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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023

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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त्री। उस सभा में श्री चन्द्रशेखर वेंकटरमन ने एक प्रस्ताव रखा कि सभी देशवासियों की ओर से कलकत्ता में इस शुभ घटना के उपलक्ष्य में उनकी यथोचित सम्बर्द्धना और आनन्दोत्सव का अनुष्ठान करना चाहिए।

इस प्रस्ताव का समर्थन करते हुए शरत्चन्द्र ने कहा, “मैं जानता हूं मेरे देश के अनेक व्यक्ति विश्वभारती को कल्पना मात्र समझते हैं। मैं कहता हूं, होने दो कल्पना, किन्तु किसकी कल्पना है? कितनी बड़ी कल्पना है? यह भूलने से कैसे चलेगा! इसीलिए कहता हूं कि अनुष्ठान करो, आनन्दोत्सव करो, सब कुछ करो, किन्तु अब कुछ धन संग्रह करके हम सब उनके हाथ में दे दें। वे इस वृद्धावस्था में देश-विदेश में विश्वभारती के लिए भिक्षा की झोली पसारे घूमते है। यह हमारे लिए लज्जा की बात है।”

इसी सभा में जयन्ती उत्सव समिति का गठन हुआ। इसके सभापति निर्वाचित हुए आचार्य जगदीशचन्द्र बसु । सहकारी सभापति अनेक गण्यमान्य व्यक्ति थे और उन्हीं में एक थे शरत्चन्द्र । उसके बाद इस संबंध में होने वाली सभी सभा समितियों में उन्होंने उत्साहपूर्वक भाग लिया। दुर्भाग्य से उस समय उत्तर बंगाल में वन्या का प्रकोप हुआ। ऐसी स्थिति में कविगुरु ने भरतचन्द को पत्र लिखा, “सुनता हूं, तुमने मेरी पूजा के लिए कुछ धन इकट्ठा करने का निश्चय किया है। देश में आज जो दुर्दिन है, उसको देखते हुए किसी और काम के लिए धन-संग्रह का दावा करना उचित नहीं है। यदि मेरे हाथ में कुछ देना ही है तो वह उनके दुखों को दूर करने के लिए हो जो इस दुर्गति का शिकार हुए हैं।” 2

इसलिए विश्वभारती के उद्देश्य से धन संग्रह करने का शरत् बाबू का वह प्रस्ताव कार्यान्वित नहीं हो सका। इसका उन्हें बराबर क्षोभ रहा उत्सव में प्रवेश पाने के लिए शुल्क की व्यवस्था थी। उससे जो धन प्राप्त हुआ वह कविगुरु ने वन्या के प्रकोप से पीड़ित जनता के लिए दे दिया था। यह अभिनन्दन समारोह वास्तविक जन्मतिथि के सात महीने बाद हुआ था। मानपत्र लिखा था स्वयं शरत्चन्द्र ने समिति में इस प्रन को लेकर काफी मतभेद थे, लेकिन श्री अमल होम ने श्री श्यामाप्रसाद मुकर्जी से सलाह करके यह काम चुपचाप शरत्चन्द्र को सौंप दिया था। वे नहीं चाहते थे कि किसी को इस बात का पता लगे, लेकिन किसी तरह यह बात प्रकट हो गई। मानपत्र कौन पड़े, इस पर भी काफी मतभेद था। आचार्य जगदीशचन्द्रबसु उसे पढ़ने वाले थे, परन्तु सहसा अस्वस्थ हो जाने के कारण अन्ततः श्री कामिनी राय ने इसे पढ़ा। उस समय शरत्चन्द्र संकोचवश सिर नीचा किये बैठे रहे। उस मानपत्र की प्रथम पंक्ति किसी को भुलाये नही भूलती "क्विगुरु, आपकी ओर देखने पर हमारे विस्मय की सीमा नहीं।"

चार वर्ष पूर्व भी श्री अमल होम की विवाह सभा में उन्हें देखकर शरत् बाबू उसी तरह विस्मित हो उठे थे। "बहुत दिन बाद उस दिन विवाह सभा में रवीन्द्रनाथ को देखा। कैसा आश्चर्यमय सुन्दर! औख हटाये नहीं हटती थी उम्र जितनी बढ़ती है, रूप उतना ही क्या पड़ता है। रूप नहीं सौन्दर्य संसार में इतना बड़ा विस्मय नहीं जानता।”

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इस सभा के पश्चात् रवीन्द्र - साहित्य की आलोचना के लिए टाउन हाल में रक्त और सम्मेलन हुआ। उसके अध्यक्ष चुने गये शरतचन्द्र अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने अपने साहित्य में प्रवेश की चर्चा करते हुए कविगुरु के ऋण को स्पष्ट स्वीकार किया और उनके प्रति अपनी एकान्त श्रद्धा प्रकट की। कहा, “कवि के जीवन के सत्तर वर्ष पूरे हुए। विधाता के आशीर्वाद ने केवल हम लोगों के ही नहीं समग्र मानव जाति को धन्य किया । सौभाग्य की इस पति को मधुर और उज्जवल करके हम लोग आने वाले समय के लिए रख जाना चाहते हैं और उसी के साथ अपना भी यह परिचय आने वाली पीढ़ियों को दे जाएंगे कि कवि के केवल काव्य से ही हमारा परिचय नहीं रहा, हमने उनको आंखों से देखा है, उनकी बातें कानों से सुनी हैं, उनके आसन को चारों ओर से घेरकर बैठने का सौभाग्य भी हमें प्राप्त हुआ।

.. हम यहां वयोवृद्ध कवि को श्रद्धा अर्थ देने के लिए, उनसे सहज भाव से यह कहने के लिए एकत्र हुए हैं कि कवि, तुमने बहुत अ दिया है, इस लम्बे समय में हमने तुमसे बहुत कुछ पाया है। सुन्दर, सबल, सर्वसिद्धिदायिनी भाषा तुमने दी है, विचित्र छन्दों में बंधा काव्य दिया है, अनुरूप साहित्य दिया है, जगत् को बंगला भाषा और भाव-सम्पदा का श्रेष्ठ परिचय दिया है, और सबसे बड़ा दान तुम्हारा यह है कि तुमने हमारे मन को बड़ा बना दिया है। तुम्हारी सृष्टि का सूक्ष्म विचार करना मेरे बूते से बाहर है यह मेरे धर्म के विरुद्ध है। जो लोग प्रज्ञावान हैं, वे यथासमय यह विचार करेंगे, किन्तु तुमसे मैंने स्वयं क्या पाया है, इसी बात को संक्षिप्त करके कहने के लिए यह निमन्त्रण स्वीकार किया है।...

फिर अपने बचपन क्तई चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि कैसे उनका रवीन्द्र साहित्य से परिचय हुआ और उससे वह कितने प्रभावित हुए। उन्होंने कहा, "म्सके बाद आया 'बंगदर्शन' के नवीन संस्करण क्त युग। उसमें उन दिनों रवीन्द्रनाथ की 'चोखेर बाली' (आंख की किरकिरी ) धारावाहिक रूप से प्रकाशित हो रही थी। उसमें भाषा और भाव प्रकाशन की शैली का एक नया प्रकाश देख पड़ा। उस दिन की वह गहरी और सुतीक्षा आनन्द की अनुभूति मैं कभी नहीं भूलूंगा ।......दूसरे की कल्पना के चित्र में पाठक अपने मन को इस तरह आंखों से देखना चाहता है, यह बात इससे पहले कभी सपने में भी नहीं सोची थी। इतने दिनों में केवल साहित्य का नहीं, अपना भी जैसे एक परिचय पाया। बहुत पढ़ने से बहुत पाया जाता है यह बात सत्य नहीं है। वह थोड़े से ही तो पन्ने हैं, उन्हीं के बीच में जिन्होंने इतनी बड़ी सम्पत्ति उस दिन हम लोगों के हाथ में पहुंचा दी, उनके प्रति कृतज्ञता जाने की भाषा कहां मिलेगी?

