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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023

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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले जैसी नहीं रही थी। वे अपने रचनाकाल के तीसरे युग में प्रवेश का चुके थे। उद्दाम भावुक्ता पीछे छूट रही थी। वे अब वैज्ञानिक विवेचन और जीवन के व्यापक कैनवास को चित्रित करने का प्रयत्न कर रहे थे। इस समय बहुत थोड़ी रचनाए प्रकाशित हुईं। दो-चार कहानियां और कुछ लेख । लेखों में 'वर्तमान हिन्दू- मुस्लिम समस्या' महत्त्वपूर्ण है, और कहानियों में 'हरि'लक्ष्मी' 'नवविधान' 2 और 'पथेरदाबी' अभी भी धारावाहिक रूप में प्रकाशित हो रहे थे।

'पथेर दाबी' के लिखे जाने का इतिहास बहुत रोमांचकारी है। लगभग तीन वर्ष पूर्व सर आशुतोष मुकर्जी के लड़के उनके पास आए थे। वे 'बंगवाणी' का प्रकाशन करते थे। उनकी बड़ी इच्छा थी कि शरत्चन्द्र की रचनाएं उनकी पत्रिका में प्रकाशित हों। इसके लिए श्यामाप्रसाद मुकर्जी, रमाप्रसाद मुकर्जी और व्यवस्थापक कुमुदचन्द्र राय चौधरी छः महीने तक शिवपुर के चक्कर काटते रहे। परन्तु उन्हें एक कोई रचना नहीं मिल सकी। पर एक दिन सहसा क्या हुआ कि बाहर के कमरे में बैठे रमा बाबू मेज पर रखे कागजी को उलट- पुलट रहे थे कि उन्होंने 'पथेर दाबी' का अंश देखा। कुल सात-आठ पृष्ठ होंगे, परन्तु उनके उत्साह की कोई सीमा नहीं थी। बोले, यह रही रचना।”

शरत् बाबू ने उधर देखा और कहा, "इसे तुम नहीं छाप सकोगे। तुम आशुतोष के बेटे हो ।” 

रमा बाबू ने पूछा, “क्यों नहीं छाप सकूंगा?”

शरत् बाबू बोले, "क्योंकि यह भीषण रचना है।"

रमा बाबू ने कहा, “मैं इसे छापूंगा। आपने इसे समाप्त कर लिया है?"

शरत् बाबू ने उत्तर दिया, “मैंने समझा था कि इसे छापने वाले नहीं मिलेंगे। इसीलिए आगे नहीं लिखा। तुम छापोगे तो लिखूंगा।”

उस दिन जो पन्ने मिले थे वे ही पहले अंक में छपे। 4 उनकी यह रचना इतनी विद्रोहात्मक थी कि सरकार की दृष्टि से नहीं बच सकी। जैसे-जैसे यह बंगवाणी' में प्रकाशित होती रही वैसे-वैसे सरकार इसका अनुवाद कराती रही। लेकिन उस समय पब्लिक प्रॉसिक्यूटर के पद पर थे, श्री तारकनाथ साधु । वे स्वयं साहित्यिक थे। शरतचन्द्र के प्रति उनके मन में बड़ी श्रद्धा थी। वे रमाप्रसाद मुकर्जी के भी मित्र थे। इसलिए उनको बराबर सूचना देते रहते थे।

यह उपन्यास वैसे तो कुल 24 किस्तों में छपा, लेकिन शरत् बाबू तो इतने मनमौजी और इतने अनियमित थे कि बार-बार आग्रह करने पर भी इसके छपने में तीन वर्ष और तीन महीने लग गए। एक-एक अंक की सामग्री के लिए कुमुद बाबू को ही नहीं स्वयं श्यामाप्रसाद मुकर्जी और रमाप्रसाद मुकर्जी को भी दस-दस बीस-बीस बार चक्कर लगाने पड़ते थे। उमाप्रसाद से शरत् बाबू का परिचय बाद में हुआ पर स्नेह सबसे अधिक उन्हीं से था। जब जाते तो बातों का अन्त ही नहीं आता था। इनको भी बहुत बार खाली हाथ लौटना पड़ता था।

प्रकाशक जानते थे कि सरकार 'पथेर दाबी' को पुस्तक के रूप में नहीं छपने देगी। इसलिए उन्होंने एक खेल खेला। इसकी अन्तिम किस्त पर भी उन्होंने 'कमश:' लिख दिया। पुलिस ने समझा उपन्यास अभी समाप्त नहीं हुआ है। और बीच में पुस्तक प्रकाशित हो गई।

पहले इस पुस्तक का प्रकाशन एम० सी० सरकार एण्ड सन्स के मालिक सुधीरचन्द्र सरकार करना चाहते थे। उन्होंने शरत् बाबू को इसीलिए एक हजार रुपये पेशगी दिए थे। लेकिन जब सुधीरचन्द्र ने पूरा उपन्यास पढ़ा तो डर गए। उन्होंने वकील से परामर्श किया। जांच करने के बाद वकील ने कहा, "ऐसे का ऐसा छापने पर राजद्रोह का मुकदमा निश्चय ही चल सकता है।"

सुधीरचन्द्र शरत् बाबू के पास गए और बोले, "मेरा वकील कहता है कि इस उपन्यास हूबहू छापने से हम विपत्ति में पड़ सकते हैं। उन्होंने पाण्डुलिपि में कई जगह निशान लगा दिए हैं। उन्हें यदि आप बदल दें तो अच्छा हो।”

