इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह उठकर घरबार, ज़मीन- जायदाद और अपने कुटुम्ब को छोड़कर केवल धोती लेकर चला गया और फिर लौटकर नहीं आया। ओ, वह दिन आज किस तरह याद है!”
शरत् के जीवन में जैसे एक बहुत बड़ा शून्य उभर आया। जीवन के हर क्षेत्र में वही तो उसकी प्रेरणा था।
आदमपुर क्लब के नाटक विभाग ने अनेक सुन्दर नाटक मंचस्थ किये थे। उनमें, प्रमुख थे - मृणालिनी बिल्वमंगल और जना । शरत् ने इनमें क्रमश: 'मृणालिनी' 'चिन्तामणि', और ‘जना' की भूमिका निभाई थी। राजू ने गिरिजा और पागलिनी का अभिनय करके यश अर्जित किया था। शरत् के अभिनय में जो गाम्भीर्य, संयम, तेजस्विता और शोक प्रकट करने की भंगिमा थी वह कलकत्ता की प्रतिभाशाली अभिनेत्री के उन्मत्त उच्छ्वासों में भी नहीं पाई जाती थी और राजू द्वारा पागलिनी के अभिनय की याद करके साठ वर्ष 2 बाद भी लोगों को रोमांच हो आता था। वह दृश्य जैसे उनके मन के भीतर चला गया हो। राजू स्वयं भी जैसे पागल हो उठा था। बार-बार उसी का अभिनय करता । एक दिन अपने शिशु भतीजे को लेकर पेड़ पर चढ़ गया और गोद में लेकर वहीं पर पागलिनी का अभिनय करने लगा। देखनेवाले हतप्रभ रह गये। किसी भी क्षण वह बच्चा हाथ से छूटकर नीचे गिर सकता था।
उसी रात को राजू के पिता ने उसे बहुत पीटा और उसी रात को वह लापता हो गया। सुना वह संन्यासी हो गया है। मन उसका संन्यासवृत्ति की ओर काफी दिनों से खिंच रहा था। बहिर्जगत् से विदा लेकर वह मानो मनोजगत् में रम गया था। गंगा तट पर बच्चों के श्मशान के पास ही अश्वत्थ का जो विशाल वृक्ष था, उसी के ऊपर उसने स्वयं एक काठ का ध्यान-घर बनाया था। शरत् के अतिरिक्त और किसी को उसने यहां नहीं आने दिया। उसमें प्रवेश कर पाना हरेक के बस की बात भी नहीं थी। बांस की सीढ़ा पर से होकर जाना पड़ता था। वहीं वह बीच-बीच में ईश्वर की ज्योति के दर्शन कर आत्मविभोर हो उठता था। वह धीरे- धीरे मौनी होता जा रहा था। अनशन करके दिन काट देता था । बन्धु बान्धव भी पीछे छूटते जा रहे थे। बस केवल बच्चों को ही वह प्यार करता था। उन्हें छाती से लगाकर उसे तृप्ति मिलती थी। वह उन्हें लेकर पेड पर चढ़ जाता था। पिता उसको पहचान न पाये और पक्षी उड़ गया सागर के उस पार ।
कुछ दिन बाद कई व्यक्तियों ने उसे हरिद्वार में देखने का दावा किया। एक बार एक महिला ने उदासी पंथ के अखाड़े में किसी को सुमधुर स्वर में बंगला गीत गाते हुए सुना । स्वर कुछ पहचाना सा लगा। इसलिए कौतूहलवश अन्दर की ओर झांका। गाने वाले की उस ओर पीठ थी, पर उस पर नश्तर का दाग स्पष्ट दिखाई दे रहा था। उसे विश्वास हो गया कि निश्चय ही यह राजू है। उसी की पीठ पर नश्तर का दाग था। वह तुरन्त अन्दर गई और बोली, “अरे राजू तेरी मां तेरे लिए पागल हो रही है और तू यहां साधू हुआ घूमता है !”
राजू ने उसी क्षण अपना मुंह ढक लिया। कोई जवाब नहीं दिया। समाचार पाकर उसकी मां तुरन्त हरिद्वार पहुंची, परन्तु तब तक वह दल न जाने कहा चला गया था। बहुत खोज की गई, लेकिन सब व्यर्थ ।
राजू चला गया। उसकी वेदना का कोई पार नहीं था। उसके साथ बिताये गये अपने जीवन को याद करके उसके कलेजे में टीस उठने लगती। वह उसका कितना बडा मित्र था ! उसी से उसने सीखा था कि भले ही इस संसार में दूसरे मूल्य किसी स्तर पर झूठे लगने लगें लेकिन सहज मानवीय करुणा कभी नहीं झुठलाई जा सकती। उस बार जगद्धात्री पूजा के ठीक अगले दिन मामा के घर यात्रा का आयोजन था। कलकत्ता से नामी दल आया था। टोले-मोहल्ले के सभी लोग देखने के लिए दल बनाकर आ पहुंचे। शरत् भी एक कोने में बैठा तल्लीन भाव से देख रहा था कि तभी न जाने कहां से राजू आ पहुंचा। वह बहुत व्यस्त दिखाई दे रहा था। पास आकर उसने कहा, "चल उठ !”
