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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023

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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले जाना होगा।”

सुरेन्द्रनाथ बोले, “नर्सिंग होम जाना निश्चित है। पर 31 से पहले सम्भव नहीं।”

एक क्षण सोचकर डाक्टर माके ने कहा, "मि० गांगुली, मेरा अनुरोध है कि किसी तरह आज ही इन्हें नर्सिंग होम में ले जाइए।"

"तब आप ही सहायता कीजिए !”

और डाक्टर माके ने एक नर्सिंग होम निश्चित कर दिया । सदर्न हास्पिटल रोड पर एक योरोपियन नर्सिंग होम था।

शरत् बाबू तैयार होने लगे। उस समय जो रुदन आरम्भ हुआ वह रुकता ही नहीं था। शरत् मानो संज्ञाहीन होकर चारपाई पर लेट गये। मामा ने मुकुल दे से कहा, “डाक्टर माके को बुला लीजिए। साथ जाना ठीक रहेगा।"

डाक्टर माके भी आ गये। शरत् बाबू तैयार थे। चलने लगे तो हिरण्मयी ने चरणोदक लिया। बोले, "बस हो गया।"

वे बाहर जाते तो कई-कई दिन वहीं रमे रहते। उसीको रोकने के लिए हिरण्मयी ने चरणोदक लेने की प्रथा चलाई थीं। कहा था, “जब तक चरणोदक न लूंगी खाना नहीं खाऊंगी।”

एक बार शरत् बाबू कई दिन बाद लौटे तो पाया कि हिरण्मयी भूखी-प्यासी बैठी है। तब से आना-जाना कम हो गया था। उस दिन चरणोदक लेने पर उन्होंने मानो कहा कि बस हो गया। अब नहीं लौटूंगा ।

उस योरोपियन नर्सिंग होम में वे नहीं रह सके। वहां सब कुछ सुन्दर था व्यवस्था और सुघड़ता भी 'खूब थी। सीढ़ियों पर भी कार्पेट बिछी थी। चारों तरफ विलायती साहब और मेम दिखाई देते थे। मिलने के समय जब उमाप्रसाद आये तो चकित रह गये। सन्देह हुआ कि बंगला देश छोड़कर कहीं विलायत में तो नहीं पहुंच गए है। कमरे का नम्बर देखकर अन्दर गये। खूब सजावट, कीमती सामान, सामने एक सादी खाट के ऊपर स्वच्छ बिछौने पर शरतचन्द्र लेटे थे। दुग्धफेनिल शथ्या थी वह, लेकिन जैसे ही रोगी के चेहरे पर दृष्टि गई तो वे चौंक पड़े। मुख पर पीलापन था और दृष्टि म्लान थी । उनको देखते ही शरत् बाबू ने कहा, "तुम आ गये, अब ठीक इलाज होगा।”

उमा बाबू ने पूछा, "कैसे हो?”

वह वाक्य पूरा भी नहीं कर पाये थे कि नर्स आ गई। हाथ में ग्लूकोज़ का पानी था। शरत् बाबू ने कहा, “अभी नहीं, बाद में दे देना।"

नर्स ने नहीं सुना। बोली, "लेने का समय हो गया है। लेना ही होगा।"

उसके बोलने चालने के ढंग में स्नेह का आभास तक न था । मानो यंत्रदानव हो, कठिन-कठोर। उसके इस व्यवहार से रोगी उत्तेजित हो उठा। तब उमाप्रसाद ने उसके हाथ से गिलास लेकर कहा, “आप कृपाकर बाहर चली जाएं मैं पिला दूंगा।”

नर्स क्रुद्ध होकर बाहर चली गई। उमा बाबू रोगी के पास आकर खड़े हो गये। उनका हाथ अपने हाथ में ले लिया। फिर सिर पर हाथ फेरने लगे। अभी भी निदारुण क्रोध से शरत् बाबू का क्लान्त शरीर कांप रहा था। उमा बाबू ने धीरे से कहा, “थोड़ा-सा पानी पी लो।”

