चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । जो हुआ सो हुआ। कुछ अनुभव ही प्राप्त हुआ। आगे से अपनी साहित्य-साधना में ही लगा रहूंगा ।”
इस समय देश में नमक सत्याग्रह का ज़ोर था । इसी गोष्ठी में एक बन्धु ने पूछा, “वर्तमान राजनीतिक आन्दोलन के संबंध में कुछ कहिए। कैसा चल रहा है और आपको कैसा लगता है?"
उन्होंने उत्तर दिया, “अच्छा ही चल रहा है। किन्तु मैं इस संबंध में कुछ न कह सकूंगा ין
इससे स्पष्ट है कि अब उनका मन राजनीति से उचट रहा था और यह भी सत्य है कि उनके राजनीति में जाने से साहित्य की हानि हुई । परन्तु देश की स्वाधीनता के लिए प्रयत्न करना साहित्यकार का उतना ही अधिकार वे मानते थे, जितना राजनीतिज्ञ का । बल्कि उससे कुछ अधिक ही । इसलिए अहिंसा और चर्खे में विश्वास न रखते हुए भी उन्होंने अनुशासन के कारण उनका यथाशक्ति सम्मान किया। लेकिन ऐसा लगता है कि इस उदासी के बावजूद उन्हें शीघ्र ही मुक्ति नहीं मिल गई। कुछ दिन और वे उससे जुड़े रहे । उनकी राजनीतिक मान्यता क्या थी यह उनके कार्यों से और उनके उन विचारों से स्पष्ट हो जाता है जो 'पथेर दाबी' में उन्होंने प्रकट किये। उसके प्रकाशन काल में एक दिन कई कांग्रेसजन उनसे मिलने आये । प्रायः सलाह-मशविरे के लिए आते रहते थे। उस दिन उन्होंने पूछा, “अहिंसक सत्याग्रह और हिंसक विप्लव, इन दोनों में आप किसका समर्थन करते हैं? आप हावड़ा कांग्रेस के सभापति हैं और कांग्रेस हाईकमांड का आपके प्रति स्थायी निर्देश है अहिंसात्मक सत्याग्रह, मगर आपके 'पथेर दाबी' उपन्यास में हिंसा का संकेत है ?"
उन्होंने उत्तर दिया, “मैं उसका (हिंसा का समर्थन नहीं करता, यह सत्य है । फिर भी न जाने क्यों क्रान्तिकारियों के प्रति मेरे अन्दर यह एक कमजोरी रह गई है। इसलिए खतरा उठाकर भी इनसे सम्पर्क रखने और कभी-कभी यथासंभव आर्थिक मदद करने में मैं तनिक भी आगा-पीछा नहीं करता । तुम लोगों में शायद कोई नहीं जानता कि इनमें से कई गहरी रात के अंधेरे में मेरे पास आया करते हैं। अभी उस दिन दिन-दहाड़े सबकी आँखों में धूल झोंककर एक क्रांतिकारी मेरे घर पर कुछ घंटे काट गया ।
"उस दिन उसके एक आदमी ने आकर मुझे खबर दी कि दोपहर के समय आलू का टोकरा लिए 'आलू ले लो आलू ले लो ' चिल्लाता हुआ वह क्रांतिकारी घर के पास से गुज़रेगा । उसकी आवाज़ सुनकर आलू लेने के बहाने मैं उसे घर के अन्दर बुला लूं ।
'आवाज़ तो सुनी मगर अचानक उसे बुलाऊं कैसे? यहां आने के बाद कभी कोई चीज स्वयं नहीं खरीदी । आज अगर अचानक आलूवाने को बुलाने की बात की तो लोगों को शक होगा और उसकी गोपनीयता प्रकट हो जाएगी। बहुत सोच-विचारकर आखिर गृहस्वामिनी की शरण ली। बुलाकर कहा, 'बडी बहू, कोई आलूवाला पुकार रहा है, आलू लोगी क्या ?"
गृहस्वामिनी बोली, 'घर में ढेर सारे हैं। आज ही तो बाजार से आये हैं ।'
मैं बड़ी आतुरता से बोला, 'तो क्या बेचारा इस चिलचिलाती धूप में 'आलू आलू चिल्लाता खाली हाथ लौट जाएगा? शायद उसकी अभी तक बोहनी भी नहीं हुई। थोड़े ले लो । आलू ऐसी कोई खराब होने वाली चीज नहीं है। घर में पड़े रहने पर भी कोई नुकसान नहीं होगा । अहा, इस भरी दोपहरी में बेचारा चिल्लाता फिर रहा है। मुझे सचमुच उस पर बड़ी दया आती है।'
“ 'तुम्हारी सनक बड़ी अनोखी है कहकर गृहस्वामिनी ने आलूवाले को बुलाने के लिए ननी को आदेश दिया। उसके आने पर थोड़े से आलू लिए भी मैं दरवाजे के पास ही खड़ा था। सोच रहा था क्या करूं ? अन्त में बोला, 'दोपहर तो ढल गई, कुछ खाया-पीया भी है भाई ?
“वह बोला, 'कैसे खाता-पीता बाबूजी ? आलू बेचकर कब घर लौटूंगा, इसका कोई ठिकाना है क्या? शायद शाम तक कुछ मिल सके ।'
'मैं बोला, 'तो भाई एक काम करो, यहीं दो कौर क्यों नहीं खा लेते। इस भरी दोपहरी ब्राह्मण के द्वार से बिना खाये तुम नहीं जा सकते।'
“उसने कहा, 'बाबूजी, ब्राह्मण के यहां बहुत दिनों Word not readable हीं पाया, मिले तो मेरा परम सौभाग्य होगा ।'
"उधर गृहस्वामिनी कान में बुदबुदा रही थीं, 'तुम खामखाह झंझट मोल ले रहे हो । आया है आलू बेचने, उसे खिलाने की क्या जरूरत पड़ गई ? वह क्या अतिथि है या कोई भिखारी कि बुलाकर खिलाना होगा ? इसके अलावा चूल्हा-चौका भी तो उठ चुका है । मध्वी वछली भी नहीं रह गई है।'
मैं धीरे से बोला, जानती हो, इस भरी दोपहरी में बिना खाये क्खै - जायेगा तो गृहस्थ का अकल्याण होगा और मध्वी की बात कह रही हो, ननी को कहने से वह अभी जालं फेंककर तालाब से मछलियां ले आएगा ।'
“अक्माण की बात सुनकर गृहस्वामिनी तैयार हो गईं। इतनी गोपनीयता का एक कारण था। घर के लोगों को उससे असाधारण परिचय का पता यदि चल जाता तो बात धीरे-धीरे फूट जाती । फिर हमारे मकान के सामने ही चौकीदार का घर था। पता लगने पर थाने में निश्चय ही रिपोर्ट लिखा आता । इसीलिए इतनी सावधानी बरतने को बाध्य हुआ था ।... देश के लिए जो काम करते हैं, उन सब पर मैं श्रद्धा रखता हूं। भले ही वे हिंसात्मक क्रांतिकारी हों या अहिंसात्मक सत्याग्रही । मेरे लिए वे दानों ही समान श्रद्धा के पात्र हैं । इस असमय में गृहस्वामिनी से रसोई करवाने में मुझे संकोच अवश्य हो रहा था, पर कोई चारा भी तो नहीं था । ननी जाल लेकर तालाब की ओर चला गया और बड़ी बहू अतिथि- सत्कार के लिए रसोई घर में व्यस्त हो गईं। इस एकान्त का लाभ उठाकर मैंने आलूवाले से उसकी कहानी सुनी । उसे कुछ रुपयों की आवश्यकता थी, वे दिये। यह बात कोई नहीं जान सका क्योंकि बीच-बीच में मैं ऊंची आवाज़ में आलूवाले से समय के अनुरूप बातें में करता रहता था । आखिर रसोई तैयार हुई और खा-पीकर वह 'आलू ले लो आलू !' चिल्लाता हुआ चला गया ।"
