राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की, पर अशिष्ट वे कभी नही हुए। अपने एक प्रियजन से उन्होंने कहा था, “विशिष्ट व्यक्तियों के कामों की आलोचना करने में कोई हानि नहीं है, लेकिन जो कहना हो ऐसे कहो जिससे श्रद्धा कम न हो ।”
जिस समय साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर पण्डित मदनमोहन मालवीय तथा श्री अणे ने कांग्रेस से अलग एक दल का निर्माण किया तो उन्हें यह अच्छा नहीं लगा। वे कांग्रेस के भीतर पक्षधर हो सकते थे, लेकिन उसको दुर्बल करने के लिए वे कदापि तैयार नहीं थे। उन्होंने कहा, 'जो लोग इस नये आन्दोलन के अगुआ है, उन पर एकनिष्ठ प्रवीण कर्मी के हिसाब से मैं श्रद्धा रखता हूं। देश के राजनीतिक साधना के इतिहास में उनकी देन भी मैं कम नहीं मानता। किन्तु देश के लिए दुख का बोझ उनमें कांग्रेस की अपेक्षा भी अधिक है, इस बात को प्रमाणित करने के लिए मेरी समझ में कोई नया दल खड़ा करने का प्रयोजन नहीं था। कांग्रेस देश की सबसे बड़ी राजनीतिक संस्था है। साम्प्रदायिक भेदभाव के विरुद्ध चिरकाल से लड़ती आई है। आज उसे छोटा प्रमाणित करने की चेष्टा से किसी का व्यक्तिगत गौरव कुछ बढ़ा है या नहीं, यह मैं नहीं जानता, किन्तु देश का गौरव तनिक भी नहीं बढ़ा।
“देशसेवा जब तक धर्म का रूप नहीं ले लेती, तब तक उसमें थोड़ी-सी धोखाधड़ी रह जाती है, यह बात मैं प्रतिदिन मर्म-मर्म में अनुभव करता हूं। और धर्म जब देश से भी ऊंचा हो जाता है, तब भी विपत्ति घटित होती है। महात्माजी जानते हैं और वर्किंग कमेटी भी जानती है कि उन्होंने गलती नहीं की। मालवीयजी और अणे का विरुद्ध आचरण भी महात्माजी को विचलित नहीं कर पाया।
अतएव अगर कांग्रेस से संबंध त्याग भी दें, तो इसके साथ इस गड़बड़ का कोई संबंध नहीं रहेगा।
“एक बात मैं जानता हूं, बंगाल के मुसलमानों ने भी ज्वाइंट एलेक्टोरेल अर्थात् संयुक्त निर्वाचन मांगना शुरू कर दिया है। यह न होने पर दोष कहां पर है, इस बात को वे अच्छी तरह जानते हैं। यह भूलने से काम न चलेगा कि अधिकांश धनी मुसलमान ही नायब, गोमाश्ता, वकील और डाक्टर के कामों में अपनी जाति की अपेक्षा हिन्दुओं पर अधिक विश्वास करते हैं। साथ ही साथ मैं यह भी कहता हूं कि प्रत्येक हिन्दू मन से, हृदय से राष्ट्रवादी है। धर्म-विश्वास में भी वे किसी से कम या छोटे नहीं हैं। उनके वेद-उपनिषद् बहुत- से लोगों की बड़ी तपस्या के फल हैं। तपस्या का अर्थ ही है चिन्तन । बहुत लोगों के बहुतेरे चिंतन के फलस्वरूप जो धर्म गठित हुआ है, उसे विधान सभा में कुछ सीटें कम होने की आशंका से सर्वनाश का भय दिखाने का प्रयोजन नहीं था ।”
