shabd-logo

अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023

52 बार देखा गया 52

‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर होता था । टिफिन के समय सभी लोग वहां चाय पीने जाते थे। कभी-कभी बातचीत इतनी लम्बी हो जाती थी कि टिफिन का समय बीत जाता। देर से आने पर सिंहलदेश-वासी वृद्ध सुपरिंटेण्डेण्ट किंचित मुस्कराते और कहते, “अच्छा तो आप दोनों फिर देर से आए !”

दोनों लज्जा से गड़ जाते । दो-तीन दिन तक भले आदमी की तरह समय पर लौटते, उसके बाद फिर देर होने लगती। लेकिन दफ्तर में भले ही देर हो जाती हो, 'राम की सुमति' के साथ-साथ शरत् की सुमति भी अब लौट आई थी। नई कहानी 'पथ निर्देश' उसकी दृष्टि से ‘रामेर सुमति' से भी अच्छी थी। लेकिन योगेन्द्रनाथ के विचार में उसका अन्त ठीक नहीं था। राधाकृष्ण के विशुद्ध प्रेम का उल्लेख करते हुए उन्होंने किहा, “शरत् दा, आप कहते हैं कि आप वैष्णव हैं, सोचता हूं वृन्दावन के उन चिर किशोर-किशोरियों की प्रेम-लीला की बात, जहां इन्द्रियों का कोई सम्पर्क ही नहीं। आपमें जैसे लिखने की क्षमता है उससे लगता है कि आप बहुत अच्छी तरह उस भाव का चित्रण कर सकते हैं।

शरत् ने उत्तर दिया, “तुम लोगों की जैसी रुचि है, उससे तो कहानी और उपन्यास नहीं लिखे जा सकते। सब कुछ को तो तुम धर्म, मर्म और कर्म की दृष्टि से देखते हो ।”

सरकार बोले, “आप लेखक हैं और मैं पाठक हूं। हमें भी तो अच्छी लगनी चाहिए।” गम्भीर होकर शरत् ने उत्तर दिया, “हां, लगना तो चाहिए। पर लेखक में भी विचार करने की अपनी क्षमता होती है। अनेक लोग अनेक तरह की उलटी-सीधी बातें कहना चाहते हैं। पांच जनों के मुंह से मतामत लेकर क्या कम हो सकता है? दुनिया ऐसे नहीं चलती।”

बात कुछ अधिक तेज हो गई थी। योगेन्द्र ने तुरन्त जवाब नहीं दिया। कुछ देर बाद कहा, “यह बात ठीक है शरत् दा, लेकिन यह बात और भी ठीक है कि किसी से पूछा जाए तो वह अपनी पसन्द का जवाब देगा ही। बशर्ते कि वह एकदम खुशामदी न हो ।”

शरत् मन ही मन तिलमिला आया। फिर भी यथासम्भव गम्भीर रहने की चेष्टा करते हुए उसने कहा, “तो बताओ, तुम क्या करने पर खुश होगे?”

योगेन्द्र ने उत्तर दिया, “वह तो मैं बता चुका हूं, शरत् दा। अब आपकी खुशी है। मुझे और कुछ नहीं कहना।”

“अच्छा देखता हूं, कुछ कर सका तो ।”

और शरत् ने उस प्रसंग को वहीं समाप्त कर दिया। योगेन्द्र समझ गए कि वह नाराज़ है। पास आकर बोले, “शरत् दा, आप जिस प्रकार इस कहानी के अन्त को मुझसे कहकर हलके मन के हो गए, उसी प्रकार मैंने भी अपने मन की बात कही थी। इससे यदि सचमुच अन्याय हुआ है तो मैं उस बात को वापस लेता हूं। आप अपने विचार में जो ठीक समझते हैं वही क्यों नहीं करते?”

