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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023

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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर्मलचन्द्र चन्द्र' के साथ उन्होंने रूप और रंग? Lका सम्पादन भी कुछ दिन किया । 'भारत लक्ष्मी' का सम्पादन करने के लिए भी वे सहमत हो गए थे। अपने एक पत्र में उन्होंने लिखा था 'भारत लक्ष्मी' नामक एक नये पत्र का सम्पादक बनने के लिए राज़ी हो गया हूं। आज एक चिट्ठी लिखी है। अगर उन शर्तों पर तैयार हुए तो सम्पादन का भार ले सकता हूं। संसार में बहुतेरे लोगों के बारे में जो होता है मेरे बारे में भी वही होगा । अर्थात् संसार में बुद्धिमान और बेवकूफ दोनों ही हैं और एक पक्ष की जीत होती है। अधिक न होने पर भी पांच-छः हजार का जमानतदार हूं। सोचा है कि 'भारत लक्ष्मी' में शामिल होकर इसे चुका दूंगा। वे मुझे चौथाई का हिस्सा देंगे। अब सांसारिक बुद्धि वाले जैसा आचरण करते हैं, मैं भी वैसा ही करूंगा। अर्थात् ठगा न जाऊंगा। दशहरे के बाद ये सारी बातें तफसील से तय करूंगा। लेकिन इसी बीच परिचित- अपरिचित साहित्यिक बहुतेरे लोग लिश्न रहे हैं कि उनकी रचना लेकर पेशगी रुपये भेजूं । हाय, इतनी शक्ति यदि होती, किन्तु इसी शक्ति की परम आवश्यकता है।.......

लेकिन यह शक्ति शायद उन्हें कभी नहीं मिली। हां, अपनी अर्जित सम्पत्ति में से वे नाना व्यक्तियों की नाना रूपों में सहायता करते रहे। काशी में सम्भ्रान्त परिवार की एक वृद्धा बंगालिन रहती थी। बालपन में ही विधवा हो गई थी। पढ़ी-लिखी थी। खूब खाना- पकाना और खिलाना जानती थी लेकिन बुढ़ापे में उसकी आखें बिलकुल खराब हो गईं। एक दिन उसने शरत् बाबू को बेटा कहकर पुकारा था, उस समय से अपने मित्र हरिदास शास्त्री के द्वारा वह बराबर उसकी सहायता करते रहे। लेकिन अपना नाम कभी प्रकट नहीं होने दिया । वृद्धा यही समझती रही कि यह पैसा हरिदास का ही है। गप्त रूप से सहायता करने का जैसे उनका स्वभाव था। कछ दूर पर एक विधवा मुडिवाली - रहती थी। उसके कोई सन्तान भी नहीं थी। गुप्त रूप से उसकी सहायता करने के उद्देश्य से ही उन्होंने बड़ी बहू को आदेश दिया था कि वे प्रतिदिन उससे छी खरीदा करें। गरम पुडी खाना उन्हें बहुत अच्छा लगता था।

छोटा भाई प्रकाशचन्द्र उन्हीं के साथ रहता था। बड़े चाब से उन्होंने उसका विवाह 3 किया । कन्या के पिता की अवस्था बहुत अच्छी थी, परन्तु उन्होंने दान-दहेज की जरा भी चिन्ता नहीं की। बड़ी बहू ने सहज उदारता के साथ अपने सब गहने देवरानी को चढ़ा दिए।

उनका यह भाई कभी कुछ नहीं कर सका। कुछ करने योग्य न तो उसे कोई शिक्षा मिली थी और न वातावरण ही। अभावों में वह पला और जमींदारों की नाटक मण्डलियों में स्त्रियों का अभिनय कर-करके बड़ा हुआ। वहां वह पीना ही सीख सकता था । जीवन-भर शरत् बाबू अपने इस भाई का और उसके परिवार का पोषण करते रहे।

