नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे। उनकी शरारतों में वे सदा अप्रत्सक्ष रूप से सहायता करते थे। जब उनमें से किसी को गोदाम में बन्द करने की सज़ा मिलती तो वे चुपचाप उन्हें खाना दे आया करते थे। जब वे छूटते तो फूलों की माला तैयार करके उन्हें प्रसन्न कर देते थे। उनके बनाए कागज़ के नाना प्रकार के खिलौने बच्चों में
बहुत लोकप्रिय थे। बड़े यत्न से वे स्लेट - पेंसिल लेकर उन्हें सुन्दर अक्षर लिखना सिखाते थे। उनके लिए गंगा-स्नान का प्रबन्ध कर देते थे। कैसा आनन्द है गंगा में कूदने में, यह बच्चे ही जानते हैं। तभी तो उनके लिए वे मरुस्थल में शाद्वल के समान थे। उनकी सम्वेदनशीलता अपरिसीम
थी। एक तो घर- जवाई, इसके उपरान्त कठोर अनुशासन वाले परिवार में ऐसा बर्ताव करना, इसी करण वहां उनकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। उनका स्वतंत्र व्यक्तित्व जैसे समाप्त हो गया था। जैसे उसके तन-मन दोनों को किसी ने खरीद लिया हो। उनका अपना उनके पास कुछ नहीं था। काशीनाथ में काशीनाथ भी तो घर - जवाई होकर रहता है। उसे भी मानसिक सुख नहीं है। "कभी-कभी वह ऐसा महसूस करने लगता, जैसे अचानक उसे किसी ने गर्म पानी के कड़ाहे, में छोड़ दिया हो । मानो सबने मिलकर, सलाह करके उसकी देह को खरीद लिया हो। मानो अब यह उसकी अपनी नहीं रही । "
फिर भी किसी तरह दिन बीत रहे थे कि अचानक एक दुर्घटना हो गई। केदारनाथ की पत्नी विंध्यवासिनी देवी तांगे में कहीं जा रही थी कि वह उलट गया उनके काफी चोट आई। बहुत प्रयत्न करने पर भी भागलपुर में ठीक नहीं हो सकी। डाक्टर ने कहा, "इन्हें कलकत्ता ले जाइए।"
काफी व्ययसाध्य बात थी और परिवार की आर्थिक स्थिति तब तक बिगड़ चुकी थी। भाई अलग-अलग रहने लगे थे। उनमें से अमरनाथ की मृत्यु हो चुकी थी और उनकी पुत्री विवाह के योग्य थी । पितृहीन कन्या का विवाह देरे से होने पर अपवाद उठ खड़ा होने का डर रहता है। केदारनाथ करें तो क्या करें? एक दिन उन्होंने मोतीलाल को बुलाया, कहा, "अब तुम्हारा यहां रहना सम्भव नहीं है। देवानन्दपुर जाकर कोई कम करने का प्रयत्न करो"
मोतीलाल ने सुन लिया, भुवनमोहिनी ने भी सुन लिया। कोई रास्ता नहीं था। शिकवा- शिकायत करतीं भी तो किससे करतीं और कैसे करती। इसीलिए शरत् ने एक दिन पाया कि वह फिर देवानन्दपुर लौट आया है।
लेकिन लौट आने से पूर्व उसका परिचय गांगुली परिवार के पड़ोस में रहने वाले मजूमदार परिवार के राजू से हो चुका था। वह परिचय अनायास ही नहीं हो गया था। इसके पीछे प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा का काफी बड़ा इतिहास है।
श्यामवर्ण, स्वस्थ चेहरा, आजानबाहु, मुख पर चेचक के सामान्य निशान, शरीर में जितनी शक्ति मन में उतना ही साहस, ऐसे राजेन्द्रनाथ उर्फ राजू के पिता रामरतन मजूमदार डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर होकर भागलपुर आए थे, लेकिन मतभेद हो जाने पर उन्हें त्यागपत्र देते देर न लगी। ठीक गांगुलियो के पास उनका घर था और आसपास की ज़मीन को लेकर दोनों परिवारों में काफी मनमुटाव भी था। उसस समय वहां घना वन था। माता- पिता के अनुशासन से पीड़ित बालक इसी वन में शरण ग्रहण करते थे। धूम्रपान, गांजा और चरस के साथ-साथ भैंसों का दूध चुराकर शरीर बनाने का काम यहां निरन्तर चलता था।
