एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह असहाय और निराश्रित अपने इन देशवासियों को देखता तो कातर हो उठता। उन्हें हीन काम करते देखकर उसका आत्माभिमान जाग उठता। यथाशक्ति वह उनकी सहायता करता । देश लौट जाने के लिए स्वयं टिकट खरीदकर जहाज़ पर बैठा आता । अनेक विपथगा नारियों की उसने इसी प्रकार सहायता की।
कैसे-कैसे चरित्र आए उसके जीवन में! उन दिनों खाने-पीने की कोई सुविधा नहीं थी । चाय के प्याले पी-पीकर वह दिन पर दिन बिता देता था। लेकिन एक दिन सहसा घर के पास रहने वाले एक ब्राह्मण पुजारी से उसकी भेंट हो गई। धीरे-धीरे वह परिचय इतना घनिष्ठ हो उठा कि पुजारी ने उससे कहा “दादा आपको खाने की बड़ी असुविधा है, तब क्यों नही आप हमारे घर खाते ?
"नहीं-नहीं”, उसने कहा, “मुझे कोई असुविधा नहीं है । ”
लेकिन पुजारी का आग्रह निरन्तर बढ़ता ही गया । आखिर उस परिवार के स्नेह- निमन्त्रण को वह अस्वीकार नही कर सका। इसका एक और भी कारण था। बामन ठाकुर की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। शरत् यदि उसके घर खाता है तो इससे उसको भी लाभ होगा, यही सोचकर वह सहमत हो गया। लेकिन अचानक एक दिन उस घर में एक असभ्याव्य घटना घट गई। शरत् नहीं जानता था कि घर में जो नारी खाना बनाती है, वह बामन ठाकुर की पत्नी नहीं, रक्षिता है। उस नारी का नाम हरिमति था । शरत् बाबू का वह बहुत आदर करती थी। उस दिन न जाने किस बात को लेकर दोनों में झगड़ा शुरू हुआ कि बामन ठाकुर गले का जनेऊ कमर में बाधकर हठात् आसन से उठ खड़ा हुआ। बोला, “देखो तो दादा, मागी का काण्ड, इस छोटी जात का दिमाग...| "
वह अपना वाक्य पूरा भी न कर पाया था कि हरिमति भभक उठी । शीघ्रता से उसने भात की हंडिया चूल्हे पर रखी। सिर पर कपड़ा लिया और दरवाजे की आड़ में खड़े होकर बोली, “सावधान, छोटी जात का कौन है? तू, तू है, मैं नहीं। खबरदार, जात को लेकर बात मत कर। तू सोचता है कि मैं बाजारू औरत हूं कि जो बोलेगा मान लिया जाएगा। मैं
हूं | तेरे जैसी छोटी जात के ब्राह्मण बहुत देखे हैं। मुंह संभालकर बात कर । न खाने को देता है, न पहनने को, उस पर डींग मारता है इतनी लम्बी .........|"
फिर जो वाकयुद्ध आरम्भ हुआ उसका कोई अन्त नहीं था । शरत् समझ गया कि वे लोग बेहद गरीब हैं और वामन ठाकुर का बर्ताव हरिमति के साथ बहुत अच्छा नहीं हैं। परिश्रम कर-करके खिलाते - खिलाते, वह बीमार रहने लगी है। उम्र भी काफी हो गई है।
उसे बहुत दुख हुआ। उसने झगड़ा समाप्त कराने का प्रयत्न किया। लेकिन वह सफल नहीं हो सका। इसी प्रसंग को लेकर उसकी बामन ठाकुर से काफी तेज कहा-सुनी हो गई और उसके बाद उसने हरिमति को खर्च देना बन्द कर दिया। अब तो उसके कष्टों की सीमा न रही। रो-रोकर उसने शरत् बाबू को अपनी सारी कहानी कह सुनाई।