सुनते ही शरत् बाबू बोल उठे, “मैं एक शब्द भी नहीं बदलूंगा। कॉमा तक नहीं बदलूंगा । इच्छा हो तो छापो, नहीं तो मत छापो ।”

"तब मेरे लिए छापना सम्भव नहीं होगा।"

“अच्छी बात है। मत छापो । तुम्हारा रुपया मैं लौटा दूंगा।”

उनके जाने के बाद रमा बाबू ने शरत् बाबू से कहा, “यदि कोई और नहीं छापना चाहता तो मैं इसे छापूंगा।”

शरत् बाबू बोले, “ठीक है, तुम ही छापो ।”

प्रकाशन की समस्या सुलझी तो प्रेस वालों ने उसे छापने से इनकार कर दिया । अन्त में बहुत प्रयत्न करने पर काटन प्रेस में छपाई का प्रबन्ध हुआ । सब काम इस प्रकार करने थे कि किसी को पता न लगे। उधर तत्कालीन एडवोकेट जनरल श्री बी०एल० मित्र सरकार को राजद्रोह का मुकदमा चलाने की सलाह दे चुके थे। अब यह प्रश्न उठा कि प्रकाशक के स्थान पर किसका नाम दिया जाए। प्रेस में कापी जाने तक किशोरमोहन भट्टाचार्य का नाम जाने की बात थी। उस समय उमाप्रसाद मुकर्जी ने कहा “यदि राजद्रोह का मुकदमा चला, तो बेचारा गरीब आदमी मारा जाएगा। इसलिए मुकदमे का व्यय हम ही वहन करेंगे, नाम भी हमारा ही जाएगा।”

सरकार मुकदमा चलाने को उत्सुक थी, लेकिन पब्लिक प्रॉसीक्यूटर तारकनाथ साधु ने कहा, "मुकदमा चलाने से पहले एक बार सोच लीजिए। इस पुस्तक के लेखक हैं बंगाल के लोकप्रिय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र और प्रकाशक हैं स्वनामधन्य आशुतोष मुकर्जी के छोटे बेटे उमाप्रसाद मुकर्जी।”

सरकार सहसा कुछ निर्णय नहीं कर सकी। जानती थी कि शरत् बाबू इतने लोकप्रिय हैं और आशुतोष मुकर्जी का इतना मान है कि उन पर मुकदमा चलाने से विद्रोह की सम्भावना हो सकती है। तब पुस्तक और भी लोकप्रिय होगी।

इसी सोच-विचार में कई महीने बीत गए और तभी अचानक पता लगा कि पुस्तक प्रकाशित हो गई है। - पहला संस्करण तीन हज़ार प्रतियों का छापा गया। जिनमें से एक हज़ार प्रतियां पहले ही दिन बिक गईं। शेष दो हज़ार को बिकते भी देर नहीं लगी। बीस दिन बाद जब सरकार ने यह निर्णय किया कि मुकदमा चलाने के स्थान पर पुस्तक को ज़ब्त करना उचित होगा, तब तक उसकी एक भी प्रति शेष नहीं रही थी। तलाशी का वारण्ट लेकर जब पुलिस अधिकारी 'बंगवाणी' के कार्यालय में पहुंचे तो उन्हें कुछ भी नहीं मिला। अधिकारी ने पूछा, " क्या यह संभव हो सकता है कि एक भी पुस्तक प्रेस में न हो ।” रमा बाबू ने उत्तर दिया, “तलाशी ले लीजिए।”

अधिकारी ने कहा, “नहीं, हम तलाशी नहीं लेंगे। आप पर हमें विश्वास है। लेकिन एक तो हमें ही दीजिए। आप जानते है कि हर नई छपनेवाली पुस्तक की तीन प्रतियां रजिस्ट्री करने के लिए भेजी जाती है।"

“जी हां, जानते हैं। तीस दिन के अन्दर ये प्रतियां भेजी जाती हैं, लेकिन आप तो बीस दिन के अन्दर ही आ गए?"

पुलिस अधिकारी ने कहा, “फिर भी एक प्रति तो हमें चाहिए ही । "

रमा बाबू ने इधर-उधर कई व्यक्ति भेजे। बड़ी कठिनता से छोटी बहन के घर एक प्रति मिल सकी। वही लेकर पुलिस वाले चले गए।

कई पुस्तक-विक्रेता ऐसे थे जिन्होंने कुछ पुस्तकें रोक ली थीं। बाद में उनकी एक-एक प्रति पचास रुपये तक में बिकी। मांग इतनी अधिक थी कि लोग एक प्रति के लिए 100 रुपये तक देने को तैयार थे। परन्तु दूसरा संस्करण निकालने का कोई प्रश्न नहीं था।

यह पुस्तक क्रांतिकारियों में र्भा बहुत लोकप्रिय हुई। वे इसे बाइबिल की तरह मानते थे। इस स्थिति का लाभ उठाकर एक व्यक्ति ने चोरी से एक बडे ही रद्दी कागज़ पर इसे छापा। वह अशुद्धियों से भरी हुई थी। बाज़ार में वह कभी नहीं आई। केवल क्रांतिकारियों में ही बांटी गई। शरतचन्द्र 'पथेर दाबी' का दूसरा भाग भी लिखना चाहते है । वे दिखाना चाहते है भारती भारत में आकर काम करती है। लेकिन यह सम्भव नहीं हो सका । 'बंगवाणी' में जब यह पुस्तक छप रही थी तो उसके सब अंकों को मिलाकर एक फाइल तैयार की गई थी। उसी फाइल को उमा बाबू ने एक दिन उनको देते हुए कहा, “अपने हाथ से इस पर कुछ लिख दीजिए।"