लेकिन दो वर्ष बाद जब यह साम्प्रदायिक बंटवारा सामने आया तो उन्होंने उसके विरुद्ध अपना स्वर ऊंचा करने में संकोच नहीं किया। उससे बंगाल के हिन्दुओं की जो क्षति हुई, उसके विरोध में कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर के सभापतित्व में टाउन हाल में एक सभा हुई। ±उस समय स्पष्ट शब्दों में उन्होंने कहा था, “यह नई शासन व्यवस्था आदि से अन्त तक बुरी है। उस अपरिसीम बुराई से बंगाल के हिन्दुओं की ही सबसे अधिक क्षति हुई है। आईन की कील ठोककर उनको हमेशा के लिए छोटा किया गया है। तथापि यह बात सत्य है कि देश के मुसलमान भाइयों ने दस-पन्द्रह जगहें अधिक पाई हैं। इसलिए मैं उनसे कहना चाहता हूं कि अन्याय और अविचार एक आदमी के साथ भी होता है, तो उससे अकल्याण ही होता है। उससे अन्त तक न मुसलमानों का, न हिन्दुओं का और न जन्मभूमि का, किसी का भी मंगल नही होता।”
उसी दिन इसी प्रकार की एक और सभा एलबर्ट हाल में हुई। उसके अध्यक्ष पद पर आसीन हुए स्वयं शरत्चन्द्र । वहां भी उन्होंने यही कहा, “इसके बाद इतना बड़ा अविचार जो हम लोगों के, हिन्दुओं के, ऊपर हुआ उसे जानकर भी वे चुप रहे, यही सबसे बड़े दुख की बात है। यह क्या वे नही समझते कि यह जो विष, यह जो क्षोभ हिन्दुओं के मन में जमा हो रहा है, वह एक न एक दिन रूप पावेगा ही? इस तरह से तो कोई देश चल नहीं सकता, कोई जाति जीवित रह नहीं सकती। यह उनकी भी तो जन्मभूमि है। केवल देने से ही नहीं होता, ग्रहण करने की शक्ति भी तो एक शक्ति है। आज अगर वे यह सोचें कि ब्रिटिश गवर्नमेंट के देने से ही उनका पाना हो गया तो एक दिन उन्हें पता चलेगा कि इतनी बड़ी भूल और नहीं है। मैं अपने मुसलमान भाइयों से कहता हूं कि तुम संस्कृति के ऊपर नज़र रखो, साहित्य के ऊपर नज़र रखो और छोटे बच्चों की तरह धारदार छुरों को हाथ में लेकर पागल होकर सब कुछ काटते मत फिरो ।”
दस वर्ष पूर्व कलकत्ते में साम्प्रदायिक दंगा हो जाने पर उन्होंने एक लेख लिखा था - वर्तमान हिन्दू-मुसलमान समस्या । उसमें उन्होंने कहा था, ...... भारत की स्वतन्त्रता से मुसलमानों को भी स्वतन्त्रता मिल सकती है, इस सत्य पर वे किसी दिन निष्कपट भाव से विश्वास नहीं कर सकेंगे। कर सकेंगे केवल तभी, जब उनका अपने धर्म के प्रति मोह कम होगा, जब वे समझेंगे कि कोई भी धर्म हो, उसके कट्टरपन को लेकर गर्व करने के बराबर मनुष्य के लिए ऐसी लज्जा की बात, इतनी बड़ी बर्बरता और दूसरी नहीं है । किन्तु उनके यह समझने में अभी बहुत देर है, और दुनिया-भर के लोग मिलकर मुसलमानों की शिक्षा की व्यवस्था न करें तो इनकी आंखें किसी दिन खुलेंगी या नहीं, इसमें सन्देह है। और क्या देश की स्वतन्त्रता के संग्राम में देश भर के सभी लोग कमर बांधकर लग जाते हैं? अमेरिका ने जब स्वाधीनता के लिए युद्ध छेड़ा, तब उस देश के आधे से अधिक लोग अंग्रेजों के ही पक्षपाती थे। आयरलैंड के मुक्तियज्ञ में वहां के कै जने शामिल हुए थे? जो बोल्शेविक (साम्यवादी या कम्युनिस्ट) सरकार आज रूस का शासन चला रही है, उस देश की जनसंख्या के अनुपात में वह तो एक प्रतिशत भी नहीं पड़ती। केवल मात्र भीड़ का परिणाम देखकर ही सत्य-असत्य का निर्धारण नहीं होता, होता है केवल उनकी तपस्या का, उनकी लगन का विचार करके। इस एकाग्र तपस्या का भार देश के युवकों के ऊपर है। हिन्दू - मुस्लिम एकता के बारे में