‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर होता था । टिफिन के समय सभी लोग वहां चाय पीने जाते थे। कभी-कभी बातचीत इतनी लम्बी हो जाती थी कि टिफिन का समय बीत जाता। देर से आने पर सिंहलदेश-वासी वृद्ध सुपरिंटेण्डेण्ट किंचित मुस्कराते और कहते, “अच्छा तो आप दोनों फिर देर से आए !”
दोनों लज्जा से गड़ जाते । दो-तीन दिन तक भले आदमी की तरह समय पर लौटते, उसके बाद फिर देर होने लगती। लेकिन दफ्तर में भले ही देर हो जाती हो, 'राम की सुमति' के साथ-साथ शरत् की सुमति भी अब लौट आई थी। नई कहानी 'पथ निर्देश' उसकी दृष्टि से ‘रामेर सुमति' से भी अच्छी थी। लेकिन योगेन्द्रनाथ के विचार में उसका अन्त ठीक नहीं था। राधाकृष्ण के विशुद्ध प्रेम का उल्लेख करते हुए उन्होंने किहा, “शरत् दा, आप कहते हैं कि आप वैष्णव हैं, सोचता हूं वृन्दावन के उन चिर किशोर-किशोरियों की प्रेम-लीला की बात, जहां इन्द्रियों का कोई सम्पर्क ही नहीं। आपमें जैसे लिखने की क्षमता है उससे लगता है कि आप बहुत अच्छी तरह उस भाव का चित्रण कर सकते हैं।
शरत् ने उत्तर दिया, “तुम लोगों की जैसी रुचि है, उससे तो कहानी और उपन्यास नहीं लिखे जा सकते। सब कुछ को तो तुम धर्म, मर्म और कर्म की दृष्टि से देखते हो ।”
सरकार बोले, “आप लेखक हैं और मैं पाठक हूं। हमें भी तो अच्छी लगनी चाहिए।” गम्भीर होकर शरत् ने उत्तर दिया, “हां, लगना तो चाहिए। पर लेखक में भी विचार करने की अपनी क्षमता होती है। अनेक लोग अनेक तरह की उलटी-सीधी बातें कहना चाहते हैं। पांच जनों के मुंह से मतामत लेकर क्या कम हो सकता है? दुनिया ऐसे नहीं चलती।”
बात कुछ अधिक तेज हो गई थी। योगेन्द्र ने तुरन्त जवाब नहीं दिया। कुछ देर बाद कहा, “यह बात ठीक है शरत् दा, लेकिन यह बात और भी ठीक है कि किसी से पूछा जाए तो वह अपनी पसन्द का जवाब देगा ही। बशर्ते कि वह एकदम खुशामदी न हो ।”
शरत् मन ही मन तिलमिला आया। फिर भी यथासम्भव गम्भीर रहने की चेष्टा करते हुए उसने कहा, “तो बताओ, तुम क्या करने पर खुश होगे?”
योगेन्द्र ने उत्तर दिया, “वह तो मैं बता चुका हूं, शरत् दा। अब आपकी खुशी है। मुझे और कुछ नहीं कहना।”
“अच्छा देखता हूं, कुछ कर सका तो ।”
और शरत् ने उस प्रसंग को वहीं समाप्त कर दिया। योगेन्द्र समझ गए कि वह नाराज़ है। पास आकर बोले, “शरत् दा, आप जिस प्रकार इस कहानी के अन्त को मुझसे कहकर हलके मन के हो गए, उसी प्रकार मैंने भी अपने मन की बात कही थी। इससे यदि सचमुच अन्याय हुआ है तो मैं उस बात को वापस लेता हूं। आप अपने विचार में जो ठीक समझते हैं वही क्यों नहीं करते?”
