उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इस घटना के भी नाना रूप प्रचलित हो गए थे या उसने स्वयं कर दिये थे। उन्हीं में एक यह है। विज्ञान में वह बहुत चतुर था। आधे समय में ही उसने वह पर्चा पूरा कर डाला। उसके बाद साथियों की सहायता करने में प्रवृत्त हो गया। एक कमरे में बैठकर वह प्रश्नों का उत्तर लिखता और दरबान के हाथ साथियों के पास भेज देता। पानी पिलाने तथा दूसरे कामों के बहाने दरबान बार-बार आने-जाने लगा। यह देखकर निरीक्षक को सन्देह हुआ। वह उसके पीछे-पीछे वहीं पहुंच गये जहां शरत् बैठा उत्तर लिख रहा था। अब कुछ छिपा न रह सका। निरीक्षक उसे प्रिंसिपल के पास ले गये। सब कुछ सुनकर प्रिंसिपल ने निश्चय किया कि वे शरत् को परीक्षा में बैठने की अनुमति नहीं देगे। इस अपराध का दण्ड इससे कम नहीं हो सकता।
इसलिए जब परीक्षाफल निकला तो उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों की सूची में उसका नाम नही था। जैसाकि उसका स्वभाव था उसने कुछ नहीं किया । कर भी क्या सकता था, अपराधी था, लेकिन चूंकि वह पढ़ने में चतुर था, इसलिए स्वयं अध्यापकों ने उसकी ओर से प्रिंसिपल से प्रार्थना की कि वे उसे क्षमा कर दें। वे स्वयं अपने निर्णय पर दुखी थे। उन्हें भी लग रहा था कि दण्ड कुछ अधिक हो गया है। इसलिए वे उसे क्षमा करने को तैयार हो गये। परीक्षा की फीस जमा कराने के एक दिन पहले उन्होंने शरत् को बुलाया और कहा, "कल आकर फीस जमा करा जाओ।"
लेकिन एक दिन में फीस का प्रबन्ध कर लेना उसके लिए असंभव था। मां की मृत्यु हो चुकी थी और पिता थे यायावर। पैसा पैदा करना वे नहीं जानते थे। उधर सगे मामा अत्यन्त निर्धन थे। रिश्ते के मामा भी फीस दे सकते हैं, लेकिन न देने पर उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। वह उनकी सगी बहन का पुत्र नहीं था और फिर वह इन लोगों के विरोध में राजा शिवचन्द्र का पक्ष लेता था । तत्कालीन मानदण्ड के अनुसार उसका चरित्र भी ऐसा नहीं था, जिसे अच्छा कहा जा सके। इसलिए मामाओं के परिवार में उसकी ज़रा भी साख नहीं थी ।
इस प्रकार पैसे के अभाव में उसकी पढ़ाई समाप्त हो गई। नाटक थियेटर, गाना बजाना और के साहित्य सृजन, इन्हीं में उसका मन रमने लगा। राजू के साथ उसके अभियान और भी जोरों के साथ चलने लगे। वेश्या के यहां जाना भी वर्जित नहीं था। उस समय कालीदासी नाम की एक नर्तकी मंसूरंगज में रहती थी। उसके पास बहुत पैसा था।
अपना दुमंजिला मकान था लेकिन मन था उसका धर्म में कीर्तन करती थी । कण्ठ उसका बहुत मधुर था। इसी माधुर्य के लोभ में राजू अक्सर वहां जाता था। शरत् के कालिज जाने का मार्ग भी उधर से ही था । इसलिए वह उसे भी नहीं छोड़ता था ।
