द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वीकार नहीं कर सके। पीढ़ियों का संघर्ष हर युग में होता आया है। जिस युग के वे थे उनके लिए स्थापित मूल्यों और परम्पराओं के इस अस्वीकार को समझ पाना असम्भव जैसा था। फिर भी हो मकता है वे जीवित रहते और पूरा उपन्यास पढ़ पाते तो अपनी राय बदल देते क्योंकि सावित्री मेस की नौकरानी होकर भी मचमुच सती-सावित्री है। वह उच्च कुल की सुशीला और सुशिक्षिता कन्या है। परिस्थितियां उसे मेस की नौकरी करने के लिए विवश कर देती हैं। लेकिन शरतु उसकी समस्त व्यथा-वेदना के भीतर उसे सत्पथ से नहीं डिगने देता। किरणमयी के शारीरिक प्रेम के विरुद्ध सावित्री का प्रेम वायवी है। वह चिर- आदर्शवादिनी है। इसीलिए उसका पदस्खलन नहीं हो पाता। लेकिन तत्कालीन समाज इस बात को नहीं समझ पाया । उच्च मध्य- वित्त श्रेणी की आचार नीति ही तब सर्वप्रिय थी। संस्कारों से मुक्ति पाकर समाज अपनी झूठी नैतिकता के भीतर नहीं झांक सकता था। शरत् इस नैतिकता के ढोंग को पहचान गया था। केवल इतना ही अन्यथा वह पूर्ण नैतिक है, यहां तक कि किरणमयी को भी उसने गिरने नहीं दिया। दिवाकर के साथ एक शय्या पर सोकर भी वह चरित्रवान ही बनी रही।
लेकिन 'चरित्रहीन' ही नहीं पहले छ: महीने तक 'भारतवर्ष' में उसकी कोई रचना नहीं छपी। इसका एक कारण था द्विजेन्द्रलाल राय की मुत्यु । चर्चा थी कि नये सम्पादक अवकाश प्राप्त न्यायाधीश और बंगीय साहित्य परिषद् के सभापति श्री शारदाचरण मित्र होंगे। तब शरत् ने प्रमथ बाबू को लिखा, “द्विजेन्द्र बाबू जो काम कर सकते, वह क्या शारदा बाबू द्वारा होगा? वे स्वयं ही नहीं गए उनके साथ उनका असाधारण प्रभाव भी चला गया। मुझमें अब साहस नहीं कि कुछ लिखकर भेजूं। उनके रहते उनकी प्रशंसा पाने के लोभ से लिखा। शारदा बाबू के अच्छा-बुरा कहने की क्या कीमत है? कौन उसे स्वीकार करेगा?"
लेकिन शारदा बाबू भी उसके सम्पादक नहीं हो सके । अन्ततः यह भार उठाना पड़ा (रायबहादुर) जलधर सेन को और उनके सम्पादकत्व में यथासमय स्वर्गीय द्विजेन्द्रलाल राय के चित्र सहित ‘भारतवर्ष' का पहला अंक - प्रकाशित हुआ। सौष्ठव और श्री की दृष्टि से उसने सभी को मुग्ध कर दिया, लेकिन ऐसा लगता है कि शरत् को सामग्री की दृष्टि से बहुत पसन्द नहीं आया। प्रमथ को लिखा द्विजू दा एक वर्ष जीवित रहते तो भारतवर्ष' अक्षय हो उठता। अब तो उसकी स्थिरता के संबंध में सचमुच आशंका होती है।"
बहुत सम्भव है इस कारण भी वह असके लिए तुरन्त नहीं लिख सका। उसकी रचना छापने का अवसर उन्हें दिसम्बर में ही मिल सका। यह रचना थी 'विराजबहू"
"विराजबहू' उसने भारतवर्ष को भेजी, इस बात से फणीन्द्र का चिन्तित होना स्वाभाविक था। इस चिन्ता को शरत् समझता था। इसलिए बार-बार उसने फणीन्द्र को विश्वास दिलाया, “आपके पत्र को मैं अपना पत्र मानता हूँ। उसकी हानि हो ऐसा कोई काम नहीं करूंगा। केवल प्रमथ को लेकर झंझट है वह परिचित ही नहीं परम बन्धु है चिर दिन का अति स्नेह का पात्र है, इसलिए सोचना होगा, न सोचने पर कैसे होगा.