ऐसी मानवीय करुणा से ओतप्रोत होने के बावजूद स्वयं उनकी प्रसिद्धि अनीति के प्रचारक के रूप में जरा भी कम नहीं हुई थी। लोग बराबर मानते रहे कि वे इतनी शराब पीते हैं कि तौबा और भी न जाने कितने कल्पनीय अकल्पनीय ऐब हैं उनमें न जाने कितने सम्मेलन उन्हें अध्यक्ष के रूप में पाकर गौरवान्वित हुए। न जाने कितनी सभाओं ने उनका अभिनन्दन किया, परन्तु उनके मुंह पर ही उनकी निन्दा करने वालों की संख्या में कोई कमी नहीं हुई। कभी परोक्ष रूप में, कभी अपरोक्ष रूप में भाषणकर्ता उन्हें लक्ष्य करके बहुत कुछ कह जाते थे। चितपुर में एक पुस्तकालय के स्थापना दिवस पर होने वाली सभा की अध्यक्षता करने के लिए उन्हें आमन्त्रित किया गया था लेकिन उसी सभा में एक सज्जन ने भाषण करते हुए कहा, हम लोगों ने बड़े उत्साह से पुस्तकालयों की स्थापना करने की ओर ध्यान दिया है। लेकिन कभी-कभी सोचता हूं ऐसा करने से क्या लाभ? क्या पढ़ने लायक अच्छी किताबें निकल रही हैं? कोई लिख रहा है? साहित्य में न तो आज नीति है और न रुचि । सब कुछ गन्दगी से भरा हुआ है। और इस गन्दगी के लिए खास तौर से जिम्मेदार हैं हमारे आज के अध्यक्ष ।

शरत् बाबू अध्यक्ष पद पर बैठे हुए यह सब कुछ चुपचाप सुनते रहे। जब उनके भाषण देने का समय आया तो उन्होंने केवल इतना ही कहा, रेखिए, अच्छी किताबें अगर नहीं निकल रही हैं तो आप लोग एक काम कीजिए, पुस्तकालय बन्द कर दीजिए। एक संकीर्तन दल बनाइए । पुस्तकालय स्थापित कर देश के लोगों में गन्दगी न फैलाकर कीर्तन दल बनाकर मोहल्ले-मोहल्ले में कीर्तन का प्रचार कीजिए। यह अच्छा सत्कर्म होगा।

एक मजिस्ट्रेट थे श्री यतीन्द्रमोहन सिंह उन्होंने 'साहित्य की स्वास्थ्य-रक्षा' नाम से एक पुस्तक लिखी। इसमें उन्होंने शरत् बाबू पर तीव्र आक्रमण किए। इस पुस्तक का उतना ही तीव्र विरोध हुआ और एक दिन अपने आप ही यह समाप्त भी हो गई। लेकिन कहते हैं, एक दिन उनकी शरत् बाबू से भेंट हो गई थी। अनितिमूलक साहित्य र्का चर्चा चलने पर शरत् बाबू ने कहा, गझे विश्वास है कि आप सच्चरित्र व्यक्ति हैं। आप तो कभी वेश्या के यहां गए नहीं होंगे?"

यह सुनकर मजिस्ट्रेट साहब हतप्रभ ही हो सकते थे। हां या ना में उत्तर देना उनके लिए सम्भव नहीं था। शरत् बाबू ने ही कहा, 'अब जब आपको अनुभव ही नहीं है तो आपसे क्या बात करें?"

जिस प्रकार वे जीवन भर अनीति के प्रचारक के रूप में प्रसिद्ध रहे, उसी प्रकार आवारा जीवन की ललक भी कभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई। प्रतिवर्ष जगद्धात्री पूजा के अवसर पर वे भागलपुर मामा-बाड़ी में जाते थे। जब वे बर्मा से लौटे थे तो उन्होंने मामा- परिवार से, विशेषकर बचपन के अपने सहपाठी मणि मामा से संबंध सुधारने का बहुत प्रयत्न किया था। एक बार ये मामा बेटी के विवाह के संबंध में कलकत्ता आए थे। उस समय सुरेन्द्रनाथ ने शरत् बाबू को सलाह दी, 'इस अवसर पर तुम उपहार भेजो। '

शरत् बाबू ने उत्तर दिया, यणि मामा नहीं लेंगे।

सुरेन्द्रनाथ ने कहा, 'तुम भजॉ, बाकी हम देख लेंगे। '

शरत् बाबू ने ऐसा ही किया और, जैसा कि हो सकता था, उसे देखकर मणि मामा तुरन्त बोले, नही, यह नही लिया जाएगा। इसे लौटा दो। '

मामी ने कहा उपहार नहीं लौटाया जा सकता। लेना ही होगा। '

नहीं, नहीं...... मणि मामा और भी कुद्ध हो उठे कि तभी सुरेन्द्र ने आकर उनसे कहा- रादा, शरत् आए हैं।

कहां हैं?"