"इसके बाद ही साहित्य के साथ मेरा संबंध टूट गया। में भूल ही गया कि जीवन में एक लाइन भी मैंने किसी दिन लिखी है। बहुत-सा समय प्रवास में बीता। इस बीच में कवि को केन्द्र करके किस तरह नवीन बंगला साहित्य तेजी के साथ समृद्धि से भर उठा, उसकी कोई खबर मुझे नहीं है। कवि के साथ किसी दिन भी मुझे घनिष्ठ होने क्त सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ । उनके पास बैठकर साहित्य की शिक्षा प्राप्त करने का सुयोग भी नहीं मिला। मैं एकदम ही बिछुड़ा रहा। यह है बाहर का सत्य, किन्तु भीतर की बात इससे बिलकुल उलटी है। उस विदेश में मेरे साथ कवि की कुछ पुस्तकें थीं, काव्य और कथा साहित्य, और मन के भीतर परम श्रद्धा और विश्वास। तब धूम-फिरकर इन कई एक पुस्तकों को ही मैं बार-बार पड़ता था। क्या उनका स्थ्य है, कितने अक्षर हैं, आर्ट किसे कहते है, उसकी संज्ञा क्या है, वजून मिलाने में क्की कोई त्रुटि हुई है या नहीं, ये सब बड़ी बातें सोचीं भी नहीं। यह सब मेरे लिए फिजूल था। सार्थक था केवल यही सुदृढ़ विश्वास कि इससे बढ़कर परिपूर्ण सृष्टि और हो ही नहीं सकी। क्या काव्य में और क्या साहित्य में, यही मेरी पूंजी थी।

एक दिन अप्रत्याशित भाव से अचानक जब साहित्य सेवा की पुकार हुई तब यौवन का दावा समाप्त करके प्रीदुत्व के हलके में मैं पैर रख चुका था । देह थकी हुई थी, उद्यम सीमा में बंध गया था, सीखने की अवस्था पार हो गई थी। रहता था प्रवास में, सबसे अलग, सबसे अपरिचित । किनतु पुकार का मैंने उत्तर दिया। भय की बात मन में ही नहीं आई और कहीं न हो, पर साहित्य में गुरुवाद को मैं मानता हूं।

" रवीन्द्र - साहित्य की व्याख्या में नहीं कर सक्ता । किन्तु ऐकांतिक श्रद्धा ने उसके मर्म का पता मुझे दे दिया है । पडितों के तत्त्व-विचार में उसमें अगर कोई भूल-चूक हो तो रहे, किन्तु मेरे निकट वही सत्य है।

...मनुष्य रवीन्द्रनाथ के संस्पर्श में में साधारण ही आया हूं। एक दिन कवि के पास गया था। बंगला साहित्य में समालोचना की धारा प्रवर्तित करने का प्रस्ताव लेकर अनेक कारणों से कवि उस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सके। उसका एक कारण उन्होंने यह बताया था कि जिसकी प्रशंसा करने में वे असमर्थ हैं, उसकी निन्दा करने में वे वैसे ही अक्षम हैं। यह भी उन्होंने कहा था कि तुम लोग यदि यह काम करो तो यह कभी न भूली कि अक्षमता और अपराध एक ही वस्तु नहीं हैं। मैं सोचता हूं, साहित्य के विचार में यदि इस सत्य को सभी याद रखते।”

यह वह युग था जिस पर रवीन्द्रनाथ छाये हुए थे। बरगद के उस पेड़ के नीचे शरतचन्द्र ने न केवल अपने लिए जगह बनाई बल्कि प्रान्त और देश के जनमानस क्त ध्यान भी अपनी ओर आकर्षित किया। इसके लिए भी उन्होंने कविगुरु से ही प्रेरणा पाई, इस सत्य को उन्होंने कभी अस्वीकार नहीं किया। उनके समान प्रतिभाशाली लेखक जो, अपने लिए एक स्वतन्त्र रास्ता बनाने और नई ज़मीन तैयार करने में पूर्ण समर्थ हो, अपनी उस समर्थता का झूठा प्रदर्शन न करके यदि अपने एक पूर्वज और सम-सामयिक साहित्यकार से प्रेरणा ग्रहण करते हुए इस बात को स्वीकार करे तो यह सचमुच उनकी बड़ी विशेषता है। खासकर उस हालत में जब हम जीवन में इस बात के अनेक उदाहरण पाते हैं कि रक ही युग के विभिन्न प्रतिभाशाली लेखक, कवि और कलाकार परस्पर ईर्ष्या रखते हुए केवल विरोध के लिए एक-दूसरे का विरोध करते रहते हैं। इसके विपरीत शरतचन्द्र विभिन्न विषयों में उनकी प्रतिभा की महानता प्रमाणित करते हुए कभी थकते नहीं थे। उनकी कविताओं का प्रायः नित्य ही पारायण करते थे। उनकी लगभग सभी पुस्तकों को शरत् बाबू ने विशेष रूप से चमड़े की बढ़िया जिल्द में सजाकर रखा था, जिसके बाहर सुनहरे अक्षरों में पुस्तक और लेखक का नाम अंकित था । रवीन्द्रनाथ की कोई न कोई पुस्तक उनकी मेज पर पड़ी रहती थी।

एक बार बेपून कोलेज के एक प्रोफेसर उनसे मिलने के लिए आये। बातों ही बातों में वे बोले, "आप जितना सुन्दर लिखते हैं, उतना ही स्पष्ट भी आपकी रचनाएं हम लोगों की समझ में अच्छी तरह आ जाती हैं। फ रवीन्द्रनाथ ऐसी अस्पष्ट और उलझी हुई शैली में लिखते हैं कि कुछ भी ठीक से समझ में नहीं आता। वे बड़े कवि हो सकते हैं, परन्तु मैं रहस्यवादी कवि की कोई रचना नहीं समझ सकता। उनके जीवन देवता का रहस्य अभी भी अभेद्य है।”

भरतचन्द ने तत्काल उत्तर दिया, “क्षेफेसर महाशय, मैं आप लोगों के लिए लिखता हूं, आप ही मेरे पाठक है, किन्तु रवीन्द्रनाथ हमारे लिए लिखते है, हम उनके पाठक हैं। हमें कहीं अस्पष्टता दिखाई नहीं देती।”

रवीन्द्र साहित्य की निन्दा वे नहीं सह सकते थे। विशेषकर जब वह निन्दा काव्य और कला के गम्भीर और निगूढ़ तत्वों से अपरिचित निन्दकों द्वारा की जाती थी। उन्होंने बार- बार स्वीकार किया है कि वे विद्यासागर और बंकिमचन्द्र के भी ऋणी हैं, परन्तु बंकिमचन्द्र जिस प्रकार रोहिणी को गोली से मार दिया था, उसकी आज ज़रूरत नही है। युग बदल गया है। मूल्य बदल गये है और इस मोहान्यता को भंग करने के लिए हम जिसके कणी हैं, मैं भी उसी का ऋणी हूं। वे हैं कविगुरु रवीन्द्रनाथ । बंकिमचन्द्र अपने युग के संस्कारों से मुक्त नहीं हो सके। पाप-पुण्य के जय के बंधन में बंधे रहे। उनमें 'आख की किरकिरी' लिखने का साहस नहीं था। उनमें विचार बोध था, पर संस्कार-बोध नही था। वे अपने साहित्य में समाज की संकीर्णता से ऊपर नहीं उठ सके।

कविगुरु की चर्चा चलने पर एक बार उन्होंने सत्येन्द्रनाथ बसु से बड़े दुःख के साथ उनको मिले अपमान, अवमानना और लांगा की बात कही थी। बोले, "रक दिन कविगुरु ने कहा था, 'आर खान

पर क्या उसकी चोट नहीं लगती? लेकिन सहने के अतिरिक्त और उपाय ही क्या है?" देखते हो कैसी संस्कृति, कैसी शिक्षा-दीक्षा, कैसी असाधारण सहिष्णुता है! किसी दिन मुंह खोलकर जरा भी प्रतिवाद नहीं किया। ऋषितुल्य इन महापुरुष ने, सौम्य, शान्तमुख कवि ने, सब कुछ चुपचाप सहा, सहन किया। उनके समान धैर्य क्या मुझमें है? मैंने तो न जाने तुमसे अपनी कितनी बातें कही हैं। आलोचक कहते हैं कि रवीन्द्रनाथ इब्सन और मेटरलिंक का अनुसरण करते हैं। इब्सन और मेटरलिंक क्या 'णीतांजलि', 'नैवेद्य' और 'चलाका' जैसी सम्पद की सृष्टि कर सकते हैं? वे जाते उनका अनुकरण करने? जहां जरा भाव या विचार मिला कह उठे अनुकरण है। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा था, 'मेरी कविता के दो सौ पाठक भी नहीं हैं।' मैंने उत्तर दिया, 'आप क्या कहते हैं? आजकल क्या आप एक भी ऐसी कविता देख सकते हैं, जिस पर आपका प्रभाव नहीं है? मैं उसे अनुकरण नहीं कहूंगा। किन्तु काव्य की जो धारा आपने बहा दी है, उसी धारा का अनुसरण करती हुई बाद की सारी कविता चल रही है।"

