किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर्मलचन्द्र चन्द्र' के साथ उन्होंने रूप और रंग? Lका सम्पादन भी कुछ दिन किया । 'भारत लक्ष्मी' का सम्पादन करने के लिए भी वे सहमत हो गए थे। अपने एक पत्र में उन्होंने लिखा था 'भारत लक्ष्मी' नामक एक नये पत्र का सम्पादक बनने के लिए राज़ी हो गया हूं। आज एक चिट्ठी लिखी है। अगर उन शर्तों पर तैयार हुए तो सम्पादन का भार ले सकता हूं। संसार में बहुतेरे लोगों के बारे में जो होता है मेरे बारे में भी वही होगा । अर्थात् संसार में बुद्धिमान और बेवकूफ दोनों ही हैं और एक पक्ष की जीत होती है। अधिक न होने पर भी पांच-छः हजार का जमानतदार हूं। सोचा है कि 'भारत लक्ष्मी' में शामिल होकर इसे चुका दूंगा। वे मुझे चौथाई का हिस्सा देंगे। अब सांसारिक बुद्धि वाले जैसा आचरण करते हैं, मैं भी वैसा ही करूंगा। अर्थात् ठगा न जाऊंगा। दशहरे के बाद ये सारी बातें तफसील से तय करूंगा। लेकिन इसी बीच परिचित- अपरिचित साहित्यिक बहुतेरे लोग लिश्न रहे हैं कि उनकी रचना लेकर पेशगी रुपये भेजूं । हाय, इतनी शक्ति यदि होती, किन्तु इसी शक्ति की परम आवश्यकता है।.......
लेकिन यह शक्ति शायद उन्हें कभी नहीं मिली। हां, अपनी अर्जित सम्पत्ति में से वे नाना व्यक्तियों की नाना रूपों में सहायता करते रहे। काशी में सम्भ्रान्त परिवार की एक वृद्धा बंगालिन रहती थी। बालपन में ही विधवा हो गई थी। पढ़ी-लिखी थी। खूब खाना- पकाना और खिलाना जानती थी लेकिन बुढ़ापे में उसकी आखें बिलकुल खराब हो गईं। एक दिन उसने शरत् बाबू को बेटा कहकर पुकारा था, उस समय से अपने मित्र हरिदास शास्त्री के द्वारा वह बराबर उसकी सहायता करते रहे। लेकिन अपना नाम कभी प्रकट नहीं होने दिया । वृद्धा यही समझती रही कि यह पैसा हरिदास का ही है। गप्त रूप से सहायता करने का जैसे उनका स्वभाव था। कछ दूर पर एक विधवा मुडिवाली - रहती थी। उसके कोई सन्तान भी नहीं थी। गुप्त रूप से उसकी सहायता करने के उद्देश्य से ही उन्होंने बड़ी बहू को आदेश दिया था कि वे प्रतिदिन उससे छी खरीदा करें। गरम पुडी खाना उन्हें बहुत अच्छा लगता था।
छोटा भाई प्रकाशचन्द्र उन्हीं के साथ रहता था। बड़े चाब से उन्होंने उसका विवाह 3 किया । कन्या के पिता की अवस्था बहुत अच्छी थी, परन्तु उन्होंने दान-दहेज की जरा भी चिन्ता नहीं की। बड़ी बहू ने सहज उदारता के साथ अपने सब गहने देवरानी को चढ़ा दिए।
उनका यह भाई कभी कुछ नहीं कर सका। कुछ करने योग्य न तो उसे कोई शिक्षा मिली थी और न वातावरण ही। अभावों में वह पला और जमींदारों की नाटक मण्डलियों में स्त्रियों का अभिनय कर-करके बड़ा हुआ। वहां वह पीना ही सीख सकता था । जीवन-भर शरत् बाबू अपने इस भाई का और उसके परिवार का पोषण करते रहे।