शरत् ने कहा, “ना रे सरकार, कुछ अन्याय नहीं हुआ। सोचता हूं, तुम्हारी बात खराब नहीं है। अच्छा देखा जाएगा क्या कर सकता हूं।”

“निश्चय ही कर सकोगे, निश्चय ही कर सकोगे।”

“नही कर सका तो इसमें मेरा अपराध नही होगा।”

“अच्छा, यही बात ठीक है। अपराध तो मेरा ही है शरत् दा । "

सरकार ने लिखा है, जिस दिन पूरी कहानी फिर से पढ़ने का अवकाश पाया तो लगा कि किसी ऐन्द्रजालिक स्पर्श से कहानी का अन्त इस प्रकार परिवर्तित हो गया है और सम्पूर्ण कहानी इस प्रकार श्रीसम्पन्न हो गई है कि यही कहा जा सकता है 'अनुपम'।” 

‘पथ निर्देश' एक प्रेम कहानी है। हेमनलिनी और उसकी माता गुणेन्द्र के आश्रम में आकर रहती हैं। यहीं हेम और गुणेन्द्र में प्रेम होता है। दोनों एक-दूसरे को हृदय से चाहने लगते हैं। परन्तु गुणेन्द्र ब्रह्म समाजी है। इस कारण हेम की मां उसकी इच्छा के विरुद्ध उसका विवाह अन्यत्र कर देती है। दुर्भाग्य से एक ही वर्ष के भीतर वह विधवा होकर फिर वहीं लौट आती है। मां की व्यथा का पार नही। उसी व्यथा में से वह अपनी गलती पहचानती है और मृत्युशय्या पर यह इच्छा प्रकट करती है कि गुणेन्द्र हेम से पुनर्विवाह करके सुखी हो। लेकिन न तो वह लड़की से कुछ कह पाती है और न गुणेन्द्र ही उसकी मृत्यु के बाद ऐसा कहने कि साहस बटोर पाता है। इसी प्रकार उनके प्रेम और संकोच के बीच में एक अन्तर्युद्ध चलता रहता है और अन्त में वे दोनों वास्तविक प्रेम को महामहिमान्वित करने के लिए काशीवास करने चले जाते हैं।

प्रारम्भ में इस कहानी का अन्त हेम और गुणेन्द्र के मिलन में हुआ था। उसी का योगेन्द्रनाथ ने विरोध किया था। काफी अन्तर्मथन के बाद अन्त में शरत् ने योगेन्द्र का सुझाव स्वीकार कर लिया। इसीलिए जब गुणेन्द्र काशी चलने का प्रस्ताव रखता है तो रोती हुई हेम कहती है, “चलो, पर क्या यही तुम्हारी अन्तिम आज्ञा है? इसे मैं सह सकूंगी?”

गुणेन्द्र ने कहा, “जरुर सह सकोगी। जब तुम यह समझोगी कि प्रेम को महा- महिमान्वित करने के लिए विच्छेद ने सिर्फ तुम जैसी अतुल ऐश्वर्यशालिनी के द्वार पर ही आकर हमेशा हाथ पसारे हैं, वह अल्पप्राण क्षुद्र प्रेम की झोंपडी में अवज्ञा से नहीं गया है, तब तुम सह सकोगी। जब समझोगी कि अतृप्त वासना ही महत् प्रेम की प्राण है, इसी के द्वारा ही वह अमरत्व प्राप्त करके युग-युग में कितने काव्य, कितनी मिठास, कितने अमूल्य आंसू संचित करके रख जाता है। जब तुम इस बात को निःसंशय अनुभव कर सकोगी कि क्यों राधा का शतवर्ष व्यापी विरह वैष्णवों का प्राण है, तब तुम सह सकोगी हेम । उठकर बैठो ! चलो, आज ही हम काशी चले। जो थोडे-से दिन बाकी हैं, उन दिनों की अन्तिम सेवा तुम्हारे भगवान के आशीर्वाद से अक्षय होकर तुम्हें जीवन-भर सुमार्ग में शान्ति से रखेगी।”

यह अन्त योगेन्द्र को ही अच्छा लगा हो, यह बात नहीं, सौरीन्द्रमोहन ने भी इसकी प्रशंसा की और जब शरत् ने योगेन्द्र को यह बात बताई तो गद्गद् होकर उसने कहा, “देखा न, जो मैंने कहा था ठीक निकल !”

