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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023

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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ।

जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थिति और भी बिगड़ गई। मोतीलाल पागलों की तरह इधर-उधर घूमते रहते। फटी चट्टी, कीचड़ से भरा हुआ बदन, सिर पर बढ़ी हुई जटा, पेट में अन्न नहीं, हाथ में पैसा नहीं ऐसी स्थिति में स्वप्नविहारी मनुष्य पागल ही हो सकता है।

इन्हीं दिनों उनके चचिया ससुर अघोरनाथ भागलपुर आए। दोनों सहपाठी रह चुके थे। मोतीलाल उनसे मिलने ससुराल पहुंचे। खूब शीत पड़ रहा था। बदन पर वस्त्र नहीं था, अघोरनाथ पिता-पुत्र दोनों से खुश नहीं थे। लेकिन बचपन के साथी की ऐसी दशा देखकर वह द्रवित हो आये। पूछा, “तुम यह घर छोड़कर क्यों चले गए मोतीलाल?”

“अच्छा नहीं लगता था, छोटे काका ।”

“इतनी ठण्ड में कपड़ा क्यों नहीं पहनते?" "हैं नहीं।”

“शरत् कहां हे?””

“झगड़ा करके कहीं भाग गया है। "

“आजकल कुछ काम-वाम हे?”

"नही।”

“तब कैसे चलता है?”

मोतीलाल ने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया। आंखे डबडबा आई, टप टप आंसू गिरने लगे और वह जाने के लिए उठकर खड़े हो गए। तब बदन के वस्त्र उन्हें पहनाकर अघोरनाथ ने एक नोट उनके हाथ में थमा दिया। मोतीलाल के चेहरे पर मुस्कराहट खिल आई। पूछा, “कितने दिन है छोटे काका?"

हैं। " 

“कल ही चला जाऊंगा।”

मोतीलाल ने पांव की तरल लेकर कहा, “अब और मिलना नहीं होगा। उम्र पूरी हो गई

सचमुच ही मिलना न हो पाया। कुछ दिनों बाद मन में अजस्त्र प्यार भरे धरती के अयोग्य, स्वप्नदर्शी मोतीलाल विपरीत परिस्थितियों की ठोकरें खाते-खाते जर्जर होकर स्वर्गवासी हो गए।

पिता की मृत्यु का समाचार पाकर शरत् बहुत दुखी हुआ। वह उनसे लडकर आया था और यहां के इस बोहेमियन जीवन में कौन कह सकता है कि उसने उन्हें कितनी बार याद किया था, लेकिन अब जब वह नहीं रहे तो उसे उनके अगाध स्नेह की याद आने लगी। वह उसी क्षण भागलपुर के लिए रवाना हो गया।

उसकी अनुपस्थिति में मामा मणीन्द्रनाथ मे अन्तिम संस्कार किया था । श्राद्ध के अवसर पर भी उसी ने सहायता की। वह उसका सहपाठी था, परन्तु पुरातनपंथी गांगुली परिवार का सच्चा पुत्र भी था। उसे शरत् के जीवन से घृणा थी। फिर भी जिस व्यक्ति के श्राद्ध का प्रश्न था वह गांगुली परिवार का दामाद था। उसी के अनुरूप वह सम्पन्न होना चाहिए। इसीलिए उसने सहायता की।

मां पहले ही चली गई थी। पिता भी चले गए। बड़ी बहन दूसरे घर की थी। शेष रह गए थे, तीन छोटे भाई बहन और वह स्वयं उसे अपनी चिन्ता नहीं थी । चिन्ता थी इन अबोध बालकों की। छोटी बहन सुशीला को मकान मालकिन बहुत प्यार करती थी। उसने उसे अपने पास रख लिया। छोटा भाई प्रभास 11 12 वर्ष का था। शरत् उसे आसनसोल ले गया। वहां उसका एक मित्र रेलवे में काम करता था। काम सीखने के लिए प्रभास को वह उसी के पास छोड़ आया।

अब रह गया प्रकाश, उसे किसके पास छोड़े। कोई भी उसका अपना नहीं था। बहुत सोचा और अन्त में छोटे नाना अघोरनाथ की शरण उसने ली। वह शरत् से बहुत नाराज़ थे। लेकिन शरत् को नानी पर भरोसा था। न जाने कितनी बार उन्होंने शरत् की प्राणरक्षा की थी। प्रकाश को लेकर वह जलपाईगुड़ी पहुंचा। उसने नाना के चरण पकड़ लिए। स्वाभाविक था कि वह पहले कुछ नाराज हुए, लेकिन एक तो मोतीलाल की मृत्यु हो चुकी थी, दूसरे पत्नी का भी आग्रह था, वह इनकार नहीं कर सके।

