इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले जाना होगा।”
सुरेन्द्रनाथ बोले, “नर्सिंग होम जाना निश्चित है। पर 31 से पहले सम्भव नहीं।”
एक क्षण सोचकर डाक्टर माके ने कहा, "मि० गांगुली, मेरा अनुरोध है कि किसी तरह आज ही इन्हें नर्सिंग होम में ले जाइए।"
"तब आप ही सहायता कीजिए !”
और डाक्टर माके ने एक नर्सिंग होम निश्चित कर दिया । सदर्न हास्पिटल रोड पर एक योरोपियन नर्सिंग होम था।
शरत् बाबू तैयार होने लगे। उस समय जो रुदन आरम्भ हुआ वह रुकता ही नहीं था। शरत् मानो संज्ञाहीन होकर चारपाई पर लेट गये। मामा ने मुकुल दे से कहा, “डाक्टर माके को बुला लीजिए। साथ जाना ठीक रहेगा।"
डाक्टर माके भी आ गये। शरत् बाबू तैयार थे। चलने लगे तो हिरण्मयी ने चरणोदक लिया। बोले, "बस हो गया।"
वे बाहर जाते तो कई-कई दिन वहीं रमे रहते। उसीको रोकने के लिए हिरण्मयी ने चरणोदक लेने की प्रथा चलाई थीं। कहा था, “जब तक चरणोदक न लूंगी खाना नहीं खाऊंगी।”
एक बार शरत् बाबू कई दिन बाद लौटे तो पाया कि हिरण्मयी भूखी-प्यासी बैठी है। तब से आना-जाना कम हो गया था। उस दिन चरणोदक लेने पर उन्होंने मानो कहा कि बस हो गया। अब नहीं लौटूंगा ।
उस योरोपियन नर्सिंग होम में वे नहीं रह सके। वहां सब कुछ सुन्दर था व्यवस्था और सुघड़ता भी 'खूब थी। सीढ़ियों पर भी कार्पेट बिछी थी। चारों तरफ विलायती साहब और मेम दिखाई देते थे। मिलने के समय जब उमाप्रसाद आये तो चकित रह गये। सन्देह हुआ कि बंगला देश छोड़कर कहीं विलायत में तो नहीं पहुंच गए है। कमरे का नम्बर देखकर अन्दर गये। खूब सजावट, कीमती सामान, सामने एक सादी खाट के ऊपर स्वच्छ बिछौने पर शरतचन्द्र लेटे थे। दुग्धफेनिल शथ्या थी वह, लेकिन जैसे ही रोगी के चेहरे पर दृष्टि गई तो वे चौंक पड़े। मुख पर पीलापन था और दृष्टि म्लान थी । उनको देखते ही शरत् बाबू ने कहा, "तुम आ गये, अब ठीक इलाज होगा।”
उमा बाबू ने पूछा, "कैसे हो?”