हावड़ा डकैती में एक अभियुक्त था लालबिहारी । जेल से फरार होकर वह सीधा उनके पास आया। उस समय ब्रिटिश सरकार का इतना आतंक था कि कोई भी साधारण व्यक्ति इस तरह के फरार आदमी को अपने यहां आश्रय देने का साहस नहीं कर सकता था, पर शरत्चन्द्र कभी साधारण बनकर नहीं रहे। उन्होंने लालबिहारी को आश्रय ही नहीं दिया, अपना अनुचर बनाकर नियमित रूप से उसे वेतन भी देते रहे । आलूवाला, लालबिहारी, स्वदेशरंजन दास, शचीन्द्रनाथ सान्याल और विपिन बिहारी गांगुली कितने नाम लिए जायें । उम्र में छोटे होने पर भी विपिनबिहारी गांगुली रिश्ते में उनके मामा लग थे । उन्हें शरत् बहुत प्यार करते थे। दुखी मन से उन्होंने एक दिन कहा था,
" कितनी अद्भुत हैं ये विप्लवी लोग! उनका एक दृष्टान्त है हमारा विपिन । देश के लिए कितने कष्ट में उसने अपना सारा जीवन दिया है। आधा जीवन तो उसका जेल में कट गया । कितनी बार कहा कि बिस्तर पर सोओ, कुछ आदर और प्यार ग्रहण करो। लेकिन उसके पास समय ही नहीं, और समय आये कहां से? देश की चिन्ता छोड़कर उसे कोई और चिन्ता नहीं है ।"
विपिन रहने के लिए तो नहीं लेकिन किसी न किसी प्रकार की सहायता के लिए आते ही रहते थे। एक बार वे स्त्री का वेश बनाकर आये। शरत् हंसकर कहते, “विपिन जब भी मेरे पास आता है पिस्तौल लेकर आता है । मानो उसके बूते पर वह पैसा वसूल करना चाहता है । उस दिन वह आया। सात सौ रुपये की उसे सख्त जरूरत थी। कुछ घंटे रहकर लौट गया। उसके पीछे पुलिस पड़ी है। पकड़ लेती तो मैं क्या करता ? लेकिन मैं जानता हूं पकड़े जाने पर भी वह यह न कहता कि उसने रुपया मुझसे पाया है। उस जैसे विप्लवी कम ही हैं।"
क्रान्तिकारी शरत्-साहित्य के प्रशंसक थे, विशेषकर 'पथेर दाबी' के, और शरतचन्द्र प्रशंसक थे उनकी निर्भीक्ता के। वह सिद्धान्तवादी नहीं थे। सिद्धान्त यदि उनका कोई था भी तो वह एक ही था - अन्याय का प्रतिकार दासता से बड़ा और अन्याय क्या होगा । इसलिए देश की मुक्ति ही उनके लिए चरम सत्य थी। उस तक पहुंचने का मार्ग नहीं ।
असहयोग आन्दोलन के प्रारम्भिक युग में भी उनकी यही मान्यता थी । तब भी अनेक कांग्रेसी कार्यका उनके पास विचार-विनिमय के लिए आते थे। उसी दिन एक सज्जन अहिंसात्मक प्रतिरोध की एक घटना का बड़े गर्व के साथ उल्लेख करने लगे । बोले, “स्कूल के बच्चों ने राष्ट्रीय झंडे के साथ एक जुलूस निकाला। पुलिस ने उस जुलूस को तितर-बितर करने के लिए लाठियां चलाईं। घर के लोगों को बहुत बुरी तरह से परेशान किया और घोर अमानुषिक बर्बरता के साथ महिलाओं का अपमान किया ।.....
सहसा शरत्चन्द्र का मुख भयंकर रूप से तमतमा आया। कुद्ध होकर बोले, “ऐसा कहते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती!”
उनका यह रूप देखकर वे तो अवाक् रह गये। किसी तरह साहस बटारकर पूछा, “किस बात के लिए लज्जित होने को आप कहते हैं ?”
शरत्चन्द्र ने उत्तर दिया, “इस बात के लिए कि महिलाओं पर अमानुषिक अत्याचार देखकर भी तुम लोग नपुंसकों की तरह केवल मूक दर्शक बनकर रह गये ! और उस पर तुम इस बात के लिए गर्व प्रदर्शित करते हो कि अहिंसा और संयम के सिद्धांतों की पूरी रक्षा हुई। चुन-भर पानी में डूब न मरे तुम लोग ?"
पददलित नारी को जिन्होंने मनुष्य के पद पर प्रतिष्ठित किया वह शरत्चन्द्र इस बर्बर बर्ताव को बात सुनकर कैसे शांत रह सकते थे। लेकिन वे सज्जन अब भी विभ्रांत हो रहे थे । समझ नहीं पा रहे थे कि उनकी प्रशंसा करने के बजाय शरतचन्द्र उन्हें डांट क्यों रहे हैं। भर्राये हुए स्वर में वे बोले, “आप यह कैसी बातें कर रहे हैं? हावड़ा जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष होकर क्या आप यह कहना चाहते हैं कि हम लोग हिंसात्मक उपायों से पुलिस का सामना करते ?"
उसी आवेश के साथ शरवन ने उत्तर दिया, फा, मैं यही कहना चाहता हूं। मैं यदि वहां उपस्थित होता तो निश्चय ही ऐसा करता ।”
“पर, पर इस उपाय से क्या कस के अहिंसात्मक असहयोग, निफिय प्रतिरोध या सविनय अवज्ञा के सिद्धान्तों की हत्या न हुई होती ?”
“अवश्य हुई होती । पर उस हत्या को मैं महिलाओं की प्रतिष्ठा की हत्या की तुलना में नगण्य मानता हूं।”
सब लोग अब भी अत्यन्त विस्मित थे। कई क्षण वहां सन्नाटा छाया रहा। कुछ देर बाद शरत्चन्द्र ही बोले “मैं आज आप लोगो के सामने एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूं, असहयोग आन्दोलन का यह निकिय प्रतिरोध या सविनय अवज्ञा वाली नीति किसी प्रकार भी मेरी प्रकृति से मेल नहीं खाती । मानता हूं कि ब्रिटिश शासन सत्ता का संगठित विरोध करने के लिए इस समय केवल अहिंसामूलक आन्दोलन को ही नीति के तौर पर अपनाया जा सकता है; क्योंकि सशस्त्र क्रांति के लिए वर्तमान परिस्थितियों में हम लोग सामूहिक रूप से संगठित होकर तैयार नहीं हो सकते; पर इसका अर्थ मै यह कदापि नहीं मान सकता कि हमारी वह अहिंसा हम लोगों को इस सीमा तक जड़ बना दे कि हम लोग अपनी हू-बेटियों की मान-प्रतिष्ठा और इज्जत आबरू की रक्षा न कर सकें। हर नियम के अपवाद होते हैं और हमारा वर्तमान अहिंसात्मक आन्दोलन भी अपवादों से रहित नहीं हो सकता । व्यक्तिगत रूप से मैं चुपचाप निरीह व्यक्तियों की तरह बिना प्रतिरोध के मार सहन् करने का आदी कभी नहीं रहा। अपने आवारा जीवन में कई अंग्रेजों को उनकी ज्यादती के कारण पीटने का सौभाग्य या दुर्भाग्य मुझे मिला है । जब मैंने बर्मा छोड़ा, तब जिस आफिस में मैं काम करता था वहां के अंग्रेज अफसर से मेरी बुरी तरह झड़प हो गई थी उसने भारतीय जाति को अपमानित करते हुए गाली दी थी। मेरी इस बात से तुम लोग यह न समझना कि मैं स्वभाव से ही हिंसावादी हूं। मेरे समान निरीह और अहिंसक भी कम लोग मिलेंगे। पर मेरे स्वभाव की यह अहिंसा कायरों की अहिंसा नहीं है । "
इलाचन्द्र जोशी ने उपर्युक्त घटना की चर्चा करते हुए लिखा है, “उनके इस भाषण के बाद कुछ देर तक किसी को मुंह खोलने का साहस नहीं हुआ । अन्त में फिर उन्हीं सज्जन ने मौन भंग किया, कहा, 'तब क्या आप गांधीजी की नीति को कायरों की नीति मानते हैं?"