छोटी नानी के कारण शरत् की एक बार फिर रक्षा हुई। नाना ने कुछ उपेक्षा के साथ और नानी ने कुछ प्यार के साथ उससे कहा, “अब घर का दायित्व तुम पर है। तुम्हें कुछ करना चाहिए।"

शरत् ने उत्तर दिया, “वही करने जा रहा हूं।"

भाई-बहनों की ओर से निश्चित होकर उसने बिहार को अन्तिम नमस्कार किया और जीविका की तलाश में कलकत्ता पहुंचा। नाते के कई मामा वहां पर रहते थे। उपेन्द्रनाथ से उसकी कुछ घनिष्टता भी थी। उसे भी साहित्य में अनुराग था। एक दूसरे मामा लालमोहन यहां वकालत करते थे। भागलपुर की कचहरी के मुकदमों की अपील कलकत्ता हाईकोर्ट में ही होती थी, लालमोहन वहीं काम करते थे। निश्चय हुआ कि इन्हीं के पास रहकर नौकरी की तलाश की जाए। एक वयस्क व्यक्ति के लिए खर्च पत्ते के वास्ते अभिभावकों के आगे हाथ फैलाने में कुण्ठा होती है। इस कुण्ठा से मुक्तिपाने के लिए शरत् हिन्दी की अर्जियों का अंग्रेज़ी में अनुवाद करने लगा। उसके बदले में उसे खर्च के लिए कुछ पैसे मिल जाते थे।

किन्तु आइन अदालत की भाषा से उसका कोई विशेष परिचय नहीं था, इसलिए इस काम में उसका मन अधिक दिन नहीं लग सक्ता था। इसके अतिरिक्त उसे घर की साग-सब्ज़ी भी लानी पड़ती थी। साधारण नौकरों जैसे और भी काम करने पड़ते थे। अपमान भी कम नहीं होता था। घर के अन्दर जाते समय भागलपुर की तरह यहां भी उसे खांसकर जाना होता था। एक बार वह मामा के ब्रुश से बाल ठीक कर रहा था कि अचानक वे वहां आ गये। उनके क्रोध की कोई सीमा नहीं थी। उन्होंने एक बार शरत् की ओर देखा और फिर उस ब्रुश को उठाकर बाहर फेंक दिया। मानो उन्होंने कहा, “जिस ब्रुश को तुम इस्तेमाल कर चुके हो वह मेरे योग्य नहीं रहा । "

इस घृणा और अपमान के कारण उसके दर्द की कोई सीमा नहीं थी। अक्सर सोचता था कि दूसरे के घर पर रहकर ऐसा अपमान पाने से तो सड़क, जंगल, रेगिस्तान कहीं भी रह जाना अच्छा है। उसकी बड़ी बहन कलकत्ते के पास गोविन्दपुर गांव में रहती थी । प्रयत्न किया कि उसके पास जाकर रह सके, गिरीन्द्रनाथ को लिखे एक पत्र से ऐसा लगता है कि वह वहां जाकर रहा भी था। परन्तु वहां भाइयों में झगड़े आरम्भ हो गये थे। इसलिए मुकर्जी महाशय इस स्थिति में नहीं थे कि उसके लिए कुछ कर पाते। उन्होंने पत्नी से कहा, "तुम तो जानती ही हो कि यह गांव है। शरत् का यहां रहना सम्भव नहीं हो सकेगा। गांव के लोग आलोचना करेंगे।”

“तो ...?” अनिला भाई के प्रति करुणा से भर उठी, कुछ कह न सकी।

मुकर्जी महाशय ने कहा, “उसे कहो, कहीं और चला जाए। खर्चे का प्रबन्ध मैं कर दूंगा।” 