शरत् बोला, “मेरी सलाह है कि तुम कलकत्ता चली जाओ।”
हरिमति ने कहा, “दादा ठाकुर, आप यदि प्रबन्ध कर देंगे तो बड़ी कृतज्ञ होऊंगी। मागो के इस देश से मैं जितनी जल्दी हो सके चली जाना चाहती हूं।”
शरत् बाबू ने उसे कलकत्ता भेजना स्वीकार कर लिया। परन्तु हठात् एक दिन उसे ज्वर हो आया और चौबीस घण्टे के भीतर ही उसके प्राण मुक्त हो गए। डाक्टर ने आकर बताया, “प्लेग है।”
शरत् मुसीबत में फंस गया। प्लेग का नाम सुनकर कोई पास नहीं आया। किसी तरह शराब पिला-पिलूकर उसने चार-पांच व्यक्तियों को तैयार किया और तब कहीं जाकर हरिमति का अंतिम संस्कार हो सका।
मिस्त्री पल्ली में ऐसी कहानियों का कोई अन्त नहीं था और किसी न किसी मार्ग से होकर शरत् उनसे जा जुड़ता था। वह होम्योपैथी दवाइयां भी बांटता था। डाक्टर के रूप में भी उसकी प्रसिद्धि कम न थी। उस दिन पड़ोस के मिस्त्री की स्त्री को तेज़ ज्वर हो आया तो वह दौड़ा-दौड़ा शरत् बाबू के पास आया और रोता हुआ बोला, “दादा ठाकुर, बहू को बहुत तेज ज्वर हो आया है। आप चलकर ज़रा देख लीजिए।”
सदा की तरह होम्योपैथी का अपना बक्स उठाकर शरत् उसके साथ चल पड़ा। स्त्री सचमुच ज्वर के कारण संज्ञाहीन थी, लेकिन भाग्य की बात कि दवा देने पर उसकी संज्ञा लौट आई। और ज्वर भी धीरे-धीरे उतर गया। उसी क्षण से वह स्त्री उन्हें 'बाबा' कहकर पुकारने लगी।
धीरे-धीरे यह स्नेह-सम्बन्ध प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर होता गया। लेकिन हठात् एक दिन शरत् बाबू ने सुना कि दोनों में कुछ झगड़ा हो गया है। और वह झगड़ा काफी तीव्र है। शरत् ने मिस्त्री से पूछा, “मैंने तुम्हारी स्त्री को कभी जोर से बोलते हुए नहीं सुना। आज क्या बात हुई?"
मिस्त्री अत्यन्त क्रुद्ध था। बोला, "आप तो सब कुछ जानते हैं बाबा ठाकुर । मैंने इस माग को श्मशान से लौटाया कि नहीं? न इसे खाने का कष्ट है, न पीने का पहनने को अच्छे कपड़े मिलते हैं, लेकिन फिर भी रात-दिन झिक-झिक करती रहती है। अगर ऐसा ही करना था तो मेरे साथ कण्ठी-बदल क्यों की?"
अपनी स्त्री को दोष लगाते हुए मिस्त्री को शरत् ने कभी नहीं देखा था। अब एकाएक इतनी बड़ी बदनामी उसके सिर पर लाद दी गई। तब भला वह कैसे चुप रह सकती थी? सिर पर कपड़ा डालकर वह आड़ में आकर खड़ी हो गई और तीव्र स्वर में बोली, ठाकुर के सामने तुमने मेरे बारे में बहुत कुछ कहा है। अपने को भद्र व्यक्ति बता रहे हो और मेरा सर्वनाश करके मेरे ही सिर पर दोष लगा रहे हो। वह तो मौसी थी, नहीं तो मुझे कल तुम मार ही बैठते । भला मैं तुम्हारी मार