अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठहरा। किसी को अपना परिचय देने में सदा की तरह उदासीन ही बना रहा। चालढाल और वेशभूषा से भी वह एकदम देहाती मालूम होता था। फिर भी मित्रों से मिलना और अड्डा जमाना उसे बहुत अच्छा लगता था। प्रतिदिन संध्या को 'यमुना' के कार्यालय में अनेक साहित्यकार इकट्ठे होते। उनमें एक थे कथाशिल्पी और कवि सुधीन्द्रनाथ ठाकुर । शरत् के प्रति उनकी श्रद्धा का पार नहीं था। उसका चलना-फिरना, बोलना-बैठना, खड़ा होना, हंसी-मज़ाक करना सभी में उन्हें बड़ा आनन्द आता था।
इस बैठक में साहित्यिक आलोचनाएं ही नहीं होती थीं, हास-परिहास भी अबाध गति से बहता था। शरत् तुरन्त कहानियां गढ़कर सुनाने में उस्ताद था ही प्रत्येक कहानी के अन्त में कहता, "यह मेरी जीवन की सच्ची घटना है।”
सुधीन्द्र हंस पड़ते, “ना-ना, शरत्, यह तो तुम गढ़कर सुना रहे हो।”
शरत उत्तर देता, देखिए तो, जब कहानी लिखता हूं तो कहते हैं, आप चिन्तन करके लिखते है और जब ज़बानी कहता हूं तो गढ़ना बताते हैं। नहीं, महाशय, यह सच्ची घटना है। अगर आपको अविश्वास है तो प्रमाण और साक्षी दे सकता हूं।”
प्रमाण और साक्षी की आवश्यकता शायद ही पड़ी हो। लेकिन इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि इन कहानियों के पीछे किसी न किसी रूप में उसकी अनुभूति होती थी और अनुभूति के ये स्रोत उसे सहज भाव से मिल भी जाते थे वही दृष्टि तो उसका मूलधन थी। उस दिन संध्या के समय सौरीन्द्र की राह देखता वह कचहरी के बाहर घूम रहा था। सब लोग जा चुके थे, लेकिन कम्पाउंड में जेल की गाड़ी कैदियों को ले जाने के लिए अभी भी खड़ी थी। उस दिन किसी दागी चोर का मामला था। उसे दो साल की सज़ा हुई थी। सौन्द्रमोहन ही उसके वकील थे। जैसे ही वे बाहर आए उनके मुवक्किल की रक्षिता स्त्री उसके पैरों पर गिर पड़ी बोली, “आज रात को ही रुपये लेकर आपके पास आऊंगी। आप तुरन्त नकल लेकर हाईकोर्ट में अपील करने की व्यवस्था कर दें। सबसे बड़ा वकील पैरवी के लिए नियुक्त करें।”
सौरीन्द्रमोहन ने उसे समझाते हुए कहा, “अपील का कोई फल नहीं होगा। व्यर्थ ही पैसे नष्ट होंगे।"
वह बोली, “फल हो या न हो, मैं प्राणपन से चेष्टा करूंगी। रुपयों की चिन्ता मत करो। जो भी गहने हैं बेच दूंगी।"
सौरीन्द्र की कोई युक्ति उसके गले से नहीं उतरी। तभी पुलिस आसामी को गाड़ी के पास ले आई। वह स्त्री तुरन्त वहां पहुंची और रोने लगी। रोते-रोते उसने दो-चार रुपये पुलिसवालों के हाथ में थमा दिए उसके प्रणयी ने कहा, “देख हाईकोर्ट मत जाना। बाबूजी की बात सुनना रुपया व्यर्थ खर्च हो जाने पर तेरे दो साल कैसे कटेंगे?"
वह सुनती रही, लेकिन गाड़ी के चले जाने पर वह फिर सौरीन्द्रमोहन की ओर मुड़ी बोली, “रात को रुपये लेकर आपके घर आऊंगी। मना करना आसामी का कर्तव्य था, उसने पूरा किया। मेरा कर्तव्य में पूरा करूंगी।"
शरत् सब कुछ देख-सुन रहा था। सौरीन्द्र से उसने कहा, “स्त्री दमदार है। इस घटना से मैं उसके मन का परिचय पा सका। समाज की दृष्टि में ये लोग घृणित बहिष्कृत हैं, लेकिन इनके मन के भीतर जो मनुष्य विराजमान है वह कितना महान है! अनेक साध्वी स्त्रियां अपने स्वामी के इस प्रकार विपत्ति में पड़ जाने पर विचलित होकर सर्वस्व त्याग नहीं करतीं, फिर यह तो पतिता नारी है। इन पतिताओं की कहानी हमारे साहित्य में कब स्थान पायेगी?”