"प्ट ही इस प्रश्न में व्यंग्य निहित था । शरतबाबू ने अपने एक-एक शब्द पर ज़ोर देते हुए उत्तर दिया, “मैं गांधीजी को व्यक्तिगत रूप से इतना बड़ा वीर मानता हूं जिसकी तुलना आसानी से खोजे नहीं मिल सकी। मेरे मन में उनके प्रति आप लोगों से कहीं अधिक श्रद्धा है। उनके प्रति मेरे मन में यदि वह श्रद्धा नहीं होती तो आज मैं किसी के दबाव या आग्रह से हावड़ा जिला कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष पद कभी स्वीकार नहीं करता । पर उनके सिद्धान्तों से अक्षरश: सहमत होने की कसम मैंने नहीं खाई । मैं मनुष्य हूं । मिट्टी का जड़ पुतला नहीं हूं इसलिए किसी भी साधारण या महत्त्वपूर्ण विषय पर स्वतन्त्र रूप से चिन्तन करने की सामर्थ मुझ में है । "
इसी स्वतन्त्र चिन्तन के कारण कांग्रेस में रहकर भी उन्होंने विप्लवियों से प्यार किया । नैष्ठिक गट्रिगनादी उनको भ्रांत कहकर उनके कार्ग को स्वाधीनता के लिय अहितकर मानते थे । शरत्चन्द्र इससे बहुत दुखी होते थे। उन्होंने कहा, मैंने अहिंसा को ग्रहण किया है किन्तु जो नहीं कर सके वे भ्रांत हैं -यह कैसे कहा जा सकता है? महात्माजी की बात और है । अहिंसा उनके अन्तर का ज्वलन्त विश्वास है, उनका आदर्श है। इससे बढ़कर ध्रुव और कोई नीति उनके जीवन में नहीं है। देश की स्वाधीनता से भी अहिंसा उनके लिए बड़ी है। मैं उनमें जितनी श्रद्धा रखता हूं वह सब उनकी इसी शक्ति और आन्तरिकता के लिए है । इसी तरह जिनके जीवन में सबसे बड़ा सत्य देश की स्वाधीनता है, समान आन्तरिकता के साथ जिन्होंने हिंसा का मार्ग ग्रहण किया है, फांसी पर लटककर जिन्होंने स्वाधीनता का पथ प्रशस्त किया है उनके प्रति भी मैं उतनी ही श्रद्धा रखता हूं। उनको मैं नमस्कार करता हूं।”
उनके इसी विश्वास को रूप मिला 'पथेर दाबी' में। तिल-तिल करके जैसे विधाता ने तिलोत्तमा की सृष्टि की थी वैसे ही अपने सम्पर्क में आने वाले विप्लवियों के गुणों के पुंज सव्यसाची की उन्होंने सृष्टि की। इसमें हिंसा-अहिंसा को लेकर पक्ष-विपक्ष में बहुत कुछ कहा गया है, वह उन्हीं के अन्तर के द्वन्द्व का चित्र है। कोई स्पष्ट समाधान उन्होंने नहीं दिया । देने की आवश्यकता उन्होंने कभी स्वीकार नहीं की ।......
लेकिन राजनीति के क्षेत्र में उन्होंने इससे भी बड़ा एक और काम किया, वह था राजबंदियों का सार्वजनिक अभिनन्दन । अनेक राजबंदी चार चार, पांच-पांच वर्षो से जेल की सीकचों के पीछे बंद थे। राष्टीय महासभा ने उनको मुक्त कराने के लिए अनेक प्रयत्न किए। उसके परिणामस्वरूप सबसे पहले सुभाषचन्द्र बसु मुक्त हुए। चार वर्ष से वे मांडले जेल में थे । उनका स्वास्थ्य खराब हो चुका था । लाड लिटन उन्हें छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। परन्तु जब उनके स्थान पर सर स्टेनले जैक्सन आये तो उन्होंने राजबन्दियों के प्रति नरम रुख अख्तियार किया। धीरे- धीरे सभी राजबंदी मुक्त हो गये। कुल मिलाकर दो सौ से अधिक राजबंदी कारागार से निकलकर फिर से कर्मक्षेत्र में आये ।
जिस समय ये सब लोग जेलों में थे तब से, विशेषकर देशबत्यु दास की मृत्यु के बाद से, शरत्चन्द्र बहुत अकेले पड़ गये थे। उदास और दुखी बस यंत्र के समान कांग्रेस का नेम पूरा करते थे। उनका मन कहीं और था। इनकी मुक्ति के बाद जैसे वह मन लौट आया और वे फुर्ती से भर उठे । राजबंदी मुक्त तो हो गये लेकिन उनमें से बहुतों की अवस्था अच्छी नहीं थी । जिनका घर-परिवार था वे अपेक्षाकृत सुखी थे । लेकिन अधिकांश का अपना कोई घरबार नहीं था। देश और समाज का द्वार उनके लिए बंद हो चुका था। किसी ने भी मुक्त मन से उनका स्वागत नहीं किया। परिजन, मित्रजन, मेस, बोर्डिंग, होटल कहीं भी हों, कोई भी उन्हें आश्रय दे, सी० आई० डी० वहां पहुंच जाती थी। सौभाग्य से किसी राजबंदी को नौकरी मिल जाती तो वहां भी सी० आई० डी० का आना-जाना शुरू हो जाता था। सरकार ने उन्हें मुक्त कर दिया था परन्तु इस बारे में वह पूरी तरह सचेत थी कि वे सुख और शांति से जीन सके । कांग्रेस उनसे सशंकित थी। नैष्ठिक गांधीवादियों का तो मतभेद था ही, स्वराज्य दल वाले भी उन्हें नहीं अपना रहे थे। सचमुच उनका जीवन दुर्वह हो उठा था ।
शरतचन्द्र ने इस त्रासदी को देखा, वे तड़फड़ा उठे। मानो कलाकार के अन्तर की वाणी ने उन्हें सचेत कर दिया हो। उन्होंने राजबंदियों की इस लांछना को धोने की प्रतिज्ञा की । उन्होंने अपने सभी संगी-साथियों और अनुचरों को बुलाया और कहा, "हावड़ा में समस्त मुक्त राजबंदियों का अभिनन्दन होगा। ऐसी शानदार सभा करनी होगी कि सब देखते रह जाएं। देश के लिए जिन्होंने अपने को शून्य कर दिया है, उन्हीं के प्रति आज देश विमुख है। कांग्रेस का काम करते-करते जो पकड़े गये हैं, कांग्रेस आज उनका वरण क्यों नहीं करती? क्यों उनका अभिनन्दन नहीं करती? वे हिंसा में विश्वास करते हैं यही बात सरकार बाब-बार कहती है । क्या सरकार आज हमारी कांशसकीपर बन गई है? हमारी नीति बुद्धि लग सरकार की नीतिबुद्धि के समान है? एकदम नहीं। हमें उनका मुक्त हृदय से स्वागत करना चाहिए, उन्हें बधाई देनी चाहिए । प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी को यह काम करना चाहिए था । लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो हम ही पहल करेंगे। तुम इसकी व्यवस्था करो |
और वह व्यवस्था हुई । चारों ओर यह समाचार फैल गया कि हावड़ा कांग्रेस कमेटी की ओर से शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के सभापतित्व में हावड़ा में सभी मुक्त राजबंदियों का अभिनन्दन होगा। वे स्वभाव से सभा भीरू थे। लेकिन चुनौती पाकर उनकी चेतना मानो मुखर हो उठी । हावड़ा के टाउन हाल में स्वयं उन्होंने राजबंदियों को अभिनन्दन करते हुए मानपत्र पढ़ा । इस सभा में इतनी भीड़ थी कि तिल धरने को स्थान नही था । माला, चंदन आदि से राजबंदियों का पुरजोश स्वागत किया गया। जो अब तक उपेक्षित थे, लोग जिनसे भय खाते थे वे ही अब पूजित और प्रिय हो गये ।
