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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023

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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की, पर अशिष्ट वे कभी नही हुए। अपने एक प्रियजन से उन्होंने कहा था, “विशिष्ट व्यक्तियों के कामों की आलोचना करने में कोई हानि नहीं है, लेकिन जो कहना हो ऐसे कहो जिससे श्रद्धा कम न हो ।”

जिस समय साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर पण्डित मदनमोहन मालवीय तथा श्री अणे ने कांग्रेस से अलग एक दल का निर्माण किया तो उन्हें यह अच्छा नहीं लगा। वे कांग्रेस के भीतर पक्षधर हो सकते थे, लेकिन उसको दुर्बल करने के लिए वे कदापि तैयार नहीं थे। उन्होंने कहा, 'जो लोग इस नये आन्दोलन के अगुआ है, उन पर एकनिष्ठ प्रवीण कर्मी के हिसाब से मैं श्रद्धा रखता हूं। देश के राजनीतिक साधना के इतिहास में उनकी देन भी मैं कम नहीं मानता। किन्तु देश के लिए दुख का बोझ उनमें कांग्रेस की अपेक्षा भी अधिक है, इस बात को प्रमाणित करने के लिए मेरी समझ में कोई नया दल खड़ा करने का प्रयोजन नहीं था। कांग्रेस देश की सबसे बड़ी राजनीतिक संस्था है। साम्प्रदायिक भेदभाव के विरुद्ध चिरकाल से लड़ती आई है। आज उसे छोटा प्रमाणित करने की चेष्टा से किसी का व्यक्तिगत गौरव कुछ बढ़ा है या नहीं, यह मैं नहीं जानता, किन्तु देश का गौरव तनिक भी नहीं बढ़ा।

“देशसेवा जब तक धर्म का रूप नहीं ले लेती, तब तक उसमें थोड़ी-सी धोखाधड़ी रह जाती है, यह बात मैं प्रतिदिन मर्म-मर्म में अनुभव करता हूं। और धर्म जब देश से भी ऊंचा हो जाता है, तब भी विपत्ति घटित होती है। महात्माजी जानते हैं और वर्किंग कमेटी भी जानती है कि उन्होंने गलती नहीं की। मालवीयजी और अणे का विरुद्ध आचरण भी महात्माजी को विचलित नहीं कर पाया।

अतएव अगर कांग्रेस से संबंध त्याग भी दें, तो इसके साथ इस गड़बड़ का कोई संबंध नहीं रहेगा।

“एक बात मैं जानता हूं, बंगाल के मुसलमानों ने भी ज्वाइंट एलेक्टोरेल अर्थात् संयुक्त निर्वाचन मांगना शुरू कर दिया है। यह न होने पर दोष कहां पर है, इस बात को वे अच्छी तरह जानते हैं। यह भूलने से काम न चलेगा कि अधिकांश धनी मुसलमान ही नायब, गोमाश्ता, वकील और डाक्टर के कामों में अपनी जाति की अपेक्षा हिन्दुओं पर अधिक विश्वास करते हैं। साथ ही साथ मैं यह भी कहता हूं कि प्रत्येक हिन्दू मन से, हृदय से राष्ट्रवादी है। धर्म-विश्वास में भी वे किसी से कम या छोटे नहीं हैं। उनके वेद-उपनिषद् बहुत- से लोगों की बड़ी तपस्या के फल हैं। तपस्या का अर्थ ही है चिन्तन । बहुत लोगों के बहुतेरे चिंतन के फलस्वरूप जो धर्म गठित हुआ है, उसे विधान सभा में कुछ सीटें कम होने की आशंका से सर्वनाश का भय दिखाने का प्रयोजन नहीं था ।”

लेकिन दो वर्ष बाद जब यह साम्प्रदायिक बंटवारा सामने आया तो उन्होंने उसके विरुद्ध अपना स्वर ऊंचा करने में संकोच नहीं किया। उससे बंगाल के हिन्दुओं की जो क्षति हुई, उसके विरोध में कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर के सभापतित्व में टाउन हाल में एक सभा हुई। ±उस समय स्पष्ट शब्दों में उन्होंने कहा था, “यह नई शासन व्यवस्था आदि से अन्त तक बुरी है। उस अपरिसीम बुराई से बंगाल के हिन्दुओं की ही सबसे अधिक क्षति हुई है। आईन की कील ठोककर उनको हमेशा के लिए छोटा किया गया है। तथापि यह बात सत्य है कि देश के मुसलमान भाइयों ने दस-पन्द्रह जगहें अधिक पाई हैं। इसलिए मैं उनसे कहना चाहता हूं कि अन्याय और अविचार एक आदमी के साथ भी होता है, तो उससे अकल्याण ही होता है। उससे अन्त तक न मुसलमानों का, न हिन्दुओं का और न जन्मभूमि का, किसी का भी मंगल नही होता।”