यह उपन्यास बर्मा के उसके मित्रों को बहुत अच्छा लगा, पर वे विराज के अधःपतन को स्वीकार न कर सके। योगेन्द्रनाथ सरकार ने कहा, "अच्छा, विराज के आत्मघातिनी हो जाने से यदि वह हाथ-पाव बांधकर जल में डुबा दी जाती और उसी अवस्था में मछलियों का शिकार करनेवाला जमींदार उसको अपने बजरे में खींच लेता, तो विराज के पक्ष में क्या यह कम पाप होता? हिन्दू नारी स्वामी के ऊपर अभिमान करके घर छोड़ दे और फिर आत्महत्या की चेष्टा करे! सर्वनाश! इन दो से अधिक कोई पाप क्या दुनिया के शास्त्रों में है? स्वामी के ऊपर अभिमान करके कुलत्याग करने में सोचता हूं 'ईस्ट लीन' का कितना असर हुआ है। यद्यपि वह बात और है।"
शरत् बाबू ने उत्तर दिया, "संसार में असम्भव कुछ नहीं है जिन्होंने शेक्सपियर की रचनाएं अच्छी तरह पढ़ी हैं वे इस बात का प्रमाण खूब दे सकते हैं क्या कह सकते हो कि शेक्सपियर से बढ़कर दूसरा आदमी इस पृथ्वी पर पैदा हुआ है जो नर नारी के चरित्रों को समझता हो?"
योगेन्द्रनाथ सरकार इस बात पर कोई उत्तर न दे सके।
इस प्रकार का आक्षेप कलकत्ता के मित्र ने किया था तब शरत ने एक और भी बात कहीं थी, “दिन पर दिन अनाहार रहने और मानसिक चिन्ताओं के कारण तन और मन दोनों ही विकल हो उठे हैं वह क्षणिक उत्तेजना के कारण कुछ भी कर सकता है। मैंने अपनी आंखों से यह अवस्था देखी है।"
अपने अनुभव के आधार पर वह मानता था कि चिरकाल की गृहस्थ रमणी एक बार पतिता हो जाने पर थोड़े ही दिनों में लाज शर्म छोड़कर नये जीवन की जिस प्रकार अभ्यस्त हो जाती है वैसे पुरुष नहीं हो सकता।
"विराजबहू' को लिखने में शरत को एक महीने से अधिक लगा। असीम धैर्य के साथ काट-पीट करके वह लिखता था और फिर सरकार को सुनाकर विचार-विनिमय भी करता था। अपने लिखने की प्रक्रिया के संबंध में उसने सरकार से कहा था, “देखो, जब तक मेरा एक्सप्रेशन सहज तथा निर्झर के समान नहीं हो जाता तब तक किसी भी तरह मेरी तृप्ति नहीं होती। रात का लिखा दिन के समय गलत जान पड़ता है।
यह गलती व्याकरण की गलती नहीं है। यह है भावों के अनुसार चलने वाली भाषा का अभाव। गांव- गोठ की कथा वार्ता में बोलचाल की बंगला चलती है। उसी बंगला को यदि कोई काव्यतीर्थ या विद्यासागर संस्कृतमयी कर दे तो उससे जो अवस्था हो जाएगी ठीक वैसी ही गलती है यह बात यह है कि जो जैसा हो वैसा ही होना चाहिए।"
"विराजबहू' की पहली किस्त लिखकर जब वह भेजने लगा तो उसने योगेन्द्रनाथ से पूछा बताओ इसका क्या नाम रखा जाए?"
