इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लिए धन का जुगाड़ करना उनके बस की बात नहीं थी । पुराना कर्ज भी वह नहीं चुका पाये थे। डिग्री हो जाने के कारण गांव के मकान को भी मात्र 225) रु० में छोटे मामा को बेच दिया था। अब भूखों मरने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। शरत् बालक नहीं था, 21 वर्ष का युवक था और अपने कुछ गुणों और कुछ दुर्गुणों के कारण लोकप्रिय भी कम नहीं था। घर की दुर्दशा ने आखिर उसके हृदय को छुआ और वह नौकरी की तलाश में निकल पड़ा।
उन दिनों संथाल परगना में सेटलमेंट का काम चल रहा था। बनैली इस्टेट की ओर से एक बड़ा कर्मचारी इस्टेट के स्वार्थ की देखभाल के लिए नियुक्त था। शरत् को इसी के सहकारी के रूप में नौकरी मिल गई। काम रुचि का था। अक्सर दौरे पर रहना होता था। तम्बुओं में रहना और, जैसा कि देसी राज्यों में तब चलता था, गाना-बजाना, शिकार खेलना, यही बड़े कर्मचारियों का मुख्य काम था। कभी-कभी राजकुमार भी वहां आते थे। शरत् ठहरा दुस्साहसी, बन्दूक चलाने का उसने खूब अभ्यास किया। बहुत शीघ्र ही उड़ती चिड़िया को मार लेने की उसकी ख्याति हो गई। यह गुण उसकी लोकप्रियता को और भी बढ़ाने लगा। वह घूमने निकल जाता। कभी अकेले, कभी दल के साथ। श्मशान भूमि से उसे विशेष प्रेम था। उस दिन घूमते-घूमते वक्रेश्वर जा निकला। वहां की श्मशान भूमि को देखकर वह मुग्ध हो उठा। शिव मन्दिर के पास कैसा निर्जन है ! उसके वैरागी मन को निर्जनता सदा प्यारी लगी। ढेर के ढेर नरमुण्ड, झीलों की तरह सेमर की डाल-डाल में लटके चमगादड़ और उनके बीच में उस विराट मौन में आर्त्तकण्ठ से रोता हुआ उनका एक बच्चा - कुछ भी उसके वैरागी मन को विचलित न कर सका।
और उस दिन राजकुमार के आने पर नाच-गान की महफिल विशेष रूप से गुलज़ार हो उठी। सेटलमेंट के बड़े-बड़े अफसर निमंत्रित किये गये। बहुत-सा रुपया पाने की शर्त पर पटना से एक बाईजी भी आई। सुन्दर तो थीं ही, कण्ठ भी अत्यन्त मधुर था। शरत् को भी इस मजलिस में निमंत्रित किया गया। वह ऊंचे पद पा नहीं था, लेकिन उसके मधुर कण्ठ की बात राजकुमार के कानों तक पहुंच चुकी थी। वे बोले, “आज तुमकी गाना होगा शरत्।"
यद्यपि उसका गाना संगीत के व्याकरण की दृष्टि से तो शुद्ध नहीं कहा जा सकता, परन्तु उसका माधुर्य मन को छूने वाला था। स्वयं बाईजी ने भी उसकी प्रशंसा की। वह नाच-गान में दक्ष थी। प्राणों की शक्ति उंडेलकर उसने मजलिस में वीणा बजाई। परन्तु 'भैंस के आगे बीन बजाये भैंस खडी पगुराय' वाली स्थिति थी। उस मजलिस में केवल शरत् ही रागिनी के मर्म को पहचान सका । मुक्तकण्ठ से उसने बाईजी के वीणावादन की प्रशंसा की। वह गद्गद हो उठी। उसका हृदय इस दिशाहारा, पर गुणी युवक के प्रति सहानुभूति से उमड़ आया। कुछ ही क्षणों के परिचय ने दोनों को एक-दूसरे के बहुत पास ला दिया। उस रात बड़ी देर बाद किसी प्रसंग में बाईजी ने उससे कहा, “मैं रुपये के लिए गाती हूं। गाना मेरा पेशा है, लेकिन आप क्यों इनकी मुसाहिबी करते हैं? आप गुणी व्यक्ति हैं। आपको यहां से चले जाना चाहिए।"