उसी दिन इसी प्रकार की एक और सभा एलबर्ट हाल में हुई। उसके अध्यक्ष पद पर आसीन हुए स्वयं शरत्चन्द्र । वहां भी उन्होंने यही कहा, “इसके बाद इतना बड़ा अविचार जो हम लोगों के, हिन्दुओं के, ऊपर हुआ उसे जानकर भी वे चुप रहे, यही सबसे बड़े दुख की बात है। यह क्या वे नही समझते कि यह जो विष, यह जो क्षोभ हिन्दुओं के मन में जमा हो रहा है, वह एक न एक दिन रूप पावेगा ही? इस तरह से तो कोई देश चल नहीं सकता, कोई जाति जीवित रह नहीं सकती। यह उनकी भी तो जन्मभूमि है। केवल देने से ही नहीं होता, ग्रहण करने की शक्ति भी तो एक शक्ति है। आज अगर वे यह सोचें कि ब्रिटिश गवर्नमेंट के देने से ही उनका पाना हो गया तो एक दिन उन्हें पता चलेगा कि इतनी बड़ी भूल और नहीं है। मैं अपने मुसलमान भाइयों से कहता हूं कि तुम संस्कृति के ऊपर नज़र रखो, साहित्य के ऊपर नज़र रखो और छोटे बच्चों की तरह धारदार छुरों को हाथ में लेकर पागल होकर सब कुछ काटते मत फिरो ।”

दस वर्ष पूर्व कलकत्ते में साम्प्रदायिक दंगा हो जाने पर उन्होंने एक लेख लिखा था - वर्तमान हिन्दू-मुसलमान समस्या । उसमें उन्होंने कहा था, ...... भारत की स्वतन्त्रता से मुसलमानों को भी स्वतन्त्रता मिल सकती है, इस सत्य पर वे किसी दिन निष्कपट भाव से विश्वास नहीं कर सकेंगे। कर सकेंगे केवल तभी, जब उनका अपने धर्म के प्रति मोह कम होगा, जब वे समझेंगे कि कोई भी धर्म हो, उसके कट्टरपन को लेकर गर्व करने के बराबर मनुष्य के लिए ऐसी लज्जा की बात, इतनी बड़ी बर्बरता और दूसरी नहीं है । किन्तु उनके यह समझने में अभी बहुत देर है, और दुनिया-भर के लोग मिलकर मुसलमानों की शिक्षा की व्यवस्था न करें तो इनकी आंखें किसी दिन खुलेंगी या नहीं, इसमें सन्देह है। और क्या देश की स्वतन्त्रता के संग्राम में देश भर के सभी लोग कमर बांधकर लग जाते हैं? अमेरिका ने जब स्वाधीनता के लिए युद्ध छेड़ा, तब उस देश के आधे से अधिक लोग अंग्रेजों के ही पक्षपाती थे। आयरलैंड के मुक्तियज्ञ में वहां के कै जने शामिल हुए थे? जो बोल्शेविक (साम्यवादी या कम्युनिस्ट) सरकार आज रूस का शासन चला रही है, उस देश की जनसंख्या के अनुपात में वह तो एक प्रतिशत भी नहीं पड़ती। केवल मात्र भीड़ का परिणाम देखकर ही सत्य-असत्य का निर्धारण नहीं होता, होता है केवल उनकी तपस्या का, उनकी लगन का विचार करके। इस एकाग्र तपस्या का भार देश के युवकों के ऊपर है। हिन्दू - मुस्लिम एकता के बारे में सोचना भी उनका काम नहीं है, और जो सब प्रधान राजनीतिक दल इसी युक्ति या कूटकौशल को भारत की मुक्ति का एकमात्र उपाय कहकर चिल्लाते फिरते हैं, उनके पीछे जयजनि करने में समय नष्ट करके घूमना भी उनका काम नहीं है। संसार में बहुत-सी ऐसी चीजें हैं, जिन्हें छोड़ने पर ही उनको पाया जाता है। हिन्दू- मुस्लिम एकता भी इसी तरह की चीज़ है । जान पड़ता है, इसकी आशा बिलकुल छोड़कर काम में लग जा सकने पर ही शायद एक दिन इस अत्यन्त दुष्प्राय निधि के दर्शन मिलेंगे। कारण, तब मिलन केवल एक की ही चेष्टा से नहीं होगा, वह होगा दोनों की हार्दिक और सपूर्ण इच्छा का फल ।”