उन्होंने कुछ सहायता की भी थी, परन्तु उसके लिए कलकत्ता में रहना असंभव हो गया। कहां जाए, यह सोचते-सोचते उसे अपने मौसा अघोरनाथ चट्टोपाध्याय की याद हो आई। वे रंगून में एडवोकेट थे। कई वर्ष पहले वे भागलपुर आये थे तो मोतीलाल से उन्होंने कहा था, “लड़के को कालेज में क्यों भेजते हो? मेरे साथ रंगून भेज दो। पढ़-लिखकर वकील बनने में देर नहीं लगेगी। भविष्य में काफी पैसा भी पैदा कर सकेगा।”

कई कारणों से तब उसका जाना नहीं हो सका था। परन्तु अब उसके सामने जीविका का प्रश्न था । कलकत्ता में बहुत से लोगों ने बर्मा के बारे में उसे नाना प्रकार की कहानियां सुनाई थीं। बताया था कि अमुक व्यक्ति बर्मा में नौकरी करके बहुत धनवान हो गया है। वहां राह-घाट में रुपये बिखरे पड़े हैं। केवल समेटने भर की देर है । जहाज़ से उतरते ही बंगालियों को साहब लोग कंधो पर उठा ले जाते है और नौकरी पर लगा देते हैं।

ये बातें सुन-सुनकर शरत् के भीतर का घुमक्कड़ उसे परेशान करने लगा। वह किसी तरह बर्मा पहुंचने के लिए लालायित हो उठा। इसी समय अचानक अघोरनाथ कलकत्ता आये और लालमोहन के पास ही ठहरे। शरत् को उन्होंने ऐसी-ऐसी रोमांटिक कहानियां सुनाई कि उसने निश्चय कर लिया — अब वह बर्मा ही जाएगा।

ऐसी अनिश्चित और विपरीत, परिस्थितियों में भी उसकी साहित्य साधना मौन रूप से चल रही थी। 'चरित्रहीन' का सृजन आरम्भ हो चुका था। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था, पर शायद उस बारे में कोई कुछ नहीं जानता था। सौरीन्द्र मोहन भी नहीं। भागलपुर का उसका यह पुराना मित्र यहीं रहता था। वह उससे बहुत प्रभावित था। प्रतिदिन संध्या के समय वह शरत के पास आता और फिर दोनों मित्र घूमने के लिए निकल पड़ते। अक्सर वे साहित्य चर्चा करते।

एक दिन सौरीन ने कहा, “शरत्! स्टार थियेटर में क्षीरोदप्रसाद का नाटक 'सावित्री' चल रहा है! तुम उसे अवश्य देखो। "

शरत् उसे देखने गया, लेकिन लौटकर उसने सौरीन्द्र को आड़े हाथों लिया, बोला, “बाप रे बाप, तुम्हें यह नाटक कैसे अच्छा लगा ? सत्यवान के मरने तक तो बहुत बुरा नहीं था। अमृत मित्र ने माण्डव्य का अभिनय भी अच्छा ही किया, लेकिन सत्यवान को जो रूप था, उसे देखकर लगता था कि वह सावित्री का छोटा भाई है। उसके मरने पर सावित्री ने मृत देह को गोद में लेकर गाना गाया। उस अवस्था में क्या कोई मनुष्य गाना गा सकता है?”

सौरीन्द्र ने उत्तर दिया, “उसको तुम ठीक स्वर-लय वाला गाना क्यों मानते हो? उस अवस्था में मनुष्य चिल्लाकर रोता है, 'अजी तुम कहां चले गये? मेरा क्या होगा?' इत्यादि- इत्यादि । शोक के उसी आवेग को नाटककार गान के छन्द के स्वर में प्रकट करता है।

शरत् ने कहा, “ऐसा होने पर भी क्या दो-दो गाने होंगे? एक ही बहुत था। मुझे यह सब बहुत बुरा लगा। गाने से तो करुण रस का श्राद्ध ही हो जाता है। ट्रेजेडी भी उत्पन्न नहीं हो सकती।”

मुजफ्फरपुर का उसका मित्र प्रमथनाथ भट्ट भी यहीं पाथुरेघाटा में राजा सौरीन्द्रमोहन ठाकुर के निजी सचिव के रूप में काम करता था। अक्सर उसके पास जाकर वह अपनी कृतियों पर चर्चा करता। इसके अतिरिक्त सुरेन्द्र और गिरीन्द्र भी अब कलकत्ता में ही पढ़ रहे थे। वे भी उससे मिलने आया करते थे। दिन सहसा गिरीन्द्र ने कहा, “शरत्, तुम 'कुन्तलीन पुरस्कार' के लिए गल्प क्यों नहीं लिखते? पच्चीस रुपये मिलते हैं।"

शरत् ने पूछा, "यह 'कुन्तलीन पुरस्कार' क्या है?"

