'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनसे ये किसी भी तरह हीन नहीं हैं। लेकिन किसको लिखूं, सौरीन को, सुरेन को, विभूति को, या प्रमथ को ?
प्रमथ पर उसे सबसे अधिक विश्वास था, लेकिन कई वर्ष हो गए उसका कुछ पता नही, कलकत्ते में है भी या नहीं...... ।
वह कुछ निर्णय कर पाता कि अचानक एक संध्या को उसके घर में आग लग गई। नीचे के तल्ले में एक धोबी रहता था। जिस समय आग लगी, सब सोये हुए थे। पड़ोसियों के आर्तनाद करने पर ही उसकी नींद खुली देखकर हतप्रभ रह गया। आग काफी फैल चुकी थी। सबसे पहले उसने हिरण्मयी देवी, कुत्ते और पक्षी को निरापद स्थान पर पहुंचाया। फिर कुछ अत्यन्त दुर्लभ और नितान्त प्रयोजनीय ग्रंथों और वस्त्रों को एक स्टील के ट्रंक में डाला और नीचे भागा। लेकिन आग तब तक ऊपर बढ़ आई थी। लकड़ी का घर धू-ध करके जलने लगा था। यह देखकर उसने उस ट्रंक को फेंक दिया और छलांग मारकर नीचे कूद पड़ा। और एक ओर खड़े होकर अग्निदाह को देखने लगा। उसके कई मित्र जो सामने के मैदान में बैठे हुए वायु सेवन कर रहे थे वहां आ गए। उन्होंने देखा, शरत् एकटक अपने जलते हुए मकान को देख रहा है। आकण्ठ सहानुभूति से भरकर एक मित्र ने कहा, “शरत् दा, घर की चीज़े तो वहीं रह गईं। लाइब्रेरी, तैलचित्र, पाण्डुलिपियां सब कुछ नष्ट हो गया।
निस्संग भाव से शरत् ने उत्तर दिया, “हो गया। अब क्या किया जा सकता है ?"
एक विदेशी बन्धु की पूरी लायब्रेरी उसने थोड़े मूल्य पर खरीद ली थी। बड़े परिश्रम से घर को सजाया था। बड़ी साध से तैलचित्र तैयार किए थे। अभागिनी नारियों का इतिहास, 'चरित्रहीन' न जाने कितने वर्षों से लिखता आ रहा था। सब कुछ को उसने अपनी आंखो के सामने भस्म होते हुए देखा और मौन खड़ा रहा। बचा सका केवल कुछ पुस्तकों को, अपनी पत्नी को, पक्षी को और प्यारे कुत्ते को ।
उसी समय सहसा धोबी का आर्तनाद सुना । प्राणों के भय से वह अपनी बकरी खोलना भूल गया था। शरत् तुरन्त दौड़ा। किसी के निषेध की उसने परवाह नहीं की । जलते हुए घर में घुस गया। सभी लोग 'हाय हाय' करने लगे। परन्तु उसी क्षण आग और धुएं के कुण्डल के बीच में से बकरी के बच्चे को छाती से चिपकाए हुए वह विधुत् गति से बाहर आ गया। ठीक इसी समय वह जलता हुआ घर बड़े ज़ोर से टूटकर गिर पड़ा।
फिर बचाने के लिए कुछ शेष नहीं रहा । इस अग्निदाह के संबंध में भी अनेक व्यक्तियों ने अनेक बातें कहीं है। लेकिन इसकी सूचना देते हुए उसने अपने बचपन के प्रिय साथी प्रमथनाथ भट्टाचार्य को दो पत्र लिखे थे। इससे पहले उसने उन्हें कभी लिखा हो इसका कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिलता। इन पत्रों से भी लगता है कि वह बहुत वर्षो बाद लिख रहा था। अग्निदाह के लगभग एक महीना बाद उसने पहला पत्र लिखा:
प्रमथ को सूचना दे रहा हूं कि मैं इस देश में बीच-बीच में आता रहा हूं और भविष्य में भी आने की आशा रखता हूं। पिछली बार जब आया था, तो दो बार प्रमथ का ठिकाना चेष्टा करने पर भी नपा सका और इसी कारण भेंट नहीं हो सकी।
