शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है कि कई वर्ष तक उसने चित्रकला की साधना की और बहुत-से चित्र बनाये थे।
तीन वर्ष बाद अपने घर में आग लग जाने की सूचना देते हुए, उसने एक पत्र में अपने प्रिय मित्र प्रमथनाथ भट्ट को लिखा था -- “एक और समाचार तुम्हें देना बाकी है। लगभग तीन वर्ष पहले हृदय रोग के लक्षण प्रकट हुए थे, तब मैंने तैलचित्रांकन शुरू किया था। पढ़ना छोड़ दिया था। इन तीन वर्षों में बहुत-से चित्र इकट्ठे हो गए थे। वे भी खत्म हो गये हैं। अंकन का केवल सामान भर रह गया है। मुझे क्या करना उचित है, यदि यह बता दो तो तुम्हारे कहने के मुताबिक चेष्टा कर देखूंगा। नावेल, हिस्ट्री या पेंटिंग कौन-सा शुरू करूं?"
लेकिन ऐसा लगता है कि इस अग्निदाह के बाद चित्रकला में उसकी रुचि फिर नहीं जागी। केवल महाश्वेता के अधूरे चित्र को, जो किसी तरह अग्निदाह से बच गया था, वह पूरा कर सका 2 पर इन दिनों उसने अनेक चित्र बनाये थे। उसके मित्र और सहकर्मी योगेन्द्रनाथ सरकार ने लिखा है, "एक दिन रविवार को जाकर देखा कि एक कपड़े के आवरण के नीचे स्टैण्ड पर एक चित्र टंगा है। पूछा, "यह क्या है शरत् दा?"
""हंसकर शरत् ने उत्तर दिया, 'अच्छा पहले तुम्हीं बताओ तो यह क्या है?"
" और क्या होगा, तस्वीर । '
“यह क्या बात हुई, तस्वीर छोड़कर वहां और क्या हो सकता है? तुम्हारी कल्पनाशक्ति की बात तो तब है जब बता सको कि यह तस्वीर किसकी है?"
“यदि मैं कहूं कि नारदमुनि की है तो?"
“वही तो है देख!'
“यह कहते-कहते शरत् ने चित्र पर से पर्दा हटा दिया। मैं तो अवाक् रह गया सचमुच यह उस बूढ़े का चित्र था। गांव के तालाब के पास अस्त-व्यस्त वृक्षसमूह, उसके बीच में टेढ़ा मेढ़ा रास्ता और उस रास्ते के पास वृक्ष की छाया में बैठा हुआ एक वृद्ध, बिलकुल नारदमुनि जैसा। वार्धक्य और दारिद्रय के ऊपर निराशा की गहरी छाया किस प्रकार छायी हुई थी, यह तो देखने पर ही जाना जा सकता था ।.......'
सरकार उस चित्र को देख ही रहे थे कि वह बूढ़ा आ पहुंचा। सीढ़ी पर पैर रखते ही उसने पुकारा, "देवता घर में हैं क्या?”
शरत तुरन्त नीचे गया। बड़े आदर और प्रेम के साथ उस वृद्ध को सहारा देकर ऊपर ले आया। और वह तस्वीर उसके सामने लाकर रख दी। देखते ही उस वृद्ध के कोटर में धंसे हुए नेत्र ज्योति में भर उठे। बोला, “देवता! आपके दिमाग में इतना कुछ है!"
शरत् ने कहा, “देखो नारद! तुम्हें एक काम करना होगा। बहुत कठिन नहीं है। रोज सवेरे मेरे घर आकर बैठना होगा। चाय आदि लेते हुए मुझे यह चित्र बनाते हुए देखना होगा।”
चाय की बात सुनका वृद्ध नारद के मुंह में पानी भर आया। शरत् तुरन्त अन्दर से एक प्याला चाय ले आया। मधुर स्वर में बोला, “बड़ा कष्ट होता है तुम्हें । लो चाय पियो ।” वृद्ध ने झिझकते हुए पूछा, “आप पी चुके देवता?”
