देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले जैसी नहीं रही थी। वे अपने रचनाकाल के तीसरे युग में प्रवेश का चुके थे। उद्दाम भावुक्ता पीछे छूट रही थी। वे अब वैज्ञानिक विवेचन और जीवन के व्यापक कैनवास को चित्रित करने का प्रयत्न कर रहे थे। इस समय बहुत थोड़ी रचनाए प्रकाशित हुईं। दो-चार कहानियां और कुछ लेख । लेखों में 'वर्तमान हिन्दू- मुस्लिम समस्या' महत्त्वपूर्ण है, और कहानियों में 'हरि'लक्ष्मी' 'नवविधान' 2 और 'पथेरदाबी' अभी भी धारावाहिक रूप में प्रकाशित हो रहे थे।
'पथेर दाबी' के लिखे जाने का इतिहास बहुत रोमांचकारी है। लगभग तीन वर्ष पूर्व सर आशुतोष मुकर्जी के लड़के उनके पास आए थे। वे 'बंगवाणी' का प्रकाशन करते थे। उनकी बड़ी इच्छा थी कि शरत्चन्द्र की रचनाएं उनकी पत्रिका में प्रकाशित हों। इसके लिए श्यामाप्रसाद मुकर्जी, रमाप्रसाद मुकर्जी और व्यवस्थापक कुमुदचन्द्र राय चौधरी छः महीने तक शिवपुर के चक्कर काटते रहे। परन्तु उन्हें एक कोई रचना नहीं मिल सकी। पर एक दिन सहसा क्या हुआ कि बाहर के कमरे में बैठे रमा बाबू मेज पर रखे कागजी को उलट- पुलट रहे थे कि उन्होंने 'पथेर दाबी' का अंश देखा। कुल सात-आठ पृष्ठ होंगे, परन्तु उनके उत्साह की कोई सीमा नहीं थी। बोले, यह रही रचना।”
शरत् बाबू ने उधर देखा और कहा, "इसे तुम नहीं छाप सकोगे। तुम आशुतोष के बेटे हो ।”
रमा बाबू ने पूछा, “क्यों नहीं छाप सकूंगा?”
शरत् बाबू बोले, "क्योंकि यह भीषण रचना है।"
रमा बाबू ने कहा, “मैं इसे छापूंगा। आपने इसे समाप्त कर लिया है?"
शरत् बाबू ने उत्तर दिया, “मैंने समझा था कि इसे छापने वाले नहीं मिलेंगे। इसीलिए आगे नहीं लिखा। तुम छापोगे तो लिखूंगा।”
उस दिन जो पन्ने मिले थे वे ही पहले अंक में छपे। 4 उनकी यह रचना इतनी विद्रोहात्मक थी कि सरकार की दृष्टि से नहीं बच सकी। जैसे-जैसे यह बंगवाणी' में प्रकाशित होती रही वैसे-वैसे सरकार इसका अनुवाद कराती रही। लेकिन उस समय पब्लिक प्रॉसिक्यूटर के पद पर थे, श्री तारकनाथ साधु । वे स्वयं साहित्यिक थे। शरतचन्द्र के प्रति उनके मन में बड़ी श्रद्धा थी। वे रमाप्रसाद मुकर्जी के भी मित्र थे। इसलिए उनको बराबर सूचना देते रहते थे।
यह उपन्यास वैसे तो कुल 24 किस्तों में छपा, लेकिन शरत् बाबू तो इतने मनमौजी और इतने अनियमित थे कि बार-बार आग्रह करने पर भी इसके छपने में तीन वर्ष और तीन महीने लग गए। एक-एक अंक की सामग्री के लिए कुमुद बाबू को ही नहीं स्वयं श्यामाप्रसाद मुकर्जी और रमाप्रसाद मुकर्जी को भी दस-दस बीस-बीस बार चक्कर लगाने पड़ते थे। उमाप्रसाद से शरत् बाबू का परिचय बाद में हुआ पर स्नेह सबसे अधिक उन्हीं से था। जब जाते तो बातों का अन्त ही नहीं आता था। इनको भी बहुत बार खाली हाथ लौटना पड़ता था।
प्रकाशक जानते थे कि सरकार 'पथेर दाबी' को पुस्तक के रूप में नहीं छपने देगी। इसलिए उन्होंने एक खेल खेला। इसकी अन्तिम किस्त पर भी उन्होंने 'कमश:' लिख दिया। पुलिस ने समझा उपन्यास अभी समाप्त नहीं हुआ है। और बीच में पुस्तक प्रकाशित हो गई।