मैं अच्छा नहीं हूं क्योंकि दो वर्ष पहले हृदय रोग से बहुत कष्ट पाया। आज भी संभवत: स्वस्थ नहीं हो सका हूं, फिर भी पीड़ा कम है। 5 फरवरी की रात को मेरा घर-द्वारा सब जल गया। घर जल जाने से एक मुसीबत में पड़ गया हूं। हज़ार-दो हज़ार की वस्तुएं तो गई ही, एक बहुमूल्य पुस्तकालय तथा पाण्डुलिपि आदि सब नष्ट हो गए। मन में सोचा था कि इनको इस महीने के अन्त में प्रेस में भिजवा दूंगा। किसके ऊपर भार रखूं यह सोचने पर अनेक बार प्रमथ की बात मन में आई, लेकिन यह मन में नहीं हुआ कि वह शायद अभी कलकत्ते में है। आशा करता हूं सब समाचार अच्छे हैं। मई माह में फिर कलकत्ता आऊंगा । बारह दिन बाद 2 फिर दूसरा पत्र लिखा :
प्रमथ,
तुम्हारा पत्र पाकर आज ही जबाब लिखता हूं ऐसा तो नही हुआ। जो मेरा स्वभाव जानते हैं, उनके सामने इससे अधिक कुछ कहना व्यर्थ है। बहुत बार तुम्हें मेरी याद आई है, यह मैं जानता हूं। क्योंकि जिनको याद करने का कोई प्रयोजन नहीं है वे भी जब याद करते हैं, तब तुम तो करोगे ही। मेरे भाग्यविधाता ने मेरी समस्त शास्ति, से बड़ी यही शास्ति, जन्म से ही जान पड़ता है, मेरे भाग्य में लिखी है। आज यदि मैं यह सोच सकता कि मेरे सभी परिचित-आत्मीय-स्वजन बन्धु बान्धव मुझे भूल गए हैं तो सुखी होता, शांति पाता। यह होनेवाला नहीं है। जो मुझे याद करेंगे वे मेरी खोज लेना चाहेंगे, विचार करेंगे और बराबर मेरे पतन पर दुःखी होकर दीर्घ निःश्वास खींचेंगे और मेरे मर्मान्तक दुख के बोझ को अक्ष कर देंगे। लोगों ने मुझसे क्या-क्या आशा की थी, क्या नहीं पाया और क्या होने पर वे मुझको निष्कृति दे सकते थे, यह यदि मुझे बता सकते तो मैं चिरकाल तक उनका कृता रहता। यदि तुम पुरानी बातें याद न दिला देते तो मैं यह सब न कहता। मैं मर गया हूं, यही बात किसी दिन देख पाओ तो कहना।
यह कहकर तुम दुखी मत होना। तुमसे मुझे डर नहीं लगता। क्योंकि तुम, जान पड़ता है, मेरा विचार करने का गुरु भार. लेना नहीं चाहोगे। इसी से कुछ और दिन जीवित रहने पर भी हानि होगी, ऐसा नहीं सोचता हूं। तुम मेरे मित्र हो, शुभचिन्तक हो । विचारक होकर मुझे दुख नहीं दोगे, यही आशा करता हूँ।
मेरे बारे में जानना चाहते हो । संक्षेप में वह इस प्रकार है: -1. शहर के बाहर मैदान के बीच में और नदी के किनारे एक छोटे-से घर में रहता हूं। 2. नौकरी करता हूं। नब्बे रुपये वेतन मिलता है। और दस रुपये भत्ता । 3. दिल की बीमारी है। किसी भी क्षण .... 4. बहुत पढ़ा है, लिखा प्राय: कुछ भी नहीं। पिछले दस वर्षो में शरीर विज्ञान, जीव विज्ञान, मनोविज्ञान और इतिहास पढ़ा है। शास्त्र भी कुछ पढ़ा है। 5. आग से मेरा सब कुछ जल गया। पुस्तकालय और 'चरित्रहीन' उपन्यास की पाण्डुलिपि भी। 'नारी का इतिहास' करीब चार-पांच सौ पृष्ठ लिखा था, वह भी जल गया। इच्छा थी, इस वर्ष छपवाऊंगा मेरे द्वारा कुछ हो यह शायद सम्भव नही, इसीलिए सब कुछ स्वाहा हो गया। फिर कुछ करूंगा, ऐसा उत्साह नहीं हो रहा। 'चरित्रहीन' पांच सौ पृष्ठों में प्रायः समाप्त हो चला था। सब कुछ गया