गिरीन्द्र बोला, “स्वदेशी का युग है। सभी देशप्रेमी स्वदेशी उद्योगों को प्रोत्साहन देना चाहते हैं और उन्हें देना चाहिए । 'कुन्तलीन' एक सुगन्धित स्वदेशी तेल है। बहू बाज़ार के एच० बसु उसके निर्माता हैं। इसके प्रचार के लिए ही यह प्रतियोगिता चलाई गई है। नामी लेखक इसका निर्णय करते हैं। ये कहानियां पुस्तक रूप में भी छपती हैं।”

शरत् ने कहा, “स्वदेशी की बात तो ठीक है, लेकिन कहानी लिखना, और फिर पुरस्कार के लिए, मेरे लिए बिलकुल सम्भव नहीं है। इतने बड़े-बड़े लेखकों के सामने मुझे कौन पूछेगा ?”

गिरीन्द्र बोला, “तुम नही जानते। तुम बहुत अच्छी कहानियां लिखते हो। जरूर लिखो। तुम्हें पुरस्कार मिलेगा।”

लेकिन जैसा कि उसका स्वभाव था, वह तुरन्त ही इस बात को स्वीकार नहीं कर सका। मामा लोग आग्रह करते रहे और वह टालता रहा । आखिर अन्तिम दिन आ पहुंचा। गिरीन्द्र ने फिर कहा, “तुम कहानी क्यों नहीं लिखते? पुरस्कार नहीं मिलेगा तो क्या होगा? कहानी लिखो।”

अन्त में वह लिखने के लिए तैयार है गया। उस दिन उसने जो कहानी लिखी उसका नाम था 'मन्दिर'। उसे समाप्त करते न करते संध्या घिर आई, वह इसलिए गिरीन्द्र को लेकर तुरन्त 'कुन्तलीन' के कार्यालय में पहुंचा। व्यवस्थापक बसु महोदय ने कहा, “अन्तिम दिन के अन्तिम क्षण कहानी लेकर आये हो !”

शरत् बोला, “यदि समय नहीं है तो मैं कहानी लेने के लिए आग्रह नहीं करूंगा।”

बसु मुस्कराये। बोले, “नही, नहीं, अन्तिम क्षण तो है ही। लाओ, मैं कहानी ले लूंगा।” कहानी देकर शरत् ने स्वस्ति की सांस ली। लेकिन उस कहानी पर लेखक के रूप में उसने अपना नाम नहीं दिया था। उसे विश्वास नहीं था कि वह पुरस्कार पा सकेगा। न पाने पर जो लज्जा और व्यथा होती उसी से बचने के लिए वह कहानी उसने अपने मामा सुरेन्द्रनाथ के नाम से भेजी। उससे कहा, “मैंने यह कहानी तुम्हारे नाम से दी है। यदि भाग्य से पारितोषिक मिल जाए तो मोहित सेन द्वारा प्रकाशित रवीन्द्रनाथ की काव्य-ग्रन्थावली मुझे भेज देना।”

शायद यह उसके नाम का प्रभाव था कि जब प्रतियोगिता का फल प्रकाशित हुआ तो प्रथम पुरस्कार बंगाली टोला, भागलपुर के श्री सुरेन्द्रनाथ गांगोपाध्याय को मिला। मित्रों ने उसे हार्दिक बधाई दी, लेकिन उसका मन ग्लानि से भर उठा। वह जानता था कि वह इस यश और बधाई का अधिकारी नहीं हैं। लेकिन जो सचमुच अधिकारी था, वह शरत् तो तब तक कलकत्ता छोड़ चुका था। डेढ़ सौ गल्पों मे प्रथम स्थान प्राप्त करना कम सौभाग्य की बात नहीं थी, लेकिन उदासीन शरत् तो अपने को छिपाने में ही आनन्द पाता था।

