सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु उसके बदलने पर भी कोई लाभ नहीं हुआ । ज्वर रहने लगा । प्रयत्न करने पर भी वह टूटा नहीं, बढ़ता ही चला गया । आखिर शय्या ग्रहण करनी पड़ी । कलकत्ता के बड़े-बड़े डाक्टर परीक्षा करने के लिए आये । उन्होंने बताया, "यह सब मलेरिया का उपद्रव है ।"
अब मलेरिया की चिकित्सा शुरू हुई । कुनैन खानी पड़ी। इंजेक्शन भी लगे । उसकी पीड़ा की चर्चा करते हुए उन्होंने एक पत्र में लिखा, “कल विधान डाक्टर ने इंजेक्शन दिया है । शरीर के जिस अंश पर भार देकर आराम से बैठा जाता है, वहीं पर । ओह, कैसी पीड़ा है ! नमक की पोटली और टूटी हरीकेन लालटेन लिये सवेरे से बैठा हूं ।"
वर फिर भी टस से मस नहीं हुआ। हालत दिन पर दिन गिरती चली गई । डाक्टरों का एक दल फिर परीक्षा करने लगा । इस बार उन्होंने निर्णय लिया कि 'वीकोलाई' है।
और इलाज करने पर ज्वर भी टूट गया । धीरे- धीरे स्वास्थ्य भी सुधरने लगा । डाक्टरों, मित्रों और परिजनों ने अनुरोध किया कि ऐसी अवस्था में वायु-परिवर्तन लाभदायक होगा । लेकिन वह कहीं जा पाते इससे पूर्व ही ज्वर ने फिर आ घेरा । हमेशा 99 डिग्री पर रहता । उन्होंने डाक्टर रमेशचन्द्र मजूमदार को अपनी चिरपरिचित सहज- परिहास - प्रिय भाषा में लिखा “इधर मेरा बुखार अच्छा होने में नहीं आता । डाक्टर विधानचन्द्र राय आदि रोग नही समझ पा रहे हैं
विभिन्न छाप की शीशियां हुईं जमा
विभिन्न नाप के डिब्बों का लग गया ढेर व्याधि से आधि अधिक बढ़ गई
और अस्थिजर्जर हो गया
तब डाक्टरों ने कहा, मरीज की हवा दो बदल ।
“इसलिए दो-तीन दिन में ही स्थान त्याग करने की इच्छा है अपनी नहीं दूसरों की। मन ही मन कहता हूं - हे संध्याकालीन नित्य सहचर 99 डिग्री के बुखार, तुम और ज़रा प्रसन्न हो जाओ और तुमने जिस काम की नींव डाली है उसे जल्दी-जल्दी ख़तम कर डालो । मुझे छुट्टी मिले ।" आखिर वे देवघर गये । मामा सुरेन्द्रनाथ के छोटे भाई सत्येन्द्रनाथ वहां सिविल सर्जन थे । हरिदास चट्टोपाध्याय ने उन्हें अपना मकान रहने लिए दे दिया था । कई महीने वहां रहे । लौटे तो काफी स्वस्थ हो चुके थे । अपने इस प्रवास के आधार पर उन्होंने 'देवघर की यादगार' नाम से एक निबन्ध लिखा है । उसमें जैसे उनका कविमन बोलता है । उनके विपुल साहित्य में पशुपक्षियों के प्रति उनके उत्कट प्रेम का बहुत कम परिचय मिलता है। इस लेख में वह प्रेम जैसे साकार हो उठा है। राजनीतिक जगत् में यह वह समय था, जब कांग्रेस ने 1935 के विधान के अन्तर्गत पदग्रहरण करना