तुम्हारे क्लब की बात सुनकर अत्यन्त आनन्द हुआ। किसी भी तरह हो, बीच-बीच में लिखते रहा करो । स्वयं ही कुछ करना अच्छा है, आज के फैशन के युग में यह बात भूलना उचित नहीं है।
तुम्हारा जैसा स्वभाव है उससे तुम जो इतने लोगों के साथ घनिष्ठ भाव से परिचित हो गए हो, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। हमारी पुरानी साहित्य सभा की एकमात्र सदस्या निरुपमा देवी ही साहित्य सेवा कर रही है और सबने छोड़ दिया है । यही ना? मेरी कोई पुरानी रचना मेरे पास नहीं है। कहां हैं? है या नहीं है, कुछ नहीं जानता। जानना चाहता भी नहीं ।
एक और समाचार तुम्हें देना बाकी है। लगभग तीन वर्ष पहले हृदय रोग के प्रथम लक्षण प्रकट हुए थे। तब मैंने तैल चित्रांकन शुरू किया था। पढ़ना छोड़ दिया था। इन तीन वर्षो में बहुत-से चित्र इकट्ठे हो गए थे, वे भी खत्म हो गए हैं। अंकन का केवल सामान भ रह गया है। अब मुझे क्या करना उचित है यदि यह बता दो तो तुम्हारे कहने के मुताबिक कुछ दिन चेष्टा कर देखूंगा। नावेल, हिस्ट्री या पेटिंग, कौन-सा फिर शुरू करूं ?
तुम्हारा स्नेही,
शरत्
पत्र उसने इससे पहले भी लिखे होंगे, पर केवल दो पत्रों को छोड़कर उनका लेखा- जोखा किसी के पास नहीं है। उसके जीवन में नये युग का सूत्रपात प्रत्यक्ष रूप से इन्हीं दो पत्रों से होता है पिछले नौ वर्षों में उसके चारों ओर जो रहस्यमय वातावरण बन गया था, वह जैसे अब दूर होने लगा। उसके मन में यह विचार पैदा हुआ कि मेरी पुस्तकें भी छप सकती हैं। 'बड़ी दीदी' का पांच वर्ष पूर्व जैसा अपूर्व स्वागत हुआ था, रवीन्द्रनाथ ने जिस प्रकार उसकी प्रशंसा की थी, उससे निश्चय ही उसके मन से हीनता की भावना दूर हो चली थी। आत्मविश्वास जाग आया था।
इस पत्र में उसने चाय की दुकान खोलने की चर्चा की है। वह सत्य है। एक दिन अचानक उसने दफ्तर के अपने साथियों से कहा, मैंने एक चाय की दुकान खोली है।” साथी उसकी ओर देखते रह गए। सपनों की दुनिया में रहनेवाला, यह आवारा व्यक्ति क्या दुकान खोलेगा? अविश्वास के स्वर में एक मित्र ने पूछा, “क्या सच!”
“देखना है तो चलो।”
दफ्तर बन्द हो जाने के बाद, आग्रहपूर्वक वह दो-चार मित्रों को अपनी दुकान पर ले गया। घर के पास एक लकड़ी के मकान में सचमुच चाय की दुकान थी। एक मित्र ने कहा, “शरत् बाबू, अब आप नौकरी छोड़ दीजिए। चाय की दुकान पर स्वयं न बैठने से दो दिन में सब कुछ समाप्त हो जाएगा।”
शरत् ने उत्तर दिया, “नहीं रे, बैठना नहीं होगा। जानते हो मैंने क्या बन्दोबस्त किया है? एक टिन दूध में कितनी चीनी मिलानी होगी, उससे कितने प्याले चाय तैयार होगी, यह सब मैंने ठीक कर लिया है। सवेरे दूध का एक टिन खरीद दूंगा, सारा दिन जितना दूध खर्च होगा, संध्या को उसी के हिसाब से पैसे ले लूंगा।”
यह गणित कहने में जितना सरल था, व्यवहार में उतना ही कठिन प्रमाणित हुआ। वह दुकान बहुत जल्दी समाप्त हो गई।