शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र बनाता या लिखता । लेकिन सभ्य समाज में उसको लेकर जो नाना प्रकार के प्रवाद प्रचलित होते रहते थे उनमें कोई कमी नहीं हुई थी। उनमें एक यह भी था कि शरत नीच जाति की एक स्त्री के साथ रहता है। एक कहता, “उस स्त्री का नाम बिराज बहू है।”
दूसरा कहता, "उसका नाम नयनतारा है।”
तीसरा कहता, "नहीं, उसका नाम शशितारा है।”
और भी कई नाम वे लोग जानते थे, लेकिन किसी ने उसके घर जाकर वास्तविकता का पता लगाने का प्रयत्न नहीं किया। भद्र लोग एक चरित्रहीन के घर जा भी कैसे सकते है? कार्यवश किसी को जाना भी पड़ता तो वह बाहर बैठक में बैठकर ही चला आता । उसके लिए इतना जान लेना ही काफी होता था कि घर में कोई नारी है। और वह उसकी पत्नी नहीं है।
उस बार माघोत्सव के अवसर पर कीर्तन के लिए मृदंग की आवशकता हुई। एक सहकर्मी ने कहा, “शरत् के पास मृदंग है, मैं वहां से ले आऊंगा।”
इससे पूर्व वह कभी शरत् के घर नहीं गए थे। उस दिन जाने पर उसने उनका बड़ा स्वागत किया। कहा, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?”
बन्धु बोला, “ब्रह्म समाज के उत्सव के अवसर पर मृदंग की आवश्यकता आ पड़ी है। क्या आप दे सकेंगे?”
शरत् ने उत्तर दिया, “हां-हां, यह जो टंगा है, यह आपके लिए ही है। ”
बन्धु बोले, “क्या कोई व्यक्ति यहां से इसे ले जाने के लिए भी मिल सकता है?"
उस दिन रविवार था और वहां की जो स्थिति थी उसमें उस समय किसी व्यक्ति का मिल पाना बड़ा कठिन था । शरत् कुछ उत्तर दे पाता कि भीतर से एक नारी- कण्ठ ने उलाहना दिया, “जो भक्त है, उन्हें मृदंग उठाने के लिए किसी की सहायता की आवश्यकता क्यों हो?"
यह तीव्र व्यंग्य था। बन्धु ने उस चोट को अनुभव किया। कहा, “निश्चय ही मैं इसे स्वयं उठाकर ले आऊंगा।”
वह मृदंग लेकर चले गए। और साथ ही यह जानकारी भी ले गए कि शरत् के घर में एक नारी है जो धर्मप्राण जान पड़ती है।
वह नारी प्रचलित अर्थों में उनकी पत्नी नहीं थी । हिन्दू रीति से बरात चढ़ाकर और अग्नि के चारों ओर फेरे देकर उन्होंने उससे विवाह नहीं किया था लेकिन वह उनकी जीवनसंगिनी निश्चित ही थी।
बंगाल से कृष्णदास 'अधिकारी नाम के एक व्यक्ति रंगून पैसा कमाने के लिए आए थे। वह मेदिनीपुर ज़िले के रहनेवाले थे। उनके साथ उनकी कन्या भी थी। नाम था उसक मोक्षदा। उस कन्या के साथ कोई न कोई प्रवाद जुड़ा था। क्या था इसकी कल्पना अनेकों ने अनेक प्रकार से की है। पर वह मात्र कल्पना ही है, सत्य नहीं। फिर वह सुन्दर ज़रा भी नहीं थी। न दूध जैसा रंग न चित्रांकित नयन पर अंगों की सुडोलता अद्भुत थी । वृष्टि से भीगे फूल-पत्तों जैसा लावण्य था, और स्नेहमयी भी वह कम नहीं थी। पिता अधिकारी थे। अधिकारी वैष्णव होते है, कुलीन ब्राह्मण नहीं होते। फिर गरीबी इतनी थी कि दहेज की व्यवस्था करना असम्भव था। इसीलिए तो बेचारे पैसा कमाने के लिए ही यहां आये थे। इतनी दूर बर्मा में अपवाद की बात भी कौन जान सकेगा।
अधिकारी महाशय जिस व्यक्ति के पास रुके थे वह शरत् का भी मित्र था । उसी नाते उसका उनसे परिचय था। दूसरों के दुख से दुखी हो उठना उसका स्वभाव था। अधिक महाशय की भी सहायता करने का उसने प्रयत्न किया। परन्तु मोक्षदा के लिए वर ढूंढना संभव नहीं हो सका। एक दिन कृष्णदास ने शरत्चन्द्र से कहा, “लड़की सयानी हो गई है। मैं इसे अकेला लेकर कहां घूमता फिरूं? गरीब ब्राह्मण हूं। यदि आप अनुग्रहपूर्वक इसे ग्रहण कर लें, तो मेरा बड़ा उपकार होगा।”