शरत् बाबू उनके मुंह की ओर ताकने लगे। उसके बाद शांत स्वर में कहा, “अच्छा, पी लूंगा। किन्तु मुझे यहां से ले चलो, नहीं तो मैं स्वयं चला जाऊंगा।"

उमाप्रसाद बोले “मुझे भी लगता है कि आपका यहां रहना नहीं हो सकता। कल ही यहां से जाने का प्रबंध हो जाएगा।"

शरत् बाबू मुक्त कलाकार थे। बन्धन मे कैसे रह सकते थे और वहां थे बहुत से ६- कानून । । किसी तरह एक-दो सिगरेट पीने को आज्ञा मिल गई थी, परन्तु अफीम तो किसी भी तरह नहीं खा सकते थे। फिर भारतीय रोगी को देखने परिजनों और प्रियजनों की भीड़ न जाये तो प्रेम कैसे प्रकट हो! जो व्यक्ति अड्डे जमाने का आदी हो वह निश्चित समय पर कुछ निश्चित व्यक्तियों से मिल सके, यह वे कैसे सह सकते थे! बार-बार नर्स इस स्वच्छन्द व्यक्ति से युद्ध कर बैठती थी । अन्त में व्यवस्थापिका ने कहा, “रोगी को यहां रखना असम्भव है।”

वहां के डाक्टर ने भी परीक्षा करके कह दिया था, “कोई आशा नहीं है। यहां रखना व्यर्थ है।” सुरेन्द्रनाथ ने डाक्टर सुशील के नर्सिंग होम की चर्चा की थी। वहीं पर व्यवस्था की गई। वहां भी नियम-कानून थे, लेकिन रोगी को विशेष असुविधा न हो इसका ध्यान रखते हुए कई व्यक्तियों को आने की छूट थी । उमाप्रसाद ने पूछा, “आप यहां अपने पास किसको रखना चाहते हैं? उसीके अनुसार व्यवस्था कर दी जाएगी।”

थके हुए स्वर में शरत् बाबू ने उत्तर दिया, “किसी को नहीं चाहता, तुम तो हो ही। यहां तुम ही बैठो।"

उमाप्रसाद से उन्हें जितना स्नेह था, उतना ही उन पर विश्वास भी था। उस दिन हिरण्मयी देवी आईं तो उमाप्रसाद का परिचय देते हुए उनसे कहा, “ये उमाप्रसाद हैं। कोई बात हो तो अब इन्हीं से कहना।”

यह एक तरह से हिरण्मयी को उमाप्रसाद के हाथों में सौंपने जैसा था, क्योंकि अपने अन्त के बारे में तो वे आश्वस्त हो चुके थे। इसलिए मिलने के लिए आने वाले मित्रों की कोई सीमा नहीं थी। शान्ति निकेतन से नन्दगोपाल सेनगुप्त आये। पाया, आंखें कोटर में धंस गई हैं, जीवन की आशा क्षीण है। कहा, “इस तरह कौन तड़पना चाहता है?"

कुछ देर बातें करने के बाद बोले, “फिर भी यह जीवन व्यर्थ नहीं रहा। मैंने एक आवारा लड़के के रूप में जीवन आरम्भ किया और अन्त..... यह सब तो तुम जानते ही हो।"

जब कोई आता था तो मुख पर म्लान हंसी की रेखा खिंच जाती थी, मानो मन के पठल पर वे आशा की छवि आंकने का प्रयत्न करते हों। बचपन की याद करते, भागलपुर गंगा की कहानी याद करते, वर्षा के अन्धकार में पूरम्पार भरी गंगा को तैरकर पार कर जाने की कहानी । ऐसा लगता कि अमा निशा में वह और राजू दोनों नाव में बैठकर तूफानी समुद्र में अन्तहीन यात्रा पर निकल पड़े हैं। कितने वर्ष बीत गये और उन वर्षों ने जीवन को कितना कठोर, कितना निर्मम, फिर भी कितना प्रलोभनीय बना दिया.......

