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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023

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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठहरा। किसी को अपना परिचय देने में सदा की तरह उदासीन ही बना रहा। चालढाल और वेशभूषा से भी वह एकदम देहाती मालूम होता था। फिर भी मित्रों से मिलना और अड्डा जमाना उसे बहुत अच्छा लगता था। प्रतिदिन संध्या को 'यमुना' के कार्यालय में अनेक साहित्यकार इकट्ठे होते। उनमें एक थे कथाशिल्पी और कवि सुधीन्द्रनाथ ठाकुर । शरत् के प्रति उनकी श्रद्धा का पार नहीं था। उसका चलना-फिरना, बोलना-बैठना, खड़ा होना, हंसी-मज़ाक करना सभी में उन्हें बड़ा आनन्द आता था।

इस बैठक में साहित्यिक आलोचनाएं ही नहीं होती थीं, हास-परिहास भी अबाध गति से बहता था। शरत् तुरन्त कहानियां गढ़कर सुनाने में उस्ताद था ही प्रत्येक कहानी के अन्त में कहता, "यह मेरी जीवन की सच्ची घटना है।”

सुधीन्द्र हंस पड़ते, “ना-ना, शरत्, यह तो तुम गढ़कर सुना रहे हो।”

शरत उत्तर देता, देखिए तो, जब कहानी लिखता हूं तो कहते हैं, आप चिन्तन करके लिखते है और जब ज़बानी कहता हूं तो गढ़ना बताते हैं। नहीं, महाशय, यह सच्ची घटना है। अगर आपको अविश्वास है तो प्रमाण और साक्षी दे सकता हूं।”

प्रमाण और साक्षी की आवश्यकता शायद ही पड़ी हो। लेकिन इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि इन कहानियों के पीछे किसी न किसी रूप में उसकी अनुभूति होती थी और अनुभूति के ये स्रोत उसे सहज भाव से मिल भी जाते थे वही दृष्टि तो उसका मूलधन थी। उस दिन संध्या के समय सौरीन्द्र की राह देखता वह कचहरी के बाहर घूम रहा था। सब लोग जा चुके थे, लेकिन कम्पाउंड में जेल की गाड़ी कैदियों को ले जाने के लिए अभी भी खड़ी थी। उस दिन किसी दागी चोर का मामला था। उसे दो साल की सज़ा हुई थी। सौन्द्रमोहन ही उसके वकील थे। जैसे ही वे बाहर आए उनके मुवक्किल की रक्षिता स्त्री उसके पैरों पर गिर पड़ी बोली, “आज रात को ही रुपये लेकर आपके पास आऊंगी। आप तुरन्त नकल लेकर हाईकोर्ट में अपील करने की व्यवस्था कर दें। सबसे बड़ा वकील पैरवी के लिए नियुक्त करें।”

सौरीन्द्रमोहन ने उसे समझाते हुए कहा, “अपील का कोई फल नहीं होगा। व्यर्थ ही पैसे नष्ट होंगे।"

वह बोली, “फल हो या न हो, मैं प्राणपन से चेष्टा करूंगी। रुपयों की चिन्ता मत करो। जो भी गहने हैं बेच दूंगी।"

सौरीन्द्र की कोई युक्ति उसके गले से नहीं उतरी। तभी पुलिस आसामी को गाड़ी के पास ले आई। वह स्त्री तुरन्त वहां पहुंची और रोने लगी। रोते-रोते उसने दो-चार रुपये पुलिसवालों के हाथ में थमा दिए उसके प्रणयी ने कहा, “देख हाईकोर्ट मत जाना। बाबूजी की बात सुनना रुपया व्यर्थ खर्च हो जाने पर तेरे दो साल कैसे कटेंगे?"

वह सुनती रही, लेकिन गाड़ी के चले जाने पर वह फिर सौरीन्द्रमोहन की ओर मुड़ी बोली, “रात को रुपये लेकर आपके घर आऊंगी। मना करना आसामी का कर्तव्य था, उसने पूरा किया। मेरा कर्तव्य में पूरा करूंगी।"

शरत् सब कुछ देख-सुन रहा था। सौरीन्द्र से उसने कहा, “स्त्री दमदार है। इस घटना से मैं उसके मन का परिचय पा सका। समाज की दृष्टि में ये लोग घृणित बहिष्कृत हैं, लेकिन इनके मन के भीतर जो मनुष्य विराजमान है वह कितना महान है! अनेक साध्वी स्त्रियां अपने स्वामी के इस प्रकार विपत्ति में पड़ जाने पर विचलित होकर सर्वस्व त्याग नहीं करतीं, फिर यह तो पतिता नारी है। इन पतिताओं की कहानी हमारे साहित्य में कब स्थान पायेगी?”

