कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने मामा से कहा, "वह मेरे रक्त-मांस का अंश बन गया था। उससे पूर्व और उसके बाद कई आये और गये, किन्तु वह मानो मध्य की मणि था। मनुष्य को सबसे बड़ी सीख जीव-जन्तुओं से ही मिलती है, इसमें सन्देह नहीं।”
फिर बोले, "उस दिन तुमने छत पर कुंजवन लगाने की बात कही थी । तब सोचा था सब व्यर्थ है। परन्तु आज ग्लोब नर्सरी चलता हूं। यदि ज़िन्दा रहा तो निश्चय ही एक कुंजवन तैयार करूंगा।"
और वे नर्सरी गये, कई प्रकार के मौसमी फूलों के बीज खरीदे। गुलाब उन्हें सबसे अधिक प्रिय था। जिस समय वे दुकान पर खड़े मामा से बातें कर रहे थे तो एक अपरिचित युवक ने आकर उन्हें प्रणाम किया और कहा, "क्या आप मेरे स्टाल पर चलने की कृपा करेंगे? मैं आपको कुछ फूल देना चाहता हूं।”
शरत् बाबू बोले, "मुझे क्यों देना चाहते हो?"
"देकर मुझे सुख होगा इसलिए।”
"इतने लोग आते हैं, सबको देते हो क्या?" "सबको तो मैं नहीं पहचानता?”
"मुझे पहचानते हो?"
"बंगाल में आपको कौन नहीं पहचानता?”
खरीदारी करने में शरत् सदा उदार रहे। उनका तर्क था कि भगवान ने बुढ़ापे में इतना दिया है, इसे कहां रखूंगा?
गाड़ी में बैठे फूलों की प्रतीक्षा कर रहे थे कि कई कापियां हाथ में लिए एक वृद्ध मुसलमान ने आकर कहा, “इन्हें आपको खरीदना होगा।"
"क्यों?”
"क्योंकि घर में खाने को नहीं है। खाली हाथ नहीं जाऊंगा।”
“कितने पैसे देने होंगे?”
“एक रुपया।”
उसे दो रुपये देते हुए कहा, “एक रुपया मूल्य और दूसरा खुदा के नाम पर।”
प्रसन्न होकर वृद्ध ने कहा, “ज़िन्दे रहो बाबू साहब।”
सुनकर शरत् मुस्कराये होंगे, तब अंतर में बैठे शरत् ने कहा होगा, “यह ज़िन्दा रहने को ही तो कहता है। मैं जीवन के अन्तिम क्षण तक ज़िन्दा रहूंगा।”
इधर इस प्रकार भुलाने का प्रयत्न कर रहे थे उधर जांच की व्यवस्था आरम्भ हो गई थी। देख-रेख कर रहे थे डा० कुमुदशंकर राय । सूचना पाकर डा० विधानचन्द्र राय भी आ गये। बोले, “आप कब वापस आये? और यह सब क्या है? अच्छा, ज़रा लेटो तो।”
लेटते हुए शरत् ने उत्तर दिया, “देश जाकर बहुत माछ खाये हैं। इसलिए कुछ पेप्सिया बढ़ गया है।”
डाक्टर बोले, “हजम नहीं कर पाते तो इतना क्यों खाते हो?”
शरत् ने कहा, “लोभ के कारण। एक-एक दिन में पांच-पांच, छह-छह तक तपसे माछ खाये हैं।”
डाक्टर बोले, “अच्छा काम नहीं किया। मुझे देकर खाते तो हजम हो जाते। "
परीक्षा करने के बाद कुछ देर बातें करते रहे। फिर जैसे आये थे वैसे ही चले गये । शरत् ने मामा से पूछा, “क्या बता गये हैं?"
“किंक किंकर्स!