शरत् ने उत्तर दिया, “अजी देवता किसका इंतजार करते हैं। तुम जल्दी से पियो, नहीं तो ठण्डी हो जाएगी।
सरकार ने पूछा, “यह शिक्षा तुमने किससे ग्रहण की?”
अपने कपाल की ओर इशारा करते हुए शरत् ने कहा, “इस विद्या का गुरु मैं स्वयं हूं।” चित्रकला का अध्ययन उसने स्वयं किया था । प्रकृति चित्रण से बढ़कर उसे मानव आकृति के चित्रण से प्रेम था। उसका कहना था कि शरीर विज्ञान का पूरा-पूरा ज्ञान प्राप्त किए बिना मनुष्य की आकृति का अंकन नहीं हो सकता। जब तक कोई आकृति हूबहू जीवन्त न बने तब तक उसे छवि कैसे कहा जा सकेगा। चिथड़े के ऊपर रंग से कुछ आकृति बना देने से तो छवि नहीं बन जाती। वह चित्रकार विन्सेण्ट वान गाग की बात दोहरा रहा था। उसने कहा था, “यदि किसी को चित्र बनाना सीखना है तो उसे मनुष्य के शरीर का पूरा ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। यदि वह नहीं जानता तो वह केवल नकलची बनकर रह जाएगा।” एक दिन उसने सरकार से पूछा, “अच्छा बताओ संसार में सबसे बड़ा चित्रकार कौन है?"
सरकार ने उत्तर दिया, 'रैफेल!"
“न-न”, शरत् से कहा, 'रैफेल से तो माइकेल एंजिलो बड़ा है और बड़े-बड़े आलोचक तिसियन को सबसे बड़ा चित्रकार मानते हैं।”
तिसियन के संबंध में स्वयं शरत् की भी बड़ी ऊंची धारणा थी। वे इतलावी चित्रकला को सबसे श्रेष्ठ मानते थे। उसके बाद आती थी फ्लेमीश, डच और बरतानवी चित्रकला । उसका एक मित्र था चित्रकार बाथिन। 'छवि' कहानी में शरत्चन्द्र ने बाथिन को अमर कर दिया है। उसी से शायद उसने कला की प्रेरणा ली थी। साधारणतया बंगाली अपने में ही सीमित रहते हैं। लेकिन शरत् अपवाद था। कार्यालय के अतिरिक्त भी उसका अबंगालियों से मेलजोल था। उन्हीं में चित्रकार बाथिन था । एक दिन सतीशचन्द्रदास को साथ लेकर वह उससे मिलने भी गया था। दास ने लिखा है, “संध्या घिर आई थी। सर्वहारा भारतीयों की 'काला - बस्ती' में न तो प्रकाश का अच्छा बन्दोबस्त था, न कोई अच्छी सड़क ही थी।
मदिर में आरती की शंखध्वनि भी नहीं सुनाई दे रही थी। मैंने कहा, 'शरत् दा, कहां ले जा रहे हो? क्या आखिर गुण्डों-बदमाशों के हाथ जान देनी होगी ?"