सामने आकर शरत् बाबू ने मणि मामा के पैर पकड़ लिए। कहा, 'मुझे क्षमा कर दो। क्षण-भर में मामा का राग- अभिमान दूर हो गया । काठ अवरुद्ध और आखें भरी भरी। इतना ही कह सके, 'शादी में आना, समझे!'

शरत् बाबू के लिए मामा-बाड़ी के द्वार खुल गए। मणि मामा की मृत्यु के बाद तो उन्होंने जैसे वहां जाने का नियम बना लिया था। उस समय वे यथाशक्ति अपना पुराना जीवन जीने की चेष्टा करते थे। चाय, तम्बाकू और हंसी-मजाक चलता था। खाने के लिए दिन में चार बज जाते और रात में एक आते ही घर के सब नियम उलट-पुलट कर देते थे। यह उनकी प्रकृति थी। बच्चे उन्हें बहुत प्यार करते थे। वे आते और सीधे गंगा तट पर पहुंच जाते और ढेरों खिलौने लाकर बच्चों के सामने बिखेर देते। फिर आता मिठाईवाला, अरे, इतने से क्या होगा, और लाओ और चाय लाओ। और तम्बाकू लाओ।' बस यही पुकार वे लगाते रहते।

पूजा के समय नाटक भी होते थे। उस बार उन्होंने 'चन्द्रगुप्त' नाटक को मंचस्थ करने का निर्णय किया और तुरना गिरीन्द्रनाथ को बुलाकर कहा, इस बार 'चन्द्रगुप्त' नाटक का एक दृश्य करने की इच्छा है। तुम 'चाणक्य' का अभिनय करो। प्रफुल्ल कात्यायन' बनेगा । शचि 'भिक्षु' और देवी प्रॉम्पटर'।'

ऐसा ही हुआ। जब शरत् बाबू भिक्षुक का गाना नहीं सुन सके तो रोते-रोते अपने कमरे में चले गए और वहीं अंधेरे में बैठकर अभिनय देखते रहे।

कीर्तन भी उसी तरह होता और वे लेटे-लेटे सुनते रहते। बीच में सहसा बोल उठते, -रासबिहारी, ओ कुब्जार बन्धूटि' गाओ। '

यह उनका बड़ा प्रिय गाना था। लेकिन इसे वे कभी पूरा नहीं सुन पाते थे। बीच में ही रो पड़ते और भाग जाते।

बोलि ओ कुब्जार बन्धु

तोमाय राधानाथ आर बोलबो ना हे ओ कुलनार बन्धु रासबिहारीदास

- मुझे भी एक दो । '

तुलसी की माला भी तैयार करते थे। एक दिन शरत् बाबू ने कहा,

सुरेन्द्रनाथ ने पूछा, 'तुम पहनोगे?

"हां, बडी इच्छा है।"

रासबिहारी ने उसी दिन परिश्रम से माला तैयार की। शरत् बाबू ने उसे पहना और बहुत प्रसन्न हुए। लेकिन उस दिन जैसे पुराने यायावर जीवन की याद आ गई हो। उन्होंने कहा, "इस बार भागलपुर से स्टीमर के मार्ग से कलकत्ता जाएंगे। घूमना हो जाएगा।"

बस सुरेन्द्रनाथ और गिरीन्द्रनाथ को साथ लेकर चल पड़े। साथ में नौकर-चाकर और बहुत-सा सामान। इतना कि दो- तीन घोड़ागाड़ियों में भी नहीं आया। स्टीमर घाट पर पहुंचे। बहुत देर तक कोई जहाज नहीं दिखाई दिया। निश्चय किया कि पहले जिस ओर का जहाज आएगा उसी में बैठकर चल दंग पश्चिम की ओर से आएगा तौ पूर्व र्का ओर चलेंगे और पूर्व क और सं आएगा तो पश्चिम की ओर।

मामा ने पूछा णश्चिम की ओर कहां चलेंगे?"

