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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023

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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र बनाता या लिखता । लेकिन सभ्य समाज में उसको लेकर जो नाना प्रकार के प्रवाद प्रचलित होते रहते थे उनमें कोई कमी नहीं हुई थी। उनमें एक यह भी था कि शरत नीच जाति की एक स्त्री के साथ रहता है। एक कहता, “उस स्त्री का नाम बिराज बहू है।”

दूसरा कहता, "उसका नाम नयनतारा है।”

तीसरा कहता, "नहीं, उसका नाम शशितारा है।”

और भी कई नाम वे लोग जानते थे, लेकिन किसी ने उसके घर जाकर वास्तविकता का पता लगाने का प्रयत्न नहीं किया। भद्र लोग एक चरित्रहीन के घर जा भी कैसे सकते है? कार्यवश किसी को जाना भी पड़ता तो वह बाहर बैठक में बैठकर ही चला आता । उसके लिए इतना जान लेना ही काफी होता था कि घर में कोई नारी है। और वह उसकी पत्नी नहीं है।

उस बार माघोत्सव के अवसर पर कीर्तन के लिए मृदंग की आवशकता हुई। एक सहकर्मी ने कहा, “शरत् के पास मृदंग है, मैं वहां से ले आऊंगा।”

इससे पूर्व वह कभी शरत् के घर नहीं गए थे। उस दिन जाने पर उसने उनका बड़ा स्वागत किया। कहा, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?”

बन्धु बोला, “ब्रह्म समाज के उत्सव के अवसर पर मृदंग की आवश्यकता आ पड़ी है। क्या आप दे सकेंगे?”

शरत् ने उत्तर दिया, “हां-हां, यह जो टंगा है, यह आपके लिए ही है। ”

बन्धु बोले, “क्या कोई व्यक्ति यहां से इसे ले जाने के लिए भी मिल सकता है?"

उस दिन रविवार था और वहां की जो स्थिति थी उसमें उस समय किसी व्यक्ति का मिल पाना बड़ा कठिन था । शरत् कुछ उत्तर दे पाता कि भीतर से एक नारी- कण्ठ ने उलाहना दिया, “जो भक्त है, उन्हें मृदंग उठाने के लिए किसी की सहायता की आवश्यकता क्यों हो?"

यह तीव्र व्यंग्य था। बन्धु ने उस चोट को अनुभव किया। कहा, “निश्चय ही मैं इसे स्वयं उठाकर ले आऊंगा।”

वह मृदंग लेकर चले गए। और साथ ही यह जानकारी भी ले गए कि शरत् के घर में एक नारी है जो धर्मप्राण जान पड़ती है।

वह नारी प्रचलित अर्थों में उनकी पत्नी नहीं थी । हिन्दू रीति से बरात चढ़ाकर और अग्नि के चारों ओर फेरे देकर उन्होंने उससे विवाह नहीं किया था लेकिन वह उनकी जीवनसंगिनी निश्चित ही थी।

बंगाल से कृष्णदास 'अधिकारी नाम के एक व्यक्ति रंगून पैसा कमाने के लिए आए थे। वह मेदिनीपुर ज़िले के रहनेवाले थे। उनके साथ उनकी कन्या भी थी। नाम था उसक मोक्षदा। उस कन्या के साथ कोई न कोई प्रवाद जुड़ा था। क्या था इसकी कल्पना अनेकों ने अनेक प्रकार से की है। पर वह मात्र कल्पना ही है, सत्य नहीं। फिर वह सुन्दर ज़रा भी नहीं थी। न दूध जैसा रंग न चित्रांकित नयन पर अंगों की सुडोलता अद्भुत थी । वृष्टि से भीगे फूल-पत्तों जैसा लावण्य था, और स्नेहमयी भी वह कम नहीं थी। पिता अधिकारी थे। अधिकारी वैष्णव होते है, कुलीन ब्राह्मण नहीं होते। फिर गरीबी इतनी थी कि दहेज की व्यवस्था करना असम्भव था। इसीलिए तो बेचारे पैसा कमाने के लिए ही यहां आये थे। इतनी दूर बर्मा में अपवाद की बात भी कौन जान सकेगा।