व्यथा-भरे कण्ठ से शरत् बाबू ने उत्तर दिया, "और क्या लिखूं? मैं लिखूंगा और सरकार ज़ब्त कर लेगी। पराधीन देश में सच्चे मन से साहित्य - साधना करने में व्यथा ही मिलती है।"

लेकिन फिर भी मोटा फाउंटेन पेन अपने हाथ में लेकर वे सोचने लगे। दो क्षण बाद बोले, "नहीं, कुछ नहीं लिख सकता । "

फिर धीरे-धीरे उनकी कलम चलने लगी। उसके पहले पन्ने पर उन्होंने बीच में उमाप्रसाद का नाम लिखा। उसके पास अपना नाम लिखा । नीचे अपनी जन्मकुण्डली अंकित की। जन्मतिथि और जन्म का समय भी लिखा। फिर 'मृत्यु' शब्द लिखकर उसके आगे का स्थान खाली छोड़ दिया। और पन्ने के ऊपर तिरछी पंक्ति में लिखा कुछ नहीं लिख सका। शरत् । 19 ज्येष्ठ, 1333 । 'पथेर दाबी' का दूसरा भाग यदि मैं पूरा नहीं कर सका तो मेरे देश में कोई और करेगा। यही कामना करता हू - शरत् खाते के अन्तिम पन्ने पर लिखा-

जे फूल ना फूटिते, झरिल धरणीते

नदी रुपये हाल धारा, जानि हे जानि ताओ हयनि हारा।

अस्फुट स्वर में यह गाना गाते-गाते वह खाता उन्होंने उमा बाबू को दे दिया। वे कुछ नहीं लिख सके। लेकिन जो थोडे से शब्द उन्होंने लिखे वे कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। उस समय की उनकी मन:स्थिति को और उनके चिन्तन को वे स्पष्ट करते हैं। दासता की व्यथा उनके साहित्यकार को कितना साल रही थी ।

इसके रचनाकाल में उमाप्रसाद से उनकी अनेक बार गम्भीर बातें होती थी। प्रकाशक के जेल जाने की बहुत सम्भावना थी । शरत् बाबू ने एक दिन उनसे पूछा, "यदि जेल हुई तो क्या करोगे?” उमा बाबू ने उत्तर दिया, "जेल होगी तो अकेले प्रकाशक को नहीं होगी, लेखक को भी होगी। दोनों एक साथ ही जेल में रहेंगे। आपके साथ ही जेल में रहना मेरा सौभाग्य होगा।”

शरत्चन्द्र ने सहसा गम्भीर होकर कहा, "ऐसा करना जिससे मैं अपने हुक्के को साथ ले जा सकूं।”

दोनों बडे जोर से अट्टहास का स्ठे लेकिन जेल किसी को भी नहीं हुई। केवल पुस्तक ही जप्त होकर रह गई। इस पुस्तक के लिखने में शरत् बाबू ने जिस कागज का प्रयोग किया था, वह अत्यन्त सुन्दर और लाइनदार था और उस पर शरत् बाबू का मोनोग्राम अंकित था कच्चे नारियल की आकृति के मध्य में लिखा शरत्। उतना ही मूल्यवान था वह पेन, जिससे उन्होंने इस उपन्यास को लिखा । 'बंगवाणी' के मालिकों ने विशेष रूप से उनके लिए ये दोनों वस्तुएं मंगाकर दी थीं। शरत् बाबू सदा ही सुन्दर कागज पर मुन्दर और दामी कलम से, छोटे-छोटे मोती जैसे सुन्दर अक्षर लिखा करते है। एक व्यक्ति ने उनसे पूछा, " शरत् बाबू, आप इतने कीमती कलम और कागज का प्रयोग क्यों करते हैं?"

शरत बाबू ने तुग्न्न जवाब दिया, “मां सरस्वती ने मुझे प्रतिभा का जो इतना बडा वरदान दिया है उसकी क्या न्दी कागज पर लिखकर नष्ट कर दूं?"

जिम दिन वह पुस्तक प्रकाशित हुई उससे पहली रात शरत्चन्द्र, मुकर्जी लोगों के घर पर ही रहे। रागि गत जमाका उमारामाद से वे नाना प्रकार की बातें करते रहे। सवेरा हुआ। इससे पूर्व कि मुद्रित पुस्तन्स पेम मे भाग ?, उमा बाबू उनके हाथ की लिखी हुई पूरी पाण्डुलिपि ले आए। उन्हें बडा आश्चर्य हुआ। वाले इम तुमने सहेजकर रखा हुआ है। तुमने इतना किया! मुझे दो, मैं तुम्हारे लिZ इम पर कुम्दृ लिखे देता हूं।"

और पाश्दृलिपि लैकर उसके पहले पन्ने पर उन्होंने सुन्दर अक्षरों में लिखा - बीजू, मेरे हाथ की लिखी हुई पुस्तक इसको छोडकर और नहीं है। यह तुम्हारे पास ही रहेगी, ऐसा होने पर मैं निश्चिन्त रहूंगा।- दादा

भाद्र, 1333 

(अगस्त, 1926 ई०)

इस पाहुलिपि के शीर्ष स्थान पर 'पथेर दाबी' लिखा है और अन्त में लिखा है - श्री शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय सामताबेड 10 चैत्र, 1333(24 मार्च, 1926 ई०)

