मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह युग था प्रबल प्रतापी ज़मीदारों के अत्याचार का, लेकिन वे कभी उनसे दबे नहीं। उन्होंने सदा प्रजा का ही पक्ष लिया। इसीलिए एक दिन उनके क्रोध का शिकार हो गए। सुना गया कि एक दिन जमींदार ने उन्हें बुलाकर किसी मुकद्दमे में गवाही देने के लिए कहा। उन्होंने उत्तर दिया, "मैं गवाही कैसे दे सकता हूं? उसके बारे में मैं कुछ भी नहीं जानता।"
ज़मींदार ने कहा, "ग़वाही देने के लिए जानना जरूरी नहीं है।"
झूठी गवाही आज भी दी जाती है। उस दिन भी दी जाती थी, लेकिन बैकुण्ठनाथ ने साफ इनकार कर दिया । प्रबल प्रतापी ज़मींदार क्रुद्ध हो उठा।
कारण कुछ और भी हो सकता है। एक दिन अचानक वे घर से गायब हो गए। मोतीलाल तब बहुत छोटे थे। शिशु पुत्र को गोद में चिपकाए बैकुण्ठनाथ की पत्नी रात-भर पति की राह देखती रही, लेकिन वे नहीं लौटे। सवेरा होते-होते एक आदमी ने आकर कहा, "बहू मां.....बहू मां, अनर्थ हो गया। बैकुण्ठनाथ को किसी ने मार डाला। उनका शव स्नान- घाट पर पड़ा है।"
बहू मां की जैसे चीख निकल गई । हतप्रभ - विमूढ़ उन्होंने बालक को कसकर छाती से लगा लिया। वह न बोल सकती थीं और न बेहोश हो सक्ती थीं। जमींदार का इतना आतंक था कि वह चिल्लाकर रो भी नहीं सकती थीं । उसका अर्थ होता, पुत्र से भी हाथ धो बैठना। गांव के बड़े-बूढ़ों की सलाह के अनुसार उसने जल्दी-जल्दी पति की अन्तिम क्रिया समाप्त की और रातों-रात देवानन्दपुर अपने भाई के पास चली गई।
कुछ बड़े होने पर मोतीलाल का विवाह भागलपुर के केदारनाथ गंगोपाध्याय की दूसरी बेटी भुवनमोहिनी से हुआ। उस समय के बहुत-से बंगालियों की तरह केदारनाथ के पिता रामधन गंगोपाध्याय घोर दारिद्रय से तंग आकर जीविका की तलाश में, हाली शहर से यहां आकर बस गए थें। वे इतने प्रतिभाशाली और परिश्रमशील थे कि सरकार में ऊंचे पद पर पहुंचने में उन्हें देर नहीं लगी । फिर तो सम्पन्नता और प्रतिष्ठा दोनों ने ही उनका मुक्त होकर वरण किया। लेकिन उस समय विवाह के लिए सम्पन्नता की आवश्यक्ता नहीं होती थी। होती थी कुलीनता और वंश मर्यादा है। मोतीलाल को सद्वंश की कुलीन संतान जानकर ही केदारनाथ ने अपनी कन्या उन्हें दी। उन्हीं के पास रहकर मोतीलाल ने मैट्रिक की परीक्षा पास की। उसके बाद पढ़ने के लिए वे पटना कालेज चले गए। चचिया ससुर अघोरनाथ उनके सहपाठी थे। लेकिन दोनों के स्वभाव में ज़रा भी समानता नहीं थी । मोतीलाल घोर अभाव में पले थे, परन्तु मां उन्हें बहुत प्यार करती थी, इसलिए बचपन में कोई ठीक दिशा उन्हें नहीं मिल सकी। उन्हें पढ़ने-लिखने का बहुत शौक था, परन्तु उससे अधिक शौक था कल्पनाओं में डूबे रहने का, "मुझे कल्पना की गोद में सिर रखकर सो जाने दो। मैं उस संसार को देखना चाहता हूं जिसका यह संसार प्रतिबिम्ब है।" मोतीलाल यही कुछ थे।
उसके विपरीत अघोरनाथ थे कर्मठ, खरे और स्पष्टवादी । ऐसी स्थिति में कल्पनाप्रिय मोतीलाल से उनकी घनिष्ठता कैसे हो सकती थी? कालेज में भी वे बहुत अधिक देर नहीं टिक सके। देवानन्दपुर लौटकर कोई नौकरी करने लगे। उन दिनों इण्ट्रेंस पास के लिए नौकरी पाना बहुत कठिन नहीं था। मामा ने अपने घर के पास उन्हें थोड़ी-सी ज़मीन दे दी थी। कुछ रुपया जोड़कर उन्होंने बरामदे सहित दो कोठरियों का एक मंजिला, दक्षिणद्वारी, पक्का घर बनवा लिया। इसी में रहकर वे अपनी गृहस्थी चलाने लगे।