सोचना भी उनका काम नहीं है, और जो सब प्रधान राजनीतिक दल इसी युक्ति या कूटकौशल को भारत की मुक्ति का एकमात्र उपाय कहकर चिल्लाते फिरते हैं, उनके पीछे जयजनि करने में समय नष्ट करके घूमना भी उनका काम नहीं है। संसार में बहुत-सी ऐसी चीजें हैं, जिन्हें छोड़ने पर ही उनको पाया जाता है। हिन्दू- मुस्लिम एकता भी इसी तरह की चीज़ है । जान पड़ता है, इसकी आशा बिलकुल छोड़कर काम में लग जा सकने पर ही शायद एक दिन इस अत्यन्त दुष्प्राय निधि के दर्शन मिलेंगे। कारण, तब मिलन केवल एक की ही चेष्टा से नहीं होगा, वह होगा दोनों की हार्दिक और सपूर्ण इच्छा का फल ।”
ढाका में मुस्लिम साहित्य समाज के दशम वार्षिक अधिवेशन का सभापतित्व करते हुए उन्होंने एक बार फिर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट किया। कहा- “ वाज़िदअली साहब ने सबसे अधिक हृदयविदारक बात यहां पर कही है, 'वास्तव में दो विषम-अनात्मीय संस्कृतियों के संघर्ष का ही यह फल विक्षोभ है। इसके लिए आक्षेप या दुख करना वृथा है। हिन्दू मुसलमान को नहीं समझता, इसलिए चारों ओर दुख का विलाप गूंज रहा है। किन्तु ऐसा भी हो सकता है कि उसके भारतीय कर्म, समाज और संस्कृति ने उसके मन को तंग बना दिया हो, दृष्टि को ढक लिया हो। अपने घेरे को लांघकर वह चल नहीं सकता। जो अपने आभिजात्य या श्रेष्ठता के गर्व में चिरकाल से डूबा हुआ है, पराजय का प्राचीन रोष जिसका आज भी दुर्जय है, बिना युद्ध के सुई की नोक-भर स्थान देने में भी जिसकी आपत्ति का अन्त नहीं है, उसकी बुद्धि को मुक्त कहना कठिन है। जो मुक्त है वह नहीं चलता, चल नहीं सकता। वह जड़ है। इस आत्मकेन्द्रित - परविमुख जड़ बुद्धि के परिवेश ने मुसलमान को अपनी वास भूमि में परवासी बना रखा है। भारत की मिट्टी के रस से रसाति होकर भी उसका मन जैसे भीगता नहीं। "
यह जो कहा है कि दो विषम-अनात्मीय संस्कृतियों के फल से यह विक्षोभ है, सो उसके लिए आक्षेप वृथा है। हम दोनों के पड़ोसी हैं। हम लोगों का आकाश, हवा, जल एक हैं। मातृभाषा का एक होना भी हम स्वीकार करते हैं, तो भी संघर्ष इतना बड़ा कठोर है कि उसके लिए आक्षेप तक करना वृथा है - यही मनोभाव यदि सचमुच समस्त हिन्दू- मुसलमानों का हो तो मैं यही कहूंगा कि मनुष्य की इससे बढ़कर और दुर्गति नहीं हो सकती। मैं पूछता हूं कि रवीन्द्रनाथ की बुद्धि भी क्या जड़ बुद्धि है? उनका मन मुक्त नहीं हुआ? यदि यह सत्य है तो वाजिदअली साहब की यह भाषा कहां से आई? सहज-सुन्दर ढंग से अनायास अपने मन का भाव प्रकट करने की शक्ति उन्हें किसने दी? इस युग में ऐसा लेखक, ऐसा साहित्यसेवी कौन है, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष में रवीन्द्रनाथ का ऋणी नहीं है? साहित्य धर्म-पुस्तक नहीं, नीति सिखाने की पोथी भी नहीं है। उसने अपनी विशाल परिधि के भीतर अपने माधुर्य से सब कुछ को ही अपना कर रखा है। इसी से किसी ने आज भी इसका सत्य निर्देश नहीं पाया कि साहित्य क्या है, रसवस्तु क्या है? इस विषय में