अधिकारी महाशय जिस व्यक्ति के पास रुके थे वह शरत् का भी मित्र था । उसी नाते उसका उनसे परिचय था। दूसरों के दुख से दुखी हो उठना उसका स्वभाव था। अधिक महाशय की भी सहायता करने का उसने प्रयत्न किया। परन्तु मोक्षदा के लिए वर ढूंढना संभव नहीं हो सका। एक दिन कृष्णदास ने शरत्चन्द्र से कहा, “लड़की सयानी हो गई है। मैं इसे अकेला लेकर कहां घूमता फिरूं? गरीब ब्राह्मण हूं। यदि आप अनुग्रहपूर्वक इसे ग्रहण कर लें, तो मेरा बड़ा उपकार होगा।”

शरत् इसके लिए तैयार नहीं हो सका। लड़की को वह जानता था । उसके लिए कुछ करना भी चाहता था। लेकिन विवाह करने की स्थिति में वह नहीं था। शायद अभी शांति देवी की स्मृति उसे परेशान कर रही थी।

अचानक इसी समय वह बीमार पड़ गया। बीमार तो वह सदा ही रहता था। स्वतंत्र और दायित्वहीन जीवन में खाने-पीने की व्यवस्था जैसी हो सकती है वैसी उसकी थी। फिर र्मा ठहरा मलेरिया और प्लेग का घर । उसका ज्वर तेज़ हो चला। उस समय मोक्षदा ने बंगाली नारी के आन्तरिक स्नेह के साथ उसकी देखभाल की। कई दिन बाद, जब उसका ज्वर उतरा तो पाया मोक्षदा उसके सिरहाने बैठी है। पूछ रही है, “अब जी कैसा है?”

यह स्नेहसिक्त संबोधन सुनकर शरत् को शान्ति की याद हो आई। मां के बाद उसके जीवन में वही तो एक नारी थी, जिसने सचमुच उसे स्नेह दिया था। आज फिर वही स्नेहसिक्त वाणी उसे आन्दोलित करने लगी। दृष्टि में कृतज्ञता भरकर उसने कहा, “अब हूं। तुम बहुत सेवा की। मेरा सारा कष्ट जैसे तुमने ही सहा है।”

मोक्षदा की आखें भर आईं। अपना हाथ शरत् के माथे पर धीरे-धीरे फेरते हुए वह अवरुद्ध कण्ठ से बोली, “मुझ अभागिनी को इतना बड़ा सौभाग्य कहां मिल सकता है?” शरत् क्षीण पर स्नेहसिक्त स्वर में बोला, “नहीं-नहीं, तुम अभागिनी नहीं हो। तुम बंगाल की नारी हो । तुम चिरस्नेहमयी हो।”

फिर वह जैसे अपने-आप से बातें करने लगा हो, “तुम्हें रूप का वरदान नही मिला, लेकिन तुम्हारे अन्तर में स्नेह का सागर है। तुम जिसके साथ भी रहोगी, वह धन्य होगा । मेरी मां भी ऐसी थी । वह भी अन्तर के रूप से रूपसी थी। तुम भी वैसी ही महान हो ।”

मोक्षदा ठीक-ठीक नहीं सुन पाई, लेकिन उसने शरत् के प्रकाशित होते श्यामल मुख को देखा। वह जैसे भर उठी । विलासी ने मृत्युंजय को जीत लिया । उसकी स्नेहसिक्त छाया में शरत् धीरे-धीरे अच्छा होने लगा। कृष्णदास बहुत प्रसन्न थे। उन्हें जैसे विश्वास हो चला था कि अब उनके कष्ट दूर हो गए हैं। लेकिन शरत् फिर भी विवाह के लिए राज़ी नहीं हुआ।