पहले इस पुस्तक का प्रकाशन एम० सी० सरकार एण्ड सन्स के मालिक सुधीरचन्द्र सरकार करना चाहते थे। उन्होंने शरत् बाबू को इसीलिए एक हजार रुपये पेशगी दिए थे। लेकिन जब सुधीरचन्द्र ने पूरा उपन्यास पढ़ा तो डर गए। उन्होंने वकील से परामर्श किया। जांच करने के बाद वकील ने कहा, "ऐसे का ऐसा छापने पर राजद्रोह का मुकदमा निश्चय ही चल सकता है।"
सुधीरचन्द्र शरत् बाबू के पास गए और बोले, "मेरा वकील कहता है कि इस उपन्यास हूबहू छापने से हम विपत्ति में पड़ सकते हैं। उन्होंने पाण्डुलिपि में कई जगह निशान लगा दिए हैं। उन्हें यदि आप बदल दें तो अच्छा हो।”
सुनते ही शरत् बाबू बोल उठे, “मैं एक शब्द भी नहीं बदलूंगा। कॉमा तक नहीं बदलूंगा । इच्छा हो तो छापो, नहीं तो मत छापो ।”
"तब मेरे लिए छापना सम्भव नहीं होगा।"
“अच्छी बात है। मत छापो । तुम्हारा रुपया मैं लौटा दूंगा।”
उनके जाने के बाद रमा बाबू ने शरत् बाबू से कहा, “यदि कोई और नहीं छापना चाहता तो मैं इसे छापूंगा।”
शरत् बाबू बोले, “ठीक है, तुम ही छापो ।”
प्रकाशन की समस्या सुलझी तो प्रेस वालों ने उसे छापने से इनकार कर दिया । अन्त में बहुत प्रयत्न करने पर काटन प्रेस में छपाई का प्रबन्ध हुआ । सब काम इस प्रकार करने थे कि किसी को पता न लगे। उधर तत्कालीन एडवोकेट जनरल श्री बी०एल० मित्र सरकार को राजद्रोह का मुकदमा चलाने की सलाह दे चुके थे। अब यह प्रश्न उठा कि प्रकाशक के स्थान पर किसका नाम दिया जाए। प्रेस में कापी जाने तक किशोरमोहन भट्टाचार्य का नाम जाने की बात थी। उस समय उमाप्रसाद मुकर्जी ने कहा “यदि राजद्रोह का मुकदमा चला, तो बेचारा गरीब आदमी मारा जाएगा। इसलिए मुकदमे का व्यय हम ही वहन करेंगे, नाम भी हमारा ही जाएगा।”
सरकार मुकदमा चलाने को उत्सुक थी, लेकिन पब्लिक प्रॉसीक्यूटर तारकनाथ साधु ने कहा, "मुकदमा चलाने से पहले एक बार सोच लीजिए। इस पुस्तक के लेखक हैं बंगाल के लोकप्रिय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र और प्रकाशक हैं स्वनामधन्य आशुतोष मुकर्जी के छोटे बेटे उमाप्रसाद मुकर्जी।”
सरकार सहसा कुछ निर्णय नहीं कर सकी। जानती थी कि शरत् बाबू इतने लोकप्रिय हैं और आशुतोष मुकर्जी का इतना मान है कि उन पर मुकदमा चलाने से विद्रोह की सम्भावना हो सकती है। तब पुस्तक और भी लोकप्रिय होगी।
इसी सोच-विचार में कई महीने बीत गए और तभी अचानक पता लगा कि पुस्तक प्रकाशित हो गई है। - पहला संस्करण तीन हज़ार प्रतियों का छापा गया। जिनमें से एक हज़ार प्रतियां पहले ही दिन बिक गईं। शेष दो हज़ार को बिकते भी देर नहीं लगी। बीस दिन बाद जब सरकार ने यह निर्णय किया कि मुकदमा चलाने के स्थान पर पुस्तक को ज़ब्त करना उचित होगा, तब तक उसकी एक भी प्रति शेष नहीं रही थी। तलाशी का वारण्ट लेकर जब पुलिस अधिकारी 'बंगवाणी' के कार्यालय में पहुंचे तो उन्हें कुछ भी नहीं मिला। अधिकारी ने पूछा, " क्या यह संभव हो सकता है कि एक भी पुस्तक प्रेस में न हो ।” रमा बाबू ने उत्तर दिया, “तलाशी ले लीजिए।”
अधिकारी ने कहा, “नहीं, हम तलाशी नहीं लेंगे। आप पर हमें विश्वास है। लेकिन एक तो हमें ही दीजिए। आप जानते है कि हर नई छपनेवाली पुस्तक की तीन प्रतियां रजिस्ट्री करने के लिए भेजी जाती है।"
“जी हां, जानते हैं। तीस दिन के अन्दर ये प्रतियां भेजी जाती हैं, लेकिन आप तो बीस दिन के अन्दर ही आ गए?"