शरत् ने उत्तर दिया, “हां सरकार, तुमने ठीक कहा था। सचमुच, हर समय अपना विचार ही निर्दोष नहीं होता।

एक दिन सौरीन्द्र के कहने पर शरत् ने 'बड़ी दीदी' के अन्त की दो पंक्तियां काट दी थीं, हरिकृष्ण के कहने पर 'काशीनाथ' का अन्त बदल दिया था। अब भी योगेन्द्र के कहने पर ‘पथ निर्देश' का अन्त दूसरे रूप में कर दिया। दूसरों के विचार उसे अन्तर्मन्थन की प्रेरणा देते थे और उनके स्वीकार या अस्वीकार को वह झूठी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाता था। अब्राहम लिंकन ने राष्ट्रपति पद से दिए गए अपने प्रथम भाषण के अन्त में अपने मित्र वार्ड के सुझाव पर भावनात्मक अपील के कुछ शब्द जोड़ दिए थे। इन्ही शब्दों को लोगों ने वर्षो तक याद रखा था।

‘पथ निर्देश' का यह वर्तमान अन्त ही शरत् साहित्य की मूल भावना के पास है। उसका प्रेम सदा मिलन के अभाव में सम्पूर्ण और व्यथा में मधुर हुआ है। सूरदास की राधिका की तरह .......

मेरे नैना विरह की बेलि बई,

सींचत नीर नैन के सजनी मूल पताल गई।

स्वयं उसे यह कहानी 'रामेर सुमति' से अच्छी लगी थी। लेकिन ऐसे लोग भी कम नहीं थे (और आज भी नहीं है) जो यह मानते थे कि हिन्दू समाज के विधिनिषेधों द्वारा विपर्यस्त और विफल प्रेम की गहरी वेदना के बावजूद चरित्र चित्रण की दृष्टि से यह कथा ‘रामेर सुमति’ के सामने फीकी पड़ जाती है। वे लोग इसके अन्त से भी सहमत नही हैं, लेकिन साहित्य के क्षेत्र से बाहर एक वैज्ञानिक से उस कहानी को जो प्रशंसा मिली वह निस्सन्देह बहुत ही उत्साहवर्द्धक थी। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आचार्य जगदीशचन्द्र बसु ने शरत् को लिखा, “सफलता कितनी क्षुद्र है, विफलता कितनी बड़ी! आपकी कहानी 'पथ निर्देश पढ़ते-पढ़ते डर रहा था कि इतने कष्टों के बाद आप सफलता का मोह नहीं छोड़ सकेंगे। किन्तु खुशी हुई कि जो मार्ग बड़ा है वही दिखाना आप नहीं भूलें।” 

'पथ निर्देश' का आधार उसकी व्यक्तिगत अभिज्ञता है यह बात शायद ही कोई जानता था। प्रमथ को उसने लिखा था,“ “पथ निर्देश' पढ़ी ? कैसी लगी? क्या बहुत दिन पहले की एक गुप्त कहानी याद आती है ......?...

इसके बाद उसने एक और कहानी लिखनी शुरू की। वह थी बिन्दो का लल्ला' । उसकी पूर्व कल्पना की झांकी उसके एक पत्र से मिलती है, “राम की सुमति' के समान प्रेमरहित बंगाली घर की कथा जिससे मनुष्य को शिक्षा मिले, ऐसी एक माला लिखने का निश्चय किया है। बंगाल का आदर्श अन्त-पुर क्या है, यही उससका प्रतिपाद्य विषय है । 'बिन्दो का लल्ला' एक कहानी लिखकर भेजी है। सोचा था तुम्हें दिखाऊंगा, किन्तु समय नहीं रहा । अवश्य ही तुम्हारे 'भारतवर्ष' के योग्य वह बिलकुल नहीं बनी। बहुत बड़ी हो गई है। इसलिए यमुना' को भेज दी है।”