ढाका में मुस्लिम साहित्य समाज के दशम वार्षिक अधिवेशन का सभापतित्व करते हुए उन्होंने एक बार फिर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट किया। कहा- “ वाज़िदअली साहब ने सबसे अधिक हृदयविदारक बात यहां पर कही है, 'वास्तव में दो विषम-अनात्मीय संस्कृतियों के संघर्ष का ही यह फल विक्षोभ है। इसके लिए आक्षेप या दुख करना वृथा है। हिन्दू मुसलमान को नहीं समझता, इसलिए चारों ओर दुख का विलाप गूंज रहा है। किन्तु ऐसा भी हो सकता है कि उसके भारतीय कर्म, समाज और संस्कृति ने उसके मन को तंग बना दिया हो, दृष्टि को ढक लिया हो। अपने घेरे को लांघकर वह चल नहीं सकता। जो अपने आभिजात्य या श्रेष्ठता के गर्व में चिरकाल से डूबा हुआ है, पराजय का प्राचीन रोष जिसका आज भी दुर्जय है, बिना युद्ध के सुई की नोक-भर स्थान देने में भी जिसकी आपत्ति का अन्त नहीं है, उसकी बुद्धि को मुक्त कहना कठिन है। जो मुक्त है वह नहीं चलता, चल नहीं सकता। वह जड़ है। इस आत्मकेन्द्रित - परविमुख जड़ बुद्धि के परिवेश ने मुसलमान को अपनी वास भूमि में परवासी बना रखा है। भारत की मिट्टी के रस से रसाति होकर भी उसका मन जैसे भीगता नहीं। "

यह जो कहा है कि दो विषम-अनात्मीय संस्कृतियों के फल से यह विक्षोभ है, सो उसके लिए आक्षेप वृथा है। हम दोनों के पड़ोसी हैं। हम लोगों का आकाश, हवा, जल एक हैं। मातृभाषा का एक होना भी हम स्वीकार करते हैं, तो भी संघर्ष इतना बड़ा कठोर है कि उसके लिए आक्षेप तक करना वृथा है - यही मनोभाव यदि सचमुच समस्त हिन्दू- मुसलमानों का हो तो मैं यही कहूंगा कि मनुष्य की इससे बढ़कर और दुर्गति नहीं हो सकती। मैं पूछता हूं कि रवीन्द्रनाथ की बुद्धि भी क्या जड़ बुद्धि है? उनका मन मुक्त नहीं हुआ? यदि यह सत्य है तो वाजिदअली साहब की यह भाषा कहां से आई? सहज-सुन्दर ढंग से अनायास अपने मन का भाव प्रकट करने की शक्ति उन्हें किसने दी? इस युग में ऐसा लेखक, ऐसा साहित्यसेवी कौन है, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष में रवीन्द्रनाथ का ऋणी नहीं है? साहित्य धर्म-पुस्तक नहीं, नीति सिखाने की पोथी भी नहीं है। उसने अपनी विशाल परिधि के भीतर अपने माधुर्य से सब कुछ को ही अपना कर रखा है। इसी से किसी ने आज भी इसका सत्य निर्देश नहीं पाया कि साहित्य क्या है, रसवस्तु क्या है? इस विषय में कितना ही तर्क, कितना ही मतभेद है। इस अवांछित व्यवधान के संबंध में मिज़ातुर्ररहमान साहब ने 'बुलबुल' मासिक पत्र की ज्येष्ठ संख्या में अपने लेख में एक जगह निष्करुण होकर कहा है कि शरत् बाबू ने अपने ढेर के ढेर उपन्यासों के भीतर जगह-जगह मुसलमान समाज के जो चित्र अंकित किए हैं, वे मुसलमान समाज के ख़ूब ऊंचे दर्जे के लोगों के नहीं हैं। किन्तु मैं पूछता हूं ऊंचे-नीचे दर्जे के पात्र - पात्रियों के ऊपर ही क्या उपन्यास की उच्चता-नीचता, भलाई-बुराई निर्भर करती है? अगर यही उनका अभिमत हो तो मेरे साथ उनका मत मेल नही खायेगा। न मेल खायें, किन्तु उपसंहार में जो उन्होंने कहा है कि शरत्चन्द्र ने हिन्दू समाज के विविध दोषों और समस्याओं को लेकर जो सब कहानियां और उपन्यास लिखे हैं और प्रतिकर के उद्देश्य से अपने समाज को जो चाबुक मारे हैं, उन सदिच्छा-प्रणोंदित निर्मम कशाघातों को भी मुस्लिम समाज अम्लान वदन होकर ग्रहण करेगा। यह मैं ज़ोर देकर कह सकता हूं। मैं बंगाल के कथा-साहित्य-सम्राट से एक बार परीक्षा करके देखने का अनुरोध करता हूं।