अन्तत: शरत् ने वह नौकरी छोड़ दी। इस छोड़ देने के पीछे मात्र बाईजी का आग्रह था, यह बात किसी भी तरह स्वीकार नहीं की जा सकती। अपने पिता से विरासत में उसने जो चंचल स्वभाव पाया था, वह उसे कहीं जमकर नहीं बैठने दे सकता था। एक ज्योतिषी ने उसे बताया था कि 40 वर्ष की आयु में वह राजा के समान प्रसिद्ध होगा। नौकरी छोड़ने का एक कारण यह भी हो सकता है।
और भी कारण हो सकते हैं। वस्तुतः किशोरावस्था से ही वह अपने चारों ओर एक रहस्यमय वातावरण बनाये रखता था। स्वयं नाना प्रकार की कहानियां गढ़कर सुनाना उसका स्वभाव बन गया था। उन कहानियों में अपने संबंध में भी नाना प्रकार के प्रवाद प्रचलित कर देता था। कोई आश्चर्य नहीं, बाईजी का यह आग्रह एक प्रवाद ही हो, लेकिन यह सचमुच सच है कि इन सब कुसंगतियों, स्वच्छन्द और दुस्साहसपूर्ण प्रवृत्तियों के बावजूद उसकी साहित्य - साधना मौन-मंथर गति से आगे बढ़ रही थी। दिन भर की यायावर वृत्ति के बाद रात्रि के एकान्त में वह अपने पोथी-पत्रों के बीच पहुंच जाता था। नौकरी करते समय भी इस नियम में कोई व्यवधान नहीं पड़ा । प्रारम्भ में उसे कविता से प्रेम था, लेकिन कविता लिखने का धैर्य उसमें नहीं था । रुचि के अनुसार गद्य लिखने में ही वह सारा समय बिता देता था। जब तक ठीक-ठीक शैली और शब्द न पा लेता, तब तक उसे संतोष नही होता था। बार-बार काटता रहता था। परन्तु छन्द का अनुसंधान उसे बहुत शीघ्र उकता देता। 'फूल बने लेगेछे अगुन।'
इसमें उसने 'सुप्रभा' और 'इन्द्रा' नाम की दो नायिकाओं के मनोभावों का विश्लेषण किया था। अन्त में सुप्रभा की विषपान से मृत्यु हो गई और उस पराजय में से ही उसने अपनी जय-पताका फहराई। उस युग में शरत् जैसे दिशाहारा और भावुक युवक से इससे अधिक और क्या आशा की जा सकती थी। उसने कविता लिखने का प्रयास किया, यह युग के अनुरूप ही था। वह रवीन्द्र-युग था । उसी की भांति अनातोले फ्रांस जैसे विश्व के अनेक साहित्यिकों ने सबसे पहले कविता लिखने की ओर ध्यान दिया है। लेकिन वह कवि नहींबन सका। उसकी प्रतिभा का विकास गद्य में ही हुआ है। हां, कविता का प्रभाव उस पर निरन्तर बना रहा। कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है जैसे कवि बोल रहा हो।
उस समय शिक्षित बंगाली समाज में अंग्रेजी के प्रति वैसा ही अनुराग था जैसे कभी इंग्लैण्ड में लेटिन के प्रति था। चिट्ठी-पत्री तक वे अंग्रेज़ी में लिखते थे। शरत् ने इस प्रवृत्ति का विरोध किया। वह न स्वयं अंग्रेजी में पत्र लिखता और न किसी परिचित को लिखने की प्रेरणा देता। अपने तरुण मामाओं में बंगला भाषा और साहित्य के प्रति अनुराग उसी ने पैदा किया था। उन लोगों ने मिलकर एक हस्तलिखित सचित्र मासिक पत्रिका 'शिशु' का प्रकाशन भी आरम्भ किया था। सम्पादक बने दस वर्षीय मामा गिरीन्द्रनाथ । उनका हस्तलेख बहुत सुन्दर था। 'शिशु' का बंगला और अंग्रेजी कविताएं शिशुओं के ही अनुरूप थीं। 'बांदर' के साथ 'चादर' की तुक मिलाना उनकी चरम उपलब्धि थी।