उत्तर दिया, “कहीं भी । रवीन्द्रनाथ भी तो गाजीपुर तक हो आए है।"

सौभाग्य से कलकत्ता जाने वाला जहाज ही पहले आ गया। लेकिन मार्ग उसका बड़ा विकट था। आगे चलकर पद्मा नदी से होकर गुआलन्दी पहुंचना था। वहां से सुन्दर बन होकर फिर डायमण्ड हार्बर द्वारा खिदिरपुर आते थे।

शरत् बाबू अपने सभी साथियों के साथ प्रथम श्रेणी के टिकट लेकर केबिन में पहुंच गए। नौकर को गुड़गुड़ी तैयार करने का आदेश दिया। पास ही कप्तान का केबिन था। गुड़गुड़ी की आवाज सुनकर उसने तुरन्त एक खलासी को भेजा। उसने आकर शरत् बाबू से कहा, "यहाँ तम्बाकू पीने की आशा नहीं है, बन्द कर दीजिए।"

शरत् बाबू ने उसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया। कप्तान स्वयं आया। बोला, तम्बाकू पीना आपको बन्द करना होगा।"

क्यों?

क्योंकि यह असभ्यता है। अच्छा नहीं दिखाई देता । “

लेकिन मुझे तो यह सुन्दर दिखाई देता है। इससे सभ्यता का परिचय अधिक मिलता है।' इसका कर्णकटु शब्द सुनकर यात्री नाराज होते हैं। "

“शायद स्टीमर की सीटी सुनकर उनको अच्छा लगता है। केवल अनिवार्य समझकर ही क्या वे उसे सहन नही करते?”

“लेकिन गुड़गुड़ी पीना क्या अनिवार्य है?"

"शायद आप धूम्रपान नहीं करते?"

“सिगार या सिगरेट पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है। “

“आपको न हो, लेकिन किसी और को हो सकती है। “ किसी योरोपियन को कोई आपत्ति नहीं है।"

लेकिन यह योरोप नहीं है।"

इस वाक्युद्ध का कोई अन्त नहीं था। कप्तान को अन्त में यह कहकर चले जाना पड़ा, “किसी योरोपियन को आपत्ति होगी तो आपको बन्द करना होगा। यह आपसे मेरा अनुरोध है । "

शरत् बाबू ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसी तरह गुड़गुड़ी पीते रहे।

जहाज चलते-चलते पहुंच गया कहालगांव। कभी इस गांव में कलह होता होगा, अब तो नाम शेष रह गया है। कुछ क्षण जहाज यहां रुकता था। शरत् बाबू उतरे और चल दिये एक ओर जहाज के छूटने का समय आ गया। लेकिन उनका कहीं पता नहीं था। दोनों मामा खोजने के लिए इधर-उधर भागे। पाया कि घाट के पास ही जो एक छोटी-सा दुकान है उसके सामने मैदान में शरत् बाबू बैठे हुए हैं। चारों ओर पन्द्रह-बीस कुत्ते दही- चूहा खाने में मस्त हैं। एक बारह-तेरह वर्ष का बच्चा दोनों हाथों में सामान लिए खड़ा है। सुरेन्द्रनाथ ने कहा, “यह क्या है? जहाज छूटने वाला है। "

“भुझे मालूम है। लेकिन अभी सीटी नहीं हुई।"

यह कहकर वे उठे। दुकानदार का हिसाब चुकता किया। वह बाकी पैसे देने लगा तो हिन्दी में बोले, रने नहीं होंगे। यह तुम्हारा नफा है।"

बेचारा दुकानदार उनका मुंह देखता रह गया। जहाज़ पर लौटकर शरत् बाबू ने बताया, “जैसे ही मैं नीचे उतरा कुत्तों के एक दल ने मुझे घेर लिया। देखने पर लगा न जाने कितने दिनों से उन्होंने खाया नहीं है। मेरी इच्छा हुई, कुछ इन्हें खिलाना चाहिए। यहां सिर्फ दही-चूड़ा ही मिल सका। वही खिलाने में इतनी देर हा गई । "