यह शब्द समझ में नहीं आ रहा था। नरेन्द्र देव भी आ गये थे। डिक्शनरी देखनी पड़ी। पता लगा कि इसके अर्थ हैं आतों में कोई रुकावट । समझ गये कि केवल एक्स-रे कराने से ही काम नहीं चलेगा, आपरेशन भी कराना होगा ।
अब गांव लौट जाने का प्रश्न नहीं था। डाक्टर पर डाक्टर आने लगे और सलाह- मशविरा चलने लगा। उसके साथ ही ज्योतिष का प्रभाव भी बढ़ रहा था। उसी दिन नीलम की अंगूठी पहनी थी। बाद में प्रवाल की और आ गई। उन्होंने कहा, “मनुष्य पर जब संकट आता है तो वह बुरे संस्कारों का दास बन जाता है। यह देखो मेरी प्रवाल की अंगूठी। क्या होगा इससे? फिर भी...।”
मामा ने उत्तर दिया, “जैसे अस्वस्थ हो जाने पर डाक्टर को बुलाना कुसंस्कार नहीं है, वैसे ही ग्रहों के अप्रसन्न हो जाने पर प्रवाल धारण करना भी कोई बुरा संस्कार नहीं है।” चिरदिन के स्वेच्छाचारी शरत्चन्द्र ने इतना ही कहा, "दुख में पड़कर प्रवाल धारण किया है, पर मन विद्रोह करता है।"
इस छटपटाहट से मुक्ति पाने के प्रयत्न में वैरागी मन अतिशय चंचल हो उठा। कभी फूलों को लेकर व्यस्त हो उठने तो कभी सोचते कि नई गाड़ी खरीदकर भागलपुर घूम आया जाए। उस दिन बाज़ार में एक मोर देखा तो खरीद लाये। बकरी का दूध सहज सुपाच्या होता है। रोगी के लिए ठीक रहेगा। इसलिए स्वयं बाज़ार जाकर एक बकरी देखी। मूल्य था चालीस रुपये। चार सेर दूध देने की बात थी। आश्चर्य, वह बकरीवाला भी उन्हें पहचानता था।
सुरेन्द्र मामा के कान में उसने कहा, “यह कहानियां लिखते है न? मैंने इनकी तस्वीर देखी है। इनके लिए मैं बीस रुपये में दे दूंगा।”
लेकिन बड़ी अद्भुत थी वह बकरी । अपना दूध स्वयं पी जाती थी। बड़ी बहू गांव से आ गई थीं। किसी ने उनसे कहा, “अपना दूध पी जाने वाली बकरी यदि घर में रहती है तो स्वामी या स्वामिनी किसी एक की मृत्यु हो जाती है।
तब बड़ी बहू ने वह शोर मचाया कि उसे विदा करने के सिवाय और कोई चारा नहीं रहा। लेकिन इससे उनकी खरीदारी में कोई अन्तर नहीं पड़ा था, और इसीलिए बगीचा दिन-प्रतिदिन प्रगति कर रहा था। दूसरी ओर एक्स-रे की व्यवस्था भी चल रही थी । अन्त में पता लगा कि जिगर में कैंसर है जो बढ़ते-बढ़ते पाकस्थली तक पहुंच गया है।
यह मृत्युदण्ड की स्पष्ट घोषणा थी । मृत्यु की पदचाप वे बहुत पहले से सुनते आ रहे थे। जिस दिन वे कलकत्ता आये उसी दिन अखबार पढ़ते-पढ़ते स्तब्ध रह गये । मुख विवर्ण हो आया। मामा ने देखकर पूछा, “क्या हुआ शरत्?”
"सर जगदीशचन्द्र बसु की मृत्यु हो गई। उनका हृदय दुर्बल था। इस बार मेरी बारी है । "
"यह कौन सा तर्क हुआ?”
"तर्क नहीं इन्ट्यूशन है?”
“उनकी तो आयु पूरी हो गई थी। तुम उनके सामने बच्चे हो ।”
शरत् ने कहा, "मेरा हृदय ठीक है, लेकिन खराब होते क्या देर लगती है?”