“और कविता क्यों? उपन्यास के क्षेत्र में, भाषा में, क्या उन्होंने यही काम नहीं किया? आजकल कोई क्या बंकिम बाबू की भाषा लिखता है? या उस तरह के उपन्यास लिखता है? वे मेरे गुरु हैं, मेरे गुरु।”

...कविगुरु के इस अभिनन्दन के बाद उनका मन बहुत प्रसन्न था। अपने एक पत्र में उन्होंने अमल होम को लिखा-

“अमल, मुझे कितनी खुशी हुई कि तुमने टाउन हाल में सभापति के पद पर मुझे पकड़ बिठाया, मेरे गले में माला डाली, मेरा लिखा मानपत्र कवि के हाथों में दिया। जिस प्रकार यह विराट व्यापार सम्पन्न हुआ, यह अनुष्ठान जिस निष्ठा और श्रम और श्रद्धा से सार्थक हुआ, उससे मुझको बड़ा निष्कपट आनन्द हुआ। कवि के संबंध में मैंने इधर-उधर कभी-कभी क्रोध में आकर बुरी-बुरी बातें कहीं हैं। जिस तरह यह सत्य है उसी तरह यह भी सत्य है कि मरे से बड़ा उनका भक्त कोई नहीं। मुझसे बढ़कर कोई उनको अपना गुरु नहीं मानता। मुझसे बढ़कर कोई उनकी रचनाओं का अध्ययन नहीं करता। उनकी कविताओं की बात नहीं क्कता, लेकिन मुझसे अधिक उनके उपन्यास किसी ने नहीं पड़े। उनकी 'आंख की किरकिरी', उनका 'गोरा', उनका 'गल्प गुच्छ'। आजकल जो इतने लोग मेरी रचनाएं पढ़कर अच्छा कहते हैं, वे उसी कारण हैं। मैं जानता हूं कि यह परम सत्य है। और कोई इसको कहता है या नहीं कहता, मानता है या नहीं मानता, इससे कुछ आता-जाता नहीं है। इसलिए मैंने अपने समस्त अन्तःकरण से उस जयन्ती में योग दिया । दिए बिना रह भी नहीं सकता था। तुमने बहुत बड़ा काम किया । अन्तःकरण से आशीवाद देता हूं। सुनता हूं कि तुमने यह जयन्ती करके कलकत्ता का घर बेच दिया, गाड़ी बेच दी। तुम्हारे हमारे मित्र लोग इस बात का बड़े उत्साह से प्रचार करते हैं। जयन्ती के लिए, सुनता हूं स्वयं कवि ने तुमकी खड़ा किया था। तुम केवल उनके शिखण्डी थे, उन्होंने ही सब कुछ कराया है। अमल, यह बंगाल है, सोने का बंगाल तब भी कहना होगा कि मैं तुमकी प्यार करता हूं। मन में कोई क्षोभ न रखना। जिसके जो जी में आये कहने दो। मैं जानता हूं, तुम्हारा घर भी नहीं है, गाड़ी भी नहीं है। जिस गाड़ी में चढ़कर घूमते हो, वह कापरिशन की है। बस इतना ही । तुम्हारा भला होगा। तुमने देश की लाज रखी है। समस्त अन्त करण से फिर तुमकी आशीर्वाद देता हूं।"

भरतचन्द की रवीन्द्र भक्ति के संबंध में प्रमाणों का कोई अभाव नहीं है। उनके समकालीन सभी व्यक्ति जानते हैं, शरत्चन्द्र ने रवीन्द्र- साहित्य का बड़े मनोयोग से मनन किया है। एक दिन किसी लेखक ने उनसे पूछा, "क्या आपने 'जएारा' पढ़ा है?

उन्होंने तुरन्त स्वभाव-सुलभ चंचलता से उत्तर दिया, "योरा! चौंसठ बार! हां, चौसठ बार पढ़ाईं।” ढाका जाने पर वे अपने प्रिय मित्र चारुचन्द्र बन्दोपाध्याय के घर पर ही ठहरते थे। उस बार वे अचानक बीमार हो गये। चारु बाबू क्या देखते हैं कि ज्वर के आवेश में शरत्चन्द्र 'बलाका' की कविता पर कविता का पाठ करते जा रहे हैं। प्रत्येक कविता उन्हें पूर्ण रूप से कण्ठस्थ है।

सचमुच रवीन्द्रनाथ की बड़ी-बड़ी कविताएं उन्हें विस्मयजनक रूप से कण्ठस्थ थीं। पुस्तक कई सहायता के बिना एक भी भूल न करके उन कविताओं की आवृत्ति करते अनेक व्यक्तियों ने उन्हें देखा था। इलाचन्द्र जोशी से उन्होंने कहा था, "यें हर तीसरे चौथे रोज़ उनकी कोई कविता-पुस्तक लेकर बैठ जाता हूं। इतना बड़ा कवि आज संसार में खोजे न मिलेगा।”

समय-असमय, कारण अकारण रवीन्द्र काव्य की आवृत्ति करने में उन्हें जितना आनन्द आता था उतने ही उलूक वे उनके नाटकों का अभिनय देखने को भी रहते थे। 'कल्लोल' पत्रिका के कर्मियों को अपना चित्र भेंट करते हुए उन्होंने कहा था, किन्तु यह जान लो हम सब रवीन्द्रनाथ के हैं। गंगा की तरंगें होती हैं। तरंगों से कभी गंगा नहीं बनती।”

उस दिन कविता-पाठ की एक प्रतियोगिता परीक्षा थी। कविता चुनी गई कविगुरु की 'ए बार फिराओ मोरे ।' लेकिन उसमें से वह अंश निकाल दिया गया जिसमें देश की दुर्दशा का वर्णन था। जो कर्ता-धर्ता थे उनका तर्क था कि उसे पढ़ना राजद्रोह होगा फसाद खड़ा हो सकता है।

शरत्चन्द्र ने लिखा, "जो देश के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं, जो निष्पाप और निर्मल हैं, उनके हृदय के भीतर से स्वदेश की भलाई के लिए जो कविता निकली है प्रकाश्य सभा में उसका पढ़ना राज्यद्रोह है, अपराध है। इस सभ्य देश के लड़के आज यही सीखने के लिए बाध्य होते हैं.........

एक ओर ऐसी अनन्य भक्ति थी तो दूसरी ओर यह भी उतना ही सत्य है कि समय- समय पर उनका कविगुरु से कटु संघर्ष भी हुआ है। वह संघर्ष सदा ही सैद्धान्तिक रहा। भावुक हृदय शरत्चन्द्र जब कभी भी कविगुरु की किसी बात से अप्रसन्न होते थे तो उन पर तीव्र प्रतिक्रिया होती थी और वे तुरन्त ही उस प्रतिक्रिया को व्यक्त कर देते थे। मन से शायद वह ऐसा नहीं चाहते थे, परन्तु अन्तर का कृतिकार जैसे उफन उठता था और वे विवश हो जाते थे। चार वर्ष पूर्व विचित्रा' में कविगुरु का एक लेख प्रकाशित हुआ था। नाम था 'जाहित्यधर्म'। उस लेख को लेकर बंगाल के साहित्य जगत् में काफी तूफान उठा । डा० नरेशचन्द्र सेनगुप्त ने उक्त धर्म की सीमा या चौहद्दी का निर्देश करके अत्यन्त श्रद्धा के साथ कवि के उदाहरणों को, रूपक और युक्तियों को रस रचना की संज्ञा दी। श्री सजनीकान्त दास की इस लेख के संबंध में शरतचन्द्र से काफी बातें हुईं। उन्हीं बातों का उन्होंने एक लेख में उल्लेख कर दिया। लेकिन वह उल्लेख कुछ इस प्रकार हुआ कि उससे गलतफहमी हो सकी थी, अर्थात् वे बातें शरतचन्द्र के वास्तविक मत से भिन्न थीं। इसी गलतफहमी के कारण कुछ लोगों ने उन पर आक्रमण भी किये, इसलिए शरत् बाबू ने 'साहित्य की रीति और नीति' शीर्षक से एक लेख लिखा। उसमें उन्होंने अपना मत स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया। बड़ी विनम्रता से कवि के आक्षेपों का निराकरण करते हुए उन्होंने लिखा, "उनके 'जाहित्य-धर्म' प्रबन्ध के अन्तिम अंश में भाषा जैसी तीक्षा है, श्लेष भी वैसा ही निष्ठुर है। यह बात कोई अस्वीकार नहीं करेगा कि तिरस्कार करने का अधिकार एकमात्र उन्हीं को है, किन्तु क्या सचमुच ही आधुनिक बंगला साहित्यकार रास्ते की भूल कीचड़ उठाकर परस्पर एक-दूसरे पर फेंकने को साहित्य साधना समझता है? शायद कभी कहीं पर भूल हो गई है किन्तु इसी से क्या समस्त आधुनिक साहित्य के प्रति इतना बड़ा दण्ड कोई सुविचार है?

