इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-जाना होता था। साथ-साथ क्रिकेट खेलते थे। एक दिन' 2 सौरीन्द्र के हाथ में चोट लग गई। उसके लिए खेलना असम्भव था । विभूति ने उसे एक कापी देते हुए कहा, “लो तुम ये कहानियां पढ़ो।”
सौरीन्द्र ने देखा, कापी के पहले पन्ने पर छोटे-छोटे मोती जैसे अक्षरों में लिखा है- 'बागान' और पलट के दाहिनी ओर पहले पन्ने पर बड़े कलात्मक ढंग से अंग्रेजी अक्षरों में एक नाम अंकित है, शायद वही इसका लेखक है, एस टी०सी० लारा। एस टी० यानी शरत् ० यानी चट्टोपाध्याय, लारा यानी न्याड़ा ।
इस कापी में कुछ कहानियां लिखी हुई थीं। ये ही कहानियां निरुपमा पड़ती रहती थी। एक-एक करके सौरीन्द्र ने भी उनको पढ़ना शुरू किया। पड़ता गया और मुग्ध होता गया । परन्तु उस दिन शरत् से उसकी भेंट न हो सकी। वह अवसर आया एक महीने बाद । उस दिन निरुपमा देवी के किसी व्रत के उपलक्ष में परिवार में प्रीतिभोज की व्यवस्था थी। उसी में निमन्त्रित होकर सौरीन्द्र जब वहां पहुंचा तो देखा, बैठक में बड़ी मेज के सामने की कुर्सी पर एक क्षीणकाय व्यक्ति बैठा है। बहुत दिनों के रोगी जैसा चेहरा, सिर पर लम्बे-पतले और बिखरे हुए बाल, उलझी सी एक छोटी दाढ़ी, सामने एक मोटी-सी पुस्तक खुली है, उसी को तन्मय होकर पढ़ रहा है। बीच-बीच में सिर के बालों में उंगली देकर न जाने वह क्या सोचने लगता है।
सौरीन्द्र के बैठ जाने पर विभूति ने पुकारा, 'शरत् दा !”
सहसा शरत् ने विभूति की ओर देखा । विभूति ने कहा, “शरत् दा ! यह मेरा मित्र सौरीन्द्र है। यह दारुण रेबिक है। यानी रवीन्द्रनाथ का भक्त है। तुम्हारी कहानियां पड़कर उस दिन इसी ने समालोचना की थी । "
अब शरत् ने सौरीन्द्र की ओर देखा। उस दृष्टि में तीव्र दीप्ति थी। वही दीप्ति तो हर किसी को अपनी ओर खींच लेती थी। और पराभूत कर देती थी। संकोच और भय से सौरीन्द्र विचलित हो आता। कई क्षण उसकी ओर देखते रहने के बाद शरत् ने पूछा, “तुम कहानी लिखते है। ?”
सौरीन्द्र ने उत्तर दिया, "नही।”
विभूति ने कहा, "यह कविता लिखता है।”
शरत् अब भी सौरीन्द्र की ओर देख रहा था। वह दृष्टि सौरीन्द्र को बींधने लगी। वह अनमना हो उठा। तभी शरत् ने फिर कहा, “गल्प क्यों नहीं लिखते?"
सौरीन्द्र बोला, "लिख नहीं सकता, इसलिए ।”
शरत् ने कहा, "पद्य लिखते हो और गल्प नही लिख सकते! लिखने की चेष्टा करो। गल्प किसे कहते हैं, कैसी होती है, यह ज्ञान तुम्हें है । विभूति से तुमने मेरी गल्पों की जो समालोचना की थी, यह उसने मुझे बताई थी। वही सुनकर मैं कहता हूं कि गल्प के बारे में तुम्हें ज्ञान है, तुम लिखो । ”
निमिष मात्र में सौरीन्द्र का संकोच दूर हो गया। बोला, "लिखूंगा।”
धीरे-धीरे दोनों में घनिष्ठता बढ़ती गई। वे अक्सर साहित्य चर्चा करते। तब 'शिशु' (बड़ी दीदी) कहानी के अन्त में दो लाइनें इस प्रकार थीं, “परलोक में सुरेन्द्रनाथ के पैरों के पास माधवी को थोड़ा स्थान देना भगवान !”
इस पर आपत्ति करते हुए सौरीन्द्र ने कहा, “तुम लेखक हो, तुम्हें किसी पात्र के प्रति ममत्व नहीं रखना चाहिए।”
इस बात को लेकर दोनों में बहुत तर्क हुआ। उस समय शरत् किसी भी तरह सौरीन्द्र से सहमत नही हो सका। पर दो महीने बाद उसने कहा, “सुनकर खुशी होगी सौरीन्द्र, अन्त की वे दोनों लाइनें मैंने काट दी हैं।”
सौरीन्द्र बहुत दिन भागलपुर नहीं रह सका, अगले वर्ष' ही वह कलकत्ता लौट गया। लेकिन जाते समय शरत् की कुछ रचनाएं अपने साथ साथ लेता गया। वे रचनाएं धीरे-धीरे छात्र-समिति में पड़ी गई। उनकी सराहना करते हुए सदस्यों ने एक स्वर में कहा, “रवीन्द्रनाथ ठाकुर को छेड़कर इतनी सुन्दर कहानियां और कोई नहीं लिख सकता।”
इस साहित्य गोष्ठी के एक और सदस्य थे सतीशचन्द्र मित्र । एक दिन एक खाते को मासिक पत्र के आकार में बंधवाकर उसके पहले पन्ने पर उन्होंने लिखा, 'आलो।' उसके नीचे संपादक के स्थान पर लिखा, 'सतीशचन्द्र मित्र और योगेशचन्द्र मजूमदार । ” यह सुझाव शरत् की ओर से ही आया था, इसलिए इसके पन्ने भरने का भार भी उसी पर आ पड़ा। उसका विश्वास था कि साहित्य रसिक बन्धु-बांधवों का उत्साह पाकर यह पत्रिका शीघ्र ही प्रतिष्ठित हो जाएगी। लेकिन उसकी यह इच्छा पूरी न हो सकी। एक पखवाड़े के भीतर ही सतीशचन्द्र की मृत्यु हो गई। उनके इस अकाल वियोग पर साथी बहुत दुःखी हुए और उनकी समृति रक्षा के लिए व्यग्र हो उठे। गिरीन्द्र ने प्रस्ताव किया कि इस पत्रिका को 'छाया' नाम देकर फिर से प्रकाशित किया जाए।
यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया । उसके संपादक नियुक्त हुए योगेशचन्द्र मजूमदार इनको संतुष्ट करना बहुत कठिन था विभूतिभूषण ने तो उनके सम्बन्ध में यह कविता लिख डाली थी-
एई कुंचित केश मार्जित बेश क्रिटिक योगेश कुद्ध ।
बले दीनता छबि, एई सब कबि कारगारे हवि रुद्ध ।।
शरत् ने इस पत्रिका के लिए कई गल्पें और निबन्ध लिखे । 'क्षुद्रेर गौरव" , नामक प्रबन्ध और 'आली ओ छाया' नामक छोटा उपन्यास इसी पत्रिका में प्रकाशित हुए थे।
लेखक कई थे, लेकिन लेखिका केवल एक ही थी । अन्तःपुरचारिणी विधवा निरुपमा। उसकी रचनाएं इसमें 'श्रीमती देवी' के नाम से प्रकाशित हुई। इसी समय कविता के अतिरिक्त उसने गद्य लिखना भी आरम्भ किया। थोड़े ही दिनों में इस पत्रिका की धूम मच गई। सौरीन्द्र तब तक कलकत्ता चला गया था। वहां पर उसने इसी तरह की एक पत्रिका निकाली। नाम था 'तरुणी' । शरत् के एक और रिश्ते के मामा उपेन्द्रनाथ गंगोपाध्याय उसके साथी थे। इस दल का नाम था 'भवानीपुर साहित्य समिति। दोनों पत्रिकाओं का डाक द्वारा आदान-प्रदान होता था। एक-दूसरे की खूब आलोचना करते थे। 'छाया दल' ने इस कार्य के लिए एक बोर्ड बनाया था। इसका प्रत्येक सदस्य 'तरुणी' की रचनाएं पढ़कर उन पर आलोचना लिखता था । और संपादक महोदय इस कौशल से उसका संपादन करते थे कि उनमें जो माधुर्य होता था वह नष्ट हो जाता था। रह जाता था केवल विष । 'तरुणी' की ओर से भी ऐसे ही तीव्र उत्तर मिलते थे। दोनों ओर से कोई किसी का लिहाज नही करता था। परन्तु शरत् इन बातों में कोई विशेष रस नहीं लेता था । निरन्तर लिखना ही उसका मुख्य कार्य था।