बड़े दिन की छुट्टियां पास आ गई थीं। इन दिनों मद्रास में डाक्टरों का एक बड़ा सम्मेलन था। उनकी बड़ी इच्छा थी कि वहां जाने से पहले डाक्टर लोग उनके बारे में कोई निर्णय कर लें। विधान बाबू, ललित बाबू, कुमुद बाबू- तीनों डाक्टर देखने आए। निश्चय हुआ कि आपरेशन करना होगा । शरत्चन्द्र ने विधानचन्द्र राय से कहा, “आपरेशन यदि होना ही है तो आप करेंगे। यदि मरूंगा तो आपके हाथों से।”
हंसकर विधानचन्द्र राय ने उत्तर दिया, "लेट जाओ, काम पूरा करके ही जाऊंगा।”
और फिर घर के कोने में रखी इस्पात की सुन्दर कुल्हाड़ी उठा लाये। बोले, "मै तैयार
सब ठहाका मारकर हंस पड़े। लेकिन आपरेशन करना तुरन्त सम्भव नहीं हो सका । यह निश्चित हुआ था कि डाक्टर ललितमोहन आपरेशन करेंगे, लेकिन उनकी फीस हज़ार- बारह सौ रुपये से कम नहीं थी । शरत् बाबू इतना देने में असमर्थ थे। इसलिए डाक्टर लोग उन्हें उसी अवस्था में छोड़कर मद्रास चले गये। पीछे रह गये डाक्टर दासगुप्ता, जो लेटे-मोटे प्रयोग करके रोग की तीव्रता को कम करने का प्रयत्न करने लगे।
शरतचन्द्र ने एक दिन डाक्टर कुमुदशंकर से भी कहा था, “आपरेशन यदि करना है तो और परीक्षा करने की ज़ुरूरत नहीं है। मैं कल ही तैयार हूं। मामा को साथ लेकर तुम्हारे यहां पहुंच जाऊंगा। तुम्हीं आपरेशन कर दो। अच्छी तरह जानता हूं कि तुम्हारे समान दक्ष डाक्टर कलकत्ता में नहीं है। तुम्हें अपने ऊपर जितना विस्वास है उसे देखकर मैं चकित रह गया हूं। मैं कोई स्त्री नहीं हूं। मेज़ पर मर जाने की भी कोई सम्भावना नहीं है, और हो तो मैं लिखकर दे सकता हूं। किसी को बुलाने की ज़रूरत नहीं है।”
कुमुदशंकर मूर्तिवत् चुपचाप बैठे रहे। शरत् ने कहा, “कुछ तो बोलो, "मैं नहीं कर सकता।”
, कुमुद!”
"कमुद, यह काम तुमको छोड़कर और कोई नहीं कर सकेगा। तुमने अपने लड़के का आपरेशन भी तो किया था।”
"मेरे लड़के और आपमें बहुत अन्तर है। एक लड़का गया तो दूसरा हो सकता है, किन्तु एक शरत्चन्द्र के जाने पर दूसरा नहीं हो सकता।”
जैसे-जैस मृत्यु पास आ रही थी वैसे-वैसे ही खाने की तृष्णा भी बढ़ रही थी। उस दिन डाक्टर दासगुप्ता की लेबोरेटरी में काफी देर हो गई। शरत् बाबू ने कहा, “देर हो गई। कुछ खाकर नहीं आया हूं। तुम्हारे यहां भोग नहीं होगा क्या? देशबन्धु के साथ तुम्हारे घर खाया था। कितने दिन हो गए उन बातों को।”
डाक्टर दासगुप्ता ने कहा, अभी ओटमिल की व्यवस्था हो जाती है, वही आपके लिए उपयोगी है।”
शरत् ने मामा की ओर देखा और कहा, “सुरेन्द्र, इसीको शनीचर कहते हैं।”
पेट में कौन-कौन सा रस किस मिकदार में है, स्टमक - पम्प द्वारा इसकी भी जांच की गई लेकिन उनकी भूख कम नही हुई। डाक्टरों ने आदेश दिया था कि वे केवल कम मीठे वाले सन्देश खा सकते हैं, लेकिन उनका मन करता था मटर की कचौड़ी जैसी स्वादिष्ट चीज़ खाने को। गांव लौट जाने की व्याकुलता भी कम नहीं थी, लेकिन जाना क्या सम्भव था?