इसी 'पतिता नारी' को वह जीवन भर अपने साहित्य में मर्यादा देने का प्रयत्न करता रहा। बर्मा में रहते हुए ऐसे अनेक चरित्र उसके जीवन में आए, जिन्हें 'छोटे लोग' कहा जाता हैं उनके बीच में नाना रूपों में उसकी शोहरत थी। उनमें एक रूप था होम्योपैथ डाक्टर का। इसी रूप में उसकी भेंट कामिनी नाम की एक स्त्री से हुई। वह बंगाल में एक अच्छे घर की बहू थी। लेकिन एक दिन वह सब कुछ को छोड़कर अपने पति को भी छोड़कर, एक लुहार के साथ चली गई। लुहार का नाम शीतलचन्द्र था और वह कांचरापाड़ा के रेल कारखाने में काम करता था। अचानक रंगून में अच्छा सा काम पाकर वह बंगाल से चला आया। कामिनी साथ थी। उम्र तो उसकी चौबीस वर्ष की हो चुकी लेकिन स्वास्थ्य उसका इतना अच्छा था कि ऐसा लगता था मानो प्रथम यौवन के सारे ज्वार को उसने अपने शरीर में बांध रखा है।

वे लोग शरत् बाबू के घर के पास ही रहते थे दफ्तर जाते हुए वह रोज़ उन्हें देखते। पाते कि ये बहुत प्रसन्न हैं। कामिनी का शीतलचन्द्र पर इतना प्रभाव है कि उसने शराब पीनी तक छोड़ दी है।

शरत् के मन में कामिनी के प्रति इसीलिए और भी श्रद्धा जाग आई। तभी एक दिन क्या हुआ कि वह दफ्तर से लौट रहा था तो देखा कि उसकी राह निहारती कामिनी किवाड़ का पल्ला पकड़े खड़ी है। जब वह पास पहुंचा तो उसने रोते हुए कहा, “दादाजी, मेरी तकदीर फूट गई। उन पर आज चार दिन से शीतला माई की कृपा हुई है। सोचा था कि यूं ही ठीक हो जाएंगे। आपको उस छुतहे रोग में नहीं खींचूंगी। लेकिन कल रात से ज़ोरों का बुखार है, सारे बदन में इतनी माता निकली है कि पहचाना तक नहीं जाता। दर्द से तड़प रहे हैं। मुझसे तो अब देखा नहीं जाता। आप कृपा करके कुछ दवा दे दीजिए।”

यह कहकर वह उनके पैर छूने के लिए आगे बढ़ी। ज़रा दूर हटकर शरत् ने कहा, “मैं अभी आता हूं। तुम चिन्ता मत करो। "

घर जाकर अपना होम्योपैथी का बाक्स उसने उठाया और शीतलचन्द्र के पास पहुंचा। जो हालत देखी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। कुछ ही दिन की बीमारी में आदमी का चेहरा इतना वीभत्स हो सकता है! आखों से दीखना तक बन्द हो गया था। उसे पहचानना सचमुच बड़ा कठिन था। कामिनी ने किसी तरह अपना मुंह उसके विकृत मुंह के पास ले जाकर कहा, “अजी सुनते हो, दादाजी आए हैं। अब किसी बात का डर नहीं । उनकी एक बूंद दवा खाते ही सारा दर्द दूर हो जाएगा।”

रोगी का उत्साह बढ़ाने के लिए वह शरत् बाबू की दवा की बहुत तारीफ करने लगी। किसी तरह रोगी से हाल मालूम करके और अपनी जानकारी के हिसाब से शरत् ने उसे दवा दी। फिर कई दिन तक शाम सवेरे देखने जाता रहा। लेकिन रोग कम नहीं हुआ। दर्द बढ़ता ही गया। फिर दूसरे डाक्टर आए। लेकिन शीतलचन्द्र को कोई नहीं बचा सका । तब काम ने कैसा विलाप किया! शोक से मानो वह पागल हो गई। बीमारी के वक्त आहार-निद्रा छोड़कर दिन रात उसने अपने इस प्रेमी की कैसी सेवा की थी ! कोई सती-साध्वी भी अपने पति की ऐसी सेवा नहीं कर सकती।