रामेर सुमति, 'पथ निर्देश' और 'बिन्दो का लल्ला' एक के बाद एक लिखी गई इन तीन कहानियों को लेकर शरत् ने बार-बार अपने मित्रों को पत्र लिखे । उनसे उसकी उस समय की मनःस्थिति का पता लगता है ।

"मैंने सोचा बिन्दो का लल्ला' आपको पसन्द नहीं आएगी और छापने में आनाकानी करेंगे। बाद में मेरी खातिर अपनी हानि स्वीकार करके उसे छाप देंगे। इसी आशंका से पहले ही आपको सतर्क कर दिया। यदि सचमुच ही अच्छी लगे तो छापना ।" 

“परिश्रम, रुचि और कला, सभी दृष्टियों से 'पथ निर्देश' के सामने 'राम की सुमति' का पद नीचा है, बहुत नीचा । मैंने एक पारिवारिक कहानी लिखने का निश्चय करके नमूने के तौर पर 'राम की सुमति' लिखी। इसी प्रकार हिन्दू परिवार में जितने तरह के संबंध हैं उन सबके संबंध में एक-एक कहानी लिखकर पुस्तक पूरी करूंगा। लेकिन वह केवल स्त्रियों के लिए ही होगी। 

""बिन्दो का लल्ला' पढ़कर देखी ? वह प्रेम कहानी नहीं है। एकदम बंगाली घर की कहानी है । इसमें चरित्र है और उसका निर्वाह करने के लिए ही कुछ बढ़ गई है । कहानी समाप्त करके यदि पाठकों के मन में यह नहीं होता कि 'अहा, कितनी सुन्दर है' तब वह कहानी क्या? 'राम की सुमति', 'पथ निर्देश', 'बिन्दो का लल्ला' सभी इसी सांचे में ढली हैं । अच्छा बिन्दो का लल्ला' पढ़कर यदि तुम मेरे मन में यह साहस पैदा कर सकी कि अगर वह तुम्हारे 'भारतवर्ष' में भेजी जाती तो छप जाती तो कोशिश करूंगा - यह वचन देता हूं।"

जो स्वयं कहानियां लिखते हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि यदि राम की सुमति' आसानी से लिखी जा सकती है, तो पंथ निर्देश लिखने में अधिक साहस की आवश्यकता होती हैं? शायद सब नही लिख सकेंगे। अपनी समालोचना अपने-आप कैसे की जा सकती हैं ? फिर भी कलकत्ता और इस देश के लोगों के मत में दोनों कहानियां सुपरलेटिव डिग्री में 'एक्सीलेंट' हैं । द्विजू बाबू ने कहा हे 'आदर्श रूप हैं ।'' ?

उसकी रचना-प्रक्रिया, उसकी मान्यताएं, उसका दोहरा व्यक्तित्व, साहित्य-सृजन के पीछे निहित उद्देश्य सभी कुछ इन पत्रों में हैं। इन कहानियों ने तत्कालीन बंगाल के प्रबुद्ध मानस को आलोडित कर दिया है, इस बात को वह समझ गया था और इसीलिए उसके भीतर सोया हुआ अहम् उसके हीन भाव पर हावी हो गया था। प्रमथ के इस पत्र जैसे न जाने कितने पत्र उसके पास आए थे। बिन्दो का लल्ला' पढ़कर उसने लिखा था, “इससे अच्छी कहानी बंगला भाषा में निकली है, इसमें सन्देह है। तुमने लिखा है, यह अच्छी नहीं हुई। क्या खराबी है, मैं तो नहीं समझ पाता । भारतवर्ष को इसके प्रकाशित करने के गौरव से वंचित रखने को ही यह छल तुमने किया है। मेरा विश्वास है, 'भारतवर्ष' तो क्या, कोई भी पत्र इससे कहीं खराब गल्प छापकर धन्य हो सकता है ।......तुम तो कभी ठीक अर्थों में गृहस्थ नहीं रहे, सदा उदासीन रहे, फिर यह तीक्षा अवलोकन दृष्टि, यह सूक्ष्म से में सूक्ष्म विवरण कहां से पाया? अवाक् हूँ । 'जो लिखा है सब जातना हूं। पर कैसा सजीव, जैसे अपने घर कई घटना हो !"

