shabd-logo

अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023

10 बार देखा गया 10

द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वीकार नहीं कर सके। पीढ़ियों का संघर्ष हर युग में होता आया है। जिस युग के वे थे उनके लिए स्थापित मूल्यों और परम्पराओं के इस अस्वीकार को समझ पाना असम्भव जैसा था। फिर भी हो मकता है वे जीवित रहते और पूरा उपन्यास पढ़ पाते तो अपनी राय बदल देते क्योंकि सावित्री मेस की नौकरानी होकर भी मचमुच सती-सावित्री है। वह उच्च कुल की सुशीला और सुशिक्षिता कन्या है। परिस्थितियां उसे मेस की नौकरी करने के लिए विवश कर देती हैं। लेकिन शरतु उसकी समस्त व्यथा-वेदना के भीतर उसे सत्पथ से नहीं डिगने देता। किरणमयी के शारीरिक प्रेम के विरुद्ध सावित्री का प्रेम वायवी है। वह चिर- आदर्शवादिनी है। इसीलिए उसका पदस्खलन नहीं हो पाता। लेकिन तत्कालीन समाज इस बात को नहीं समझ पाया । उच्च मध्य- वित्त श्रेणी की आचार नीति ही तब सर्वप्रिय थी। संस्कारों से मुक्ति पाकर समाज अपनी झूठी नैतिकता के भीतर नहीं झांक सकता था। शरत् इस नैतिकता के ढोंग को पहचान गया था। केवल इतना ही अन्यथा वह पूर्ण नैतिक है, यहां तक कि किरणमयी को भी उसने गिरने नहीं दिया। दिवाकर के साथ एक शय्या पर सोकर भी वह चरित्रवान ही बनी रही।

लेकिन 'चरित्रहीन' ही नहीं पहले छ: महीने तक 'भारतवर्ष' में उसकी कोई रचना नहीं छपी। इसका एक कारण था द्विजेन्द्रलाल राय की मुत्यु । चर्चा थी कि नये सम्पादक अवकाश प्राप्त न्यायाधीश और बंगीय साहित्य परिषद् के सभापति श्री शारदाचरण मित्र होंगे। तब शरत् ने प्रमथ बाबू को लिखा, “द्विजेन्द्र बाबू जो काम कर सकते, वह क्या शारदा बाबू द्वारा होगा? वे स्वयं ही नहीं गए उनके साथ उनका असाधारण प्रभाव भी चला गया। मुझमें अब साहस नहीं कि कुछ लिखकर भेजूं। उनके रहते उनकी प्रशंसा पाने के लोभ से लिखा। शारदा बाबू के अच्छा-बुरा कहने की क्या कीमत है? कौन उसे स्वीकार करेगा?"

लेकिन शारदा बाबू भी उसके सम्पादक नहीं हो सके । अन्ततः यह भार उठाना पड़ा (रायबहादुर) जलधर सेन को और उनके सम्पादकत्व में यथासमय स्वर्गीय द्विजेन्द्रलाल राय के चित्र सहित ‘भारतवर्ष' का पहला अंक - प्रकाशित हुआ। सौष्ठव और श्री की दृष्टि से उसने सभी को मुग्ध कर दिया, लेकिन ऐसा लगता है कि शरत् को सामग्री की दृष्टि से बहुत पसन्द नहीं आया। प्रमथ को लिखा द्विजू दा एक वर्ष जीवित रहते तो भारतवर्ष' अक्षय हो उठता। अब तो उसकी स्थिरता के संबंध में सचमुच आशंका होती है।"

बहुत सम्भव है इस कारण भी वह असके लिए तुरन्त नहीं लिख सका। उसकी रचना छापने का अवसर उन्हें दिसम्बर में ही मिल सका। यह रचना थी 'विराजबहू"

"विराजबहू' उसने भारतवर्ष को भेजी, इस बात से फणीन्द्र का चिन्तित होना स्वाभाविक था। इस चिन्ता को शरत् समझता था। इसलिए बार-बार उसने फणीन्द्र को विश्वास दिलाया, “आपके पत्र को मैं अपना पत्र मानता हूँ। उसकी हानि हो ऐसा कोई काम नहीं करूंगा। केवल प्रमथ को लेकर झंझट है वह परिचित ही नहीं परम बन्धु है चिर दिन का अति स्नेह का पात्र है, इसलिए सोचना होगा, न सोचने पर कैसे होगा.