सरकार ने कहा, "विराज मोहिनी ठीक रहेगा।"
“ना रे, उससे तो अच्छा मुझे 'विराजबहू नाम पसन्द है। मोहिनी चरित्र उतना महत्त्वपूर्ण नहीं वह नाम उसके साथ जोड़ना ठीक नही होगा।"
सरकार ने उत्तर दिया, "अर्थात् पहली बार योगेन्द्र चटर्जी की कनिष्ठा बहु, दूसरी बार शिवनाथ शास्त्री की मंझली बहू, तीसरी बार शरत् बाबू की 'विराजबहू' यही तो!"
"ऐसा है तो हो। तुममें यही तो एक ऐसा रोग है उनकी कनिष्ठा बहू, मंझली बहू, जिन्हें खुशी हो, मेरा उनसे क्या नुकसान होता है?"
यह कहते हुए नीली पेंसिल से पाण्डुलिपि के पहले पन्ने पर बड़े-बड़े अक्षरों में "विराजबहू लिख दिया। नीचे छोटे-छोटे अक्षरों में लिखा था- गल्प। यह देखकर सरकार ने प्रतिवाद किया, यह नहीं होगा क्या प्रमथ की चिट्ठी की बात याद नहीं है? लिखो, उपन्यास "
शरत् ने गल्प' शब्द काटकर बड़े-बड़े अक्षरों में लिख दिया- उपन्यास |
लेखक रूप में प्रसिद्ध होने पर उसकी प्रतिष्ठा भी बढ़ रही थी उसके साथी अब उपेक्षा से उसे चिढ़ाते नहीं थे इसके विपरीत जब भारत से स्वदेशी आन्दोलन के नेता श्री सुरेन्द्रनाथ सेन संगून आए तब उनकी अभ्यर्थना के लिए जो सभा आयोजित की गई उसके सभापति के पद पर उसी को बिछाया गया। जीवन में पहली बार वह अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठा था। तब वह कितना नर्वस हो उठा था। सेर-डेढ़ सेर की माला गले में पड़ी थी। उसके भार से सीधा खड़ा नहीं हो पा रहा था। देखकर दया आती थी। भाषण लिखा हुआ था, सुन्दर भी था, पर क्या वह उसे ठीक-ठीक पढ़ पाया?
उसकी इस घबराहट के अनेक कारण थे, शारीरिक और मानसिक शरीर से अब वह बहुत अशक्त हो गया था। जिस प्रकार का जीवन कुछ दिन पूर्व तक उसे जीना पड़ा था उसमें स्वास्थ्य अच्छा रहता तो आश्चर्य ही होता। बुखार, न्यूरलज़िक दर्द और पेचिश, ये उसके चिरसंगी थे। फिर वह अफीम भी खाता था। रात में वह कुछ अधिक ही चढ़ जाती थी। इसलिए अक्सर ही लिखने-पढ़ने में व्यवधान पड़ता था। इसलिये मित्रों ने उसे लिखा कि अब वह कलकत्ता आकर रहे। लेकिन उसको यह सब बात उस समय बिल्कुल पसन्द नहीं आई। फणीन्द्रनाथ को उसने उत्तर दिया, “नौकरी छोड़कर और यह अस्वस्थ शरीर लेकर खानाबदोश बनना मुझे अच्छा नहीं लगता। और किसी के पास आकर रहना तो एकदम असम्भव है। अस्पताल में मरूंगा पर किसी भी हालत में पीड़ित शरीर को किसी के घर में अन्तिम बार नहीं रखूंगा। इससे में घृणा करता हूं।... ....... अगर गया तो मैं अपनी बड़ी बहन के यहां ही रहूंगा। एक प्रकार से वही मेरा घरद्वार है। उसकी आदत भी बहुत अच्छी है। आने के लिए बारम्बार तकाज़ा भी कर रही है। लेकिन अस्वस्थ शरीर लेकर मैं कहीं जाना नहीं चाहता। मुझे बारम्बार इस बात का डर रहता है कि कहीं अचानक मरकर परेशान न करूं।”