“शरत् दा बोले, नहीं, नहीं, मेरे साथ चले आओ। गुण्डे-बदमाशों का यहां कोई काम नहीं । '
“तुम कुछ भी कहो दादा ! ऐसी खराब जगह नहीं जाना चाहिए। हम गांव के आदमी हैं, लेकिन यह तो उससे भी बदतर है। वर्षा ऋतु में तो यहां चलना भी कठिन होता होगा । एक-एक ईंट टुकड़े-टुकड़े होकर बस मिट्टी के साथ अटकी हुई है।'
“शरत् दा ने अब कोई जवाब नहीं दिया। मैं विवश होकर उनके पीछे चलता रहा। लेकिन बस्ती के कुत्तों की बात मन में आते ही छाती धक-धक कर उठती । बर्मियों के भी दो-चार काठ के घर थे। मिट्टी के तेल के दीवों के प्रकाश में देखा जा सकता था कि उनके घर के आगे लेटे हुए कुत्ते नवागंतुकों को देखकर उन पर झपटने के लिए अपने मालिक के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वहां के कुत्ते इतने शैतान थे कि किसी प्रकार का शोर किए बिना पीछे से आकर मुंह मार देते। मुझे इसका अनुभव था। मैंने कहा, 'शरत् दा इस बस्ती कुत्ते बड़े शैतान ---
“बात पूरी होने से पहले ही शरत् दा बोल उठे, 'डरो नहीं, मेरे साथ चले आओ। पशु हैं इससे क्या! वे भी आदमी को पहचानते हैं।'
कुछ दूर जाकर शरत् दा, एक काठ के घर के सामने खड़े हो गये । उनको देखकर एक अल्पायु की बर्मी स्त्री ने अपनी भाषा में उन्हें पुकारा । उन्होंने भी उसी भाषा में उत्तर दिया और फिर वे लोग भीतर चले गये। वहां एक लड़की बैठी हुई थी। स्त्री ने उससे कुछ कहा और वह तुरन्त बाहर चली गई। कुर्सी पर बैठकर शरत् दा उस स्त्री से परम आत्मीयता से बातें करने लगे। कुछ ही देर बाद उस लड़की के साथ बाधिन बाहर से लौट आये। शायद बहुत दिनों के बाद भेंट हुई थी, इसलिए वे बहुत देर तक एक-दूसरे के प्रति शिकवा - शिकायत करते रहे। इसके बाद सत्कार आरम्भ हुआ। मेज़ पर नाना प्रकार के खाद्य पदार्थ सजाए जाने लगे। शरत् दा ने मुझसे चुपचाप पूछा, 'खाओगे?'
"मैं वह सब देखकर ही अवाक् रह गया था। क्या कहता ? जिनको खाने-पीने का कोई विचार नहीं, उनके साथ खाकर क्या जात देनी होगी?
"और मैंने अपनी जात बचाकर हिन्दुस्तानी रीति से चाय और बिस्कूट ही लिए । किन्तु शरत् दा अपने मित्र के परिवार के साथ एक ही मेज़ पर खाते रहे और हास्य विनोद करते रहे। बहुत रात हो जाने पर मैंने कहा, चलो न, बहुत देर हो जाएगी।'
'शरत् दा उठ खड़े हुए। बर्मी मित्र गली के मोड़ तक रोशनी लेकर उनके साथ आए । उसके लौटने के बाद मैंने पूछा, यह कौन है? कैसे इसके साथ दोस्ती हुई? लगता है एक ही दफ्तर में काम करते हैं?"
"शरत् दा ने कहा, 'नहीं, यह व्यक्ति कुशल चित्रकार है। घर में जितने चित्र तुमने देखे, वे सब इसी के बनाए हुए हैं। पेगू में इसके साथ परिचय हुआ था।'
"मै बोला, मित्र की दृष्टि से भेंट करने आए, यह तो अच्छा है, लेकिन दादा, इनके साथ खाया कैसे?"
"शरत् दा हंस पड़े बोले, पागल और किसे कहते हैं? यह भी तो हिन्दू जाति की शाखा है। ये लोग अत्यन्त धर्मभीरु हैं। संकोच इनमें उतना नहीं हैं दो-एक दिन का परिचय होते ही ये व्यक्ति को अपना बना लेते हैं। हिंसा, घृणा और संकोच इनके धर्म के विरुद्ध है।"
वैसे शरत् को यह गुण पैतृकदाय के रूप में भी प्राप्त हुआ था। मोतीलाल अच्छे चित्रकार हो सकते थे, लेकिन वह कोई भी काम जमकर नहीं कर सके । शरत् में उनके सारे स्वप्न मानो साकार होने की चेष्टा कर रहे थे। बाधिन की मित्रता से इस चेष्टा को बल मिला और उसने कई चित्र बनाये। उनमें सबसे सुन्दर चित्र था भहाश्वेता' का । उसे देखकर मित्रों ने कहा, "आप इसे प्रदर्शनी में क्यों नहीं भेजते?"