महान् ताल्स्ताय से उसकी साली तान्या ने कुछ इसी प्रकार पूछा था, “मैं जानती हूं तुम जमीदारों, पिताओं, जनरलों और सिपाहियों का चित्रण करने में समर्थ हो, परन्तु एक प्रेम पीड़ित युवती के दर्द और एक मां की भावनाओं को कैसे शब्द दे सकते हो, मैं नहीं समझ पाती ।"

वह बेचारी नहीं जानती थी कि वह तान्या के प्रेम की व्यथा का हर क्षण साक्षी रहा है और स्वयं अपनी पत्नी में उसने नारी को एक पत्नी और एक मां के रूप में पाया है। शरत् भी न जाने ऐसी कितनी ही व्यथाओं का साक्षी रहा। कितने ही परिवारों के सुख-दुख का भागी बना । प्रथम प्रेम की विफलता की कसक को मन में सहेजे उसने शान्ति को पत्नी के रूप में पाया और खोया और फिर जीवनसंगिनी हिरमण्मयी की प्रेमिल छाया में उस आवारा और ब्रात्य व्यक्ति ने जीवन के नये अर्थ खोजे । परन्तु वह अपने को छिपाने कई कला में इतना कुशल था कि लोग अन्त तक उसे अविवाहित ही मानते रहे । बहुत वर्षो बाद हिन्दी के सुप्रसिद्ध लेखक जैनेन्द्र कुमार ने मानो तान्या के स्वर में लिखा, वह व्यक्ति जिसने पत्नी रूप में नारी को कभी नहीं पाया, प्रतिभा पाई, बासठ वर्ष की वय पाई, स्नेह से लबालब भरी आत्मा पाई, फिर भी नारी को पत्नी नहीं पाया -ठीक उसी व्यक्ति ने हृदय को जितना स्पंदनशील और संपूर्ण भाव से चित्रित किया, वैसा क्या कोई गृहस्थ कर सका? इसी से इस वैरागी, फिर भी संसारी प्राणी के प्रति उत्कण्ठ जिज्ञासा से भर-भर आया ।.

अनुभव सभी को होते हैं पर उन्हें अनुभूति में रूपान्तरित करने की सूक्ष्म पर्यवेक्षक दृष्टि के बिना कलाकार का जन्म नहीं होता । शरत् के पास वह दृष्टि बचपन से ही थी। इन तीन कहानियों के अतिरिक्त उन्हीं दिनों उसने एक लम्बा निबन्ध 'नारी का मू? भी लिखा । चरित्रहीन की तरह एक लम्बा प्रबन्ध 'नारी का इतिहास भी आग से जलकर भस्म हो गया था । उसी की स्मृति के आधार पर उसने इस निबन्ध की रचना की थी। धारावाहिक रूप में ये 'यमुना' में छपने लगा। ' लेकिन लेखक के रूप में इस पर उसने अपना नाम नहीं दिया । इसकी लेखिका हुई, उसकी बड़ी बहन अनिला देवी । इसी नाम से वह कुछ नारी लेखिकाओं की पुस्तकों की समालोचना 'नारी का लेखा' भी लिख चुका था ।

इनकी चर्चा करते हुए उसने योगेन्द्रनाथ से कहा, “अपनी दीदी की कहानी जान पड़ता है मैंने तुम्हें नहीं बताई । यह लेख 10' उन्हीं के नाम से प्रकाशित होगा । वह बहुत अच्छी तरह लिखना-पढ़ना जानती हैं, लेकिन घर-गृहस्थी में फंसी हैं। ऐसी चर्चा करने का समय नहीं पातीं।”