"उस दिन जगन्नाथ हाल में अपने अभिनन्दन के प्रतिभाषण में इस बात का उत्तर मैंने दिया है। हार्दिक शुभकामना को ये लोग कैसे ग्रहण करते हैं, यह इस संसार से विदा होने से पहले मैं देख जाऊंगा। खैर, वह चाहे जो हो, मनुष्य केवल अपनी इच्छा ही प्रकट कर सकता है, किन्तु उसके परिपूर्ण होने का भार एक और जन के ऊपर रहता है, जो वाक्य और मन के अगोचर है। उस दिन भोजन करते समय हिज एक्सेलेंसी गवर्नर ने मुझसे यही प्रश्न किया था। मैंने उत्तर दिया था कि मैं दोनों समाजों के आशीर्वादों के साथ अपने इरादे को कार्यरूप में परिणत करना चाहता हूं। ठीक समाजों का नहीं, चाहता हूं दोनों समाजों के साहित्य-सेवकों का आशीर्वाद । जिस भाषा में, जिस साहित्य की इतने दिन तक सेवा की है, उसके ऊपर अकारण अनाचार मुझसे सहा नहीं जाता। मेरे मन में पूर्ण विश्वास है कि मेरी तरह जिन्होंने साहित्य की यथार्थ साधना की है, वे हिन्दू या मुसलमान जो भी हों, किसी से यह अनाचार सहा नहीं जायेगा। सौंदर्य और माधुर्य के लिए अगर कुछ परिवर्तन का प्रयोजन हो, ऐसा तो कितनी ही बार हुआ है, तो यह काम धीरे- धीरे यही लोग करेंगे और कोई नहीं। वह हिन्दूपन के कल्याण के लिए नहीं, मुसलमानियत के भी कल्याण के लिए नहीं, केवल मातृभाषा और साहित्य के कल्याण के लिए ही। साधारणतया यही मेरी एकमात्र प्रार्थना है।”

इस भाषण में उन्होंने लाट साहब से वार्तालाप की चर्चा की है। उसको लेकर कलकत्ता में बड़ा अपवाद फैला। साम्प्रदायिक बंटवारे के दिनों में इस निर्दोष घटना ने विद्वेष का रूप धारण कर लिया। समाचार फैल गया कि ढाका में समावर्तन संस्कार के समय शरत्चन्द्र ने कहा कि अब वे मुस्लिम समाज को लेकर साहित्य की सृष्टि करेंगे। पत्रों ने व्यंग्य-विद्रूप से लिखा कि केवल उपन्यास लिखकर जब बहुवांछित डाक्टर की उपाधि मिल गई, वह भी रहमान साहब के हाथ से, तब इस ब्राह्मण वटुक ने आवेश में आकर कह डाला कि अब से वह मुसलमान भाइयों को लेकर उपन्यास लिखेगा। हाय शरत्चन्द्र तुम्हारी प्राणशक्ति की यह दरिद्रता देखकर सचमुच तुम पर दया करने का मन होता है।”

'शनिवारेर चिठि' ने तीव्र आक्रमण करते हुए लिखा, शरत्चन्द्र के साहित्य की विशेषता है उनकी अभिज्ञता । बालीगंज के घर की दीवार फांदकर बंगाल के मुस्लिम समाज के बारे में अभिज्ञता प्राप्त करना बागबाज़ार में बैठकर लन्दन का सम्वाददाता बनने से कठिन काम है। शरत्चन्द्र ऐसा नहीं कर सकते, उनकी वह आयु नही है।'