इन स्मृतियों के माध्यम से जैसे कमज़ोरी के क्षणों में अपनी शक्ति की याद करके साहस पाना चाहते हों। उमाप्रसाद ने कहा, “ठीक हो जाओ, इस बार आपके साथ जाऊंगा।"

शरत् बाबू हंस पड़े। बोले, “अरे तेरी आशा कम नहीं है। निश्चय ही गंगा जाऊंगा। साथ ही रहेगा, किन्तु वह मेरी अन्तिम यात्रा होगी।”

उमाप्रसाद ने कहा, "चुप रहो ! बहुत बातें करने की मनाही है।”

रात को डाक्टर की अनमुति से उमाप्रसाद उनके पास रहे। कुर्सी डालकर पास बैठ गये। रोगी की सेवा करने को विशेष कुछ नहीं था। कमरे के एक कोने में टिमटिमाता प्रकाश था। उमा बाबू की आंखों म नींद नहीं थी । एकटक वे उनकी ओर ताकते रहे। महामानव रोगशय्या पर था। वह मृत्युपथ का राही था शरीर रोग से थक गया था, लेकिन फिर भी वे पूरी तरह होश में थे। संध्या की नर्स की बदली हो गई थी, रात की नर्स काम पर आ गई थी। ऊंची एड़ी का जूता पहने खटखट शब्द करती हुई वह चार्ज ले रही थी। अस्फुट शब्द में शरत् बाबू ने कहा, “लंगड़ी नर्स आई है। " ने

अचरज से उमाप्रसाद ने पूछा, “लंगड़ी ! आप लंगड़ापन कैसे देख सकते हैं?"

मधुर हंसी हंसकर बोले, “देखता कैसे? कान से सुनकर सब कुछ समझा जा सकता है। दोनों पैरों के जूतों का स्वर एक जैसा नहीं है। देख लेना इसका एक पैर निश्चित छोटा है। "

तभी नर्स कमर में आई। उमाप्रसाद ने अच्छी तरह देखा । पाया कि पैर में साधारण-सा लंगड़ापन है। आसानी से पकड़ में नहीं आता। लेकिन रोगी की कैसी तीक्षा दृष्टि है ! मृत्यु के द्वार पर भी उसका हास नहीं हुआ।

शक्ति धीरे-धीरे क्षीण हो रही थी। किसी से मिलने का मन नहीं रह गया था। कहा, “सारे जीवन मनुष्य को प्यार किया है, पास बुलाया है, पर अब और नहीं। अब तो बाकी दिन चुपचाप लेटे रहना चाहता हूं।”

लेकिन आने वाले कब मानते थे। अचानक मित्रता का दावा लेकर एक अनजान व्यक्ति आये और अधिकार के साथ बोले, “केवल एक बार देखना चाहता हूं।”

बहुत समझाया, लेकिन वे किसी भी तरह नहीं मान रहे थे। आखिर उमाप्रसाद ने शरत से कहा, “वह आना ही चाहता है। तुम चुपचाप आंखें बंद करके पड़े रहो। कमरे में आते ही उसे विदा कर दूंगा।”

फिर आगंतुक से जाकर कहा, “रोगी सो गया है। ज़रा भी शब्द न होने पाये। देखते ही चले जाना।”

श्रद्धा से भरे-भरे उस नवागंतुक ने कमरे में प्रवेश किया और कपट निद्रा में सोये हुए रोगी की ओर ताका और फिर हाथ उठाकर मौन प्रणाम किया। वह यदि देख पाता तो पता लगता कि उस समय शरत् बाबू एक आंख को खोलकर देखने का प्रयत्न कर रहे हैं, जैसे कोई चुपके-चुपके बंद खिड़की का द्वार खोलकर देखता है। आगंतुक के चले जाने पर वे हंस पड़े। बोले, “खूब खेल खेला, किन्तु अब और नहीं। तुम मेरे पास आकर बैठो।”