यह उपन्यास बर्मा के उसके मित्रों को बहुत अच्छा लगा, पर वे विराज के अधःपतन को स्वीकार न कर सके। योगेन्द्रनाथ सरकार ने कहा, "अच्छा, विराज के आत्मघातिनी हो जाने से यदि वह हाथ-पाव बांधकर जल में डुबा दी जाती और उसी अवस्था में मछलियों का शिकार करनेवाला जमींदार उसको अपने बजरे में खींच लेता, तो विराज के पक्ष में क्या यह कम पाप होता? हिन्दू नारी स्वामी के ऊपर अभिमान करके घर छोड़ दे और फिर आत्महत्या की चेष्टा करे! सर्वनाश! इन दो से अधिक कोई पाप क्या दुनिया के शास्त्रों में है? स्वामी के ऊपर अभिमान करके कुलत्याग करने में सोचता हूं 'ईस्ट लीन' का कितना असर हुआ है। यद्यपि वह बात और है।"

शरत् बाबू ने उत्तर दिया, "संसार में असम्भव कुछ नहीं है जिन्होंने शेक्सपियर की रचनाएं अच्छी तरह पढ़ी हैं वे इस बात का प्रमाण खूब दे सकते हैं क्या कह सकते हो कि शेक्सपियर से बढ़कर दूसरा आदमी इस पृथ्वी पर पैदा हुआ है जो नर नारी के चरित्रों को समझता हो?"

योगेन्द्रनाथ सरकार इस बात पर कोई उत्तर न दे सके।

इस प्रकार का आक्षेप कलकत्ता के मित्र ने किया था तब शरत ने एक और भी बात कहीं थी, “दिन पर दिन अनाहार रहने और मानसिक चिन्ताओं के कारण तन और मन दोनों ही विकल हो उठे हैं वह क्षणिक उत्तेजना के कारण कुछ भी कर सकता है। मैंने अपनी आंखों से यह अवस्था देखी है।"

अपने अनुभव के आधार पर वह मानता था कि चिरकाल की गृहस्थ रमणी एक बार पतिता हो जाने पर थोड़े ही दिनों में लाज शर्म छोड़कर नये जीवन की जिस प्रकार अभ्यस्त हो जाती है वैसे पुरुष नहीं हो सकता।

"विराजबहू' को लिखने में शरत को एक महीने से अधिक लगा। असीम धैर्य के साथ काट-पीट करके वह लिखता था और फिर सरकार को सुनाकर विचार-विनिमय भी करता था। अपने लिखने की प्रक्रिया के संबंध में उसने सरकार से कहा था, “देखो, जब तक मेरा एक्सप्रेशन सहज तथा निर्झर के समान नहीं हो जाता तब तक किसी भी तरह मेरी तृप्ति नहीं होती। रात का लिखा दिन के समय गलत जान पड़ता है।

यह गलती व्याकरण की गलती नहीं है। यह है भावों के अनुसार चलने वाली भाषा का अभाव। गांव- गोठ की कथा वार्ता में बोलचाल की बंगला चलती है। उसी बंगला को यदि कोई काव्यतीर्थ या विद्यासागर संस्कृतमयी कर दे तो उससे जो अवस्था हो जाएगी ठीक वैसी ही गलती है यह बात यह है कि जो जैसा हो वैसा ही होना चाहिए।"

"विराजबहू' की पहली किस्त लिखकर जब वह भेजने लगा तो उसने योगेन्द्रनाथ से पूछा बताओ इसका क्या नाम रखा जाए?"

सरकार ने कहा, "विराज मोहिनी ठीक रहेगा।"

“ना रे, उससे तो अच्छा मुझे 'विराजबहू नाम पसन्द है। मोहिनी चरित्र उतना महत्त्वपूर्ण नहीं वह नाम उसके साथ जोड़ना ठीक नही होगा।"

सरकार ने उत्तर दिया, "अर्थात् पहली बार योगेन्द्र चटर्जी की कनिष्ठा बहु, दूसरी बार शिवनाथ शास्त्री की मंझली बहू, तीसरी बार शरत् बाबू की 'विराजबहू' यही तो!"

"ऐसा है तो हो। तुममें यही तो एक ऐसा रोग है उनकी कनिष्ठा बहू, मंझली बहू, जिन्हें खुशी हो, मेरा उनसे क्या नुकसान होता है?"