शरत् ने कहा, “ना रे सरकार, कुछ अन्याय नहीं हुआ। सोचता हूं, तुम्हारी बात खराब नहीं है। अच्छा देखा जाएगा क्या कर सकता हूं।”
“निश्चय ही कर सकोगे, निश्चय ही कर सकोगे।”
“नही कर सका तो इसमें मेरा अपराध नही होगा।”
“अच्छा, यही बात ठीक है। अपराध तो मेरा ही है शरत् दा । "
सरकार ने लिखा है, जिस दिन पूरी कहानी फिर से पढ़ने का अवकाश पाया तो लगा कि किसी ऐन्द्रजालिक स्पर्श से कहानी का अन्त इस प्रकार परिवर्तित हो गया है और सम्पूर्ण कहानी इस प्रकार श्रीसम्पन्न हो गई है कि यही कहा जा सकता है 'अनुपम'।”
‘पथ निर्देश' एक प्रेम कहानी है। हेमनलिनी और उसकी माता गुणेन्द्र के आश्रम में आकर रहती हैं। यहीं हेम और गुणेन्द्र में प्रेम होता है। दोनों एक-दूसरे को हृदय से चाहने लगते हैं। परन्तु गुणेन्द्र ब्रह्म समाजी है। इस कारण हेम की मां उसकी इच्छा के विरुद्ध उसका विवाह अन्यत्र कर देती है। दुर्भाग्य से एक ही वर्ष के भीतर वह विधवा होकर फिर वहीं लौट आती है। मां की व्यथा का पार नही। उसी व्यथा में से वह अपनी गलती पहचानती है और मृत्युशय्या पर यह इच्छा प्रकट करती है कि गुणेन्द्र हेम से पुनर्विवाह करके सुखी हो। लेकिन न तो वह लड़की से कुछ कह पाती है और न गुणेन्द्र ही उसकी मृत्यु के बाद ऐसा कहने कि साहस बटोर पाता है। इसी प्रकार उनके प्रेम और संकोच के बीच में एक अन्तर्युद्ध चलता रहता है और अन्त में वे दोनों वास्तविक प्रेम को महामहिमान्वित करने के लिए काशीवास करने चले जाते हैं।
प्रारम्भ में इस कहानी का अन्त हेम और गुणेन्द्र के मिलन में हुआ था। उसी का योगेन्द्रनाथ ने विरोध किया था। काफी अन्तर्मथन के बाद अन्त में शरत् ने योगेन्द्र का सुझाव स्वीकार कर लिया। इसीलिए जब गुणेन्द्र काशी चलने का प्रस्ताव रखता है तो रोती हुई हेम कहती है, “चलो, पर क्या यही तुम्हारी अन्तिम आज्ञा है? इसे मैं सह सकूंगी?”
गुणेन्द्र ने कहा, “जरुर सह सकोगी। जब तुम यह समझोगी कि प्रेम को महा- महिमान्वित करने के लिए विच्छेद ने सिर्फ तुम जैसी अतुल ऐश्वर्यशालिनी के द्वार पर ही आकर हमेशा हाथ पसारे हैं, वह अल्पप्राण क्षुद्र प्रेम की झोंपडी में अवज्ञा से नहीं गया है, तब तुम सह सकोगी। जब समझोगी कि अतृप्त वासना ही महत् प्रेम की प्राण है, इसी के द्वारा ही वह अमरत्व प्राप्त करके युग-युग में कितने काव्य, कितनी मिठास, कितने अमूल्य आंसू संचित करके रख जाता है। जब तुम इस बात को निःसंशय अनुभव कर सकोगी कि क्यों राधा का शतवर्ष व्यापी विरह वैष्णवों का प्राण है, तब तुम सह सकोगी हेम । उठकर बैठो ! चलो, आज ही हम काशी चले। जो थोडे-से दिन बाकी हैं, उन दिनों की अन्तिम सेवा तुम्हारे भगवान के आशीर्वाद से अक्षय होकर तुम्हें जीवन-भर सुमार्ग में शान्ति से रखेगी।”
यह अन्त योगेन्द्र को ही अच्छा लगा हो, यह बात नहीं, सौरीन्द्रमोहन ने भी इसकी प्रशंसा की और जब शरत् ने योगेन्द्र को यह बात बताई तो गद्गद् होकर उसने कहा, “देखा न, जो मैंने कहा था ठीक निकल !”