तब एक दिन कृष्णदास ने कहा, “यदि आप मोक्षदा से विवाह नहीं करना चाहते तो मुझे कुछ धन दीजिए, जिससे मैं देश लौटकर इसका विवाह कर सकूं।”

शरत् के पास इतना पैसा कहां था? वह अधिकारी महाशय की सहायता नहीं कर सका। लेकिन तभी एक दिन क्या देखता है कि बिना कुछ कहे कृष्णदास अधिकारी मोक्षदा को उसी के पास छोड़कर भारत लौट गए हैं। मोक्षदा अत्यन्त कातर हो उठी। शरत् भी उद्विग्न हो आया, फिर भी उसने मोक्षदा को सांत्वना दी। कहा, “तुम्हें दुखी होने की आवश्यकता नही। जब तक कोई और प्रबन्ध हो, तुम यही रह सकती हो।”

और मोक्षदा शरत् के पास रहने लगी। और उसको लेकर एक बार फिर नाना प्रकार के प्रवाद प्रचलित होने लगे। एक दिन शरत् ने कहा, “चलो, मैं तुम्हें कलकत्ता छोड़ आता हूं।”

लेकिन कहना जितना सरल था, मोक्षदा को छोड़ना उतना ही कठिन था। बचपन से ही जो दूसरों के लिए प्राण संकट में डालता आया है, वह कैसे इस निरीह लड़की को छोड़ देता। इसीलिए एक दिन लौटकर शरत् ने मोक्षदा से कहा, “आज मैंने तुम्हारे लिए एक वर ढूंढ लिया है।”

मोक्षदा हठात् शरत् की ओर देखती रह गई। फिर उसकी आंखें भर आईं। बोली, “इस तरह की बातें करते हुए आपको अच्छा लगता है?”

शरत् ने कहा, “ना-ना, मैं परिहास नहीं कर रहा और तुम्हें बुरा भी नहीं मानना चाहिए। आखिर तुम्हें विवाह तो करना ही है, जो व्यक्ति मैंने तुम्हारे लिए ढूंढा हैं, वह तुम्हारा आदर करता है और तुम्हारे प्रति सदय भी है।”

मोक्षदा और भी विस्मित हो उठी। अटक अटक कर उसने कहा, “मैं इस बारे में कुछ नहीं जानती। वह व्यक्ति कौन है? बिना जाने उसके बारे में मैं क्या कह सकती हूं?”

शरत् ने शरारत से मुस्कराते हुए कहा, “तुमने उसे देखा है।

“क्या?”

“हां, बहुत बार देखा है। "

जैसे मोक्षदा के मस्तिष्क में प्रकाश उभरने लगा। फिर भी अनजान बने रहते हुए उसने कहा, मैं कुछ नहीं जानती।”

शरत् बोला, “मुझे नहीं जानती ?”

मोक्षदा ने एकाएक दृष्टि उठाकर शरत् की ओर देखा । अविश्वास और विस्मय से भरी वह दृष्टि शरत् के अन्तर में भर गई। फिर सहसा भरी हुई बदली की तरह वह नीचे झुकी कि शरत् के चरण पकड़ ले, लेकिन बीच में ही रोककर शरत् ने कहा, “क्या तुम्हें वह व्यक्ति स्वीकार है ?”