लेकिन प्रमथनाथ को वह लिख चुका था, “...... ..एक बार मिलना हो जाए, यही अन्तिम इच्छा है। जाने पर तुम्हारे वहीं ठहरूंगा, मर जाऊंगा तो सद्गति होगी। ब्राह्मण के कन्धे पर चढ़कर परम मित्र का मुंह देखकर अन्तिम सेवा लेकर नीमतल्ला जाना होगा।"
उसके पत्रों में अनेक ऐसी विसंगतियां ढूंढी जा सकती हैं। लेकिन सच यही है कि वह दिन-प्रतिदिन रंगून छोड़ने के लिए आतुर हो रहा था। उसका एक कारण था दफ्तर की नौकरी और साहित्य-सृजन में संघर्ष एक पत्र में अपने बड़े साहब न्यूमार्श की घोर निन्दा करते हुए उसने लिखा, “हमारे आफिस में यह नियम है कि यदि किसी दिन कहीं से कोई रिमांइडर आ जाता है, तो 6 महीने के लिए 10 रुपये के हिसाब से जुर्माना हो जाता है। यह ऐसी आराम की नौकरी है।...... तीन-चार दिन पहले की एक घटना है, हठात् मेरा एक रिमांइडर आ गया । इतने काम में छोटे-मोटे काम की ओर मैं ध्यान नहीं दे सकता। यह हमारे सब-ऑडीटर भौमिक बाबू और पेरिया स्वामी की गलती थी, लेकिन मैंने सारा दोष अपने ऊपर ले लिया। जवाब दिया कि नज़र से चूक हो गई और इसी बीच में अपना त्यागपत्र लिखकर रख लिया। अच्छी तरह जानता था कि 10 रुपये गए। यह अपमान सहन करके जो नौकरी करना चाहता है, करे। मैं तो किसी तरह से नहीं सहन कर सकता। लेकिन नहीं जानता, क्यों न्यूमार्श ने दया करके कोई बात नहीं कही नहीं जानता यह दुर्भाग्य है या सौभाग्य ? मैं त्यागपत्र नहीं दे सका। लेकिन शरीर भी चल नहीं रहा । लिखना पढ़ना प्रायः असम्भव हो गया है। इतने दिन नौकरी की है, भैया, लेकिन ऐसी भयानक दुर्दशा में कभी नहीं पड़ा। उस दिन झोंक में आकर लज्जा और संकोच त्याग मित्र महाशय को एक चिट्ठी लिखी कि जैसे भी हो, जो भी हो, कलकत्ता में एक नौकरी दिलवा दो। मैं इस्तीफा देकर चला आऊंगा। अभी उनके जवाब आने का समय नहीं हुआ। पर यह भी समझ में आ रहा है कि यदि शीघ्र ही यह साहब नहीं जाता, और जाने की कोई आशा भी नहीं दिखाई देती, तो ऐसा होने पर अन्त में मुझे नौकरी छोड़नी ही होगी। साला दूसरे दफ्तर में अर्ज़ी तक फारवर्ड नहीं करता । बहुत-से पाजी देखें हैं, लेकिन इस प्रकार का तो सुना ही नहीं..