इसी 'पतिता नारी' को वह जीवन भर अपने साहित्य में मर्यादा देने का प्रयत्न करता रहा। बर्मा में रहते हुए ऐसे अनेक चरित्र उसके जीवन में आए, जिन्हें 'छोटे लोग' कहा जाता हैं उनके बीच में नाना रूपों में उसकी शोहरत थी। उनमें एक रूप था होम्योपैथ डाक्टर का। इसी रूप में उसकी भेंट कामिनी नाम की एक स्त्री से हुई। वह बंगाल में एक अच्छे घर की बहू थी। लेकिन एक दिन वह सब कुछ को छोड़कर अपने पति को भी छोड़कर, एक लुहार के साथ चली गई। लुहार का नाम शीतलचन्द्र था और वह कांचरापाड़ा के रेल कारखाने में काम करता था। अचानक रंगून में अच्छा सा काम पाकर वह बंगाल से चला आया। कामिनी साथ थी। उम्र तो उसकी चौबीस वर्ष की हो चुकी लेकिन स्वास्थ्य उसका इतना अच्छा था कि ऐसा लगता था मानो प्रथम यौवन के सारे ज्वार को उसने अपने शरीर में बांध रखा है।
वे लोग शरत् बाबू के घर के पास ही रहते थे दफ्तर जाते हुए वह रोज़ उन्हें देखते। पाते कि ये बहुत प्रसन्न हैं। कामिनी का शीतलचन्द्र पर इतना प्रभाव है कि उसने शराब पीनी तक छोड़ दी है।
शरत् के मन में कामिनी के प्रति इसीलिए और भी श्रद्धा जाग आई। तभी एक दिन क्या हुआ कि वह दफ्तर से लौट रहा था तो देखा कि उसकी राह निहारती कामिनी किवाड़ का पल्ला पकड़े खड़ी है। जब वह पास पहुंचा तो उसने रोते हुए कहा, “दादाजी, मेरी तकदीर फूट गई। उन पर आज चार दिन से शीतला माई की कृपा हुई है। सोचा था कि यूं ही ठीक हो जाएंगे। आपको उस छुतहे रोग में नहीं खींचूंगी। लेकिन कल रात से ज़ोरों का बुखार है, सारे बदन में इतनी माता निकली है कि पहचाना तक नहीं जाता। दर्द से तड़प रहे हैं। मुझसे तो अब देखा नहीं जाता। आप कृपा करके कुछ दवा दे दीजिए।”
यह कहकर वह उनके पैर छूने के लिए आगे बढ़ी। ज़रा दूर हटकर शरत् ने कहा, “मैं अभी आता हूं। तुम चिन्ता मत करो। "
घर जाकर अपना होम्योपैथी का बाक्स उसने उठाया और शीतलचन्द्र के पास पहुंचा। जो हालत देखी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। कुछ ही दिन की बीमारी में आदमी का चेहरा इतना वीभत्स हो सकता है! आखों से दीखना तक बन्द हो गया था। उसे पहचानना सचमुच बड़ा कठिन था। कामिनी ने किसी तरह अपना मुंह उसके विकृत मुंह के पास ले जाकर कहा, “अजी सुनते हो, दादाजी आए हैं। अब किसी बात का डर नहीं । उनकी एक बूंद दवा खाते ही सारा दर्द दूर हो जाएगा।”
रोगी का उत्साह बढ़ाने के लिए वह शरत् बाबू की दवा की बहुत तारीफ करने लगी। किसी तरह रोगी से हाल मालूम करके और अपनी जानकारी के हिसाब से शरत् ने उसे दवा दी। फिर कई दिन तक शाम सवेरे देखने जाता रहा। लेकिन रोग कम नहीं हुआ। दर्द बढ़ता ही गया। फिर दूसरे डाक्टर आए। लेकिन शीतलचन्द्र को कोई नहीं बचा सका । तब काम ने कैसा विलाप किया! शोक से मानो वह पागल हो गई। बीमारी के वक्त आहार-निद्रा छोड़कर दिन रात उसने अपने इस प्रेमी की कैसी सेवा की थी ! कोई सती-साध्वी भी अपने पति की ऐसी सेवा नहीं कर सकती।