कुशल पूछने के लिए मित्रों का तांता लगा रहता था। एक दिन असमंजस मुखोपाध्याय आये। देखा, वही घर, वही द्वार, वही दालान, वही सामने का बगीचा, लेकिन सब कुछ निरानन्द। कुछ दिन पहले तक उन सबमें प्राणों का उत्साह था, माधुर्य का स्पर्श था, लेकिन अब वहां पर मानो प्राणहीनता की एक निष्करुण हवा चल रही है। व्यथित मन वे अन्दर जाकर खड़े हो गए। वह मनहूस स्तब्धता बार-बार लौट जाने को कहती थी, लेकिन बिना मिले कैसे लौट सकते थे! कॉल बेल बजाने पर सुरेन्द्रनाथ नीचे आये। जो समाचार उन्होंने दिया वह अच्छा नहीं था। तुरन्त ही वह शरत् बाबू को खबर देने के लिये चले गए। फिर लौटकर कहा, “अभी आ रहे हैं।"
असमंजस बाबू बोले, "न, उनके आने की ज़रूरत नहीं है, मैं स्वयं ऊपर आ रहा हूं।” लेकिन वे ऊपर जाने के लिए उठ पाते कि तभी चिर-परिचित पदचाप सुनाई दी। देखा शरत्चन्द्र ही हैं। अत्यन्त रुग्ण अवस्था, निर्जीव की तरह आकर आरामकुर्सी पर गिर पड़े।
असमंजस बाबू ने कहा, “यह आपने क्या अनर्थ किया? आपको इस तरह नहीं आना चाहिए था । "
शरत् बाबू ने उत्तर दिया, "तुमको आने के लिए तुम्हारे लड़के से कहा था। तुम आये हो, यह सुनकर मैं कैसे नहीं आता? और मरना तो एक दिन सबको होगा ही। उसके लिए दुख कैसा?"
ऐसा लगा मानो श्रीकान्त बोल रहा हो। इन्द्रनाथ का प्रिय शिष्य और बन्धु श्रीकान्त । एक दिन फिर कुछ और मित्र आ गये। सभी जानते थे कि मृत्यु निश्चित है। फिर भी सांत्वना देने का प्रयत्न करते थे। उस दिन 23 दिसम्बर का दिन था, मित्र ने कहा, “निश्चय ही आप ठीक हो जाएंगे।”
रोग से आक्रांत मलिन मुख पर हास्य की रेखा फूट आई। कहा, "मेरी एक बात याद रखना। 22 जनवरी को मुझे याद करना। याद रहेगा न?”
