गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उसकी सौंदर्य - भावना तनिक भी धूमिल ही हुई थी। वह जितना उच्छृंखल था उसका रहने का कमरा उतना ही व्यवस्थित था। उसके कमरे में रस्सी की एक खाट थी, एक फोल्डिंग मेज़ थी । ये दोनों चीजें उसे अपने मामा ठाकुरदास से मिली थीं। कुर्सी स्वयं राजू ने बनाकर दी थी। मेज पर उसके प्रिय लेखकों, हेनरी वुड, मेरी कोरेली, लिटन और डिकेंस की पुस्तकें सजी रहती थीं। लिखने का सामान सभी टिपटाप और सुन्दर था। लेकिन सौन्दर्य - भावना पेट की आग नहीं बुझा सकती। गृहस्थी कल्पना के सहारे नहीं चलती। वह तो ठोस द्रव्य चाहती है। और यहां उसका कोई सन्तोषजनक प्रबन्ध नहीं था। न उसे इसकी चिन्ता थी और न उसके पिता को। जो कुछ बेचने योग्य था वह सब बिक गया था। मित्र और रिश्तेदार कब तक सहायता कर सकते हैं! उधार मांगने की भी एक सीमा होती है। और वे जिस वर्ग के थे उसे भीख देने का कोई साहस नहीं कर सकता था। केवल बाग से तरकारी बटोर लाने से तो पेट नहीं भरता। इसलिए कभी-कभी उन्हें भगवान से प्रार्थना करनी पड़ती थी, “हे भगवान, कुछ दिन के लिए बुखार दे दो, जिससे दो जून खाने की चिन्ता न करनी पड़े।”
अपनी अकर्मण्यता को छिपाने के लिए भगवान की आड़ लेने पर भी दायित्व से नहीं बचा जा सकता। पिता और पुत्र दोनों गैरजिम्मेदार थे। शतुरमुर्ग जैसे रेत में सिर गड़ाकर शत्रु के अस्तित्व को झुठता देना चाहता है, वैसे ही पिता और पुत्र अपनी-अपनी सौन्दर्य- भावना में डूबकर भूख के अस्तित्व को नकारने की चेष्टा कर रहे थे। पुत्र साहित्य-साधना में व्यस्त था तो कल्पनाविहारी पिता इस स्थिति में भी नाना प्रकार के सुन्दर-सुन्दर पत्थर सहेजते रहते थे।
शरत् जानता था कि उन्हें वे सदा ताले कुंजी में रखते हैं। उन दिनों उसे पैसों की बहुत आवश्यकता थी। ऐसी हालत में भी दूसरों की सहायता करना उसने नहीं छोड़ा था। इसलिए एक दिन उसने सोचा, आखिर पिता इन पत्थरों का क्या करेंगे! क्यों न ये किसी के काम आयें।
बस उसने पिता की आंख बचाकर उन पत्थरों को निकाल लिया। लेकिन यह बात बहुत दिनों तक छिपी न रह सकी। गरीब के घर में केवल यही तो सम्पत्ति थी। मोतीलाल धक् से रह गये। घर में सबसे पूछा, अन्त में शरत् को बुलाकर पूछा, “छोरा, तूने वे पत्थर लिए हैं?”
शरत् ने उत्तर दिया, “हां, लिये हैं।”
"क्यों लिए?”
“क्योंकि मुझे पैसों की जरूरत थी, और वे पत्थर किसी काम नहीं आ रहे थे।”
पिता के क्रोध का पारावार नहीं रहा। असहाय और दुर्बल व्यक्ति को जब क्रोध आता है तो सीमा का अतिक्रमण कर जाता है। मोतीलाल ने शरत् की अत्यन्त कड़े शब्दों में भर्त्सना करते हुए कहा, “तुझे शर्म नहीं आती? जवान लड़का है। कुछ कर नहीं सकता? सब भूखे मर रहे हैं और तू है कि कुछ पैसों के लिए मेरे बड़े शौक से इकट्ठे किए गए पत्थरों को ले गया?”
स्तब्ध शरत् पिता को देखता रह गया । सन्तान के लिए उसके स्वप्नदर्शी पिता के हृदय में बड़ी दया माया थी। उसकी सारी शरारतों के बावजूद आज तक उन्होंने शरत् को कभी दो शब्द भी नहीं कहे थे। और इस समय उनकी कटुता की कोई सीमा नहीं थी। वह भी निर्जीव पत्थरों के लिए। उसके भावुक हृदय पर गहरी चोट लगी। उसी क्षण वह घर छोड़कर चला गया।
लेकिन इस गृहत्याग का कारण केवल इतना ही नहीं था। घर में एक दाई थी जो रसाई बनाती थी और छोटे भाई-बहनों की देख-भाल करती थी, लेकिन उनके प्रति उसका बर्ताव बहुत अच्छा नहीं था। वह उनको धमकाती ही नहीं, पीट भी देती थी। इस बात को लेकर एक दिन पिता-पुत्र में कहा-सुनी हो गई। पिता ने दाई का पक्ष लिया। घर की अवस्था को देखते हुए इस बात के लिए उनको दोष नहीं दिया जा सकता। उसी के सहारे तो गृहस्थी चल रही थी। लेकिन शरत् इस बात को स्वीकार नहीं कर सका। उसने अनुभव किया कि पिता दाई के अनुचित प्रभाव में हैं। लेकिन वह कर क्या सकता था? वह स्वयं भी तो इस स्थिति के लिए दोषी था । इसीलिए वह घर छोड़कर चला गया।
शरत् के किसी भी काम के पीछे कोई एक कारण नहीं रहता था। न हों तो गढ़ लिए जाते थे। वह स्वयं इस विद्या में दक्ष था। इसीलिए घर छोड़ने का एक कारण यह भी सुना गया कि उसकी प्रेमिका उसे चकमा देकर कहीं चली गई है और प्रेम की पीड़ा से व्याकुल उसने निश्चय किया है—“मैं उसे ढूंढूंगा।”
किसी भी कारण से हो, कुछ पाने की व्यथा से पीड़ित दिशाहारा शरत् एक बार फिर निरुद्देश्य यात्रा पर निकल पड़ा।