शरत् द्रवित हो उठा। किसी तरह अन्तिम संस्कार किया गया। लेकिन दूसरे दिन जब वह दफ्तर जा रहा था तो देखा, कामिनी के घर पर ताला लटक रहा है। आश्चर्य हुआ। आसपास पूछने पर पता लगा कि वह कल ही घर छोड़कर कहीं चली गई है। कहां गई, कोई नहीं जानता।
लेकिन उस बस्ती में ऐसा कुछ होता ही रहता था। धीरे- धीरे शरत् उस बात को भूल गया। और फिर दो वर्ष न जाने कैसे बीत गए। इसी बीच में उसे अपना ठिकाना बदलना पड़ा। नये मेस में डेरा डालकर वह अपने स्वभाव के अनुसार घूमने के लिए निकल पड़ा। चलते-चलते पाया कि जेब में सिगार तो है लेकिन दियासलाई नहीं है। सड़क पर एक परचून की दुकान थी। वहीं पहुंचा। आश्चर्य ! जो नारी ग्राहकों को तोलकर सौदा दे रही है वह कामिनी है।
कामिनी इस रूप में ! शरीर पर गहने लदे हैं। स्वास्थ्य वैसा ही गदरा रहा है। मुख पर वही मादक हास्य है। क्या यह शीतलचन्द्र की कामिनी है ! वही कामिनी जो शोक से पागल हो गई थी!
वह सोच ही रहा था कि कामिनी ने उसे देख लिया। उसने सिर पर कपड़ा खींच और धीमे से उसके पास आकर चरणों में प्रणाम किया। फिर मुस्कराते हुए पूछा, “दादाजी, मज़े में हैं न?"
शरत ने कहा, “हां मैं ठीक हूं। तुम बताओ कैसी हो? क्या समाचार हैं ? देखकर तो लगता है कि मजे में हो। हो न?”
कामिनी बोली, “आपके आशीर्वाद से अच्छी हूं, दादाजी ।”
फिर जैसे पुरानी बातें याद हो आई हों। आंखें सजल हो उठीं। रुंधे कंठ से कहा, “यम के बुलावे को कौन टाल सकता है दादाजी, आपने उनको बचाने के लिए क्या नहीं किया।" जैसे आगे उससे बोला नहीं गया। कई क्षण संभलने में लग गए। फिर शांत स्वर में बोली, “यह उन्हीं के ममेरे भाई हैं। बहुत दिनों से रंगून में ही हैं। मुसीबत में यही खोज - खबर लिया करते थे। आपने तो देखा होगा इन्हें, दादाजी ? उनकी बीमारी के वक्त अक्सर आते थे। इन्हीं की कृपा से अब दो मुट्ठी खाने को मिल जाता है। इनके दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। बेचारों की मां मर गई है। ओह ! बच्चों का मुंह देखकर ही तो मुझे गृहस्थी बसानी पड़ी। नहीं तो अकेले पेट को तो कोई काम-धाम करके भर ही लेती। लेकिन आदमी बड़ा भला है, दादाजी । बिलकुल उन्हीं की तरह है। बहुत आदर करता है। बड़ा प्यार करता है।”
बहुत देर तक कामिनी न जाने क्या-क्या कहती रही। शरत् समझ गया कि इस गृहस्थी में कामिनी बहुत मज़े में है। और अपने नये प्रेमी को सचमुच ही प्यार करती है। उसे याद आया, शीतलचन्द्र की बीमारी के वक्त एक आदमी सचमुच वहां आता-जाता था। पूछा, "तो क्या यह वही निवारण है? उसका नाम निवारण ही तो था ?”