मोक्षदा ने अब भी कोई जवाब नहीं दिया। वह उसी तरह नीचे झुकी रही।

इसके बाद कहने को कुछ शेष नहीं रह जाता। शैव रीति से दोनों ने विवाह कर लिया। शायद यह कहानी राई - रत्ती इसी तरह नहीं घटी, कैसे घटी यह कोई नहीं जानता, पर यह सच है कि यह विवाह समाज और कानून सभी प्रकार के विवाहों से किसी प्रकार कम नहीं हुआ। लेकिन जब तक गाजे-बाजे के साथ विधि-विधान सम्पन्न न हो, तब तक समाज इस बात को कैसे स्वीकार करे। न करे, सर्वहाराओं के बीच रहने वाले शरत् ने तो स्वीकार कर लिया था। उसने मोक्षदा से कहा, “आज से तुम हिरण्मयी हुई। तुम खरे सोने के समान हो । उस पर कभी भी किसी प्रकार का मैल नहीं जम सकता। तुम्हारे अन्तर के उज्जवल रूप को मैंने देख लिया है। वह मेरी शक्ति बनेगा ।”

मालती से सुरेन्द्र भी तो यही कहता है, “तुमसे विवाह कर लिया, इतने दिनों में आज तुम मेरी स्त्री हुई। अब तुम कहीं, भाग नहीं सकोगी। जो माला, आज मैंने पहनाई है उसके बन्धन को जन्म-जन्मान्तर में भी तुम खोल नहीं सकोगी।” (शुभदा)

और उस दिन हिरण्मयी ने कानूनसम्मत पत्नी न होते हुए भी पत्नीत्व के दायित्व को रूप सेओढ़ लिया। मन का यह मिलन ही सच्चा विवाह है। विवाहमंत्र चाहे भाषा में पढ़े जाएं, चाहे संस्कृत में इससे क्या होता है? इस दुनिया में स्त्री-पुरुष के ऐसे मिलन हुए हैं जिन्हें किसी भी तरह पवित्र नहीं कहा जा सकता। उन सब मिलनों को को भी समाज ने स्वीकार किया था और विवाह के मंत्रों से पवित्र भी कर लिया था । इसलिए हिरण्मयी देवी मंत्र दीक्षित पत्नी नहीं हुई तो क्या हुआ? समाज ने उन्हें पत्नी की प्रतिष्ठा नहीं दी तो उससे क्या अन्तर पड़ता है? शरत् के प्रति उनके हृदय में आदर, भक्ति और श्रद्धा का अंत नहीं था। वह भी उन्हें मन-प्राण से प्यार करता था।

एक बार फिर जैसे उसके लिए जीवन के अर्थ बदल गए। बना-बनाकर प्रेम कहानियां प्रचारित करने की आवश्यकता अब नहीं रही । न जाने कितनी ऐसी कहानियां स्वयं उसने अपने बारे में प्रचारित कर दी थीं। उसका आवारा कथाकार उसके वैरागी मन को अक्सर पराजित कर देता था। सोचकर देखें तो दोनों का एक समान आधार भी तो था और वह था अंधकार। वैष्णवी श्रीकान्त से कहती है न, “तुम्हारा यह उदासीन वैरागी मन, जगत में इससे बढ़कर अहंकार से भरा हुआ और भी कुछ है क्या?” (श्रीकान्त, चतुर्थ पर्व)

कुछ दिन पूर्व अपने मित्र विभूतिभूषण भट्ट को उसने एक पत्र में लिखा था कि “मैं डेढ़ वर्ष तक एक नारी के साथ घर बसाकर रहा हूं। कैसा असीम-अगाध प्रणय था वह ! लेकिन एक दिन मधुर झगडा हुआ और इससे पहले कि मानभंजन हो पाता, मेरी उस प्रेमिका न एक दूसरे सुपात्र के गले में जयमाला डाल दी।

“यह सब क्या हुआ, आज भी इसकी मीमांसा नहीं कर सकता । वधू ब्रह्मदेश की नहीं, खांटी स्वदेशी थी। जब पता लगा कि वह जाति की धोबन थी तब कान पकड़े और नाक रगड़ी। फिर इरावती में स्नान करके किसी तरह प्रायश्चित्त किया और विरह की वेदना से मुक्ति पाने के लिए डाक्टर का सर्टिफिकेट देकर छुट्टीली और हांगकांग चला गया। सुना है, चण्डीदास ने कुछ इसी तरह करके विरहात्मक गीति काव्य लिखा था। मैंने भी स्थिर किया है कि बहुत पहले जो ‘चरित्रहीन' शुरू किया था इस बार उसे समाप्त करूंगा।”

