घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक बाबाजी आधी आंखें खोले हुए सामने ही विराजमान हैं। आस-पास गांजा पीने के साधन हैं। दूध के लिए एक बकरी और गाय है। ऊंट और टट्टू भी हैं। और इसी के साथ भांग छानने का सरंजाम भी है। शरत् ने तुरन्त आगे बढ़कर बाबाजी के चरण छुए और विनम्र स्वर में कहा, “मैं गृहत्यागी, मुक्ति- पथान्वेषी, हतभाग्य शिशु हूं। दया करके अपने चरणों की सेवा करने की आज्ञा दीजिए।”
बाबाजी हंसे, फिर सिर हिलाकर बोले, “बेटा, घर लौट जा, यह पथ बड़ा ही दुर्गम है। " शरत् ने करुण स्वर में कहा, “बाबाजी, बहुत-से पापी आप जैसे सन्तों के चरण पकड़कर उतर गए हैं। क्या मैं आपके चरणों में पड़कर मुक्ति भी नहीं पा सकता?”
बाबाजी प्रसन्न हुए। बोले, “तू सच कहता है। अच्छा बेटा, भगवान की यही इच्छा है तो यहीं रह ।”
और शरत् को उस दल में शरण मिल गई। गांजा आदि तैयार करने मे तो वह निपुण था ही, बाबाजी को प्रसन्न करने में देर नहीं लगी। बहुत जल्दी उसे दीक्षित कर लिया गया और बाकायदा गेरुवे वस्त्र तथा रुद्राक्ष की माला ग्रहण करके वह उनका शिष्य बन गया।
कई दिन तक इसी प्रकार शिष्यत्व निभाता हुआ वह उनके साथ घूमता रहा। लेकिन एक स्थान पर अधिक दिन ठहरना उसके लिए असम्भव था। एक दिन वह उनसे बिछुड़ गया। तभी उसका एक श्रद्धालु परिवार के साथ परिचय हुआ। उन दिनों उस प्रदेश में शीतला खूब फैली हुई थी। वह परिवार भी उसके आक्रमण से नहीं बच सका। शरत्, जेसा कि उसका स्वभाव था, जी-जान से उनकी सेवा में लग गया। धीरे-धीरे रोग का प्रकोप कम हुआ और वे सब स्वस्थ हो गए। उसके प्रति उनकी कृतज्ञता की कोई सीमा नहीं थी। उन्होंने उसे अपने साथ चलने का निमन्त्रण दिया।
वे आगे बढ़ने की तैयारी कर रहे थे कि सहसा शरत् को ज्वर हो आया और तब वह परिवार उसे ऐसे छोड़कर चला गया जैसे कभी कोई परिचय ही नहीं हुआ हो। जब उसकी आंख खुली तो वहां कोई भी नहीं था। उस अवस्था मे वह स्वयं स्टेशन की ओर चल पड़ा। मार्ग में एक बूढ़े बिहारी ने दया करके उसे अपनी गाड़ी में बिठा लिया और स्टेशन पर जाकर छोड़ दिया।
कब तक वह वहां पड़ा रहा, कैसे वह ठीक हुआ, यह काई नहीं जानता। उसे इतना ही याद था कि एक गरीब बंगाली लड़का उसके लिए अपना फटा हुआ बिछौना लाकर छि गया था। उसे गरम-गरम दूध पिलाया था और फिर कहा था, “डरने की कोई बात नहीं है, अच्छे हो जाओगे। घर का पता बताओ तो मैं तार दे सकता हूं।”
लेकिन उसने किसी को कुछ नहीं बताया। अच्छा होने तक वहीं पडा रहा। उस लड़के ने तथा स्टेशन के दूसरे लोगों ने उसकी बराबर देख-भाल की। जब चलने फिरने लायक हो गया तो वह मुजफ्फरपुर चला गया। वहां एक धर्मशाला में ठहरा। अभी भी वह संन्यासी के वेश में था। इस वेश में भीख मिलने में सुविधा रहती है।
एक दिन बंगालियों के क्लब में जाकर उसने शुद्ध हिन्दी में एक व्यक्ति से कहा, “मुझे एक पोस्ट कार्ड चाहिए, और कलम भी। चिट्ठी लिखना चाहता हूं।”
सामान मिल जाने पर वहीं एक कोने में बैठ गया और पत्र लिखने लगा। आस-पास बच्चे धूम रहे थे। संन्यासी को पत्र लिखते देखकर वे कौतूहल से झांकने लगे। देखा कि वह अत्यन्त सुन्दर बंगाली अक्षरों में पत्र लिख रहा है।
एक कान से दूसरे कान होती हुई यह बात सदस्यों तक पहुंच गई। वे भी उस संन्यासी के प्रति कौतूहल से भर उठे। प्रमथनाथ भट्ट नाम के एक युवक ने पास आकर बंगला में पूछा, “आप कौन हैं और कहां से आए हैं?"