ऐसी मानवीय करुणा से ओतप्रोत होने के बावजूद स्वयं उनकी प्रसिद्धि अनीति के प्रचारक के रूप में जरा भी कम नहीं हुई थी। लोग बराबर मानते रहे कि वे इतनी शराब पीते हैं कि तौबा और भी न जाने कितने कल्पनीय अकल्पनीय ऐब हैं उनमें न जाने कितने सम्मेलन उन्हें अध्यक्ष के रूप में पाकर गौरवान्वित हुए। न जाने कितनी सभाओं ने उनका अभिनन्दन किया, परन्तु उनके मुंह पर ही उनकी निन्दा करने वालों की संख्या में कोई कमी नहीं हुई। कभी परोक्ष रूप में, कभी अपरोक्ष रूप में भाषणकर्ता उन्हें लक्ष्य करके बहुत कुछ कह जाते थे। चितपुर में एक पुस्तकालय के स्थापना दिवस पर होने वाली सभा की अध्यक्षता करने के लिए उन्हें आमन्त्रित किया गया था लेकिन उसी सभा में एक सज्जन ने भाषण करते हुए कहा, हम लोगों ने बड़े उत्साह से पुस्तकालयों की स्थापना करने की ओर ध्यान दिया है। लेकिन कभी-कभी सोचता हूं ऐसा करने से क्या लाभ? क्या पढ़ने लायक अच्छी किताबें निकल रही हैं? कोई लिख रहा है? साहित्य में न तो आज नीति है और न रुचि । सब कुछ गन्दगी से भरा हुआ है। और इस गन्दगी के लिए खास तौर से जिम्मेदार हैं हमारे आज के अध्यक्ष ।
शरत् बाबू अध्यक्ष पद पर बैठे हुए यह सब कुछ चुपचाप सुनते रहे। जब उनके भाषण देने का समय आया तो उन्होंने केवल इतना ही कहा, रेखिए, अच्छी किताबें अगर नहीं निकल रही हैं तो आप लोग एक काम कीजिए, पुस्तकालय बन्द कर दीजिए। एक संकीर्तन दल बनाइए । पुस्तकालय स्थापित कर देश के लोगों में गन्दगी न फैलाकर कीर्तन दल बनाकर मोहल्ले-मोहल्ले में कीर्तन का प्रचार कीजिए। यह अच्छा सत्कर्म होगा।
एक मजिस्ट्रेट थे श्री यतीन्द्रमोहन सिंह उन्होंने 'साहित्य की स्वास्थ्य-रक्षा' नाम से एक पुस्तक लिखी। इसमें उन्होंने शरत् बाबू पर तीव्र आक्रमण किए। इस पुस्तक का उतना ही तीव्र विरोध हुआ और एक दिन अपने आप ही यह समाप्त भी हो गई। लेकिन कहते हैं, एक दिन उनकी शरत् बाबू से भेंट हो गई थी। अनितिमूलक साहित्य र्का चर्चा चलने पर शरत् बाबू ने कहा, गझे विश्वास है कि आप सच्चरित्र व्यक्ति हैं। आप तो कभी वेश्या के यहां गए नहीं होंगे?"
यह सुनकर मजिस्ट्रेट साहब हतप्रभ ही हो सकते थे। हां या ना में उत्तर देना उनके लिए सम्भव नहीं था। शरत् बाबू ने ही कहा, 'अब जब आपको अनुभव ही नहीं है तो आपसे क्या बात करें?"
जिस प्रकार वे जीवन भर अनीति के प्रचारक के रूप में प्रसिद्ध रहे, उसी प्रकार आवारा जीवन की ललक भी कभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई। प्रतिवर्ष जगद्धात्री पूजा के अवसर पर वे भागलपुर मामा-बाड़ी में जाते थे। जब वे बर्मा से लौटे थे तो उन्होंने मामा- परिवार से, विशेषकर बचपन के अपने सहपाठी मणि मामा से संबंध सुधारने का बहुत प्रयत्न किया था। एक बार ये मामा बेटी के विवाह के संबंध में कलकत्ता आए थे। उस समय सुरेन्द्रनाथ ने शरत् बाबू को सलाह दी, 'इस अवसर पर तुम उपहार भेजो। '
शरत् बाबू ने उत्तर दिया, यणि मामा नहीं लेंगे।
सुरेन्द्रनाथ ने कहा, 'तुम भजॉ, बाकी हम देख लेंगे। '
शरत् बाबू ने ऐसा ही किया और, जैसा कि हो सकता था, उसे देखकर मणि मामा तुरन्त बोले, नही, यह नही लिया जाएगा। इसे लौटा दो। '
मामी ने कहा उपहार नहीं लौटाया जा सकता। लेना ही होगा। '
नहीं, नहीं...... मणि मामा और भी कुद्ध हो उठे कि तभी सुरेन्द्र ने आकर उनसे कहा- रादा, शरत् आए हैं।
कहां हैं?"