शरत् ने उत्तर दिया, “हां सरकार, तुमने ठीक कहा था। सचमुच, हर समय अपना विचार ही निर्दोष नहीं होता।
एक दिन सौरीन्द्र के कहने पर शरत् ने 'बड़ी दीदी' के अन्त की दो पंक्तियां काट दी थीं, हरिकृष्ण के कहने पर 'काशीनाथ' का अन्त बदल दिया था। अब भी योगेन्द्र के कहने पर ‘पथ निर्देश' का अन्त दूसरे रूप में कर दिया। दूसरों के विचार उसे अन्तर्मन्थन की प्रेरणा देते थे और उनके स्वीकार या अस्वीकार को वह झूठी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाता था। अब्राहम लिंकन ने राष्ट्रपति पद से दिए गए अपने प्रथम भाषण के अन्त में अपने मित्र वार्ड के सुझाव पर भावनात्मक अपील के कुछ शब्द जोड़ दिए थे। इन्ही शब्दों को लोगों ने वर्षो तक याद रखा था।
‘पथ निर्देश' का यह वर्तमान अन्त ही शरत् साहित्य की मूल भावना के पास है। उसका प्रेम सदा मिलन के अभाव में सम्पूर्ण और व्यथा में मधुर हुआ है। सूरदास की राधिका की तरह .......
मेरे नैना विरह की बेलि बई,
सींचत नीर नैन के सजनी मूल पताल गई।
स्वयं उसे यह कहानी 'रामेर सुमति' से अच्छी लगी थी। लेकिन ऐसे लोग भी कम नहीं थे (और आज भी नहीं है) जो यह मानते थे कि हिन्दू समाज के विधिनिषेधों द्वारा विपर्यस्त और विफल प्रेम की गहरी वेदना के बावजूद चरित्र चित्रण की दृष्टि से यह कथा ‘रामेर सुमति’ के सामने फीकी पड़ जाती है। वे लोग इसके अन्त से भी सहमत नही हैं, लेकिन साहित्य के क्षेत्र से बाहर एक वैज्ञानिक से उस कहानी को जो प्रशंसा मिली वह निस्सन्देह बहुत ही उत्साहवर्द्धक थी। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आचार्य जगदीशचन्द्र बसु ने शरत् को लिखा, “सफलता कितनी क्षुद्र है, विफलता कितनी बड़ी! आपकी कहानी 'पथ निर्देश पढ़ते-पढ़ते डर रहा था कि इतने कष्टों के बाद आप सफलता का मोह नहीं छोड़ सकेंगे। किन्तु खुशी हुई कि जो मार्ग बड़ा है वही दिखाना आप नहीं भूलें।”
'पथ निर्देश' का आधार उसकी व्यक्तिगत अभिज्ञता है यह बात शायद ही कोई जानता था। प्रमथ को उसने लिखा था,“ “पथ निर्देश' पढ़ी ? कैसी लगी? क्या बहुत दिन पहले की एक गुप्त कहानी याद आती है ......?...
इसके बाद उसने एक और कहानी लिखनी शुरू की। वह थी बिन्दो का लल्ला' । उसकी पूर्व कल्पना की झांकी उसके एक पत्र से मिलती है, “राम की सुमति' के समान प्रेमरहित बंगाली घर की कथा जिससे मनुष्य को शिक्षा मिले, ऐसी एक माला लिखने का निश्चय किया है। बंगाल का आदर्श अन्त-पुर क्या है, यही उससका प्रतिपाद्य विषय है । 'बिन्दो का लल्ला' एक कहानी लिखकर भेजी है। सोचा था तुम्हें दिखाऊंगा, किन्तु समय नहीं रहा । अवश्य ही तुम्हारे 'भारतवर्ष' के योग्य वह बिलकुल नहीं बनी। बहुत बड़ी हो गई है। इसलिए यमुना' को भेज दी है।”
रामेर सुमति, 'पथ निर्देश' और 'बिन्दो का लल्ला' एक के बाद एक लिखी गई इन तीन कहानियों को लेकर शरत् ने बार-बार अपने मित्रों को पत्र लिखे । उनसे उसकी उस समय की मनःस्थिति का पता लगता है ।