कामिनी हंस पड़ी। सिर के कपड़े को ज़रा और खींचकर बोली, “दादाजी, आपको तो सब कुछ मालूम है।”
शरत् एक क्षण के लिए न जाने कहां खो गया । शीतलचन्द्र की गृहस्थी में कामिनी को देखा। वहां कितने सुख से रह रही थी ! फिर जब शीतलचन्द्र को चेचक निकली, उसकी बगल में कामिनी को देखा। बिना खाये सोये, चिन्ता के मारे वह सूखकर जली लकड़ी जैसी काली हो गई थी। उसी कामिनी को वह निवारण के घर में देख रहा था। उसके सारे अंगों में बसन्त की हवा लगी हुई थी। उसका रूप लावण्य निखरकर असाधारण हो उठा था। उसने शीतलचन्द्र को प्यार किया था, वह निवारण को भी प्यार करती है और कांचरापाड़ा में वह जिस पति को छोड़ आई थी उसको भी निश्चय ही प्यार करती होगी।
उसका मन फिर भटक गया। एक और कहानी उसे याद आने लगी। नयी हाटी का रहनेवाला एक तरुण बंगाली युवक था। नाम उसका कुछ भी हो सकता है। सुविधा के लिए उसे दुलालचांद कहा जा सकता है। कलकत्ता के किसी दफ्तर में काम करता था। रेस में दांव लगाने का उसे नशा था। शराब का नशा तो था ही। परिणाम यह हुआ कि काफी उधार हो गया। देनेवालों के तकाज़ों और काबुली पठान की लाठी मे परेशान होकर वह एक दिन बर्मा भाग गया। इसी तरह से उधार चढ़ाकर, दफ्तरों का रुपया चुराकर अनेक खुराफातों में फंसे हुए बहुत-से बंगाली बैरागी होकर सीधे बर्मा पहुंच जाते थे। क्योंकि वहां पर उन पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता था । दुलालचांद भागकर सीधे मांडले पहुंचे और वहां लकड़ी के एक कारखाने में क्लर्की का काम करने लगे। कारखाना एक बर्मी का था। वह अंग्रेज़ी में हिसाब नहीं रखना जानता था । दुलालचांद को खूब अंग्रेज़ी आती थी और का भी उसने मन लगाकर किया। बस, वह मालिक के मन चढ़ गया। मालिक की दुनिया बहुत सीमित थी। वह स्वयं उसकी कन्या और दामाद । दामाद बेकार किस्म का आदमी था। बस, शौकीनी ही उसका शगल थी। इसलिए मालिक दुलालचांद से और भी प्रसन्न रहने लगा । वही उसका सलाहकार बन गया। वहीं रहने भी लगा ।
मालिक का घर भी बहुत दूर नहीं था। छुट्टी के दिनों में दुलालचांद मालिक के घर में अतिथि बनता। वहां बहुत-सी काम की बातें होती । साथ ही साथ मालिक की लड़की के साथ हंसी मज़ाक भी चलता । बर्मी लडकियां भारतीय कन्या की तरह लजीली नहीं होतीं।
और कई वर्ष बीत गए। सहसा एक दिन दामाद की मृत्यु हो गई। उससे वे लोग पहले ही बहुत प्रसन्न नहीं थे। मरने पर मानो उन्होंने मुक्ति की साँस ली। लेकिन एक वर्ष भी नहीं बीता था कि मालिक की भी मृत्यु हो गई। कन्या सब कुछ की मालिक थी, लेकिन वास्तविक मालिक दुलालचांद था। अब तक वही सब कुछ करता आया था। अब भी वही करता रहा। दो-तीन महीने भी नहीं बीते होंगे कि लड़की ने दुलालचांद से प्रस्ताव किया कि वह उससे विवाह कर ले।
दुलालचांद को मानों स्वर्ग मिल गया। वह तुरन्त राज़ी हो गया। और फिर उस बर्मी नारी के प्रेम में दुलालचांद जैसे डूब गया हो। वह अब राजा था। सचमुच का राजा । कन्या उसकी एकान्त उपासिका बन गई। इस सुख-सागर में बहते हुए फिर कई वर्ष बीत गए। तब अचानक दुलालचांद ने अपनी स्त्री से कहा, "अब जब यहीं पर रहना है तो बंगाल में जो पूंजी है उस सबको बेचकर रुपये ले आता हूं। वहां पर बूढ़ी मां और विधवा बहन भी हैं। उनके लिए भी व्यवस्था करनी है। "