सुना जाता है कालीदासी इन दोनों से स्नेह करती थी। आज यह मीमांसा करना व्यर्थ है किए उन्नीस वर्षीय शरत् ने नर्तकी कालीदासी के सम्पर्क में आकर वर्जित फल का स्वाद लिया था या नहीं। परन्तु इतना सत्य है कि कण्ठ के माधुर्य और वाक्पटुता के कारण नारियों का उसके प्रति विशेष आकर्षण रहा है। तथाकथित कुकर्मों के कारण कुलीनों के समाज में उसकी मर्यादा निरन्तर घट रही थी। इसलिए अकुलीनों में ही उसे शरण लेनी पड़ती थी। वहीं पर उसने मनुष्य की खोज की और जाना कि मनुष्यत्व सतीत्व से भी बड़ी वस्तु है।
इन दिनों चोरी-चोरी देवदास का सृजन चल रहा था । यद्यपि प्रौढ़ावस्था में प्रसिद्ध लेखक शरत्चन्द्र ने इस रचना की निंदा की है। बार-बार कहा है, “वह अच्छा नहीं है, अश्लील है, और भी बहुत कुछ है। बचपन की मेरी इस रचना को मत छापो । ” लेकिन उस समय निश्चय ही उसने अपने प्रेम के दर्द को देवदास के माध्यम से स्वर देने का प्रयत्न किया
था। अतिशय भावुकता के बावजूद यह रचना शरत् के अपने असफल, पर उत्कट प्रेम की आत्मस्वीकृति ही है। इसके सभी चरित्रों का वास्तविक आधार है। जो उसे बहुत अधिक प्यार करती थी, स्कूल की यह साथिन धीरू देवदास में 'पार्वती' के रूप में अवतरित हुई है। धर्मदास के चरित्र का आधार बना नाना के घर का सेवक मुशाई और चन्द्रमुखी का उपादान जुटाया एक नर्तकी ने स्वयं शरत्चन्द्र ने नर्तकी के इस आभार को स्वीकार किया है। बड़े होकर यह कहानी उसने कई बार, कई मित्रों को, कई रूपों में सुनाई। परन्तु अपने परम भक्त प्रसिद्ध संगीतज्ञ दिलीपकुमार राय से उसने यही कहा था कि यह उसकी व्यक्तिगत अभिज्ञता है। वह स्वयं अपने मित्र के साथ गाना सुनने के लिए वहां गया था। वह मित्र ज़मींदार के यहां काम करता था। उस दिन उसके पास कई हजार रुपये थे।
खूब नाच-गाना हुआ। शराब का दौर भी चला। धीरे-धीरे उसकी मात्रा बढ़ती गई और उसी के साथ खोता गया उनका चैतन्य । मित्र बार-बार जेब से रुपये निकालता और पुकार उठता, "और नाचो, और शराब लाओ।"
उस पर खूब रंग चढ़ रहा था। अनन्तः वह बेहोश हो गया। शरत् भी होश में नहीं रह सका। दूसरे दिन सवेरे मित्र की चीख-पुकार सुनकर उसकी आंखें खुलीं। मित्र पुकार रहा था, "हाय, हाय, मैं तो लुट गया, मेरा सर्वनाश हो गया।”
शरत ने पूछा, “क्या हुआ, इस तरह क्यों चीख रहे हो?"
मित्र बोला, “मेरे पास तीन हज़ार रुपये थे, वे नहीं मिल रहे हैं। तूने तो नहीं छिपाये?” शरत् ने उत्तर दिया, “मैं क्यों छिपाऊंगा, मैं भी तो तभी से बेहोश हूं, तेरी चीख-पुकार सुनकर ही उठा हूं।"
मित्र की आंखों में आंसू आ गए, बोला, “सर्वनाश हो गया। यह तो ज़मीदार का रुपया था। उसे रुपया नहीं मिला तो नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा। जेल भी जाना होगा। सोचा था, दो-तीन सौ रुपये खर्च हो जाएंगे, कोई बात नहीं, चुका दूंगा। पर इतने रुपये इस वक्त मुझे कौन देगा? हाय-हाय अब मैं क्या करूं?"
और वह फूट-फूटकर रोने लगा, लेकिन रोने से रुपया थोड़े ही मिलता था। शरत् के कहने पर उसने इधर-उधर खोज की, लेकिन न कहीं रुपया ही दिखाई दिया और न वह नर्तकी क्या उसी ने तो रुपया नहीं चुराया है......?