पूरी चिट्ठी पढ़ने पर ऐसा नहीं लगता कि उसने यह कहानी बनाकर लिखी है परन्तु गम्भीर होकर परिहास करना भी उसका सहज स्वभाव था । यदि 18 महीने के इस प्रणय में जरा भी सच्चाई होती तो गिरीन्द्रनाथ सरकार, जिन्होंने अनेक सम्भाव्य-असम्भाव्य रोचक कथाओं का वर्णन किया है, इस सत्य कथा को न छोड़ते, इसलिए ऐसा लगता है कि कैशौर्य की प्रेमिका नीरदा की भांति यह सारी कथा एक रोमांचक कल्पना मात्र है। महाकवि चण्डीदास ने धोबन से प्रेम किया था। शायद शरत् के कल्पनालोक में वही प्रेम कुण्डली मारकर बैठ गया था। लेकिन केवल यह धोबन ही उसके कल्पनालोक की प्रेमिका रही हो, ऐसा भी नहीं था। बहुत दिन बाद जब वह कलकत्ता लौट आया था, उसने अपने मित्र अक्षयकुमार सरकार से नारी चरित्र की समीक्षा करते हुए कहा था कि रंगून में एक बंगाली स्त्री थी। उसका पति बीमार था। कैसे-कैसे उसने मुझसे प्रणय निवेदन किया ! मैं उसके संग के लिए व्याकुल हो उठा, लेकिन कई दिन साथ रहने के बाद वह यकायक अन्तर्धान हो गई। मेरी क्या दशा हुई तब, विरह-व्यथा से मैं जैसे पागल हो उठा। तब मकान-मालकिन ने मुझसे कहा. “किसके लिए पागल होते हो जी? उसे अपने बन्धु के लिए पैसे चाहिए थे, सो उसने तुमसे ठग लिए और उसके साथ चली गई। वह तुम्हें जरा भी प्रेम नहीं करती थी । "

ये कहानियां सच हों या झूठ, उसके मानस के अध्ययन का अच्छा अवसर प्रदान करती हैं। वह उन लोगों में से था जो मानते हैं कि नारी का प्रेम ही पुरुष में साहस जगाता है। उसके लिए प्रेम का अर्थ शरीर की भूख नहीं था, बल्कि अपने उपास्य के लिए अपने को बलिदान कर देना था। कैशौर्य के अपने उस विफल प्रेम के बाद कम से कम एक बार तो उसने अवश्य ही सचमुच किसी को प्यार किया था। उन दिनों अक्सर भले घर की लड़कियों को भगाकर दुष्ट लोग रंगून ले जाते थे। ऐसी ही एक युवती थी गायत्री। जैसी आकर्षक देहयष्टि वैसा ही मादक रूप, जो अंगार की तरह वैधव्य की राख में छिपा था। शायद मां- बाप उसके साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते थे । इसीलिए वह मौसा के पास लखनऊ जाना चाहती थी। पड़ोस के एक युवक नन्द दुलाल ने उसे विश्वास दिलाया कि वह उसे मौसा के पास पहुंचा देगा। लेकिन हुआ यह कि वह लखनऊ की ओर न जाकर रंगून की ओर चल पड़ा। बेचारी गायत्री मार्ग में किससे क्या कहे? जहाज पर बर्मा के एक युवक से उनकी भेंट हुई। उसका नाम था पांचकौड़ी । नन्द दुलाल ने पांचकौड़ी को बताया कि गायत्री उसकी पत्नी है। इसी रूप में वे रंगून में वहां के प्रसिद्ध एडवोकेट कुंजबिहारी मुखोपाध्याय के घर जाकर ठहरे। शायद गृह स्वामिनी का स्नेह पाकर गायत्री का खोया हुआ साहस लौट आया। उसने उनसे कहा, "मां, यह मेरा पति नहीं है। मैं विधवा हूं। मौसा के पास पहुंचाने का बहाना करके यह धोखे से मुझे यहां ले आया है।”