पुलिस अधिकारी ने कहा, “फिर भी एक प्रति तो हमें चाहिए ही । "
रमा बाबू ने इधर-उधर कई व्यक्ति भेजे। बड़ी कठिनता से छोटी बहन के घर एक प्रति मिल सकी। वही लेकर पुलिस वाले चले गए।
कई पुस्तक-विक्रेता ऐसे थे जिन्होंने कुछ पुस्तकें रोक ली थीं। बाद में उनकी एक-एक प्रति पचास रुपये तक में बिकी। मांग इतनी अधिक थी कि लोग एक प्रति के लिए 100 रुपये तक देने को तैयार थे। परन्तु दूसरा संस्करण निकालने का कोई प्रश्न नहीं था।
यह पुस्तक क्रांतिकारियों में र्भा बहुत लोकप्रिय हुई। वे इसे बाइबिल की तरह मानते थे। इस स्थिति का लाभ उठाकर एक व्यक्ति ने चोरी से एक बडे ही रद्दी कागज़ पर इसे छापा। वह अशुद्धियों से भरी हुई थी। बाज़ार में वह कभी नहीं आई। केवल क्रांतिकारियों में ही बांटी गई। शरतचन्द्र 'पथेर दाबी' का दूसरा भाग भी लिखना चाहते है । वे दिखाना चाहते है भारती भारत में आकर काम करती है। लेकिन यह सम्भव नहीं हो सका । 'बंगवाणी' में जब यह पुस्तक छप रही थी तो उसके सब अंकों को मिलाकर एक फाइल तैयार की गई थी। उसी फाइल को उमा बाबू ने एक दिन उनको देते हुए कहा, “अपने हाथ से इस पर कुछ लिख दीजिए।"
व्यथा-भरे कण्ठ से शरत् बाबू ने उत्तर दिया, "और क्या लिखूं? मैं लिखूंगा और सरकार ज़ब्त कर लेगी। पराधीन देश में सच्चे मन से साहित्य - साधना करने में व्यथा ही मिलती है।"
लेकिन फिर भी मोटा फाउंटेन पेन अपने हाथ में लेकर वे सोचने लगे। दो क्षण बाद बोले, "नहीं, कुछ नहीं लिख सकता । "
फिर धीरे-धीरे उनकी कलम चलने लगी। उसके पहले पन्ने पर उन्होंने बीच में उमाप्रसाद का नाम लिखा। उसके पास अपना नाम लिखा । नीचे अपनी जन्मकुण्डली अंकित की। जन्मतिथि और जन्म का समय भी लिखा। फिर 'मृत्यु' शब्द लिखकर उसके आगे का स्थान खाली छोड़ दिया। और पन्ने के ऊपर तिरछी पंक्ति में लिखा कुछ नहीं लिख सका। शरत् । 19 ज्येष्ठ, 1333 । 'पथेर दाबी' का दूसरा भाग यदि मैं पूरा नहीं कर सका तो मेरे देश में कोई और करेगा। यही कामना करता हू - शरत् खाते के अन्तिम पन्ने पर लिखा-
जे फूल ना फूटिते, झरिल धरणीते
नदी रुपये हाल धारा, जानि हे जानि ताओ हयनि हारा।
अस्फुट स्वर में यह गाना गाते-गाते वह खाता उन्होंने उमा बाबू को दे दिया। वे कुछ नहीं लिख सके। लेकिन जो थोडे से शब्द उन्होंने लिखे वे कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। उस समय की उनकी मन:स्थिति को और उनके चिन्तन को वे स्पष्ट करते हैं। दासता की व्यथा उनके साहित्यकार को कितना साल रही थी ।
इसके रचनाकाल में उमाप्रसाद से उनकी अनेक बार गम्भीर बातें होती थी। प्रकाशक के जेल जाने की बहुत सम्भावना थी । शरत् बाबू ने एक दिन उनसे पूछा, "यदि जेल हुई तो क्या करोगे?” उमा बाबू ने उत्तर दिया, "जेल होगी तो अकेले प्रकाशक को नहीं होगी, लेखक को भी होगी। दोनों एक साथ ही जेल में रहेंगे। आपके साथ ही जेल में रहना मेरा सौभाग्य होगा।”
शरत्चन्द्र ने सहसा गम्भीर होकर कहा, "ऐसा करना जिससे मैं अपने हुक्के को साथ ले जा सकूं।”
दोनों बडे जोर से अट्टहास का स्ठे लेकिन जेल किसी को भी नहीं हुई। केवल पुस्तक ही जप्त होकर रह गई। इस पुस्तक के लिखने में शरत् बाबू ने जिस कागज का प्रयोग किया था, वह अत्यन्त सुन्दर और लाइनदार था और उस पर शरत् बाबू का मोनोग्राम अंकित था कच्चे नारियल की आकृति के मध्य में लिखा शरत्। उतना ही मूल्यवान था वह पेन, जिससे उन्होंने इस उपन्यास को लिखा । 'बंगवाणी' के मालिकों ने विशेष रूप से उनके लिए ये दोनों वस्तुएं मंगाकर दी थीं। शरत् बाबू सदा ही सुन्दर कागज पर मुन्दर और दामी कलम से, छोटे-छोटे मोती जैसे सुन्दर अक्षर लिखा करते है। एक व्यक्ति ने उनसे पूछा, " शरत् बाबू, आप इतने कीमती कलम और कागज का प्रयोग क्यों करते हैं?"
शरत बाबू ने तुग्न्न जवाब दिया, “मां सरस्वती ने मुझे प्रतिभा का जो इतना बडा वरदान दिया है उसकी क्या न्दी कागज पर लिखकर नष्ट कर दूं?"