जिस समय 'पथेर दाबी को सरकार ने ज्ज्ञ किया, उसी समय रेवरेण्ड जे० टी० सेण्डरलैण्ड रचित 'इण्डिया इन बांडेज' पुस्तक भी जब्त की गई थी। इसके प्रकाशक थे, 'माडर्न रिव्यू' के संचालक स्वनामधन्य रामानन्द चट्टोपाध्याय। उन्होंने पुस्तक की जल्दी के विरुद्ध दावा दायर कर दिया था। शरत् बाबू ने सोचा कि क्या वे भी ऐसा नहीं कर सकते, लेकिन उनके प्रिय मित्र श्री निर्मलचन्द्र 'चन्द्र' ने उनसे कहा, मैं आपको ऐसा करने की सलाह नहीं दूंगा । "

निर्मलचन्द्र जानते थे कि अदालत पर सरकार का प्रभाव है। वह कभी भी सरकार को हारने नहीं देगी। उनकी बात सही प्रमाणित हुई। रामानन्द बाबू मुकदमा हार गए। शरत् बाबू भी हार जाते। हारना स्वाभाविक ही था, क्योंकि इस पुस्तक के कारण सरकार को बहुत परेशानी उठानी पड़ी थी। उस वर्ष की सरकारी पुस्तक में 'पथेर दाबी' के संबंध में लिखा है, "इस पुस्तक के लगभग हर पृष्ठ पर राजद्रोह का प्रबल प्रचार किया गया है।”

पुलिस कमिश्नर ने शरत् बाबू से कहा था, “शरत् बाबू, जानते हैं, 'पथेर दाबी' लिखकर आपने हमारी कितनी हानि की है? जहां भी हम क्रांतिकारियों को पकड़ते हैं, वहीं देखते हैं कि हरेक के पास दो पुस्तकें हैं, एक गीता और दूसरी 'पथेर दाबी । आपकी 'पथेर दाबी' ने क्रांतिकारियों को पागल बना दिया है।”

'पथेर दाबी' ने क्रांतिकारियों को ही नहीं तमाम बंगाल को पगाल बना दिया था। उसकी लोकप्रियता की कल्पना नहीं की जा सकती। शरत् बाबू के उत्साह का भी कोई अन्त नहीं था । यदि सरकार पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता तो इसके विरुद्ध जन- आन्दोलन तो किया ही जा सकता है, लेकिन यह आन्दोलन रवीन्द्रनाथ ठाकुर की सहायता के बिना सम्भव नहीं हो सकता। उन्होंने गुरुदेव को पत्र लिखा । तुरन्त उत्तर आया, चुस्तक की एक प्रति भेज दो। पढ़कर ही कुछ कह सकूंगा।”

शरच्चन्द्र ने तुरन्त पुस्तक भेज दी। उसको पढ़कर रवीन्द्रनाथ ने अपना मत व्यक्त करते हुए एक लम्बा पत्र लिखा-

कल्याणयेष

तुम्हारा 'पथेर दाबी ' पढ़ लिया। पुस्तक उत्तेजक है, अर्थात् अंग्रेजी शासन के विरुद्ध पाठकों के मन को अप्रसन्न करती है। लेखक के कर्तव्य के हिसाब से वह दोष नहीं हो सकता। क्योंकि लेखक अंग्रेजी राज को खराब समझता है। वह चुप नहीं बैठ सकता। लेकिन चुप न बैठने पर जो विपद पैदा हो सकती है वह भी उसको स्वीकार करनी चाहिए। अंग्रेजी राज क्षमा कर देगा, इस अधिकार को लेकर हम उसकी निन्दा करें, यह भी कोई पौरुष क बात नहीं है। मैं नाना देशों में धूम आया हूं और जो कुछ जान सका हूं उससे यही देखा है कि एकमात्र अंग्रेजी राज को छोड़कर स्वदेशी या विदेशी प्रजा के मौखिक या व्यावहारिक विरोध को और कोई भी राज्य उतने धैर्य के साथ सहन नहीं करता ।

यदि हम अपनी ताकत पर नहीं, बल्कि दूसरे की सहिष्णुता की बदौलत विदेशी राज्य के संबंध में यथेच्छ व्यवहार दिखाने का साहस दिखाते हैं तो, वह पौरुष की विडम्बना मात्र है। उसमें अंग्रेजी शासन के प्रति र्हा श्रद्धा झलकती हे न कि अपने प्रति। राजशक्ति में पशुबल है, यदि कर्तव्य के आधार पर उसके विरुद्ध खडा भी होना पड़े तो दूसरे पक्ष में चारित्रिक जोर का होना यानी आघात सहने का जोर होना आवश्यक है। पर हम अंग्रेजी शासन से उस चारित्रिक जोर की मांग करते हैं, अपने से नहीं। उससे प्रमाणित होता है कि हम मुंह से चाहे जो भी कहें पर अपने अनजान में हम अंग्रेजों को गालियां देकर हम उनसे सजा की आशंका नहीं करते । शक्तिमान की दृष्टि से देखा जाए तो तुम्हें कुछ न कहकर सिर्फ तुम्हारी पुस्तक को ज्ज्ञ कर लेना लगभग क्षमा करना है। कोई भी प्राब्य या पाश्चात्य विदेशी शासन ऐसा न करता। हम भारतीयों के हाथो मैं राजशक्ति होती तौ हम क्या करते, इसका अनुमान हम अपने जमींदारों और भारतीय रजवाड़ों के व्यवहार से लगा सकते हैं।