स्वीकार कर लिया था। उस समय पदों को लेकर जो आपाधापी मची थी उसकी चर्चा भी इस लेख में मिलती है, “अनमना होकर मन में यह सोच रहा था कि कांग्रेस जो पडे या महन्त हैं, उनकी मंत्री होने की कैसी उत्कट आकांक्षा है, कैसी पदलोलुपता है, अथवा निमूहता के आवरण में उसे छिपाने के लिए कितने कौशल से काम लेते हैं! जिन्होंने कानून बना दिया, एक नहीं सुनी, उन्हीं के साथ कानून की व्याख्या को लेकर कैसी झपट, कैसी लड़ाई ठाने हुए हैं! यह बात निःसन्देह प्रमाणित कर देना चाहते हैं वे कांग्रेसी कि कानून के विधाताओं का इरादा अच्छा नहीं है। विडम्बना और किसे कहते हैं!” लिखना प्रायः समाप्त हो चुका था, लेकिन प्रकाशक आग्रह कर रहे थे कि वे अपनी आत्मकथा लिख दें । उन्होंने कहा, मैं आत्मकथा नहीं लिख सकता, क्योंकि न तो मैं इतना सत्यवादी हूं और न इतना बहादुर ही, जितना कि एक आत्मकथा के लेखक को होना चाहिए।”
सुना कि कविगुरु ने भी एक दिन उनसे कहा था, “शरत्, तुम अपनी आत्मकथा लिखो!” उनका उत्तर था, गुरुदेव, यदि मैं जानता कि मैं इतना बड़ा आदमी बनूंगा तो मैं किसी और प्रकार का जीवन जीता । “
काश उन्होंने ताल्स्ताय की तरह अपनी डायरी रखी होती। शायद वह होती उनकी सब रचनाओं से श्रेष्ठ, मनुष्य के रहस्यमय अन्धकूपों में उतरने का मार्ग दिखाने वाली प्रकाश- किरण।......जीवन-संध्या में क्या सचमुच उन्हें इस बात का दुख था कि उन्होंने आवारगी का जीवन बिताया, शराब पी, वेश्याओं के बीच में जाकर रहे और नाना प्रकार के वास्तविक और अवास्तविक प्रेम-प्रपंच किये? लेकिन उनसे निर्लिप्त रहने की बात भी उन्होंने लिख दी थी। 'श्रीकान्त' के द्वितीय पर्व में गुरुदेव राजलक्ष्मी से कहते हैं, "जो अपराध एक आदमी को मिट्टी में मिला देता हे, उसी अपराध में दूसरा आदमी स्वच्छन्दता से पार हो जाता है। इसीलिए सब विधिनिषेध सभी को एक डोरी में नहीं बांध सकते।.
एक बार उन्होंने यह भी कहा था कि उन्होंने सब कुछ किया है, परन्तु छोटा काम नही किया। जो छोटा काम करता है अर्थात् मन को मैला करता है, वह क्या अपनी कृति के माध्यम से दूसरे के मन को इतना प्रभावित कर सकता है? तब वे क्यों डरते थे? इसका जवाब दिया था श्रीकान्त ने राजलक्ष्मी को। उसको छोड़कर चले जाने का कारण बताते हुए उसने कहा था, “दुनिया तो मनसा पण्डित की पाठशाला की उस राजलक्ष्मी को पहचानेगी नही। वह तो पहचानेगी सिर्फ़ पटना की प्रसिद्ध प्यारी बाई को। तब दुनिया की नज़रों में मैं कितना छोटा हो जाऊंगा सो तुम क्या नहीं देख सकतीं।?”