गुरु का आदेश था। उठना पड़ा। बाहर आकर राजू ने बताया, “उस मोहल्ले के तारापद का बेटा अभी-अभी हैजे से मर गया है। बेचारा तीन साल का बच्चा अनेक प्रयत्न करने पर भी बच नहीं सका। मां-बाप पागलों की तरह रो- पीट रहे हैं। लेकिन इस रोग के रोगी की लाश को अधिक देर तक नहीं रखना चाहिए। इसी दम श्मशान पहुंचा देना चाहिए। मोहल्ले के सभी लोग यहां यात्रा देखने के लिए आ गये है। अब तू ही मरे साथ चल!”
दोनों तारापद के घर पहुंचे। मां-बाप को समझाकर बच्चे की लाश श्मशान की ओर चे चले। आधी रात बीत चुकी थी। कुछ दूर जाकर शरत् ने कहा, “साथ में बत्ती ले लेना अच्छा रहता।”
राजू ने उत्तर दिया, “रहता तो, मगर इस समय मिले कहा? देगा कौन मेरे पास एक दियासलाई है, उसी के काम चला लेंगे।”
श्मशान ठीक गंगा तट पर था। जितना बड़ा, उतना ही डरावना । दूर-दूर तक बस्ती का निशान नहीं था। चारों ओर बालू का अखण्ड राज्य, कहीं-कहीं खजूर के एक-दो पेड़ या कटीली झाड़ियां, यही कुछ वहां दिखाई देता था ।
श्मशान के बीचों-बीच एक झोपड़ा था। आंधी-पानी आने पर या किसी कारण विश्राम करने की आवश्यकता हो तो उसका उपयोग किया जा सकता था। लेकिन लोगों का विश्वास था कि इस झोंपड़े में भूत रहते हैं। दिन में भी उसके भीतर जाने से डरते थे।
लेकिन राजू इन बातों की चिन्ता नहीं करता था। वह सीधा उसी झोपड़े में जा घुसा। शरत् भी पीछे-पीछे चला आया, लेकिन डर के मारे वह कांप रहा था। राजू ने लाश को फर्श पर रख दिया। बोला, “बहुत देर से बीड़ी नहीं पी है। पहले एक बीड़ी पी लूं।”
तभी सहसा अंधेरे में से एक आवाज़ आई, "एक मुझे भी दोगे?”
शरत् के रोंगटे खड़े हो गए। शरीर से पसीना बहने लगा। राजू ने पूछा, “कौन है?" और साथ ही साथ दियासलाई जलाकर देखा, पाया कि पास ही मैले से बिस्तर पर एक आदमी गुदड़ी से ढका हुआ लेटा है।
पूछा, "तुम कौन हो?”
फिर आवाज आई, “मैं गंगा-यात्री हूं।”
अब उन्होंने ध्यान से देखा । गुदड़ी के भीतर लगभग 80 वर्ष का एक वृद्ध लेटा हुआ था। राजू ने उसे पीने के लिए एक बीड़ी दी। वृद्ध ने ऐसे कश खींचा मानो अमृत मिला हो। बोला, “आह बेटा, तुमने बचा लिया। कई दिन से यहां पड़ा हूं। मौत भी नहीं आती। मेरे साथ मेरे दो नाती और मोहल्ले का एक आदमी आया है। मैं जल्दी मर नहीं रहा हूं, इसलिए वे बड़े नाराज़ हैं। आज यात्रा देखने चले गए हैं। कहते हैं, इसलिए लाये थे कि बूढ़ा जल्दी मर जाएगा, लेकिन गंगा की हवा खाकर यह तो अच्छा होता जा रहा है। न जाने मेरा क्या होगा? गंगा-यात्री तो वापस लौट नहीं सकता।
राजू ने तुरन्त उत्तर दिया, “कैसे नहीं लौट सकता? तुम भले- चंगे हो। तुम्हारा घर कहां है? हम तुम्हें वहां छोड़ आयेंगे। नहीं तो तुम्हारे साथी तुम्हारा गला दबाकर तुम्हें मार डालेंगे।"
बूढ़े ने कहा, "हां बेटा, वे बार-बार मुझे यही कहकर धमकी दे रहे हैं। न जाने किस वक्त गला दबा दें। "
राजू ने सबसे पहले लड़के को गाड़ा, फिर स्नान किया। इसके बाद शरत् से कहा, "मैं इस बूढ़े को कंधे पर उठा लेता हूं। तू उसकी गुदड़ी बगल में दबा ले।”
और वह उस्ताद संपेरा और अन्नदा दीदी। राजू जैसे 'उस प्रेम-प्लावित आत्मा' को पूजता था। वह समाज-बहिष्कृता कौन थी ? ठीक-ठीक इसका पता किसी को नहीं, परन्तु यह सत्य है कि उसका पति मुसलमान हो गया था और समाज के आदेश पर भी वह उसे छोड़ नहीं सकी थीं। वह सांप पकड़ने का काम करता था, पर इससे पेट थोड़े ही भर सकता है। इसीलिए, जैसाकि उनका स्वभाव था, राजू और शरत् उनकी सहायता करते थे। एक दिन दीदी का अपमान करने पर उन्होंने उस्ताद को पीट भी दिया था......।
इन कहानियों का कोई अन्त नहीं था। शरत् के दुख का भी कोई अन्त नहीं था, पर वह इस दुख को किसी के सामने प्रकट नहीं करता था। फिर राजू की याद उसके साहस को बढ़ाती ही थी। हर कहीं हर किसी को वह अपने साहस से चकित कर देता था ।