प्यास खूब लगती थी। पीने के लिए पानी मांगा। परन्तु पीते समय बहुत कष्ट होता था, इसीलिए उमा बाबू ने कहा, “एकटूक खानी खान। (अर्थात् थोड़ा-सा ले लो।)”

अस्फुट स्वर में शरत् बाबू ने कहा, “एकटूक खानी।”

एक क्षण मौन रहे, फिर बोले, “देखते हो, एकटू खानी, एकटूई खानी, एकटूक खानी, इन शब्दों के अर्थों में कितना अन्तर है ? बंगला भाषा की क्या विचित्र सम्पदा है ! "

उमाप्रसाद ने लिखा है, “जीवन नदी के उस पार जाने वाला यात्री है। फिर भी साहित्य का पुजारी वाणी के मन्दिर में भक्ति का अर्ध्य दे रहा है सौंदर्य का प्यासा मन सजग है। प्रतिदिन फूल आते हैं, गुलाब के गुच्छे आते हैं। रोगी का कमरा आलोकित है, गन्ध से आमोदित है। फूल देखकर पूछा, 'कौन लाया है ? फूल बहुत प्यारे लगते है। गुलाब का जन्म सार्थक है । अन्तिम समय भी कैसा आनन्द देने आया है ! "

श्रीकान्त भी चतुर्थ पर्व में फूलों पर कैसा मुग्ध हो उठा था ! विशेषकर गुलाब पर, “और सबसे अधिक मन को लुभा लेने वाला था बीच का हिस्सा। रात्रि के अन्त में इस धुंधले आलोक में पहचाने जाते थे एक-दूसरे से भिड़े हुए झुण्ड के झुण्ड गुलाब के झाड़। जिनमें बेशुमार फूल थे और जो सहस्रों फैली हुई लाल आंखों से बगीचे की दिशाओं की ओर मानो ताक रहे थे.. "

लेकिन उन्हें केवल फूलों से ही सन्तोष नहीं हो पा रहा था । सौन्दर्य वृत्ति पूरी शक्ति के साथ जाग रही थी। मामा सुरेन्द्रनाथ से कहा, “बिलास से मैंने दो कानेरी पक्षी ला देने को कहा था। यदि ला सको तो बहुत अच्छा हो।”

पक्षी आ गये। पिंजड़े में बैठे हुए वे सुन्दर पक्षी निरन्तर मृदु-मधुर संगीत गाते रहते। डाक्टर ने उन्हें देखा तो बोले, “रात को इन्हें यहां रखने की आवश्यकता नहीं, सोने में बाधा होगी। हां, दिन के समय भीतर की खिड़की में चाहो तो रख सकते हो।”

शरत् ने हंसकर उत्तर दिया, “नींद जब आएगी तो उसे कोई रोक नहीं सकेगा। इनका गाना सुनने दो। बहुत मधुर शिक्षा देते हैं।”

फिर पक्षियों की ओर देखकर बोले, “ओ रे, इतना सुन्दर मत गाओ। एक दिन मेरी तरह ही तुम्हारा यह मधुर कण्ठ भी बन्द हो जाएगा।”

गम्भीर रात्रि थी, वे चुपचाप शान्त लेटे हुए थे। आंखें खुली थीं। पलकों में ज़रा भी नींद नहीं थी । उमा बाबू की ओर देखकर उन्हें पास बुलाया। उमाप्रसाद ने वहीं से कहा, “सो जाओ, आंखों को मूंद लो।”

लेकिन आंखें बन्द करते ही मिट मिट करते ताकते रहे। बोले, “पास आ जाओ, एक बात कहता हूं मेरे सीमान्त के एकान्त बन्धु !”

उमाप्रसाद पास गए। शरत् बाबू ने उनके सिर पर हाथ रखा। उमाप्रसाद ने कहा, “क्या मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं?”