"मैंने सोचा बिन्दो का लल्ला' आपको पसन्द नहीं आएगी और छापने में आनाकानी करेंगे। बाद में मेरी खातिर अपनी हानि स्वीकार करके उसे छाप देंगे। इसी आशंका से पहले ही आपको सतर्क कर दिया। यदि सचमुच ही अच्छी लगे तो छापना ।"
“परिश्रम, रुचि और कला, सभी दृष्टियों से 'पथ निर्देश' के सामने 'राम की सुमति' का पद नीचा है, बहुत नीचा । मैंने एक पारिवारिक कहानी लिखने का निश्चय करके नमूने के तौर पर 'राम की सुमति' लिखी। इसी प्रकार हिन्दू परिवार में जितने तरह के संबंध हैं उन सबके संबंध में एक-एक कहानी लिखकर पुस्तक पूरी करूंगा। लेकिन वह केवल स्त्रियों के लिए ही होगी।
""बिन्दो का लल्ला' पढ़कर देखी ? वह प्रेम कहानी नहीं है। एकदम बंगाली घर की कहानी है । इसमें चरित्र है और उसका निर्वाह करने के लिए ही कुछ बढ़ गई है । कहानी समाप्त करके यदि पाठकों के मन में यह नहीं होता कि 'अहा, कितनी सुन्दर है' तब वह कहानी क्या? 'राम की सुमति', 'पथ निर्देश', 'बिन्दो का लल्ला' सभी इसी सांचे में ढली हैं । अच्छा बिन्दो का लल्ला' पढ़कर यदि तुम मेरे मन में यह साहस पैदा कर सकी कि अगर वह तुम्हारे 'भारतवर्ष' में भेजी जाती तो छप जाती तो कोशिश करूंगा - यह वचन देता हूं।"
जो स्वयं कहानियां लिखते हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि यदि राम की सुमति' आसानी से लिखी जा सकती है, तो पंथ निर्देश लिखने में अधिक साहस की आवश्यकता होती हैं? शायद सब नही लिख सकेंगे। अपनी समालोचना अपने-आप कैसे की जा सकती हैं ? फिर भी कलकत्ता और इस देश के लोगों के मत में दोनों कहानियां सुपरलेटिव डिग्री में 'एक्सीलेंट' हैं । द्विजू बाबू ने कहा हे 'आदर्श रूप हैं ।'' ?
उसकी रचना-प्रक्रिया, उसकी मान्यताएं, उसका दोहरा व्यक्तित्व, साहित्य-सृजन के पीछे निहित उद्देश्य सभी कुछ इन पत्रों में हैं। इन कहानियों ने तत्कालीन बंगाल के प्रबुद्ध मानस को आलोडित कर दिया है, इस बात को वह समझ गया था और इसीलिए उसके भीतर सोया हुआ अहम् उसके हीन भाव पर हावी हो गया था। प्रमथ के इस पत्र जैसे न जाने कितने पत्र उसके पास आए थे। बिन्दो का लल्ला' पढ़कर उसने लिखा था, “इससे अच्छी कहानी बंगला भाषा में निकली है, इसमें सन्देह है। तुमने लिखा है, यह अच्छी नहीं हुई। क्या खराबी है, मैं तो नहीं समझ पाता । भारतवर्ष को इसके प्रकाशित करने के गौरव से वंचित रखने को ही यह छल तुमने किया है। मेरा विश्वास है, 'भारतवर्ष' तो क्या, कोई भी पत्र इससे कहीं खराब गल्प छापकर धन्य हो सकता है ।......तुम तो कभी ठीक अर्थों में गृहस्थ नहीं रहे, सदा उदासीन रहे, फिर यह तीक्षा अवलोकन दृष्टि, यह सूक्ष्म से में सूक्ष्म विवरण कहां से पाया? अवाक् हूँ । 'जो लिखा है सब जातना हूं। पर कैसा सजीव, जैसे अपने घर कई घटना हो !"