वह एक साधारण सभा थी परन्तु उसका प्रभाव असाधारण हुआ। वह मानो उन सबके लिए चुनौती थी जो सरकार से डरते थे, जो नैष्ठिक गांधीवादी होने के कारण हिंसा की निन्दा करने का कोई अवसर नहीं चूकते थे। यह स्वराज्य दल वालों के लिए भी चुनौती थी, जिसमें अधिकतर अपने में डूबे हुए धनिक लोग थे। गद्गद स्वर में उस दिन शरतचन्द्र ने घोषणा की, “देश के लिए जिन्होंने अपना जीवन, अपना यौवन, अपना सर्वस्व उत्सर्ग कर दिया है वे ही देश की मुकित के अग्रदूत हैं। सरकार इनसे डरती है, इसका कारण समझ में आता है क्योंकि इनकी तपस्या में ही उनके विनाश का मंत्र निर्मित हुआ है । सरकार सहम चेष्टा करने पर भी इनको ध्वंस नहीं कर सकती । ध्वंस नहीं कर सकती इनके मन की अपराजेय शक्ति को और इनके अन्तर में निर्मित स्वाधीनता के स्वप्न को। ये सब चिरतरुण, चिरचंचल और चिरजीवी हैं। देश के तरुणों से मैं कहता हूं कि तुम्हारे लिए इतना बड़ा जीवन्त आदर्श और इनसे अधिक अपना कोई नहीं है।”
बंगाल की राजनैतिक परिस्थिति का चक्र उस दिन से फिर घूमने लगा। बंद हुआ भागीरथी का उत्स मानो खुल गया । बंगाल का युवक हृदय मानो सोने की काठी के जादू के स्पर्श से जग उठा । उसके मन से दूर हो गये पांच बड़े, दूर हो गये चरखा और तकली के भक्त नेता लोग, चारों ओर राजबंदियों की सम्बर्धना शुरू हो गई। जिला सम्मेलन, युवक सम्मेलन सबमें मानो होड़ लग गई कि वे किसी न किसी राजबंदी को सभापति बनाएं। इन सभी सम्मेलनों में मुक्त राजबंदी स्वाधीनता की अग्निमयी वाणी, देश की मुक्ति के लिए जीवन विसर्जन तथा सर्वस्व अपण करने के आदर्शवाद का प्रचार करने लगे। विप्लवी बंगाल एक बार फिर चिरन्तन प्राणशक्ति लेकर जाग उठा । अनेक नवयुवक प्राणों पर खेलकर अंग्रेज़ अधिकारियों पर गोली चलाने लगे। चटगांव में उन्होंने अंग्रेजों के शस्त्रागार पर कक्षा कर लिया । स्वाधीनता के इस नान्दीपाठ में नारियां कैसे पीछे रह सकती थीं । बीनादास ने तो कलकत्ता विश्वविद्यालय के पदवीदान समारोह के अवसर पर स्वयं लाटसाहब पर गोली दाग दी। चारों ओर मानो अग्निलीला आरम्भ हो गयी । भयं के कारण अंग्रेजों के प्राण कांप उठे । शरत्चन्द्र हिंसा के पक्षपाती नहीं थे लेकिन मानते थे कि देश की मुक्ति का संग्राम हिंसा-अहिंसा के प्रश्न से निर्णीत नहीं होता ।
इन दिनों कांग्रेस की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी । सन् 1928 के अन्त में कलकत्ता में पण्डित मोतीलाल नेहरू के सभापतित्व में राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ । इस अधिवेशन में, कांग्रेस ने, सर्व दल समिति नेहरू कमेटी की रिपोर्ट में शासन विधान की जो तजवीज पेश की गयी थी उसकी स्वीकार करते हुए, कहा, अगर ब्रिटिश पार्लियामेण्ट इस विधान को ज्यों का त्यों 31 दिसम्बर, 1929 तक या उससे पहले स्वीकार कर ले, तो कांग्रेस इस विधान को अपना लेगी, बशर्ते कि राजनीतिक स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन न हो । लेकिन यदि ऐसा नहीं होता और ब्रिटिश पार्लियामेण्ट इस विधान को नामंजूर कर देती है तो कांग्रेस देश को यह सलाह देकर कि वह करों का देना बन्द कर दे और उन अन्य तरीकों द्वारा जिनका बाद में निश्चय हो, अहिंसात्मक असहयोग का आन्दोलन संगठित करेगी । कांग्रेस के नाम पर पूर्ण स्वाधीनता का प्रचार करने में ग्ह प्रस्तान कोई बामा नहीं डालेगा, यदि ऐसा कार्य प्रस्ताव के विरुद्ध न हो ।
पण्डित जवाहरलाल नेहरू और श्री सुभाषचन्द्र बोस पूर्ण स्वाधीनता के पक्षपाती थे। उन्होंने इस प्रस्ताव में संशोधन पेश किये। परन्तु वे स्वीकृत नहीं हो सके। तब विरोधियों ने स्वाधीनता संघ' नाम की एक नयी संस्था का निर्माण किया । बंगाल इस संघ में शामिल नहीं हुआ। उसने सुभाषचन्द्र के नेतृत्व में एक अलग संघ बनाया। इन दिनों बंगाल कांग्रेस में दो दल थे । एक दल के नेता थे यामिनीमोहन सेनगुप्त, जो कलकत्ता अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष थे । उनका समर्थन करने वालों में अनुशीलन समिति, गौरांग प्रेस और सोशलिस्ट दल के लोग प्रमुख थे। उनके विरोध में पांच बड़ी का एक दल था । ये थे सर्वश्री विधानचन्द्र राय, नलिनीरंजन सरकार, निर्मलचन्द्र चन्द्र तुलसीचन्द गोस्वामी और शरतचन्द्र बोस । सुभाषचन्द्र बोस भी जो कलकत्ता अधिवेशन में जी० ओ० सी० थे, बाद में इस दल में मिल गये और वे ही इसके नेता हुए। सरस्वती प्रेस और चटगांव दल के नेता भी इन्हीं के साथ थे। इसके अतिरिक्त कमुनिस्ट दल की पेजेण्ट एण्ड वर्कर्स सोसाइटी भी काफी सजग थी । वे सब एक-दूसरे के उग्र विरोधी थे। इस समय की स्थिति का बड़ा सही विश्लेषण, उत्तर कलकना में होने वाले जिला राष्ट्रीय सम्मेलन के सभापति के पद से बोलते हुए, श्री उपेन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय ने किया था । उन्होंने कहा था, आज बंगाल में किसी के भी अपने प्राण उसके अपने रहने का सुयोग नहीं रह गया है। सभी निकल पड़े हैं, सभी को कैप्चर करने । दादा लोग वयोज्येष्ठ कर्मी) निकल पड़े हैं लड़कों (अल्पायु कमी) को कैप्चर करने, लड़के लोग निकल पड़े हैं दादा लोगों को कैच्चर करने। लीडर चेलों पर कड़ा करने निकल पड़े हैं और चेले लीडरों पर कब्जा करने। चारों ओर यही शोर है कैप्लर करो कैप्चर करो। कब्जा करो, कक्षा करो। "
इस विषाक्त वातावरण में शरत्चन्द्र की स्थिति बड़ी विचित्र थी। वह प्रकट रूप में नेता नहीं थे, न किसी दल विशेष से उनका संबंध था। दोनों ही दलों में उनके प्रियजन थे । उनके पास जो भी आता समान रूप से प्यार पाता, परन्तु वह देशबन्धु के कारण कांग्रेस में सक्रिय हुए थे और सुभाषचन्द्र देशबन्धु के प्रिय शिष्य थे। शरत् भी उन्हें अन्तमन से प्यार करते थे। वह कहते थे 'सबको छोड़ सकता हूं सुभाष को नहीं ।.
शचिनन्दन ने लिखा है, 'उस बार हावड़ा जिला कर्मी सम्मेलन का शिवपुर में होना निश्चित हुआ । उनके प्रिय शिष्य और साथी प्रबोध बसु विजय भट्टाचार्य, कानाई गांगुली, आमदन गुरदास दत्त, जीवन माइती, गुरुपद मुखोपाध्याय, विपिन गांगुली, भूपेन्द्रदन, अध्यापक ज्योतिष घोष आदि इस सम्मेलन के उद्योता थे। दलादली के कारण सुभाषचन्द्र बोस को इस सम्मेलन में निमंत्रित नहीं किया गया । जब ये लोग शरतचन्द्र को बुलाने आये तो वह बोले, 'मैं नहीं जाऊंगा ।'
क्यों नहीं जाएंगे? हाबड़ा जिले का कर्मी सम्मेलन है !'
वहां सुभाष को नहीं बुलाया गया है। शिवहीन यज्ञ में मैं नहीं जा सकूंगा ।' 'एक बन्धु कुद्ध होकर बोले, 'आपका सुभाष शिव नहीं है भूत है।'
शरत् बाबू ने उत्तर दिया, 'भूत नहीं भाई, भूत नहीं । अनाथ कहो।'
कई व्यक्ति एक साथ बोल उठे, 'वही आपके सब कुछ हैं हम आपके कुछ नहीं?" "अवरुद्ध कण्ठ से वह बोले 'आप मेरे बहुत कुछ हैं कितने कुछ हैं इसकी कोई थाह नहीं दिशान्त' २६९n
किन्तु फिर भी मैं नहीं जाऊंगा ।'
वह नहीं गये । जो उनको बुलाने गये थे, वे भी उनके प्रिय थे और जिनको नहीं बुलाया गया था, वे भी प्रिय थे। दो बच्चों के विवाद में मां जैसे व्यथित हो उठती है उस दिन शरतचन्द्र भी वैस ही व्यथित हुए। सुभाष बाबू ने उनसे कहा था, 'आप कुछ दिन कलकत्ता में रहें और कांग्रेस में पैदा हो गयी दलादली को खत्म करें। लेकिन ऐसा लगता है, यह काम उनके बूते का नहीं था । साहित्यिक राजनीति की चोटें नहीं सह सकता। कई वर्ष बाद जब अपने असमाप्त उपन्यास 'आगामी कल' में वे उसके एक प्रमुख पात्र एक्कीड़ी का परिचय देते हैं तो मानो वह इसी दलादली का वर्णन करते हैं, ' चन्देमातरम्' की निराट एवं कठोर वनि अपने कोटर से उसे हठात् बाहर खींच लाई। इसके बाद जेल गया, दलबन्दी के भंवर में पड़कर नाक-कान-मुंह में कीचड़ भर लिया, दैनिक और साप्ताहिक पत्रों द्वारा प्रदत्त विविध विलक्षण विशेषणों की माला शिरोभूषण मिली। जिनके लिए यह त्याग-तपस्या स्वीकार की थी, अन्त में एक दिन जत् उन्होंने ही चोर कहकर अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित की तब बेचारे को असह्य लगा। राजनीति को तिलांजलि देकर एक्कीड़ी फिर अपनी लायब्रेरी में लौट आया..... । शरतचन्द्र अपने साहित्य के कारण ही लोकप्रिय हों ऐसी बात नहीं थी । राजनीतिक मान्यताओं को लेकर भी उनकी ख्याति कम नहीं थी । एक मुकदमे में प्रश्न उठा, विप्लव' शब्द का सही अर्थ क्या है? तुरन्त किसी ने सुझाव दिया कि शरत्चन्द्र को इसका अर्थ बताने के लिए गवाह के रूप में बुलाया जांए । लेकिन सरकारी वकील तारकनाथ साधु ने ऐसा करने से मना कर दिया। वे शरत् बाबू का बड़ा सम्मान करते थे । उनसे जिरह करने पर उन्हें दुख होता । शरत्चन्द्र वैसे किसी से डरते नहीं थे। अधिकारियों के सामने भी वह वैसे ही अडिग और निर्भीक बने रहते थे । उस दिन उनके घर एक परिचित मजिस्टेट का पत्र लेकर एक एस० डी० ओ० उनसे मिलने आये । दफादार निवारण घोषाल नाम के एक सज्जन शरत् के बड़े सुहृद थे और वहीं पडौस में रहते थे । एस० डी० ओ० साहब ने उन्हें देखा तो अधिकार के स्वर में कहा, ओरे निवारण पांव धोने को पानी तो ला । यह सुनकर भरतचन्द सहसा कुद्ध हो उठे। उन्होंने एस० डी० ओ० से कहा आपको इस तरह बात करने का क्या अधिकार है? यह मेरा घर है। आपका दफ्तर नहीं। यहां निवारण घोषाल मेरे पड़ोसी सुहद् हैं आपके दफादार नहीं । उनको इस तरह से पुकारना उनका अपमान है और उनका अपमान करने वाला मेरे घर में नहीं रह सकता। आप इसी क्षण मेरे घर से चले जाएं, जाइए महाशय और मेरे विरुद्ध जो कर सकते हों कर लीजिए।'
और वे ऊपर जाने को मुड़ गये। एस० डी० ओ० तो जैसे हतप्रभ रह गया । उसे स्वप्न में भी आशा नहीं थी कि उसके साथ कोई ऐसा व्यवहार कर सकेगा। लेकिन उस दिन उसे वहां से जाना ही पड़ा।
जिस समय आपसी मतभेद और दलादली के कारण कांग्रेस के लोग तर्क-वितर्क में उलझे रहे थे उसी समय युवक वर्ग हिंसा के पथ पर चलता हुआ प्राणों का सौदा कर रहा था । यही प्राणशक्ति उन्हें आकर्षित करती थी । इसीलिए उनके चारों ओर युवकों का एक दल इकट्ठा हो गया था। उस बार बंगीय प्रादेशिक युवक सम्मेलन का अधिवेशन दिनाजपुर में हुआ । उसके अध्यक्ष चुने गये शरत् बाबू । अपने इस भाषण में उन्होंने स्पष्ट रूप से महात्माजी की विचारधारा का विरोध किया। कहा, खिलाफत आन्दोलन को स्वराज्य के साथ मिलाना ठीक नहीं था। और केवल खद्दर पहनकर ही स्वराज्य नहीं लिया जा सकता ।
प्रारम्भ से उनकी यही मान्यता रही थी परन्तु इस समय वह विशेष मुखर हो उठे । युवकों को जैसे अपना नेता मिल गया । प्रतिदिन बंगाली शिक्षित युवक दल के दल उनके पास आने लगे । साम्यवाद का स्वर उन दिनों धीरे- धीरे ऊपर आ रहा था । वे लोग पूंजीवाद और जमींदारी के प्रश्न को लेकर शरत् बाबू से विचार-विनिमय करते थे । उनका विश्वास था कि जमींदारी एक दिन समाप्त होकर रहेगी।
यही विश्वास युवकों को बल देता था और वह आरामकुर्सी पर लेटे-लेटे नये बंगाल को प्रबुद्ध कर रहे थे। इन्हीं चर्चाओं के फलस्वरूप सोशलिस्ट पार्टी के संगठन की नींव पड़ी और शीघ्र ही कंग्रेस के भीतर यह स्वर मुखर हो उठा।
इन्हीं दिनों हाबड़ा मुनिसिपल कमेटी के विरुद्ध मेहतरों ने हड़ताल कर दी । शरतचन्द्र कंग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे और खुनिसिपल कमेटी में कांग्रेस का बहुमत था । उन्होंने शरत्चन्द्र से कहा, जो व्यक्ति हड़ताल का संचालन कर रहे हैं वे आपके शिष्य हैं। आप उन्हें हड़ताल बंद करने के लिए कहिए ।.
भरतचन्द ने उत्तर दिया, मनही, मैं उनसे कुछ नहीं कहूंगा । गलती उनकी नही है । तुम लोग तुरन्त समझौता कर लो। नहीं तो मैं कमेटी की निन्दा करते हुए वक्तव्य दूंगा । न
हड़ताल कई दिन तक चलती रही लेकिन अन्त में दोनों दलों ने दीनबन्धु सी! एफ हजू को मध्यस्थ के रूप में स्वीकार कर लिया। मेहतरों की लगभग सभी मांगें मान ली गईं । शरतचन्द्र श्रमिकों के संगठन के पक्षपाती थे, परन्तु साथ ही वे यह भी मानते थे कि उसका भार उन्हें स्वयं ही उठाना चाहिए। वे उठाने योग्य हो सकें इतनी-सी सेवा हम कर सकें तो वह सर्वोत्तम सेवा होगी।
युवकों और विद्यार्थियों से उन्हें इतना प्रेम था कि वे साहित्य की चिन्ता नहीं करते थे । तीन वर्ष पूर्व उन्होंने सिल्वर में सुरमा उपत्यका विद्यार्थी काग्रेस की अध्यक्षता करते हुए कहा था- 'विद्यार्थी कठिन से कठिन कर्तव्य पूरा करने के योग्य हैं।' इस वर्ष उन्हें रंगपुर में होने वाले बंगीय युवक सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया। उसी समय बंगीय साहित्य सम्मेलन माजू में हो रहा था। उसके अध्यक्ष भी वे ही चुने गये थे। पहले युवक सम्मेलन था । उनका विश्वास था कि वे युवक सम्मेलन से अगले दिन साहित्य सम्मेलन में पहुंच सकेंगे लेकिन उन्हे जाने नहीं दिया गया। इस अधिवेशन में उन्होंने महात्माजी की नीति का कड़ा विरोध किया । चेणुपत्रिका में किशोरों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने लिखा, शुम लोग जानते हो, बंगाल में चुवसमिति से नाम से एक समिति की स्थापना हुई है। इस समिति का वार्षिक सम्मेलन कल समाप्त हो गया है। मैं बूढ़ा आदमी हूं तो भी लड़के-लड़कियां मुझे ही इस सम्मेलन का नेतृत्व करने के लिए बुला लाये। मैं उन लोगों के निमन्त्रण को स्वीकार करके आनन्द के साथ केवल यही बात उन्हें बताने के लिए दौड़ा आया था कि देश की सब भलाई-बुराई उन्हीं के हाथ में निर्भर है, इस सत्य को वे सन्दूर्ण हृदय से अनुभव करें, समझें । उनके इस परम सत्य को समझने की राह में न जाने कितनी बाधाएं खड़ी हैं उनकी नजर यह सत्य न पड़ने देने के लिए न जाने कितने आवरण तैयार हुए है। और तुम लोगों के लिए तो, जिनकी अवस्था और भी छोटी है, बाधाएं अनन्त हैं । बाधा जो लोग देते हैं वे कहते हैं कि सभी सत्य जानने का सभी को अधिकार नहीं है.... I
"तुम लोग भी इसी तरह जन्मभूमि के संबंध में अनेक तथ्यों, अनेक ज्ञानों से वंचित हो रहे हो। इस आशंका से कि सच्ची खबर पाने से तुम लोगों का मन न भटके, कहीं तुम्हारी स्कूल-कालेज की पढ़ाई में, कहीं तुम्हारी परीक्षा पास करने की परम वस्तु में धक्का न लगे, मिथ्या से भी तुम्हारी दृष्टि अवरुद्ध की गई है. ।
युव समिति के सम्मेलन में यही बात मैंने सबसे अधिक कहनी चाही थी। कहना चाहा था कि पराधीन देश को विदेशी शासन से मुक्त करने के अभिप्राय से तुम लोगों के इस संघ का गठन हुआ है। स्कूल-कालेज के छात्रों को पढ़ने की अवस्था में भी देश के काम में योग देने का, देश की स्वाधीनता - पराधीनता के बारे में सोचने-विचारने का अधिकार है और इस अधिकार की बात को भी मुक्त कण्ठ से घोषित करने का अधिकार है ।
'परीक्षा पास करने की आवश्यकता है किन्तु यह उससे भी अधिक आवश्यक है । बाल्यावस्था में इस सत्य-चिन्ता से अपने को अलग रखने से जिस टूटने की सृष्टि होती है, एक दिन अवस्था बढ़ने पर भी वह जुड़ना नहीं चाहता। इस अवस्था में सीखना बड़ी शिक्षा है। वह एकदम रक्त में पुल-मिल जाती है..
अध्यक्ष पद से हुए उन्होंने और भी स्पष्ट शब्दों में कहा, 'कांग्रेस बहुत पुरानी है। मेरी तरह वह भी बूढ़ी है किन्तु युव संघ अभी नया है। उसकी शिराओं का रक्त अभी तक गर्म है, अभी तक निर्मल है। कांग्रेस देश के दिमाग वाले कानूनदां राजनीति- विशारदों का आश्रय केन्द्र है, ज्जि युव संध मातृ-हृदय के एकान्तिक आवेग और आग्रह से बना है। एक का संचालन करती है कूट विषय-बुद्धि किन्तु दूसरे को प्रेरित करता है जीवन का स्वाभाविक मइ । इसी से विविश प्ररोचना और उत्तेजना के उपरांत मद्रास कांग्रेस ने जब देश की सर्वांगीण समूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पास किया था तो वह नहीं टिका। एक वर्ष बीतते न बीतते ही कलकत्ता कांग्रेस में वह प्रस्ताव रह हो गया। स्वाधीनता के बदले फिर उन्होंने औपनिवेशिक स्वराज्य मांगा। किन्तु देश के नौजवानों ने इसको नहीं माना। इन दोनों प्रतिष्ठानों में 'यही भेद है। पुरातन के विधि-निषेध की जकड़ में उसका दम घुटने लगता है। युव समिति के जन्म का यही इतिहास है। यही कारण है।'
वह गांधीजी का विरोध क्यों करते थे, इसको स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा, 'सहसा एक दिन आया महात्माजी का अहिंसा - असहयोग और उसकी चोटी बंधी रही खादी चरखे की डोरी में स्वराज्य की तारीख 31 दिसम्बर निर्धारित हुई थी। आया जेल जाने का दिन, आई अत्याचार की बाढ़, मन्त्र आया बंगाल के बाहर से अथच जितना चरखा, जितनी खादी उस दिन बंगाल में तैयार हुई, जितने लोग बंगाल की जेलों में गए, जितने बंगाल के लड़कों ने जीवन का सर्वस्व बलिदान किया, उसकी जोड़ सारे भारतवर्ष में नहीं है। क्यों जानते हो? कारण यह है कि बंगाल के युवक जितना अपने देश को प्यार करते हैं उसका एक हिस्सा भी, शायद पंजाब को छोड़कर, भारत में और कहीं भी खोजे नहीं मिलेगा। इसी से वन्देमातरम् मन्त्र की सृष्टि इसी बंगाल में हुई। इसी बंगाल में पुण्यश्तोक स्वर्गीय देशबत्यु दास ने जन्म लिया। इधर 31 दिसम्बर पार हो गई, स्वराज्य नहीं आया। कहीं किसी अज्ञात गांव चौरीचौरा में रक्तपात हो गया। महात्माजी ने डरकर सब आन्दोलन बन्द कर दिया। देश की सब आशा-आकांक्षा अकाल कुसुम की तरह एक घड़ी-भर में शून्य में मिला दी । किन्तु उस दिन एक ऐसा आदमी जीवित था जिसका भय के साथ परिचय ही नहीं था। वह थे देशबत्यु। वह उन दिनों जेल के भीतर थे। बंगाल के बाहर और भीतर के सबने मिलकर उनकी सारी कोशिश और सारी तैयारी को निष्फल कर दिया। कौन जाने भारत का भाग्यचक्र शायद इतने दिन में एक ओर धूम जाता, किन्तु जाने दो यह बात |
“फिर कुछ दिन चुप रहने के बाद धूम मच गई। लोग जग गये। उस बार इसका कारण था जलियांवाला बाग। इस बार है साइमन कमीशन। फिर वही चर्खा, वही खादी, वही बायकाट का अकारण गर्जन । वही ताड़ी की दुकानों पर धरना देने का प्रस्ताव, वही 31 दिसम्बर, और सबके ऊपर बंगाल के बाहर के नेताओं का दल फिर बंगाल की गर्दन पर सवार हो गया है। मैं जानता हूं इस बार भी वह 31 दिसम्बर ठीक उसी तरह पार हो जाएगी, केवल जरा-सा क्षीण आशा का प्रकाश है, बंगाल की इस यौवन-शक्ति का जागरण | बंग- भंग निश्चित तथ्य एक दिन अनिश्चित तथ्य होकर बदल गया था, सो इसी बंगाल में । उस दिन बाहर से कोई बोझ बंटाने को नहीं आया था। आन्दोलन कैसे चलाया जाये, यह परामर्श देने के लिए बाहर से किसी कर्ता या नेता को नहीं बुलाना पड़ा। बंगाल की सारी जिम्मेदारी उस दिन बंगाल के नेताओं ही के हाथ में थी।”
वक्तव्य काफी कडुवा है, भ्रामक भी। यह उन जैसे शिल्पी की भाषा नहीं है। किसी प्रान्तीय नेता का असंयत भाबुक आक्रोश जैसे बहा पड़ता है। आश्चर्य, ये वही शरतचन्द्र हैं जिन्होंने ठीक सात वर्ष पहले भहात्मा' लेख लिखा था ! उन दिनों उनके प्रिय सुभाषचन्द्र बोस का भी यही स्वर था। सारे बंगाल में यही स्वर प्रमुख था। इसीलिए उन दिनों वे भी अत्यन्त उग्र हो उठे थे।
लेकिन यह उनका स्थायी भाव नहीं था । समग्र भारतवर्ष को ही वे प्यार करते रहे। 'शेष प्रश्न ! में राजेन्द्र की मृत्यु का समाचार पाकर आशु बाबू के स्वर में वे ही तो कहते हैं, “इसकी मानी यह हैं कि सिवा देश के किसी आदमी को उसने अपना आत्मीय नहीं माना। सिर्फ देश, समग्र भारतवर्ष । भगवान, तुम अपने चरणों में उसे स्थान देना। तुम और चाहे जो भी करो पर इस राजेन्द्र की जाति को संसार से न मिटाना ।”
उन्होंने विप्लव का समर्थन भी नहीं किया। उन्होंने कहा, “भारत के आकाश में आजकल एक नाक तैरता फिरता है, वह है निप्लव'। उसी से राजशक्ति ने तुम लोगों से डरना शुरू किया है। किन्तु एक बात तुम लोग न भूलो, वह यह कि कभी किसी भी देश में केवल विप्लव के लिए ही विप्लव नही लाया जाता अर्थहीन अकारण विप्लव की चेष्टा में केवल रक्तपात ही होता है और कोई फल नहीं प्राप्त होता । विप्लव की सृष्टि मनुष्य के मन में होती है, केवल रक्तपात में नहीं। इसी से धैर्य रखकर उसकी प्रतीक्षा करनी होती है।
क्षमाहीन समाज, प्रीतिहीन धर्म, जातिगत मृणा अर्थनीति की विषमता, स्त्री जाति के प्रति हृदयहीन कठोरता के आमूलचूल प्रतिकार के विप्लव पथ में ही केवल राजनीतिक विप्लव सम्भव होगा। नहीं तो असहिष्णु अभिलाषा और कल्पना की अत्यन्त अधिकता तुम लोगों को व्यर्थता के सिवाय और कुछ न देगी। स्वाधीनता संग्राम में विप्लव ही अपरिहार्य मार्ग नहीं है। जो लोग यह समझते हैं कि दुनिया में और सब कामों के लिए आयोजन का प्रयोजन है, केवल विप्लव ही ऐसा काम हैं जिसमें तैयारी की कोई जरूरत नहीं है, उसे शुरू कर देने से ही काम चल जाता है, वे ओर चाहे कितना कुछ जानें, विप्लव के बारे में नहीं जानते। जो लोग विप्लवपंथी हैं वे मेरी इस बात से शायद प्रसन्न नहीं होंगे।”
एक दिन बारीसाल की राह में स्टीमर पर देर रात बीते शरत् बाबू ने देशबन्धु से पूछा था, 'अच्छा, इन क्रान्तिकारियों के बारे में आपका यथार्थ मत क्या हे?"