यद्यपि इस निबन्ध पर उसका अपना नाम नहीं गया था, फिर भी अनेक परिचित और अपरिचित लोगों ने उस लेख की भाव-भीनी प्रशंसा करते हुए उसे लिखा । उसकी भाषा और शैली दोनों से ही पाठक अब खूब परिचित हो गए थे । उसका विचार इस प्रकार के बारह मूल्य' लिखने का था । नारी का मूल्य धर्म का मूल्य' ईश्वर का मूल्य, 'नशे का मूल्य, 'झूठ का मूल्य', 'आत्मा का मूल्य', पुरुष का मूल्य 'साहित्य का मूल्य समाज का मूल्य, 'अधर्म का मूल्य' वेश्या का मूल्य' और सत्य का मूल्य' ।

कुछ दिन बाद सांख्य का मूल्य' और वेदान्त का मूल्य दो और मूल्य इस योजना के साथ जुड़ गए । योजनाएं बनाना वह खूब जानता था, लेकिन विरासत में मिली हुई अजगरी वृत्ति के कारण उन्हें कार्यान्वित करना उसने नहीं सीखा था । नाम प्रकट हो जाने का बहाना मिल जाने पर काम न करना और भी सरल हो गया। हुआ यह कि जब द्विजेन्द्रलाल राय ने 'नारी का मूल्य' को अमूल्य बताते हुए उसकी बड़ी प्रशंसा की तो प्रमथनाथ अपने को न रोक सके। उन्होंने शरत् का नाम प्रकट कर दिया। शायद उसी की ओर इशारा करते हुए शरत् ने लिखा, “सोचता हूं लोगों ने मेरा नाम कैसे जाना? शायद फणि के द्वारा, शायद तुम्हारे द्वारा। यह अनिष्ट हुआ। अब क्या करूं बताओ? इन मूल्यों में 'वेश्या का मूल्य' और ‘नशे का मूल्य' सबसे अधिक रोचक होते। उन पर ही बन्धु बान्धवों की भीषण आपत्ति है। वे किसी भी तरह राज़ी नहीं हैं कि ये दोनों मैं दीदी के नाम से लिखूं। सोचता हूं 'एवोल्यूशन आफ आइडिया आफ सोल' शुरू करूं । ठीक 'नारी का मूल्य' के समान।”

फिर लिखा, “कभी-कभी इच्छा होती है कि हर्बर्ट स्पेंसर के पूरे समन्वयात्मक दर्शन की एक बंगला समालोचना (नहीं आलोचना) और योरोप के अन्यान्य दार्शनिक जो स्पेंसर के शत्रु-मित्र हैं उनकी रचनाओं पर एक बड़ा धारावाहिक निबन्ध लिखूं। हमारे देश की पत्रिकाओं में केवल अपने 'सांख्य' और 'वेदान्त', 'द्वैत' और 'अद्वैत' के अलावा और किसी तरह की आलोचना नहीं रहती।”

इससे यह बात एक बार फिर स्पष्ट हो जाती है कि वह खूब पड़ता और सोचता था। लेकिन किसी भी कारण से ही तीन वर्ष बाद 'समाज धर्मेर मूल्य' को छोड़कर वह और कोई 'मूल्य' नहीं लिख पाया। कहानियां ही लिखता रहा। उनके लिए मित्रों का आग्रह तो था ही, आर्थिक आग्रह भी था । प्रकाशकों की राय थी कि निबन्धों की अपेक्षा किसी तरह जोड़-जाड़ के दो-चार कहानियां लिख दी जाएं तो उनकी हज़ार कापियां बिक जायेंगी।

ये निबन्ध न लिखे जाने का एक और कारण बने विभूतिभूषण भट्ट। जहां अनेक लोगों ने ‘नारी का मूल्य' की प्रशंसा की, वहां विभूतिभूषण ने उसकी उतनी ही निन्दा की। उन्होंने सौरीन्द्रमोहन को लिखा, “मिसेज पंकरस्ट के आदर्श सामने रखना दुस्साहसिकता है। मैंने बूड़ी (निरुपमा देवी) से इस स्त्री नामधारी उद्धत महापुरुष की अथवा स्त्रियों के स्वत्व की रक्षा करने वाले 'डानक्विकज़ोट' की बातों का प्रतिवाद करने को कहा है।”