“किन्तु उसे तो सचमुच छोटा होना नहीं कहते । "
"भगवान की नज़र में न हो, किन्तु संसार की आंखें भी तो उपेक्षा करने की चीज़ नहीं हैं, लक्ष्मी।" इन्हीं संसार की आंखों से वे डरते थे। क्योंकि वे मानते थे कि जो दृष्टि संसार में दस आदमियों के भीतर से प्रकाश पाती है वह भी तो भगवान की दृष्टि है। इसे भी तो अस्वीकार करना अन्याय है। इसीलिए वे डरते थे । ताल्स्ताय अभिजात वर्ग के थे, अमीर थे। उन्होंने भी यौवन में वही कुछ किया, जो निर्धन आवारा शरत्चन्द्र ने किया था। वह भी बड़े होकर अपने यौवन की चर्चा करना पसन्द नहीं करते थे। कोई पूछता तो अन्तर की पीड़ा से वे कराह-से उठते। शरत्चन्द्र भी प्राय: ऐसे प्रश्नों से उत्तेजित हो उठते थे। एक बार उन्होंने अविनाश घोषाल से कहा था, देखो, लेखक के व्यक्तिगत जीवन को लेकर परेशान होने से क्या लाभ? वह लेखक है इसलिए अपने जीवन की सब बातें सबको बतानी होंगी, इसका आख़िर क्या अर्थ है? उसकी रचनाओं के माध्यम से उसका जितना परिचय मिल सकता है, उसी को लेकर संतुष्ट होना उचित है। यही लेखक का सच्चा परिचय है। इसीलिए में कहता हूं लेखक का व्यक्तिगत जीवन और उसका लेखक जीवन दोनों एक ही नहीं होते। किसी भी कारण से इन दोनों को मिला देना उचित नहीं है। मैं अपनी रचनाओं में जितना अपने का व्यक्त कर सका हूं उतना ही मैं हूं। पाठकों के लिए मेरा उतना ही परिचय काफ़ी है।” फिर भी उनको लेकर न जाने क्या-क्या लिखा जाता था । सत्य और मिथ्या के बीच कहीं कोई अन्तर नहीं रह गया था, परन्तु उन्होंने कभी उसका प्रतिवाद नहीं किया। इसी संदर्भ में एक स्थान पर उन्होंने कहा, 'अपने विगत जीवन के इतिवृत्त के संबंध से मैं एकदम उदासीन हूं। मैं जानता हूं कि इसको लेकर बहुत कुछ कल्पनाएं की जाती है और नाना प्रकार की किंवदंतियां प्रचलित हो गई हैं, लेकिन मेरे आलस्य पर इसका रंचमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा। शुभचिन्तक बीच-बीच में आकर कहते हैं कि आपके संबंध में झूठ-सच बातें प्रचलित की जा रही है, उनका आप प्रतिवाद क्यों नही करते ? मैं कहता हूं कि यदि वह सब मिथ्या है तो मैंने तो उसका प्रचार नहीं किया । इसलिए उसक प्रतिवाद भी करने का दायित्व मुझ पर नहीं है; उन्हीं पर है जिन्होंने प्रचार किया है। उन्हीं से जाकर कहो। “
वे औरतों के पीछे दौड़ते हैं, उन्होंने उस नायिका को प्रेमपत्र लिखा अफ़वाहों और अपवादों के घेरे में घिरा उनका व्यक्तित्व इस कारण और भी जटिल हो उठता है कि वे स्वयं उन अफ़वाहों में अपना योगदान करने से ज़रा भी नहीं हिचकते थे। अपने को छिपाने की प्रवृति से वे कभी मुक्ति नही पा सके। अद्भुत विरोधाभास था उनके स्वभाव में। एक ओर वैरागी का मन, दूसरी ओर ऐसी विनोदप्रियता जो उजड्डपन की सीमा तक पहुंच गई थी। जैसे एक साथ कई शरत् अन्तर में समाये रहते हों। इसीलिये कई बार कई लोग ऐसे संस्कारहीन, अभद्र, अशिष्ट व्यक्ति को देखते थे जो महानता से बहुत दूर था, जिसे सभ्य सोसायटी नहीं मिली थी। परन्तु ऐसे भी व्यक्ति थे जो उनके कृतिकार की विशेषता को खोज निकालते थे। उनके प्रभावहीन व्यक्तित्व में एक खुरदरापन था, परन्तु उसके