ख्याति और प्रदर्शन से सदा दूर भागने वाला शरत् मित्रों के अनुरोध को कैसे स्वीकार कर सकता था। लेकिन पारखियों की दृष्टि में वह चित्र सचमुच सुन्दर था। योगेन्द्रनाथ सरकार ने लिखा है, "आलोक और छाया का इस प्रकार सम्मिश्रण हुआ था कि उसे देखकर यह कहना असम्भव था कि यह किसी अनगढ़ चित्रकार का बनाया हुआ है। शरीर विज्ञान, पृष्ठभूमि और पर्सपेक्टिव की दृष्टि से उसमें कोई कमी नहीं थी....... पुरुष और प्रकृति की कला के मिलन के समान तपस्विनी महाश्वेता की आकृति बहुत ही सुन्दर उतरी थी। वर्षा के दिन नदी के तीर पर सब कुछ कुहरे में आच्छादित और अस्पष्ट । उस पार सघन मेघों से घिरा हुआ आकाश और भी अस्पष्ट, इधर एक ओर से लजीला सूर्य मानो ताक - झांक कर रहा हो। किनारे पर वृक्ष के नीचे मुक्तकेशा, सद्यः स्नाता तपस्विनी महाश्वेता, रुदन करती हुई प्रकृति की एक जीवंत प्रतिमा थी।"
छोटे-से घर के एक कोने में, जिसमें आलोक भी कम था, उस छवि को इस प्रकार रखा हुआ था कि किवाड़ खोलने पर जितना प्रकाश उस घर में आए उसी की सहायता से उस छवि को अच्छी तरह समझा जा सके। शरत् ने उसी अवस्था में सरकार महोदय को वह चित्र दिखाया। उन्होंने लिखा है सभी उन्नत कलाओं में उसी चिर सुन्दर आनन्दघन रसमूर्ति के ही विकास-साधन की चेष्टा है। वास्तव में कुछ उदार दृष्टि से देखने पर एकदम कुत्सित वस्तु भी सुन्दर जान पड़ती है। वह चित्र नग्न सौंदर्य का चित्र नहीं था। नग्न होने पर भी उसे कुत्सित नहीं कहा जा सकता था। क्योंकि उसके साथ पृष्ठभूमि में प्रकृति का दृश्य अत्यन्त चमत्कारपूर्ण था ।" वह चित्र उसे भी प्रिय था। मामा गिरीन्द्रनाथ को उसने लिखा था , "अभी पूरा नहीं हुआ। कहोगे तो कर दूंगा। मर तो घर-द्वार है नहीं, तुम्हारे है। मुझे यह (चित्र) बहुत प्रिय है इसलिए, जिससे नष्ट न हो, तुम्हारे पास रखना चाहता हूं।"
लेकिन इस साधना के बावजूद शरत् का चित्रकला का ज्ञान नितान्त एकांगी था । उसके बनाए हुए चित्र उच्च श्रेणी के नहीं थे। फिर भी चिनगारी उसके अन्तर में थी अवश्य । जब वह विख्यात लेखक के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका था तब कलकत्ता आर्ट कालेज के अध्यापक सतीशचन्द्र सिंह के घर उनका चित्रांकन देखते-देखते उसने 'मां और बेटे' का पेंसिल स्केच बनाया था और उनके बेटे को 'हर - पार्वती' का चित्र बनाते देखकर स्वयं भी 'हर-गौरी' का स्केच बना दिया था। वह चित्र आज भी कहीं सुरक्षित है।