गृह-स्वामिनी स्तब्ध रह गई। उसने तुरन्त गिरीन्द्रनाथ सरकार को बुला भेजा। उन्होंने आकर नन्द दुलाल को खूब अपमानित किया। फिर शरत् आदि मित्रों के सहयोग से उसे स्वदेश जाने के लिए जहाज पर चढ़ा दिया। गायत्री के पिता को भी पत्र द्वारा सूचना दे दी गयी। लेकिन गायत्री तब तक कहां रहे? गृह-स्वामिनी उसे रखने को तैयार नहीं थी । गिरीन ने तब शरत् के मोहल्ले में एक घर लेकर उसके रहने की व्यवस्था कर दी। पांचकौड़ी उसकी देखभाल करने लगा। शरत् भी रात को पांचकौड़ी के पास ही जाकर सोता था।

एक दिन गायत्री के पिता का उत्तर भी आ गया। वे अपनी कुलटा कन्या को किसी भी शर्त पर घर में रखने के लिए तैयार नहीं थे। उधर से निराश होकर गिरीन ने गायत्री के मौसा को लिखा, लेकिन इसी बीच में बार-बार आने-जाने के कारण शरत् गायत्री के प्रति अनुरक्त हो उठा। बेचारी विधवा, उसका कोई सहायक नहीं है, इसलिए शायद उसके मन में करुणा भी उभरी होगी। इसीलिए तो एक दिन वह गायत्री के प्रति प्रणय निवेदन करने का साहस कर सका। उसने कहा, “आजकल विधवा-विवाह का प्रचलन है। फिर भी यदि समाज उसे स्वीकार नहीं करता तो हम वैष्णव धर्म स्वीकार कर सकते हैं।”

गायत्री की व्यथा का पार नहीं था। वह बोली, “शरत् दा, जो फूल टूटकर गिर चुका है उससे देवता की पूजा नहीं होती।”

केवल शरत् ने ही उससे प्रणय निवेदन नहीं किया, पांचकौड़ी का धनी स्वामी भी उस पर आसक्त हो उठा था। उस दिन व्यापार के संबंध में पांचकौड़ी को खोजते खोजते वह उसके घर आया था। तभी सहसा उसने गायत्री को देखा और उस पर मुग्ध हो गया। उसी दिन से नाना प्रकार के प्रलोभन उसने देने शुरू कर दिये। कभी उपहार भेजता, तो कभी किसी महिला को। और फिर एक दिन वह स्वयं गाड़ी लेकर उसे लेने आ पहुंचा। उसके पास शक्ति थी। शरत् के पास साहस था। गायत्री की रक्षा के लिए वह सामने आकर डट गया। उस क्षण उसने निश्चय ही मन ही मन राजू को याद किया होगा।

इस युद्ध को देखने के लिए दर्शक भी कम नही आए थे। रक्तपात होने की पूरी सम्भावना थी। लेकिन तब तक गिरीन्द्र को सूचना मिल चुकी थी। कुछ क्षण बाद वह वहां आ पहुंचा। उसके साथ कई लठैत थे। उन्हें देखकर एक-एक करके सब लोग वहां से चले गए। दो-तीन दिन बाद गायत्री के मौसा का पत्र आ गया। लिखा था- "गायत्री को लखनऊ पहुंचा दो ।”