सामने आकर शरत् बाबू ने मणि मामा के पैर पकड़ लिए। कहा, 'मुझे क्षमा कर दो। क्षण-भर में मामा का राग- अभिमान दूर हो गया । काठ अवरुद्ध और आखें भरी भरी। इतना ही कह सके, 'शादी में आना, समझे!'
शरत् बाबू के लिए मामा-बाड़ी के द्वार खुल गए। मणि मामा की मृत्यु के बाद तो उन्होंने जैसे वहां जाने का नियम बना लिया था। उस समय वे यथाशक्ति अपना पुराना जीवन जीने की चेष्टा करते थे। चाय, तम्बाकू और हंसी-मजाक चलता था। खाने के लिए दिन में चार बज जाते और रात में एक आते ही घर के सब नियम उलट-पुलट कर देते थे। यह उनकी प्रकृति थी। बच्चे उन्हें बहुत प्यार करते थे। वे आते और सीधे गंगा तट पर पहुंच जाते और ढेरों खिलौने लाकर बच्चों के सामने बिखेर देते। फिर आता मिठाईवाला, अरे, इतने से क्या होगा, और लाओ और चाय लाओ। और तम्बाकू लाओ।' बस यही पुकार वे लगाते रहते।
पूजा के समय नाटक भी होते थे। उस बार उन्होंने 'चन्द्रगुप्त' नाटक को मंचस्थ करने का निर्णय किया और तुरना गिरीन्द्रनाथ को बुलाकर कहा, इस बार 'चन्द्रगुप्त' नाटक का एक दृश्य करने की इच्छा है। तुम 'चाणक्य' का अभिनय करो। प्रफुल्ल कात्यायन' बनेगा । शचि 'भिक्षु' और देवी प्रॉम्पटर'।'
ऐसा ही हुआ। जब शरत् बाबू भिक्षुक का गाना नहीं सुन सके तो रोते-रोते अपने कमरे में चले गए और वहीं अंधेरे में बैठकर अभिनय देखते रहे।
कीर्तन भी उसी तरह होता और वे लेटे-लेटे सुनते रहते। बीच में सहसा बोल उठते, -रासबिहारी, ओ कुब्जार बन्धूटि' गाओ। '
यह उनका बड़ा प्रिय गाना था। लेकिन इसे वे कभी पूरा नहीं सुन पाते थे। बीच में ही रो पड़ते और भाग जाते।
बोलि ओ कुब्जार बन्धु
तोमाय राधानाथ आर बोलबो ना हे ओ कुलनार बन्धु रासबिहारीदास
- मुझे भी एक दो । '
तुलसी की माला भी तैयार करते थे। एक दिन शरत् बाबू ने कहा,
सुरेन्द्रनाथ ने पूछा, 'तुम पहनोगे?
"हां, बडी इच्छा है।"
रासबिहारी ने उसी दिन परिश्रम से माला तैयार की। शरत् बाबू ने उसे पहना और बहुत प्रसन्न हुए। लेकिन उस दिन जैसे पुराने यायावर जीवन की याद आ गई हो। उन्होंने कहा, "इस बार भागलपुर से स्टीमर के मार्ग से कलकत्ता जाएंगे। घूमना हो जाएगा।"
बस सुरेन्द्रनाथ और गिरीन्द्रनाथ को साथ लेकर चल पड़े। साथ में नौकर-चाकर और बहुत-सा सामान। इतना कि दो- तीन घोड़ागाड़ियों में भी नहीं आया। स्टीमर घाट पर पहुंचे। बहुत देर तक कोई जहाज नहीं दिखाई दिया। निश्चय किया कि पहले जिस ओर का जहाज आएगा उसी में बैठकर चल दंग पश्चिम की ओर से आएगा तौ पूर्व र्का ओर चलेंगे और पूर्व क और सं आएगा तो पश्चिम की ओर।
मामा ने पूछा णश्चिम की ओर कहां चलेंगे?"