वह वाक्य पूरा भी नहीं कर पाये थे कि नर्स आ गई। हाथ में ग्लूकोज़ का पानी था। शरत् बाबू ने कहा, “अभी नहीं, बाद में दे देना।"
नर्स ने नहीं सुना। बोली, "लेने का समय हो गया है। लेना ही होगा।"
उसके बोलने चालने के ढंग में स्नेह का आभास तक न था । मानो यंत्रदानव हो, कठिन-कठोर। उसके इस व्यवहार से रोगी उत्तेजित हो उठा। तब उमाप्रसाद ने उसके हाथ से गिलास लेकर कहा, “आप कृपाकर बाहर चली जाएं मैं पिला दूंगा।”
नर्स क्रुद्ध होकर बाहर चली गई। उमा बाबू रोगी के पास आकर खड़े हो गये। उनका हाथ अपने हाथ में ले लिया। फिर सिर पर हाथ फेरने लगे। अभी भी निदारुण क्रोध से शरत् बाबू का क्लान्त शरीर कांप रहा था। उमा बाबू ने धीरे से कहा, “थोड़ा-सा पानी पी लो।”
शरत् बाबू उनके मुंह की ओर ताकने लगे। उसके बाद शांत स्वर में कहा, “अच्छा, पी लूंगा। किन्तु मुझे यहां से ले चलो, नहीं तो मैं स्वयं चला जाऊंगा।"
उमाप्रसाद बोले “मुझे भी लगता है कि आपका यहां रहना नहीं हो सकता। कल ही यहां से जाने का प्रबंध हो जाएगा।"
शरत् बाबू मुक्त कलाकार थे। बन्धन मे कैसे रह सकते थे और वहां थे बहुत से ६- कानून । । किसी तरह एक-दो सिगरेट पीने को आज्ञा मिल गई थी, परन्तु अफीम तो किसी भी तरह नहीं खा सकते थे। फिर भारतीय रोगी को देखने परिजनों और प्रियजनों की भीड़ न जाये तो प्रेम कैसे प्रकट हो! जो व्यक्ति अड्डे जमाने का आदी हो वह निश्चित समय पर कुछ निश्चित व्यक्तियों से मिल सके, यह वे कैसे सह सकते थे! बार-बार नर्स इस स्वच्छन्द व्यक्ति से युद्ध कर बैठती थी । अन्त में व्यवस्थापिका ने कहा, “रोगी को यहां रखना असम्भव है।”
वहां के डाक्टर ने भी परीक्षा करके कह दिया था, “कोई आशा नहीं है। यहां रखना व्यर्थ है।” सुरेन्द्रनाथ ने डाक्टर सुशील के नर्सिंग होम की चर्चा की थी। वहीं पर व्यवस्था की गई। वहां भी नियम-कानून थे, लेकिन रोगी को विशेष असुविधा न हो इसका ध्यान रखते हुए कई व्यक्तियों को आने की छूट थी । उमाप्रसाद ने पूछा, “आप यहां अपने पास किसको रखना चाहते हैं? उसीके अनुसार व्यवस्था कर दी जाएगी।”
थके हुए स्वर में शरत् बाबू ने उत्तर दिया, “किसी को नहीं चाहता, तुम तो हो ही। यहां तुम ही बैठो।"
उमाप्रसाद से उन्हें जितना स्नेह था, उतना ही उन पर विश्वास भी था। उस दिन हिरण्मयी देवी आईं तो उमाप्रसाद का परिचय देते हुए उनसे कहा, “ये उमाप्रसाद हैं। कोई बात हो तो अब इन्हीं से कहना।”
यह एक तरह से हिरण्मयी को उमाप्रसाद के हाथों में सौंपने जैसा था, क्योंकि अपने अन्त के बारे में तो वे आश्वस्त हो चुके थे। इसलिए मिलने के लिए आने वाले मित्रों की कोई सीमा नहीं थी। शान्ति निकेतन से नन्दगोपाल सेनगुप्त आये। पाया, आंखें कोटर में धंस गई हैं, जीवन की आशा क्षीण है। कहा, “इस तरह कौन तड़पना चाहता है?"
कुछ देर बातें करने के बाद बोले, “फिर भी यह जीवन व्यर्थ नहीं रहा। मैंने एक आवारा लड़के के रूप में जीवन आरम्भ किया और अन्त..... यह सब तो तुम जानते ही हो।"
जब कोई आता था तो मुख पर म्लान हंसी की रेखा खिंच जाती थी, मानो मन के पठल पर वे आशा की छवि आंकने का प्रयत्न करते हों। बचपन की याद करते, भागलपुर गंगा की कहानी याद करते, वर्षा के अन्धकार में पूरम्पार भरी गंगा को तैरकर पार कर जाने की कहानी । ऐसा लगता कि अमा निशा में वह और राजू दोनों नाव में बैठकर तूफानी समुद्र में अन्तहीन यात्रा पर निकल पड़े हैं। कितने वर्ष बीत गये और उन वर्षों ने जीवन को कितना कठोर, कितना निर्मम, फिर भी कितना प्रलोभनीय बना दिया.......