वह चली गई और शरत् का यह प्रणय भी व्यर्थ हो गया।

यद्यपि इस कथा का स्रोत स्वयं शरत् नहीं है फिर भी यह असत्य हो तो आश्चर्य की कोई बात नही। क्योंकि उसके संबंध में नाना प्रकार के लोग नाना प्रकार की कथाएं प्रचारित करते ही रहते थे। लेकिन सत्य मान लेने पर भी बहुत अन्तर नहीं पड़ता । मनुष्य के जीवन में गोपन-अगोपन ऐसे अनेक अवसर आते हैं। फिर शरत् तो सचमुच ही सैकड़ों ऐसी कुलीन और अकुलीन नारियों के संपर्क में आया था और वह कोई यती या संन्यासी भी नहीं था। अपने को किसी के प्रति विसर्जन कर देने की आकांक्षा सभी में होती है। उसमें कुछ अधिक थी। वेश्यालयों में वह जाता रहा है पर वहां भी सेवा सुश्रूषा का अवसर आने पर वह पीछे नहीं हटा। उस दिन मित्रों के साथ रंगून में एक प्रसिद्ध नर्तकी के घर जाने पर देखा कि वह चेचक से पीड़ित है। मित्र लौट गए पर वह रह गया। अनेक प्रयत्न करने पर भी जब वह उसे नहीं बचा पाया तो विधिपूर्वक उसका अंतिम संस्कार करके ही वह लौटा।

इसी कारण तो भद्र लोग उसे चरित्रहीन और अछूत समझते रहे और उससे मिलने से बराबर इनकार करते रहे। उसने भी कभी प्रयत्न नहीं किया। लेकिन जहां तक उसके निजी जीवन का संबंध था, गृहस्थी बसा लेने के बाद उसकी सौन्दर्य - भावना फिर जाग आई थी। प्रेम ने उसके घर में फूलों की सुषमा बिखेर दी। उसे पुस्तकों से प्रेम था, फूलों से प्रेम था, पशु-पक्षियों से प्रेम था। वह प्रेम अब सुव्यवस्थित और सघन हो उठा। हिरण्मयी के कारण हिन्दू के घर में तुलसी का पौधा भी आ गया।

पक्षी उसके पास निरन्तर रहे। एक मैना थी, जिसे प्यार से वह 'मौना' कहकर पुकारता था। अचानक उसकी मृत्यु हो गई। वह ऐसे दुखी हुआ, जैसे कोई संतान के मरने पर होता है। फिर एक सिंगापुरी नूरी पक्षी ले आया। बड़े प्यार से नाम रखा 'बाटू बाबा'। उसे बातें करना सिखाया। रात को बार-बार उठकर उसे खिलाता। मित्र कहते, “पक्षी को क्या रात को खिलाया जाता है?"

शरत् उत्तर देता, “पक्षी जंगल में रहते हैं। इच्छानुसार खाते रहते हैं, लेकिन जब वे संसार में जाकर रहने लगते हैं, तब उन्हें हमारी तरह खाना-पीना पड़ता है। यदि हम उन्हें हाथ से न खिलाएं तो वह बुरा मानते हैं। उन्हें यदि हम प्यार नही कर सकते तो बन्द करने से क्या फायदा?"

वह पक्षी रात के समय गाता भी बहुत सुन्दर था। सुनकर पड़ौसी पूछते, “शरत् बाबू, रात आपके घर में कोई गा रहा था, ‘सखि रे की ऑर बोलिब आमि'। बड़ा मधुर स्वर था।”

शरत् हंसकर कहता, “अरे बाटू बाबा गाता है।”

जब कोई घर आता तो बाटू बाबा तुरन्त कहता, “कौन जी, कौन हो तुम?" शरत् उत्तर देता, मैं हूं।”

तब बाटू बाबा चिल्लाता, “बाटू टू-टू-टू।”