शरत् इसके लिए तैयार नहीं हो सका। लड़की को वह जानता था । उसके लिए कुछ करना भी चाहता था। लेकिन विवाह करने की स्थिति में वह नहीं था। शायद अभी शांति देवी की स्मृति उसे परेशान कर रही थी।
अचानक इसी समय वह बीमार पड़ गया। बीमार तो वह सदा ही रहता था। स्वतंत्र और दायित्वहीन जीवन में खाने-पीने की व्यवस्था जैसी हो सकती है वैसी उसकी थी। फिर र्मा ठहरा मलेरिया और प्लेग का घर । उसका ज्वर तेज़ हो चला। उस समय मोक्षदा ने बंगाली नारी के आन्तरिक स्नेह के साथ उसकी देखभाल की। कई दिन बाद, जब उसका ज्वर उतरा तो पाया मोक्षदा उसके सिरहाने बैठी है। पूछ रही है, “अब जी कैसा है?”
यह स्नेहसिक्त संबोधन सुनकर शरत् को शान्ति की याद हो आई। मां के बाद उसके जीवन में वही तो एक नारी थी, जिसने सचमुच उसे स्नेह दिया था। आज फिर वही स्नेहसिक्त वाणी उसे आन्दोलित करने लगी। दृष्टि में कृतज्ञता भरकर उसने कहा, “अब हूं। तुम बहुत सेवा की। मेरा सारा कष्ट जैसे तुमने ही सहा है।”
मोक्षदा की आखें भर आईं। अपना हाथ शरत् के माथे पर धीरे-धीरे फेरते हुए वह अवरुद्ध कण्ठ से बोली, “मुझ अभागिनी को इतना बड़ा सौभाग्य कहां मिल सकता है?” शरत् क्षीण पर स्नेहसिक्त स्वर में बोला, “नहीं-नहीं, तुम अभागिनी नहीं हो। तुम बंगाल की नारी हो । तुम चिरस्नेहमयी हो।”
फिर वह जैसे अपने-आप से बातें करने लगा हो, “तुम्हें रूप का वरदान नही मिला, लेकिन तुम्हारे अन्तर में स्नेह का सागर है। तुम जिसके साथ भी रहोगी, वह धन्य होगा । मेरी मां भी ऐसी थी । वह भी अन्तर के रूप से रूपसी थी। तुम भी वैसी ही महान हो ।”
मोक्षदा ठीक-ठीक नहीं सुन पाई, लेकिन उसने शरत् के प्रकाशित होते श्यामल मुख को देखा। वह जैसे भर उठी । विलासी ने मृत्युंजय को जीत लिया । उसकी स्नेहसिक्त छाया में शरत् धीरे-धीरे अच्छा होने लगा। कृष्णदास बहुत प्रसन्न थे। उन्हें जैसे विश्वास हो चला था कि अब उनके कष्ट दूर हो गए हैं। लेकिन शरत् फिर भी विवाह के लिए राज़ी नहीं हुआ।
तब एक दिन कृष्णदास ने कहा, “यदि आप मोक्षदा से विवाह नहीं करना चाहते तो मुझे कुछ धन दीजिए, जिससे मैं देश लौटकर इसका विवाह कर सकूं।”
शरत् के पास इतना पैसा कहां था? वह अधिकारी महाशय की सहायता नहीं कर सका। लेकिन तभी एक दिन क्या देखता है कि बिना कुछ कहे कृष्णदास अधिकारी मोक्षदा को उसी के पास छोड़कर भारत लौट गए हैं। मोक्षदा अत्यन्त कातर हो उठी। शरत् भी उद्विग्न हो आया, फिर भी उसने मोक्षदा को सांत्वना दी। कहा, “तुम्हें दुखी होने की आवश्यकता नही। जब तक कोई और प्रबन्ध हो, तुम यही रह सकती हो।”
और मोक्षदा शरत् के पास रहने लगी। और उसको लेकर एक बार फिर नाना प्रकार के प्रवाद प्रचलित होने लगे। एक दिन शरत् ने कहा, “चलो, मैं तुम्हें कलकत्ता छोड़ आता हूं।”
लेकिन कहना जितना सरल था, मोक्षदा को छोड़ना उतना ही कठिन था। बचपन से ही जो दूसरों के लिए प्राण संकट में डालता आया है, वह कैसे इस निरीह लड़की को छोड़ देता। इसीलिए एक दिन लौटकर शरत् ने मोक्षदा से कहा, “आज मैंने तुम्हारे लिए एक वर ढूंढ लिया है।”
मोक्षदा हठात् शरत् की ओर देखती रह गई। फिर उसकी आंखें भर आईं। बोली, “इस तरह की बातें करते हुए आपको अच्छा लगता है?”