इन स्मृतियों के माध्यम से जैसे कमज़ोरी के क्षणों में अपनी शक्ति की याद करके साहस पाना चाहते हों। उमाप्रसाद ने कहा, “ठीक हो जाओ, इस बार आपके साथ जाऊंगा।"
शरत् बाबू हंस पड़े। बोले, “अरे तेरी आशा कम नहीं है। निश्चय ही गंगा जाऊंगा। साथ ही रहेगा, किन्तु वह मेरी अन्तिम यात्रा होगी।”
उमाप्रसाद ने कहा, "चुप रहो ! बहुत बातें करने की मनाही है।”
रात को डाक्टर की अनमुति से उमाप्रसाद उनके पास रहे। कुर्सी डालकर पास बैठ गये। रोगी की सेवा करने को विशेष कुछ नहीं था। कमरे के एक कोने में टिमटिमाता प्रकाश था। उमा बाबू की आंखों म नींद नहीं थी । एकटक वे उनकी ओर ताकते रहे। महामानव रोगशय्या पर था। वह मृत्युपथ का राही था शरीर रोग से थक गया था, लेकिन फिर भी वे पूरी तरह होश में थे। संध्या की नर्स की बदली हो गई थी, रात की नर्स काम पर आ गई थी। ऊंची एड़ी का जूता पहने खटखट शब्द करती हुई वह चार्ज ले रही थी। अस्फुट शब्द में शरत् बाबू ने कहा, “लंगड़ी नर्स आई है। " ने
अचरज से उमाप्रसाद ने पूछा, “लंगड़ी ! आप लंगड़ापन कैसे देख सकते हैं?"
मधुर हंसी हंसकर बोले, “देखता कैसे? कान से सुनकर सब कुछ समझा जा सकता है। दोनों पैरों के जूतों का स्वर एक जैसा नहीं है। देख लेना इसका एक पैर निश्चित छोटा है। "
तभी नर्स कमर में आई। उमाप्रसाद ने अच्छी तरह देखा । पाया कि पैर में साधारण-सा लंगड़ापन है। आसानी से पकड़ में नहीं आता। लेकिन रोगी की कैसी तीक्षा दृष्टि है ! मृत्यु के द्वार पर भी उसका हास नहीं हुआ।
शक्ति धीरे-धीरे क्षीण हो रही थी। किसी से मिलने का मन नहीं रह गया था। कहा, “सारे जीवन मनुष्य को प्यार किया है, पास बुलाया है, पर अब और नहीं। अब तो बाकी दिन चुपचाप लेटे रहना चाहता हूं।”
लेकिन आने वाले कब मानते थे। अचानक मित्रता का दावा लेकर एक अनजान व्यक्ति आये और अधिकार के साथ बोले, “केवल एक बार देखना चाहता हूं।”
बहुत समझाया, लेकिन वे किसी भी तरह नहीं मान रहे थे। आखिर उमाप्रसाद ने शरत से कहा, “वह आना ही चाहता है। तुम चुपचाप आंखें बंद करके पड़े रहो। कमरे में आते ही उसे विदा कर दूंगा।”
फिर आगंतुक से जाकर कहा, “रोगी सो गया है। ज़रा भी शब्द न होने पाये। देखते ही चले जाना।”
श्रद्धा से भरे-भरे उस नवागंतुक ने कमरे में प्रवेश किया और कपट निद्रा में सोये हुए रोगी की ओर ताका और फिर हाथ उठाकर मौन प्रणाम किया। वह यदि देख पाता तो पता लगता कि उस समय शरत् बाबू एक आंख को खोलकर देखने का प्रयत्न कर रहे हैं, जैसे कोई चुपके-चुपके बंद खिड़की का द्वार खोलकर देखता है। आगंतुक के चले जाने पर वे हंस पड़े। बोले, “खूब खेल खेला, किन्तु अब और नहीं। तुम मेरे पास आकर बैठो।”