नौकरी छोड़ देने की बात मन में उठना तो स्वाभाविक नहीं था, लेकिन अधिकारियों के प्रति उसका आक्रोश अतिरंजित था। साहित्य-सृजन में मन देने पर कार्यालय के कार्य की अवहेलना ही हो सकती थी। कोई भी अधिकारी इस प्रकार की अवहेलना नहीं सह सकता । न्युमार्श इतना बुरा नहीं था, जितना शरत् ने उसे बताया है। वास्तव में अब तक जिस प्रच्छन्नता, तुच्छता और अवहेलना का जीवन उसे बिताना पड़ा था, उससे मुक्ति का आनन्द ही उसे कलकत्ता की ओर खींच रहा था। उसे इस बात की ज़रा भी चिन्ता नहीं थी कि नौकरी सरकारी है या प्राइवेट। हां, किसी साहित्यिक पत्र में काम मिल जाता है तो उससे अच्छा और कुछ नहीं हो सकता। उसने लिखा “इतने बड़े-बड़े पत्र प्रकाशित हो रहे हैं, मुझको कोई सब-एडीटर नहीं लगा सकता? मैं उनके लिए बहुत कुछ काम कर सकता हूं। एक बड़ी कहानी, एक धारावाहिक उपन्यास, एक प्रबन्ध, एक समालोचना, ये सब मैं दे सकता हूं। इसके अतिरिक्त चित्र जांच सकता हूं, गाने की स्वर लिपि के दोष बता सकता हूं, वैज्ञानिक और साहित्यिक आलोचना भी में कर लूंगा। दस से पांच बजे तक खूब मेहनत कर सकता हूं। बर्मा अब मुझे नहीं सुहाता। स्वदेश लौटने को जी करता है।”
रंगून के भद्र बंगाली समाज में उसका अब भी सम्मान नहीं था। उसके कार्य सभ्य और प्रतिष्ठित जनों के दृष्टिकोण से निन्दनीय और असभ्यतासूचक माने जाते थे। इसीलिए वे उसे आवारा और चरित्रहीन समझते थे। उस दिन एक युवक कलकत्ता से आकर उसके पड़ोस में ठहरा। वह जीने के ऊपर चुपचाप खड़े-खड़े रास्ते की ओर देखता रहता था । शरत् आते-जाते उसे देखता। एक दिन उससे नहीं रहा गया। उसने पूछा, “अकेले चुपचाप रास्ते की ओर आप क्या देखते रहते हैं?"
युवक ने उत्तर दिया, "यहां के लिए नया हूं। किसी से परिचय नहीं है।"
"तुम्हारा नाम क्या है?"
“पवित्र गंगोपाध्याय !”
शरत् बोला, “मेरा नाम शरत् चटर्जी है। मैं एकाउण्टेण्ट जनरल के दफ्तर में क्लर्क हूं। कल तुम मेरे घर आओ।"
युवक इस अनाहूत आमंत्रण को अस्वीकार नहीं कर सका और दूसरे दिन निश्चित समय पर उसने द्वार पर जाकर आहट की। शरत् स्वयं दरवाज़ा खोलने आया युवक ने अन्दर आकर देखा, दीवार के एक ओर पुस्तकों से भरा रैक है। दूसरी ओर मेज़-कुर्सी है। मेज़ के ऊपर लकड़ी का एक चौकोर कलमदान है। जिसमें 5-6 फाउण्टेनपेन करीने से रखे हैं। फुलस्केप साइज़ की चमड़े की जिल्दवाली एक कापी भी है। पैड के ऊपर गोलाकर रूप में 'शरत्' लिखा हुआ मोनोग्राम है। पैड के कागज़ पर खूब छोटे-छोटे सुन्दर मोती जेसे बंगला अक्षरों में कुछ लिखा हुआ है।
उन अक्षरों में ऐसा कुछ आकर्षण था कि पढ़ने को मन कर आया, लेकिन उसी समय शरत् मुड़ा, बोला, “अरे, यह तो पागलपन है। देखिए नहीं, उधर चलिए, ज़रा अड्डा जमे । और भी कई मित्र आए हैं।"
पास के घर में पहुंचकर पाया कि शतरंजी के ऊपर तीन-चार व्यक्ति बैठे हैं। उनमें एक बम भी है। शरत् ने उससे कहा, “आप यहां बैठिए, मैं अभी आता हूं।”
वह बैठ गया । शरत् कई क्षण बाद लौटा तो उसके हाथ में एक किताब थी। उसे दिखाकर बोला, "साहित्य' मासिक पत्र में यह जो पवित्र गांगुली की कविता निकली है, यह क्या आप ही हैं?"