शरत् ने कहा, “ना-ना, मैं परिहास नहीं कर रहा और तुम्हें बुरा भी नहीं मानना चाहिए। आखिर तुम्हें विवाह तो करना ही है, जो व्यक्ति मैंने तुम्हारे लिए ढूंढा हैं, वह तुम्हारा आदर करता है और तुम्हारे प्रति सदय भी है।”
मोक्षदा और भी विस्मित हो उठी। अटक अटक कर उसने कहा, “मैं इस बारे में कुछ नहीं जानती। वह व्यक्ति कौन है? बिना जाने उसके बारे में मैं क्या कह सकती हूं?”
शरत् ने शरारत से मुस्कराते हुए कहा, “तुमने उसे देखा है।
“क्या?”
“हां, बहुत बार देखा है। "
जैसे मोक्षदा के मस्तिष्क में प्रकाश उभरने लगा। फिर भी अनजान बने रहते हुए उसने कहा, मैं कुछ नहीं जानती।”
शरत् बोला, “मुझे नहीं जानती ?”
मोक्षदा ने एकाएक दृष्टि उठाकर शरत् की ओर देखा । अविश्वास और विस्मय से भरी वह दृष्टि शरत् के अन्तर में भर गई। फिर सहसा भरी हुई बदली की तरह वह नीचे झुकी कि शरत् के चरण पकड़ ले, लेकिन बीच में ही रोककर शरत् ने कहा, “क्या तुम्हें वह व्यक्ति स्वीकार है ?”
मोक्षदा ने अब भी कोई जवाब नहीं दिया। वह उसी तरह नीचे झुकी रही।
इसके बाद कहने को कुछ शेष नहीं रह जाता। शैव रीति से दोनों ने विवाह कर लिया। शायद यह कहानी राई - रत्ती इसी तरह नहीं घटी, कैसे घटी यह कोई नहीं जानता, पर यह सच है कि यह विवाह समाज और कानून सभी प्रकार के विवाहों से किसी प्रकार कम नहीं हुआ। लेकिन जब तक गाजे-बाजे के साथ विधि-विधान सम्पन्न न हो, तब तक समाज इस बात को कैसे स्वीकार करे। न करे, सर्वहाराओं के बीच रहने वाले शरत् ने तो स्वीकार कर लिया था। उसने मोक्षदा से कहा, “आज से तुम हिरण्मयी हुई। तुम खरे सोने के समान हो । उस पर कभी भी किसी प्रकार का मैल नहीं जम सकता। तुम्हारे अन्तर के उज्जवल रूप को मैंने देख लिया है। वह मेरी शक्ति बनेगा ।”
मालती से सुरेन्द्र भी तो यही कहता है, “तुमसे विवाह कर लिया, इतने दिनों में आज तुम मेरी स्त्री हुई। अब तुम कहीं, भाग नहीं सकोगी। जो माला, आज मैंने पहनाई है उसके बन्धन को जन्म-जन्मान्तर में भी तुम खोल नहीं सकोगी।” (शुभदा)
और उस दिन हिरण्मयी ने कानूनसम्मत पत्नी न होते हुए भी पत्नीत्व के दायित्व को रूप सेओढ़ लिया। मन का यह मिलन ही सच्चा विवाह है। विवाहमंत्र चाहे भाषा में पढ़े जाएं, चाहे संस्कृत में इससे क्या होता है? इस दुनिया में स्त्री-पुरुष के ऐसे मिलन हुए हैं जिन्हें किसी भी तरह पवित्र नहीं कहा जा सकता। उन सब मिलनों को को भी समाज ने स्वीकार किया था और विवाह के मंत्रों से पवित्र भी कर लिया था । इसलिए हिरण्मयी देवी मंत्र दीक्षित पत्नी नहीं हुई तो क्या हुआ? समाज ने उन्हें पत्नी की प्रतिष्ठा नहीं दी तो उससे क्या अन्तर पड़ता है? शरत् के प्रति उनके हृदय में आदर, भक्ति और श्रद्धा का अंत नहीं था। वह भी उन्हें मन-प्राण से प्यार करता था।