कितना ही तर्क, कितना ही मतभेद है। इस अवांछित व्यवधान के संबंध में मिज़ातुर्ररहमान साहब ने 'बुलबुल' मासिक पत्र की ज्येष्ठ संख्या में अपने लेख में एक जगह निष्करुण होकर कहा है कि शरत् बाबू ने अपने ढेर के ढेर उपन्यासों के भीतर जगह-जगह मुसलमान समाज के जो चित्र अंकित किए हैं, वे मुसलमान समाज के ख़ूब ऊंचे दर्जे के लोगों के नहीं हैं। किन्तु मैं पूछता हूं ऊंचे-नीचे दर्जे के पात्र - पात्रियों के ऊपर ही क्या उपन्यास की उच्चता-नीचता, भलाई-बुराई निर्भर करती है? अगर यही उनका अभिमत हो तो मेरे साथ उनका मत मेल नही खायेगा। न मेल खायें, किन्तु उपसंहार में जो उन्होंने कहा है कि शरत्चन्द्र ने हिन्दू समाज के विविध दोषों और समस्याओं को लेकर जो सब कहानियां और उपन्यास लिखे हैं और प्रतिकर के उद्देश्य से अपने समाज को जो चाबुक मारे हैं, उन सदिच्छा-प्रणोंदित निर्मम कशाघातों को भी मुस्लिम समाज अम्लान वदन होकर ग्रहण करेगा। यह मैं ज़ोर देकर कह सकता हूं। मैं बंगाल के कथा-साहित्य-सम्राट से एक बार परीक्षा करके देखने का अनुरोध करता हूं।
"उस दिन जगन्नाथ हाल में अपने अभिनन्दन के प्रतिभाषण में इस बात का उत्तर मैंने दिया है। हार्दिक शुभकामना को ये लोग कैसे ग्रहण करते हैं, यह इस संसार से विदा होने से पहले मैं देख जाऊंगा। खैर, वह चाहे जो हो, मनुष्य केवल अपनी इच्छा ही प्रकट कर सकता है, किन्तु उसके परिपूर्ण होने का भार एक और जन के ऊपर रहता है, जो वाक्य और मन के अगोचर है। उस दिन भोजन करते समय हिज एक्सेलेंसी गवर्नर ने मुझसे यही प्रश्न किया था। मैंने उत्तर दिया था कि मैं दोनों समाजों के आशीर्वादों के साथ अपने इरादे को कार्यरूप में परिणत करना चाहता हूं। ठीक समाजों का नहीं, चाहता हूं दोनों समाजों के साहित्य-सेवकों का आशीर्वाद । जिस भाषा में, जिस साहित्य की इतने दिन तक सेवा की है, उसके ऊपर अकारण अनाचार मुझसे सहा नहीं जाता। मेरे मन में पूर्ण विश्वास है कि मेरी तरह जिन्होंने साहित्य की यथार्थ साधना की है, वे हिन्दू या मुसलमान जो भी हों, किसी से यह अनाचार सहा नहीं जायेगा। सौंदर्य और माधुर्य के लिए अगर कुछ परिवर्तन का प्रयोजन हो, ऐसा तो कितनी ही बार हुआ है, तो यह काम धीरे- धीरे यही लोग करेंगे और कोई नहीं। वह हिन्दूपन के कल्याण के लिए नहीं, मुसलमानियत के भी कल्याण के लिए नहीं, केवल मातृभाषा और साहित्य के कल्याण के लिए ही। साधारणतया यही मेरी एकमात्र प्रार्थना है।”
इस भाषण में उन्होंने लाट साहब से वार्तालाप की चर्चा की है। उसको लेकर कलकत्ता में बड़ा अपवाद फैला। साम्प्रदायिक बंटवारे के दिनों में इस निर्दोष घटना ने विद्वेष का रूप धारण कर लिया। समाचार फैल गया कि ढाका में समावर्तन संस्कार के समय शरत्चन्द्र ने कहा कि अब वे मुस्लिम समाज को लेकर साहित्य की सृष्टि करेंगे। पत्रों ने व्यंग्य-विद्रूप से लिखा कि केवल उपन्यास लिखकर जब बहुवांछित डाक्टर की उपाधि मिल गई, वह भी रहमान साहब के हाथ से, तब इस ब्राह्मण वटुक ने आवेश में आकर कह डाला कि अब से वह मुसलमान भाइयों को लेकर उपन्यास लिखेगा। हाय शरत्चन्द्र तुम्हारी प्राणशक्ति की यह दरिद्रता देखकर सचमुच तुम पर दया करने का मन होता है।”