महान् ताल्स्ताय से उसकी साली तान्या ने कुछ इसी प्रकार पूछा था, “मैं जानती हूं तुम जमीदारों, पिताओं, जनरलों और सिपाहियों का चित्रण करने में समर्थ हो, परन्तु एक प्रेम पीड़ित युवती के दर्द और एक मां की भावनाओं को कैसे शब्द दे सकते हो, मैं नहीं समझ पाती ।"
वह बेचारी नहीं जानती थी कि वह तान्या के प्रेम की व्यथा का हर क्षण साक्षी रहा है और स्वयं अपनी पत्नी में उसने नारी को एक पत्नी और एक मां के रूप में पाया है। शरत् भी न जाने ऐसी कितनी ही व्यथाओं का साक्षी रहा। कितने ही परिवारों के सुख-दुख का भागी बना । प्रथम प्रेम की विफलता की कसक को मन में सहेजे उसने शान्ति को पत्नी के रूप में पाया और खोया और फिर जीवनसंगिनी हिरमण्मयी की प्रेमिल छाया में उस आवारा और ब्रात्य व्यक्ति ने जीवन के नये अर्थ खोजे । परन्तु वह अपने को छिपाने कई कला में इतना कुशल था कि लोग अन्त तक उसे अविवाहित ही मानते रहे । बहुत वर्षो बाद हिन्दी के सुप्रसिद्ध लेखक जैनेन्द्र कुमार ने मानो तान्या के स्वर में लिखा, वह व्यक्ति जिसने पत्नी रूप में नारी को कभी नहीं पाया, प्रतिभा पाई, बासठ वर्ष की वय पाई, स्नेह से लबालब भरी आत्मा पाई, फिर भी नारी को पत्नी नहीं पाया -ठीक उसी व्यक्ति ने हृदय को जितना स्पंदनशील और संपूर्ण भाव से चित्रित किया, वैसा क्या कोई गृहस्थ कर सका? इसी से इस वैरागी, फिर भी संसारी प्राणी के प्रति उत्कण्ठ जिज्ञासा से भर-भर आया ।.
अनुभव सभी को होते हैं पर उन्हें अनुभूति में रूपान्तरित करने की सूक्ष्म पर्यवेक्षक दृष्टि के बिना कलाकार का जन्म नहीं होता । शरत् के पास वह दृष्टि बचपन से ही थी। इन तीन कहानियों के अतिरिक्त उन्हीं दिनों उसने एक लम्बा निबन्ध 'नारी का मू? भी लिखा । चरित्रहीन की तरह एक लम्बा प्रबन्ध 'नारी का इतिहास भी आग से जलकर भस्म हो गया था । उसी की स्मृति के आधार पर उसने इस निबन्ध की रचना की थी। धारावाहिक रूप में ये 'यमुना' में छपने लगा। ' लेकिन लेखक के रूप में इस पर उसने अपना नाम नहीं दिया । इसकी लेखिका हुई, उसकी बड़ी बहन अनिला देवी । इसी नाम से वह कुछ नारी लेखिकाओं की पुस्तकों की समालोचना 'नारी का लेखा' भी लिख चुका था ।
इनकी चर्चा करते हुए उसने योगेन्द्रनाथ से कहा, “अपनी दीदी की कहानी जान पड़ता है मैंने तुम्हें नहीं बताई । यह लेख 10' उन्हीं के नाम से प्रकाशित होगा । वह बहुत अच्छी तरह लिखना-पढ़ना जानती हैं, लेकिन घर-गृहस्थी में फंसी हैं। ऐसी चर्चा करने का समय नहीं पातीं।”
यद्यपि इस निबन्ध पर उसका अपना नाम नहीं गया था, फिर भी अनेक परिचित और अपरिचित लोगों ने उस लेख की भाव-भीनी प्रशंसा करते हुए उसे लिखा । उसकी भाषा और शैली दोनों से ही पाठक अब खूब परिचित हो गए थे । उसका विचार इस प्रकार के बारह मूल्य' लिखने का था । नारी का मूल्य धर्म का मूल्य' ईश्वर का मूल्य, 'नशे का मूल्य, 'झूठ का मूल्य', 'आत्मा का मूल्य', पुरुष का मूल्य 'साहित्य का मूल्य समाज का मूल्य, 'अधर्म का मूल्य' वेश्या का मूल्य' और सत्य का मूल्य' ।