एक बार फिर जैसे उसके लिए जीवन के अर्थ बदल गए। बना-बनाकर प्रेम कहानियां प्रचारित करने की आवश्यकता अब नहीं रही । न जाने कितनी ऐसी कहानियां स्वयं उसने अपने बारे में प्रचारित कर दी थीं। उसका आवारा कथाकार उसके वैरागी मन को अक्सर पराजित कर देता था। सोचकर देखें तो दोनों का एक समान आधार भी तो था और वह था अंधकार। वैष्णवी श्रीकान्त से कहती है न, “तुम्हारा यह उदासीन वैरागी मन, जगत में इससे बढ़कर अहंकार से भरा हुआ और भी कुछ है क्या?” (श्रीकान्त, चतुर्थ पर्व)
कुछ दिन पूर्व अपने मित्र विभूतिभूषण भट्ट को उसने एक पत्र में लिखा था कि “मैं डेढ़ वर्ष तक एक नारी के साथ घर बसाकर रहा हूं। कैसा असीम-अगाध प्रणय था वह ! लेकिन एक दिन मधुर झगडा हुआ और इससे पहले कि मानभंजन हो पाता, मेरी उस प्रेमिका न एक दूसरे सुपात्र के गले में जयमाला डाल दी।
“यह सब क्या हुआ, आज भी इसकी मीमांसा नहीं कर सकता । वधू ब्रह्मदेश की नहीं, खांटी स्वदेशी थी। जब पता लगा कि वह जाति की धोबन थी तब कान पकड़े और नाक रगड़ी। फिर इरावती में स्नान करके किसी तरह प्रायश्चित्त किया और विरह की वेदना से मुक्ति पाने के लिए डाक्टर का सर्टिफिकेट देकर छुट्टीली और हांगकांग चला गया। सुना है, चण्डीदास ने कुछ इसी तरह करके विरहात्मक गीति काव्य लिखा था। मैंने भी स्थिर किया है कि बहुत पहले जो ‘चरित्रहीन' शुरू किया था इस बार उसे समाप्त करूंगा।”
पूरी चिट्ठी पढ़ने पर ऐसा नहीं लगता कि उसने यह कहानी बनाकर लिखी है परन्तु गम्भीर होकर परिहास करना भी उसका सहज स्वभाव था । यदि 18 महीने के इस प्रणय में जरा भी सच्चाई होती तो गिरीन्द्रनाथ सरकार, जिन्होंने अनेक सम्भाव्य-असम्भाव्य रोचक कथाओं का वर्णन किया है, इस सत्य कथा को न छोड़ते, इसलिए ऐसा लगता है कि कैशौर्य की प्रेमिका नीरदा की भांति यह सारी कथा एक रोमांचक कल्पना मात्र है। महाकवि चण्डीदास ने धोबन से प्रेम किया था। शायद शरत् के कल्पनालोक में वही प्रेम कुण्डली मारकर बैठ गया था। लेकिन केवल यह धोबन ही उसके कल्पनालोक की प्रेमिका रही हो, ऐसा भी नहीं था। बहुत दिन बाद जब वह कलकत्ता लौट आया था, उसने अपने मित्र अक्षयकुमार सरकार से नारी चरित्र की समीक्षा करते हुए कहा था कि रंगून में एक बंगाली स्त्री थी। उसका पति बीमार था। कैसे-कैसे उसने मुझसे प्रणय निवेदन किया ! मैं उसके संग के लिए व्याकुल हो उठा, लेकिन कई दिन साथ रहने के बाद वह यकायक अन्तर्धान हो गई। मेरी क्या दशा हुई तब, विरह-व्यथा से मैं जैसे पागल हो उठा। तब मकान-मालकिन ने मुझसे कहा. “किसके लिए पागल होते हो जी? उसे अपने बन्धु के लिए पैसे चाहिए थे, सो उसने तुमसे ठग लिए और उसके साथ चली गई। वह तुम्हें जरा भी प्रेम नहीं करती थी । "
ये कहानियां सच हों या झूठ, उसके मानस के अध्ययन का अच्छा अवसर प्रदान करती हैं। वह उन लोगों में से था जो मानते हैं कि नारी का प्रेम ही पुरुष में साहस जगाता है। उसके लिए प्रेम का अर्थ शरीर की भूख नहीं था, बल्कि अपने उपास्य के लिए अपने को बलिदान कर देना था। कैशौर्य के अपने उस विफल प्रेम के बाद कम से कम एक बार तो उसने अवश्य ही सचमुच किसी को प्यार किया था। उन दिनों अक्सर भले घर की लड़कियों को भगाकर दुष्ट लोग रंगून ले जाते थे। ऐसी ही एक युवती थी गायत्री। जैसी आकर्षक देहयष्टि वैसा ही मादक रूप, जो अंगार की तरह वैधव्य की राख में छिपा था। शायद मां- बाप उसके साथ अच्छा बर्ताव नहीं करते थे । इसीलिए वह मौसा के पास लखनऊ जाना चाहती थी। पड़ोस के एक युवक नन्द दुलाल ने उसे विश्वास दिलाया कि वह उसे मौसा के पास पहुंचा देगा। लेकिन हुआ यह कि वह लखनऊ की ओर न जाकर रंगून की ओर चल पड़ा। बेचारी गायत्री मार्ग में किससे क्या कहे? जहाज पर बर्मा के एक युवक से उनकी भेंट हुई। उसका नाम था पांचकौड़ी । नन्द दुलाल ने पांचकौड़ी को बताया कि गायत्री उसकी पत्नी है। इसी रूप में वे रंगून में वहां के प्रसिद्ध एडवोकेट कुंजबिहारी मुखोपाध्याय के घर जाकर ठहरे। शायद गृह स्वामिनी का स्नेह पाकर गायत्री का खोया हुआ साहस लौट आया। उसने उनसे कहा, "मां, यह मेरा पति नहीं है। मैं विधवा हूं। मौसा के पास पहुंचाने का बहाना करके यह धोखे से मुझे यहां ले आया है।”
गृह-स्वामिनी स्तब्ध रह गई। उसने तुरन्त गिरीन्द्रनाथ सरकार को बुला भेजा। उन्होंने आकर नन्द दुलाल को खूब अपमानित किया। फिर शरत् आदि मित्रों के सहयोग से उसे स्वदेश जाने के लिए जहाज पर चढ़ा दिया। गायत्री के पिता को भी पत्र द्वारा सूचना दे दी गयी। लेकिन गायत्री तब तक कहां रहे? गृह-स्वामिनी उसे रखने को तैयार नहीं थी । गिरीन ने तब शरत् के मोहल्ले में एक घर लेकर उसके रहने की व्यवस्था कर दी। पांचकौड़ी उसकी देखभाल करने लगा। शरत् भी रात को पांचकौड़ी के पास ही जाकर सोता था।
एक दिन गायत्री के पिता का उत्तर भी आ गया। वे अपनी कुलटा कन्या को किसी भी शर्त पर घर में रखने के लिए तैयार नहीं थे। उधर से निराश होकर गिरीन ने गायत्री के मौसा को लिखा, लेकिन इसी बीच में बार-बार आने-जाने के कारण शरत् गायत्री के प्रति अनुरक्त हो उठा। बेचारी विधवा, उसका कोई सहायक नहीं है, इसलिए शायद उसके मन में करुणा भी उभरी होगी। इसीलिए तो एक दिन वह गायत्री के प्रति प्रणय निवेदन करने का साहस कर सका। उसने कहा, “आजकल विधवा-विवाह का प्रचलन है। फिर भी यदि समाज उसे स्वीकार नहीं करता तो हम वैष्णव धर्म स्वीकार कर सकते हैं।”
गायत्री की व्यथा का पार नहीं था। वह बोली, “शरत् दा, जो फूल टूटकर गिर चुका है उससे देवता की पूजा नहीं होती।”
केवल शरत् ने ही उससे प्रणय निवेदन नहीं किया, पांचकौड़ी का धनी स्वामी भी उस पर आसक्त हो उठा था। उस दिन व्यापार के संबंध में पांचकौड़ी को खोजते खोजते वह उसके घर आया था। तभी सहसा उसने गायत्री को देखा और उस पर मुग्ध हो गया। उसी दिन से नाना प्रकार के प्रलोभन उसने देने शुरू कर दिये। कभी उपहार भेजता, तो कभी किसी महिला को। और फिर एक दिन वह स्वयं गाड़ी लेकर उसे लेने आ पहुंचा। उसके पास शक्ति थी। शरत् के पास साहस था। गायत्री की रक्षा के लिए वह सामने आकर डट गया। उस क्षण उसने निश्चय ही मन ही मन राजू को याद किया होगा।
इस युद्ध को देखने के लिए दर्शक भी कम नही आए थे। रक्तपात होने की पूरी सम्भावना थी। लेकिन तब तक गिरीन्द्र को सूचना मिल चुकी थी। कुछ क्षण बाद वह वहां आ पहुंचा। उसके साथ कई लठैत थे। उन्हें देखकर एक-एक करके सब लोग वहां से चले गए। दो-तीन दिन बाद गायत्री के मौसा का पत्र आ गया। लिखा था- "गायत्री को लखनऊ पहुंचा दो ।”
वह चली गई और शरत् का यह प्रणय भी व्यर्थ हो गया।
यद्यपि इस कथा का स्रोत स्वयं शरत् नहीं है फिर भी यह असत्य हो तो आश्चर्य की कोई बात नही। क्योंकि उसके संबंध में नाना प्रकार के लोग नाना प्रकार की कथाएं प्रचारित करते ही रहते थे। लेकिन सत्य मान लेने पर भी बहुत अन्तर नहीं पड़ता । मनुष्य के जीवन में गोपन-अगोपन ऐसे अनेक अवसर आते हैं। फिर शरत् तो सचमुच ही सैकड़ों ऐसी कुलीन और अकुलीन नारियों के संपर्क में आया था और वह कोई यती या संन्यासी भी नहीं था। अपने को किसी के प्रति विसर्जन कर देने की आकांक्षा सभी में होती है। उसमें कुछ अधिक थी। वेश्यालयों में वह जाता रहा है पर वहां भी सेवा सुश्रूषा का अवसर आने पर वह पीछे नहीं हटा। उस दिन मित्रों के साथ रंगून में एक प्रसिद्ध नर्तकी के घर जाने पर देखा कि वह चेचक से पीड़ित है। मित्र लौट गए पर वह रह गया। अनेक प्रयत्न करने पर भी जब वह उसे नहीं बचा पाया तो विधिपूर्वक उसका अंतिम संस्कार करके ही वह लौटा।
इसी कारण तो भद्र लोग उसे चरित्रहीन और अछूत समझते रहे और उससे मिलने से बराबर इनकार करते रहे। उसने भी कभी प्रयत्न नहीं किया। लेकिन जहां तक उसके निजी जीवन का संबंध था, गृहस्थी बसा लेने के बाद उसकी सौन्दर्य - भावना फिर जाग आई थी। प्रेम ने उसके घर में फूलों की सुषमा बिखेर दी। उसे पुस्तकों से प्रेम था, फूलों से प्रेम था, पशु-पक्षियों से प्रेम था। वह प्रेम अब सुव्यवस्थित और सघन हो उठा। हिरण्मयी के कारण हिन्दू के घर में तुलसी का पौधा भी आ गया।
पक्षी उसके पास निरन्तर रहे। एक मैना थी, जिसे प्यार से वह 'मौना' कहकर पुकारता था। अचानक उसकी मृत्यु हो गई। वह ऐसे दुखी हुआ, जैसे कोई संतान के मरने पर होता है। फिर एक सिंगापुरी नूरी पक्षी ले आया। बड़े प्यार से नाम रखा 'बाटू बाबा'। उसे बातें करना सिखाया। रात को बार-बार उठकर उसे खिलाता। मित्र कहते, “पक्षी को क्या रात को खिलाया जाता है?"
शरत् उत्तर देता, “पक्षी जंगल में रहते हैं। इच्छानुसार खाते रहते हैं, लेकिन जब वे संसार में जाकर रहने लगते हैं, तब उन्हें हमारी तरह खाना-पीना पड़ता है। यदि हम उन्हें हाथ से न खिलाएं तो वह बुरा मानते हैं। उन्हें यदि हम प्यार नही कर सकते तो बन्द करने से क्या फायदा?"
वह पक्षी रात के समय गाता भी बहुत सुन्दर था। सुनकर पड़ौसी पूछते, “शरत् बाबू, रात आपके घर में कोई गा रहा था, ‘सखि रे की ऑर बोलिब आमि'। बड़ा मधुर स्वर था।”
शरत् हंसकर कहता, “अरे बाटू बाबा गाता है।”
जब कोई घर आता तो बाटू बाबा तुरन्त कहता, “कौन जी, कौन हो तुम?" शरत् उत्तर देता, मैं हूं।”
तब बाटू बाबा चिल्लाता, “बाटू टू-टू-टू।”
शरत् ने इसके लिए चांदी का एक खम्भा, सोने की जंजीर और पैरों के स्प्रिंगदार सोने के कड़े बनवा दिये थे। अपनी शय्या के पास ही उसके सोने के लिए शय्या लगवाई थी। उस पर बहुमूल्य रेशम का तकिया, तोसक और मसहरी की व्यवस्था भी थी। रात को शरत् जंज़ीर खोल देता। तय बाटू बाबा अपने खम्भे पर से उतर कर आता और मसहरी के भीतर अपने बिस्तर पर सो जाता।
यह बाटू बाबा जैसा प्यारा था, वैसा ही दुर्दान्त भी था । शरत् जब इसकी चोंच चूम लेता तो गद्गद् होकर वह उसके गाल पर अपना सिर रगड़ता, लेकिन यदि दूसरा व्यक्ति ऐसा करता तो तार सप्तक में चीखकर आपत्ति प्रकट करता। उसके हाथ में काट लेता। इसलिए कोई भी नया व्यक्ति घर में नहीं आ सकता था। द्वार रक्षक कुत्ते की तरह वह सदा सतर्क रहता था। एक दिन जब घर में कोई नहीं था तो नौकरानी ने रसोईघर में घुसकर घी निकालने की चेष्टा की। वह समझती थी कि कोई देख नही रहा है, लेकिन बाटू बाबा ने तुरन्त शोर मचाना शुरू कर दिया। पड़ोसी जानते थे कि यह शोर मचाता ही रहता है, किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। नौकरानी भी आश्वस्त थी, लेकिन इसी बीच में बाटू बाबा ने चोट कर-करके जंजीर को तोड़ डाला और बाहर आकर नौकरानी पर आक्रमण करने लगा। उसने इतनी तेज़ी से काटना शुरू किया कि नौकरानी चीख उठी, “मार डाला रे, बाबा रे।”
लेकिन बाटू बाबा ने उसे भागने नहीं दिया। तभी शरत् लौट आया। नौकरानी रंगे हाथों पकड़ ली गई।
एक दिन यही बाटू बाबा मर गया। सोने की ज़ंजीर उसके गले में फंस गई। शरत् अत्यन्त कातर हो उठा। विधिपूर्वक नदी तट पर ले जाकर उसका दाह संस्कार किया। कई दिन तक न तो घर से बाहर निकला, न खाया, न पिया। जय निकला तो शोक के कारण उसका हृदय भरा हुआ था। बाल बिखरे हुए थे। मित्रों ने पूछा, “क्या हुआ शरत् बाबू? आप इतने दुखी क्यों हैं?”
शरत् ने उत्तर दिया, "मेरे बच्चे की मृत्यु हो गई है।”
उसने एक कुत्ता भी पाला था। ठेठ देसी उसपर बेहद बदसूरत — असभ्य । लेकिन एक फकीर ने हिरण्मयी देवी से कहा था, “इस कुत्ते को पालने से तुम लोगों का भाग्य चमक उठेगा।”
कुत्ते के कारण हो या किसी और कारण, भाग्य सचमुच चमक आया था। इसीलिए बहू ने बड़े प्यार से उसका नाम रखा 'वंशीवदन'। लेकिन प्यार क्या इतने सुन्दर नाम की
अपेक्षा रखता है! कोई छोटा-सा अटपटा नाम ही प्यार का प्रतीक हो सकता है। इसलिए शरत् ने उसका नाम रखा 'भेली' उस पर उसके प्यार की कोई सीमा नही थी। उसके अन्तर में जो असीम स्नेह भरा हुआ था वह निरन्तर मार्ग ढूंढ़ता रहता था। दुनिया सम्पन्न और सुन्दर को प्यार करती है पर उसने मन ही मन निश्चय किया कि वह उन्हीं ही प्यार करेगा जो सर्वहारा हैं, जो असुन्दर हैं....।