प्यास खूब लगती थी। पीने के लिए पानी मांगा। परन्तु पीते समय बहुत कष्ट होता था, इसीलिए उमा बाबू ने कहा, “एकटूक खानी खान। (अर्थात् थोड़ा-सा ले लो।)”
अस्फुट स्वर में शरत् बाबू ने कहा, “एकटूक खानी।”
एक क्षण मौन रहे, फिर बोले, “देखते हो, एकटू खानी, एकटूई खानी, एकटूक खानी, इन शब्दों के अर्थों में कितना अन्तर है ? बंगला भाषा की क्या विचित्र सम्पदा है ! "
उमाप्रसाद ने लिखा है, “जीवन नदी के उस पार जाने वाला यात्री है। फिर भी साहित्य का पुजारी वाणी के मन्दिर में भक्ति का अर्ध्य दे रहा है सौंदर्य का प्यासा मन सजग है। प्रतिदिन फूल आते हैं, गुलाब के गुच्छे आते हैं। रोगी का कमरा आलोकित है, गन्ध से आमोदित है। फूल देखकर पूछा, 'कौन लाया है ? फूल बहुत प्यारे लगते है। गुलाब का जन्म सार्थक है । अन्तिम समय भी कैसा आनन्द देने आया है ! "
श्रीकान्त भी चतुर्थ पर्व में फूलों पर कैसा मुग्ध हो उठा था ! विशेषकर गुलाब पर, “और सबसे अधिक मन को लुभा लेने वाला था बीच का हिस्सा। रात्रि के अन्त में इस धुंधले आलोक में पहचाने जाते थे एक-दूसरे से भिड़े हुए झुण्ड के झुण्ड गुलाब के झाड़। जिनमें बेशुमार फूल थे और जो सहस्रों फैली हुई लाल आंखों से बगीचे की दिशाओं की ओर मानो ताक रहे थे.. "
लेकिन उन्हें केवल फूलों से ही सन्तोष नहीं हो पा रहा था । सौन्दर्य वृत्ति पूरी शक्ति के साथ जाग रही थी। मामा सुरेन्द्रनाथ से कहा, “बिलास से मैंने दो कानेरी पक्षी ला देने को कहा था। यदि ला सको तो बहुत अच्छा हो।”
पक्षी आ गये। पिंजड़े में बैठे हुए वे सुन्दर पक्षी निरन्तर मृदु-मधुर संगीत गाते रहते। डाक्टर ने उन्हें देखा तो बोले, “रात को इन्हें यहां रखने की आवश्यकता नहीं, सोने में बाधा होगी। हां, दिन के समय भीतर की खिड़की में चाहो तो रख सकते हो।”
शरत् ने हंसकर उत्तर दिया, “नींद जब आएगी तो उसे कोई रोक नहीं सकेगा। इनका गाना सुनने दो। बहुत मधुर शिक्षा देते हैं।”
फिर पक्षियों की ओर देखकर बोले, “ओ रे, इतना सुन्दर मत गाओ। एक दिन मेरी तरह ही तुम्हारा यह मधुर कण्ठ भी बन्द हो जाएगा।”
गम्भीर रात्रि थी, वे चुपचाप शान्त लेटे हुए थे। आंखें खुली थीं। पलकों में ज़रा भी नींद नहीं थी । उमा बाबू की ओर देखकर उन्हें पास बुलाया। उमाप्रसाद ने वहीं से कहा, “सो जाओ, आंखों को मूंद लो।”
लेकिन आंखें बन्द करते ही मिट मिट करते ताकते रहे। बोले, “पास आ जाओ, एक बात कहता हूं मेरे सीमान्त के एकान्त बन्धु !”
उमाप्रसाद पास गए। शरत् बाबू ने उनके सिर पर हाथ रखा। उमाप्रसाद ने कहा, “क्या मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं?”