अगले दिन संध्या को फिर एक गांव आया। यहां दूध, मछली, तरकारी खूब मिलती थी। बस खरीदने के लिए लोग उतर पड़े। वेचने वाले वहीं आ गए थे। लेकिन जव जहाज़ फिर चला तो देखा गया कि एक व्यक्ति स्टीमर के साथ भागता हुआ किनारे-किनारे चल रहा है। बार-बार उधर देखकर हाथ जोड़ता है और फिर भागता है। सहसा शरत् बाबू की दृष्टि उस पर पड़ी। उन्होंने कप्तान से अनुरोध किया, श्वहाजू को रोक दीजिए । “

कप्तान ने उत्तर दिया, “बाबूजी, इस प्रकार दया दिखाने पर तो दस दिन में भी आलन्दी नहीं पहुंचा जा सकेगा।"

लेकिन फिर भी शरत् बाबू के अनुरोध करने पर उसने जहाज किनारे लगा ही दिया। वह व्यक्ति रोता-रोता जहाज पर बढ़ा और बेहोश होकर गिर पड़ा। बेटी के मरणासन्न होने का समाचार पाकर वह उसे देखने के लिए जा रहा था । 

यात्रा लम्बी थी और इस प्रकार के अनुभवों की कोई कमी नहीं थी। दूसरे दिन सवेरा होते ही दूर से कोलाहल का शब्द पास आने लगा। दस बजे के लगभग जहाज एक गांव के किनारे जा लगा। नाम था 'प्रेमतली' । वैष्णवों का बहुत बड़ा मेला यहां लगता था। चारों ओर से असंख्य वैष्णव-वैष्णवी मेले में आते थे, लेकिन जहाज तो केवल आधा घंटे के लिए ही रुक रहा था। शरत् बाबू ने कहा, “इतना बड़ा मेला लगता है यहां, क्या एक दिन भी नहीं ठहरेंगे?”

कप्तान हाथ जोड़कर बोला, “माफ कीजिए। आध घंटे से अधिक नहीं ठहर सकता। “ शरत् बाबू ने मामा से कहा, “आध घंटे में कुछ नहीं हो सकता। प्रेमतली का मेला देखे बिना मैं आगे नहीं जाऊंगा। जहाज जाता है तो जाए।"

और वह तुरन्त अपना सारा सामान लेकर सबके साथ नीचे उतर पड़े। लेकिन अब जाएं कहां? शरत् बाबू स्थान की खोज करने के लिए निकले। पता लगाया, पास ही जमींदार की कचहरी है। वही जाकर ठहरना होगा। साथ में वे जमींदार के नौकर भी लेकर आए थे। धीरे-धीरे सब लोग वहां पहुंच गए। देखा चारों ओर वैष्णव नर-नारी अधिकार जमाए हुए हैं। इन लोगों का सामान देखकर वे सब चकित हो उठे। और जब अन्त में शर बाबू वहां पहुंचे तो जैसे चारों ओर एक आर्तनाद मच उठा । दाद्धिधारी शरत् को उन्होंने मुसलमान समझ लिया था। चीत्कार करके वे पुकारने लगे, “भागो, भागो! श्यामसुन्दर, राधिकारमण, सर्वनाश हो गया! रसोई तैयार हो रही थी। आज हमारा जन्म भ्रष्ट हो गया। राधे राधे, यह क्या किया मदनमोहन?"

क्षण-भर तो शरत् बाबू हतप्रभ से देखते रहे। फिर बोले, “अजी सुनते हो तुम सब लोग मैं ब्राह्मण हूं ब्राह्मण डरो नहीं, मैंने जनेऊ पहना है। "

एक बुद्धिमान दिखाई देने वाले वैष्णव ने उत्तर दिया, "सुनता हूं, आजकल वे भी जनेऊ पहनने लगे हैं।"

सुनकर शरत् बाबू और मामा लोग बड़े जोर से हंस पड़े। शरत् बरामदे में जा पहुंचे। सब वैष्णव- वैष्णवी 'श्यामसुन्दर', 'राधिकारमण' पुकारते हुए वहां से भाग गए। तब शरत् बड़े आराम से शतरंजी के ऊपर बैठ गए और बोले, "अच्छा डूआ, यह विपत्ति टली।"

कुछ क्षण आराम करने के बाद वे मेला देखने के लिए निकल पड़े। घण्टे पर घण्टे बीतने लगे, लेकिन उनका कहीं पता नहीं था। दोनों मामा फिर ढूंढने के लिए निकले। पाया, एक प्रकाण्ड वृक्ष के नीचे बहुत बडी भीड़ के बीच में एक कृष्णवर्णीय बाउल एक गौरांगिनी के साथ नृत्य-संगीत मे लीन है और शरत् तन्मय होकर सुन रहे है। मामा ने कहा, "नहाना, धोना और खाना नहीं होगा क्या?"