मोतीलाल की मां साहसी सुगृहिणी थीं, तो उनकी पत्नी शान्त प्रकृति, निर्मल चरित्र और उदार वृत्ति की महिला थीं। वह सुन्दर नहीं थी परन्तु वैदूर्य मणि की तरह अन्तर के रूप से रूपसी निश्चय ही थीं। उनके सहज पातिव्रत्य और प्रेम की छाया में स्वप्नदर्शी, यायावर पति की गृहस्थी चलने लगी । यही पर 15 सितम्बर, 1876 ई० तदनुसार 31 भाद्र, 1283 बंगाब्द, अश्विन कृष्णा द्वादशी सम्वत 1933, शकाब्द 1798, शुक्रवार की संध्या को एक पुत्र का जन्म हुआ। वह अपने माता-पिता की दूसरी संतान था । चार-एक वर्ष पहले उसक्तई एक बहन अनिला जन्म ले चुकी थी। माता-पिता ने बड़े चाव से पुत्र का नाम रखा 'शरत्चन्द्र'।
दैवानन्द्रपुर बंगाल का एक साधारण-सा गांव है। हरा-भरा, ताल तलैयों, नारियल और के वृक्षों से पूर्ण मलेरिया की प्रचुरता भी कम नहीं है। नवाबी शासन में यह फारसी भाषा की शिक्षा का केन्द्र था। डेढ़ सौ वर्ष पहले रायगुणाकर कवि भारतचन्द्र राय ने, फारसी भाषा का अध्ययन करने के लिए, अपना कैशोर्य काल यहां बिताया था। इसकी गणना प्राचीन सप्त ग्रामों में होती है। तब समृद्ध भी रहा होगा । भारतचन्द्र के समय इस गांव में हरीराम राय और रामचन्द्रदत्त मुंशी पढ़ाने लिखाने का काम करते थे। इन्ही से उन्होंने फारसी पढ़ी और स्वयं दो पद्य लिखकर इन्हें अमर कर गए
ए तिन जनार कथा, पांचाली प्रबन्धे गाथा।
बुद्धिरूप कैल नाना जना ।।
देवानन्दपुर ग्राम देवेर आनन्द धाम ।
हीराराम रायेर वासना । ।
देवेर आनन्द धाम, देवानन्दपुर नाम ।
ताहे अधिकारी राम रामचन्द्र मुंशी ।।
भारते नरेन्द्र राय, देशे जार यश गाय।
होये मोरे कृपादाय पड़ाइल पारसी ।।
इसी गांव में शरत् का बाल्यकाल अत्यन्त अभाव में आरम्भ हुआ। मां न जाने कैसे गृहस्थी चलाती थीं। जानती थीं पति कैसे हैं। उनसे शिकवा-शिकायत व्यर्थ है। सार्थक यही है कि घर कि शोभा बनी रहे। उन्होंने न कभी गहनों की मांग की, न कीमती पोशाक की ही । आत्मोत्सर्ग ही मानो उनका दाय था। जब भागलपुर में वे रहती थीं तब चाचाओं के इतने बड़े परिवार में यह उन्हीं का अधिकार था कि सब माओं के बच्चों को अपनी छाती में छिपाकर उनकी देख-रेख करें। कौन अब आएगा कौन कब जाएगा? किसको क्या और कब खाना है? ऐसे असंख्य प्रश्नों को सुलझाने में उन्हें सांस लेने की फुरसत ही नहीं मिलती थी। निरन्तर आवाज़ गूंज़ती रहती थी, "कहां है भुवन ? ओ भुवन ! अरे भुवन बेटी!"
मोतीलाल मानो आकाश में उड़नेवाले रंगीन पतंग थे। और भुवनमोहिनी थी निरन्तर घूमते हुए चक्र के समान सीधी-सादी प्रकृति क्तई महिला । उसका कोमल मन सबके दुख से द्रवित हो उठता था। इसलिए सभी उसको प्यार करते थे, बड़े उसकी सेवा - परायणता पर मुग्ध थे, छोटे उसके स्नेह के लिए लालायित रहते थे। शरत्-साहित्य में खोजने पर ऐसे अनेक चरित्र मिल सकते है। मां का ऋण चुकाने के लिए कथाकार शरत् ज़रा भी तो कृपण नहीं हुआ। लेकिन कैसी भी सरल और उदार नारी हो पति की अकर्मण्यता उसकी ठेस पहुंचाती ही है। भुवनमोहिनी बहुत बार क्षुब्ध हो उठती, तब मोतीलाल चुपचाप घर से निकल जाते और देर तक बाहर ही रहते, 'शुभदा' के हारान बाबू की तरह।