'शनिवारेर चिठि' ने तीव्र आक्रमण करते हुए लिखा, शरत्चन्द्र के साहित्य की विशेषता है उनकी अभिज्ञता । बालीगंज के घर की दीवार फांदकर बंगाल के मुस्लिम समाज के बारे में अभिज्ञता प्राप्त करना बागबाज़ार में बैठकर लन्दन का सम्वाददाता बनने से कठिन काम है। शरत्चन्द्र ऐसा नहीं कर सकते, उनकी वह आयु नही है।'
इतना ही नहीं, उसने उन पर भाषा बदल देने का दोष भी लगाया।
लेकिन शरत्चन्द्र पर, जैसा कि हो सकता था, इन अपवादों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अपने 61 वें जन्मदिन पर इन अपवादों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा, “मुसलमान हमारे पड़ौसी हैं, बंगला भाषा उनकी मातृभाषा है। सचमुच ही यदि हम सहानुभूतिपूर्वक उनसे बात करेंगे तो वे सुनने को बाध्य होंगे। वे भी मनुष्य हैं। 'मुस्लिमद्वेषी वे कभी नहीं थे। साहित्य में जातिवाद का उन्होंने एकस्वर में निरन्तर विरोध किया। उन्होंने कहा, “मेरी महेश' कहानी को मुसलमान कितना प्यार करते हैं! परन्तु मैंने क्या वह उनकी बात सोचकर लिखी थी? अब भी क्या उनका प्रचार करने के लिए उपन्यास लिखूंगा? साहित्य मनुष्य को लेकर है, वह किसी भी समाज का हो सकता है। सभी समाजों के मनुष्यों को लेकर लिखना चाहिए। लेकिन अब शरीर इतना ख़राब हो गया है कि नहीं जानता क्या कुछ कर सकूंगा। हां, मैं किसी से डरता नहीं। स्वस्थ रहा तो जो वचन दिया है उसे पूरा करूंगा।”
उन्होंने एक जनसभा में एक मुस्लिम भद्रलोक के कहने पर भी प्रतिज्ञा की थी, मैंने ठीक किया है कि इस बार मुसलमान समाज को लेकर उपन्यास लिखूंगा।” उन्होंने काज़ी अब्दुल वदूद जैसे कई मुसलमान साहित्यकारों से विचार-विनिमय भी किया। लिखने से पूर्व वे मुस्लिम समाज के जीवन से भली भांति परिचित होना चाहते थे। काशी साहब से सहयोग का वचन पाकर उन्होंने कुछ नोट्स भी तैयार किये थे, ढाका में रहते समय ही उन्होंने आदि से अन्त तक पूरे प्लाट की परिकल्पना कर ली थी।
चारू वाबू ने तब कहा था, तुम्हारे अतिरिक्त इस काम को और कोई नहीं कर सकता। शीघ्र स्वस्थ होकर हमारे साहित्य के इस अभाव को दूर करो, यह हम चाहते हैं।
परन्तु मृत्यु के पदचाप बहुत पास सुनाई देने लगे थे। वे अपना वचन पूरा न कर सके। यदि जीवन ने उनका साथ दिया होता तो कला की दृष्टि से भले ही न हो, 'शेष प्रश्न' के समान विचार की दृष्टि से वे एक और सुन्दर रचना दे जाते। उनका यह संकल्प ओढ़ा हुआ नहीं था, अन्तर के विश्वास का ही फल था । बहुत दिन पहले वे बिहार शरीफ गये थे। भागलपुर के एडवोकेट चण्डीचरण घोष उनके साथ थे। दोनों वहां की बड़ी मस्जिद देखने गये। अन्दर पहुंचते ही विनोदप्रिय शरत् बाबू सहसा गम्भीर हो उठे और बार-बार 'अल्लाह- अल्लाह' पुकारने लगे। चण्डी बाबू ने मुस्कराकर पूछा, “क्या मुसलमान हो गये हैं?”