जिम दिन वह पुस्तक प्रकाशित हुई उससे पहली रात शरत्चन्द्र, मुकर्जी लोगों के घर पर ही रहे। रागि गत जमाका उमारामाद से वे नाना प्रकार की बातें करते रहे। सवेरा हुआ। इससे पूर्व कि मुद्रित पुस्तन्स पेम मे भाग ?, उमा बाबू उनके हाथ की लिखी हुई पूरी पाण्डुलिपि ले आए। उन्हें बडा आश्चर्य हुआ। वाले इम तुमने सहेजकर रखा हुआ है। तुमने इतना किया! मुझे दो, मैं तुम्हारे लिZ इम पर कुम्दृ लिखे देता हूं।"
और पाश्दृलिपि लैकर उसके पहले पन्ने पर उन्होंने सुन्दर अक्षरों में लिखा - बीजू, मेरे हाथ की लिखी हुई पुस्तक इसको छोडकर और नहीं है। यह तुम्हारे पास ही रहेगी, ऐसा होने पर मैं निश्चिन्त रहूंगा।- दादा
भाद्र, 1333
(अगस्त, 1926 ई०)
इस पाहुलिपि के शीर्ष स्थान पर 'पथेर दाबी' लिखा है और अन्त में लिखा है - श्री शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय सामताबेड 10 चैत्र, 1333(24 मार्च, 1926 ई०)
जिस समय 'पथेर दाबी को सरकार ने ज्ज्ञ किया, उसी समय रेवरेण्ड जे० टी० सेण्डरलैण्ड रचित 'इण्डिया इन बांडेज' पुस्तक भी जब्त की गई थी। इसके प्रकाशक थे, 'माडर्न रिव्यू' के संचालक स्वनामधन्य रामानन्द चट्टोपाध्याय। उन्होंने पुस्तक की जल्दी के विरुद्ध दावा दायर कर दिया था। शरत् बाबू ने सोचा कि क्या वे भी ऐसा नहीं कर सकते, लेकिन उनके प्रिय मित्र श्री निर्मलचन्द्र 'चन्द्र' ने उनसे कहा, मैं आपको ऐसा करने की सलाह नहीं दूंगा । "
निर्मलचन्द्र जानते थे कि अदालत पर सरकार का प्रभाव है। वह कभी भी सरकार को हारने नहीं देगी। उनकी बात सही प्रमाणित हुई। रामानन्द बाबू मुकदमा हार गए। शरत् बाबू भी हार जाते। हारना स्वाभाविक ही था, क्योंकि इस पुस्तक के कारण सरकार को बहुत परेशानी उठानी पड़ी थी। उस वर्ष की सरकारी पुस्तक में 'पथेर दाबी' के संबंध में लिखा है, "इस पुस्तक के लगभग हर पृष्ठ पर राजद्रोह का प्रबल प्रचार किया गया है।”
पुलिस कमिश्नर ने शरत् बाबू से कहा था, “शरत् बाबू, जानते हैं, 'पथेर दाबी' लिखकर आपने हमारी कितनी हानि की है? जहां भी हम क्रांतिकारियों को पकड़ते हैं, वहीं देखते हैं कि हरेक के पास दो पुस्तकें हैं, एक गीता और दूसरी 'पथेर दाबी । आपकी 'पथेर दाबी' ने क्रांतिकारियों को पागल बना दिया है।”
'पथेर दाबी' ने क्रांतिकारियों को ही नहीं तमाम बंगाल को पगाल बना दिया था। उसकी लोकप्रियता की कल्पना नहीं की जा सकती। शरत् बाबू के उत्साह का भी कोई अन्त नहीं था । यदि सरकार पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता तो इसके विरुद्ध जन- आन्दोलन तो किया ही जा सकता है, लेकिन यह आन्दोलन रवीन्द्रनाथ ठाकुर की सहायता के बिना सम्भव नहीं हो सकता। उन्होंने गुरुदेव को पत्र लिखा । तुरन्त उत्तर आया, चुस्तक की एक प्रति भेज दो। पढ़कर ही कुछ कह सकूंगा।”
शरच्चन्द्र ने तुरन्त पुस्तक भेज दी। उसको पढ़कर रवीन्द्रनाथ ने अपना मत व्यक्त करते हुए एक लम्बा पत्र लिखा-
कल्याणयेष
तुम्हारा 'पथेर दाबी ' पढ़ लिया। पुस्तक उत्तेजक है, अर्थात् अंग्रेजी शासन के विरुद्ध पाठकों के मन को अप्रसन्न करती है। लेखक के कर्तव्य के हिसाब से वह दोष नहीं हो सकता। क्योंकि लेखक अंग्रेजी राज को खराब समझता है। वह चुप नहीं बैठ सकता। लेकिन चुप न बैठने पर जो विपद पैदा हो सकती है वह भी उसको स्वीकार करनी चाहिए। अंग्रेजी राज क्षमा कर देगा, इस अधिकार को लेकर हम उसकी निन्दा करें, यह भी कोई पौरुष क बात नहीं है। मैं नाना देशों में धूम आया हूं और जो कुछ जान सका हूं उससे यही देखा है कि एकमात्र अंग्रेजी राज को छोड़कर स्वदेशी या विदेशी प्रजा के मौखिक या व्यावहारिक विरोध को और कोई भी राज्य उतने धैर्य के साथ सहन नहीं करता ।