"कवि ने कहा है, "उस देश का साहित्य कम से क्य विज्ञान की दुहाई देकर इस दौराल्य या ऊधम की कैफियत दे सकता है। किन्तु जिस देश में, भीतर और बाहर, बुद्धि में और व्यवहार में, किसी भी जगह विज्ञान ने प्रवेश का अधिकार नहीं पाया......।'

"अगर यही सच है। भारत के लिए दुग्ब्र की बात है, दुर्भाग्य की बात है। विज्ञान ने शायद प्रवेश का अधिकार नहीं पाया, शायद यह वस्तु सचमुच ही भारत में नहीं थी, किन्तु कोई एक चीज़ केवल न होने के कारण ही क्या सदैव वर्जित होकर रहेगी? यही क्या कवि का आदेश है?

“आगे की लाइन में कवि ने कहा है- 'उस देश के (अर्थात् बंगाल के) साहित्य में उधार ली हुई नकल निर्लज्जता को किसकी दोहाई देकर ष्णिवेंगी रोहाई देने का प्रयोजन नहीं है, छिपाना भी अन्याय है, किन्तु भक्तों के मुख से उधार लिये हुए अभिमत को ही संशयहीन सत्य मानकर विश्वास कर लेने से क्या न्याय की मर्यादा खण्डित नहीं होती?

-रवीन्द्रनाथ के साहित्य धर्म' का जवाब नरेशचन्द्र ने दिया है। उनकी धारणा है कि, और अनेक लोगों की तरह शायद वह भी कवि के एक लक्ष्य हैं। इस धारणा का कारण क्या है, मैं नहीं जानता। उनकी सब पुस्तकें मैंने नहीं पड़ी। मासिक पत्रों के पन्नों में जो कुछ प्रकाशित होता है, वही केवल देखा है। अनेक स्थानों पर उनसे मेरा मत मिलता नहीं जान पड़ा कभी-कभी जान पड़ा है, नर-नारी के प्रेम के मामले में वह प्रचलित सुनिर्दिष्ट रास्ते क्ते लांघ गये हैं, किन्तु वहां पर भी मैंने अपने मत को ही अप्रान्त नहीं समझा। यह में जानता हूं कि नरेशचन्द्र से बहुत से लोग प्रसन्न नहीं है, किन्तु मत्तता की आत्मविस्मृति में माधुर्यहीन रुखाई को ही शक्ति का लक्षण मानकर पहलवानी खई धींगामुश्ती करने के लिए ही वे पुस्तक लिखते है ऐसा अपवाद में नहीं फैला सक्ता । पाण्डित्य में, ज्ञान में, भाषा पर अधिकार में, चिन्तन के विस्तार में, स्वाधीन अभिमत को अकुंक्ति भाव से प्रकट करने में उनके समकक्ष लेखक बंगला - साहित्य में थोड़े ही है । बंगला साहित्य के अविसंवादी (सर्वसम्मत) विचारक के हिसाब से कवि का यह कर्त्तव्य है कि नरेश बाबू की सब पुस्तकों को पढ़े, यह स्पष्ट करके दिखावें कि उनके उपन्यासों में कहां पर शीलता का अभाव है, कहां पर ये काव्य-लक्ष्मी वस्त्रहरण में लगे है। किन्तु ऐसा भी हो सक्ता है कि कवि का लक्ष्य नरेशचन्द्र नहीं, कोई और हो । तब भी मैं समझता हूं कि उन्हें उस और क्सिई की भी सब पुस्तकें पढ़कर देखनी चाहिए।' फम लोगों का जमाना तो अब बीतने ही वाला है। अब साहित्यव्रतियों का एक नया दल साहित्य सेवा का भार ग्रहण कर रहा है। मैं सम्पूर्ण अन्तःकरण से उनको आशीर्वाद देता हूं ।....... . किन्तु कुछ दिनों से देखता हूं इन नवीन लेखकों के विरुद्ध एक प्रचण्ड धावा शुरू हो गया है। क्षमा नहीं हे, धैर्य नहीं है, मित्रभाव से भ्रम-संशोधन की वासना नहीं है, है केवल कटूक्ति, है केवल सुतीव्र वाक्य-बाण-वर्षा से घायल करने का संकल्प, है केवल देश के आगे, दस आदमियों के आगे इनको हेय सिद्ध करने की निर्दय प्रवृत्ति । केवल मत न मिलने से ही, वाणी के मन्दिर में, सेवकों के इस आत्मघाती कलह में न गौरव है, न कल्याण है।

- विश्वकवि के इस 'साहित्य- धर्म के अन्तिम अंश का मैं सविनय प्रतिवाद करता हूं । भाग्य के दोष से वह मेरे प्रति विरूप हैं मेरी बात का शायद वह विश्वास न कर सकें, किन्तु मैं उनसे सच-सच निवेदन करता हूं कि बंगला के साहित्यसेवियों के बीच ऐसा कोई नही है, जिसने मन ही मन उनको गुरु के आसन पर प्रतिष्ठित नहीं किया । आधुनिक साहित्य के अमंगल की आशंका से जो लोग उनके कानों के पास गुरुदेव' कहकर रोज-रोज विलाप करते हैं, उनमें से किसी की भी अपेक्षा ये (आधुनिक लेखक) कम श्रद्धा नहीं रखते ।'

इस लेख का आरम्भ कई कारणों से महत्त्वपूर्ण है। कविगुरु और डा० नरेशचन्द्र के मतभेद की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा, परेशचन्द्र के विरुद्ध दल के सजनीकान्त दास ने शनिवारेर चिठि (मासिक) में मेरा मतोमत ऐसा प्रांजल और स्पष्ट करके प्रकट कर दिया है कि मेरे पूक फूटकर माथा खुजाकर, हां' और बा' एक ही साथ उच्चारण करके पीछे हटकर भागने के लिए राह ही नहीं रक्सी एकदम बाघ के मुंह में ठेल दिया है।

डधर विपत्ति यह हुई है कि धीरे- धीरे मेरे भी दो-चार भक्त आ जुटे हैं । वे यह कहकर मुझे उत्तेजित करते हैं कि तुम्हीं कौन कम हो? अपना अभिमत प्रचारित कर दो न !

ये कहता हूं वह मैंने जैसे कर दिया, लेकिन उसके बाद ए मैं ठीक किस दल में हूं यह आप ही नहीं जानता, इसके सिवा उस ओर नरेश बाबू जो हैं। वह केवल बहुत बड़े पण्डित ही नहीं हैं, बड़े भारी वकील भी हैं। उनकी जिस जिरह के जोर से कवि के युक्ति-तर्क रस- रचना हो गये, उस जिरह के पेंच में पड़कर में तो एक घड़ी भी नहीं ठहर सकूंगा । कवि तो भी अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दिशान्त आn

के कोठे में पहुंच गये हैं, लेकिन मैं तो शायद व्याप्ति-अव्याप्ति किसी तक भी नहीं पहुंचूंगा, त्रिशंकु की तरह शून्य में झूलता रहूंगा । तब? प

ग्यक्तगण कहते हैं, 'आप डरपोक है।'

ये कहता हूं नहीं ।'

क्त लोग कहते हैं, तो इसे प्रमाणित कीजिए ।'

मैं कहता हूं प्रमाणित करना क्या सहज मामला है? रस सृष्टि, रसोद्बोधन आदि शब्दों की रस-वस्तु के बराबर धुंधली चीज संसार में क्या कोई और है? यह केवल रस रचना के ही द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है, लेकिन फिलहाल वह समय मेरे हाथ में नहीं है।' रह तो हुई मेरी ओर की बात उस ओर की बात ठीक-ठीक नहीं जानता, किन्तु

अनुमान कर सकता हूं ।

- प्रियपात्रों ने जाकर कवि को पकड़ा, महाशय, हम लोग तो अब पार नहीं पाते, अबकी आप ही अस्त्र धारण कीजिए । ना-ना धनुषबाण नहीं, गदा घुमाकर फेंक दीजिए इस अति आधुनिक साहित्यिक बस्ती की ओर । लक्ष्य ? कोई जरूरत नहीं। वहां एक साथ बहुत-से रहते हैं।'