स्त्री ने खुशी-खुशी उसे जाने की आज्ञा दे दी। वह यह नहीं जानती थी कि दुलालचांद विवाहित है, उसकी स्त्री 'जीवित है और उसके पुत्र भी हैं । दुलालचांद ने यह बात बड़े यत्न से छिपा रखी थी। स्वामी को विदा करते समय स्त्री ने उसको दो-तीन हज़ार रुपये और दिये। इसके अतिरिक्त कारखाने का सारा रुपया उसी के पास रहता था। दस हज़ार रुपये उसने उस हिसाब में से निकाल लिये। इस प्रकार 12-13 हज़ार रुपये लेकर यह कलकत्ता के लिए चल पड़ा। स्टीमर घाट पर पत्नी उसे छोड़ने आई। जैसे-जैसे जाने का क्षण आ रहा था, वह विह्वल हो रही थी। यहां तक कि वह रो पड़ी और देखते-देखते हिचकियां लेने लगी। दुलालचांद ने उसे समझाने का बहुत प्रयत्न किया। कहा, "मैं सच कहता हूं, एक महीने के भीतर ही वापस आ जाऊंगा। मेरा मन भी तो वहां नहीं लगेगा।"
स्त्री बोली, "मेरा मन तुम्हें जाने देने के लिए नहीं करता। लेकिन क्या करूं? तुम्हें अपना काम निबटाना है। जल्दी से जल्दी निबटाकर आना। मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकूंगी।"
आखिर जहाज़ के चलने का समय आ पहुंचा और फिर किसी तरह अपने को छुड़ाकर दुलालचांद जहाज़ पर जा चढ़ा। फिर धीरे- धीरे आखों से ओझल हो गया। हमेशा के लिए ओझल हो गया। वह फिर लौटकर बर्मा नहीं आया । दुलालचांद उसका असली नाम नहीं था। उसने जो पता स्त्री को दिया था वह भी गलत था। महीना बीता, फिर वर्ष भी बीत गया। तीन-चार वर्ष तक वह स्त्री उसके लौटने की आशा हृदय में संजोये आकुल नयन और व्याकुल चित्त, समुद्र की ओर ताकती रही। फर्जी पते पर खोज-खबर भी बहुत ली। लेकिन कोई अर्थ नहीं निकला। वह इतनी व्यथित हुई कि अन्त में मर गई।
इन घटनाओं का कोई अन्त नहीं है। इनके पात्रों को उसने बहुत पास से देखा और वे ही उसकी कहानियों का आधार बने । दुलालचांद की यही कथा कलाकार की लेखनी का स्पर्श पाकर 'श्रीकान्त (द्वीतीय पर्व) में कैसी मार्मिक हो उठी है। बर्मी नारी उसके साहित्य में कम हैं पर उनके प्रति उसकी श्रद्धा की थाह नहीं। वह उनके सौन्दर्य पर ही मुग्ध नहीं है, उनकी स्वाधीनता से भी उसे ईर्ष्या है। "घूंघट की झंझट नहीं, पुरुषों को देखकर तेज़ी से भाग जाने की व्यग्रता से ठोकर खाकर गिरने का अन्देशा नहीं, दुविधा और लाज का नहीं, मानो झरने के मुक्त प्रवाह के समान स्वच्छन्द बेरोक गति से बही जा रही है। रमणियों को इतनी स्वाधीनता देकर इस देश के पुरुष क्या ठगे गए हैं? और हमलोग क्या उनको नीचे से ऊपर तक जकड़े रखकर और उनके जीवन को लंगड़ा बनाकर लाभ में रहे हैं? हमारी स्त्रियां भी यदि किसी ऐसे ही दिन ...
सन् 1903 से सन् 1912 के प्रारम्भ तक वह प्राय: अन्धकार में छिपा रहा, पर इसी अवधि में उसने अपने-आपको उस जीवन के लिए तैयार कर लिया जो उसे प्रसिद्धि के शिखर पर ले जाने वाला था। एक कृतिकार के लिए मानव का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है और सर्वहाराओं के बीच में रहते हुए वह यही करता रहा था। अपने को उनके साथ पूर्ण रूप से एकाकार करके उसने उनकी भावनाओं का अध्ययन किया था और अपने जीवन के उद्देश्य की दिशा को खोज लिया था।