युवक ने कुछ जवाब न देकर सिर झुका लिया। अब समझने को कुछ शेष नहीं रहा था। शरत् बोला, “अब तो हमारे घर में एक कवि भी आ गया है।"
सहसा इसी समय उस युवक के आतिथेय का नौकर वहां आया और बोला, “आपको बाबू अभी बुलाते हैं।”
हतप्रभ वह वहां से चला गया। उसकी कुछ समझ में नहीं आया। पहुंचने पर मित्र ने अत्यन्त तिरस्कार के स्वर में उससे कहा, “तो यह है तुम्हारा काम ! उस अड्डे में जा शामिल हुए। मेरी बात मानकर यदि वहां नहीं जाओगे तो अच्छा होगा। एक तो विदेश और उसमें भी रंगून! यह अच्छी जगह नहीं है। "
'भारतवर्ष' में उसके बाल्यबन्धु प्रमथनाथ भट्टाचार्य थे वह वहां जा सकता था, परन्तु 'चरित्रहीन' के कारण अभी उसका मन उधर उतना नहीं था। यमुना' ही उसके मस्तिष्क पर छायी हुई थी। कभी-कभी तो कविता को छोड़कर और सब कुछ लिखकर वह 'यमुना' के पन्ने भर देता था। बीच-बीच में, प्रमथ को पत्र लिखकर अपनी व्यथा भी प्रकट करता था लेकिन उस व्यथा में भी यमुना' का प्रेम प्रमुख था।
"तुमसे मेरा निवेदन है कि तुम मेरी यमुना' को प्यार करो । 'भारतवर्ष' जिस प्रकार तुम्हारा है, 'यमुना' उसी प्रकार मेरी है। जिससे उसकी हानि न हो, उन्नति हो, उस पर ऐसी नज़र रखो। तुम फणि के ऊपर क्रोध मत करना, भला आदमी है वह कैसे जान सकता है कि तुम और मैं क्या हैं और 20 वर्ष से कैसे एक घनिष्ठ सूत्र में बंधे हैं दुनिया सोचती है कि हम मित्र हैं लेकिन मित्रता किसके बीच मे है, किस प्रकार की है यह वह बेचारा कैसे जान सकता है! तुम्हारी-मेरी बातें तुम्हें मुझे छोड़कर और कोई नहीं जानता, प्रमथ।”
“मैं अकेले तो 'यमुना' को चला नहीं सकता। इसलिए जितने शिष्य लोग थे, सबको इसमें लगा दिया है। निरुपमा, विभूति, सुरेन, गिरीन और भागलपुर के जो दो-एक साहित्यकार थे सबने लिखना शरू कर दिया है। देखना चाहिए कि 'यमुना' के भाग्य में क्या होता है? वे तो कहते हैं कि तुम गुरुदेव हो। तुम जो कहोगे वह हमें करना ही है। यही एक आशा है।"
‘यमुना’ के लिए उसकी चिन्ता का कोई पार नहीं था। पुराने शिष्य और मित्रों को ही नहीं, नये मित्रों को भी वह बार-बार 'यमुना' के लिए लिखने और कुछ भी करने के लिए कह रहा था। इस सन्दर्भ में उन दिनों जैसी कहानियां छप रहीं थीं, उनकी उसने आलोचना की। सौरीन्द्रमोहन को लिखा:
“आजकल मासिक पत्रों में जो ये छोटी कहानियां छपती हैं, उनमें से पन्द्रह आना के संबंध में तो कोई समालोचना ही नहीं हो सकती। कार्तिक के महीने में इतनी कहानियां छपी है, उनमें एक भी सुन्दर नहीं है। अधिकांश तो पढ़ने योग्य भी नहीं हैं। किसी में भी न तो वस्तु है, न भाव है, केवल सारहीन आडम्बर है। घटनाओं की सृष्टि है और ज़बरदस्ती से करुणा पैदा करने की चेष्टा है। बूढ़ी वेश्या को सजाकर युवती कहकर दुनिया को भुलाने की चेष्टा करते हैं। यह देखकर मन में वितृष्णा, लज्जा और करुणा पैदा होती है। उन सब लेखकों को छोटी गल्प लिखने की चेष्टा करते देखने पर सचमुच ही मेरे मन में इस प्रकार का एक भाव पैदा होता है कि वह चाहे और जो कुछ हों, स्वस्थ बिलकुल नहीं है। आजकल छोटी कहानियों की क्या दुर्दशा हो रही है!”
साहित्य इस दुर्दशा से मुक्त हो और 'यमुना' सभी दृष्टियों से सम्पन्न हो यही तब उसकी एकमात्र आन्तरिक कामना थी।