यदि हम अपनी ताकत पर नहीं, बल्कि दूसरे की सहिष्णुता की बदौलत विदेशी राज्य के संबंध में यथेच्छ व्यवहार दिखाने का साहस दिखाते हैं तो, वह पौरुष की विडम्बना मात्र है। उसमें अंग्रेजी शासन के प्रति र्हा श्रद्धा झलकती हे न कि अपने प्रति। राजशक्ति में पशुबल है, यदि कर्तव्य के आधार पर उसके विरुद्ध खडा भी होना पड़े तो दूसरे पक्ष में चारित्रिक जोर का होना यानी आघात सहने का जोर होना आवश्यक है। पर हम अंग्रेजी शासन से उस चारित्रिक जोर की मांग करते हैं, अपने से नहीं। उससे प्रमाणित होता है कि हम मुंह से चाहे जो भी कहें पर अपने अनजान में हम अंग्रेजों को गालियां देकर हम उनसे सजा की आशंका नहीं करते । शक्तिमान की दृष्टि से देखा जाए तो तुम्हें कुछ न कहकर सिर्फ तुम्हारी पुस्तक को ज्ज्ञ कर लेना लगभग क्षमा करना है। कोई भी प्राब्य या पाश्चात्य विदेशी शासन ऐसा न करता। हम भारतीयों के हाथो मैं राजशक्ति होती तौ हम क्या करते, इसका अनुमान हम अपने जमींदारों और भारतीय रजवाड़ों के व्यवहार से लगा सकते हैं।
पर इसीलिए लेखनी बन्द थोड़े ही करनी है। मैं भी यह नहीं कहता। मैं कह रहा हूं कि सजा स्वीकार करके ही लेखनी चलानी पड़ेगी। जिस किसी देश में राजशक्ति के साथ विरोध हुआ है, वह ऐसा ही हुआ है। राजशक्ति का विरोध करते हुए आराम से नहीं रहा जा सकता। इस बात को असदिग्ध रूप से जानकर ही ऐसा करना है। क्योंकि यदि तुम पत्रों में उनके राज्य के विरुद्ध लिखते तो उसका प्रभाव बहुत थोड़ा और बहुत कम समय के लिए होता । किन्तु तुम्हारे समान लेखक गल्प के रूप में ऐसी क्या लिखें तो उसका प्रभाव सदा ही होता रहेगा। देश और काल दोनों ही की दृष्टि से उसके प्रचार की कोई सीमा नही हो सकती। कच्ची उम्र के बालक-बालिकाओं से लेकर बूढ़ी तक पर उसका प्रभाव होगा। ऐसी अवस्था में अंग्रेजी राज्य यदि तुम्हारी पुस्तक का प्रचार बन्द न करे तो उससे यही समझा जा सक्ता है कि साहित्य में तुम्हारी शक्ति और देश में तुम्हारी प्रतिष्ठा के संबंध में उसे को? ज्ञान नही है। शक्ति पर जब आघात किया है, तो प्रतिघात सहने के लिए तैयार रहना ही होगा। इसी कारण से उस आघात का मूल्य है। आघात की गुस्ता को लेकर विलाप कररने से उस अघात के मूल्य को एक बार ही मिट्टी कर देना होगा । इति । 27 माघ, 1333 (10 फरवरी, 1927 ई०)
तुम्हारा
रवीन्द्रनाथ ठाकुर
पत्र की भाषा, यद्यपि बहुत युक्तियुक्त है और परोक्ष में उन्होंने शरतचन्द्र की प्रशंसा ही की, परन्तु फिर भी उन दोनों के सोचने के दृष्टिकोण के अन्तर को यह पत्र स्पष्ट करता है। इसे पढ़कर शरत् बाबू की व्यथा का पार नही था । प्रतिवाद के अधिकार को वह किसी भी तरह छोड़ने को तैयार नहीं थे। बार-बार सोचते थे कि रवीन्द्रनाथ ने 'पथेर दाबी' पढ़कर अंग्रेजों की सहिष्णुता की प्रशंसा की है। मेरी पुस्तक पढ़कर यह मत दिया है कि इसमें अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की सम्भावना है। हमारे देश के कवि के समीप यदि वे इतने बड़े हैं। तो फिर स्वाधीनता का यह आन्दोलन क्यों? तब तो सबको मिलकर अंग्रेजों को कन्धे पर चढ़ाकर नाचते हुए धूमना चाहिए। हाय कवि, यदि त्राग् जानते कि तुम हमारी कितनी बड़ी आशा, क्लिना बड़ा गर्व हो तब निश्चय ही यह बात नहीं कह सकते थे। कवि की दृष्टि में मेरा ‘पथेर दाबी' कितनी बड़ी लांछना का पात्र हुआ, यह मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था। क्या मन लेकर मैंने यह किताब लिखी थी, यह मैं किसी को नहीं समझा सकूगा ।
इसी उत्तेजना में इस पत्र के उत्तर में उन्होंने कवि को जो पत्र लिखा उसके शब्द शब्द से आजा श टपका पड़ता है। संयम जैसे हाथ से छूट गया है। अच्छा यही था कि यह पत्र उन्होंने तुरन्त ही नहीं भेज दिया। शायद मन ही मन उन्हें ऐसा लगा जैसे उन्होंने यह पत्र लिखकर गलती की है। उन्होंने लिखा था-
श्रीचरणेषु,
