि द्वन्द्वयुद्ध की नौबत आ पहुंची। लेकिन शरत् था दुबला-पतला और बर्नार्ड जितना स्वस्थ उतनी ही सुगठित थी उसकी देहयष्टि। काफी चोट आई शरत् को। कपड़े खून से तर हो गए। रिपोर्ट बड़े साहब तक पहुंची। जांच करने पर उसने पाया कि ज्यादती बर्नार्ड की ओर से हुई है। उसने उसे तुरन्त निलम्बित कर दिया। बाद में सुना, उस पर 90 रुपये जुर्माना हुआ और आदेश हुआ कि वसूल हो जाने पर वे रुपये शरत् बाबू को दे दिए जाएं।
यह भी सुना गया कि रिपोर्ट जब अकाउण्टेण्ट जनरल के पास पहुंची तो उन्होंने शरत् से कहा, शुम बर्नार्ड के बर्ताव का विरोध करने आए हो, मैं उसके विरुद्ध कार्रवाई करूंगा। लेकिन तुम मानवता के स्तर से गिर गए हो। अगर तुम आघात के बदले आघात करते और फिर मेरे पास आते तो मैं समझ सकता।.
"यह विवरण राई-रत्ती सही नही हो सकता। लेकिन घटना सही अवश्य है और यह भी सही है कि वह ऊंट की पीठ पर अन्तिम तिनका प्रमाणित हुई। शरत् ने रंगून छोड़ने का दृढ़ निश्चय कर लिया। मित्रों ने उससे कहा, कहानियां लिखते हो, तुम्हारा इतना नाम हो गया है, फिर क्यों दफ्तर में पड़े सड़ रहे हो? इससे तो अच्छा यही है कि नौकरी छोड दो और लिखने में मन लगाओ।"
साहित्य में यश था, अर्थ था, लेकिन दफ्तर के कार्य की उपेक्षा अनिवार्य थी। वह अधिक परिश्रम करने का आदी नहीं था। स्वास्थ्य एकदम खराब था। उसने त्यागपत्र दे दिया। सम्भवतः उसकी एक वर्ष की छुट्टी शेष थी, वह उसने ली और कलकत्ता के लिए रवाना हो गया। उसके बाद वह फिर कभी बर्मा नहीं गया। लेकिन इतिहासकार इस बात को कैसे भूल सकेंगे कि कथाशिल्पी शरत्चन्द्र का पुनर्जन्म बर्मा में ही हुआ था। 'श्रीकान्त' चरित्रहीन' छवि और अधिकार' सभी पर इस जीवन की अमिट छाप है। बर्मा- प्रवास में वह ऐसे भी व्यक्तियों के सम्पर्क में आया जिनका बौद्धिक स्तर ऊंचा था, परन्तु उसके अधिकतर साथी महत्त्वहीन और अजाने ही थे। उन्हीं के द्वारा प्रोत्साहन पाकर यह निर्धन, अर्द्ध-शिक्षित और आवारा युवक साहित्य के उस क्षेत्र में प्रवेश पा सका जहां महानता उसकी प्रतीक्षा कर रही थी।
बर्मा छोड़ने से पूर्व चार महीने के भीतर ही भीतर उसकी तीन और पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं। मंझली दीदी" और दूसरी कहानियां पल्ली समाज' और चन्द्रनाथ"।'
दिशा की खोज जैसे समाप्त हो गई थी।