शरत् ने मुस्कराकर उत्तर दिया, “मैं बिहारी हूं, घूम-घूमकर जीवनयापन करता हूं।” उस मुस्कराहट ने रहस्य खोल दिया। प्रमथ ने कहा, "रहने दीजिए, आप बिहारी नहीं, बंगाली हैं। अब यह सत्तू खानेवालों की भाषा छोड़कर अपनी मातृभाषा में बात कीजिए।
उसके बाद साधु का वह बाना न जाने कहां चला गया, लेकिन अभी भी जो अपरिचित थे उन्हें वह ‘बिहारी हूं' कहकर परिचय देता था और धर्मशाला में ही रहता था। उस दिन छत पर बैठा तन्मय होकर गा रहा था कि उसी समय एक युवक निशानाथ बन्दोपाध्याय वहां से गुजरा। संगीत की मधुर ध्वनि सुनकर वह ठिठक गया। उसके परिवार की संगीत में बड़ी रुचि थी। प्रतिदिन कोई न कोई गवैया आकर मजलिस जमाता था। वह तुरन्त शरत् के पास पहुंचा, कहा, “आप बहुत सुन्दर गाते हैं, कहां के रहने वाले हैं?”
शरत् ने उत्तर दिया, “मैं भागलपुर से आया हूं। मेरा नाम शरच्चन्द्र है।”
निशानाथ बोला, “भागलपुर ! वहां के श्री भूदेव मुकर्जी की पोती अनुरूपा देवी मेरी भाभी हैं।”
शरत् ने कहा, “मैं उन्हें पहचानता हूं, विभूति की बहन निरुपमा की वह सखी हैं। सौन्द्रमोहन मेरा मित्र है।”
अब तो निशानाथ बड़े आग्रह के साथ शरत् को घर ले आया। बड़े भाई शिखरनाथ से कहा, “ये भागलपुर के शरच्चन्द्र हैं, कण्ठ बड़ा मधुर है इनका ।”
शिखरनाथ हंस पड़े, बोले, “और ये कहानी भी तो लिखते है । तुम्हारी भाभी ने मुझे इनके बारे में बताया था।”
शरत् वहीं रहने लगा। नित्य संगीत की मजलिस जमती थी। एक सुगायक के रूप में शीघ्र ही उसकी ख्याति फैल गई। वर्षों बाद उसके कण्ठ को याद करके शिखरनाथ कह उठते, “अहा, शरत् इस गाने को जैसे गाता था, अब भी कानों में गूंज रहा है।”
दो महीने किधर से आकर न आने किधर चले गये, कोई जान भी नहीं सका। वह अनाथों की तरह मुजफ्फरपुर आया था, लेकिन शीघ्र ही मित्रों से घिर गया। बंगालियों के अतिरिक्त एक नवयुवक बिहारी महादेव साहू से भी उसका घनिष्ठ परिचय हो गया। वह धनी ज़मींदार था और बंगाली लिखना पढ़ना और उनके समान ही पोशाक पहनना उसने सीख लिया था। शरत् के प्रति उसके आकर्षण के कई कारण थे। मधुर कण्ठ और क्या कहने की अद्भुत क्षमता। एक दिन उसने कहा, “मैंने राणाघाट में पुलिस के हाथ से एक अविवाहित लड़की की रक्षा की थी । "
साहू के एक साथी ने मुस्कराकर पूछा, “सच?”