आपका पत्र पाया। बहुत अच्छा, वही हो। यह पुस्तक मेरी लिखी हुई है, इसलिए दुख तो म् (झे है, पर कोई खास बात नहीं है। आपने जो कर्तव्य और उचित समझा उसके विरुद्ध तो मेरा कोई अभिमत है और न कोई अभियोग, पर आपकी चिट्ठी में जो दूसरी बातें आ गई हैं, उस अभिमत में मेरे मन में दो-एक प्रश्त हैं और कुछ वक्तव्य भी हैं । यदि तुर्की ब तुर्की लगे तो वह भी आपकी ही शराफत के कारण समझिए। आपने लिखा है, 'अंग्रेजी राज्य के प्रति पाठकों का मन अप्रसन्न हो उठा है।' होने की बात थी, किन्तु यदि मैंने ऐसा किसी असत्य प्रचार के द्वारा करने की चेष्टा की होती तो लेखक के रूप में उससे मुझे लज्जा और अपराध दोनो ही महसूस होते । किन्तु जान-बूझकर मैंने ऐसा नहीं किया। यदि ऐसा करता तो वह राजनीतिज्ञों का धन्धा होता । कृति न होती । नाना कारणों से बंगला में इस तरह की पुस्तक किसी ने नहीं लिखी । मैंने जब लिखी है और उसे छपवाया है तो सब परिणाम जानकर ही किया है।
जब बहुत मामूली कारणों से भारत में सर्वत्र लोगों को बिना मुक्तमें के अन्यायपूर्वक या न्याय का दिखावा करके कैद और निर्वासित किया जा रहा है तौ मुझे छुट्टी मिलेगी यानी राजपुरुष मुझ क्षमा करेंगे यह दुराशा मेरे मन में नहीं थी, आज भी नहीं है। किन्तु बंगाल देश के लेखक के हिसाब से पुस्तक में यदि मिथ्या का आश्रय नहीं लिया है एवं उसके कारण ही यदि राजरोष भोग करना होगा तो करना ही होगा। चाहे वह मुंह लटकाकर किया
या रोकर किया जाए। किन्तु क्या इसस प्रतिवाद करने का प्रयोजन खत्म हो जाता है? राजबन्दी जेल में दूध-मक्खन नही पाते। चिट्ठी लिखकर पत्रों में शोर करने में मुझे ल आती है, किन्तु मोटे चावल के बदले में जेल के अधिकारी यदि घास का प्रबन्ध करते हैं तब से सक्ता है लाठी की चोट से उसे चबा सकूं किन्तु जब तक घास के कारण गला बन्द नहीं रन नान' तब तक उसे अन्याय कहकर प्रतिवाद करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूं ।
किन्तु पुस्तक मेरे अकेले की ही लिखी हुई है, इसलिए मेरा अकेले का ही दायित्व है, नो कुछ कहना मैंने उचित समझा वह कहा या नहीं, असली बात तो यही है । अंग्रेजी राज्य की क्षमाशीलता के प्रति मेरी कोई निर्भरता नहीं है। मेरी सारी साहित्य सेवा इसी प्रकार की है जो मैं ठीक समझता हूं वही लिखता हूं।
मेरा प्रश्न यह है कि अंग्रेजी राज्यशक्ति द्वारा उस पुस्तक को जूब्द करने का औचित्य यदि है तो पराधीन भारतवासियों द्वारा प्रतिवाद करने का भी वैसा ही औचित्य है। मेरे प्रति आपने यही अविचार किया है कि मैं दण्ड के भय से प्रतिवाद करना चाहता हूं और उस प्रतिवाद के पीछे ही अपने को बचाना चाहता हूं। किन्तु वह वास्तविकता नहीं है। देशवासी यदि प्रतिवाद नहीं करते तो मुझे करना होगा, लेकिन वह सब शोर मचाकर नहीं करूंगा, एक और पुस्तक लिखकर करूंगा।
आप यदि केवल मुझे यह आदेश देते कि इस पुस्तक का प्रचार करने से देश का सचमुच अमंगल होगा तो मुझे सांत्वना मिलती । मनुष्य से भूल होती है। सोच लेता कि मुझसे भी भूल हुई है। मैंने किसी रूप में विरुद्ध भाव लेकर आपको यह पत्र नहीं लिखा । जो मन में आया आपको स्पष्ट रूप से लिख दिया। मैं सचमुच रास्ता खोजता हुआ धूम रहा हूं इसलिए सब कुछ छोड़छाड़कर निर्वासित हो गया हूं। इसमें कितना पैसा, कितनी शक्ति, कितना समय बर्बाद हुआ वह किसी को बताने से क्या ? आपके अनेक भक्तों में मैं भी एक हूं इसलिए बातचीत से या आचरण से आपको तनिक भी कष्ट पहुंचाने की बात मैं सोच भी नहीं सकता । इति ।
2 फान्तुन, 1333
सेवक श्री _शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय
यह पत्र लिखने से पूर्व शरत् बाबू ने उमाप्रसाद मुकर्जी को भी एक पत्र लिखा था। उसमें उन्होंने अपनी वेदना को छिपाया नहीं था। उसे पढ़कर उमा बाबू सामताबेड आए। उन्होंने यह पत्र पढ़ा और निर्णय किया कि इसे गुरुदेव के पास नहीं भेजा जा सकता। उस पत्र को उन्होंने अपने पास रख लिया। दो दिन बाद शान्त होने पर स्वयं शरत्चन्द्र ने भी कहा, 'यह वाद-विवाद ठीक नहीं। मेरी चिदठी भेजने की आवश्यकता नहीं। उन्होंने रमा
से यह भी कहा कि वे इन पत्रों की चर्चा किसी से न करें। लेकिन वे स्वयं ही चुप न रह सके। अनेक सभाओं और अनेक पत्रों में इसकी चर्चा उन्होंने की है। श्रीमती राधारानी देवी को उन्होंने लिखा-