शरत् द्रवित हो उठा। किसी तरह अन्तिम संस्कार किया गया। लेकिन दूसरे दिन जब वह दफ्तर जा रहा था तो देखा, कामिनी के घर पर ताला लटक रहा है। आश्चर्य हुआ। आसपास पूछने पर पता लगा कि वह कल ही घर छोड़कर कहीं चली गई है। कहां गई, कोई नहीं जानता।

लेकिन उस बस्ती में ऐसा कुछ होता ही रहता था। धीरे- धीरे शरत् उस बात को भूल गया। और फिर दो वर्ष न जाने कैसे बीत गए। इसी बीच में उसे अपना ठिकाना बदलना पड़ा। नये मेस में डेरा डालकर वह अपने स्वभाव के अनुसार घूमने के लिए निकल पड़ा। चलते-चलते पाया कि जेब में सिगार तो है लेकिन दियासलाई नहीं है। सड़क पर एक परचून की दुकान थी। वहीं पहुंचा। आश्चर्य ! जो नारी ग्राहकों को तोलकर सौदा दे रही है वह कामिनी है।

कामिनी इस रूप में ! शरीर पर गहने लदे हैं। स्वास्थ्य वैसा ही गदरा रहा है। मुख पर वही मादक हास्य है। क्या यह शीतलचन्द्र की कामिनी है ! वही कामिनी जो शोक से पागल हो गई थी!

वह सोच ही रहा था कि कामिनी ने उसे देख लिया। उसने सिर पर कपड़ा खींच और धीमे से उसके पास आकर चरणों में प्रणाम किया। फिर मुस्कराते हुए पूछा, “दादाजी, मज़े में हैं न?"

शरत ने कहा, “हां मैं ठीक हूं। तुम बताओ कैसी हो? क्या समाचार हैं ? देखकर तो लगता है कि मजे में हो। हो न?”

कामिनी बोली, “आपके आशीर्वाद से अच्छी हूं, दादाजी ।”

फिर जैसे पुरानी बातें याद हो आई हों। आंखें सजल हो उठीं। रुंधे कंठ से कहा, “यम के बुलावे को कौन टाल सकता है दादाजी, आपने उनको बचाने के लिए क्या नहीं किया।" जैसे आगे उससे बोला नहीं गया। कई क्षण संभलने में लग गए। फिर शांत स्वर में बोली, “यह उन्हीं के ममेरे भाई हैं। बहुत दिनों से रंगून में ही हैं। मुसीबत में यही खोज - खबर लिया करते थे। आपने तो देखा होगा इन्हें, दादाजी ? उनकी बीमारी के वक्त अक्सर आते थे। इन्हीं की कृपा से अब दो मुट्ठी खाने को मिल जाता है। इनके दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। बेचारों की मां मर गई है। ओह ! बच्चों का मुंह देखकर ही तो मुझे गृहस्थी बसानी पड़ी। नहीं तो अकेले पेट को तो कोई काम-धाम करके भर ही लेती। लेकिन आदमी बड़ा भला है, दादाजी । बिलकुल उन्हीं की तरह है। बहुत आदर करता है। बड़ा प्यार करता है।”

बहुत देर तक कामिनी न जाने क्या-क्या कहती रही। शरत् समझ गया कि इस गृहस्थी में कामिनी बहुत मज़े में है। और अपने नये प्रेमी को सचमुच ही प्यार करती है। उसे याद आया, शीतलचन्द्र की बीमारी के वक्त एक आदमी सचमुच वहां आता-जाता था। पूछा, "तो क्या यह वही निवारण है? उसका नाम निवारण ही तो था ?”