रामरतन मजूदार ने अपने सात बेटों के लिए सात कोठियां बनवाई, लेकिन उनके परिवार में कुछ ऐसी बातें थीं, जिनके लिए पुरातनपंथी बंगाली समाज उन्हें कभी क्षमा नहीं कर सका। वे लोग चीनी मिट्टी के प्यालों में खाना खा लेते थे। मुसलमान बैरे से कांच के गिलास में पानी लेने और छोटे भाई की विधवा पत्नी से बातें करने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। वे मोज़े पहनते, दाढ़ी रखते, क्लब जाते और बातों में दर्शन का पुट देते थे।
पिता की स्वाधीनचेता परम्परा को राजू ने चरम सीमा तक पहुंचा दिया था। पतंगबाजी के द्वन्द्वयुद्ध में शरत् की तरह वह भी पारंगत था। इसलिए स्वाभाविक रूप से दोनों एक-दूसरे को हराने की कामना करते थे। राजू के पास पैसे का बल था। पतंग बढ़िया से बढ़िया सरंजाम जुटाने में उसे जरा भी कठिनाई नहीं हुई। लेकिन शरत् के पास पैसा कहां से आता। उसके दल ने बोतल के कांच को मैदा की तरह पीसकर और उसमें नाना उपक्रम मिलाकर मांझा तैयार किया। उस दिन शनिवार था। संध्या होते ही शरत् की गुलाबी पतंग धीरे-धीरे उसके पास आ रही है। यह थी राजू की पतंग। अब द्वन्द्वयुद्ध आरम्भ हो गया। पेच पर पेच लडे जाने लगे। दोनों दल अपनी-अपनी विजय के लिए उत्तेजित हो उठे। 'वह मारा', 'वह काटा' का कर्णभेदी स्वर सबको डोलायमान करने लगा। सहसा लोगों ने देखा कि सफेद पतंग कटकर इधर-उधर लड़खड़ाती हुई धरती की ओर आ रही है। फिर क्या था, शरत् के दल के हर्ष का पारावार नही रहा। उधर राजू ने उसी क्षण पतंग का भी सरंजाम गंगा को अर्पित कर दिया।
लेकिन इसी प्रतियोगिता और संघर्ष के बीच से होकर वे धीरे-धीरे एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होने लगे। राजू असाधारण प्रवृत्ति का बालक था अमित साहस, अपूर्व प्रत्युत्पन्नमति, सब कार्यो में सफलता प्राप्त करने वाला । शरत् की स्थिर, धीर और शांत बुद्धि अभिभावकों के दुर्ग की मोटी दीवारों को लांघकर उसे चकित करती रहती थी और वह उससे मित्रता करने के लिए आतुर हो उठता था।
आखिर एक दिन सब विघ्न-बाधाओं को लांघकर दोनों किशोर एक हो गए। राजू, जो आयु में बड़ा था, शीघ्र ही शरत् के सभी दुःसाहसिक कार्यो का मंत्रदाता बन गया। उन दोनों की मित्रता का एक और कारण था, संगीत और अभिनय के प्रति दोनों का समान प्रेम । शरत् का कंठ अत्यन्त मधुर था।
बार-बार इस मित्रता के सम्बन्ध में उसे चेतावनी मिली होगी पर तत्कालीन सदाचार और अनुशासन क्या कभी उसे बांधकर रख सके। उस परिवार के मुखियों में ऐसा एक भी नहीं था जो उसे प्रेरणा और सराहना के दो शब्द भी कहता। यही समय तो जीवन के सर्वांगीण विकास का प्रारम्भिक काल माना जाता है। तब उसके लिए यह स्वाभाविक था कि वह परिवार के बाहर प्रेरणा के स्रोत खोजता, क्योकि प्रारम्भ से ही उसमें वे गुण विद्यमान थे जो व्यक्ति को महान बनने का अवसर देते हे।