ठीक इसी समय नर्तकी ने वहां प्रवेश किया। उसको देखते ही वह मित्र और भी ज़ोर से रोने लगा। एक ही सांस में उसने सब कुछ कह सुनाया।
नर्तकी ने शान्त स्वर में उत्तर दिया, “तुम्हारा दिमाग खराब हुआ था, कि तुम वेश्या के घर इतना रुपया लेकर आए। यहां दो-चार रुपयों के लिए प्राण ले लिये जाते हैं, तुम्हारे पास तो हज़ारों रुपये थे। बार-बार सबके सामने जेब से निकालकर मुझे दे रहे थे। सबकी दृष्टि तुम्हारी जेब पर थी और तभी आप लोग नशे में लुढ़कते हुए गद्दे से नीचे चले गए । सब लोगों को विदा करके मैंने आपको ठीक किया और आपके सिरहाने तकिया रखा। तब आप लोगों ने मुझे क्या-क्या नहीं कहा । छोड़िए, वह तो हम प्रतिदिन ही सुनती हैं, लेकिन जैसे ही मैं आपको सुलाकर उठी मेरी दृष्टि रुपयों पर पड़ी। उन्हें उठाकर मैंने अपने आंचल में बांध लिया और इस तरह कमर में लपेट लिया कि ज़रा भी छेड़ने पर मेरी आंखें खुल जाएं।
"यह मोहल्ला कितना बदनाम हे! कैसे-कैसे गुण्डे यहां रहते हैं! वे जान गये थे कि आपके पास रुपया है। सारी रात इस मकान के चारों ओर घूमते रहे कि आप निकलें और वे रुपये छीन लें। और मैं थी कि डर के मारे सो भी नहीं सकी। आग जलाकर नौकरानी के साथ सारी रात जागती रही हूं।”
यह कहते हुए उसनें वे रुपये निकालकर मित्र के सामने रख दिये, कहा, “देख लीजिए, सब ठीक है न? और फिर कभी ऐसी मूर्खता न कीजिएगा।”
शरत् उसकी ओर देखता रह गया। सोचने लगा, यह चाहती तो उन्हें हजम कर सकती थी। किसमें हिम्मत थी कि इससे वापस ने सकता! कितनी महान है यह! पथभ्रष्ट हो जाने पर भी मनुष्य के अन्दर की सद्वृत्तियां पूरी नष्ट नहीं होतीं। बाहरी रूप ही मनुष्य का असली परिचय नहीं है। अनेक सती नारियां अनेक कुकर्म करती हैं। चोरी, जालसाज़ी, झूठी गवाही कुछ भी उनसे नही छूटता। इसके विपरीत दुराचारिणियों के हृदय में भी दया माया बनी रहती है।
क्या यही नर्तकी कालीदासी नहीं थी? देवदास के सृजन के समय वह उसी के पास जाता था। उसका चरित्र भी नर्तकी से मिलता है। सब कुछ दान करके वह संन्यासिनी हो गई थी, लेकिन उसके बाद भी पूजा के अवसर पर लोगों के घर गीत सुनाने वह जाती रही।
उस समय यदि वे लोग उसे कुछ देने की चेष्टा करते तो वह कह देती, “भगवान ने इतना दिया था वही मैं न रख पाई। अब मुझे कुछ नहीं चाहिए।”
यही कालीदासी चन्द्रमुखी के रूप में अवतरित हुई, इस बारे में तनिक भी शंका नहीं है। तभी तो चुन्नीलाल उससे कह सका, "नहीं, नहीं। नोट -फोट की लालची और ही होती हैं। तुम उनमें से नहीं हो ।” (देवदास)ן
लेकिन वह कितनी ही धर्मप्राणा हो, थी तो एक नर्तकी ही । शरत् के नाना के परिवार के लोग इस बात को कभी स्वीकार नहीं कर सकते थे कि वह उसके घर जाये। उनकी दृष्टि में वह उच्छृंखल और चरित्रहीन होता जा रहा था । इसलिए वह उनके घर में मुक्त भाव से नहीं आ सकता था। अन्दर आने से पहले उसे खांसना पड़ता था, जिससे वयस्का बहनें अन्दर चली जायें।
लेकिन नाना के परिवार के लोगों को प्रसन्न करने के लिए उसने अपना चरित्र सुधारने की ज़रा भी चेष्टा नहीं की। तब एक दिन छोटे नाना अघोरनाथ ने आदेश निकाला, “शरत् को घर में मत आने दो, उसका प्रवेश वर्जित है।”
प्रतिभाशालियों की यही नियति होती है शायद क्योंकि एक दिन कवि शेली के विद्रोही विचारों के कारण उसकी मां ने भी उसकी बहनों से कहा था कि वे शेली से अधिक बातें न किया करें। वह न धर्म में विश्वास रखता है न विवाह में।