एक बात तुमको बताता हूं। किसी से कहना मत। 'पथेर दाबी' जब जूझ ह गया था तब रवि बाबू के पास जाकर कहा कि यदि आप प्रतिवाद करेंगे तो काम होगा । पून्त्री के लोग जान सकेंगे कि सरकार किस तरह साहित्यिकों के साथ विचार करती है । अवश्य ही मेरी किताब संजीवित नहीं होगी। अंग्रेज ऐसे पात्र नहीं हैं। तब भी संसार के लोग जान तो लेंगे । उनको किताब दे आया। उन्होंने जवाब में लिखा, पृथ्वी में घूमकर देखता है । अंग्रेजों की राजशक्ति के समान सहिष्णु और क्षमाशील राजशक्ति और नहीं है । तुम्हारी पुस्तक पढ़कर पाठकों का मन अंग्रेजी सरकार के प्रति अप्रसन्न हो उठेगा। तुम्हारी पुस्तक को जुष्ठ करके तुमकी कुछ नहीं कहा । प्रायः क्षमा ही कर दिया। इसी क्षमा कं ऊपर निर्भर करके गवर्नमेंट की निन्दा करना साहस की विडम्बना है।'
सोच सक्ती हो, बिना अपराध कोई किसी के प्रति इतना कटु हो सकता है? यह चिट्ठी उन्होंने छपने के लिए दी थी । किन्तु मैंने छपने नहीं दिया । इसलिए कि कवि का इतना बड़ा सर्टिफिकेट सभी, स्टेट्समैन' आदि अंग्रेजी के पत्र प्रकाशित कर देगे और यह जो हमारे देश के लड़के बिना विचारे जेल में बंद कर दिए गए हैं इनको लेकर जो आन्दोलन हो रहा है वह निष्फल हो जाएगा।'
उस समय बंगाल लाइब्रेरी एसोसिएशन का पहला अधिवेशन होने वाला था । अविनाशचन्द्र घोषाल व्यवस्थापकों में से एष्क थे और वह थे शरतचन्द्र के परमभक्त | इसी नाते वे शरतचन्द्र को निमंत्रण देने के लिए आए । पर उनके मन और मस्तिष्क पर तो 'पथेर दाबी' छाया हुआ था । बातचीत करते-करते सहसा अनमने हो उठे और बोले 'अच्छा तुम्हारा यह तो सारे बंगाल के पुस्तकालयों का काम है । तुम एक काम करो न, और वह तुम्हारा ही तो काम है । पथेर दाबी को मुक्त कराने के लिए सभा में एक प्रस्ताव पास करा सकते हो? प्रकाश रूप में सभा से प्रतिवाद होने पर बहुत काम होगा। सरकार भी कुछ झुकेगी। वह अगर मेरी पांच और किताबें ज्ज्ञ कर लेती तो मुझे इतना दुख न होता।"
उनकी इच्छानुसार ऐसा ही किया गया। यही नहीं प्रान्त के अनेक विशिष्ट व्यक्तियों ने भी इस निषेध आज्ञा को लेकर तीव्र भाषा में सरकार की निन्दा की। लेकिन उसका कोई परिणाम नहीं निकला, हां, एक दिन एक अधिकारी ने उन्हें बुलाकर कहा तुम सरकार की ओर से चथेर दाबी' के समान एक पुस्तक लिख दो । खूब पैसा मिलेगा । " 6
शरत् बाबू ने उत्तर दिया, फाहब बचपन मैंने पतंग उड़ाकर और लट्टू धुमाकर काट दिया और जवानी काट दी गांजा आदि पीकर । उसके बाद रंगून जाकर नौकरी की। अब चार अध्याय लिखने की उम्र नहीं है। क्षमा करें ।'
इस घटना के न जाने कितने रूप प्रचलित हो गए थे। शायद उन्होंने कहा था, 'साहब, मेरे जीवन के तीन अध्याय बीत गए हैं। बचपन में देवदास था, यौवन में जीवानन्द, प्रौढ़ावस्था में आशु बाबू अब चौथा अध्याय जोड़ने की इच्छा नहीं है।'
शायद यह घटना बिलकुल ही सही नहीं हे। उनके जीवन में किंवदंतियां जैसे पेवस्त हो गई थीं वैसी ही एक किंवदंती यह भी हो सकती है। क्योंकि वे कविगुरु से चाहे कितने भी अप्रसन्न हों, उनकी निन्दा इस सीमा तक कभी नहीं कर सकते थे कि उनकी रचनाओं का मखौल उड़ाए और वह भी एक विदेशी अधिकारी के सामने । 'चार अध्याय' रवि बाबू का सुप्रसिद्ध उपन्यास है ।
पथेर दाबी' के साथ और भी अनेक कहानियां जुड़ी हैं। उसके कारण जेल जाने की स भावना बहुत दिन तक बनी रही। एक समय तो स्थिति बहुत गम्भीर हो गई थी । किसी भी क्षण पकड़े जा सकते थे। वे जानते थे कि जेल जाने पर अफीम खाने की सुविधा नहीं मिल सकती। इसलिए एक दिन उन्होंने निश्चय किया कि अब अफीम नहीं खाऊंगा।
लेकिन शीघ्र ही उन्हें ज्वर रहने लगा। धीरे- धीरे तीन सप्ताह बीत गए, ज्वर था कि उतरता ही नहीं था। डाक्टर बहुत चिन्तित हुए लेकिन तभी कारण की खोज करते-करते उन्हें पता लगा कि शरत् बाबू ने अफीम खाना छोड़ दिया है। जो व्यक्ति दिन में कई बार चने (7) के बराबर गोली बनाकर अफीम खाता हो, वही अचानक उसे छोड़ दे तो आश्चर्य ही कहा जा सकता है। डाक्टर ने पूछा, 'अफीम खाना आपने कब से छोड़ा है?"