शरत् ने इसके लिए चांदी का एक खम्भा, सोने की जंजीर और पैरों के स्प्रिंगदार सोने के कड़े बनवा दिये थे। अपनी शय्या के पास ही उसके सोने के लिए शय्या लगवाई थी। उस पर बहुमूल्य रेशम का तकिया, तोसक और मसहरी की व्यवस्था भी थी। रात को शरत् जंज़ीर खोल देता। तय बाटू बाबा अपने खम्भे पर से उतर कर आता और मसहरी के भीतर अपने बिस्तर पर सो जाता।

यह बाटू बाबा जैसा प्यारा था, वैसा ही दुर्दान्त भी था । शरत् जब इसकी चोंच चूम लेता तो गद्गद् होकर वह उसके गाल पर अपना सिर रगड़ता, लेकिन यदि दूसरा व्यक्ति ऐसा करता तो तार सप्तक में चीखकर आपत्ति प्रकट करता। उसके हाथ में काट लेता। इसलिए कोई भी नया व्यक्ति घर में नहीं आ सकता था। द्वार रक्षक कुत्ते की तरह वह सदा सतर्क रहता था। एक दिन जब घर में कोई नहीं था तो नौकरानी ने रसोईघर में घुसकर घी निकालने की चेष्टा की। वह समझती थी कि कोई देख नही रहा है, लेकिन बाटू बाबा ने तुरन्त शोर मचाना शुरू कर दिया। पड़ोसी जानते थे कि यह शोर मचाता ही रहता है, किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। नौकरानी भी आश्वस्त थी, लेकिन इसी बीच में बाटू बाबा ने चोट कर-करके जंजीर को तोड़ डाला और बाहर आकर नौकरानी पर आक्रमण करने लगा। उसने इतनी तेज़ी से काटना शुरू किया कि नौकरानी चीख उठी, “मार डाला रे, बाबा रे।”

लेकिन बाटू बाबा ने उसे भागने नहीं दिया। तभी शरत् लौट आया। नौकरानी रंगे हाथों पकड़ ली गई।

एक दिन यही बाटू बाबा मर गया। सोने की ज़ंजीर उसके गले में फंस गई। शरत् अत्यन्त कातर हो उठा। विधिपूर्वक नदी तट पर ले जाकर उसका दाह संस्कार किया। कई दिन तक न तो घर से बाहर निकला, न खाया, न पिया। जय निकला तो शोक के कारण उसका हृदय भरा हुआ था। बाल बिखरे हुए थे। मित्रों ने पूछा, “क्या हुआ शरत् बाबू? आप इतने दुखी क्यों हैं?”

शरत् ने उत्तर दिया, "मेरे बच्चे की मृत्यु हो गई है।”

उसने एक कुत्ता भी पाला था। ठेठ देसी उसपर बेहद बदसूरत — असभ्य । लेकिन एक फकीर ने हिरण्मयी देवी से कहा था, “इस कुत्ते को पालने से तुम लोगों का भाग्य चमक उठेगा।”

कुत्ते के कारण हो या किसी और कारण, भाग्य सचमुच चमक आया था। इसीलिए बहू ने बड़े प्यार से उसका नाम रखा 'वंशीवदन'। लेकिन प्यार क्या इतने सुन्दर नाम की

अपेक्षा रखता है! कोई छोटा-सा अटपटा नाम ही प्यार का प्रतीक हो सकता है। इसलिए शरत् ने उसका नाम रखा 'भेली' उस पर उसके प्यार की कोई सीमा नही थी। उसके अन्तर में जो असीम स्नेह भरा हुआ था वह निरन्तर मार्ग ढूंढ़ता रहता था। दुनिया सम्पन्न और सुन्दर को प्यार करती है पर उसने मन ही मन निश्चय किया कि वह उन्हीं ही प्यार करेगा जो सर्वहारा हैं, जो असुन्दर हैं....।

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
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नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

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अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
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मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

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अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
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शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

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अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
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तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

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अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
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शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

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अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
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इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

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अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

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अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
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शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

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अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
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उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

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अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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