क्यों खाऊं? बार-बार मुझे कहते हो, 'निकल, निकल जा', मैं क्या कुछ सुनती समझती नहीं? वह तो कहनी ही होगी, और कहना भी क्या है! मेरा गहना-गांठा और कलकत्ते का खर्च पत्तर मुझे दो और अपनी मागी को लेकर जहां जाना है जाओ। बहुत सह चुकी । अब और मुझसे नहीं सहा जाता। मेरा सब कुछ तो ले लिया, अब बाहर निकालता है? तेरे जैसे छोटी जात वाले के ऊपर झाडू मारती हूं। कलकत्ता में भीख मांगकर खा लूंगी लेकिन अब और नहीं सहूंगी। आज ही इसी समय मुझे सब कुछ चाहिए। कहे देती हूं। अब मेरा सर्वनाश कर दिया लेकिन अभी भी चन्द्र-सूर्य प्रकाशित हैं। भगवान करे रात बीतते-बीतते तेरा सर्वनाश देखूं।'
यह कहकर बहू कपडा मुंह में देकर फूट-फूटकर रोने लगी। शरत् ने उस समय किसी तरह समझा-बुझाकर उन्हें शांत किया। मिस्त्री कारखाने चला गया, लेकिन फिर लौटकर नहीं आया। एक-एक करके कई दिन बीत गए और इसी बीच में शरत् ने सब कुछ पता लगा लिया। बहू का इस काण्ड में कोई अपराध नहीं था । मिस्त्री की विवाहिता पत्नी भाई के पास आकर ठहरी थी। उसी को लेकर न जाने वह कहां चला गया। शरत् बाबू ने तब उससे कहा, तुम कलकत्ता चली जाओ। '
बहू बोली, कलकत्ता जाकर अब मैं क्या करूंगी, दादा ठाकुर, मेरे लिए तो काशीवा ही ठीक है।
शरत् ने उसे काशी भेज दिया।
इन कहानियों का कोई अन्त नहीं था और यह भी नहीं था कि वह केवल सर्वहारा वर्ग ही रुचि लेता हो । कष्ट में पड़े अपने मित्रों को सहायता करने से भी वह कभी पीछे नहीं हटता था।
एक मित्र थे श्री सुरेन्द्रनाथ मान्ना। दोनों एक ही घर में रहते थे। गाने-बजाने का शौक था। विशेषकर संकीर्तन में उसकी रुचि थी । शरत् सुर-योजना करता और वह गाता था। उनका अपना एक संकीर्तन दल था। एक दिन अचानक सुरेन्द्र की नौकरी छूट गई। करे तो क्या करे। बहुत प्रयत्न करने पर उसे पता लगा कि नामटू गोल्ड माइन में नौकरी मिलने की सम्भावना है। शरत् ने कहा, तुम फौरन नामटू चले जाओ।'
कई दिन बीत गए। लेकिन सुरेन्द्र नहीं जा सका। शरत् ने पूछा, क्यों, तुम जा क्यों नहीं रहे हो?"
पहले तो वह कुछ झिझका । फिर उसने कहा, कैसे जाऊं दा ठाकुर? पास में एक भी तो पैसा नहीं है। होटल के खाने का पैसा देना है। मित्रों से उधार ले रखा है वह भी चुकाना है।
शरत् ने सहसा कुछ जवाब नहीं दिया। साधारण किरानी ही तो था । लेकिन दूसरे दिन सुरेन्द्र को उसने बुला भेजा। बोला, नामटू जाने का रास्ता जानते हो? पहले मांडले जाना होगा। फिर लासिओं के मार्ग पर नामिओ आएगा। वहां से गोल्ड माइन की ओर एक गाड़ी जाती है। वह मुसाफिरों को नहीं ले जाती। लेकिन तुम्हारे पास तुम्हारे मित्र का जो पत्र है वह उन्हें दिखाओगे तो वे तुम्हें ले जायेंगे। भाड़े में कुल पन्द्रह रुपये खर्च होते हैं। वह मैं तुम्हें देता हूं। तुरन्त चले जाओ।"