गई की वह गदा ही अन्धकार में आकाश से गिरी है। इससे ईप्सित लाभ भले ही न हो, शब्द और धूल बहुत उठी है। नरेशचन्द्र चौंककर जाग उठे हैं और विनीत कुछ काठ से बारम्बार प्रश्न करते हैं कि किसको लस्य किया है, बताइए? क्यों किया है, बोलिए? हां या ना कहिए ।

- किन्तु यह प्रश्न ही अवैध है। कारण, कवि तो रहते हैं बारह महीने में तेरह महीने विलायत । क्या जानें वह कि कौन हैं तुम लोगों की खड्गहस्ता, श् | चिधर्मी अनुरूपा और कौन है तुम्हारा वंशीधारी अशुचिधर्मी शैलजा, प्रेमेन्द्र, नजरुल इस्ताम कल्लोल, काली- कलम का दल ? वह कैसे जान सकते है कि कब किस महीयसी जननी ने अति आधुनिक साहित्यिकों का दलन करने के लिए भविष्यत् माताओं को सौर में ही सन्तानों को मार डालने का सदुपदेश देकर नैतिक उच्छवास की पराकाष्ठा दिखाई है और कब शैलजानन्द कुली-मजदूरों की नैतिक हीनता की कहानियां लिखकर अपनी कुलीनता (अभिजात्य) खो बैठे हैं? इन सब बातों को पढ़ने का समय, धैर्य और प्रवृत्ति, कुछ भी तो कवि के पास नहीं है, उन्हें बहुत से काम हैं । दैव संयोग से कभी एकाध टुकड़ा लेख जो उनकी नजर में पड़ गया है, उसी से उनकी धारणा हो गई है कि आधुनिक बंगला साहित्य की आबरू और आभिजात्य, दोनों ही जाते रहे हैं।' शुरू हुआ है चितपुर रोड के खचखच खचाक शब्द के साथ एक ही तरह के पद का पुनः पुनः चक्कर मारता हुआ गर्जन । आधुनिक साहित्यिकों के प्रति कवि के इतने बड़े अविचार से केवल नरेशचन्द्र के ही नहीं, मेरे भी विस्मय और दुख की सीमा नहीं है।'

शरतचन्द्र के इस लेख से काफी हलचल मची। शनिवारेर चिठि के सम्पादक सजनीकान्त दास ने उन पर तीव्र आक्रमण किया। वे ऐसा अवसर कभी नहीं चूकते थे जब शरत् बाबू पर आक्रमण किया जा सके। लेकिन इस बार और भी बहुत से लोगों ने अपनी अप्रसन्नता प्रकट की । उनका यह आक्षेप था कि शरतचन्द्र ने रवीन्द्रनाथ के प्रति अनुचित कटूक्ति की है । बाद में शरत् बाबू ने भी स्वीकार किया है कि शायद लिखने की त्रुटि के कारण वह जो कहना चाहते थे नहीं कह पाये और दूसरा ही अर्थ हो गया। लेकिन यह अक्षमता का दोष है, हृदय का नहीं।

शरतचन्द्र नये लेखकों के प्रति सदय ही नहीं थे, उनके प्रति आन्तरिक स्नेह भी रखते थे। कई वर्ष पूर्व  शिवपुर इंस्टीट्यूट की साहित्य सभा में रवीन्द्रनाथ अध्यक्ष होकर आये थे। उस सभा में भी आधुनिक लेखकों का बचाव करते हुए उन्होंने कहा था, भला ओर बुरा ससार में चिरकाल से है । शायद चिरकाल तक रहेगा। भले को भला, बुरे को बुरा आधुनिक लेखक भी कहता है। बुरे की वकालत करने के लिए कोई साहित्यिक कभी किसी दिन साहित्य सभा में खड़ा नहीं होता, किन्तु बहलाकर नीति शिक्षा देना भी वह अपना कर्त्तव्य नहीं समझता, दुर्नीति का भी प्रचार नहीं करता। थोड़ा-सा लाकर देखने से उनकी सभी दुर्नीति के मूल में शायद यही एक एकता मिलेगी कि वह मनुष्य का मनुष्य सिद्ध करना चाहता है।'

व्यक्तिगत रूप से भी वे उन्हें बड़ा प्यार करते थे। कवि नजरुल इस्ताम जेल में थे । किसी प्रल को लेकर उन्होंने अनशन कर दिया। उस समय शरत् बाबू उनसे अनशन तोड़ने का अनुरोध करने के लिए जेल गये थे। एक पत्र में उन्होंने लिखा है, हुबली जेल में हमारे कवि काजी नजरुल इस्ताम अनशन करके मरणासन्न हैं। एक बजे की गाड़ी से आ रहा हूं । देखूं, यदि मुलाकात करने दें और करने देने पर मेरे अनुरोध से वे फिर खाने को राजी हो जायें, न होने से उनके लिए आशा नहीं देखता । वे सच्चे कवि हैं। रवि बाबू को छोड़कर शायद इस समय दूसरा कोई और नहीं है।" 

शरत् बाबू मानते थे कि आधुनिक लेखक गलतियां करते हैं, परन्तु जब उन्हें समाज में अश्रद्धेय प्रतिपादित किया जाता था उन्हें बहुत दुख होता था । उन्हें यह बात भी बहुत पीड़ा देती थी कि आशुनइक लेखक गरीब हैं और इस कारण गन्दी बातों में पड़कर रुपया कमाना चाहते हैं। उनकी रचनाओं में वे संशोधन करते रहते थे। वे उन्हें विश्वास में लेते, तर्क करते, झगडू भी पडते, पर कभी यह प्रकट नही होने देते या ऐसा व्यवहार नहीं करते जिससे लगे कि आधुनिक लेखक छोटे हैं।

लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं था कि उन्होंने आधुनिक लेखकों को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया था । रवीन्द्रनाथ से संघर्ष के बाद साल भर तक उन्होंने आधुनिक लेखकों की रचनाएं पड़ीं और इस निर्णय पर पहुंचे कि सचमुच उनमें रस का अभाव है। जो अति आधुनिक साहित्य के नाम पर उन्हंखलता का प्रचार करते हैं, वे और जो कुछ भी करें साहित्य की सृष्टि नहीं करते। उस दिन कविगुरु ने जो कहा था वह बहुत गलत नहीं था । तीन वर्ष बाद 'शेष प्रश्न' को लेकर आधुनिक लेखकों ने उन पर जो आक्रमण किये उससे भी सम्बन्धों में कुछ अस्थायी तनाव आ गया था। इसमें अस्वाभाविक कुछ नहीं है । युगसन्धि के अवसर पर ऐसा होता ही है। नये लेखकों को प्यार करने पर भी उनकी अपनी साहित्यिक मान्यताएं थीं। वे मानते थे कि लेखन का असंयम साहित्य की मर्यादा नष्ट कर देता है। श्री केदारनाथ की एक पुस्तक की खूब प्रशंसा करने के बाद उन्होंने लिखा, भगवान आपको लिखने की असीम शक्ति दे, किन्तु यह बात नहीं भूली जा सकती कि ऐश्वर्यवान को ही मितव्ययी होने का प्रयोजन है। कंगाल के लिए यह आवश्यक नहीं । केवल लिखते जाना ही नहीं, रुकने की बात भी मन में होनी चाहिए।.