यह कहते हुए नीली पेंसिल से पाण्डुलिपि के पहले पन्ने पर बड़े-बड़े अक्षरों में "विराजबहू लिख दिया। नीचे छोटे-छोटे अक्षरों में लिखा था- गल्प। यह देखकर सरकार ने प्रतिवाद किया, यह नहीं होगा क्या प्रमथ की चिट्ठी की बात याद नहीं है? लिखो, उपन्यास "

शरत् ने गल्प' शब्द काटकर बड़े-बड़े अक्षरों में लिख दिया- उपन्यास |

लेखक रूप में प्रसिद्ध होने पर उसकी प्रतिष्ठा भी बढ़ रही थी उसके साथी अब उपेक्षा से उसे चिढ़ाते नहीं थे इसके विपरीत जब भारत से स्वदेशी आन्दोलन के नेता श्री सुरेन्द्रनाथ सेन संगून आए तब उनकी अभ्यर्थना के लिए जो सभा आयोजित की गई उसके सभापति के पद पर उसी को बिछाया गया। जीवन में पहली बार वह अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठा था। तब वह कितना नर्वस हो उठा था। सेर-डेढ़ सेर की माला गले में पड़ी थी। उसके भार से सीधा खड़ा नहीं हो पा रहा था। देखकर दया आती थी। भाषण लिखा हुआ था, सुन्दर भी था, पर क्या वह उसे ठीक-ठीक पढ़ पाया?

उसकी इस घबराहट के अनेक कारण थे, शारीरिक और मानसिक शरीर से अब वह बहुत अशक्त हो गया था। जिस प्रकार का जीवन कुछ दिन पूर्व तक उसे जीना पड़ा था उसमें स्वास्थ्य अच्छा रहता तो आश्चर्य ही होता। बुखार, न्यूरलज़िक दर्द और पेचिश, ये उसके चिरसंगी थे। फिर वह अफीम भी खाता था। रात में वह कुछ अधिक ही चढ़ जाती थी। इसलिए अक्सर ही लिखने-पढ़ने में व्यवधान पड़ता था। इसलिये मित्रों ने उसे लिखा कि अब वह कलकत्ता आकर रहे। लेकिन उसको यह सब बात उस समय बिल्कुल पसन्द नहीं आई। फणीन्द्रनाथ को उसने उत्तर दिया, “नौकरी छोड़कर और यह अस्वस्थ शरीर लेकर खानाबदोश बनना मुझे अच्छा नहीं लगता। और किसी के पास आकर रहना तो एकदम असम्भव है। अस्पताल में मरूंगा पर किसी भी हालत में पीड़ित शरीर को किसी के घर में अन्तिम बार नहीं रखूंगा। इससे में घृणा करता हूं।... ....... अगर गया तो मैं अपनी बड़ी बहन के यहां ही रहूंगा। एक प्रकार से वही मेरा घरद्वार है। उसकी आदत भी बहुत अच्छी है। आने के लिए बारम्बार तकाज़ा भी कर रही है। लेकिन अस्वस्थ शरीर लेकर मैं कहीं जाना नहीं चाहता। मुझे बारम्बार इस बात का डर रहता है कि कहीं अचानक मरकर परेशान न करूं।”

लेकिन प्रमथनाथ को वह लिख चुका था, “...... ..एक बार मिलना हो जाए, यही अन्तिम इच्छा है। जाने पर तुम्हारे वहीं ठहरूंगा, मर जाऊंगा तो सद्गति होगी। ब्राह्मण के कन्धे पर चढ़कर परम मित्र का मुंह देखकर अन्तिम सेवा लेकर नीमतल्ला जाना होगा।"

उसके पत्रों में अनेक ऐसी विसंगतियां ढूंढी जा सकती हैं। लेकिन सच यही है कि वह दिन-प्रतिदिन रंगून छोड़ने के लिए आतुर हो रहा था। उसका एक कारण था दफ्तर की नौकरी और साहित्य-सृजन में संघर्ष एक पत्र में अपने बड़े साहब न्यूमार्श की घोर निन्दा करते हुए उसने लिखा, “हमारे आफिस में यह नियम है कि यदि किसी दिन कहीं से कोई रिमांइडर आ जाता है, तो 6 महीने के लिए 10 रुपये के हिसाब से जुर्माना हो जाता है। यह ऐसी आराम की नौकरी है।...... तीन-चार दिन पहले की एक घटना है, हठात् मेरा एक रिमांइडर आ गया । इतने काम में छोटे-मोटे काम की ओर मैं ध्यान नहीं दे सकता। यह हमारे सब-ऑडीटर भौमिक बाबू और पेरिया स्वामी की गलती थी, लेकिन मैंने सारा दोष अपने ऊपर ले लिया। जवाब दिया कि नज़र से चूक हो गई और इसी बीच में अपना त्यागपत्र लिखकर रख लिया। अच्छी तरह जानता था कि 10 रुपये गए। यह अपमान सहन करके जो नौकरी करना चाहता है, करे। मैं तो किसी तरह से नहीं सहन कर सकता। लेकिन नहीं जानता, क्यों न्यूमार्श ने दया करके कोई बात नहीं कही नहीं जानता यह दुर्भाग्य है या सौभाग्य ? मैं त्यागपत्र नहीं दे सका। लेकिन शरीर भी चल नहीं रहा । लिखना पढ़ना प्रायः असम्भव हो गया है। इतने दिन नौकरी की है, भैया, लेकिन ऐसी भयानक दुर्दशा में कभी नहीं पड़ा। उस दिन झोंक में आकर लज्जा और संकोच त्याग मित्र महाशय को एक चिट्ठी लिखी कि जैसे भी हो, जो भी हो, कलकत्ता में एक नौकरी दिलवा दो। मैं इस्तीफा देकर चला आऊंगा। अभी उनके जवाब आने का समय नहीं हुआ। पर यह भी समझ में आ रहा है कि यदि शीघ्र ही यह साहब नहीं जाता, और जाने की कोई आशा भी नहीं दिखाई देती, तो ऐसा होने पर अन्त में मुझे नौकरी छोड़नी ही होगी। साला दूसरे दफ्तर में अर्ज़ी तक फारवर्ड नहीं करता । बहुत-से पाजी देखें हैं, लेकिन इस प्रकार का तो सुना ही नहीं..

नौकरी छोड़ देने की बात मन में उठना तो स्वाभाविक नहीं था, लेकिन अधिकारियों के प्रति उसका आक्रोश अतिरंजित था। साहित्य-सृजन में मन देने पर कार्यालय के कार्य की अवहेलना ही हो सकती थी। कोई भी अधिकारी इस प्रकार की अवहेलना नहीं सह सकता । न्युमार्श इतना बुरा नहीं था, जितना शरत् ने उसे बताया है। वास्तव में अब तक जिस प्रच्छन्नता, तुच्छता और अवहेलना का जीवन उसे बिताना पड़ा था, उससे मुक्ति का आनन्द ही उसे कलकत्ता की ओर खींच रहा था। उसे इस बात की ज़रा भी चिन्ता नहीं थी कि नौकरी सरकारी है या प्राइवेट। हां, किसी साहित्यिक पत्र में काम मिल जाता है तो उससे अच्छा और कुछ नहीं हो सकता। उसने लिखा “इतने बड़े-बड़े पत्र प्रकाशित हो रहे हैं, मुझको कोई सब-एडीटर नहीं लगा सकता? मैं उनके लिए बहुत कुछ काम कर सकता हूं। एक बड़ी कहानी, एक धारावाहिक उपन्यास, एक प्रबन्ध, एक समालोचना, ये सब मैं दे सकता हूं। इसके अतिरिक्त चित्र जांच सकता हूं, गाने की स्वर लिपि के दोष बता सकता हूं, वैज्ञानिक और साहित्यिक आलोचना भी में कर लूंगा। दस से पांच बजे तक खूब मेहनत कर सकता हूं। बर्मा अब मुझे नहीं सुहाता। स्वदेश लौटने को जी करता है।”

रंगून के भद्र बंगाली समाज में उसका अब भी सम्मान नहीं था। उसके कार्य सभ्य और प्रतिष्ठित जनों के दृष्टिकोण से निन्दनीय और असभ्यतासूचक माने जाते थे। इसीलिए वे उसे आवारा और चरित्रहीन समझते थे। उस दिन एक युवक कलकत्ता से आकर उसके पड़ोस में ठहरा। वह जीने के ऊपर चुपचाप खड़े-खड़े रास्ते की ओर देखता रहता था । शरत् आते-जाते उसे देखता। एक दिन उससे नहीं रहा गया। उसने पूछा, “अकेले चुपचाप रास्ते की ओर आप क्या देखते रहते हैं?"

युवक ने उत्तर दिया, "यहां के लिए नया हूं। किसी से परिचय नहीं है।"

"तुम्हारा नाम क्या है?"

“पवित्र गंगोपाध्याय !”