पर इसीलिए लेखनी बन्द थोड़े ही करनी है। मैं भी यह नहीं कहता। मैं कह रहा हूं कि सजा स्वीकार करके ही लेखनी चलानी पड़ेगी। जिस किसी देश में राजशक्ति के साथ विरोध हुआ है, वह ऐसा ही हुआ है। राजशक्ति का विरोध करते हुए आराम से नहीं रहा जा सकता। इस बात को असदिग्ध रूप से जानकर ही ऐसा करना है। क्योंकि यदि तुम पत्रों में उनके राज्य के विरुद्ध लिखते तो उसका प्रभाव बहुत थोड़ा और बहुत कम समय के लिए होता । किन्तु तुम्हारे समान लेखक गल्प के रूप में ऐसी क्या लिखें तो उसका प्रभाव सदा ही होता रहेगा। देश और काल दोनों ही की दृष्टि से उसके प्रचार की कोई सीमा नही हो सकती। कच्ची उम्र के बालक-बालिकाओं से लेकर बूढ़ी तक पर उसका प्रभाव होगा। ऐसी अवस्था में अंग्रेजी राज्य यदि तुम्हारी पुस्तक का प्रचार बन्द न करे तो उससे यही समझा जा सक्ता है कि साहित्य में तुम्हारी शक्ति और देश में तुम्हारी प्रतिष्ठा के संबंध में उसे को? ज्ञान नही है। शक्ति पर जब आघात किया है, तो प्रतिघात सहने के लिए तैयार रहना ही होगा। इसी कारण से उस आघात का मूल्य है। आघात की गुस्ता को लेकर विलाप कररने से उस अघात के मूल्य को एक बार ही मिट्टी कर देना होगा । इति । 27 माघ, 1333 (10 फरवरी, 1927 ई०)

तुम्हारा 

रवीन्द्रनाथ ठाकुर

पत्र की भाषा, यद्यपि बहुत युक्तियुक्त है और परोक्ष में उन्होंने शरतचन्द्र की प्रशंसा ही की, परन्तु फिर भी उन दोनों के सोचने के दृष्टिकोण के अन्तर को यह पत्र स्पष्ट करता है। इसे पढ़कर शरत् बाबू की व्यथा का पार नही था । प्रतिवाद के अधिकार को वह किसी भी तरह छोड़ने को तैयार नहीं थे। बार-बार सोचते थे कि रवीन्द्रनाथ ने 'पथेर दाबी' पढ़कर अंग्रेजों की सहिष्णुता की प्रशंसा की है। मेरी पुस्तक पढ़कर यह मत दिया है कि इसमें अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की सम्भावना है। हमारे देश के कवि के समीप यदि वे इतने बड़े हैं। तो फिर स्वाधीनता का यह आन्दोलन क्यों? तब तो सबको मिलकर अंग्रेजों को कन्धे पर चढ़ाकर नाचते हुए धूमना चाहिए। हाय कवि, यदि त्राग् जानते कि तुम हमारी कितनी बड़ी आशा, क्लिना बड़ा गर्व हो तब निश्चय ही यह बात नहीं कह सकते थे। कवि की दृष्टि में मेरा ‘पथेर दाबी' कितनी बड़ी लांछना का पात्र हुआ, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था। क्या मन लेकर मैंने यह किताब लिखी थी, यह मैं किसी को नहीं समझा सकूगा ।

इसी उत्तेजना में इस पत्र के उत्तर में उन्होंने कवि को जो पत्र लिखा उसके शब्द शब्द से आजा श टपका पड़ता है। संयम जैसे हाथ से छूट गया है। अच्छा यही था कि यह पत्र उन्होंने तुरन्त ही नहीं भेज दिया। शायद मन ही मन उन्हें ऐसा लगा जैसे उन्होंने यह पत्र लिखकर गलती की है। उन्होंने लिखा था-

श्रीचरणेषु,

आपका पत्र पाया। बहुत अच्छा, वही हो। यह पुस्तक मेरी लिखी हुई है, इसलिए दुख तो म् (झे है, पर कोई खास बात नहीं है। आपने जो कर्तव्य और उचित समझा उसके विरुद्ध तो मेरा कोई अभिमत है और न कोई अभियोग, पर आपकी चिट्ठी में जो दूसरी बातें आ गई हैं, उस अभिमत में मेरे मन में दो-एक प्रश्त हैं और कुछ वक्तव्य भी हैं । यदि तुर्की ब  तुर्की लगे तो वह भी आपकी ही शराफत के कारण समझिए। आपने लिखा है, 'अंग्रेजी राज्य के प्रति पाठकों का मन अप्रसन्न हो उठा है।' होने की बात थी, किन्तु यदि मैंने ऐसा किसी असत्य प्रचार के द्वारा करने की चेष्टा की होती तो लेखक के रूप में उससे मुझे लज्जा और अपराध दोनो ही महसूस होते । किन्तु जान-बूझकर मैंने ऐसा नहीं किया। यदि ऐसा करता तो वह राजनीतिज्ञों का धन्धा होता । कृति न होती । नाना कारणों से बंगला में इस तरह की पुस्तक किसी ने नहीं लिखी । मैंने जब लिखी है और उसे छपवाया है तो सब परिणाम जानकर ही किया है।

जब बहुत मामूली कारणों से भारत में सर्वत्र लोगों को बिना मुक्तमें के अन्यायपूर्वक या न्याय का दिखावा करके कैद और निर्वासित किया जा रहा है तौ मुझे छुट्टी मिलेगी यानी राजपुरुष मुझ क्षमा करेंगे यह दुराशा मेरे मन में नहीं थी, आज भी नहीं है। किन्तु बंगाल देश के लेखक के हिसाब से पुस्तक में यदि मिथ्या का आश्रय नहीं लिया है एवं उसके कारण ही यदि राजरोष भोग करना होगा तो करना ही होगा। चाहे वह मुंह लटकाकर किया