लेकिन शरतचन्द्र गुरुदेव से केवल इसी कारण नाराज नहीं थे कि वे आधुनिक लेखकों के प्रति क्रूर हो उठे थे बल्कि 'पथेर दाबी' की घटना के कारण जो उत्तेजना हुई थी वह भी अभी शान्त नहीं हुई थी। इसके अतिरिक्त 'षोडशी नाटक के गाने भी कविगुरु नहीं लिख पाये थे । 'साहित्य की रीति-नीति लिखते समय ये सभी बातें उनके मन में थीं। इसी कारण लेख में कहीं-कहीं व्यर्थ ही तीव्रता का समावेश हो गया हे।

रवीन्द्रनाथ ने दिलीपकुमार राय को कुछ पत्र लिखे थे। उन्हीं के संबंध में एक बार !! फिर उनका कविगुरु से संघर्ष हुआ। इन पत्रों के संबंध में श्री अतुलानन्द राय ने उनकी राय जाननी चाही थी। उत्तर में उन्होंने राय महाशय को एक बहुत लम्बा पत्र लिखा ।

घूमने परिचय' पत्रिका में श्री दिलीपकुमर राय को लिखित रवीन्द्रनाथ के पत्र साहित्य की

मात्रा' के संबंध में मेरी राय जाननी चाही है। यद्यपि यह पत्र व्यक्तिगत है फिर भी जब यह प्रकाशित हुआ है तो ऐसा अनुरोध शायद किया जा सकता है।

.. कविवर ने जिन लोगों के संबंध में निराशा के कारण पतवार छोड़ दी है तुम लोगों का सन्देह यह है किए उन लोगों में मेरी भी गिनती है। असम्भव नहीं है। इस निबन्ध में कविवर का अभियोग है कि वे (दूसरे लोग) प्रमत्त हाथी हैं, वे बकवास करते है, पहलवानी दिखाते हैं, कसरत करामात करने पर आमादा हैं, 'प्राब्लेम साल्व' करते हैं, इसलिए उनकी......इत्यादि, इत्यादि ।

"बातें चाहे जिनके संबंध में कही गई हों, न तो ये सुन्दर हैं और न कानों को अच्छी लगती हैं। श्लेष और विद्रूप के वातावरण के कारण मन में एक इरिटेशन पैदा होता है। इससे कला का उद्देश्य व्यर्थ हो जाता है और श्रोता का मन भी खिन्न होता है। इसके साथ ही जैसे क्षोभ प्रकट करना बेकार है, प्रतिवाद करना भी वैसे ही व्यर्थ है। मैंने किसकी बोली तोते की तरह रटी, कब मैंने पहलवानी दिखलाई, कहां खेल दिखाया, क्य कविवर के निकट यह जिज्ञासा अवान्तर है मुझे अपने बचपन की याद आती है। खेल के मैदान में किसी ने यह क्ट दिया कि फलाने ने टट्टी पर पैर रख दिया, बस फिर क्या है, कहां पैर रख दिया, किसने कहा, किसने देखा, वह टट्टी नहीं थी, गोबर था, यह सब कहना व्यर्थ होता था। धर आने पर मां आदि बिना नहलाये तथा बिना सिर पर गंगाजल का छींटा दिये घर में दाखिल नहीं होने देती थीं। मेरी भी इस समय वही हालत है।' 'साहित्य की मात्रा' ही क्यों, कविवर के ऐसे निबन्धों में से अधिकांश को समझने की मुझमें बुद्धि नहीं है। उनके उपमा उदाहरण में कलकके, हाट-बाजार, हाथी-घोड़ा, जन्तु हैवान सब आते हैं, पर यह समझ में नहीं आता है कि मनुष्य की सामाजिक समस्याओं और नर-नारी के परस्पर संबंध पर विचार करते हुए ये क्यों आते हैं और इनसे क्या प्रमाणित होता है? सुनने में अच्छी लगने पर भी वह युक्ति तो नहीं होती।

यक उदाहरण देता हूं। कुछ दिन पहले हरिजनों के प्रति होने वाले अन्याय से दुखी होकर उन्होंने प्रवर्तक संघ के मति बाबू को रक पत्र लिखा था। उसमें उन्होंने यह शिकायत की थी कि ब्राह्मणी की पाली हुई बिल्ली जूठे मुंह से उसकी गोद में जाकर बैठ जाती है, इससे उसकी पवित्रता नष्ट नहीं होती और वह इस पर आपत्ति नहीं करती। बहुत सम्भव है कि वह आपत्ति नहीं करती, पर इससे हरिजनों को कोई सुविधा हुई? इससे क्या प्रमाणित हुआ? बिल्ली की युक्ति पर ऐसा तो ब्राह्मणी से नहीं कहा जा सकता कि फूंकइ अत्यन्त निकृष्ट जीव बिल्ली जाकर तुम्हारी गोद में बैठी है और तुमने कोई आपत्ति नहीं की, इसलिए अत्यन्त उकृष्ट जीव में भी आकर तुम्हारी गोद में बैला और तुम आपत्ति नहीं कर सकतीं। बिल्ली क्यों गोद में बैठती है, चींटे क्यों थाली पर चढ़ते हैं, इन सब तकी से मनुष्य के साथ मनुष्य के न्याय या अन्याय का विवेचन नहीं हो सकता। ये सब उपमाएं सुनने में अच्छी लगती हैं, चटकीली हैं, पर कसौटी पर कसने पर बहुत ही तुच्छ प्रमाणित होती हैं ...... आधुनिक काल के कल-कारखानों की विभिन्न कारणों से बहुत से लोग निन्दा करते हैं। रवीन्द्रनाथ भी करते हैं। इसमें कोई दोष की बात नहीं है, बल्कि यह फैशन हो गया है, पर इस अतिनिन्दित वस्तु के सम्पर्क में जो लोग इच्छा या अनिच्छा से आते रहते हैं, उनके सुख-दुखों के कारण भी जटिल हो गये हैं, उनकी जीवन-यात्रा के तरीके भी बदल गये हैं। और किसानों के जीवन से उनका जीवन हुबहू नहीं मिलता, इस पर भले ही कोई अफसोस करे, पर यदि कोई इन लोगों के जीवन की विचित्र घटनाओं पर कहानी लिखे तो वह साहित्य क्यों नहीं होगा? हां, कविवर भी ऐसा नहीं कहते कि वह साहित्य नहीं होगा। वे केवल इस बात पर आपत्ति करते हैं कि साहित्य की मात्रा का लंघन न किया ये, पर इस मात्रा का निर्णय किस प्रकार होगा? कलह से होगा या कटु वाक्यों से होगा? कविवर का कहना है कि इसका निर्णय साहित्य की चिरन्तन मूल नीति र्का कसौटी से होगा, पर यह मूल नीति लेखक की बुद्धि की अभिज्ञता और रसोपलब्धि के आदर्श के अलावा कोई और वस्तु है क्या? चिरन्तन की दुहाई जबर्दस्ती ही दी जा सकती है। असल में वह मरीचिका- मात्र है।

- कविवर कहते हैं कि उपन्यास साहित्य की भी यही दशा है। मनुष्य के प्राण का रूप चिन्तन

के स्तूप के नीचे दब गया है। पर उसके जवाब में यदि कोई कहे कि उपन्यास साहित्य की यह दशा नहीं है। मनुष्य के प्राण का रूप चिन्तन के स्तुप के नीचे दबा नहीं है, वह विचार के सूर्यलोक में ओर उज्जल हो गया है तो उसे किस तर्क से रोका जा सकता है? इसी के साथ-साथ एक और बात आजकल प्रायः सुनने में आती है। उसमें रवीन्द्रनाथ ने भी हाथ बटाया है। वह यह कि यदि कोई मनुष्य कहानी कई मजलिस में आये तो वह कहानी ही सुनना चाहेगा, बशर्ते कि वह सही दिमाग हो। इस वचन को स्वीकार करते हुए भी यदि पाठक कहें कि हां, हम सही दिमाग हैं, पर ज़माना बदल गया है और हमारी उग्र भी बड़ी है, इसलिए राजकुमार और मेढ़क मेढकी की कहानी से हमारा पेट नहीं भरता, तो यह नहीं कहा जा सकता कि यह उत्तर बहुत गुस्ताखी भरा है। वे अनायास ही ऐसा क्क सकते हैं कि कहानी में चिन्तनशक्ति की छाप रहने पर यह परित्याज्य नही होती, यह विशुद्ध कहानी लिखने के लिए लेखक को चिन्तनशक्ति विसर्जित करने की जरूरत नहीं है। गईवर ने महाभारत और रामायण का उल्लेख करते हुए भीष्म और राम के चरित्रों की आलोचना करके यह दिखलाया है कि रटी रटाई बोली के कारण दोनों चरित्र उभर नहीं पाये । इस पर मैं आलोचना नहीं करूंगा क्योंकि वे दोनों न केवल काव्य-ग्रन्थ हैं, बल्कि धर्म-पुस्तकें भी हैं, और शायद कुछ इतिहास भी है। महज साधारण उपन्यास के बनाए हुए चरित्र नहीं भी हो सकते हैं। इसलिए उन्हें साधारण कव्य-उपन्यास के गज से नापते हुए मैं हिचकिचाता हूं।