सामने का आकाश साफ होता आ रहा था। वह रेलिंग पकड़कर कुछ देर ऊपर ताकते रहे। फिर धीरे- धीरे बोले इनमें से बहुतों को मैं प्यार करता हूं किन्तु इनका काम देश के लिए एकदम मारात्मक है। इस हरकत मे देश कम से कम पच्चीस वर्ष पिछड़ जाएगा। इसके सिवाय उसमें बहुत बड़ा दोष यह है कि स्वराज्य मिलने के बाद भी यह चीज यहां से न जाएगी। तब इसकी स्पर्धा और बद जाएगी। साधारण से मतभेद में एक दिन गृह-युद्ध छिड़ जाएगा। खूनखराबी और मारकाट को मैं हृदय से पूणा करता हूं शरत् बाबू।”
शरत् बाबू ने लिखा, मैं निश्चित रूप से जानता हूं कि रात्रिशेष के झुटपुटे आकाश के नीचे नदी की छाती पर खड़े होकर उनके मुंह से सत्य के सिवाय और कुछ भी नहीं निकला था।” देशबन्धु किसी भी रूप में राजनीतिक हत्याओं और हंसा-प्रयोग के सिद्धांत के विरोधी थे। शरत्चन्द्र का भी यही विश्वास था। लेकिन फिर भी जो हिंसा के पथ से देश की मुक्ति लाना चाहते थे उनसे पूणा करने की कल्पना भी वे नहीं कर सकते थे। अपने इस भाषण में उन्होंने युवकों का ध्यान दलबन्दी की ओर विशेष रूप से खींचा। उन्होंने कहा, “विश्व की सभी शक्तिशाली जातियों के इतिहास की छानबीन करने पर पता लगता है कि उनके बीच आत्मकलह न रहती हो यह बात नही है । किन्तु किसी बाहरी शत्रु का सामना होने पर वे लोग उसी आपसी विवाद और कलह को स्थगित रखना जानते हैं। लेकिन हम लोगें में ग्ग्चन्द-पृथ्वीराज से लेकर सिराजुद्दौला और मीर जाफर तक भी यह अस्थि- मज्जागत अभिशाप बना ही रहा। इससे छुटकारा नहीं मिला। इस देश में वात्यों बौद्धों ने खुश होकर अपने धर्म-देवता का यश गाते हुए 'धर्म मंगल' नामक एक धार्मिक पुस्तक में लिखा-
धर्म होइला यवनरूपी
माथाय दिला काली सी
धमेर शत्रु करिते विनाश ।
“धर्म के शत्रुओंका विनाश करने के लिए धर्म ने यवन-रूप धारण किया और माथे पर काली टोपी लगाई।
“ अर्थात् विदेशी हमलावर मुसलमान जो हिन्दू धर्मावलम्बी पड़ौसी बंगालियों को दुख देने लगे, इसीसे उन्हें परम आनन्द हुआ। अभी कल की ही बात है, अपने लोगों से लड़ते- झगड़ते ही इतने बड़े विराट पुरुष चितरंजन दास कई सारी उम्र बीत गई। और आज भी क्या वह बन्द है? यह जो युव संघ है, इसके भीतर ही पता लगाने से तेरह दल दीख पड़ेंगे। किसी का किसी से मेल नहीं है। इसके कितने ही प्रकार के मतभेद हैं, कितने प्रकार के मान-अभिमानों की अनबन है। इस तरह बाहर से इकट्ठा की गई भीड़ करने का नाम क्या ऑर्गेनाइजेशन (संगठन) है! आर्गनिक संगस्ति या यौगिक) देश-वस्तु की तरह क्या इसके पैर के नाखून में सुई चुभोने से सिर के केश तक सिहर उठते है ? किन्तु जिस दिन ऐसा होगा -पैर की चोट का क्य सिर तक पहुंचेगा, उस दिन, कम से कम बंगाल में, उपायहीनता की शिकायत न सुन पड़ेगी।
ब्रिटिश माल के बहिष्कार के समर्थक थे, परन्तु खद्दर के प्रति अपनी अरुचि को वे कभी नहीं छिपा सके । उन्होंने कहा, “भारत की बीस लाख रुपये की खादी से अस्सी करोड़ रुपयों की कमी पूरी नहीं की जा सकती । काठ के चर्खे से लोहे की मशीन को हराया नहीं जा सकता और अगर ऐसा हो भी जाए तो उससे मनुष्य के कल्याण का मार्ग प्रशस्त नहीं होता ।
गाल के देहात में मेरा घर है। बंगाल को मैं नहीं जानता, यह अपवाद शायद मेरा बड़े से बड़ा शत्रु भी मुझपर नहीं लगाएगा। मैंने धर-घर जाकर देखा है, यह बहिष्कार नहीं चलता वहां। दो-चार स्वदेशभक्त पुरुष इसका निर्वाह चाहे भले ही कर लें, लेकिन औरतों का काम तो चलता ही नहीं। अन्य प्रदेशों की बात में नहीं जानता, लेकिन इस देश की स्त्रियों को दिन के अन्त में कई वस्त्रों की जरूरत होती है। इस प्रदेश की सामाजिक रीति और इस देश का अस्थि मज्जागत संस्कार ही यह है। सभा में खड़े होकर खद्दर की महिमा में गला फाड़ने पर भी वह चीत्कार जाकर किसी तरह भी देहात के एकान्त अन्तःपुर में नहीं पहुंचेगी। स्वख्स अर्थात् खाते-पीते गहस्थ की ही बात नहीं कहता गरीब खेतिहर मजदूरों की बात ही मैं कहता हूं - यह मेरी बात सत्य है और इसे स्वीकार करना ही अच्छा है। बंगाल के किसी एक खास सब- ब-डिवीजन में दो-एक मन चर्खे का कता सूत तैयार होने की नजीर दाखिल करके इसका जवाब नहीं दिया जाएगा। यह हुआ खद्दर का विवरण । चर्खे की भी यही दशा है। उधर हमारे किसान-मजदूरों के गरीब घरों में औरतों को सवेरे से शाम तक मेहनत करनी पड़ती है। उसी में बीच-बीच में एक-आध घण्टे का समय अगर वे पा जाती हैं, तो महात्माजी के आदेश को जताकर चर्खे का हत्या उनके हाथ में थमा देने पर भी वे सो जाती हैं। में उनको दोष नहीं दे सकता। जान पड़ता है, सच्चा प्रयोजन न होने के कारण ही ऐसा होता है।”
इस समय 'परशुराम' के छद्म नाम से उन्होंने 'वेणु ! पत्रिका में एक और लेख लिखा। उसमें उन्होंने सब आक्षेपों का उत्तर देते हुए चर्खे का तीव्र विरोध किया। कुछ वर्ष पूर्व इसी प्रश्न को लेकर जिन रवीन्द्रनाथ का उन्होंने विरोध किया था, उन्हीं को उन्होंने इस लेख में अपने पक्ष में उद्धृत किया । चर्खे के अर्थशास्त्र से वे जरा भी सहमत नहीं थे। इसी कारण लोगों को यह विश्वास हो चला था कि वे महात्माजी के विरोधी हैं। निश्चय ही वे थे और काफी उग्र थे। लेकिन फिर भी इस विरोध और उग्रता का क्षेत्र बहुत सीमित था। इन विचारों के रहते हुए भी महात्माजी के प्रति उनके प्रेम में कभी कमी नहीं आई। और व्यक्तिगत रूप से मुसलमानों से उनके जो स्नेहपूर्ण संबंध थे, उनमें भी कोई अन्तर नहीं पड़ा। और अभी कुछ माह पूर्व ही 12 उन्होंने मालीकांदा के अभय आश्रम में विक्रमपुर युवक और छात्र सम्मिलनी के अध्यक्ष पद से प्रोग्राम की चिन्ता न करते हुए सत्य, निष्ठा का व्रत लेने को कहा था और कहा था निर्भयता की साधना करने को साहस का वरण और निर्भीकता का उपार्जन करना एक चीज नहीं हैं। एक देह की है दूसरी मन की । देह की शक्ति और कौशल बढ़ने से अपेक्षाकृत दुर्बल और कौशलहीन को हराया जा सकता है किन्तु निर्भयता की साधना से शक्तिशाली को परास्त किया जा सकता है। संसार में कोई उसे बाधा नहीं दे सकता है। वह अजेय होता है।”
प्रायः उनके ऐसे विचार तात्कालिक परिस्थितियों की तात्कालिक प्रतिक्रिया मात्र होते थे। जैसे, बारदोली की प्रशंसा सुनते-सुनते उनका प्रान्तीय अभिमान जाग उठा । उसी आवेश में उन्होंने कुछ ऐसी बातें कहीं, जो उनके जैसे शिल्पी को नही कहनी चाहिए थीं। राजनीति तो काजर की कोठरी है। उसमें प्रवेश करने पर उसकी कालिख से कोई नहीं बच सकता। फिर बंगाल की उस समय की अवस्था भी बहुत अच्छी नहीं थी । दल ही दल थे। और किसी भी कारण से हो जब व्यक्ति किसी एक दल से संबद्ध हो जाता है, तो फिर वह पक्षधर हुए बिना नहीं रह सकता। वे हुगली जिले के रहनेवाले थे, लेकिन उस जिले के कांग्रेस कर्मियों ने उन्हें कभी निमन्त्रित नहीं किया। वह जिला खादी दल के हाथ में था। एक मित्र ने उनसे कहा, आपके जिले के लोग आपको नहीं बुलाते क्या यह बात अपमानजनक नहीं है?"