उत्तर दिया, “कहीं भी । रवीन्द्रनाथ भी तो गाजीपुर तक हो आए है।"
सौभाग्य से कलकत्ता जाने वाला जहाज ही पहले आ गया। लेकिन मार्ग उसका बड़ा विकट था। आगे चलकर पद्मा नदी से होकर गुआलन्दी पहुंचना था। वहां से सुन्दर बन होकर फिर डायमण्ड हार्बर द्वारा खिदिरपुर आते थे।
शरत् बाबू अपने सभी साथियों के साथ प्रथम श्रेणी के टिकट लेकर केबिन में पहुंच गए। नौकर को गुड़गुड़ी तैयार करने का आदेश दिया। पास ही कप्तान का केबिन था। गुड़गुड़ी की आवाज सुनकर उसने तुरन्त एक खलासी को भेजा। उसने आकर शरत् बाबू से कहा, "यहाँ तम्बाकू पीने की आशा नहीं है, बन्द कर दीजिए।"
शरत् बाबू ने उसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया। कप्तान स्वयं आया। बोला, तम्बाकू पीना आपको बन्द करना होगा।"
क्यों?
क्योंकि यह असभ्यता है। अच्छा नहीं दिखाई देता । “
लेकिन मुझे तो यह सुन्दर दिखाई देता है। इससे सभ्यता का परिचय अधिक मिलता है।' इसका कर्णकटु शब्द सुनकर यात्री नाराज होते हैं। "
“शायद स्टीमर की सीटी सुनकर उनको अच्छा लगता है। केवल अनिवार्य समझकर ही क्या वे उसे सहन नही करते?”
“लेकिन गुड़गुड़ी पीना क्या अनिवार्य है?"
"शायद आप धूम्रपान नहीं करते?"
“सिगार या सिगरेट पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है। “
“आपको न हो, लेकिन किसी और को हो सकती है। “ किसी योरोपियन को कोई आपत्ति नहीं है।"
लेकिन यह योरोप नहीं है।"
इस वाक्युद्ध का कोई अन्त नहीं था। कप्तान को अन्त में यह कहकर चले जाना पड़ा, “किसी योरोपियन को आपत्ति होगी तो आपको बन्द करना होगा। यह आपसे मेरा अनुरोध है । "
शरत् बाबू ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसी तरह गुड़गुड़ी पीते रहे।
जहाज चलते-चलते पहुंच गया कहालगांव। कभी इस गांव में कलह होता होगा, अब तो नाम शेष रह गया है। कुछ क्षण जहाज यहां रुकता था। शरत् बाबू उतरे और चल दिये एक ओर जहाज के छूटने का समय आ गया। लेकिन उनका कहीं पता नहीं था। दोनों मामा खोजने के लिए इधर-उधर भागे। पाया कि घाट के पास ही जो एक छोटी-सा दुकान है उसके सामने मैदान में शरत् बाबू बैठे हुए हैं। चारों ओर पन्द्रह-बीस कुत्ते दही- चूहा खाने में मस्त हैं। एक बारह-तेरह वर्ष का बच्चा दोनों हाथों में सामान लिए खड़ा है। सुरेन्द्रनाथ ने कहा, “यह क्या है? जहाज छूटने वाला है। "
“भुझे मालूम है। लेकिन अभी सीटी नहीं हुई।"
यह कहकर वे उठे। दुकानदार का हिसाब चुकता किया। वह बाकी पैसे देने लगा तो हिन्दी में बोले, रने नहीं होंगे। यह तुम्हारा नफा है।"
बेचारा दुकानदार उनका मुंह देखता रह गया। जहाज़ पर लौटकर शरत् बाबू ने बताया, “जैसे ही मैं नीचे उतरा कुत्तों के एक दल ने मुझे घेर लिया। देखने पर लगा न जाने कितने दिनों से उन्होंने खाया नहीं है। मेरी इच्छा हुई, कुछ इन्हें खिलाना चाहिए। यहां सिर्फ दही-चूड़ा ही मिल सका। वही खिलाने में इतनी देर हा गई । "