फदिवर के पत्र में इण्टलेक्ट' ज्ञन्द क्त बार-बार प्रयोग हुआ है। ऐसा मालूम होता है, जैसे कविवर विद्या और बुद्धि दोनों ही अर्थों में इस शब्द को ले रहे है। प्रास्तेम' शब्द का भी यही हाल है। उपन्यास में तरह-तरह की प्रान्सेम' रहती है; व्यक्तिगत, नीतिगत, सामाजिक, सांसारिक । इसके अलावा कहानी की अपनी प्रान्तेम होती है, वह प्लाट की प्रास्तेम है, इसी की गांठ सबसे जटिल होती है । इमारसम्भव की प्राब्लेम, उत्तरकाण्ष में राम की प्रास्तेम, डाल्स हाउस' में नोरा की प्रान्तम, योगायोग' में कुमु की प्राक्लेम एक तरह की नहीं है। जब चोगायोग उपन्यास विचित्रा में धारावाहिक स्म से प्रकाशित हो रहा था और अध्याय के बाद अध्याय में कुमु जो हंगामा मचाती जा रही थी तो मैं यह सोच ही नहीं पा सका था कि दुर्घर्ह-प्रबल पराक्रान्त मधुसूदन के साथ उसके टग आफ बार क अन्त किस प्रकार होगा? पर कौन जानता था कि समस्या इतनी मामूली थी और लेडी डाक्टर एक मिनट में आकर उसकी मीमांसा कर देगी। हमारे जलधर दादा को भी प्राब्लेम फूटी आखों नहीं भाती। उनकी एक पुस्तक में इसी तरह एक आदमी ने बहुत भारी समस्या की सृष्टि की थी, पर उसकी मीमांसा एक दूसरे ही उपाय से हो गई। एक असली नाग ने आकर फनफना कर उसे काट लिया। मैंने दादा से पूछा कि भई, यह क्या हुआ? इस पर उन्होंने कहा, एां इसमें क्या बात है, क्या सांप कभी किसी को नहीं काटता?".

"अन्त में एक बात और कहनी है। रवीन्द्रनाथ ने लिखा है, एक जमाने में इन्सन के नाटकों खई बड़ी कद्र थी, पर उसी बीच में क्या उनका रंग फीका नहीं पड़ गया? बाद को क्या वे आखों से बिलकुल ओझल नहीं हो जाएंगे ?. ओझल हो सकते है, पर एक अनुमान मात्र है, प्रमाण नहीं। बाद में किसी समय ऐसा भी हो सकता है कि इअन का पुराना आदर फिर लौट आये। वर्तमान कल ही साहित्य का चरम हाईकोर्ट नही है।.

इस पत्र के कारण शरत् के र्य भक्त और मित्र अप्रसन्न हो उठे। कवि भी कम सुब्ध नहीं ख। उन्होंने प्रतिवाद करते हुए शरत् को लिखा कि उस लेख में उनका इशारा शरत् की ओर नही था - "विश्वास करो मैंने ऐसा नही किया। तुमने बार-बार मुझ पर तीक्षा कठोर भाषा में आक्रमण किया है। लेकिन मैंने कभी खुले आम या गुप्त स्म से निन्दा करके बदला नहीं लिय। इस रचना ने उस फैरिस्त में एक अंक और जोड़ दिया है।.

स्वयं शरत् बाबू के दुख की कोई सीमा नही थी। उन्हें लगा जैसे कवि से उनका संबंध अब पूरी तरह टूट गया है- “जो लिख गया वह अब वापस नहीं लिया जा सकता। कवि से मेरा विच्छेद शायद पूर्ण हो गया है।.... तू.. लेकिन न जाने क्या हो गया, चरिचय' की रचना को पढ़ते ही सारे बदन

में आग लग गई। तब कागज़ कलम लेकर चिट्ठी लिख डाली ।" 

इसके बाद भी कविगुरु के प्रति उनका आक्रोश शान्त नहीं हुआ। दिलीपकुमार राय को एक पत्र 13 में उन्होंने फिर लिखा, "उपमा या उदाहरण कुछ भी रवीन्द्रनाथ की तरह निरर्थक और असम्बद्ध न हों और तर्क किसी बात से भी वाष्पाच्छादित न हो जाएं। मनुष्य को अलंकारों से सुसज्जित करने की रुचि और है और सुनार की दुकान में शो-केस को अलंकारों से सुसज्जित करने की रुचि और है। यह बात हर समय याद रखनी चाहिए। अलंकृत वाक्य का बोझ कितना पीड़ादायक है, यह बात सिर्फ पाठक ही समझ सकते हैं।”त्रिस कविगुरु के साथ उनके ये संघर्ष कभी-कभी उग्र रूप अवश्य धारण कर लेते थे, लेकिन जैसे ही आवेश आक्रोश की तीव्रता समाप्त होती वे पश्चात्ताप की आग में जलने लगते। मित्रों को पत्र लिखकर बार-बार स्पष्टीकरण देने की चेष्टा करते। एक पत्र 14 में उन्होंने लिखा-

"इसके अलावा मेरे मन में इस संबंध में कोई अफसोस सचमुच ही इस बात का नहीं है और न उद्वेग है कि मुझसे कौन बड़ा और कौन छोटा है। यदि रवीन्द्रनाथ यह कह देते कि मेरी कोई भी रचना उपन्यास पद वाक्य नहीं है, तो उससे सामयिक रूप से वेदना पहुंचने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। शायद यह विश्वास करना कठिन है, और शायद ऐसा जंचे कि मैं बहुत अधिक दीनता दिखला रहा हूं, पर यही साधना मैंने सारी जिन्दगी की । इसलिए किसी आक्रमण का भी प्रतिवाद में नहीं करता । यौवन में (प्रौढ़ावस्था में भी) एकाध बार रवीन्द्रनाथ के विरुद्ध मैंने कुछ कहा था, पर वह मेरी प्रकृति नहीं, विकृति थी । बहुत-से कारण थे, शायद इसीलिए मैंने यह गलती की।” बार-बार उन्होंने दिलीपकुमार से कहा, "विश्वास करो, वह सचमुच ही विराट् पुरुष हैं। उन जैसे स्वांग सुन्दर मनुष्य का आविर्भाव हुआ है, इसीलिए सोचता हूं कि हमारी जाति की अकाल मृत्यु न होगी। इसी युग में दो महाप्राण पुरुषों ने इस देश का मुख उज्जवल किया है, वे हैं रवीन्द्रनाथ और देशबन्धु .........

कविगुरु ने कई बार शरत् बाबू की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है, परन्तु शरत् बाबू को यह क्षोभ बराबर बना रहा कि गुरुदेव ने कभी उनको सहज भाव स्वीकार नहीं किया । उन्होंने अपने पत्र में छोटा-बड़ा होने की बात कही है। ठीक ऐसी ही बात रवीन्द्रनाथ ने दिलीपकुमार को लिखे अपने एक पत्र में कही थी। 15 ये प्रश्न इन महारथियों को क्यों परेशान करते थे, इस पर कविगुरु का यह पत्र प्रकाश डालता है, जो उन्होंने शरत् बाबू की मृत्यु के बाद प्रबोधकुमार सान्याल को लिखा था- "शरत् की मृत्यु पर एक चौपदी सार्वजनिक रूप से भेज देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सका। मुझसे शरत् जो प्रशस्ति पा सकते थे, वह मैंने बिना सोचे-समझे उनकी मृत्यु से पूर्व ही अकृपण भाव से दे दी थी। मेरी मृत्यु पर शरत् इस बात को कृतज्ञता के साथ याद करते जान पड़ता है, मेरे मन में यही लालच था, लेकिन भाग्य में उल्टी बात हो गई। मेरे जीते रहते ही अकारण असहिष्णु होकर शरत् ने मेरे प्रति अविचार किया। यदि ठीक समय पर मृत्यु होती तो निस्सन्देह ही वह यथोचित भाव से उस ग्लानि के लिए पश्चात्ताप कर जाते।

“मेरे जीवनकाल में बंगला साहित्य के तीन पर्व दिखाई दिए। जब में सभा में जाजम के एक कोने पर बैठा था, तब कवि के उंचे आसन पर थे हेमचन्द्र और नवीनचन्द्र सिंहासन पर बैठे थे बंकिमचन्द्र । मधुसूदन विदा हो चुके थे। उनके चले जाने से कुछ पहले ही दूसरा पर्व आरम्भ हो गया। पहले पर्व में में सबसे छोटा था और दूसरे पर्व में सबसे बड़ा । इसका परिणाम यह हुआ कि साहित्यिकों के साथ उम्र की दृष्टि से मेरा संबंध स्थापित नहीं हो सका। अकेला पड़ गया। सौभाग्य से अकृत्रित श्रद्धा के कारण आयु की बाधा पार करके सत्येन्द्र मेरे पास आ सका था। दोनों के इस मिलन से जो रस पाया उससे मुझे जान पड़ता है, बहुत लाभ हुआ। मेरा विश्वास है कि मनुष्य के रूप में मेरे पास आने पर उन्होंने मुझको कवि के रूप में ही वास्तविक रूप से प्राप्त किया।