कामिनी हंस पड़ी। सिर के कपड़े को ज़रा और खींचकर बोली, “दादाजी, आपको तो सब कुछ मालूम है।”

शरत् एक क्षण के लिए न जाने कहां खो गया । शीतलचन्द्र की गृहस्थी में कामिनी को देखा। वहां कितने सुख से रह रही थी ! फिर जब शीतलचन्द्र को चेचक निकली, उसकी बगल में कामिनी को देखा। बिना खाये सोये, चिन्ता के मारे वह सूखकर जली लकड़ी जैसी काली हो गई थी। उसी कामिनी को वह निवारण के घर में देख रहा था। उसके सारे अंगों में बसन्त की हवा लगी हुई थी। उसका रूप लावण्य निखरकर असाधारण हो उठा था। उसने शीतलचन्द्र को प्यार किया था, वह निवारण को भी प्यार करती है और कांचरापाड़ा में वह जिस पति को छोड़ आई थी उसको भी निश्चय ही प्यार करती होगी।

उसका मन फिर भटक गया। एक और कहानी उसे याद आने लगी। नयी हाटी का रहनेवाला एक तरुण बंगाली युवक था। नाम उसका कुछ भी हो सकता है। सुविधा के लिए उसे दुलालचांद कहा जा सकता है। कलकत्ता के किसी दफ्तर में काम करता था। रेस में दांव लगाने का उसे नशा था। शराब का नशा तो था ही। परिणाम यह हुआ कि काफी उधार हो गया। देनेवालों के तकाज़ों और काबुली पठान की लाठी मे परेशान होकर वह एक दिन बर्मा भाग गया। इसी तरह से उधार चढ़ाकर, दफ्तरों का रुपया चुराकर अनेक खुराफातों में फंसे हुए बहुत-से बंगाली बैरागी होकर सीधे बर्मा पहुंच जाते थे। क्योंकि वहां पर उन पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता था । दुलालचांद भागकर सीधे मांडले पहुंचे और वहां लकड़ी के एक कारखाने में क्लर्की का काम करने लगे। कारखाना एक बर्मी का था। वह अंग्रेज़ी में हिसाब नहीं रखना जानता था । दुलालचांद को खूब अंग्रेज़ी आती थी और का भी उसने मन लगाकर किया। बस, वह मालिक के मन चढ़ गया। मालिक की दुनिया बहुत सीमित थी। वह स्वयं उसकी कन्या और दामाद । दामाद बेकार किस्म का आदमी था। बस, शौकीनी ही उसका शगल थी। इसलिए मालिक दुलालचांद से और भी प्रसन्न रहने लगा । वही उसका सलाहकार बन गया। वहीं रहने भी लगा ।

मालिक का घर भी बहुत दूर नहीं था। छुट्टी के दिनों में दुलालचांद मालिक के घर में अतिथि बनता। वहां बहुत-सी काम की बातें होती । साथ ही साथ मालिक की लड़की के साथ हंसी मज़ाक भी चलता । बर्मी लडकियां भारतीय कन्या की तरह लजीली नहीं होतीं।

और कई वर्ष बीत गए। सहसा एक दिन दामाद की मृत्यु हो गई। उससे वे लोग पहले ही बहुत प्रसन्न नहीं थे। मरने पर मानो उन्होंने मुक्ति की साँस ली। लेकिन एक वर्ष भी नहीं बीता था कि मालिक की भी मृत्यु हो गई। कन्या सब कुछ की मालिक थी, लेकिन वास्तविक मालिक दुलालचांद था। अब तक वही सब कुछ करता आया था। अब भी वही करता रहा। दो-तीन महीने भी नहीं बीते होंगे कि लड़की ने दुलालचांद से प्रस्ताव किया कि वह उससे विवाह कर ले।

दुलालचांद को मानों स्वर्ग मिल गया। वह तुरन्त राज़ी हो गया। और फिर उस बर्मी नारी के प्रेम में दुलालचांद जैसे डूब गया हो। वह अब राजा था। सचमुच का राजा । कन्या उसकी एकान्त उपासिका बन गई। इस सुख-सागर में बहते हुए फिर कई वर्ष बीत गए। तब अचानक दुलालचांद ने अपनी स्त्री से कहा, "अब जब यहीं पर रहना है तो बंगाल में जो पूंजी है उस सबको बेचकर रुपये ले आता हूं। वहां पर बूढ़ी मां और विधवा बहन भी हैं। उनके लिए भी व्यवस्था करनी है। "

स्त्री ने खुशी-खुशी उसे जाने की आज्ञा दे दी। वह यह नहीं जानती थी कि दुलालचांद विवाहित है, उसकी स्त्री 'जीवित है और उसके पुत्र भी हैं । दुलालचांद ने यह बात बड़े यत्न से छिपा रखी थी। स्वामी को विदा करते समय स्त्री ने उसको दो-तीन हज़ार रुपये और दिये। इसके अतिरिक्त कारखाने का सारा रुपया उसी के पास रहता था। दस हज़ार रुपये उसने उस हिसाब में से निकाल लिये। इस प्रकार 12-13 हज़ार रुपये लेकर यह कलकत्ता के लिए चल पड़ा। स्टीमर घाट पर पत्नी उसे छोड़ने आई। जैसे-जैसे जाने का क्षण आ रहा था, वह विह्वल हो रही थी। यहां तक कि वह रो पड़ी और देखते-देखते हिचकियां लेने लगी। दुलालचांद ने उसे समझाने का बहुत प्रयत्न किया। कहा, "मैं सच कहता हूं, एक महीने के भीतर ही वापस आ जाऊंगा। मेरा मन भी तो वहां नहीं लगेगा।"

स्त्री बोली, "मेरा मन तुम्हें जाने देने के लिए नहीं करता। लेकिन क्या करूं? तुम्हें अपना काम निबटाना है। जल्दी से जल्दी निबटाकर आना। मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकूंगी।"

आखिर जहाज़ के चलने का समय आ पहुंचा और फिर किसी तरह अपने को छुड़ाकर दुलालचांद जहाज़ पर जा चढ़ा। फिर धीरे- धीरे आखों से ओझल हो गया। हमेशा के लिए ओझल हो गया। वह फिर लौटकर बर्मा नहीं आया । दुलालचांद उसका असली नाम नहीं था। उसने जो पता स्त्री को दिया था वह भी गलत था। महीना बीता, फिर वर्ष भी बीत गया। तीन-चार वर्ष तक वह स्त्री उसके लौटने की आशा हृदय में संजोये आकुल नयन और व्याकुल चित्त, समुद्र की ओर ताकती रही। फर्जी पते पर खोज-खबर भी बहुत ली। लेकिन कोई अर्थ नहीं निकला। वह इतनी व्यथित हुई कि अन्त में मर गई।

इन घटनाओं का कोई अन्त नहीं है। इनके पात्रों को उसने बहुत पास से देखा और वे ही उसकी कहानियों का आधार बने । दुलालचांद की यही कथा कलाकार की लेखनी का स्पर्श पाकर 'श्रीकान्त (द्वीतीय पर्व) में कैसी मार्मिक हो उठी है। बर्मी नारी उसके साहित्य में कम हैं पर उनके प्रति उसकी श्रद्धा की थाह नहीं। वह उनके सौन्दर्य पर ही मुग्ध नहीं है, उनकी स्वाधीनता से भी उसे ईर्ष्या है। "घूंघट की झंझट नहीं, पुरुषों को देखकर तेज़ी से भाग जाने की व्यग्रता से ठोकर खाकर गिरने का अन्देशा नहीं, दुविधा और लाज का नहीं, मानो झरने के मुक्त प्रवाह के समान स्वच्छन्द बेरोक गति से बही जा रही है। रमणियों को इतनी स्वाधीनता देकर इस देश के पुरुष क्या ठगे गए हैं? और हमलोग क्या उनको नीचे से ऊपर तक जकड़े रखकर और उनके जीवन को लंगड़ा बनाकर लाभ में रहे हैं? हमारी स्त्रियां भी यदि किसी ऐसे ही दिन ...

सन् 1903 से सन् 1912 के प्रारम्भ तक वह प्राय: अन्धकार में छिपा रहा, पर इसी अवधि में उसने अपने-आपको उस जीवन के लिए तैयार कर लिया जो उसे प्रसिद्धि के शिखर पर ले जाने वाला था। एक कृतिकार के लिए मानव का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है और सर्वहाराओं के बीच में रहते हुए वह यही करता रहा था। अपने को उनके साथ पूर्ण रूप से एकाकार करके उसने उनकी भावनाओं का अध्ययन किया था और अपने जीवन के उद्देश्य की दिशा को खोज लिया था।

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
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मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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भूमिका

21 अगस्त 2023
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संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

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भूमिका : पहले संस्करण की

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कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

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तीसरे संस्करण की भूमिका

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लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

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" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

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किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

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भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

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अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

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नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

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अध्याय 4: वंश का गौरव

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मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

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अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

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अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

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अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

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इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

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शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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