अगले दिन संध्या को फिर एक गांव आया। यहां दूध, मछली, तरकारी खूब मिलती थी। बस खरीदने के लिए लोग उतर पड़े। वेचने वाले वहीं आ गए थे। लेकिन जव जहाज़ फिर चला तो देखा गया कि एक व्यक्ति स्टीमर के साथ भागता हुआ किनारे-किनारे चल रहा है। बार-बार उधर देखकर हाथ जोड़ता है और फिर भागता है। सहसा शरत् बाबू की दृष्टि उस पर पड़ी। उन्होंने कप्तान से अनुरोध किया, श्वहाजू को रोक दीजिए । “
कप्तान ने उत्तर दिया, “बाबूजी, इस प्रकार दया दिखाने पर तो दस दिन में भी आलन्दी नहीं पहुंचा जा सकेगा।"
लेकिन फिर भी शरत् बाबू के अनुरोध करने पर उसने जहाज किनारे लगा ही दिया। वह व्यक्ति रोता-रोता जहाज पर बढ़ा और बेहोश होकर गिर पड़ा। बेटी के मरणासन्न होने का समाचार पाकर वह उसे देखने के लिए जा रहा था ।
यात्रा लम्बी थी और इस प्रकार के अनुभवों की कोई कमी नहीं थी। दूसरे दिन सवेरा होते ही दूर से कोलाहल का शब्द पास आने लगा। दस बजे के लगभग जहाज एक गांव के किनारे जा लगा। नाम था 'प्रेमतली' । वैष्णवों का बहुत बड़ा मेला यहां लगता था। चारों ओर से असंख्य वैष्णव-वैष्णवी मेले में आते थे, लेकिन जहाज तो केवल आधा घंटे के लिए ही रुक रहा था। शरत् बाबू ने कहा, “इतना बड़ा मेला लगता है यहां, क्या एक दिन भी नहीं ठहरेंगे?”
कप्तान हाथ जोड़कर बोला, “माफ कीजिए। आध घंटे से अधिक नहीं ठहर सकता। “ शरत् बाबू ने मामा से कहा, “आध घंटे में कुछ नहीं हो सकता। प्रेमतली का मेला देखे बिना मैं आगे नहीं जाऊंगा। जहाज जाता है तो जाए।"
और वह तुरन्त अपना सारा सामान लेकर सबके साथ नीचे उतर पड़े। लेकिन अब जाएं कहां? शरत् बाबू स्थान की खोज करने के लिए निकले। पता लगाया, पास ही जमींदार की कचहरी है। वही जाकर ठहरना होगा। साथ में वे जमींदार के नौकर भी लेकर आए थे। धीरे-धीरे सब लोग वहां पहुंच गए। देखा चारों ओर वैष्णव नर-नारी अधिकार जमाए हुए हैं। इन लोगों का सामान देखकर वे सब चकित हो उठे। और जब अन्त में शर बाबू वहां पहुंचे तो जैसे चारों ओर एक आर्तनाद मच उठा । दाद्धिधारी शरत् को उन्होंने मुसलमान समझ लिया था। चीत्कार करके वे पुकारने लगे, “भागो, भागो! श्यामसुन्दर, राधिकारमण, सर्वनाश हो गया! रसोई तैयार हो रही थी। आज हमारा जन्म भ्रष्ट हो गया। राधे राधे, यह क्या किया मदनमोहन?"
क्षण-भर तो शरत् बाबू हतप्रभ से देखते रहे। फिर बोले, “अजी सुनते हो तुम सब लोग मैं ब्राह्मण हूं ब्राह्मण डरो नहीं, मैंने जनेऊ पहना है। "
एक बुद्धिमान दिखाई देने वाले वैष्णव ने उत्तर दिया, "सुनता हूं, आजकल वे भी जनेऊ पहनने लगे हैं।"
सुनकर शरत् बाबू और मामा लोग बड़े जोर से हंस पड़े। शरत् बरामदे में जा पहुंचे। सब वैष्णव- वैष्णवी 'श्यामसुन्दर', 'राधिकारमण' पुकारते हुए वहां से भाग गए। तब शरत् बड़े आराम से शतरंजी के ऊपर बैठ गए और बोले, "अच्छा डूआ, यह विपत्ति टली।"
कुछ क्षण आराम करने के बाद वे मेला देखने के लिए निकल पड़े। घण्टे पर घण्टे बीतने लगे, लेकिन उनका कहीं पता नहीं था। दोनों मामा फिर ढूंढने के लिए निकले। पाया, एक प्रकाण्ड वृक्ष के नीचे बहुत बडी भीड़ के बीच में एक कृष्णवर्णीय बाउल एक गौरांगिनी के साथ नृत्य-संगीत मे लीन है और शरत् तन्मय होकर सुन रहे है। मामा ने कहा, "नहाना, धोना और खाना नहीं होगा क्या?"