"तीसरा पर्व आरम्भ हुआ शरत को लेकर नयों के साथ उनका जितना सामीप्य संबंध स्थापित हो सका, अपने से पहलों के साथ वैसा न हो सका। वे पूरी तरह अपने देश और अपने काल के हैं। यह सहज बात नहीं है। सुनने पर यह स्वतः विरोधी लगता है, किन्तु देखा जाए तो कृत्रिम होना सहज है, पर स्वाभाविक होना सहज नहीं है। इस प्रकार अपने देश-काल के साथ घनिष्ट भाव से मिल जाना सबके भाग्य में नहीं होता। सभी अपने देश और काल में जन्म ग्रहण करते हैं, ऐसा नहीं है। जन्म विधाता पैदा होने वाले के स्थान निर्णय करने के उपलक्ष्य में सब समय वर्तमान समय का निर्णय करके नहीं चलते। साहित्य में उसका फल विचित्र होता है। यथोचित देश-काल के चिर निर्वासन में जिन्होंने जन्म लिया है उन लोगों का अभाव भी नहीं है। सृष्टि वैचित्र्य के लिए उनका भी प्रयोजन है। कहना व्यर्थ है कि शरत् अचानक ही बंगला साहित्य की मण्डली में आ पहुंचे। अपरिचय से परिचय क्षेत्र में आते देर नहीं हुई। जान-पहचान होने से पहले ही वे परिचित मनुष्य हो गये। द्वारपाल ने उन्हें रोका नहीं। साहित्य में जहां पाठकों का चित्त परिचय और लेखक का आत्म-परिचय बिना किसी व्यवधान के एक साथ हो जाता है, वहां ऐसा ही होता है। पूर्वराग और अनुराग के बीच में समय नष्ट नहीं होता। उसी समय से, कर्म और आयु के भेद से, मैं दूर पड़ गया। कलकत्ता का निवास स्थान भी छोड़ दिया। मेरे संबंध में नाना प्रकार की बातें चल निकलीं। उनमें से अधिकांश न सत्य थीं न प्रिय उससे मेरा मन और भी दूर चला गया। उसी समय शरत् का उदय हुआ। शान्ति के लिए जिस एकान्त में आश्रय लेकर अपने काम में लग गया वहां से शरत के साथ पास से मिलने का सुयोग नहीं हुआ।

“कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं, जिनके प्रत्यक्ष परिचय से परोक्ष परिचय अधिक सुगम होता है । शरत् उस जाति के मनुष्य नहीं हैं। उनके पास जाकर ही उनको पाया जा सकता था। मेरी वह हानि हो गई। फिर भी उनसे मिलना-जुलना या बातचीत नहीं हुई, ऐसा नहीं है। केवल मात्र मिलना नहीं, यदि पहचान हो सकती तभी अच्छा होता। समकालीन होने का सुयोग सार्थक होता हुआ नहीं, किन्तु उसी समय विस्मयजनक आनन्द से भरकर दूर से ही मैंने उनकी रचना बिन्दो का लल्ला', 'विराज बहू', 'राम की सुमति', 'बड़ी दीदी' पढ़ ली है । सोचा है, मन का मनुष्य पा लिया। मनुष्य को प्यार करने के लिए इतना ही काफी है।”

परन्तु यह काफी नहीं हो सका। मनुष्य शरत्चन्द्र और मनुष्य रवीन्द्रनाथ घनिष्ठ भाव से एक-दूसरे के पास नहीं आ सके और इसी कारण संघर्ष के अवसर आते रहे और जो व्यक्ति इन दो प्रतिभाओं को आपस में टकराते देखकर प्रसन्न होना चाहते थे, वे उस संघर्ष को बढ़ाने में योग देते रहे। शरत् की दृष्टि वर्तमान काल पर थी। रवीन्द्र शाश्वत मानव के विराट चितेरे थे। शरत् मात्र अन्याय का विरोध करते थे और वे किसी भी तरह मनुष्य को छोटा करके नहीं मानते थे। पतिताओं में निहित नारीत्व को उन्होंने प्रकट किया है। यही उनका जीवन-दर्शन था, परन्तु उनके नर-नारी इसी देश के अधिक थे। इसके विपरीत कविगुरु चिरकाल के सत्य को आदर्श के रूप में बार- बार देश और समाज के सामने स्थापित करते रहते थे। बंकिम देव के उपासक थे, वे विश्व मानव थे, उनकी अनुभूति अतीन्द्रिय थी, परन्तु शरत्चन्द्र ने धरती की धूल को महिमान्वित किया। उन्होंने बंगाल की अपनी भाषा का प्रयोग किया। बंगाल के नर-नारियों के ( मानव के) प्रेम की चर्चा की। उनके यथार्थवाद में, यदि वह यथार्थवाद है, सम्वेदन और करुणापूर्ण चित्त का स्पर्श है। दोनों में यही मौलिक अन्तर था।

एक और भी अन्तर था और वह बहुत महत्वपूर्ण था। कविगुरु अभिजात वर्ग के थे, शरत् थे चिर व्रात्य। यही अन्तर अनजाने ही उत्तेजना के क्षणों को और भी कटु बना देता था। अन्यथा कविगुरु ने शरत् बाबू की प्रतिभा का सम्मान करने का कोई अवसर नही चूकने दिया। शरत्चन्द्र भी कविगुरु को सदा ही गुरु स्थानीय और वेदव्यास के बाद सर्वोत्तम कवि मानते रहे तथा मन की सारी श्रद्धा के साथ प्यार करते रहे। मानते रहे कि वे कविगुरु के समान कभी नहीं लिख सकते।

मृत्यु से चार माह पूर्व, 62वीं जन्म जयन्ती के अवसर पर रेडियो द्वारा आयोजित 'शरत् शर्वरी'

में अभिनन्दन का उत्तर देते हुए सर्वप्रथम उन्होंने कविगुरु को ही प्रणाम किया था और उनका आशीर्वाद चाहा था।

यही आशीर्वाद उनके लिए सत्य था। शेष सब क्षणिक उत्तेजना का उफान था। जो महान हैं वे सदा महान रहते हैं। उनकी रुष्टता भादों के बादल के समान होती है जो बरसकर दूसरे ही क्षण अन्तर्धान हो जाती है। रवीन्द्र जयन्ती समारोह में दिया गया शत्तू बाबू का व्याख्यान बंगला साहित्य के इतिहास की सम्पदा है।

और यह भी सत्य है कि विश्व साहित्य में महान सृष्टा शिल्पियों के ऐसे संघर्षों के उदाहरण कम नहीं हैं। तुर्गनेव ने ताल्स्ताय की प्रतिभा को सबसे पहले स्वीकार किया, लेकिन शीघ्र ही किन्हीं कारणों से वह प्रशंसा अप्रिय संघर्ष में बदल गई। दोनों ने बार-बार एक-दूसरे पर आक्रमण किए, बार-बार क्षमा मांगी। मृत्युशय्या पर लेटे तुर्गनेव ने दर्द-भरे शब्दों में लिखा, "मैं कितना प्रसन्न हूं कि मैं तुम्हारा समकालीन हूं। मेरे मित्र, मेरी अन्तिम प्रार्थना स्वीकार करो। अपनी सृजनात्मक गतिविधियों की ओर फिर ध्यान दो....मेरे मित्र, मेरे देश रूस के महान लेखक, मेरी प्रार्थना पर अवश्य ही ध्यान दो, आज्ञा दो कि मैं तुम्हारा एक बार फिर स्नेह से आलिंगन करूं...... मैं और नहीं लिख सकता, मैं थक गया हूं।”

सचमुच दो महीने बाद ही तुर्गनेव की मृत्यु हो गई और ताल्स्ताय ने एक बार फिर तुर्गनेव की रचनाओं का अध्ययन शुरू कर दिया।......

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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भूमिका

21 अगस्त 2023
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संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

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भूमिका : पहले संस्करण की

21 अगस्त 2023
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कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

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तीसरे संस्करण की भूमिका

21 अगस्त 2023
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लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

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" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

21 अगस्त 2023
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किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

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अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

21 अगस्त 2023
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भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

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अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
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नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

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अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
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मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

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अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
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शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

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अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
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तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

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अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
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शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

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अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
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इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

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अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

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अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
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शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

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अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
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उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

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अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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