या रोकर किया जाए। किन्तु क्या इसस प्रतिवाद करने का प्रयोजन खत्म हो जाता है? राजबन्दी जेल में दूध-मक्खन नही पाते। चिट्ठी लिखकर पत्रों में शोर करने में मुझे ल आती है, किन्तु मोटे चावल के बदले में जेल के अधिकारी यदि घास का प्रबन्ध करते हैं तब से सक्ता है लाठी की चोट से उसे चबा सकूं किन्तु जब तक घास के कारण गला बन्द नहीं रन नान' तब तक उसे अन्याय कहकर प्रतिवाद करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूं ।

किन्तु पुस्तक मेरे अकेले की ही लिखी हुई है, इसलिए मेरा अकेले का ही दायित्व है, नो कुछ कहना मैंने उचित समझा वह कहा या नहीं, असली बात तो यही है । अंग्रेजी राज्य की क्षमाशीलता के प्रति मेरी कोई निर्भरता नहीं है। मेरी सारी साहित्य सेवा इसी प्रकार की है जो मैं ठीक समझता हूं वही लिखता हूं।

मेरा प्रश्न यह है कि अंग्रेजी राज्यशक्ति द्वारा उस पुस्तक को जूब्द करने का औचित्य यदि है तो पराधीन भारतवासियों द्वारा प्रतिवाद करने का भी वैसा ही औचित्य है। मेरे प्रति आपने यही अविचार किया है कि मैं दण्ड के भय से प्रतिवाद करना चाहता हूं और उस प्रतिवाद के पीछे ही अपने को बचाना चाहता हूं। किन्तु वह वास्तविकता नहीं है। देशवासी यदि प्रतिवाद नहीं करते तो मुझे करना होगा, लेकिन वह सब शोर मचाकर नहीं करूंगा, एक और पुस्तक लिखकर करूंगा।

आप यदि केवल मुझे यह आदेश देते कि इस पुस्तक का प्रचार करने से देश का सचमुच अमंगल होगा तो मुझे सांत्वना मिलती । मनुष्य से भूल होती है। सोच लेता कि मुझसे भी भूल हुई है। मैंने किसी रूप में विरुद्ध भाव लेकर आपको यह पत्र नहीं लिखा । जो मन में आया आपको स्पष्ट रूप से लिख दिया। मैं सचमुच रास्ता खोजता हुआ धूम रहा हूं इसलिए सब कुछ छोड़छाड़कर निर्वासित हो गया हूं। इसमें कितना पैसा, कितनी शक्ति, कितना समय बर्बाद हुआ वह किसी को बताने से क्या ? आपके अनेक भक्तों में मैं भी एक हूं इसलिए बातचीत से या आचरण से आपको तनिक भी कष्ट पहुंचाने की बात मैं सोच भी नहीं सकता । इति ।

2 फान्तुन, 1333

सेवक श्री _शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय

यह पत्र लिखने से पूर्व शरत् बाबू ने उमाप्रसाद मुकर्जी को भी एक पत्र लिखा था। उसमें उन्होंने अपनी वेदना को छिपाया नहीं था। उसे पढ़कर उमा बाबू सामताबेड आए। उन्होंने यह पत्र पढ़ा और निर्णय किया कि इसे गुरुदेव के पास नहीं भेजा जा सकता। उस पत्र को उन्होंने अपने पास रख लिया। दो दिन बाद शान्त होने पर स्वयं शरत्चन्द्र ने भी कहा, 'यह वाद-विवाद ठीक नहीं। मेरी चिदठी भेजने की आवश्यकता नहीं। उन्होंने रमा

से यह भी कहा कि वे इन पत्रों की चर्चा किसी से न करें। लेकिन वे स्वयं ही चुप न रह सके। अनेक सभाओं और अनेक पत्रों में इसकी चर्चा उन्होंने की है। श्रीमती राधारानी देवी को उन्होंने लिखा-

एक बात तुमको बताता हूं। किसी से कहना मत। 'पथेर दाबी' जब जूझ ह गया था तब रवि बाबू के पास जाकर कहा कि यदि आप प्रतिवाद करेंगे तो काम होगा । पून्त्री के लोग जान सकेंगे कि सरकार किस तरह साहित्यिकों के साथ विचार करती है । अवश्य ही मेरी किताब संजीवित नहीं होगी। अंग्रेज ऐसे पात्र नहीं हैं। तब भी संसार के लोग जान तो लेंगे । उनको किताब दे आया। उन्होंने जवाब में लिखा, पृथ्वी में घूमकर देखता है । अंग्रेजों की राजशक्ति के समान सहिष्णु और क्षमाशील राजशक्ति और नहीं है । तुम्हारी पुस्तक पढ़कर पाठकों का मन अंग्रेजी सरकार के प्रति अप्रसन्न हो उठेगा। तुम्हारी पुस्तक को जुष्ठ करके तुमकी कुछ नहीं कहा । प्रायः क्षमा ही कर दिया। इसी क्षमा कं ऊपर निर्भर करके गवर्नमेंट की निन्दा करना साहस की विडम्बना है।'

सोच सक्ती हो, बिना अपराध कोई किसी के प्रति इतना कटु हो सकता है? यह चिट्ठी उन्होंने छपने के लिए दी थी । किन्तु मैंने छपने नहीं दिया । इसलिए कि कवि का इतना बड़ा सर्टिफिकेट सभी, स्टेट्समैन' आदि अंग्रेजी के पत्र प्रकाशित कर देगे और यह जो हमारे देश के लड़के बिना विचारे जेल में बंद कर दिए गए हैं इनको लेकर जो आन्दोलन हो रहा है वह निष्फल हो जाएगा।'

उस समय बंगाल लाइब्रेरी एसोसिएशन का पहला अधिवेशन होने वाला था । अविनाशचन्द्र घोषाल व्यवस्थापकों में से एष्क थे और वह थे शरतचन्द्र के परमभक्त | इसी नाते वे शरतचन्द्र को निमंत्रण देने के लिए आए । पर उनके मन और मस्तिष्क पर तो 'पथेर दाबी' छाया हुआ था । बातचीत करते-करते सहसा अनमने हो उठे और बोले 'अच्छा तुम्हारा यह तो सारे बंगाल के पुस्तकालयों का काम है । तुम एक काम करो न, और वह तुम्हारा ही तो काम है । पथेर दाबी को मुक्त कराने के लिए सभा में एक प्रस्ताव पास करा सकते हो? प्रकाश रूप में सभा से प्रतिवाद होने पर बहुत काम होगा। सरकार भी कुछ झुकेगी। वह अगर मेरी पांच और किताबें ज्ज्ञ कर लेती तो मुझे इतना दुख न होता।"

उनकी इच्छानुसार ऐसा ही किया गया। यही नहीं प्रान्त के अनेक विशिष्ट व्यक्तियों ने भी इस निषेध आज्ञा को लेकर तीव्र भाषा में सरकार की निन्दा की। लेकिन उसका कोई परिणाम नहीं निकला, हां, एक दिन एक अधिकारी ने उन्हें बुलाकर कहा तुम सरकार की ओर से चथेर दाबी' के समान एक पुस्तक लिख दो । खूब पैसा मिलेगा । " 6

शरत् बाबू ने उत्तर दिया, फाहब बचपन मैंने पतंग उड़ाकर और लट्टू धुमाकर काट दिया और जवानी काट दी गांजा आदि पीकर । उसके बाद रंगून जाकर नौकरी की। अब चार अध्याय लिखने की उम्र नहीं है। क्षमा करें ।'

इस घटना के न जाने कितने रूप प्रचलित हो गए थे। शायद उन्होंने कहा था, 'साहब, मेरे जीवन के तीन अध्याय बीत गए हैं। बचपन में देवदास था, यौवन में जीवानन्द, प्रौढ़ावस्था में आशु बाबू अब चौथा अध्याय जोड़ने की इच्छा नहीं है।'

शायद यह घटना बिलकुल ही सही नहीं हे। उनके जीवन में किंवदंतियां जैसे पेवस्त हो गई थीं वैसी ही एक किंवदंती यह भी हो सकती है। क्योंकि वे कविगुरु से चाहे कितने भी अप्रसन्न हों, उनकी निन्दा इस सीमा तक कभी नहीं कर सकते थे कि उनकी रचनाओं का मखौल उड़ाए और वह भी एक विदेशी अधिकारी के सामने । 'चार अध्याय' रवि बाबू का सुप्रसिद्ध उपन्यास है ।

पथेर दाबी' के साथ और भी अनेक कहानियां जुड़ी हैं। उसके कारण जेल जाने की स भावना बहुत दिन तक बनी रही। एक समय तो स्थिति बहुत गम्भीर हो गई थी । किसी भी क्षण पकड़े जा सकते थे। वे जानते थे कि जेल जाने पर अफीम खाने की सुविधा नहीं मिल सकती। इसलिए एक दिन उन्होंने निश्चय किया कि अब अफीम नहीं खाऊंगा।

लेकिन शीघ्र ही उन्हें ज्वर रहने लगा। धीरे- धीरे तीन सप्ताह बीत गए, ज्वर था कि उतरता ही नहीं था। डाक्टर बहुत चिन्तित हुए लेकिन तभी कारण की खोज करते-करते उन्हें पता लगा कि शरत् बाबू ने अफीम खाना छोड़ दिया है। जो व्यक्ति दिन में कई बार चने (7) के बराबर गोली बनाकर अफीम खाता हो, वही अचानक उसे छोड़ दे तो आश्चर्य ही कहा जा सकता है। डाक्टर ने पूछा, 'अफीम खाना आपने कब से छोड़ा है?"

उत्तर दिया बड़ी बहू ने । बोली, लगभग एक महीना बीत गया ।

डाक्टर ने कहा, 'हमारे शास्त्र में इसे 'ओपियम फीवर' कहते हैं। दवा के साथ- साथ धीरे-धीरे जब अफीम की मात्रा बढ़ाई जाएगी तभी बुखार उतरेगा । अफीम छोड़ने की भी एक विधि होती हे । आप यदि सचमुच छोड़ना चाहते हैं तो उस विधि का पालन कीजिए ।'

लेकिन उसका पालन करना शरत् बाबू के लिए सम्भव नहीं था। बुखार उतर गया, परन्तु अफीम नहीं छूटी। एक बार बर्मा में भी ऐसा करके देख चुके थे। लगता है कि देशबन्धु के साहचर्य तथा प्रसिद्धि बढ़ने के साथ-साथ उन्हें अपने पुराने जीवन से ग्लानि हो चली थी। क्योंकि बड़े दुखी मन से एक दिन उन्होंने अपने मामा से कहा था, देख, यह नशा करके मैंने कैसी भूल की है जब अफीम नहीं खाता था, तब पृथ्वी का सब कुछ खूब स्वच्छ और सुन्दर दिखाई देता था यदि मैं नशा न करता तो इससे कहीं बड़ा लेखक हो

सकता था।

इसके विपरीत बातें भी वे कई बार कर चुके थे। एक बार किसीने उनसे पूछा भी था, -दादा, उस दिन आपने यह बात इस प्रकार कही थी, आज उसके बिलकुल विपरीत क्क रहे है?