“बिलकुल सच।”
लेकिन जब उस साथी ने राणाघाट जाकर शरत् की कहानी के बारे में छानबीन की तो पता लगा कि सब कुछ कपोलकल्पित है। लेकिन कुछ भी हो, वे कहानियां सुनकर श्रोता गद्गद् हो उठते। वे उन्हें कौतूहल से ही नहीं भरती थीं, हंसाती भी खूब थी। जिस सह भाव से वह हंसा सकता था, उसी सहज भाव से असहाय रोगियों की परिचर्या और मृत व्यक्तियों का संस्कार जैसे कठिन कामों के बीच भी वह एकान्त भाव से डूब सकता था।
कुछ ही दिनों में साहू और वह दोनों ऐसे घुल-मिल गए कि शराब पीना और वेश्यागमन आदि सभी कामों में एक-दूसरे य साथ देने लगे। शिकार भी साथ-साथ खेलने जाते थे। साहू किस्सा अलिफफैला के आबूहसन की तरह मुसाहिबों से घिरा रहता था। वह बिलियर्ड भी खूब खेलता था, पर शरत् इस कला से अनभिज्ञ ही रहा। हां, सुविधा होने पर पीने का शौक अवश्य कुछ बढ़ गया। लेकिन बदहवास होते उसे किसी ने नहीं देखा। इसके विपरीत बांसुरी का स्वर तब और भी मादक हो उठता । श्रोता मुग्ध होकर उसे सुनते रहते।
साहू भी सुनता था और शिकार, शराब तथा वेश्या के पीछे पानी की तरह पैसा बहाता था। उसके सम्बन्धी बड़े परेशान हुए। उन्होंने कहना शुरू किया, “भागलपुर से एक बंगाली युवक शरत् ने आकर साहू को पथभ्रष्ट कर दिया है।”
दूसरा दल कैसे पीछे रहता। उसने कहा, “साहू ने शरत् को बिगाड़ा है।”
परस्पर दोषारोपण के इस घात-प्रतिघात से दोनों मित्र बेखबर हों, यह बात तो नहीं थी, लेकिन इसकी चिन्ता उन्होंने कभी नहीं की। दोनों मन ही मन हंसते, क्योंकि दोनों जानते थे कि वे मिलने से पहले ही सब कुछ सीख चुके थे। शरत् को अब पैसे की सुविधा हो गई और साहू को मिल गया एक मनचाहा मीत। वह शरत् को अपना आदर्श मानने लगा। शरत् ईश्वर में विश्वास नहीं करता था। साहू भी कहने लगा, “शरत् दादा कहते हैं कि ईश्वर नहीं हैं। इसलिए सचमुच ही ईश्वर नहीं है। मैं भी मानता हूं कि ईश्वर नहीं है।”
वह अभी तक शिखरनाथ के घर रह रहा था, लेकिन साहू के साथ जब मजलिस जमने लगी तो रात को लौटने में भी देर होने लगी। घर की स्वामिनी उसे पुत्र के समान प्यार करती थी। वह देर तक बैठी उसकी राह देखती रहती। लेकिन इधर उसने ऐसा अनुभव किया कि कभी-कभी शरत् होश में नहीं होता। उसके मुंह से बदबू भी आती है। उसने शिखरनाथ से शिकायत की, “शरत् का इतनी रात को इस तरह घर में आना मुझे अच्छा नहीं लगता।”
शिखरनाथ ने उसी दिन शरत् से कहा, “तुम्हारा देर से आना और शराब पीना इस घर के लोगों को अच्छा नहीं लगता। तुम्हें सावधान रहना चाहिए।"
वह परिवार संगीत का प्रेमी था, परन्तु था धर्मप्राण । शरत् ने अपनी गलती अनुभव की। वह फिर वहां नहीं लौटा। एक मेस में जाकर रहने लगा, पर जेब में पैसे कहां थे? आखिर वह महादेव साहू के पास चला गया। उसका खाना-पीना, उठना-बैठना, जागना- सोना, अब साहू के साथ होने लगा।
प्रेम की पीर अभी भी शरत् को परेशान कर रही थी। उसकी प्रेमिका नीरदा उससे विमुख होकर भागलपुर से चली आई थी। उसने सुना था कि आबकारी के किसी दरोगा के साथ वह यहां आकर रहने लगी है। इसीलिए वह मुजफ्फरपुर आया था। और एक दिन उसने उसे ढूंढ़ ही लिया, लेकिन नीरदा ने उसकी ओर दृष्टि उठाकर देखा तक भी नहीं ।