इतना ही नहीं, उसने उन पर भाषा बदल देने का दोष भी लगाया।

लेकिन शरत्चन्द्र पर, जैसा कि हो सकता था, इन अपवादों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अपने 61 वें जन्मदिन पर इन अपवादों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा, “मुसलमान हमारे पड़ौसी हैं, बंगला भाषा उनकी मातृभाषा है। सचमुच ही यदि हम सहानुभूतिपूर्वक उनसे बात करेंगे तो वे सुनने को बाध्य होंगे। वे भी मनुष्य हैं। 'मुस्लिमद्वेषी वे कभी नहीं थे। साहित्य में जातिवाद का उन्होंने एकस्वर में निरन्तर विरोध किया। उन्होंने कहा, “मेरी महेश' कहानी को मुसलमान कितना प्यार करते हैं! परन्तु मैंने क्या वह उनकी बात सोचकर लिखी थी? अब भी क्या उनका प्रचार करने के लिए उपन्यास लिखूंगा? साहित्य मनुष्य को लेकर है, वह किसी भी समाज का हो सकता है। सभी समाजों के मनुष्यों को लेकर लिखना चाहिए। लेकिन अब शरीर इतना ख़राब हो गया है कि नहीं जानता क्या कुछ कर सकूंगा। हां, मैं किसी से डरता नहीं। स्वस्थ रहा तो जो वचन दिया है उसे पूरा करूंगा।”

उन्होंने एक जनसभा में एक मुस्लिम भद्रलोक के कहने पर भी प्रतिज्ञा की थी, मैंने ठीक किया है कि इस बार मुसलमान समाज को लेकर उपन्यास लिखूंगा।” उन्होंने काज़ी अब्दुल वदूद जैसे कई मुसलमान साहित्यकारों से विचार-विनिमय भी किया। लिखने से पूर्व वे मुस्लिम समाज के जीवन से भली भांति परिचित होना चाहते थे। काशी साहब से सहयोग का वचन पाकर उन्होंने कुछ नोट्स भी तैयार किये थे, ढाका में रहते समय ही उन्होंने आदि से अन्त तक पूरे प्लाट की परिकल्पना कर ली थी।

चारू वाबू ने तब कहा था, तुम्हारे अतिरिक्त इस काम को और कोई नहीं कर सकता। शीघ्र स्वस्थ होकर हमारे साहित्य के इस अभाव को दूर करो, यह हम चाहते हैं।

परन्तु मृत्यु के पदचाप बहुत पास सुनाई देने लगे थे। वे अपना वचन पूरा न कर सके। यदि जीवन ने उनका साथ दिया होता तो कला की दृष्टि से भले ही न हो, 'शेष प्रश्न' के समान विचार की दृष्टि से वे एक और सुन्दर रचना दे जाते। उनका यह संकल्प ओढ़ा हुआ नहीं था, अन्तर के विश्वास का ही फल था । बहुत दिन पहले वे बिहार शरीफ गये थे। भागलपुर के एडवोकेट चण्डीचरण घोष उनके साथ थे। दोनों वहां की बड़ी मस्जिद देखने गये। अन्दर पहुंचते ही विनोदप्रिय शरत् बाबू सहसा गम्भीर हो उठे और बार-बार 'अल्लाह- अल्लाह' पुकारने लगे। चण्डी बाबू ने मुस्कराकर पूछा, “क्या मुसलमान हो गये हैं?”

उत्तर मिला, देखो चण्डी, सभी भगवान को याद करते है। किसी नाम से पुकारो। अल्लाह कहो या कुछ और कहो। अन्दर आकर हमें बहुत अच्छा लग रहा है।”

उस दिन दो मुसलमान राहगीर उनके पाणित्रास वाले मकान के पास से जा रहे थे कि सहसा नमाज़ का समय हो गया। वे वहीं ठहर गये और वजू करने के लिए उन्होंने शरत् बाबू से एक लोटा जल मांगा। शरत् बाबू ने समझा कि शायद वे लोग पानी पीना चाहते हैं। उन्होंने पानी दे दिया, लेकिन जब वे दोनों उस पानी से वजू करके एक पेड़ के नीचे नमाज़ पढ़ने की तैयारी करने लगे तब उन्हें भीतर बुलाकर शरत् ने कहा कि वे उनके पश्चिमवाले बरामदे में नमाज़ पढ़ें। उन्होंने वहां एक कालीन भी बिछवा दिया। इतना ही नहीं, नमाज़ समाप्त हो जाने के बाद उनका अन्य अतिथियों की तरह आदर-सत्कार किया। उन्हें खिलाया पिलाया और रात में वहीं रह जाने के लिए भी कहा।

इस संबंध में श्रीमती जहानआरा चौधरी को लिखा उनका पत्र भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। —बंगाल में मुसलमान साहित्यकार कम नहीं हुए, पर जिस अनुपात से हिन्दू इस क्षेत्र में आये उस अनुपात से मुसलमान नहीं आये। इस समस्या के विभिन्न पहलुओं की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा, “कुछ दिन पहले मेरे एक नये मुसलमान मित्र ने इस बात पर क्षोभ प्रकट किया था। स्वयं भी वे साहित्यसेवी है, पण्डित अध्यापक हैं। साम्प्रदायिक मलीनता ने अभी उनके हृदय को और उनकी दृष्टि को कलुषित नहीं किया है। उन्होंने कहा, हिन्दू और मुसलमान, ये दो सम्प्रदाय एक ही देश में एक ही आबोहवा में, आसपास पड़ोसी की तरह रहते हैं। जन्म से एक ही भाषा बोलते है। फिर भी इतने विच्छिन्न, इतने पराये बने हुए हैं कि सोचकर अचरज होता है। संसार और जीवन-धारण के प्रयोजन से यह एक बाहरी लेन-देन है, लेकिन आन्तरिक लेन-देन बिलकुल नहीं है, ऐसा कहना झूठ नहीं होगा। क्यों ऐसा हुआ, इसकी गवेषणा की आवश्यकता नहीं, लेकिन आज विच्छेद का अर्थ? इस दुखमय अन्तर का खात्मा करना ही पड़ेगा। नहीं तो किसी का भी मंगल नही होगा।”

मैंने कहा, 'इस बात को मानता हूं, लेकिन इस दुस्साध्य के साधन का कौन-सा उपाय सोचा?"

“उन्होंने कहा, एक मात्र साहित्य | आप लोग हमें खींच लें। स्नेह के साथ, सहानुभूति के साथ हमारी बातें लिखें। लेकिन हिन्दुओं के लिए हिन्दू साहित्य का सृजन मत कीजिए।

मुसलमान पाठ की बात भी ज़रा याद रखिए। देखेंगे बाहरी अन्तर कितना ही बड़ा क्यों न दिखाई पड़े, फिर भी एक ही आनन्द, एक ही वेदना दोनों ही नसों में प्रवाहित होती है।'

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मैंने कहा, 'इस बात को मैं जानता हूं। लेकिन अनुराग के साथ विराग, प्रशंसा के साथ तिरस्कार, अच्छी बातों के साथ बुरी बातें भी गल्प साहित्य का अपरिहार्य अंग हैं। लेकिन इसपर तो तुम लोग न करोगे विचार, न करोगे क्षमा । शायद ऐसे दण्ड की व्यवस्था करोगे, जिसे सोचने पर भी शरीर थर्रा उठता है। इससे जो है वही निरापद है।”

उसके बाद दोनों ही चुप रहे । अन्त में मैं बोला, 'तुम लोगों में से कोई-कोई शायद कहेंगे कि हम क़ायर हैं, तुम लोग वीर हो। तुम लोग हिन्दुओं की कलम से निन्दा बर्दाश्त नहीं करते और जो प्रतिशोध लेते हो वह भी चरम है। यह भी मानता हूं और तुम लोगों को वीर कहने में व्यक्तिगत

रूप से मुझे कोई आपत्ति नहीं, लेकिन यह भी कहता हूं कि तुम्हारी यह वीरता की धारणा अगर कभी बदलती है तो देखोगे कि तुम्हीं सबसे अधिक क्षतिग्रस्त हुए हो ।"

“ तरुणा मित्र का चेहरा विषण्ण हो उठा । बोले, 'क्या तब इसी तरह का असहयोग चिरकाल तक चलेगा ?'

“मैं बोला, 'नहीं, चिरकाल तक नहीं चलेगा । क्योंकि जो साहित्यसेवक हैं, उनकी जाति, उनका सम्प्रदाय अलग नहीं है । मूल में, हृदय में वे एक हैं । उसी सत्य की उपलब्धि करके इस अवांछित सामयिक अन्तर को आज तुम्हीं लोगों को खत्म करना होगा ।'

“मित्र ने कहा, 'अब इसकी चेष्टा करूंगा ।'

“मैं बोला, 'करना । अपनी चेष्टा के बाद भगवान के आशीर्वाद का प्रतिदिन अनुभव करोगे ।'

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
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मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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भूमिका

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भूमिका : पहले संस्करण की

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कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

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" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

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उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

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अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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