सुरेन्द्र को सहसा विश्वास नहीं आया। फिर बोला दादा ठाकुर ! मुझे कर्जा भी तो चुकाना है।
शरत् ने कहा, "उसके बारे में चिन्ता मत करो, मैं सब चुका दूंगा। और देखो, वहां सर्दी बहुत पड़ती है। कपड़ों की जरूरत हो तो मुझे लिख देना।
फिर पैसे देकर कहा, गाड़ी सवेरे ही जाती है। तुम निश्चिंत होकर चले जाओ। '
वह चला गया, लेकिन शायद वह नहीं जानता था कि किराये के पैसे देकर शरत् के पास उस दिन एक भी पैसा नहीं बचा। केवल एक प्याला चाय पीकर ही वह दफ़्तर गया था और रात को केवल एक कटोरा दूध पीकर ही उसने गुज़ारा किया था।
योगेन्द्र ने नारद मुनि का चित्र बनाते शरत् को देखा था। ऐसे और भी न जाने कितने व्यक्ति नाना प्रकार की सहायता मांगने उसके घर आते रहते थे। एक दिन इन्हीं व्यक्तियों के दुख-दैन्य की चर्चा चल रही थी कि सीढियों पर ठक ठक ठक शब्द सुनाई दिया। झांककर देखा तो वही चिर परिचित नारद मुनि । लाठी के सहारे कांपते-कांपते ऊपर चढ़ रहा है।
शरत् तुरन्त दौड़कर नीचे गया और बड़े प्यार से सहारा देकर ऊपर ले आया। उसका परिचय देते हुए उस दिन उसने योगेन्द्र से कहा 'यह व्यक्ति सचमुच ही भगवान की दया का पात्र है। प्यार के कारण कोई याद अपना सब कुछ लुटाकर राह का भिखारी हो सकता है तो इसकी कहानी सच ही है । पुरोहित को बुलाकर शंख बजाकर और मन्त्र पढ़कर इसने विवाह किया था या नहीं, यह तो यह जाने या इसका अन्तर्यामी जाने लेकिन वह कोई भी रही हो उसे इसने किसी मन्त्रपूत पत्नी से कम प्यार नहीं किया। वहीं उसकी पत्नी उस बार प्लेग में मर गई। उसी क्षण इसका दिमाग खराब हो गया। डाक्टर का खर्चा भी क्या कम हुआ! तीन-चार सौ से अधिक ही हुआ होगा। फिर भी यदि पत्नी बच जाती तो कोई बात नहीं थी। इसीलिए मैं कहता हूं कि यह सचमुच भगवान की दया का पात्र है। उन्होंने जैसे उसे मारा है वैसे ही रक्षा भी करेंगे। नहीं तो संसार कैसे चलेगा?"
इतना कहकर शरत् ने दीर्घ नि:श्वास ली। कई क्षण शून्य में ताकता रहा। शायद उसे अपनी पत्नी की याद हो आई थी। वह भी तो इसी प्लेग में चल बसी थी। फिर अन्दर जाकर चाय ले आया और स्नेहपूरित नयनों से देखते हुए बोला, 'देखो नारद मुनि, जब जो चाहिए मुझे आकर बताना। यदि ऐसा नहीं करोगे तो मैं कभी माफ नहीं करूंगा। यदि किसी दिन भी सुना कि तुम भूखे रहे तो साफ कहता हूं फिर मेरी चौखट पर मत चढ़ना।'
गद्गद् होकर नारद मुनि ने कहा, 'ऐसी बात कभी हो सकती है देवता! आप जैसे दयालु ठाकुर के रहते मैं भूखा रहूंगा?"
"हां, लोहा-लक्कड़, काल - कब्ज़े का सख्त काम करते हो, यह सीधा-सा काम नहीं कर सकोगे? कर सकोगे?