उत्तर मिला, “वह तो रोज ही होता है। सुनो कैसी भक्ति है इनकी! अहा, यदि यह भक्ति और यह तन्मयता मुझे मिल सके !"

मामा ने कहा, "तो इनके दल में शामिल हो जाओ न।"

“काश, अब ऐसा कर पाता।"

और पुराने जीवन की याद करके उन्होंने दीर्घश्वास खींचा। बड़ी कठिनता से मामा लोग उनको वहां से उठाकर ला सके। भोजन करते समय शरत् ने कहा, "आज यहीं रहना होगा । सुना है, यहां का वैष्णवी ग्रहण व्यापार बहुत रोचक है। कुछ धन जमा करा देने पर किसी को भी वैष्णवी मिल सकती है। एक चादर के पीछे काँग्रात्रियों का दल इस प्रकार खड़ा कर दिया जाता हैं, कि बस उनके ढेर की अंगुली ही दिखाई दे। जिस वैष्णवी की अंगुली जो पकड़ लेता है वे दोनों एक वर्ष तक एक साथ रह सकते है।"

क्या जितनी रोचक थी, उतनी ही अविश्वसनीय भी । इसीलिए अन्त में बहुत खोज करने पर पता लगा कि अब वह प्रथा समाप्त हो गई है। लेकिन साथ ही यह भी पता लगा कि रात में यहां बहुत बड़े-बड़े मच्छर होते है।

“अरे बाप रे, मच्छर-मलेरिया ! तब तो यहां रहना नहीं हो सकता। अब क्या किया जाए? इस समय कोई जहाज भी तो नहीं जाता। क्यों न नाव से यात्रा की जाए। खूब मजा आएगा।"

मामा ने पूछा, “लेकिन जाना कहां होगा?"

खहां भी पहुंच जाएं। राजशाही तो पहुंच ही सकते हैं। "

बस एक नौका तैयार की गई, लेकिन भाग्य अच्छा था कि रास्ते में ही गुआलन्दो जानेवाला जहाज़ मिल गया। बस सब लोग उसमें सवार हो गए। दिन-भर बहुत भाग-दौड़ हुई थी, खूब नींद आई। अगले दिन जहाज़ एक घाट पर जाकर ठहरा। वहां के ज़मींदार से शरत् बाबू का परिचय था। बोले, श्वलो, वहीं चलकर चाय पीयेंगे।"

बहुत खोज करने पर कहीं मकान मिल सका, लेकिन दुर्भाग्य से ज़मींदार साहब सो रहे थे। नौकर किसी भी तरह उन्हें जगाने के लिए तैयार नहीं हुआ। उसी समय जहाज़ की सीटी सुनाई दी और वे दौड़े। उनके चढ़ते ही जहाज़ छूट गया। लेकिन चाय तो मिलनी ही चाहिए। नौकर को आवाज़ दी बैकुण्ठ, चाय तैयार करो। "

लेकिन बैकुण्ठ हो तो जवाब दे वह तो पद्मा के किनारे दौड़ रहा था। बड़ी कठिनता से एक नाव द्वारा उसे जहाज़ पर लाया गया। उसने कहा, “ताजा दूध लेने के लिए मैं गांव में चला गया था।"

अब शरत् बाबू कैसे उस पर कुद्ध होते, लेकिन कप्तान के क्रोध का पार नहीं था । शरत् बाबू बोले, “अजी छोड़ो भी जाओ चाय तैयार करो। अजी, उसे सीटी सुनने की फुर्सत कहां थी। थोड़ा रसिक है बेचारा ।"