कुछ दिन बाद सांख्य का मूल्य' और वेदान्त का मूल्य दो और मूल्य इस योजना के साथ जुड़ गए । योजनाएं बनाना वह खूब जानता था, लेकिन विरासत में मिली हुई अजगरी वृत्ति के कारण उन्हें कार्यान्वित करना उसने नहीं सीखा था । नाम प्रकट हो जाने का बहाना मिल जाने पर काम न करना और भी सरल हो गया। हुआ यह कि जब द्विजेन्द्रलाल राय ने 'नारी का मूल्य' को अमूल्य बताते हुए उसकी बड़ी प्रशंसा की तो प्रमथनाथ अपने को न रोक सके। उन्होंने शरत् का नाम प्रकट कर दिया। शायद उसी की ओर इशारा करते हुए शरत् ने लिखा, “सोचता हूं लोगों ने मेरा नाम कैसे जाना? शायद फणि के द्वारा, शायद तुम्हारे द्वारा। यह अनिष्ट हुआ। अब क्या करूं बताओ? इन मूल्यों में 'वेश्या का मूल्य' और ‘नशे का मूल्य' सबसे अधिक रोचक होते। उन पर ही बन्धु बान्धवों की भीषण आपत्ति है। वे किसी भी तरह राज़ी नहीं हैं कि ये दोनों मैं दीदी के नाम से लिखूं। सोचता हूं 'एवोल्यूशन आफ आइडिया आफ सोल' शुरू करूं । ठीक 'नारी का मूल्य' के समान।”
फिर लिखा, “कभी-कभी इच्छा होती है कि हर्बर्ट स्पेंसर के पूरे समन्वयात्मक दर्शन की एक बंगला समालोचना (नहीं आलोचना) और योरोप के अन्यान्य दार्शनिक जो स्पेंसर के शत्रु-मित्र हैं उनकी रचनाओं पर एक बड़ा धारावाहिक निबन्ध लिखूं। हमारे देश की पत्रिकाओं में केवल अपने 'सांख्य' और 'वेदान्त', 'द्वैत' और 'अद्वैत' के अलावा और किसी तरह की आलोचना नहीं रहती।”
इससे यह बात एक बार फिर स्पष्ट हो जाती है कि वह खूब पड़ता और सोचता था। लेकिन किसी भी कारण से ही तीन वर्ष बाद 'समाज धर्मेर मूल्य' को छोड़कर वह और कोई 'मूल्य' नहीं लिख पाया। कहानियां ही लिखता रहा। उनके लिए मित्रों का आग्रह तो था ही, आर्थिक आग्रह भी था । प्रकाशकों की राय थी कि निबन्धों की अपेक्षा किसी तरह जोड़-जाड़ के दो-चार कहानियां लिख दी जाएं तो उनकी हज़ार कापियां बिक जायेंगी।
ये निबन्ध न लिखे जाने का एक और कारण बने विभूतिभूषण भट्ट। जहां अनेक लोगों ने ‘नारी का मूल्य' की प्रशंसा की, वहां विभूतिभूषण ने उसकी उतनी ही निन्दा की। उन्होंने सौरीन्द्रमोहन को लिखा, “मिसेज पंकरस्ट के आदर्श सामने रखना दुस्साहसिकता है। मैंने बूड़ी (निरुपमा देवी) से इस स्त्री नामधारी उद्धत महापुरुष की अथवा स्त्रियों के स्वत्व की रक्षा करने वाले 'डानक्विकज़ोट' की बातों का प्रतिवाद करने को कहा है।”
यह समाचार पाकर शरत् बड़ा निरुत्साहित हुआ। उसने निश्चय किया कि वह इस प्रकार के निबन्ध नहीं लिखेगा । सौरीन्द्र को इस बात की सूचना देते हुए उसने लिखा, “पुंटू (विभूतिभूषण भट्ट) को लिख दिया है कि बूड़ी इस संबंध में कुछ न लिखे। प्रतिवाद मैं सहन नहीं कर सकता। वह तो गाली-गलौज करने जैसा है। यदि कुछ कहना है तो बातचीत में कहो। उसमें सुविधा रहती है। दोनों पक्ष एक-दूसरे को गलत नहीं समझते। शंका भी समाप्त हो जाती है।”
यद्यपि उसने अपने एक मित्र से कहा था, “सब मेरे कथाशिल्प की प्रशंसा करते हैं, परन्तु मैने 'नारी का मूल्य' प्रबन्ध अपनी कहानियों से कम दर्द के साथ नहीं लिखा।” फिर भी नाना कारणों से मूल्य' लिखने का निश्चय उसे यहीं समाप्त कर देना पड़ा। इसे साहित्य का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।