यह समाचार पाकर शरत् बड़ा निरुत्साहित हुआ। उसने निश्चय किया कि वह इस प्रकार के निबन्ध नहीं लिखेगा । सौरीन्द्र को इस बात की सूचना देते हुए उसने लिखा, “पुंटू (विभूतिभूषण भट्ट) को लिख दिया है कि बूड़ी इस संबंध में कुछ न लिखे। प्रतिवाद मैं सहन नहीं कर सकता। वह तो गाली-गलौज करने जैसा है। यदि कुछ कहना है तो बातचीत में कहो। उसमें सुविधा रहती है। दोनों पक्ष एक-दूसरे को गलत नहीं समझते। शंका भी समाप्त हो जाती है।”

यद्यपि उसने अपने एक मित्र से कहा था, “सब मेरे कथाशिल्प की प्रशंसा करते हैं, परन्तु मैने 'नारी का मूल्य' प्रबन्ध अपनी कहानियों से कम दर्द के साथ नहीं लिखा।” फिर भी नाना कारणों से मूल्य' लिखने का निश्चय उसे यहीं समाप्त कर देना पड़ा। इसे साहित्य का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।

68
रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
1

भूमिका

21 अगस्त 2023
42
1
0

संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

2

भूमिका : पहले संस्करण की

21 अगस्त 2023
19
0
0

कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

3

तीसरे संस्करण की भूमिका

21 अगस्त 2023
11
0
0

लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

4

" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

21 अगस्त 2023
11
0
0

किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

5

अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

21 अगस्त 2023
8
0
0

भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

6

अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
7
0
0

नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

7

अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
7
0
0

मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

8

अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
4
0
0

शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

9

अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
4
0
0

तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

10

अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
5
0
0

शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

11

अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
5
0
0

इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

12

अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
5
0
0

जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

13

अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
5
0
0

शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

14

अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
4
0
0

उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

15

अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
4
0
0

इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

16

अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
4
0
0

इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

17

अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
4
0
0

इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

18

अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
3
0
0

एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

19

अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
5
0
0

गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

20

अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
5
0
0

घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

21

अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
4
0
0

इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

22

" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
4
0
0

श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

23

अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
4
0
0

वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

24

अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
4
0
0

वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

25

अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
4
0
0

एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

26

अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
4
0
0

शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

27

अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
5
0
0

रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

28

अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
3
0
0

एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

29

अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
3
0
0

शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

30

अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
3
0
0

'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

31

अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
3
0
0

गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

32

अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
3
0
0

रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

33

अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
3
0
0

‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

34

अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
2
0
0

छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

35

अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
3
0
0

द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

36

अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
2
0
0

अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

37

अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
2
0
0

' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

38

अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
2
0
0

अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

39

अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
2
0
0

वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

40

" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

41

अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

42

अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
2
0
0

'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

43

अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

44

अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
2
0
0

चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

45

अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
2
1
0

उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

46

अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

47

अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

48

अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
2
0
0

अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

49

अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
2
0
0

किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

50

अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
2
0
0

राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

51

अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
2
0
0

देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

52

अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

53

अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

54

अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

55

अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
2
0
0

किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

56

अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

57

अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
2
0
0

केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

58

अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
2
0
0

चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

59

अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
2
0
0

साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

60

अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
2
0
0

जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

61

अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

62

अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
2
0
0

शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

63

अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

64

अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
2
0
0

राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

65

अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
2
0
0

सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

66

अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
2
0
0

हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

67

अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
2
0
0

कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

68

अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
2
0
0

इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए