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अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023

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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लिए धन का जुगाड़ करना उनके बस की बात नहीं थी । पुराना कर्ज भी वह नहीं चुका पाये थे। डिग्री हो जाने के कारण गांव के मकान को भी मात्र 225) रु० में छोटे मामा को बेच दिया था। अब भूखों मरने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। शरत् बालक नहीं था, 21 वर्ष का युवक था और अपने कुछ गुणों और कुछ दुर्गुणों के कारण लोकप्रिय भी कम नहीं था। घर की दुर्दशा ने आखिर उसके हृदय को छुआ और वह नौकरी की तलाश में निकल पड़ा।

उन दिनों संथाल परगना में सेटलमेंट का काम चल रहा था। बनैली इस्टेट की ओर से एक बड़ा कर्मचारी इस्टेट के स्वार्थ की देखभाल के लिए नियुक्त था। शरत् को इसी के सहकारी के रूप में नौकरी मिल गई। काम रुचि का था। अक्सर दौरे पर रहना होता था। तम्बुओं में रहना और, जैसा कि देसी राज्यों में तब चलता था, गाना-बजाना, शिकार खेलना, यही बड़े कर्मचारियों का मुख्य काम था। कभी-कभी राजकुमार भी वहां आते थे। शरत् ठहरा दुस्साहसी, बन्दूक चलाने का उसने खूब अभ्यास किया। बहुत शीघ्र ही उड़ती चिड़िया को मार लेने की उसकी ख्याति हो गई। यह गुण उसकी लोकप्रियता को और भी बढ़ाने लगा। वह घूमने निकल जाता। कभी अकेले, कभी दल के साथ। श्मशान भूमि से उसे विशेष प्रेम था। उस दिन घूमते-घूमते वक्रेश्वर जा निकला। वहां की श्मशान भूमि को देखकर वह मुग्ध हो उठा। शिव मन्दिर के पास कैसा निर्जन है ! उसके वैरागी मन को निर्जनता सदा प्यारी लगी। ढेर के ढेर नरमुण्ड, झीलों की तरह सेमर की डाल-डाल में लटके चमगादड़ और उनके बीच में उस विराट मौन में आर्त्तकण्ठ से रोता हुआ उनका एक बच्चा - कुछ भी उसके वैरागी मन को विचलित न कर सका।

और उस दिन राजकुमार के आने पर नाच-गान की महफिल विशेष रूप से गुलज़ार हो उठी। सेटलमेंट के बड़े-बड़े अफसर निमंत्रित किये गये। बहुत-सा रुपया पाने की शर्त पर पटना से एक बाईजी भी आई। सुन्दर तो थीं ही, कण्ठ भी अत्यन्त मधुर था। शरत् को भी इस मजलिस में निमंत्रित किया गया। वह ऊंचे पद पा नहीं था, लेकिन उसके मधुर कण्ठ की बात राजकुमार के कानों तक पहुंच चुकी थी। वे बोले, “आज तुमकी गाना होगा शरत्।"

यद्यपि उसका गाना संगीत के व्याकरण की दृष्टि से तो शुद्ध नहीं कहा जा सकता, परन्तु उसका माधुर्य मन को छूने वाला था। स्वयं बाईजी ने भी उसकी प्रशंसा की। वह नाच-गान में दक्ष थी। प्राणों की शक्ति उंडेलकर उसने मजलिस में वीणा बजाई। परन्तु 'भैंस के आगे बीन बजाये भैंस खडी पगुराय' वाली स्थिति थी। उस मजलिस में केवल शरत् ही रागिनी के मर्म को पहचान सका । मुक्तकण्ठ से उसने बाईजी के वीणावादन की प्रशंसा की। वह गद्गद हो उठी। उसका हृदय इस दिशाहारा, पर गुणी युवक के प्रति सहानुभूति से उमड़ आया। कुछ ही क्षणों के परिचय ने दोनों को एक-दूसरे के बहुत पास ला दिया। उस रात बड़ी देर बाद किसी प्रसंग में बाईजी ने उससे कहा, “मैं रुपये के लिए गाती हूं। गाना मेरा पेशा है, लेकिन आप क्यों इनकी मुसाहिबी करते हैं? आप गुणी व्यक्ति हैं। आपको यहां से चले जाना चाहिए।"

अन्तत: शरत् ने वह नौकरी छोड़ दी। इस छोड़ देने के पीछे मात्र बाईजी का आग्रह था, यह बात किसी भी तरह स्वीकार नहीं की जा सकती। अपने पिता से विरासत में उसने जो चंचल स्वभाव पाया था, वह उसे कहीं जमकर नहीं बैठने दे सकता था। एक ज्योतिषी ने उसे बताया था कि 40 वर्ष की आयु में वह राजा के समान प्रसिद्ध होगा। नौकरी छोड़ने का एक कारण यह भी हो सकता है।

और भी कारण हो सकते हैं। वस्तुतः किशोरावस्था से ही वह अपने चारों ओर एक रहस्यमय वातावरण बनाये रखता था। स्वयं नाना प्रकार की कहानियां गढ़कर सुनाना उसका स्वभाव बन गया था। उन कहानियों में अपने संबंध में भी नाना प्रकार के प्रवाद प्रचलित कर देता था। कोई आश्चर्य नहीं, बाईजी का यह आग्रह एक प्रवाद ही हो, लेकिन यह सचमुच सच है कि इन सब कुसंगतियों, स्वच्छन्द और दुस्साहसपूर्ण प्रवृत्तियों के बावजूद उसकी साहित्य - साधना मौन-मंथर गति से आगे बढ़ रही थी। दिन भर की यायावर वृत्ति के बाद रात्रि के एकान्त में वह अपने पोथी-पत्रों के बीच पहुंच जाता था। नौकरी करते समय भी इस नियम में कोई व्यवधान नहीं पड़ा । प्रारम्भ में उसे कविता से प्रेम था, लेकिन कविता लिखने का धैर्य उसमें नहीं था । रुचि के अनुसार गद्य लिखने में ही वह सारा समय बिता देता था। जब तक ठीक-ठीक शैली और शब्द न पा लेता, तब तक उसे संतोष नही होता था। बार-बार काटता रहता था। परन्तु छन्द का अनुसंधान उसे बहुत शीघ्र उकता देता। 'फूल बने लेगेछे अगुन।'

इसमें उसने 'सुप्रभा' और 'इन्द्रा' नाम की दो नायिकाओं के मनोभावों का विश्लेषण किया था। अन्त में सुप्रभा की विषपान से मृत्यु हो गई और उस पराजय में से ही उसने अपनी जय-पताका फहराई। उस युग में शरत् जैसे दिशाहारा और भावुक युवक से इससे अधिक और क्या आशा की जा सकती थी। उसने कविता लिखने का प्रयास किया, यह युग के अनुरूप ही था। वह रवीन्द्र-युग था । उसी की भांति अनातोले फ्रांस जैसे विश्व के अनेक साहित्यिकों ने सबसे पहले कविता लिखने की ओर ध्यान दिया है। लेकिन वह कवि नहींबन सका। उसकी प्रतिभा का विकास गद्य में ही हुआ है। हां, कविता का प्रभाव उस पर निरन्तर बना रहा। कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है जैसे कवि बोल रहा हो।

उस समय शिक्षित बंगाली समाज में अंग्रेजी के प्रति वैसा ही अनुराग था जैसे कभी इंग्लैण्ड में लेटिन के प्रति था। चिट्ठी-पत्री तक वे अंग्रेज़ी में लिखते थे। शरत् ने इस प्रवृत्ति का विरोध किया। वह न स्वयं अंग्रेजी में पत्र लिखता और न किसी परिचित को लिखने की प्रेरणा देता। अपने तरुण मामाओं में बंगला भाषा और साहित्य के प्रति अनुराग उसी ने पैदा किया था। उन लोगों ने मिलकर एक हस्तलिखित सचित्र मासिक पत्रिका 'शिशु' का प्रकाशन भी आरम्भ किया था। सम्पादक बने दस वर्षीय मामा गिरीन्द्रनाथ । उनका हस्तलेख बहुत सुन्दर था। 'शिशु' का बंगला और अंग्रेजी कविताएं शिशुओं के ही अनुरूप थीं। 'बांदर' के साथ 'चादर' की तुक मिलाना उनकी चरम उपलब्धि थी।

बांदर बांदर,

छिड़लो केन चादर। बांदर रूपी रूपी, परेछिस केमन टूपी।

बांदर बांदर, केन खेएछिस फेन।

रामसिंह छटके,

पड़ली डोबा पटके |

लोकरतने,

करले जतने

रामसिंह गेली मरे ।।

अंग्रेज़ी रचनाएं भी इसी प्रकार ही होती थीं-

ए लायन किल्ड ऐ माउस,

देन वेण्ट टू हिज़ हाउस ।

नाऊ काइट हिज़ मदर,

एण्ड देअरफोर क्राइड हिज़ सिस्टर ।

लेकिन उन दिनों ऐसे कामों में न कोई सहयोग देता था और न उत्साह ही बढ़ाता था। 'शिशु' के कई अंक निकले, परन्तु गांगुली परिवार में साहित्य के प्रति जरा भी प्रेम पैदा नहीं हुआ। अध्यापकों ने भी विरक्त होकर कहा, “यह सब करने से क्या होगा? इससे अच्छा तो यह है कि अंग्रेजी लिखना सीखो।”

'शिशु' में शरत् की कई रचनाएं छपीं। 'बोझा' कहानी उसने अपने प्रिय मामा सुरेन्द्रनाथ के नाम से प्रकाशित की। उस समय वह भागलपुर में नहीं था। लौटकर उसने सुना कि वह बड़ी सुन्दर कहानी लिखता है। अवाक् होकर बोला, “मैं कहानी लिखता हूं?”

मित्र ने कहा, “हां, तुम्हारी कहानी 'बोझा' बहुत सुन्दर है।”

सुरेन्द्र ने 'बोझा' कहानी पढ़ी। समझ गया कि यह शरत् का काम है। उसने पूछा, "यह सब क्या है? अपनी रचना मेरे नाम से क्यों छापी है?"

हंसकर शरत् ने उत्तर दिया, “छापी है, इसमें तुम्हारी क्या हानि है?"

यह भी अपने को छिपाने की ही प्रवृत्ति थी। पड़ता भी वह छिपकर ही था। न जाने कितने उपन्यास और विज्ञान की कितने पुस्तकें उसने पड़ डाली थी। डिकेन्स, थैकरे और श्रीमती हेनरी वुड उसके कुछ प्रिय लेखक थे। लिखने का क्रम भी चुपचाप चल रहा था। 'शुभदा' ±–उपन्यास उसने अभी-अभी समाप्त किया था । इस उपन्यास में उसने अपने परिवार की चरम निर्धनता की झांकी दी है। दिन-प्रति-दिन के जीवन में, जो दुख - दैन्य उसने पाया उसका मार्मिक चित्रण उसमें हुआ है। व्यक्तिगत अभिज्ञता के बिना वह कुछ नहीं लिखता था।

यह साहित्य-साधना मात्र उसी तक सीमित नहीं थी । उसके चारों ओर ऐसे ही मित्रों का एक दल इकट्ठा हो गया था। उन्होंने एक साहित्य गोष्ठी की स्थापना भी की थी। यह गोष्ठी वैसे छह पर्ष पूर्व से चल रही थी, पर जान पड़ता है बीच में ढीली पड़ गई थी। अब इसका पुनर्जन्म हुआ। उस गोष्ठी का नेता वह स्वयं था और उसके प्रमुख सदस्यों में थे मामा सुरेन्द्रनाथ और गिरीन्द्रनाथ मित्र, योगेश मजूमदार और विभूतिभूषण भट्ट । सुरेन्द्र प्रारम्भ से ही इसका सदस्य नहीं बन गया था। उस समय वह यहां नहीं था। बाहर से लौटने पर वह भी इसमें शामिल हो गया। एक और व्यक्ति का योगदान अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वह थी विभूतिभूषण की बहन निरुपमा देवी। वह बाल विधवा थी और उस कट्टर और संकीर्ण युग की प्रथा के अनुसार उसे प्रकट रूपमें उस सभा में भाग लेने का अधिकार हो ही नहीं सकता था। जब पुरुष ही लुक-छिपकर यह काम करते थे तो नारी की स्थिति की कल्पना आसानी से की जा सकती है। लेकिन निरुपमा लिखती अवश्य थी और उसके भाई के द्वारा वे रचनाएं गोष्ठी में विचारार्थ उपस्थित की जाती थीं। उस दिन कोई नहीं जानता था कि यह छोटी-सी साहित्य गोष्ठी अनेक भावी साहित्यकारों को जन्म देने में सफल होगी, परन्तु यह सत्य है कि इन लोगों ने साहित्य-सृजन का जो व्रत लिया वह मां सरसस्वी के आशीर्वाद से खूब फला-फूला। जिस समय साहित्याकाश में रवीन्द्रनाथ सूर्य की भांति चमक रहे थे उस समय ये लोग पूर्ण चन्द्रोदय की सम्भावनाओं को सत्य करने के लिए सचेष्ट थे। बहुत वर्षो बाद —शरत् ने मामा गिरीन्द्रनाथ को लिखा था, “मेरे दुख भरे जीवन की सुखद स्मृति यही साहित्य सभा है। घर के लोग जब तुम्हें खोजते फिरते थे, न पाने पर क्रुद्ध होते थे तब हम छिप-बैठकर सहित्यचर्चा करते थे। वे सब बातें एक दिन भी नहीं भूल सका हूं।”

विभूति और निरुपमा यहां के सब जज श्री नफर भट्ट की संतान थे। यह एक बड़े लोगों का परिवार था। शरत् का इस परिवार से संबंध निरुपमा के मंझले भाई इन्दुभूषण के माध्यम से हुआ। वह उसका कालेज का सहपाठी था। उसी के द्वारा विभूति और निरुपमा की कविताएं शरत् तक पहुंची और शरत् की रचनाओं का उस परिवार में प्रवेश हुआ।

भट्ट परिवार के मकान के पास पश्चिम दिशा की ओर एक बहुत बड़ा कब्रिस्तान था। किसी गम्भीर रात्रि में उस कब्रिस्तान के प्रांगण से गाने का शब्द उठकर हवा की तरंगों पर लहराता हुआ उनके पास पहुंच जाता था.

“आमि दुदिन आसिनि, दुदिन देखिनि, आमनि मुदिलि आंखि ।”

कभी यमुनिया नदी के तीर से वंशी का मादक स्वर सुनाई देता । 'चरित्रहीन' में सतीश जब रेलयात्रा में वंशी बजाता है तो पृथ्वी पर सोई हुई चादनी की नींद उचट जाती है और उपेन्द्र जम्हाई लेकर उठते- उठते कहते हैं: “बस, अगर कुछ सीखना होगा तो बांसुरी बजाना ही सीखूंगा।”

इन्दुभूषण भी इसी स्वर पर मुग्ध है, तभी तो समझ जाता है कि यह शरत् का स्वर है। परिचय गहराता है और वह उनके घर आने लगता है। कभी-कभी गाना भी सुनाता । कृष्ण भट्टाचार्य का यह गीत उसे बहुत प्यारा था

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“गोकुले मधु फूराय गेल, आंधार आजि कुंजबन।”

उस परिवार से आत्मीयता बढ़ जाने का कारण एक और भी था। वे लोग सम्पन्न थे, पर सम्पन्नता का दम्भ उनमें नहीं था। घर के भीतर बड़े कठोर नियम थे, पर बाहर सब ढीला-ढाला था। अर्थात् धोखा दिया जा सकता था। शतरंज खेलने का रिवाज था और इसका अर्थ केवल खेलना ही नही होता था, चाय-पान और तम्बाकू भी खूब चलता था। इन्दुभूषण को इस खेल का बहुत शौक था और शरत् भी इस विद्या में निष्णात था । इसीलिए इस परिवार के वह इतने पास आ सका।

विभूति आयु में छोटा था। बड़े भाई ने उसकी कविताओं की कापी शरत् को देखने के लिए दी थी। उसी को लेकर वह एक दिन विभूति के सामने जा खड़ा हुआ और जोर से उसे मेज पर फेंकता हुआ बोला, “क्या लिखते हो! खाली अनुवाद, वह भी अशुद्ध अपना लिखने को कुछ नहीं है, तुम्हारे पास?"

सुनकर विभूति तो जैसे अवाक् रह गया। लेकिन इसी क्षण से आरम्भ हुई उनकी मित्रता को मृत्यु भी भंग नहीं कर सकी। विभूति शरत् की तरह ही अध्ययन- प्रिय था। उसने विदेशी दार्शनिकों की अनेक रचनाएं पढ़ डाली थीं। तर्क से वह यह सिद्ध कर सकता था कि ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है। अगर ईश्वर है तो प्रोटोप्लाज़्म है। ईश्वर के अस्तित्व से इनकार करना उन दिनों पढ़े-लिखें युवकों के लिए शराब पीने की तरह प्रगति का लक्षण था। शरत् स्वयं इसी पथ का पथिक था। लेकिन विभूति जितना मेधावी था उतना ही बन्धुवत्सल भी था। शरत् से उसकी घनिष्ठता का यह एक और कारण था ।

चूंकि साहित्य की चर्चा उन दिनों प्रत्यक्ष रूप से नहीं हो सकी थी, इसलिए उनकी यह गोष्ठी अभिभावकों की दृष्टि बचाकर ही काम करती थी। सप्ताह में एक दिन किसी निर् स्थान में वें इकट्ठे होते थे। कभी सरकारी स्कूल के पास बड़े नाले में पैर लटकाकर प्रबन्ध- पाठ और आलोचनाएं करते, कभी किसी मठ में पेड़ के नीचे या टीले पर चढ़कर ये तरुण बन्धु अपना विद्रोह प्रकट करते। कब्रिस्तान में भी यह गोष्ठी होती थी । शरत् के नेतृत्व में न जाने कितनी अमानिशायें उस दल ने वहां काटी थीं और स्तब्ध होकर सुना था उसका संगीत। भट्ट परिवार के मकान के पास जो कब्रिस्तान था उसमें एक बड़ा मकबरा था। उसकी छत मैदान के समान लम्बी-चौड़ी थी। सीढ़ी से ऊपर जाने के बाद वे दुनिया की दृष्टि से ओझल हो जाते थे। अड्डा जमाने के लिए यह आदर्श स्थान था।