उत्तर मिला, “वह तो रोज ही होता है। सुनो कैसी भक्ति है इनकी! अहा, यदि यह भक्ति और यह तन्मयता मुझे मिल सके !"
मामा ने कहा, "तो इनके दल में शामिल हो जाओ न।"
“काश, अब ऐसा कर पाता।"
और पुराने जीवन की याद करके उन्होंने दीर्घश्वास खींचा। बड़ी कठिनता से मामा लोग उनको वहां से उठाकर ला सके। भोजन करते समय शरत् ने कहा, "आज यहीं रहना होगा । सुना है, यहां का वैष्णवी ग्रहण व्यापार बहुत रोचक है। कुछ धन जमा करा देने पर किसी को भी वैष्णवी मिल सकती है। एक चादर के पीछे काँग्रात्रियों का दल इस प्रकार खड़ा कर दिया जाता हैं, कि बस उनके ढेर की अंगुली ही दिखाई दे। जिस वैष्णवी की अंगुली जो पकड़ लेता है वे दोनों एक वर्ष तक एक साथ रह सकते है।"
क्या जितनी रोचक थी, उतनी ही अविश्वसनीय भी । इसीलिए अन्त में बहुत खोज करने पर पता लगा कि अब वह प्रथा समाप्त हो गई है। लेकिन साथ ही यह भी पता लगा कि रात में यहां बहुत बड़े-बड़े मच्छर होते है।
“अरे बाप रे, मच्छर-मलेरिया ! तब तो यहां रहना नहीं हो सकता। अब क्या किया जाए? इस समय कोई जहाज भी तो नहीं जाता। क्यों न नाव से यात्रा की जाए। खूब मजा आएगा।"
मामा ने पूछा, “लेकिन जाना कहां होगा?"
खहां भी पहुंच जाएं। राजशाही तो पहुंच ही सकते हैं। "
बस एक नौका तैयार की गई, लेकिन भाग्य अच्छा था कि रास्ते में ही गुआलन्दो जानेवाला जहाज़ मिल गया। बस सब लोग उसमें सवार हो गए। दिन-भर बहुत भाग-दौड़ हुई थी, खूब नींद आई। अगले दिन जहाज़ एक घाट पर जाकर ठहरा। वहां के ज़मींदार से शरत् बाबू का परिचय था। बोले, श्वलो, वहीं चलकर चाय पीयेंगे।"
बहुत खोज करने पर कहीं मकान मिल सका, लेकिन दुर्भाग्य से ज़मींदार साहब सो रहे थे। नौकर किसी भी तरह उन्हें जगाने के लिए तैयार नहीं हुआ। उसी समय जहाज़ की सीटी सुनाई दी और वे दौड़े। उनके चढ़ते ही जहाज़ छूट गया। लेकिन चाय तो मिलनी ही चाहिए। नौकर को आवाज़ दी बैकुण्ठ, चाय तैयार करो। "
लेकिन बैकुण्ठ हो तो जवाब दे वह तो पद्मा के किनारे दौड़ रहा था। बड़ी कठिनता से एक नाव द्वारा उसे जहाज़ पर लाया गया। उसने कहा, “ताजा दूध लेने के लिए मैं गांव में चला गया था।"
अब शरत् बाबू कैसे उस पर कुद्ध होते, लेकिन कप्तान के क्रोध का पार नहीं था । शरत् बाबू बोले, “अजी छोड़ो भी जाओ चाय तैयार करो। अजी, उसे सीटी सुनने की फुर्सत कहां थी। थोड़ा रसिक है बेचारा ।"
और इसी प्रकार अनुभव प्राप्त करते हुए आखिर एक दिन वे गुआलन्दो पहुंच ही गए। शरत् बाबू ने घोषणा की, “बस, जहाज की यात्रा यही तक। अब यहां से रेल द्वारा सीधे कलकत्ते जाऊंगा।"
लेकिन अब तो कोई गाड़ी नहीं जाती, यही सोचकर दोनों मामा बाजार की सैर करने चले गए। आधे घंटे बाद लौटे तो पाण, न कहीं शरत् बाबू है और न नौकर-चाकर । सामान का भी कुछ पता नहीं। वे स्टेशन गए। वहां भी कोई नहीं था। फिर घाट पर आए । एक खलासी से पूछा, “बाबूजी कहा गए हैं?”