यह कहकर शरत् तम्बाकू पीने लगा। नारद मुनि उस व्यक्ति का असली नाम नहीं था । वह तो एक साधारण मिस्त्री था। कौन-सा नशा उसने नहीं किया था। पाप की परिभाषा में जो काम आ सकते हैं वे भी उसने या उसके दूसरे साथियों ने कम नहीं किए थे। शनिवार को शराब पीकर सोमवार तक धुत पड़े रहने की बात उनके लिए बहुत सहज थी। फिर का बहाना बनाकर वे छुट्टी ले लिया करते थे।
शराब पीकर अति करते उसने न जाने उन्हें कितनी बार देखा, तभी तो 'अधिकार' का स्रष्टा लिख सका था—खाली लकड़ी के फर्श पर बैठे हुए छ:- सात मर्द और आठ-दस औरतें मिलकर शराब पी रहे थे। एक टूटा- सा हारमोनियम और एक बांया तबला बीच में पड़ा था। तरह-तरह की छोटी-बडी रंग-बिरंगी रीती बोतलें चारों तरफ लुढ़क रही थीं। एक बूढ़ी-सी औरत ज्यादा नशा हो जाने के कारण एक तरफ इस तरह पड़ी हुई थी कि उसे नंगी भी कहा जा सकता था। साठ से लेकर पच्चीस वर्ष तक के स्त्री-पुरुष उसमें शामिल थे। आज रविवार था। छुट्टी का दिन ठहरा। प्याज - लहसुन की तरकारी की और साथ-साथ सस्ती जर्मन शराब की, अवर्णनीय दुगना अपूर्व की नाक में जाते ही उसका जी मिचलाने लगा। एक कम उम्र की औरत के हाथ में शराब का गिलास था। शायद वह अब तक पक्की पियक्कड़ नही हो पाई थी। क्योंकि थोड़े ही दिन पहले घर से निकली थी। उसने बायें हाथ से अपनी नाक दबाकर बड़ी मुश्किल से शराब का गिलास अपने मुंह में उड़ेल लिया और तख्तों की संध में से लगी बार-बार धूकने । एक मर्द ने जाकर झटपट उसके मुंह में तरकारी ठूस दी। एक भारतीय स्त्री को अपनी आखों के सामने शराब पीते देख अपूर्व क हक्का-बक्का-सा हो गया। "
लेकिन शरत् हक्का-बक्का नही हुआ। क्योंकि वह जानता था कि ये लोग उससे अलग कहां थे, और इसीलिए मानता था कि भलाई करना अगर संसार में कोई शब्द हो और उसकी अगर कहीं जरूरत हो तो यहीं पर है। जब लोग अति करके अपना जीवन नष्ट करते हैं तो उनसे घृणा नहीं की जा सकती। प्यार से उन्हें समझाया ही जा सक्ता है। एक दिन योगेन्द्र के सामने ऐसा ही एक व्यक्ति बीमार होने की बात कहकर छुट्टी की अर्जी लिखवाने आया। शरत् ने सदा की तरह अर्जी लिख दी और वह चला गया। तब योगेन्द्र ने शरत् से पूछा, 'बीमारी के कुछ लक्षण तो दिखाई नहीं देते।'
शरत् हंस पड़ा बोला, हो तो दिखाई दें। शनिवार की संध्या को सिर पर भूत सवार होता हे। फिर दो-तीन दिन उसी के अधीन रहते हैं। बहुत समझाता हूं धमकी देता हूं कि यदि इस शनिवार को भी भूत चढ़ा तो मैं स्वयं जाकर तुम्हारे साहब को बता दूंगा। तब तुम्हारी नौकरी खत्म हो जाएगी। उस समय ये लोग तरह-तरह की कसम खाते हैं। कहते हैं, 'अब नहीं पिएंगे। कभी पिएं तो मां-बाप के रक्त के समान।' लेकिन मां-बाप का रक्त भी उनकी रक्षा नहीं कर पाता। '
चकित होकर सरकार ने कहा, 'ऐसे लोगों के बीच में आप क्यों रहते हैं?
जैसे किसी ने तीव्र आक्रमण किया हो। शरत् ने आंखें उठाकर सरकार की ओर देखा । वे डबडबा आई थीं। कहा, “बेशक ये लोग अभागे हैं सरकार, लेकिन फिर भी मनुष्य तो हैं। इनका कुछ भला न करके मैं इन्हें दुरदुराऊं तो ये और भी बिगड़ जायेंगे।”
जैसे वह कहीं खो गया हो। कई क्षण इसी तरह आत्मविभोर बैठा रहा, फिर बोला, “मनुष्य से किसी भी अवस्था में घृणा नहीं करनी चाहिए। जो व्यक्ति खराब दिखाई देते हैं। उन्हें सुधारने की चेष्टा करनी चाहिए। यह बहुत बड़ा काम है। भगवान के इस राज्य में मनुष्य जितना शक्तिशाली है उतना दुर्बल भी है। किसी दिन सोमवार के सवेरे यहां आकर देखो तो पाओगे मैं सच कह रहा हूं। सिर का भूत जब उतर जाता है तब संसार का भान होता है। अर्ज़ी न देने पर साहब उन्हें बरखास्त कर देगा। तब क्या होगा? वेतन काटने या जुर्माना होने पर भी इतना नुकसान नहीं होता। यही सोचकर लज्जा से सिर नीचा किए हुए वे बीमारी की अर्ज़ी लिखवाने मेरे पास आते हैं। उस समय मैं उनकी बुरी आदत को भूल जाता हूं और केवल यही सोचता हूं कि हाय, ये अभागे मनुष्य कितने असहाय हैं?”