उत्तर मिला, देखो चण्डी, सभी भगवान को याद करते है। किसी नाम से पुकारो। अल्लाह कहो या कुछ और कहो। अन्दर आकर हमें बहुत अच्छा लग रहा है।”
उस दिन दो मुसलमान राहगीर उनके पाणित्रास वाले मकान के पास से जा रहे थे कि सहसा नमाज़ का समय हो गया। वे वहीं ठहर गये और वजू करने के लिए उन्होंने शरत् बाबू से एक लोटा जल मांगा। शरत् बाबू ने समझा कि शायद वे लोग पानी पीना चाहते हैं। उन्होंने पानी दे दिया, लेकिन जब वे दोनों उस पानी से वजू करके एक पेड़ के नीचे नमाज़ पढ़ने की तैयारी करने लगे तब उन्हें भीतर बुलाकर शरत् ने कहा कि वे उनके पश्चिमवाले बरामदे में नमाज़ पढ़ें। उन्होंने वहां एक कालीन भी बिछवा दिया। इतना ही नहीं, नमाज़ समाप्त हो जाने के बाद उनका अन्य अतिथियों की तरह आदर-सत्कार किया। उन्हें खिलाया पिलाया और रात में वहीं रह जाने के लिए भी कहा।
इस संबंध में श्रीमती जहानआरा चौधरी को लिखा उनका पत्र भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। —बंगाल में मुसलमान साहित्यकार कम नहीं हुए, पर जिस अनुपात से हिन्दू इस क्षेत्र में आये उस अनुपात से मुसलमान नहीं आये। इस समस्या के विभिन्न पहलुओं की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा, “कुछ दिन पहले मेरे एक नये मुसलमान मित्र ने इस बात पर क्षोभ प्रकट किया था। स्वयं भी वे साहित्यसेवी है, पण्डित अध्यापक हैं। साम्प्रदायिक मलीनता ने अभी उनके हृदय को और उनकी दृष्टि को कलुषित नहीं किया है। उन्होंने कहा, हिन्दू और मुसलमान, ये दो सम्प्रदाय एक ही देश में एक ही आबोहवा में, आसपास पड़ोसी की तरह रहते हैं। जन्म से एक ही भाषा बोलते है। फिर भी इतने विच्छिन्न, इतने पराये बने हुए हैं कि सोचकर अचरज होता है। संसार और जीवन-धारण के प्रयोजन से यह एक बाहरी लेन-देन है, लेकिन आन्तरिक लेन-देन बिलकुल नहीं है, ऐसा कहना झूठ नहीं होगा। क्यों ऐसा हुआ, इसकी गवेषणा की आवश्यकता नहीं, लेकिन आज विच्छेद का अर्थ? इस दुखमय अन्तर का खात्मा करना ही पड़ेगा। नहीं तो किसी का भी मंगल नही होगा।”
मैंने कहा, 'इस बात को मानता हूं, लेकिन इस दुस्साध्य के साधन का कौन-सा उपाय सोचा?"
“उन्होंने कहा, एक मात्र साहित्य | आप लोग हमें खींच लें। स्नेह के साथ, सहानुभूति के साथ हमारी बातें लिखें। लेकिन हिन्दुओं के लिए हिन्दू साहित्य का सृजन मत कीजिए।
मुसलमान पाठ की बात भी ज़रा याद रखिए। देखेंगे बाहरी अन्तर कितना ही बड़ा क्यों न दिखाई पड़े, फिर भी एक ही आनन्द, एक ही वेदना दोनों ही नसों में प्रवाहित होती है।'
-
मैंने कहा, 'इस बात को मैं जानता हूं। लेकिन अनुराग के साथ विराग, प्रशंसा के साथ तिरस्कार, अच्छी बातों के साथ बुरी बातें भी गल्प साहित्य का अपरिहार्य अंग हैं। लेकिन इसपर तो तुम लोग न करोगे विचार, न करोगे क्षमा । शायद ऐसे दण्ड की व्यवस्था करोगे, जिसे सोचने पर भी शरीर थर्रा उठता है। इससे जो है वही निरापद है।”
उसके बाद दोनों ही चुप रहे । अन्त में मैं बोला, 'तुम लोगों में से कोई-कोई शायद कहेंगे कि हम क़ायर हैं, तुम लोग वीर हो। तुम लोग हिन्दुओं की कलम से निन्दा बर्दाश्त नहीं करते और जो प्रतिशोध लेते हो वह भी चरम है। यह भी मानता हूं और तुम लोगों को वीर कहने में व्यक्तिगत
रूप से मुझे कोई आपत्ति नहीं, लेकिन यह भी कहता हूं कि तुम्हारी यह वीरता की धारणा अगर कभी बदलती है तो देखोगे कि तुम्हीं सबसे अधिक क्षतिग्रस्त हुए हो ।"
“ तरुणा मित्र का चेहरा विषण्ण हो उठा । बोले, 'क्या तब इसी तरह का असहयोग चिरकाल तक चलेगा ?'
“मैं बोला, 'नहीं, चिरकाल तक नहीं चलेगा । क्योंकि जो साहित्यसेवक हैं, उनकी जाति, उनका सम्प्रदाय अलग नहीं है । मूल में, हृदय में वे एक हैं । उसी सत्य की उपलब्धि करके इस अवांछित सामयिक अन्तर को आज तुम्हीं लोगों को खत्म करना होगा ।'
“मित्र ने कहा, 'अब इसकी चेष्टा करूंगा ।'
“मैं बोला, 'करना । अपनी चेष्टा के बाद भगवान के आशीर्वाद का प्रतिदिन अनुभव करोगे ।'