वे बोले, “इसकी क्या बात है? मैंने तुम्हें हमेशा आशीर्वाद दिया है।"
इस तरह वह लम्बी रात बीत गई। किन्तु प्रभात का प्रकाश होने पर भी मन में आशा का प्रकाश नहीं हुआ। हालत इतनी गिर गई कि मुंह से खाना-पीना असम्भव हो गया। पेट में खाना न जाने पर मृत्यु निश्चित थी। इंजेक्शनों से भी लाभ नहीं हो रहा था। गुदा द्वारा भोजन पहुंचाये जाने पर वे स्वयं सहमत न थे। तब एक ही मार्ग शेष था कि पेट चीरकर ली द्वारा तरल पदार्थ अन्दर पहुंचाये जाएं।
उस दिन देखने के लिए विधानचन्द्र राय आये। पूछा, “क्या कष्ट है दादा ?” “कष्ट कुछ नहीं।”
“तब? ”
“प्यास-प्यास! मेरी छाती जुड़ गई है। मरुभूमि की छाती फाड़ देने वाली प्यास है, डाक्टर !"
वहां खड़े थे भीग आये। रूमाल से आखें पोंछते -पोंछते विधानचन्द्र राय बाहर चले आये। उनकी राय थी कि आपरेशन करना ही होगा। उन्होंने डा० ललितमोहन बनर्जी को मात्र चार सौ पचास रुपये लेकर आपरेशन को राज़ी कर लिया।
12 जनवरी का दिन निश्चित हुआ । नियमानुसार डाक्टर ने रोगी से लिखित आदेश चाहा। शरत् बाबू के मुख पर हास्य की स्मित रेखा फैल गई। बोले, “लिख दो, मैं उस पर सही कर दूंगा।”
कुमुदशंकर राय ने आदेश पत्र लिख दिया और शरत् बाबू ने उस पर अंग्रेज़ी में हस्ताक्षर कर दिये। फिर कहा, "ज़रा रुकी नीचे मैं स्वयं कुछ लिखना चाहता हूं।”
उस पत्र में लिखा था, “आपरेशन में जो संकट आ सकता है उसका समस्त दायित्व मैं अपने ऊपर लेता हूं और डाक्टर के० एस० राय से अनुरोध करता हूं कि वे आपरेशन करें।”
उस पर तारीख दी हुई थी 12 जनवरी, 1938 ई० । शरत् बाबू ने आड़े हस्ताक्षर करके फिर तारीख दे दी और नीचे एक वाक्य लिख दिया, "सम्पूर्ण होश और हौंसले के साथ।”
यह वाक्य भी अंग्रेज़ो में लिखा था, लेकिन उनका मस्तिष्क अब पुरी तरह से ठीक काम नहीं कर रहा था। इसलिए उन्होंने ‘सेंसिज़' और 'करेज' के स्पेलिंग गलत लिखे। यह सब लिखते समय उन्होंने अपूर्व आनन्द और तृप्ति का अनुभव किया। जिस फाउंटेन- पेन से उन्होंने ये अक्षर लिखे थे उसे उमाप्रसाद को देते हुए कहा, “इसे अपने पास रख लेना।”
फिर तृप्ति की निश्वास छोड़कर बोले, “अहा, बहुत आराम पाया । लिखने में बड़ा अच्छा लगा।”
जीवन-भर लेखनी के साथ उनका रक्त का सम्बन्ध रहा था। अंतिम विदा के समय यह मानो अत्यन्त प्रियजन की सबसे अंतिम स्पर्शानुभूति थी । एक दिन पूर्व उन्होंने अपना वसीयतनामा भी लिखवा दिया था। सब कुछ अपनी पत्नी हिरण्मयी देवी के नाम कर दिया। उनकी मृत्यु के बाद वह सब कुछ उनके भतीजे का होना था । कुछ रुपया इम्पीरियल बैंक में भी था. वह उन्होंने अपनी भतीजी के विवाह के लिए सुरक्षित कर दिया। उसके बाद यदि अ शेष रहे तो उसका उपयोग भाई के बच्चों के लिए ही होना था। छोटे भाई प्रकाशचन्द्र को बस सपरिवार 24, अश्विनीदत्त रोड वाले मकान में रहने का अधिकार मिला।
डाक्टर ललितमोहन बन्दोपाध्याय ने 12 बजे आपरेशन किया। पाया कि जिगर एकदम गल गया है, बचने की कोई आशा शेष नहीं है। उन्होंने घाव को वैसे ही बन्द कर दिया, जिससे वे शान्ति से अपनी अन्तिम यात्रा पर जा सकें। मुख से कुछ भी खाने का निषेध था। ट्यूब द्वारा तरल पदार्थ ही वे ले सकते थे। उसी की व्यवस्था कर दी गई।
आपरेशन के समय रोगी को रक्त की आवश्यकता होती है। प्रकाशचन्द्र ने अपना रक्त दिया, लेकिन वह यथेष्ट नहीं था। तब उनके पड़ोसी नकुलचन्द्र पति ने अपना रक्त दिया। शरत् बाबू नकुलचन्द्र की बराबर सहायता करते आये थे। लगभग पांच वर्ष पूर्व जब उसके पिता की मृत्यु हो गई थी, तब उन्होंने ही उसकी सार-संभाल की थी। जब कभी भी उस परिवार पर कोई संकट आया, उन्होंने पाया कि शरत्चन्द्र उनके पास हैं। वे उसे कलकत्ता आये थे और किसी से कहकर विश्वविद्यालय में नौकरी दिला दी थी। उसी का ऋणशोध करने के लिए मानो नकुलचन्द्र ने अपना रक्त दिया । अवस्था कुछ सुधरती-सी जान पड़ी। किसी-किसी के मन में आशा की किरण जाग आई।
लेकिन वह मात्र एक छल था । उनको बचाने के सारे प्रयत्न व्यर्थ प्रमाणित हुए। धीरे- धीरे वे संज्ञा खोने लगे। धीरे-धीरे मृत्यु उन्हें आगोश में लेने के लिए पास आने लगी। सांस धीमी होती होती फिर तेज़ हो जाती। उनके जीवनरूपी नाटक के अन्तिम दृश्य पर पर्दा बहुत धीरे-धीरे गिर रहा था। शुक्रवार, 14 जनवरी की रात के बाद यंत्रणा से वे कातर हो उठे।
यंत्रणा....... भीषण यंत्रणा........
“क्या है शरत्?”
“पैं मर रहा हूं। देख नहीं पाता...... वे कौन हैं?".
वे रात-भर आर्तनाद करते रहे। चार बजे संज्ञाहीन हो गये। सात बजे आक्सीजन दी गई, पर व्यर्थ। उसी संज्ञाहीन अवस्था में वे कई बार चिल्लाये । उनके अन्तिम शब्द थे, “आमाके......आमाके.....दाओ, आमाके....दाओ। (मुझे दो, मुझे दो।”
लेकिन कौन उनको क्या देता? वे क्या चाहते थे? क्या उन्हें नहीं मिला? बंगालियों ने प्राणों से पात्र भरकर यश, अर्थ, प्रतिष्ठा सभी कुछ उनको दिया। तब क्या था, जिसके लिए इस जीवन- वैरागी आवारा कथाशिल्पी को इस जीवन में सांत्वना नहीं मिली और उससे परलोक में तृप्ति चाही? इस वाक्य के अनेक लोगों ने अनेक अर्थ लगाये हैं लेकिन सचमुच क्या उसका कोई अर्थ था? कुछ और भी शब्द उनके मुख से निकले थे। हो सकता है, उन्हें प्यास लगी हो और उन्होंने पानी की एक बूंद मांगी हो। हो सकता है, पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने मृत्यु को पुकारा हो । लेकिन यह सब कल्पना मात्र है।
उस दिन 16 जनवरी, रविवार, सन् 1938, तदनुसार 2 माघ, 1344 बंगाब्द और पौष पूर्णिमा का दिन था । सवेरे के दस बजे भारत के अपराजेय कथाशिल्पी, जनप्रिय साहित्यिक ने अन्तिम सांस ली। उस समय उनकी आयु थी इकसठ वर्ष चार मास । स्वयं एक दिन उन्होंने कहा था, “येरा जीवन अन्ततः मानो एक उपन्यास ही है। इस उपन्यास में सब कुछ किया, पर छोटा काम कभी नहीं किया। जब मरूंगा निर्मल खाता छोड़ जाऊंगा। उसके बीच स्याही का दाग कहीं भी नहीं होगा। "
उस दिन कलकत्ता नगर में विशेष चंचलता दिखाई दी। दल के दल नर-नारी पथ-रास्ते पर इकट्ठे होकर स्वर्गीय साहित्यिक के लिए अन्तिम श्रद्धांजलि अप्रित कर रहे थे। दो घंटे के भीतर ही कई समाचारपत्रों ने विशेष संस्करण प्रकाशित किये। रेडियो से घोषणा होने लगी। एक उपन्यासकार के लिए इतनी वेदना का क्यक्त होना विरल ही है।
मोटर द्वारा शव घर ले जाया गया। सामने के दालान में एक पलंग पर भारतवर्ष के अमर कथाशिल्पी की देह अन्तिम दर्शनों के लिए रख दी गई। उनके असंख्य प्रेमियों के अतिरिक्त प्रमुख व्यक्तियों में, जो श्रद्धांजलि अप्रित करने के लिए अस्पताल या घर आये, कुछ ये थे - मेयर सनतकुमार रायचौधरी आनरेबल सत्येन्द्रचन्द्र मित्र, शरत्चन्द्र बसु, नलिनीरंजन सरकार, डाक्टर विधानचन्द्र राय, श्यामाप्रसाद मुकर्जी, रमाप्रसाद मुकर्जी, किरणशंकर बसु, तुषारकांति घोघ, हरिदास चट्टोपाध्याय, कैप्टिन एस० चटर्जी, उपेन्द्रनाथ गांगुली, सुधांशुशेखर चट्टोपाध्याय, मुरलीधर बसु, निर्मलचन्द्र 'चन्द्र', राजा क्षितीन्द्रदेव राय, ज्ञानांजन नियोगी, कुमार मणीन्द्रदेव राय, जनाब के० अहमद, श्री व श्रीमती मुकुलचन्द्र दे सतीश सिंह, रायबहादुर जलधर सेन, यतीन्द्रमोहन बागची, कालिदास राय, कुमुदरंजन मल्लिक, चारुचन्द्र बंदोपाध्याय, शैलजानंद मुखोपाध्याय और प्रबोधकुमार सान्याल।
पी० ई० एन० कलकत्ता शाखा की ओर से शव पर माल्यार्पण किया गया। शवयात्रा तीन बजकर पन्द्रह मिनट पर आरम्भ हुई। परिचालना का भार दक्षिण कलकत्ता कांग्रेस कमेटी ने ग्रहण किया। राष्ट्रीय पताका फहरा रही थी । जनता वन्दे मातरम् और शरत्चन्द्र का जयघोष कर रही थी। मार्ग में न केवल श्री सुभाषचन्द्र बोस और सर आशुतोष मुकर्जी के घरों पर बल्कि स्थान-स्थान पर अनेक संस्थाओं और अनेक कालेजों में शव पर मालायें चढ़ाई गई, लेकिन फिर भी यह एक साहित्यिक की अन्तिम यात्रा थी । किरणशंकर राय ने इस समूह को देखकर कहा, “क्या यही बंगाल की मनुष्यता है? क्या यही बंगाल की कृतइाता है? आज बंगाल का इतना बड़ा साहित्यिक, इतना बड़ा देशभक्त स्वर्गवासी हुआ, क्या यही उसकी शवयात्रा है? समस्त कलकत्ता केवड़ातत्ते के श्मशान में क्यों नहीं टूट पड़ा?"