कहते-कहते शरत् की आंखें फिर सजल हो आईं।
वह क्रोध न करता हो यह बात नहीं, लेकिन घृणा कभी नहीं करता था। क्योंकि वह मानता था कि बुद्धि और हृदय की विशालता के मामले में शराब पीने वाले न पीनेवालों से क्षुद्र हैं, यह किसी भी तरह सत्य नही है । इसीलिए वे लोग उसका सम्मान करते थे और उसे 'बामुन दा' कहकर पुकारते थे। उनके साथ मिलकर उसने एक संकीर्तन दल का गठन भी किया था। यद्यपि उसका मन अभी तक ईश्वर के अस्तित्व को पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाया था तो भी उनके दुर्गुण छुड़ाने के उद्देश्य से वह खूब कीर्तन करता था और रामकृष्ण मिशन के उत्सव में भाग लेता था।
क्या यह आश्चर्यजनक नहीं लगता कि जो स्वयं शराब पीने और नाना प्रकार के दूसरे गुनाह करने के लिए बदनाम हो वह दूसरों के ये ही दुर्गुण छुड़ाने का प्रयत्न करे। अपने मित्रों को समय-समय पर लिखे गए पत्रों में उसने अपने इन दुर्गुणों का रस ले-लेकर बखान किया है। और इसी के आधार पर बहुत से लोगों ने बहुत-सी अविश्वसनीय घटनाओं की सृष्टि कर ली है। लेकिन ये सब अतिरंजित ही नहीं, झूठ भी है। सत्य केवल इतना ही लगता है कि उसके अन्तर में कई शरत् आसन जमाये बैठे थे और इसीलिए वह अपने चारों ओर एक रहस्यमय वातावरण बनाये रखना चाहता था। अपने को छिपाये रखने और उपचेतना में कुंडली मारकर बैठे हुए समाज से बदला लेने की भावना उससे यह सब काम करवाती रहती थी। वह 'कुछ' है, यही वह बताना चाहता था । अन्यथा पीकर माताल होते शायद ही किसी ने उसे देखा हो । पचास वर्ष बाद उसके एक साथी के छोटे भाई ने कहा था, “उस दिन वे बहुत देर से लौटे। मेस के द्वार बन्द हो चुके थे। बार-बार पुकारने पर भी किसी ने उधर कान नहीं दिये। आखिर मैंने ही द्वार खोला। वे अन्दर आये। शायद बहुत पुकारने से उनका जी खराब हो गया था, उन्हें कै हो गई। उन्होंने पी रखी थी पर वह होश में थे। बड़े प्यार से उन्होंने मुझसे कहा, 'कनिष्ठ, तुम ही बस मुझे प्यार करते हो ।”
पीते और लोग भी थे। वह भी पीता था। लेकिन इसी कारण लक्ष्यभ्रष्ट वह कभी नहीं हुआ। उसका सबसे बड़ा अपराध यही था कि वह तथाकथित छोटे और चरित्रहीन लोगों के बीच में रहता था। यही नहीं, अवसर पाकर वह जावा, सुमात्रा, बोर्नियो आदि तत्काल बदनाम द्वीपों में घूमने निकल जाता और वहां के लोगों के बीच में उनका होकर जीवन को जीता। इस प्रवृत्ति के कारण उसने बहुत कुछ खोया पर बहुत कुछ पाया भी। शरीर एकदम जर्जर हो गया परन्तु अभिज्ञता का कोश बढ़ता ही गया।
और यह अमिज्ञता प्रकट हुई 'श्रीकान्त' में, 'चरित्रहीन' में और उन अनेक कहानियों में, जिन्होंने उस युग के मानव का मन मोह लिया था । और आज भी क्या वह उस मोह से मुक्ति पा सका है।