और इसी प्रकार अनुभव प्राप्त करते हुए आखिर एक दिन वे गुआलन्दो पहुंच ही गए। शरत् बाबू ने घोषणा की, “बस, जहाज की यात्रा यही तक। अब यहां से रेल द्वारा सीधे कलकत्ते जाऊंगा।"

लेकिन अब तो कोई गाड़ी नहीं जाती, यही सोचकर दोनों मामा बाजार की सैर करने चले गए। आधे घंटे बाद लौटे तो पाण, न कहीं शरत् बाबू है और न नौकर-चाकर । सामान का भी कुछ पता नहीं। वे स्टेशन गए। वहां भी कोई नहीं था। फिर घाट पर आए । एक खलासी से पूछा, “बाबूजी कहा गए हैं?”

पीछे एक और जहाज खड़ा था। उसी की ओर इशारा करके खलासी ने कहा, “वहां । “ दोनों मामाओं ने जब उधर देखा तो पाया कि रेलिंग के सहारे खड़े हुए शरत् बाबू हंस रहे है। पास जाने पर उन्होंने कहा, “पहला जहाज एक दिन बाद जाएगा। यह अभी जाने वाला है। डायमण्ड हार्बर होकर जाएगा। पांच-छह दिन लग सकते हैं। अच्छा है, सुन्दर बन देखने को मिलेगा। वहां जंगल में रायल बंगाल टाइगर हे तो नदी में बड़े-बड़े मगर और घड़ियाल हैं। सुन्दरी वृक्षों पर नाना प्रकार के पक्षी हैं। भयानक अजगर भी दिखाई दे सकते हैं।"

शरत् बाबू के मन के भीतर बैठे हुए यौवन के यायावर शरत् ने इस सबका इतने सुन्दर शब्दों में वर्णन किया कि अन्ततः मामा लोगों को गाड़ी छेड़कर जहाज से जाना ही स्वीकार करना पड़ा। जहाज बड़ी तीव्र गति से आगे बद रहा था। रायल बंगाल टाइगर और घड़ियाल-मगरमच्छ की आशा में दिन कट रहे थे, लेकिन भाग्य देखिए कि किसी काठविडाल की पूछ तक दिखाई नहीं दी।

इसी प्रकार चलते-चलते पाया कि एक दिन वह जहाज डायमण्ड हाबर पहुंच गया है। जैस उनके प्राण लौटे। सुन्दर बन का वह असामान्य सौन्दर्य उन्हें बहुत महंगा पड़ा। इतना कि मामा को इसराज बजाते देखकर शरत् बाबू स्वयं चंचल हो उठें कहा, ग्राहना करता हूं, इसे वन्द कर दीजिए, नहीं तो जहाज से कूदकर आत्महत्या कर लूंगा ।.

डायमंड हार्बर के बाद खिदिरपुर आने में देर नहीं लगी। लेकिन एक और मुसीबत... । पता लगा कि गिरीन मामा के सूटकेस में से किसी ने सभी रुपये निकाल लिए हैं। शरत् बाबू ने कहा, “ठीक है, जो होना था वह हो गया। हम सब लोगों ने मिलकर आनन्द मनाया है तो यह हानि भी मिलकर ही बांट लेंगे।"

खिदिरपुर पहुंचने पर यात्री अपना-अपना सामान संभालने लगे। तभी मामा लोगों ने देखा कि शरत् का कहीं पता नहीं है। बैकुण्ठ ने बताया, त्राबू तो ट्राम से चले गए।”

सब सामान लेकर जब मामा लोग घर पहुंचे तो पाया कि शरत् बाबू आरामकुर्सी पर लेटे हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं और पास ही उनका चिर दिन का संगी भेलू बड़े प्रेम से उन्हे ताकता हुआ बैठा है, जैसे कभी घर से बाहर ही नहीं निकले हों। मामा ने पूछा, “इतनी जल्दी चले आए ! कहकर तो आते।

शरत् बाबू ने शान्त भाव से उत्तर दिया, छने पर क्या तुम मुझको आने देते? अच्छा, अब आराम करो, नहाओ धोओ और खाना खाओ।


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रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
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तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

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अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
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शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

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अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
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इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

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अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

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अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
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शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

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अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
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उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

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अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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