किंचित् कठोर स्वर में उत्तर दिया, बात मेरी है किस प्रकार कहना चाहिए, यह मेरा अधिकर है।

ऐसे अवसरों पर उनकी परिहास वृत्ति कुछ अधिक गम्भीर हो उठती थी। लेकिन साहित्यकार सदा ही विनोद करने की स्थिति में नहीं रहता। पाठकों में लोकप्रियता पा लेने पर उसे सचमुच गम्भीर प्रश्नों का सामना करना पड़ता है। पथेर दावी की रचना-प्रक्रिया और प्रेरणा के संबंध में न जाने कितने प्रश्न उनसे पूछे जाते थे दादा, आपको इस उपन्यास की प्रेरणा कहां से मिली? दादा, इस उपन्यास का नायक कौन है? दादा किस क्रान्तिकारी को लक्ष्य में रखकर आपने सव्यसाची की सृष्टि की है? भारती कौन है? इत्यादि, इत्यादि ।

ये सभी प्रश्न अर्थहीन हैं। लेखक की अभिज्ञता का अर्थ यह नहीं है कि वह सदा ही किसी जीवित व्यक्ति को लक्ष्य में रखकर अपने पात्रों की सृष्टि करता है। उन दिनों उनका संबंध राजबन्दियों और क्रान्तिकारियों से बहुत घनिष्ठ हो उठा था बहुत पहले पीनांग में भी वे किसी क्रान्तिकारी से मिले थे। सम्भवतः उनके सामूहिक गुणों को देखकर ही उन्होंने क्षव्यसाची की सृष्टि की थी। किसी एक व्यक्ति को उसमें ढूंढना व्यर्थ है ।

लेकिन पधेर दादी में रंगून के विभिन्न स्थानों और उसके निवासियों के जो चित्रण हआ है, यह सचमुच यथार्थ है चन्दन नगर की आलोचना सभा में उन्होंने स्वीकार किया था दमस्त द्वीपों में सुमात्रा, जावा तथा बोर्नियो आदि में घूमता फिरता था। वहां के अधिकांश लोग अच्छे नहीं हैं। तस्कर हैं। उन्होंने बर्मा में भी कोकीन का गुप्त व्यापार करनेवाले एक दल की बात सुनी थी उसकी संचालिका एक नारी थी। वही उनकी सुमित्रा की सृष्टि का कारण बनी। इसी प्रकार इस सारी अभिज्ञता का फल है पथेर दाबी'। घर में बैठकर और आरामकुर्सी पर पड़े रहकर साहित्य की सृष्टि नहीं होती। हां, नकल की जा सकती है। किसी ने बंकिमचन्द्र के 'आनन्द मठ' से पथेर दाबी' की तुलना करते हुए कहा है कि बंकिमचन्द्र के आनन्दमठ में न आदर्श विद्रोह है, न विप्लव, न अराजका। वह स्वदेश पूजा का शास्त्र है, परन्तु उसमें परजाति का विद्वेष है। पथेर दाबी में पथ का संकेत

नहीं है। वह मार्ग में ही समाप्त हो जाता है। शरत् जो है के कलाकार हैं कल्पना के सहारे आदर्श का निर्माण नहीं करते। यथार्थ को स्वर देते हैं।

परन्तु क्या यह भी सच नहीं है किए आनन्द मठ में जो परजाति विद्वेष दिखाई देता हे यह जानबूझकर नहीं है। यह विद्वेष शासक के प्रति है और यह मात्र संयोग ही है कि शासक परजाति का है। इसके अतिरिक्त 'पथेर दाबी में क्रान्तिकारी का जो चित्र उपस्थित किया गया है, बहुतों के समीप वह सजीव होकर भी पूर्ण नहीं है। कला की दृष्टि से भी 'पथेर दाबी का स्थान उनके अपने अनेक उपन्यासों से नीचे है मनोवेगों का वह घात प्रतिघात जो शरत्-साहित्य की विशेषता है, इसमें कहां है? और कहां है वह संयम जो चरित्रहीन की सावित्री में है मात्र डाक्टर या कुछ और गौण पात्र ही इस दृष्टि से उभर सके हैं।

वस्तुतः पथेर दाबी का महत्त्व कला या चरित्र सृष्टि के संयम में उतना नहीं है, जितना राजनीतिक जीवन के एक अछूते पहलू को सजीव रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। चेष्टा प्राय: ही सायास होती है। यह सायासता ही इसकी दुर्बलता है। किन्तु फिर भी अपनी समस्त दुर्बलताओं के बीच में पथेर दाबी के सव्यसाची का निर्मल चरित्र भारत के जन-मन को सदा आकर्षित और प्रभावित करता रहेगा।

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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भूमिका

21 अगस्त 2023
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संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

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भूमिका : पहले संस्करण की

21 अगस्त 2023
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कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

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तीसरे संस्करण की भूमिका

21 अगस्त 2023
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लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

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" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

21 अगस्त 2023
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किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

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अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

21 अगस्त 2023
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भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

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अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
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नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

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अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
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मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

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अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
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शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

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अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
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तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

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अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
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शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

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अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
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इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

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अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

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अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
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शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

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अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
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उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

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अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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