पीछे एक और जहाज खड़ा था। उसी की ओर इशारा करके खलासी ने कहा, “वहां । “ दोनों मामाओं ने जब उधर देखा तो पाया कि रेलिंग के सहारे खड़े हुए शरत् बाबू हंस रहे है। पास जाने पर उन्होंने कहा, “पहला जहाज एक दिन बाद जाएगा। यह अभी जाने वाला है। डायमण्ड हार्बर होकर जाएगा। पांच-छह दिन लग सकते हैं। अच्छा है, सुन्दर बन देखने को मिलेगा। वहां जंगल में रायल बंगाल टाइगर हे तो नदी में बड़े-बड़े मगर और घड़ियाल हैं। सुन्दरी वृक्षों पर नाना प्रकार के पक्षी हैं। भयानक अजगर भी दिखाई दे सकते हैं।"
शरत् बाबू के मन के भीतर बैठे हुए यौवन के यायावर शरत् ने इस सबका इतने सुन्दर शब्दों में वर्णन किया कि अन्ततः मामा लोगों को गाड़ी छेड़कर जहाज से जाना ही स्वीकार करना पड़ा। जहाज बड़ी तीव्र गति से आगे बद रहा था। रायल बंगाल टाइगर और घड़ियाल-मगरमच्छ की आशा में दिन कट रहे थे, लेकिन भाग्य देखिए कि किसी काठविडाल की पूछ तक दिखाई नहीं दी।
इसी प्रकार चलते-चलते पाया कि एक दिन वह जहाज डायमण्ड हाबर पहुंच गया है। जैस उनके प्राण लौटे। सुन्दर बन का वह असामान्य सौन्दर्य उन्हें बहुत महंगा पड़ा। इतना कि मामा को इसराज बजाते देखकर शरत् बाबू स्वयं चंचल हो उठें कहा, ग्राहना करता हूं, इसे वन्द कर दीजिए, नहीं तो जहाज से कूदकर आत्महत्या कर लूंगा ।.
डायमंड हार्बर के बाद खिदिरपुर आने में देर नहीं लगी। लेकिन एक और मुसीबत... । पता लगा कि गिरीन मामा के सूटकेस में से किसी ने सभी रुपये निकाल लिए हैं। शरत् बाबू ने कहा, “ठीक है, जो होना था वह हो गया। हम सब लोगों ने मिलकर आनन्द मनाया है तो यह हानि भी मिलकर ही बांट लेंगे।"
खिदिरपुर पहुंचने पर यात्री अपना-अपना सामान संभालने लगे। तभी मामा लोगों ने देखा कि शरत् का कहीं पता नहीं है। बैकुण्ठ ने बताया, त्राबू तो ट्राम से चले गए।”
सब सामान लेकर जब मामा लोग घर पहुंचे तो पाया कि शरत् बाबू आरामकुर्सी पर लेटे हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं और पास ही उनका चिर दिन का संगी भेलू बड़े प्रेम से उन्हे ताकता हुआ बैठा है, जैसे कभी घर से बाहर ही नहीं निकले हों। मामा ने पूछा, “इतनी जल्दी चले आए ! कहकर तो आते।
शरत् बाबू ने शान्त भाव से उत्तर दिया, छने पर क्या तुम मुझको आने देते? अच्छा, अब आराम करो, नहाओ धोओ और खाना खाओ।