और अन्त में जहां देशबन्यू चितरंजन दास, यतीन्द्रवमोहन, आशुतोष मुकर्जी, शासमल और यतीन दास आदि की नश्वर देह अग्नि को प्राप्त हुई वही 'श्रीकांत' के स्रष्टा, चिर दुखदर्दी, चिर व्रात्य, चरित्रहीन, आवारा शरत्चन्द्र के रोग-क्तिष्ट कंकाल को चिता पर रख दिया गया। छोटे भाई प्रकाशचन्द्र ने अन्तिम कृत्य सम्पन्न किये। मुख में अग्नि दी प्रकाशचन्द्र के बालक पुत्र ने ।
और इस प्रकार संध्या को पांच बजकर पैंतालीस मिनट पर केवड़ातल्ले में एक विराट जनसमूह के सामने उनका भौतिक शरीर अग्नि को सौंप दिया गया ! शेष रह गईं बेशुमार अटपटी यादें और रह गया उनका विपुल साहित्य, जो अन्याय के विरुद्ध उनके सतत् युद्ध का अमर साक्षी है, और साक्षी है उनके इस दावे का, “मैंने अनीति का प्रचार करने के लिए कलम नहीं पकड़ी। मैंने तो मनुष्य के अन्तर में छिपी हुई मनुष्यता की उस महिमा को, जिसे सब नहीं देख पाते, नाना रूपों में अंकित करके प्रस्तुत किया है।”
सारे बंगाल में हाहाकार मच गया। जीवनकाल में जो उनके विरोधी थे, उन्होंने भी मुक्त कण्ठ से उनकी प्रतिभा का अभिनन्दन किया। आधुनिक काल के उस प्रियतम लेखक के महाप्रयाण पर, जिसने बंगाली जीवन के आनन्द और वेदना को एकांत सहानुभूति से चित्रित किया, देशवासियों के साथ गम्भीर मर्म वेदना का अनुभव करते हुए कविगुरु रवीन्द्रनाथ ने शोकसंतप्त होकर लिखा-
जाहार अमर स्थान प्रेमेर आसने,
क्षति तार क्षति नय मृत्युर शासने ।
देशेर माटिर थेके निलो जारे हरि,
शेर हृदय ताके राखियेछे बरि ।
जिनका अमर स्थान प्रेम के आसन पर है, मृत्यु उन्हें कोई हानि नहीं पहुंचा सकती। भौतिक दृष्टि से उन्हें देश से जुदा कर दिया गया है, लेकिन उसके हृदय में उनका स्थान सदा बना रहेगा।
धन्य शरत्चन्द्र! तुम इतने दिन कहां थे? कहां से आ गये? सचमुच तुम्हारे समान एक लेखक की बड़ी आवश्यकता थी। सामाजिक व्याधि और दुर्नीति का चित्रण करने के लिए तुमने जिस प्रकार कलम पकड़ी, उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। तुमने कभी भी धर्म- मत के ऊपर ओछा व्यंग्य- विद्रूप नहीं किया । इसलिए कुप्रथाओं के ऊपर कुठारघात करने में कुंठित नहीं हुए। तुम्हारी रचनाएं मर्मस्पर्शी हैं। अन्तस्तल तक में प्रवेश कर जाने वाले तुम्हारे चरित्रों के साथ एकाकार हुआ जा सकता है। तुम्हारी एक और विशेषता यह थी कि उनका सुख-दुख पाठकों का सुख-दुख है। सब कुछ सहज है। कोई कष्ट - कल्पना नहीं। प्रतिदिन के जीवन से चरित्र लिये हैं।