मानो उन्होंने स्पष्ट कहा हो कि 23 जनवरी को जीवित नहीं रहेंगे। उन्हें जाने की चिन्ता नहीं थी लेकिन जो पास थे, उनके प्रिय थे, उनकी चिन्ता का पार नहीं था। उन्हीं में थे उमाप्रसाद मुकर्जी। अचानक उन्हें एक हफ्ते के लिए बाहर जाना पड़ा। जाने से पूर्व उन्होंने शरत् बाबू से आज्ञा चाही। उन्होंने कहा, “तुम कुछ दिन के लिए जा सकते हो। इन दिनों आपरेशन की सम्भावना नहीं है। डाक्टर कुमुद भी बाहर जा रहे हैं। चिट्ठी से तुम्हें सब समाचार मिलते रहेंगे। आवश्यकता हुई तो बुलाने के लिए लिखवा दूंगा।”
उमाप्रसाद चले गये। जाते समय उन्होंने मामा सुरेन्द्रनाथ से कहा, “मुझे चिट्ठी लिखते रहिए ।"
25 दिसम्बर को सुरेन्द्रनाथ ने लिखा-
"सवेरे के पांच बजे ।
.. उस दिन कुमुद बाबू की लेबोरेटरी में शरत् की परीक्षा हुई थी और सुबोध बाबू एक्स-रे करने के लिए राज़ी भी हैं। अगले दिन सवेरे उनके घर गया। सब कुछ विस्तार से जानना चाहता था। लेकिन वह तो डाक्टर के अतिरिक्त किसी और को कुछ बताना नहीं चाहते थे।
“दो दिन शरत् ने खूब खाया। उससे और भी दुर्बल हो गये हैं। कल संध्या को हठात् उनकी अवस्था बिगड़ती हुई जान पड़ी। कुमुद बाबू तो है नहीं, और वह किसी दूसरे डाक्टर को बुलाने नहीं देते। बस ढेर सारी कालीफाँस और अफीम के सहारे किसी तरह चल रहा हे।
.. कल एक नर्सिंग होम ठीक किया है। पार्क स्ट्रीट में सुशील चटर्जी है। सौभाग्य से वे मेरी भांजी के लड़के हैं। जान पड़ता है, शुक्रवार 31 दिसम्बर को वहां जाना होगा। “आज सवेरे साढ़े सात बजे डाक्टर दासगुप्त के साथ सुबोध बाबू के पास जाऊंगा। अब तक इतना ही। लौटकर जो बात होगी, लिखूंगा। आप मुझपर भरोसा करके यहां से गये हैं। यदि दो-चार दिन में आ सकते हों तो बड़ा अच्छा रहेगा। आशा करता हूं, आ सकेंगे। 30 तारीख तक लौट आइए ।
“साढ़े दस बजे ।
“सुबोध बाबू आज साढ़े छ: बजे आएंगे। आज से वे रोगी का चार्ज ले लेगे।” दो दिन बाद फिर लिखा-
“27-12-1937, समय दस बजे ।
“कल चिट्ठी नहीं लिख सका। आज सवेरे सब शान्ति से आरम्भ हुआ। इसलिए डर लगता है। इस समय मूड़ी के साथ तमाखू पीना चल रहा है। मूड़ी खाने की आशा नहीं है। केवल खाने की इच्छा पूरी होगी, इसीलिए डाक्टर मना नहीं करते। कल सोने के लिए साढ़े बारह बज गये थे।
“अब डूश देते-देते जान पड़ता है बारह बजे जाएंगे। उसके बाद ऑलिव आयल की मालिश होगी। उसके बाद ग्लूकोज़ दिया जाएगा। पहले रेक्टम से, उसके बाद इन्ट्रावीनस इन्जेक्शन द्वारा। इस बीच में एक स्ट्रीकनिन समय के अनुसार दी जाएगी। पेट में मुख के द्वारा कोई खाना पहुंचाना सम्भव नहीं है। यहां तक कि विनकारनिस भी नहीं। मुंह से खाने से केवल कष्ट ही होता है । किन्तु मन की शान्ति के लिए ही ऐसा किया जाता है। रात देर से काम आरम्भ हुआ। ऑलिव आयल मलना, फिर रेक्टम द्वारा तीन औंस देना । अन्त में सोते- सोते रात में कहा, 'एक गाना सुनो शेष पाराणीर कड़ी आमी कण्ठे निलाम गान......मेरे बहुत दिनों के बन्धू को इसीलिए गाना सुनाता हूं।'
“ शेष सब ठीक है। मैंने पहले आपको आने के लिए लिखा था। अब फिर ज़ोर देकर कहना चाहता हूं।”
उमाप्रसाद चिट्ठी पाकर तुरन्त कलकत्ता लौट आये।