उत्तर दिया बड़ी बहू ने । बोली, लगभग एक महीना बीत गया ।
डाक्टर ने कहा, 'हमारे शास्त्र में इसे 'ओपियम फीवर' कहते हैं। दवा के साथ- साथ धीरे-धीरे जब अफीम की मात्रा बढ़ाई जाएगी तभी बुखार उतरेगा । अफीम छोड़ने की भी एक विधि होती हे । आप यदि सचमुच छोड़ना चाहते हैं तो उस विधि का पालन कीजिए ।'
लेकिन उसका पालन करना शरत् बाबू के लिए सम्भव नहीं था। बुखार उतर गया, परन्तु अफीम नहीं छूटी। एक बार बर्मा में भी ऐसा करके देख चुके थे। लगता है कि देशबन्धु के साहचर्य तथा प्रसिद्धि बढ़ने के साथ-साथ उन्हें अपने पुराने जीवन से ग्लानि हो चली थी। क्योंकि बड़े दुखी मन से एक दिन उन्होंने अपने मामा से कहा था, देख, यह नशा करके मैंने कैसी भूल की है जब अफीम नहीं खाता था, तब पृथ्वी का सब कुछ खूब स्वच्छ और सुन्दर दिखाई देता था यदि मैं नशा न करता तो इससे कहीं बड़ा लेखक हो
सकता था।
इसके विपरीत बातें भी वे कई बार कर चुके थे। एक बार किसीने उनसे पूछा भी था, -दादा, उस दिन आपने यह बात इस प्रकार कही थी, आज उसके बिलकुल विपरीत क्क रहे है?
किंचित् कठोर स्वर में उत्तर दिया, बात मेरी है किस प्रकार कहना चाहिए, यह मेरा अधिकर है।
ऐसे अवसरों पर उनकी परिहास वृत्ति कुछ अधिक गम्भीर हो उठती थी। लेकिन साहित्यकार सदा ही विनोद करने की स्थिति में नहीं रहता। पाठकों में लोकप्रियता पा लेने पर उसे सचमुच गम्भीर प्रश्नों का सामना करना पड़ता है। पथेर दावी की रचना-प्रक्रिया और प्रेरणा के संबंध में न जाने कितने प्रश्न उनसे पूछे जाते थे दादा, आपको इस उपन्यास की प्रेरणा कहां से मिली? दादा, इस उपन्यास का नायक कौन है? दादा किस क्रान्तिकारी को लक्ष्य में रखकर आपने सव्यसाची की सृष्टि की है? भारती कौन है? इत्यादि, इत्यादि ।
ये सभी प्रश्न अर्थहीन हैं। लेखक की अभिज्ञता का अर्थ यह नहीं है कि वह सदा ही किसी जीवित व्यक्ति को लक्ष्य में रखकर अपने पात्रों की सृष्टि करता है। उन दिनों उनका संबंध राजबन्दियों और क्रान्तिकारियों से बहुत घनिष्ठ हो उठा था बहुत पहले पीनांग में भी वे किसी क्रान्तिकारी से मिले थे। सम्भवतः उनके सामूहिक गुणों को देखकर ही उन्होंने क्षव्यसाची की सृष्टि की थी। किसी एक व्यक्ति को उसमें ढूंढना व्यर्थ है ।
लेकिन पधेर दादी में रंगून के विभिन्न स्थानों और उसके निवासियों के जो चित्रण हआ है, यह सचमुच यथार्थ है चन्दन नगर की आलोचना सभा में उन्होंने स्वीकार किया था दमस्त द्वीपों में सुमात्रा, जावा तथा बोर्नियो आदि में घूमता फिरता था। वहां के अधिकांश लोग अच्छे नहीं हैं। तस्कर हैं। उन्होंने बर्मा में भी कोकीन का गुप्त व्यापार करनेवाले एक दल की बात सुनी थी उसकी संचालिका एक नारी थी। वही उनकी सुमित्रा की सृष्टि का कारण बनी। इसी प्रकार इस सारी अभिज्ञता का फल है पथेर दाबी'। घर में बैठकर और आरामकुर्सी पर पड़े रहकर साहित्य की सृष्टि नहीं होती। हां, नकल की जा सकती है। किसी ने बंकिमचन्द्र के 'आनन्द मठ' से पथेर दाबी' की तुलना करते हुए कहा है कि बंकिमचन्द्र के आनन्दमठ में न आदर्श विद्रोह है, न विप्लव, न अराजका। वह स्वदेश पूजा का शास्त्र है, परन्तु उसमें परजाति का विद्वेष है। पथेर दाबी में पथ का संकेत
नहीं है। वह मार्ग में ही समाप्त हो जाता है। शरत् जो है के कलाकार हैं कल्पना के सहारे आदर्श का निर्माण नहीं करते। यथार्थ को स्वर देते हैं।
परन्तु क्या यह भी सच नहीं है किए आनन्द मठ में जो परजाति विद्वेष दिखाई देता हे यह जानबूझकर नहीं है। यह विद्वेष शासक के प्रति है और यह मात्र संयोग ही है कि शासक परजाति का है। इसके अतिरिक्त 'पथेर दाबी में क्रान्तिकारी का जो चित्र उपस्थित किया गया है, बहुतों के समीप वह सजीव होकर भी पूर्ण नहीं है। कला की दृष्टि से भी 'पथेर दाबी का स्थान उनके अपने अनेक उपन्यासों से नीचे है मनोवेगों का वह घात प्रतिघात जो शरत्-साहित्य की विशेषता है, इसमें कहां है? और कहां है वह संयम जो चरित्रहीन की सावित्री में है मात्र डाक्टर या कुछ और गौण पात्र ही इस दृष्टि से उभर सके हैं।
वस्तुतः पथेर दाबी का महत्त्व कला या चरित्र सृष्टि के संयम में उतना नहीं है, जितना राजनीतिक जीवन के एक अछूते पहलू को सजीव रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। चेष्टा प्राय: ही सायास होती है। यह सायासता ही इसकी दुर्बलता है। किन्तु फिर भी अपनी समस्त दुर्बलताओं के बीच में पथेर दाबी के सव्यसाची का निर्मल चरित्र भारत के जन-मन को सदा आकर्षित और प्रभावित करता रहेगा।