प्रेम अन्धा होता है। शरत् अब भी यह विश्वास करता था कि नीरदा उससे प्रेम करती है। वह उसका पीछा करता रहा। परेशान होकर एक दिन नीरदा ने दरोगा से शिकायत कर दी। दरोगा ने उसी दिन शरत् को पकड़ा और खूब पीटा। इतना कि बहुत देर तक वह बेहोश पड़ा रहा। मालूम नहीं उसके बाद भी उसका भ्रम टूटा या नहीं, या सारी कहानी ही एक विराट भ्रम है। लेकिन यह सच है कि मुजफ्फरपुर में रहते हुए उसे नारियों के साहचर्य की कमी नहीं हुई। पूंटी नामक एक सुन्दर वेश्या को बुलाकर साहू प्रतिदिन नृत्य-गान की मजलिस जमाता था और दोनों मित्र उसमें मुक्त होकर भाग लेते थे।
इसी समय शरत् का परिचय राजबाला नाम की एक अत्यन्त सुन्दरी से हुआ। उसके जीवन की कहानी अत्यन्त रोमांचक है। उसके पिता विधुभूषण बाबू एक वकील थे। घर से भागी हुई एक बंगाल वधू को उन्होंने शरण दी थी। कुछ दिन बाद उसका प्रेमी उसे छोड़कर चला गया। तब वह असहाय वधू उनके ही पास रहने लगी । अन्तत: उन्होंने उससे विवाह कर लिया। उससे दो पुत्र और चार पुत्रियां उन्हें प्राप्त हुई। पुत्रियां एक से एक बढ़कर सुन्दर थीं। राजबाला विशेष रूप से सुन्दर थी। जैसे-जैसे वह युवती होती गई वैसे-वैसे उसके सौंदर्य की कहानी शहर में फैलती गई। गौर वर्ण, कसे हुए अंग, तीखे नक्श और मादक स्वभाव, उसे पुरुषों की संगति बड़ी प्रिय थी। विवाहित होने पर भी वह शहर के सभी मनचले युवकों की हृदयवल्लभा बन गई। तब शरत् और साहू से उसका परिचय कैसे नहीं होता। साहू के पास सभी सुविधाएं थीं, इसलिए शरत् को वहां जाने में कोई असुविध नहीं हुई। वह मुक्त होकर राजबाला के रूप-जाल में फंस गया
मुजफरपुर का यह जीवन हर दृष्टि से बोहेमियन था। शिकार, शराब और वेश्या – इनकी सुविधा होने पर और हो भी क्या सकता था ! वह न सुन्दर था और न स्वस्थ। पैसा भी उसके पास नहीं था, लेकिन वे गुण तो थे, जो किसी को सबका प्रिय बना देते थे। स्त्रियां विशेष रूप से उसके वाग्जाल में फंसकर उसकी ओर आकर्षित होती थीं।
लेकिन इस चरित्रहीनता के बीच में से निस्संग होकर उठ जाने की शक्ति उसमें अब भी थी। अन्तर में बैठा वैरागी शरत् उसे खींच ले जाता था दूर निर्जन में। वह नदी के तट पर जाकर घण्टों अकेला बैठा रहता और लिखता रहता । न जाने कितनी रचनाएं उसने लिखीं। एक पूरा उपन्यास 'ब्रह्मदैत्य' उसी में था।
असमाप्त ‘चरित्रहीन’ की पाण्डुलिपि भी उसके पास थी। उसी को लेकर प्रमथनाथ से उसकी मित्रता गहरी हुई। ये वर्द्धमान ज़िले के रहने वाले थे। यहां वे अपने काका के पास रहकर पढ़े थे। इस समय मिलने के लिए आये हुए थे। यह मित्रता कालान्तर में कई रूपों में आदर्श प्रमाणित हुई।
मित्रों के अतिरिक्त यहां वह और भी विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों से मिलता था। वेश्याएं, साधु, जमींदार, कारकुन, वकील, संगीत-प्रेमी और नीचे तबके के लोग। वह उनका खूब अध्ययन करता, उनकी बातें सुनता, और उन्हीं के आधार पर एकान्त में जाकर लिखता रहता। कभी-कभी वह व्यक्तियों के रेखाचित्र लिखकर सुनाता भी। उन रेखाचित्रों में मनोवैज्ञानिक विश्लेषण रहता था। साधारण व्यक्ति के लिए जो जीवन अप्रतिष्ठा और कलंक का कारण हो सकता है वही साहित्यिक के लिए बड़ी शक्ति बन जाता है। विश्वकवि ने लिखा है :-
जीवन-मन्थन से निकला विष
वह जो तुमने पान किया।
और अमृत हो बाहर आया,
उसे जगत को दान दिया।