बांदर बांदर,
छिड़लो केन चादर। बांदर रूपी रूपी, परेछिस केमन टूपी।
बांदर बांदर, केन खेएछिस फेन।
रामसिंह छटके,
पड़ली डोबा पटके |
लोकरतने,
करले जतने
रामसिंह गेली मरे ।।
अंग्रेज़ी रचनाएं भी इसी प्रकार ही होती थीं-
ए लायन किल्ड ऐ माउस,
देन वेण्ट टू हिज़ हाउस ।
नाऊ काइट हिज़ मदर,
एण्ड देअरफोर क्राइड हिज़ सिस्टर ।
लेकिन उन दिनों ऐसे कामों में न कोई सहयोग देता था और न उत्साह ही बढ़ाता था। 'शिशु' के कई अंक निकले, परन्तु गांगुली परिवार में साहित्य के प्रति जरा भी प्रेम पैदा नहीं हुआ। अध्यापकों ने भी विरक्त होकर कहा, “यह सब करने से क्या होगा? इससे अच्छा तो यह है कि अंग्रेजी लिखना सीखो।”
'शिशु' में शरत् की कई रचनाएं छपीं। 'बोझा' कहानी उसने अपने प्रिय मामा सुरेन्द्रनाथ के नाम से प्रकाशित की। उस समय वह भागलपुर में नहीं था। लौटकर उसने सुना कि वह बड़ी सुन्दर कहानी लिखता है। अवाक् होकर बोला, “मैं कहानी लिखता हूं?”
मित्र ने कहा, “हां, तुम्हारी कहानी 'बोझा' बहुत सुन्दर है।”
सुरेन्द्र ने 'बोझा' कहानी पढ़ी। समझ गया कि यह शरत् का काम है। उसने पूछा, "यह सब क्या है? अपनी रचना मेरे नाम से क्यों छापी है?"
हंसकर शरत् ने उत्तर दिया, “छापी है, इसमें तुम्हारी क्या हानि है?"
यह भी अपने को छिपाने की ही प्रवृत्ति थी। पड़ता भी वह छिपकर ही था। न जाने कितने उपन्यास और विज्ञान की कितने पुस्तकें उसने पड़ डाली थी। डिकेन्स, थैकरे और श्रीमती हेनरी वुड उसके कुछ प्रिय लेखक थे। लिखने का क्रम भी चुपचाप चल रहा था। 'शुभदा' ±–उपन्यास उसने अभी-अभी समाप्त किया था । इस उपन्यास में उसने अपने परिवार की चरम निर्धनता की झांकी दी है। दिन-प्रति-दिन के जीवन में, जो दुख - दैन्य उसने पाया उसका मार्मिक चित्रण उसमें हुआ है। व्यक्तिगत अभिज्ञता के बिना वह कुछ नहीं लिखता था।
यह साहित्य-साधना मात्र उसी तक सीमित नहीं थी । उसके चारों ओर ऐसे ही मित्रों का एक दल इकट्ठा हो गया था। उन्होंने एक साहित्य गोष्ठी की स्थापना भी की थी। यह गोष्ठी वैसे छह पर्ष पूर्व से चल रही थी, पर जान पड़ता है बीच में ढीली पड़ गई थी। अब इसका पुनर्जन्म हुआ। उस गोष्ठी का नेता वह स्वयं था और उसके प्रमुख सदस्यों में थे मामा सुरेन्द्रनाथ और गिरीन्द्रनाथ मित्र, योगेश मजूमदार और विभूतिभूषण भट्ट । सुरेन्द्र प्रारम्भ से ही इसका सदस्य नहीं बन गया था। उस समय वह यहां नहीं था। बाहर से लौटने पर वह भी इसमें शामिल हो गया। एक और व्यक्ति का योगदान अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वह थी विभूतिभूषण की बहन निरुपमा देवी। वह बाल विधवा थी और उस कट्टर और संकीर्ण युग की प्रथा के अनुसार उसे प्रकट रूपमें उस सभा में भाग लेने का अधिकार हो ही नहीं सकता था। जब पुरुष ही लुक-छिपकर यह काम करते थे तो नारी की स्थिति की कल्पना आसानी से की जा सकती है। लेकिन निरुपमा लिखती अवश्य थी और उसके भाई के द्वारा वे रचनाएं गोष्ठी में विचारार्थ उपस्थित की जाती थीं। उस दिन कोई नहीं जानता था कि यह छोटी-सी साहित्य गोष्ठी अनेक भावी साहित्यकारों को जन्म देने में सफल होगी, परन्तु यह सत्य है कि इन लोगों ने साहित्य-सृजन का जो व्रत लिया वह मां सरसस्वी के आशीर्वाद से खूब फला-फूला। जिस समय साहित्याकाश में रवीन्द्रनाथ सूर्य की भांति चमक रहे थे उस समय ये लोग पूर्ण चन्द्रोदय की सम्भावनाओं को सत्य करने के लिए सचेष्ट थे। बहुत वर्षो बाद —शरत् ने मामा गिरीन्द्रनाथ को लिखा था, “मेरे दुख भरे जीवन की सुखद स्मृति यही साहित्य सभा है। घर के लोग जब तुम्हें खोजते फिरते थे, न पाने पर क्रुद्ध होते थे तब हम छिप-बैठकर सहित्यचर्चा करते थे। वे सब बातें एक दिन भी नहीं भूल सका हूं।”
विभूति और निरुपमा यहां के सब जज श्री नफर भट्ट की संतान थे। यह एक बड़े लोगों का परिवार था। शरत् का इस परिवार से संबंध निरुपमा के मंझले भाई इन्दुभूषण के माध्यम से हुआ। वह उसका कालेज का सहपाठी था। उसी के द्वारा विभूति और निरुपमा की कविताएं शरत् तक पहुंची और शरत् की रचनाओं का उस परिवार में प्रवेश हुआ।
भट्ट परिवार के मकान के पास पश्चिम दिशा की ओर एक बहुत बड़ा कब्रिस्तान था। किसी गम्भीर रात्रि में उस कब्रिस्तान के प्रांगण से गाने का शब्द उठकर हवा की तरंगों पर लहराता हुआ उनके पास पहुंच जाता था.
“आमि दुदिन आसिनि, दुदिन देखिनि, आमनि मुदिलि आंखि ।”
कभी यमुनिया नदी के तीर से वंशी का मादक स्वर सुनाई देता । 'चरित्रहीन' में सतीश जब रेलयात्रा में वंशी बजाता है तो पृथ्वी पर सोई हुई चादनी की नींद उचट जाती है और उपेन्द्र जम्हाई लेकर उठते- उठते कहते हैं: “बस, अगर कुछ सीखना होगा तो बांसुरी बजाना ही सीखूंगा।”
इन्दुभूषण भी इसी स्वर पर मुग्ध है, तभी तो समझ जाता है कि यह शरत् का स्वर है। परिचय गहराता है और वह उनके घर आने लगता है। कभी-कभी गाना भी सुनाता । कृष्ण भट्टाचार्य का यह गीत उसे बहुत प्यारा था
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“गोकुले मधु फूराय गेल, आंधार आजि कुंजबन।”
उस परिवार से आत्मीयता बढ़ जाने का कारण एक और भी था। वे लोग सम्पन्न थे, पर सम्पन्नता का दम्भ उनमें नहीं था। घर के भीतर बड़े कठोर नियम थे, पर बाहर सब ढीला-ढाला था। अर्थात् धोखा दिया जा सकता था। शतरंज खेलने का रिवाज था और इसका अर्थ केवल खेलना ही नही होता था, चाय-पान और तम्बाकू भी खूब चलता था। इन्दुभूषण को इस खेल का बहुत शौक था और शरत् भी इस विद्या में निष्णात था । इसीलिए इस परिवार के वह इतने पास आ सका।
विभूति आयु में छोटा था। बड़े भाई ने उसकी कविताओं की कापी शरत् को देखने के लिए दी थी। उसी को लेकर वह एक दिन विभूति के सामने जा खड़ा हुआ और जोर से उसे मेज पर फेंकता हुआ बोला, “क्या लिखते हो! खाली अनुवाद, वह भी अशुद्ध अपना लिखने को कुछ नहीं है, तुम्हारे पास?"
सुनकर विभूति तो जैसे अवाक् रह गया। लेकिन इसी क्षण से आरम्भ हुई उनकी मित्रता को मृत्यु भी भंग नहीं कर सकी। विभूति शरत् की तरह ही अध्ययन- प्रिय था। उसने विदेशी दार्शनिकों की अनेक रचनाएं पढ़ डाली थीं। तर्क से वह यह सिद्ध कर सकता था कि ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है। अगर ईश्वर है तो प्रोटोप्लाज़्म है। ईश्वर के अस्तित्व से इनकार करना उन दिनों पढ़े-लिखें युवकों के लिए शराब पीने की तरह प्रगति का लक्षण था। शरत् स्वयं इसी पथ का पथिक था। लेकिन विभूति जितना मेधावी था उतना ही बन्धुवत्सल भी था। शरत् से उसकी घनिष्ठता का यह एक और कारण था ।
चूंकि साहित्य की चर्चा उन दिनों प्रत्यक्ष रूप से नहीं हो सकी थी, इसलिए उनकी यह गोष्ठी अभिभावकों की दृष्टि बचाकर ही काम करती थी। सप्ताह में एक दिन किसी निर् स्थान में वें इकट्ठे होते थे। कभी सरकारी स्कूल के पास बड़े नाले में पैर लटकाकर प्रबन्ध- पाठ और आलोचनाएं करते, कभी किसी मठ में पेड़ के नीचे या टीले पर चढ़कर ये तरुण बन्धु अपना विद्रोह प्रकट करते। कब्रिस्तान में भी यह गोष्ठी होती थी । शरत् के नेतृत्व में न जाने कितनी अमानिशायें उस दल ने वहां काटी थीं और स्तब्ध होकर सुना था उसका संगीत। भट्ट परिवार के मकान के पास जो कब्रिस्तान था उसमें एक बड़ा मकबरा था। उसकी छत मैदान के समान लम्बी-चौड़ी थी। सीढ़ी से ऊपर जाने के बाद वे दुनिया की दृष्टि से ओझल हो जाते थे। अड्डा जमाने के लिए यह आदर्श स्थान था।
एक बार सुरेन्द्र ने वहां आकर जो कुछ देखा उससे वह विस्मित रह गया था। वसंत ऋतु और शुक्ल पक्ष की संध्या, वह विशाल छत चन्द्र- ज्योत्स्ना से आलोकित हो रही थी । उत्तर की आरे से बह रहा था गंगा का स्पर्श पाकर शीतल-मंद पवन । इधर-उधर चटाई बिछाकर अलग-अलग दल कार्यव्यस्त थे। एक स्थान पर जोर-शोर से नाटक की रिहर्सल चल रही थी तो दूसरे स्थान पर हारमोनियम लेकर संगीत का अभ्यास हो रहा था और तीसरे स्थान पर साहित्यिक वाद-विवाद की धूम थी। इसी समय कहीं से चाय आ गई। साथ में परात-भर खाने का सामान भी था। फिर तो देखते-देखते हुक्के की गुड़गुड़ाहट उठने लगी और सिगरेट के धुएं से आकाश आच्छन्न हो गया। इस साहित्य गोष्ठी के संचालन का सारा भार शरत् पर था। रचनाओं के विषय का निर्वाचन वह स्वयं करता था । सदस्य सात दिन के भीतर रचना समाप्त कर सभा में लाकर पढ़ते थे। सभापति शरत् प्रत्येक रचना पर विचार करता। उसकी अशुद्धियां बताता और लेखक को नम्बर देता। कविता लिखने में सबसे आगे थीं निरुपमा। दूसरे सदस्यों को उससे ईर्ष्या होती थी। वे कानाफूसी भी करते थे। इसलिए विशेष करते थे कि शरत् का प्रारम्भ से ही उसकी ओर झुकाव था । उसका निरुपमा से कोई प्रत्यक्ष परिचय नहीं था। वह उसको अपने दादा का मित्र मानकर ही उसका सम्मान करती थी। लेकिन शरत् उसे उत्साहित करने के लिए विशेष रूप से सजग दिखाई देता था। उसकी कविता में भावों की कृपणता है, इसकी शिकायत उसने विभूति से की थी। कहा था, “एक ही भाव को छोड़कर बूड़ी यदि और कई प्रकार से सोच-विचार कर लिखे तो और उन्नति कर सकती है।”
इसी को विभूति ने कविता में परिवर्तित करके निरुपमा तक पहुंचा दिया.......
“आरो जाओ, आरो जाओ दूरे, थामियोना आपनार सूरे।”
इस शिकायत ने निरुपमा को प्रोत्साहित ही किया । शरत् को प्रसन्न करने के लिए वह अपनी कविताओं पर और भी परिश्रम करने लगी। उन कविताओं के आसपास, ऊपर-नीचे न जाने शरत् ने क्या-क्या और कितना लिखा । उसने विभूति से यह भी कहा, “बूड़ी यदि चेष्टा करे तो गद्य भी लिख सकती है।”
उस समय निरुपमा को इस बात पर विश्वास नहीं आया था। वह तो शरत् की रचनाएं पढ़ पढ़कर ही अभिभूत होती जा रही थी। धीरे धीरे इन दो-तीन वर्षों में उसने 'बाससा' ,'बोझा', 'कोरेलग्राम' ', 'अनुपमा का प्रेम', 'काशीनाथ', 'चन्द्रनाथ', 'शिशु' (बड़ी दीदी), 'हरिचरण', 'बालस्मृति', 'शुभदा' और 'रेवदास' आदि सभी पढ़ डाले थे। कुछ दिन पूर्व से लेकर मंझली भावज ने एक बड़ा-सा खाता उसे दिया था। उस पर छोटे-छोटे सुन्दर अक्षरों में लिखा था, 'अभिमान' | यह मिसेज हेनरीवुड के उपन्यास 'ईस्टलीन' का शरत् द्वारा किया गया छायानुवाद था। उन दिनों उसके मन में मान अभिमान की जो आंधी चलती रहती थी, उसी के कारण उसने यह अनुवाद किया था। और इसीलिए इसका नाम 'अभिमान' रखा गया था। निरुपमा इसको पढ़कर मुग्ध हो उठी थी ।
इन्हीं दिनों शरत् ने मेरी कोरेली के उपन्यास 'माइटी एटम' का अनुवाद करना भी आरम्भ कर दिया था। नाम रखा था, 'पाषाण । पुराने मार्ग से होकर वह भी निरुपमा के पास पहुंचा। उसमें एक परमाणुवादी नास्तिक पिता की संतान के मानसिक संघात की यंत्रणा से वह द्रवित हो उठी। शरत् की रचनाओं का यह प्रभाव निश्चय ही, परोक्ष रूप में, उसे गद्य लिखने की प्रेरणा दे रहा था।