एक बार सुरेन्द्र ने वहां आकर जो कुछ देखा उससे वह विस्मित रह गया था। वसंत ऋतु और शुक्ल पक्ष की संध्या, वह विशाल छत चन्द्र- ज्योत्स्ना से आलोकित हो रही थी । उत्तर की आरे से बह रहा था गंगा का स्पर्श पाकर शीतल-मंद पवन । इधर-उधर चटाई बिछाकर अलग-अलग दल कार्यव्यस्त थे। एक स्थान पर जोर-शोर से नाटक की रिहर्सल चल रही थी तो दूसरे स्थान पर हारमोनियम लेकर संगीत का अभ्यास हो रहा था और तीसरे स्थान पर साहित्यिक वाद-विवाद की धूम थी। इसी समय कहीं से चाय आ गई। साथ में परात-भर खाने का सामान भी था। फिर तो देखते-देखते हुक्के की गुड़गुड़ाहट उठने लगी और सिगरेट के धुएं से आकाश आच्छन्न हो गया। इस साहित्य गोष्ठी के संचालन का सारा भार शरत् पर था। रचनाओं के विषय का निर्वाचन वह स्वयं करता था । सदस्य सात दिन के भीतर रचना समाप्त कर सभा में लाकर पढ़ते थे। सभापति शरत् प्रत्येक रचना पर विचार करता। उसकी अशुद्धियां बताता और लेखक को नम्बर देता। कविता लिखने में सबसे आगे थीं निरुपमा। दूसरे सदस्यों को उससे ईर्ष्या होती थी। वे कानाफूसी भी करते थे। इसलिए विशेष करते थे कि शरत् का प्रारम्भ से ही उसकी ओर झुकाव था । उसका निरुपमा से कोई प्रत्यक्ष परिचय नहीं था। वह उसको अपने दादा का मित्र मानकर ही उसका सम्मान करती थी। लेकिन शरत् उसे उत्साहित करने के लिए विशेष रूप से सजग दिखाई देता था। उसकी कविता में भावों की कृपणता है, इसकी शिकायत उसने विभूति से की थी। कहा था, “एक ही भाव को छोड़कर बूड़ी यदि और कई प्रकार से सोच-विचार कर लिखे तो और उन्नति कर सकती है।”

इसी को विभूति ने कविता में परिवर्तित करके निरुपमा तक पहुंचा दिया.......

“आरो जाओ, आरो जाओ दूरे, थामियोना आपनार सूरे।”

इस शिकायत ने निरुपमा को प्रोत्साहित ही किया । शरत् को प्रसन्न करने के लिए वह अपनी कविताओं पर और भी परिश्रम करने लगी। उन कविताओं के आसपास, ऊपर-नीचे न जाने शरत् ने क्या-क्या और कितना लिखा । उसने विभूति से यह भी कहा, “बूड़ी यदि चेष्टा करे तो गद्य भी लिख सकती है।”

उस समय निरुपमा को इस बात पर विश्वास नहीं आया था। वह तो शरत् की रचनाएं पढ़ पढ़कर ही अभिभूत होती जा रही थी। धीरे धीरे इन दो-तीन वर्षों में उसने 'बाससा' ,'बोझा', 'कोरेलग्राम' ', 'अनुपमा का प्रेम', 'काशीनाथ', 'चन्द्रनाथ', 'शिशु' (बड़ी दीदी), 'हरिचरण', 'बालस्मृति', 'शुभदा' और 'रेवदास' आदि सभी पढ़ डाले थे। कुछ दिन पूर्व से लेकर मंझली भावज ने एक बड़ा-सा खाता उसे दिया था। उस पर छोटे-छोटे सुन्दर अक्षरों में लिखा था, 'अभिमान'  | यह मिसेज हेनरीवुड के उपन्यास 'ईस्टलीन' का शरत् द्वारा किया गया छायानुवाद था। उन दिनों उसके मन में मान अभिमान की जो आंधी चलती रहती थी, उसी के कारण उसने यह अनुवाद किया था। और इसीलिए इसका नाम 'अभिमान' रखा गया था। निरुपमा इसको पढ़कर मुग्ध हो उठी थी ।

इन्हीं दिनों शरत् ने मेरी कोरेली के उपन्यास 'माइटी एटम' का अनुवाद करना भी आरम्भ कर दिया था। नाम रखा था, 'पाषाण । पुराने मार्ग से होकर वह भी निरुपमा के पास पहुंचा। उसमें एक परमाणुवादी नास्तिक पिता की संतान के मानसिक संघात की यंत्रणा से वह द्रवित हो उठी। शरत् की रचनाओं का यह प्रभाव निश्चय ही, परोक्ष रूप में, उसे गद्य लिखने की प्रेरणा दे रहा था।

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
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मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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