शरत् बोला, “मेरा नाम शरत् चटर्जी है। मैं एकाउण्टेण्ट जनरल के दफ्तर में क्लर्क हूं। कल तुम मेरे घर आओ।"

युवक इस अनाहूत आमंत्रण को अस्वीकार नहीं कर सका और दूसरे दिन निश्चित समय पर उसने द्वार पर जाकर आहट की। शरत् स्वयं दरवाज़ा खोलने आया युवक ने अन्दर आकर देखा, दीवार के एक ओर पुस्तकों से भरा रैक है। दूसरी ओर मेज़-कुर्सी है। मेज़ के ऊपर लकड़ी का एक चौकोर कलमदान है। जिसमें 5-6 फाउण्टेनपेन करीने से रखे हैं। फुलस्केप साइज़ की चमड़े की जिल्दवाली एक कापी भी है। पैड के ऊपर गोलाकर रूप में 'शरत्' लिखा हुआ मोनोग्राम है। पैड के कागज़ पर खूब छोटे-छोटे सुन्दर मोती जेसे बंगला अक्षरों में कुछ लिखा हुआ है।

उन अक्षरों में ऐसा कुछ आकर्षण था कि पढ़ने को मन कर आया, लेकिन उसी समय शरत् मुड़ा, बोला, “अरे, यह तो पागलपन है। देखिए नहीं, उधर चलिए, ज़रा अड्डा जमे । और भी कई मित्र आए हैं।"

पास के घर में पहुंचकर पाया कि शतरंजी के ऊपर तीन-चार व्यक्ति बैठे हैं। उनमें एक बम भी है। शरत् ने उससे कहा, “आप यहां बैठिए, मैं अभी आता हूं।”

वह बैठ गया । शरत् कई क्षण बाद लौटा तो उसके हाथ में एक किताब थी। उसे दिखाकर बोला, "साहित्य' मासिक पत्र में यह जो पवित्र गांगुली की कविता निकली है, यह क्या आप ही हैं?"

युवक ने कुछ जवाब न देकर सिर झुका लिया। अब समझने को कुछ शेष नहीं रहा था। शरत् बोला, “अब तो हमारे घर में एक कवि भी आ गया है।"

सहसा इसी समय उस युवक के आतिथेय का नौकर वहां आया और बोला, “आपको बाबू अभी बुलाते हैं।”

हतप्रभ वह वहां से चला गया। उसकी कुछ समझ में नहीं आया। पहुंचने पर मित्र ने अत्यन्त तिरस्कार के स्वर में उससे कहा, “तो यह है तुम्हारा काम ! उस अड्डे में जा शामिल हुए। मेरी बात मानकर यदि वहां नहीं जाओगे तो अच्छा होगा। एक तो विदेश और उसमें भी रंगून! यह अच्छी जगह नहीं है। "

'भारतवर्ष' में उसके बाल्यबन्धु प्रमथनाथ भट्टाचार्य थे वह वहां जा सकता था, परन्तु 'चरित्रहीन' के कारण अभी उसका मन उधर उतना नहीं था। यमुना' ही उसके मस्तिष्क पर छायी हुई थी। कभी-कभी तो कविता को छोड़कर और सब कुछ लिखकर वह 'यमुना' के पन्ने भर देता था। बीच-बीच में, प्रमथ को पत्र लिखकर अपनी व्यथा भी प्रकट करता था लेकिन उस व्यथा में भी यमुना' का प्रेम प्रमुख था।

"तुमसे मेरा निवेदन है कि तुम मेरी यमुना' को प्यार करो । 'भारतवर्ष' जिस प्रकार तुम्हारा है, 'यमुना' उसी प्रकार मेरी है। जिससे उसकी हानि न हो, उन्नति हो, उस पर ऐसी नज़र रखो। तुम फणि के ऊपर क्रोध मत करना, भला आदमी है वह कैसे जान सकता है कि तुम और मैं क्या हैं और 20 वर्ष से कैसे एक घनिष्ठ सूत्र में बंधे हैं दुनिया सोचती है कि हम मित्र हैं लेकिन मित्रता किसके बीच मे है, किस प्रकार की है यह वह बेचारा कैसे जान सकता है! तुम्हारी-मेरी बातें तुम्हें मुझे छोड़कर और कोई नहीं जानता, प्रमथ।”

“मैं अकेले तो 'यमुना' को चला नहीं सकता। इसलिए जितने शिष्य लोग थे, सबको इसमें लगा दिया है। निरुपमा, विभूति, सुरेन, गिरीन और भागलपुर के जो दो-एक साहित्यकार थे सबने लिखना शरू कर दिया है। देखना चाहिए कि 'यमुना' के भाग्य में क्या होता है? वे तो कहते हैं कि तुम गुरुदेव हो। तुम जो कहोगे वह हमें करना ही है। यही एक आशा है।"