उन्होंने उत्तर दिया, 'अच्छा ही है जो नहीं बुलाते। मेरा शरीर बहुत खराब रहता है। बुलाने पर भी शायद मैं नहीं जा पाता, तब वे नाराज होते। मान लो मैं चला भी जाता तो वे मुझे भाषण देने के लिए कहते। भला कोई विश्वास कर सकता है कि जो व्यक्ति कहानियों की इतनी किताबें लिख लेता है, वह भाषण नहीं दे सकता? इसलिए मैं कहता हूं कि उन्होंने मुझे नहीं बुलाकर मुझपर उपकार ही किया है।'
कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग लेने के लिए वे अब भी जाते थे। रावी के तट पर पं० जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का जो महत्वपूर्ण अधिवेशन हुआ था और जिसमें पूर्ण स्वराजा की मांग की गई थी उसमें वे उपस्थित थे। इस अवसर पर प्रवासी बंगालियों ने अपने अपराजेय कथाशिल्पी का हार्दिक अभिनन्दन किया। उसी अमिनन्दन के उत्तर में उन्होंने घोषणा की थी, गर्व करने योग्य हमारे पास एक ही वस्तु है - यह भाषा । " पर स्वास्थ्य उनका दिन पर दिन गिरता ही जा रहा था। श्री केदारनाथ बंदोपाध्याय को उन्होंने लिखा, 13 'अच्छा हूं । रात-दिन इजीचेयर पर घिरे बरामदे में लेटा रहता हूं। दायां पैर लंगड़ा है, दाहिना कान बहरा है। बवासीर के बहाने बेकार खून नियमित रूप से निकलता रहता है। तंद्रा में आराम से क्षण-क्षण पर सो जाता हूं। स्वप्न देखता हूं जाग पड़ता हूं सामने बड़ी नदी दिखाई पड़ती है। पाल वाली नावों को गिनता हूं। न जाने कब अचानक आख बंद हो जाती है। सारी बातें भूल जाता हूं। दक्षिण से सूर्यदेव आकर तेज धूप से बदन गर्म कर देते हैं। आखें खोलने पर गुडाई की निगाली खींचकर देखता हूं कहता हूं कोई है, चिलम भर दे।' शायद भर भी देता है। पर खींचने पर देखता हूं कि धुआ नहीं है। डांटने पर कहता है कि आप सो रहे थे। चढ़ी चिलम जल गई। परीक्षा करने की शक्ति नहीं है, फिर भी ऊंची आवाज में डांटकर कहता हूं, हां, हां, सो रहा था और नहीं तो क्या ! झूठा कहीं का, फिर भर दिल्ली से लाई उस बड़ी चिलम को जिससे जल्दी जल नहीं जाए।' उसके चले जाने पर मन ही मन कहता हूं भगवान, सचमुच ही हो तो मेरे अनुरोध को मान क्यों नहीं लेते? कोई तुम्हारी निन्दा नहीं करेगा। सिर की कसम बाबा आप मान लें ।'
पक दिन मान लेंगे, जानता हूं, पर मेरी ही तरह समय बीत जाने पर तब प्रसन्नतापूर्वक नहीं ले सकूंगा' बुलावा आ गया है। पाथेय मौजूद है। सोते सोते और जागते- जागते पढ़ना श्हुरू कर देता हूं। बहुत दिनों की आदत है। बहुतेरी अफीम खून में मिली है। हारा हूं बहुतों से, पर हराया है बेटा आबकारीवालों को इसलिए भरोसा है कि नींद में भी पाथेय का रस नीचे ही जा गिरेगा।
स्वास्थ्य चाहे जितना ही खराब हो उनके लिए प्रिय सुभाष को छोड़ना अभी भी सम्भव नहीं हो पा रहा था, इसलिए अगले वर्ष हावड़ा जिला कांग्रेस कमेटी के चुनाव में काफी हल्लागुल्ला,
गाली-गलौज और लाठी पटकना हुआ। डंडे के डर से कांटेदार तार का घेरा मय इलेक्टिक्किएशन के तैयार रखा गया था। इसी कारण शायद दंगा नहीं हो सका और चुनाव निर्विस्त समाप्त हो गया । शरत् बाबू का दल अर्थात् सुभाष बाबू का दल फिर प्रतिष्ठित हो गया। साल से उनका आधिपत्य चला आ रहा था। इस निहित स्वार्थ को भला कैसे छोड़ा जा सकता था ! उनके दल का तर्क था कि गलतियां कितनी ही क्यों न हों, तुम लोग बोलनेवाले कौन हो? देश की आजादी आती है तो हमारे ही द्वारा आएगी। तुम लोगों के द्वारा नहीं आएगी। तुम लोग हाथ डालने मत आओ।
लेकिन दूसरा दल भी आसानी से मानने वाला नहीं था। इसीलिए आवेश और आक्रोश था। एक पत्र में शरत् बाबू ने इस दलादली के स्वरूप का अपनी सहज विनोदप्रिय शैली में सुन्दर वर्णन 14किया है - देशोद्धार करने के लिए सुभाष के दल ने मुझे जुबर्दस्ती कुमिल्ला चालान कर दिया था। रास्ते में एक दल ने शेम-शेम कहा । खिड़की के रास्ते से कोयले का चूरा सिर और बदन पर बिखेर कर प्रीति ज्ञापन किया। दूसरे दल ने बारह घोड़ों की गाड़ी में जुलूस निकालकर बता दिया कि कोयले का चूरा कुछ नहीं, वह माया है। जो कुछ भी हो, रूपनारायण के तीर पर वापस आ गया हूं। श्री अरविन्द के मुक्त मनुष्य में व्यक्तिगत आशा नहीं रहती । इस शक्ति की उपलब्धि करने में मुझे अब देर नही है। जय हो बारह घोड़े की गाड़ी की, जय हो, जय हो कोयले के चूरे की ।'
कुमिल्ला में वह त्रिपुरा जिला राजनैतिक कमी सम्मेलन व जिला छात्र सम्मेलन में भाग लेने गए थे। साथ में सुभाष बोस थे। सारे रास्ते उन लोगों का इतना शानदार स्वागत हुआ कि वह विभोर हो उठे थे। सुभाष सम्मेलन के अध्यक्ष थे और शरत् थे उद्घाटनकर्ता । उन्होंने एक ही बात कही, येरे पास देन को एक ही सन्देश है और वह है स्वतन्त्रता का । मेरी कामना है कि बंगाल के नवयुवकों और विद्यार्थियों का उद्देश्य पूर्ण हो। वे सेवा और पीड़ा के द्वारा भारत को अपना लक्ष्य पाने में सहायता करें। मुझे दुख यही है कि मैं इस आन्दोलन को सफल होते नहीं देख सकूंगा।.
लेकिन ऐसा लगता है कि इस परिहास वृत्ति के बावजूद यह राजनीतिक वितण्डावाद उन्हें बहुत देर तक बांधकर नहीं रख सका। अन्ततः वे अपने साहित्य जगत् में पहुंच गए। जैसे उनकी वह गतिमय तटस्थ वृत्ति फिर लौट आई और वे पहले की तरह अपने मनुष्य को प्यार करने लगे।
और इसीलिए जब तीन वर्ष बाद महात्माजी ने कांग्रेस की सदस्यता से त्यागपत्र 15 दे दिया, तब शरत् बाबू ने एक शिल्पी की अन्तर्दृष्टि से लिखा, चरखे से देश की उन्नति हुई या नहीं? अद्रोह, असहयोग देश की राजनीतिक मुक्ति ला सका या नहीं? आईन अमान्य आन्दोलन का अन्तिम परिणाम क्या होगा ? ये सब प्रश्न आज नहीं, किन्तु महात्मा का यह दावा सत्य स्वीकार करता हूं कि उनके बताये मार्ग से भारत क्षतिग्रस्त नहीं हुआ. बाद में हो सकता है उनका मत व पथ दोनों बदल जायें, उनके आदर्श का चिह भी न रहे, तथापि वे जो कुछ दे गये हैं, सब कुछ परिवर्तन हो जाने पर भी वह अमर रहेगा । शृंखलामुक्त भारत को उनका यह ऋण किसी भी दिन विस्मृत न होगा। आज वे कांग्रेस से बाहर आये हैं, उसका त्याग नहीं किया है, करने का उपाय ही नहीं है। जिस शिशु को उन्होंने मानुष किया है वह आज बड़ा हो गया है। इसीलिए उसको अपने कठिन शासनपाश से महात्मा ने मुक्त किया है, स्वेच्छा से मुक्ति दी है। इसमें शोक करने का कोई कारण नहीं है। इस मुक्ति से दोनों का मंगल होगा, यही मेरी आशा है।'