वे बोले, “इसकी क्या बात है? मैंने तुम्हें हमेशा आशीर्वाद दिया है।"

इस तरह वह लम्बी रात बीत गई। किन्तु प्रभात का प्रकाश होने पर भी मन में आशा का प्रकाश नहीं हुआ। हालत इतनी गिर गई कि मुंह से खाना-पीना असम्भव हो गया। पेट में खाना न जाने पर मृत्यु निश्चित थी। इंजेक्शनों से भी लाभ नहीं हो रहा था। गुदा द्वारा भोजन पहुंचाये जाने पर वे स्वयं सहमत न थे। तब एक ही मार्ग शेष था कि पेट चीरकर ली द्वारा तरल पदार्थ अन्दर पहुंचाये जाएं।

उस दिन देखने के लिए विधानचन्द्र राय आये। पूछा, “क्या कष्ट है दादा ?” “कष्ट कुछ नहीं।”

“तब? ”

“प्यास-प्यास! मेरी छाती जुड़ गई है। मरुभूमि की छाती फाड़ देने वाली प्यास है, डाक्टर !"

वहां खड़े थे भीग आये। रूमाल से आखें पोंछते -पोंछते विधानचन्द्र राय बाहर चले आये। उनकी राय थी कि आपरेशन करना ही होगा। उन्होंने डा० ललितमोहन बनर्जी को मात्र चार सौ पचास रुपये लेकर आपरेशन को राज़ी कर लिया।

12 जनवरी का दिन निश्चित हुआ । नियमानुसार डाक्टर ने रोगी से लिखित आदेश चाहा। शरत् बाबू के मुख पर हास्य की स्मित रेखा फैल गई। बोले, “लिख दो, मैं उस पर सही कर दूंगा।”

कुमुदशंकर राय ने आदेश पत्र लिख दिया और शरत् बाबू ने उस पर अंग्रेज़ी में हस्ताक्षर कर दिये। फिर कहा, "ज़रा रुकी नीचे मैं स्वयं कुछ लिखना चाहता हूं।”

उस पत्र में लिखा था, “आपरेशन में जो संकट आ सकता है उसका समस्त दायित्व मैं अपने ऊपर लेता हूं और डाक्टर के० एस० राय से अनुरोध करता हूं कि वे आपरेशन करें।”

उस पर तारीख दी हुई थी 12 जनवरी, 1938 ई० । शरत् बाबू ने आड़े हस्ताक्षर करके फिर तारीख दे दी और नीचे एक वाक्य लिख दिया, "सम्पूर्ण होश और हौंसले के साथ।”

यह वाक्य भी अंग्रेज़ो में लिखा था, लेकिन उनका मस्तिष्क अब पुरी तरह से ठीक काम नहीं कर रहा था। इसलिए उन्होंने ‘सेंसिज़' और 'करेज' के स्पेलिंग गलत लिखे। यह सब लिखते समय उन्होंने अपूर्व आनन्द और तृप्ति का अनुभव किया। जिस फाउंटेन- पेन से उन्होंने ये अक्षर लिखे थे उसे उमाप्रसाद को देते हुए कहा, “इसे अपने पास रख लेना।”

फिर तृप्ति की निश्वास छोड़कर बोले, “अहा, बहुत आराम पाया । लिखने में बड़ा अच्छा लगा।”

जीवन-भर लेखनी के साथ उनका रक्त का सम्बन्ध रहा था। अंतिम विदा के समय यह मानो अत्यन्त प्रियजन की सबसे अंतिम स्पर्शानुभूति थी । एक दिन पूर्व उन्होंने अपना वसीयतनामा भी लिखवा दिया था। सब कुछ अपनी पत्नी हिरण्मयी देवी के नाम कर दिया। उनकी मृत्यु के बाद वह सब कुछ उनके भतीजे का होना था । कुछ रुपया इम्पीरियल बैंक में भी था. वह उन्होंने अपनी भतीजी के विवाह के लिए सुरक्षित कर दिया। उसके बाद यदि अ शेष रहे तो उसका उपयोग भाई के बच्चों के लिए ही होना था। छोटे भाई प्रकाशचन्द्र को बस सपरिवार 24, अश्विनीदत्त रोड वाले मकान में रहने का अधिकार मिला।

डाक्टर ललितमोहन बन्दोपाध्याय ने 12 बजे आपरेशन किया। पाया कि जिगर एकदम गल गया है, बचने की कोई आशा शेष नहीं है। उन्होंने घाव को वैसे ही बन्द कर दिया, जिससे वे शान्ति से अपनी अन्तिम यात्रा पर जा सकें। मुख से कुछ भी खाने का निषेध था। ट्यूब द्वारा तरल पदार्थ ही वे ले सकते थे। उसी की व्यवस्था कर दी गई।

आपरेशन के समय रोगी को रक्त की आवश्यकता होती है। प्रकाशचन्द्र ने अपना रक्त दिया, लेकिन वह यथेष्ट नहीं था। तब उनके पड़ोसी नकुलचन्द्र पति ने अपना रक्त दिया। शरत् बाबू नकुलचन्द्र की बराबर सहायता करते आये थे। लगभग पांच वर्ष पूर्व जब उसके पिता की मृत्यु हो गई थी, तब उन्होंने ही उसकी सार-संभाल की थी। जब कभी भी उस परिवार पर कोई संकट आया, उन्होंने पाया कि शरत्चन्द्र उनके पास हैं। वे उसे कलकत्ता आये थे और किसी से कहकर विश्वविद्यालय में नौकरी दिला दी थी। उसी का ऋणशोध करने के लिए मानो नकुलचन्द्र ने अपना रक्त दिया । अवस्था कुछ सुधरती-सी जान पड़ी। किसी-किसी के मन में आशा की किरण जाग आई।

लेकिन वह मात्र एक छल था । उनको बचाने के सारे प्रयत्न व्यर्थ प्रमाणित हुए। धीरे- धीरे वे संज्ञा खोने लगे। धीरे-धीरे मृत्यु उन्हें आगोश में लेने के लिए पास आने लगी। सांस धीमी होती होती फिर तेज़ हो जाती। उनके जीवनरूपी नाटक के अन्तिम दृश्य पर पर्दा बहुत धीरे-धीरे गिर रहा था। शुक्रवार, 14 जनवरी की रात के बाद यंत्रणा से वे कातर हो उठे। 

यंत्रणा....... भीषण यंत्रणा........

“क्या है शरत्?”

“पैं मर रहा हूं। देख नहीं पाता...... वे कौन हैं?".

वे रात-भर आर्तनाद करते रहे। चार बजे संज्ञाहीन हो गये। सात बजे आक्सीजन दी गई, पर व्यर्थ। उसी संज्ञाहीन अवस्था में वे कई बार चिल्लाये । उनके अन्तिम शब्द थे, “आमाके......आमाके.....दाओ, आमाके....दाओ। (मुझे दो, मुझे दो।”

लेकिन कौन उनको क्या देता? वे क्या चाहते थे? क्या उन्हें नहीं मिला? बंगालियों ने प्राणों से पात्र भरकर यश, अर्थ, प्रतिष्ठा सभी कुछ उनको दिया। तब क्या था, जिसके लिए इस जीवन- वैरागी आवारा कथाशिल्पी को इस जीवन में सांत्वना नहीं मिली और उससे परलोक में तृप्ति चाही? इस वाक्य के अनेक लोगों ने अनेक अर्थ लगाये हैं लेकिन सचमुच क्या उसका कोई अर्थ था? कुछ और भी शब्द उनके मुख से निकले थे। हो सकता है, उन्हें प्यास लगी हो और उन्होंने पानी की एक बूंद मांगी हो। हो सकता है, पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए उन्होंने मृत्यु को पुकारा हो । लेकिन यह सब कल्पना मात्र है।