नीचे मानवीय सम्वेदना का जो स्रोत बहता था उसने उनके असंख्य प्रशंसक पैदा कर दिये थे। वह ईमानदारी और गम्भीर सूझ-बूझ से पूर्ण थे। मनुष्य को समझने की अद्भुत क्षमता उनमें पैदा हो गई थी। अपनी सफलता, प्रतिष्ठा, कीर्ति किसी की उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की। विनोदप्रियता जितनी मुखर थी उदासीनता भी उतनी ही सत्य थी। नहीं होती तो वे अपनी दीदी के गांव के पास जाकर न रहते। वहां के समाज में वे जाति-बहिष्कृत थे समाज के ठेकेदारों ने इस बात को लेकर उन्हें परेशान करने का जी तोड़ प्रयत्न किया । नाना प्रकार के प्रस्ताव उनके पास आने लगे, पर उन्होंने जाति में फिर से प्रवेश की ज़रा भी चेष्टा नहीं की। अपने प्रयलों के इस प्रकार विफल हो जाने पर समाज के ठेकेदारों ने अपने-आपको अपमानित अनुभव किया और वे बदला लेने का अवसर ढूंढने लगे। तभी अचानक पास के गांव में रहने वाले आशुतोष चट्टोपाध्याय नाम के एक सज्जन की मां की मृत्यु हो गई। ऐसे ही अवसर की वे राह देख रहे थे। समाज के उन ठेकेदारों ने उन सज्जन से कहा कि उन्हें अपनी मां का श्राद्ध धूमधाम से करना चाहिए, अर्थात् पांच गांवों के ब्राह्मणों, स्त्री-पुरुषों, सबको भोज देना चाहिए, ऐसा करने से उनकी मां की आत्मा को शान्ति मिलेगी।
आशुतोष बाबू सम्पन्न व्यक्ति थे, इसके लिए तैयार हो गये। तब समाज के उन ठेकेदारों ने उनसे कहा शरत्चन्द्र के घर आप स्वयं जाइए और सभी लोगों को भोज में आने के लिए निमंत्रित कर आइए । “
ऐसा करने के पीछे उनका एक उद्देश्य था । यदि शरत् बाबू निमन्त्रण स्वीकार करके भोज करने के लिए आते हैं तो उन्हें जाति-बहिष्कृत कहकर पंगत से उठा दिया जाएगा। यदि नहीं आते हैं तो निमंत्रण अस्वीकार करने का दोष लगाकर अपमानित किया जाएगा। शरत् बाबू स्वयं तो क्या जाते, उनके घर से कोई भी व्यक्ति उस भोज में शामिल नहीं हुआ। कई दिन तक समाज में इसी बात को लेकर हो-हल्ला होता रहा। लेकिन शरत् बाबू को वह ज़रा भी विचलित नहीं कर सका। इतनी बड़ी पराजय समाज के ठेकेदार कैसे स्वीकार कर सकते थे। उन्होंने उनको अपमानित करने का एक और मार्ग ढूंढ निकाला। अदालत में उन पर अभियोग लगाया कि उन्होंने नदी का बांध तोड़कर गांव के लोगों के धान के खेतों को नष्ट करने की चेष्टा की है। सामता तथा गोविन्दपुर आदि सभी गांव ठीक रूपनारायण के तीर पर बसे हुए है। एक समय रूपनारायण नद किनारे तोड़कर इन गांवों में घुस आया था। उस समय सरकार ने वहां एक बांध बनवा दिया था, लेकिन समय पाकर रूपनारायण ने उस बांध को भी स्थान-स्थान पर तोड़ दिया। इसके बाद सरकार ने कुछ दूर पर एक और ऊंचा बांध बनवा दिया। समाज के ठेकेदारों ने शरत् बाबू पर टूटे हुए पुराने बांध को तोड़ने का अभियोग लगाया। इस मिथ्या अपवाद से वे बहुत दुखी हुए और अपना बचाव करने के लिए उन्होंने उस समय के प्रसिद्ध वकील को नियुक्त किया, लेकिन उनके बहनोई पंचानन मुकर्जी के प्रयत्नों से यह मामला मध्यस्थता के लिए पंचों के सुपुर्द कर दिया गया। छानबीन करने के बाद उन्होंने पाया कि बांध तो स्वयं ही टूट गया है। शरत् बाबू का उससे कोई संबंध नही है । वे निर्दोष है।