रंगून जाने की बात भी उसने किसी से नहीं कही। उसे डर था कि उसके मित्र उसे जाने नहीं देंगे, लेकिन उसके सामने पूरा जीवन पड़ा था ! उसके भाई-बहन थे। उनका भार अब वह किस पर छोड़ सकता था। उसे किसी तरह जीविका अर्जन करनी ही चाहिए। केवल अपने एक मामा देवी को ही उसने अपने इस निश्चय की सूचना दी थी। उसके पास पैसे भी तो नहीं थे। किसी तरह उसने किसी से भाड़े के रुपये उधार लिये और एक दिन सवेरे चार बजे भवानीपुर के घर से स्टीमर घाट की ओर चल पड़ा। बस अकेला देवी ही उसके साथ था। भाड़ा चुकाकर उसकी जेब में एक-दो रुपये शेष रह गये। वह नहीं जानता था कि अब वह फिर भारत लौट भी सकेगा या नही इस पलायन के साथ-साथ उसके जीवन रूपी नाटक का एक अंक जैसे समाप्त हो गया। उसकी आयु छब्बीस वर्ष की हो चुकी थी । यौवन का सूय मध्याकाश में था, लेकिन जैसे ठण्डे और घने कुहरे ने उसे आच्छादित कर दिया था 'श्रीकान्त' की तरह दूसरे की इच्छा से दूसरे के घर में वर्ष के बाद वर्ष रहकर वह अपने शरीर को कैशौर्य से यौवन की ओर धकेलता रहा था, लेकिन मन को न जाने किस रसातल की ओर खदेड़ता रहा। उसका वह मन कभी लौटकर नहीं आया।

और इस प्रकार वह उच्छृंखल, आवारा, अर्द्धशिक्षित और धनहीन व्यक्ति किसी बंधुही - लक्ष्यहीन प्रवास के लिए निकल पड़ा।

मां की मृत्यु के बाद उससे कोई यह पूछने वाला भी नहीं था कि तुमने खाया भी है या नहीं। कोई उसकी राह देखता हुआ प्रतीक्षा नहीं करता था। किसी को यह जानने की इच्छा नहीं थी कि उसके पास पहनने को है या नहीं। अपनी इच्छा से वह अभिनय, गाने-बजाने, नाना खेलों, ताम्रकूट आदि के सेवन और सेवा में रस लेता था। यह सभी कार्य नाना के परिवार में न करने योग्य थे। इसलिए अपमान की मात्रा भी बड़ी थी। वह इस अपमान को न पहचानता हो, यह बात नहीं थी। परन्तु वह यह भी जानता था कि धर्मशास्त्र में जिस आचार संहिता की चर्चा है, वह सब युगों के लिए नहीं होती। जैसे युग पलटते हैं, वैसे ही संहिताएं भी पलटती हैं। इसलिए वह अपमान उसकी शक्ति बन गया था। इसीलिए उसके दिशाहारा मन के भीतर जो सौंदर्य और साहित्य सृष्टि के बीज अंकुरित हो चुके थे उनके विकास में यह जीवन सहायक हुआ। उसने दुख को केवल भोक्ता होकर सहा ही नहीं था, दृष्टा होकर देखा भी था।

दासता का अन्त करने वाले राष्ट्रपति लिंकन से उसकी तुलना बहुत संगत नहीं है, परन्तु अपने प्रारम्भिक जीवन में वे दोनों आश्चर्यजनक रूप से कुछ प्रवृत्तियों में समान थे। शारीरिक शक्ति प्रदर्शन, विनोदप्रियता, अध्ययन, कहानी कहने की कला और प्रेम की व्यथा का दोनों को खूब अनुभव था। लार्ड चार्लवुड ने लिखा है, “उसने अराजक विचारधाराओं वाले कुछ लेखकों का अध्ययन किया जिनमें टामसपेन, वाल्तेयर और बोलने प्रमुख थे....... मुर्गे लड़ाना, शारीरिक शक्ति प्रदर्शन, कुन्हाड़ी हथौड़ा या आरे के उपयोगी कौशल या नकल करने की मज़ाकिया प्रवृत्ति इन दिनों बदस्तूर जारी रही। उसमें एकान्तप्रियता या अपने में खो जाने की प्रवृत्ति पनप उठी।.....(प्रियतमा की मृत्यु) का लिंकन पर गहरा और चिरस्थायी प्रभाव पड़ा।

शर की प्रियतमा की मृत्यु तो नहीं हुई थी पर बिछोह सम्पूर्ण था। उस बिछोह का उसके जीवन पर गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ा। उसने कहीं लिखा है, “सच्चा प्रेम मिलाता ही नहीं दूर भी करता है।”

क्या वह इसीलिए तो दूर नहीं जा रहा था?

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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