उस दिन 16 जनवरी, रविवार, सन् 1938, तदनुसार 2 माघ, 1344 बंगाब्द और पौष पूर्णिमा का दिन था । सवेरे के दस बजे भारत के अपराजेय कथाशिल्पी, जनप्रिय साहित्यिक ने अन्तिम सांस ली। उस समय उनकी आयु थी इकसठ वर्ष चार मास । स्वयं एक दिन उन्होंने कहा था, “येरा जीवन अन्ततः मानो एक उपन्यास ही है। इस उपन्यास में सब कुछ किया, पर छोटा काम कभी नहीं किया। जब मरूंगा निर्मल खाता छोड़ जाऊंगा। उसके बीच स्याही का दाग कहीं भी नहीं होगा। " 

उस दिन कलकत्ता नगर में विशेष चंचलता दिखाई दी। दल के दल नर-नारी पथ-रास्ते पर इकट्ठे होकर स्वर्गीय साहित्यिक के लिए अन्तिम श्रद्धांजलि अप्रित कर रहे थे। दो घंटे के भीतर ही कई समाचारपत्रों ने विशेष संस्करण प्रकाशित किये। रेडियो से घोषणा होने लगी। एक उपन्यासकार के लिए इतनी वेदना का क्यक्त होना विरल ही है।

मोटर द्वारा शव घर ले जाया गया। सामने के दालान में एक पलंग पर भारतवर्ष के अमर कथाशिल्पी की देह अन्तिम दर्शनों के लिए रख दी गई। उनके असंख्य प्रेमियों के अतिरिक्त प्रमुख व्यक्तियों में, जो श्रद्धांजलि अप्रित करने के लिए अस्पताल या घर आये, कुछ ये थे - मेयर सनतकुमार रायचौधरी आनरेबल सत्येन्द्रचन्द्र मित्र, शरत्चन्द्र बसु, नलिनीरंजन सरकार, डाक्टर विधानचन्द्र राय, श्यामाप्रसाद मुकर्जी, रमाप्रसाद मुकर्जी, किरणशंकर बसु, तुषारकांति घोघ, हरिदास चट्टोपाध्याय, कैप्टिन एस० चटर्जी, उपेन्द्रनाथ गांगुली, सुधांशुशेखर चट्टोपाध्याय, मुरलीधर बसु, निर्मलचन्द्र 'चन्द्र', राजा क्षितीन्द्रदेव राय, ज्ञानांजन नियोगी, कुमार मणीन्द्रदेव राय, जनाब के० अहमद, श्री व श्रीमती मुकुलचन्द्र दे सतीश सिंह, रायबहादुर जलधर सेन, यतीन्द्रमोहन बागची, कालिदास राय, कुमुदरंजन मल्लिक, चारुचन्द्र बंदोपाध्याय, शैलजानंद मुखोपाध्याय और प्रबोधकुमार सान्याल।

पी० ई० एन० कलकत्ता शाखा की ओर से शव पर माल्यार्पण किया गया। शवयात्रा तीन बजकर पन्द्रह मिनट पर आरम्भ हुई। परिचालना का भार दक्षिण कलकत्ता कांग्रेस कमेटी ने ग्रहण किया। राष्ट्रीय पताका फहरा रही थी । जनता वन्दे मातरम् और शरत्चन्द्र का जयघोष कर रही थी। मार्ग में न केवल श्री सुभाषचन्द्र बोस और सर आशुतोष मुकर्जी के घरों पर बल्कि स्थान-स्थान पर अनेक संस्थाओं और अनेक कालेजों में शव पर मालायें चढ़ाई गई, लेकिन फिर भी यह एक साहित्यिक की अन्तिम यात्रा थी । किरणशंकर राय ने इस समूह को देखकर कहा, “क्या यही बंगाल की मनुष्यता है? क्या यही बंगाल की कृतइाता है? आज बंगाल का इतना बड़ा साहित्यिक, इतना बड़ा देशभक्त स्वर्गवासी हुआ, क्या यही उसकी शवयात्रा है? समस्त कलकत्ता केवड़ातत्ते के श्मशान में क्यों नहीं टूट पड़ा?"

और अन्त में जहां देशबन्यू चितरंजन दास, यतीन्द्रवमोहन, आशुतोष मुकर्जी, शासमल और यतीन दास आदि की नश्वर देह अग्नि को प्राप्त हुई वही 'श्रीकांत' के स्रष्टा, चिर दुखदर्दी, चिर व्रात्य, चरित्रहीन, आवारा शरत्चन्द्र के रोग-क्तिष्ट कंकाल को चिता पर रख दिया गया। छोटे भाई प्रकाशचन्द्र ने अन्तिम कृत्य सम्पन्न किये। मुख में अग्नि दी प्रकाशचन्द्र के बालक पुत्र ने ।

और इस प्रकार संध्या को पांच बजकर पैंतालीस मिनट पर केवड़ातल्ले में एक विराट जनसमूह के सामने उनका भौतिक शरीर अग्नि को सौंप दिया गया ! शेष रह गईं बेशुमार अटपटी यादें और रह गया उनका विपुल साहित्य, जो अन्याय के विरुद्ध उनके सतत् युद्ध का अमर साक्षी है, और साक्षी है उनके इस दावे का, “मैंने अनीति का प्रचार करने के लिए कलम नहीं पकड़ी। मैंने तो मनुष्य के अन्तर में छिपी हुई मनुष्यता की उस महिमा को, जिसे सब नहीं देख पाते, नाना रूपों में अंकित करके प्रस्तुत किया है।”

सारे बंगाल में हाहाकार मच गया। जीवनकाल में जो उनके विरोधी थे, उन्होंने भी मुक्त कण्ठ से उनकी प्रतिभा का अभिनन्दन किया। आधुनिक काल के उस प्रियतम लेखक के महाप्रयाण पर, जिसने बंगाली जीवन के आनन्द और वेदना को एकांत सहानुभूति से चित्रित किया, देशवासियों के साथ गम्भीर मर्म वेदना का अनुभव करते हुए कविगुरु रवीन्द्रनाथ ने शोकसंतप्त होकर लिखा-

जाहार अमर स्थान प्रेमेर आसने, 

क्षति तार क्षति नय मृत्युर शासने । 

देशेर माटिर थेके निलो जारे हरि,

 शेर हृदय ताके राखियेछे बरि ।

जिनका अमर स्थान प्रेम के आसन पर है, मृत्यु उन्हें कोई हानि नहीं पहुंचा सकती। भौतिक दृष्टि से उन्हें देश से जुदा कर दिया गया है, लेकिन उसके हृदय में उनका स्थान सदा बना रहेगा।

धन्य शरत्चन्द्र! तुम इतने दिन कहां थे? कहां से आ गये? सचमुच तुम्हारे समान एक लेखक की बड़ी आवश्यकता थी। सामाजिक व्याधि और दुर्नीति का चित्रण करने के लिए तुमने जिस प्रकार कलम पकड़ी, उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। तुमने कभी भी धर्म- मत के ऊपर ओछा व्यंग्य- विद्रूप नहीं किया । इसलिए कुप्रथाओं के ऊपर कुठारघात करने में कुंठित नहीं हुए। तुम्हारी रचनाएं मर्मस्पर्शी हैं। अन्तस्तल तक में प्रवेश कर जाने वाले तुम्हारे चरित्रों के साथ एकाकार हुआ जा सकता है। तुम्हारी एक और विशेषता यह थी कि उनका सुख-दुख पाठकों का सुख-दुख है। सब कुछ सहज है। कोई कष्ट - कल्पना नहीं। प्रतिदिन के जीवन से चरित्र लिये हैं।

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
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मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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भूमिका

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संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

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भूमिका : पहले संस्करण की

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कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

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तीसरे संस्करण की भूमिका

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लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

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" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

21 अगस्त 2023
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किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

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अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

21 अगस्त 2023
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भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

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अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
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नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

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अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
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मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

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अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
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शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

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अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
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तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

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अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
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शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

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अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
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इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

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अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

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अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
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शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

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अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
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उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

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अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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