‘यमुना’ के लिए उसकी चिन्ता का कोई पार नहीं था। पुराने शिष्य और मित्रों को ही नहीं, नये मित्रों को भी वह बार-बार 'यमुना' के लिए लिखने और कुछ भी करने के लिए कह रहा था। इस सन्दर्भ में उन दिनों जैसी कहानियां छप रहीं थीं, उनकी उसने आलोचना की। सौरीन्द्रमोहन को लिखा:

“आजकल मासिक पत्रों में जो ये छोटी कहानियां छपती हैं, उनमें से पन्द्रह आना के संबंध में तो कोई समालोचना ही नहीं हो सकती। कार्तिक के महीने में इतनी कहानियां छपी है, उनमें एक भी सुन्दर नहीं है। अधिकांश तो पढ़ने योग्य भी नहीं हैं। किसी में भी न तो वस्तु है, न भाव है, केवल सारहीन आडम्बर है। घटनाओं की सृष्टि है और ज़बरदस्ती से करुणा पैदा करने की चेष्टा है। बूढ़ी वेश्या को सजाकर युवती कहकर दुनिया को भुलाने की चेष्टा करते हैं। यह देखकर मन में वितृष्णा, लज्जा और करुणा पैदा होती है। उन सब लेखकों को छोटी गल्प लिखने की चेष्टा करते देखने पर सचमुच ही मेरे मन में इस प्रकार का एक भाव पैदा होता है कि वह चाहे और जो कुछ हों, स्वस्थ बिलकुल नहीं है। आजकल छोटी कहानियों की क्या दुर्दशा हो रही है!”

साहित्य इस दुर्दशा से मुक्त हो और 'यमुना' सभी दृष्टियों से सम्पन्न हो यही तब उसकी एकमात्र आन्तरिक कामना थी।

68
रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
1

भूमिका

21 अगस्त 2023
42
1
0

संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

2

भूमिका : पहले संस्करण की

21 अगस्त 2023
19
0
0

कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

3

तीसरे संस्करण की भूमिका

21 अगस्त 2023
11
0
0

लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

4

" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

21 अगस्त 2023
11
0
0

किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

5

अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

21 अगस्त 2023
8
0
0

भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

6

अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
7
0
0

नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

7

अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
7
0
0

मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

8

अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
4
0
0

शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

9

अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
4
0
0

तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

10

अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
5
0
0

शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

11

अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
5
0
0

इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

12

अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
5
0
0

जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

13

अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
5
0
0

शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

14

अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
4
0
0

उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

15

अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
4
0
0

इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

16

अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
4
0
0

इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

17

अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
4
0
0

इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

18

अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
3
0
0

एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

19

अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
5
0
0

गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

20

अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
5
0
0

घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

21

अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
4
0
0

इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

22

" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
4
0
0

श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

23

अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
4
0
0

वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

24

अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
4
0
0

वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

25

अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
4
0
0

एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

26

अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
4
0
0

शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

27

अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
5
0
0

रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

28

अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
3
0
0

एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

29

अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
3
0
0

शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

30

अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
3
0
0

'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

31

अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
3
0
0

गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

32

अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
3
0
0

रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

33

अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
3
0
0

‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

34

अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
2
0
0

छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

35

अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
3
0
0

द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

36

अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
2
0
0

अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

37

अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
2
0
0

' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

38

अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
2
0
0

अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

39

अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
2
0
0

वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

40

" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

41

अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

42

अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
2
0
0

'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

43

अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

44

अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
2
0
0

चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

45

अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
2
1
0

उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

46

अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

47

अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

48

अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
2
0
0

अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

49

अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
2
0
0

किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

50

अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
2
0
0

राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

51

अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
2
0
0

देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

52

अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

53

अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

54

अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

55

अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
2
0
0

किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

56

अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

57

अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
2
0
0

केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

58

अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
2
0
0

चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

59

अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
2
0
0

साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

60

अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
2
0
0

जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

61

अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

62

अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
2
0
0

शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

63

अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

64

अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
2
0
0

राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

65

अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
2
0
0

सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

66

अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
2
0
0

हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

67

अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
2
0
0

कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

68

अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
2
0
0

इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए