तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे। भागलपुर में रहते हुए नाना प्रकार की शरारतों के बावजूद शरत् नें सदा अच्छा लड़का बनने का प्रयत्न किया था। पढ़ने में भी वह चतुर था। परन्तु यह कामना भी बड़ी प्रबल थी कि मैं किसी से छोटा नहीं बनूंगा । इसीलिए अंतत: उसकी प्रसिद्धि भले लड़कों के रूप में होती थी। इन सारी शरारतों के बीच एकांत में बैठकर आत्मचिंतन करना उसे बराबर प्रिय रहा । चिन्तन के इन क्षणों में अनेक कथानक उसके मन में उभरे। लिखने का प्रयत्न भी उसने किया ।
वह सुन्दर नहीं था। आंखों को छोड़कर उसमें कोई विशेषता नहीं थी, लेकिन आंखों की यह चमक ही सामनेवाले को बांध लेती थी। वर्ण श्यामता की ओर था और देह थी खूब रोगी, लेकिन पैर हिरन की तरह दौड़ने में मजबूत थे। बिल्ली की तरह पेड़ों पर चढ़ जाता था। बुद्धि भी तीक्ष्ण थी, लेकिन दिशाहीन कठोर अनुशासन के कारण उसका प्रयोग पथभ्रष्टता में ही अधिक होता था।
देवानन्दपुर लौटकर यह पथभ्रष्टता ओर भी बढ़ गई। अनुशासन के नाम पर यहां कुछ था ही नहीं। किसी तरह हुगली ब्रांच स्कूल की चौथी श्रेणी में भरती हो गया। दो पक्के कोस चलकर स्कूल जाना पड़ता था । निपट कच्चा रास्ता, गर्मी में धूल से भरा, वर्षा में कीचड़ ही कीचड़ । गरीबी इतनी थी, आसानी से फीस का जुगाड़ करना मुश्किल था । आभूषण बेच देने और मकान गिरवी रख देने पर भी वह अभाव नहीं मिट सका। पेट भी तो भरना होता था। फिर भी किसी तरह वह प्रथम श्रेणी - तक पहुंच गया परन्तु अब तक पिता पर ऋण बहुत चढ़ गया था। वे फीस का प्रबन्ध न कर सके और फीस के अभाव में स्कूल जाना कैसे हो सकता था। शुरू-शुरू में वह किसी साथी के घर मुट्ठी-भार भात खाकर, स्कूल के मार्ग में, पेड़ों के तले, शरारती बालकों की संगति में दिन काट देता था । फिर धीरे- धीरे उन लड़कों के दल का सरदार बन गया। विद्या पीछे छूट गई और हाथ में आ गई दुधारी छुरी, जिसे लेकर वह दिन-रात घूमा करता था । उसके भय के कारण उसके दल के सदस्यों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही थी ।
वह दूसरों के बागों के फल-फूल चोरी करने लगा था। लेकिन उन्हें वह दोस्तों और गरीबों में बांट देता था। दूसरों के ताल में मछली पकड़ने की उसकी जो पुरानी आदत थी वह अब और भी बढ़ गई थी। थोड़े ही दिनों में उसके आस-पास के लोग उससे तंग आ गए लेकिन उसे पकड़कर दण्ड देने में वे सब असमर्थ थे। एक तो इसलिए कि वह फल और मछली को छोड्कर किसी और वस्तु को नहीं छूता था, दूसरे बहुत से निर्धन व्यक्ति उसकी लूट पर पलते थे। और गांवों में निर्धनों की संख्या अधिक होती थी । इन्हीं में एक व्यक्ति था बहुत दिनों से बीमार, गरीबी के कारण इलाज की ठीक-ठीक व्यवस्था कर पाना उसके लिए सम्भव नहीं था। आखिर उसे इसी दल की शरण लेनी पड़ी। तुरन्त ये लोग बहुत-सी मछलियां पकड़ लाए और उन्हें बेचकर उसके इलाज का प्रबन्ध कर दिया। उपेक्षित- अनाश्रित रोगियों की वे स्वयं भी यथाशक्ति सेवा करते थे अनेक अंधेरी रातों में लालटेन और लम्बी लाठी लेकर मीलों दूर, वे शहर से दवा ले आए हैं, डाक्टर को बुला लाए हैं। इसलिए जहां कुछ लोग उनसे परेशान थे, वहां अधिकांश लोग उन्हें मन ही मन प्यार भी करते थे।
शरत् चोर नहीं था। घर में बहेद कंगाली थी, पर उसने कभी अपनी चिंता नहीं की । वह वास्तव में राबिनहुड के समान दुस्साहसी और परोपकारी था। अर्द्धरात्रि के निविड़ अंधकार में जब मनुष्य तो क्या, कुत्ते भी बाहर निकलने में डरते थे, वह चुपचाप पूर्वनिर्दिष्ट बाग में याताल पर पहुंचकर अपना काम कर लाता था। इस शुभ कार्य में उसके कई सहचर थे, परन्तु उनमें सबसे प्रमुख था सदानन्द ।
इनका अड्डा ताल के किनारेवाले बाग के पास ऊंचे टीले की आड़ में एक गहरा खड्ड था। सब लूटी हुई सामग्री वे यहीं रखते थे। तम्बाकू पीने का सरंजाम भी यहीं था। इस दल के उत्पात जब बहुत बढ़ गए तब सदानन्द के अभिभावकों ने उसे आज्ञा दी कि वह शरत् से कभी ने मिले, लेकिन मिलन क्या कभी निषेध की चिंता करता है? उन्होंने एक ऐसा उपाय खोज निकाला कि सांप मरे ना लाठी टूटे। सदानन्द के घर की छत से लगा एक ऊंचा पेड़ था। उसी पर चढ़कर शरत् छत पर पहुंच जाता और दोनों खूब शतरंज खेलते। उसके बाद रात्रि-अभियान पर निकल पड़ते। सब काम समाप्त करने के बाद दोनों मित्र भले लड़को की तरह अपने-अपने घर जाकर सो जाते थे। जब कभी भी उसके दिल में किसी काम को करने की इच्छा प्रबल हो उठती थी तो उस समय उसकी शारीरिक और मानसिक दोनों शक्तियों का स्फुरण भी आश्चर्यजनक हो उठता था।
बीच-बीच में मछुओं की नाव लेकर कभी अकेले, कभी मित्रों के साथ कृष्णपुर गांव में रघुनाथदास गोस्वामी के अखाड़े में पहुंच जाना वह नहीं भूला था। यहीं कहीं उसका मित्र गौहर रहता था। 'श्रीकान्त' चतुर्थ पर्व का वह आधा पागल कवि कीर्तन भी करता था। मालूम नहीं वहां किसी वैष्णवी का नाम कमललता था या नहीं, पर यह सच है कि किशोर जीवन के ये चित्र उसके हृदय पर सदा-सदा के लिए अंकित हो गए और आगे चलकर सहित्य-सृजन का आधार बने । न जाने कितने ऐसे चित्र उसने अपनी पुस्तकों में खींचे है।
'श्रीकान्त' चतुर्थ पर्व में कथाशिल्पी शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय ने लिखा है, "सीधा रास्ता छोड़कर वन-जंगलों में से इस उस रास्ते का चक्कर लगाता हुआ स्टेशन जा रहा था ... बहुत कुछ उसी तरह जिस तरह बचपन में पाठशाला को जाया करता था। चलते-चलते एकाएक ऐसा लगा कि सब रास्ते जैसे पहचाने हुए हैं, मानो कितने दिनों तक कितनी बार इन रास्तों से आया गया हूं। पहले वे बड़े थे, अब न जाने क्यों संकीर्ण और छोटे हो गए हैं। अरे यह क्या, यह तो खां लोगों को हत्यारा बाग है। अरे, यही तो है ! और यह तो मैं अपने ही गांव के दक्षिण के मुहल्ले के किनारे से जा रहा हूं! उसने न जाने कब शूल की व्यथा के मारे इस इमली के पेड़ की ऊपर की डाल में रस्सी बांधकर आत्महत्या कर ली थी। की थी या नहीं, नहीं जानता, पर प्राय: और सब गांवों की तरह यहां भी यह जनश्रुति है। पेड़ रास्ते के किनारे है, बचपन में इस पर नजर पड़ते ही शरीर में कांटे उठ आते थे, आंखें बन्द करके एक ही दौड़ में इस स्थान को पार कर जाना पड़ता था।
पेड़ वैसा ही है। उस वक्त ऐसा लगता था कि इस हत्यारे पेड़ का धड़ मानों पहाड़ की तरह है और माथा आकाश से जाकर टकरा रहा है। परन्तु आज देखा कि उस बेचारे में गर्व करने लायक कुछ नहीं हैं, और जैसे अन्य इमली के पेड़ होते हैं वैसा ही है। जनहीन ग्राम के एक ओर एकाकी नि:शब्द खड़ा है। शैशव में जिसने काफी डराया है, आज बहुत वर्षों बाद के प्रथम साक्षात् में उसी ने मानो बन्धु की तरह आंख मिचकाकर मज़ाक किया, 'कहो मेरे बन्धु, कैसे हो, डर तो नहीं लगता?
"मैने पास जाकर परम स्नेह के साथ उसके शरीर पर हाथ फैरा । मन ही मन कहा, अच्छा ही हूं भाई। डर क्यों लगेगा, तुम तो मेरे बचपन के पड़ोसी हो...... मेरे आत्मीय ।
"संध्या का प्रकाश बुझता जा रहा था। मैंने विदा लेते हुए कहा, 'भाग्य अच्छा था जो अचानक मुलाकात हो गई, अब जाता हूं बन्धु!"
यह इन्हीं दिनों का चित्र तो है। केवल 'मुंशी लोगों का हत्यारा बाग' खां लोगों का हत्यारा बाग' हो गया है। ये पंक्तियां लिखते समय उसका अपना बचपन जैसे आंखों में जी उठा था।
गल्प गढ़कर सुनाने की उसकी जन्मजात प्रतिभा भी इस समय खूब पल्लवित हो रही थी। पन्द्रह वर्ष की आयु में ही वह इस कला में पारंगत हो चुका था। और उसकी ख्याति गांव-भर में फैल चुकी थी। इसी कारण शायद स्थानीय जमींदार नव गोपालदत्त मुंशी उससे बहुत स्नेह करते थे। इनका पुत्र अतुलचन्द्र तब कलकत्ता में एम०ए० में पढ़ता था। वह भी शरत् की गल्प गढ़ने की कला से बहुत प्रसन्न था और उसे छोटे भाई की तरह प्यार करता था। कभी-कभी वह उसे थिएटर दिखाने के लिए कलकत्ता ले जाता और कहता, "तुम ऐसी कहानियां लिखा करो, तब मैं तुम्हें थिएटर दिखाने ले जाऊंगा।"
दिखाने के बाद कहता, "अच्छा, तुम इसकी कहानी लिख सकते हो?"
शरत् ऐसी बढ़िया कहानी लिखता कि अतुल चकित रह जाता।
इसी तरह लिखते-लिखते एक दिन उसने मौलिक कहानी लिखनी शुरू कर दी। वह कौन-सा दिन था, किस समय और कहां बैठकर उसने लिखना शुरू किया, कोई नहीं जानता पर उस कहानी का नाम था 'काशीनाथ' ।
काशीनाथ उसका गुरु-भाई था, उसी को नायक बनाकर उसने यह कहानी शुरू की थी। लेकिन वह नाम का ही नायक है। शायद काशीनाथ का रूप-रंग भी वैसा रहा होगा, पर घर जवांई कैसा होता है यह उसने पिता को सुसराल में रहते देखकर जाना था। शेष कथानक का आधार भी कोई देखी या पड़ी हुई घटना हो सकती है। उस समय वह छोटी-सी कहानी थी। बाद में भागलपुर में उसने उसे फिर से लिखा । 'काकबासा' और 'कोरेल ग्राम दो और कहानियां इसी समय उसके मस्तिष्क में उभरी थी। कुछ और कहानियां भी उसने लिखी होंगी, पर यही कुछ नाम काल की दृष्टि से बचे रह सके।
सूक्ष्म पर्यवेक्षण की प्रवृत्ति उसमें बचपन से ही थी। जो कुछ भी देखता उसकी गहराई में जाने का प्रयत्न करता और यही अभिज्ञता उसकी प्रेरणा बन जाती। गांव में एक ब्राह्मण की बेटी थी, बाल विधवा, नाम था उसका नीरू। बत्तीस साल की उमर तक कोई कलंक उसके चरित्र को छू भी नहीं पाया था। सुशीला, परोपकारिणी, धर्मशीला और कर्मठ होने के नाते वह प्रसिद्ध थी। रोग में सेवा, दुःख में सांत्वना, अभाव में सहायता, आवश्यकता पड़ने पर महरी का काम भी करने पे वह संकोच नहीं करती थी। गांव में एक भी घर ऐसा नहीं था जिसने उससे किसी न किसी रूप में सहायता न पाई हो । शरत् उसे 'दीदी' कहकर पुकारता था। दीदी भी उसे बहुत प्यार करती थी। दोनों एक ही पर दुःख कातर जाति के व्यक्ति थे न।
इसी दीदी का 32 वर्ष की उमर में अचानक एक बार पदस्खलन हुआ। गांव के स्टेशन का परदेसी मास्टर उसके जीवन को कलंकित करके न जाने कहा भाग खड़ा हुआ। उस समय गांव वाले उसके सारे उपकार, सेवा-टहल, सब कुछ भूल गए। उन हृदयहीन लोगों ने उसका बहिष्कार कर दिया। उससे बोलना - चालना तक बन्द कर दिया। बेचारी एकदम असहाय हो उठी। स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरने लगा, यहां तक कि वह मरणासन्न हो गई। इस हालत में भी कोई उसके मुंह में एक बूंद पानी डालने के लिए नहीं आया। किसी ने उसके दरवाज़े पर जाकर झांका तक नहीं, जैसे वह कभी थी ही नहीं ।
शरत् को भी यह आज्ञा थी कि वह वहां नहीं जाए, लेकिन उसने क्या कभी कोई आज्ञा मानी थी। रात के समय छिपकर वह उसे देखने जाता। उसके हाथ-पैर सहला दिया करता। कहीं से एक-दो फल लाकर खिला आया करता । अपने गांव के लोगों के हाथों इस प्रकार पैशाचिक दण्ड पाकर भी नीरू दीदी ने कभी किसी के खिलाफ कोई शिकवा- शिकायत नहीं की । उसकी अपनी लज्जा का कोई पार नहीं था। वह अपने को अपराधी मानती थी और उस दण्ड को उसने इसीलिए हंसते-हंसते स्वीकार किया था। उसकी दृष्टि में वहीं न्याय था ।
शरत् का चिंतातुर मन इस बात को समझ गया था कि अपने अपराध का दण्ड उसने स्वयं ही अपने को दिया था। गांव के लोग तो उपलक्ष्य मात्र थे। उसने इन्हें माफ कर दिया था लेकिन अपने को नही किया था।
जब वह मरी तो किसी भी व्यक्ति ने उसकी लाश को नहीं छुआ। डोम उसे उठाकर जंगल में फेकं आए। सियार कुत्तों ने उसे नोच-नोचकर खा लिया।
और यहीं पर उसने 'विलासी' कहानी के कायस्थ मृत्युंजय को संपेरा बनते देखा था। वह उसके ही स्कूल में पढ़ता था, पर तीसरी कक्षा से आगे नहीं बढ़ सका। एक चाचा के अतिरिक्त उसका और कोई नहीं था। लेकिन वह चाचा ही उसका परम शत्रु था। उसके बड़े बाग पर उसकी दृष्टि थी । चाहता था मरे तो पाप कटे, इसलिए रोगी हो जाने पर उसने मृत्युंजय की ज़रा भी खोज-खबर नहीं ली। तड़-पड़प कर मर जाता बेचारा, यदि एक बूढ़ा ओझा और उसकी लड़की सेवा करके उसे बचा न लेते। इस लड़की का नाम था विलासी। इस सेवा-टहल के बीच वह उसके बहुत पास आ गई। इतनी कि उसने उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। पर समाज के ठेकेदार यह सब कैसे सह सकते थे। उन्होंने मृत्युंजय को समाज से बाहर निकाल दिया। लेकिन मृत्युंजय ने इसकी चिन्ता नहीं की । उसे अपमानित किया गया, पीटा गया, परन्तु न तो उसने प्रायश्चित ही किया, न विलासी को घर से निकाला। उसे लेकर वह दूर जंगल में जाकर रहने लगा। वहीं रहकर वह सांप पकड़ता और जीविका चलाता। सिर पर गेरुआ रंग की पगड़ी, बड़े-बड़े बाल, मूंछ् - दाड़ी, गले में रुद्राक्ष और कांच की मालाएं । उसे देखकर कौन कह सकता था कि वह कायस्थ कुल का मृत्युंजय है।
शरत् छिप-छिपकर उसके पास जाता। उसने सांप पकड़ना, जहर उतारने का मन्त्र, सभी अ उससे सीखा। एक दिन एक जहरीला नाग पकड़ते हुए मृत्युंजय चूक गया। नाग उसे डस लिया। उसको बचाने के सारे प्रयत्न बेकार हो गए। सात दिन मौन रहने के बाद विलासी ने आत्महत्या कर ली।
वर्षो बाद कथाशिल्पी शरत्चन्द्र ने लिखा, "विलासी का जिन लोगों ने मज़ाक उड़ाया था, मैं जानता हूं वे सभी साधु, गृहस्थ और साध्वी गृहणियां थीं। अक्षय स्वर्ग और सतीलोक उन्हें मिलेगा, यह भी मैं जानता हूं। पर वह संपेरे को लड़की जब एक पीड़ित और शथ्यागत रोगी को तिल-तिल कर जीत रही थी, उसके उस समय के गौरव का एक कण भी शायद आज तक उनमें से किसी ने आंखों से नहीं देखा । मृत्युंजय हो सकता है कि एक बहुत तुच्छ आदमी हो किंतु उसके हृदय को जीतकर उस पर कब्ज़ा करने का आनन्द तो तुच्छ नही था। उसकी वह सम्पदा तो मामूली नहीं थी। ...... शास्त्रों के अनुसार वह निश्चय ही नरक गई है, परन्तु वह कहीं भी जाए जब मेरा अपना जाने का समय आयेगा तब इतना तो मैं कह सकता हूं कि वैसे ही किसी एक नरक में जाने के प्रस्ताव से मैं पीछे नहीं हटूंगा ।"
इन दृश्यों का कोई अन्त नहीं था । इन्हीं को देखकर उसने सोचा कि मनुष्य में जो देवता है उसका इतना तिरस्कार मनुष्य अपने ही हाथों से कैसे करता है? इन्हीं प्रश्नों ने उसकी पर्यवेक्षण शक्ति को तीव्रता दी, और दिया संवेदन! इसी संवेदन ने उसे कहानीकार बना दिया।
कहानी लिखने की प्रेरणा उसे एक और मार्ग से मिली। चोरी-चोरी असने अपने पिता की टूटी हुई अलमारी खोलकर 'हरिदास की गुप्त बातें' और 'भवानी पाठ' जैसी पुस्तकें कभी की पढ़ डाली थी । ये स्कूल की पाठ्यपुस्तकें नहीं थीं। बुरे लडुकों के योग्य, अपाठ्य पुस्तकें थी, यही उसको बताया गया था। इसीलिए उसे चोरी का आश्रय लेना पड़ा। वह केवल स्वयं ही उसको नहीं पढ़ता था, अपने साथियों को पढ़कर सुनाता भी था। फिर मन ही मन नये कथानक गढ़ता था।
इसी टूटी हुई अलमारी में से उसने अपने पिता की लिखी हुई अधूरी कहानियां भी खोज निकालीं। वह उत्सुक होकर पढ़ना शुरू करता परन्तु अन्त तक पहुंचने का कोई मार्ग ही पिता ने नही छोड़ा था। परेशान होकर कह उठता, "बाबा, इसे पूरा क्यों नहीं करते? करते तो कैसा होता?"
तब मन ही मन उसने अन्त की कल्पना की और सोचा - 'काश, मैं इस कहानी को लिख पाता।'
पिता का यह अधूरापन भी उसकी प्रेरक शक्ति बन गया।
अभिज्ञता प्राप्त करने के मार्गो की उसके लिए कोई कमी नहीं थी। घर का घोर दारिद्रय बार-बार उसे भाग जाने के लिए प्रेरित करता रहता । यात्रादल के अतिरिक्त कभी- कभी वह यूं ही घर से निकल पड़ता। एक दिन सुप्रसिद्ध सॉलीसीटर गणेशचन्द्र कहीं से कलकत्ता लौट रहे थे। देखा, उनके डिब्बे में एक तेरह - चौदह वर्ष का लड़का चढ़ आया है। पहनावे से अत्यन्त दरिद्र घर का मालूम होता है। बड़े स्नेह से उन्होंने उसे अपने पास बुलाया। बातें करने लगे पता लगा कि वह लड़का उनके एक मित्र का नाती हे। क्रांतिकारी बिपिनबिहारी गांगुली के पिता अक्षयनाथ ही उनके मित्र थे। वह रिश्ते में शरत् के नाना लगते थे। कलकत्ता पहुंचकर गणेशचन्द्र ने शरत् को अक्षयनाथ के घर भेज दिया।
देवानन्दपुर में रहते हुए एक बार फिर वह लम्बी यात्रा पर निकल पड़ा। इस बार उसका गन्तव्य स्थान था पुरी । यह जाना अनायास और अकारण ही नहीं था । एक परिवार से उन लोगों का घनिष्ठ परिचय था । उसकी स्वामिनी शरत् से आयु में बहुत बड़ी थी और उसे बहुत स्नेह करती थी। अचानक वह बीमार हुई। पति कहीं दूर काम करते थे। किशोर शरत्, जैसा कि उसका स्वभाव था, मन-प्राण से उनकी सेवा में जुट गया। तभी एक ऐसी घटना घटी कि वह, उसे गलत समझ बैठा। उसे इतनी गलानि हुई कि घर से निकल पड़ा।
चलते-चलते उसका शरीर थक गया । न कहीं खाने की व्यवस्था, न ठहरने की सुख- सुविधा, परिणाम यह हुआ कि तीव्र ज्वर ने उसे जकड़ लिया और उसे एक पेड़ के नीचे आश्रय लेने को विवश होना पड़ा। उसी समय एक विधवा उधर से निकली। शायद उसने पानी मांगा था या वह कराहा था। वह तुरन्त उसके पास गई छूने पर उसका हाथ जैसे तपते तवे पर पड़ा हो। करुणा-द्रवित वह बोल उठी, "हाय राम, तुझे तो तेज ज्वर है।"
वह उसे अपने घर ले गई। कई दिन की उसकी ममतापूर्ण सेवा सुश्रूषा के बाद ही उसे ज्वर से मुक्ति मिल सकी, परन्तु तभी एक और ज्वर में वह फंस गया। उस विधवा का एक देवर था और एक था बहनोई | देवर चाहता था, वह उसकी होकर रहे। बहनोई मानता था कि उस पर उसका अधिकार है। लेकिन वह किसी के पास नहीं रहना चाहती थी। एक दिन दुखी होकर उसने शरत से कहा, "तुम अब ठीक हो गए हो, चलो मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूं।'
और कहीं जाने को वह चुपचाप उसके साथ निकल पड़ी। इस निकल पड़ने के पीछे मात्र मुक्ति की चाह थी, लेकिन वह अभी कुछ ही दूर जा पाए थे कि उस विधवा के दोनों प्रेमी वहां आ पहुंचे। उन्होंने किसी से कुछ नहीं पूछा, जी भरकर शरत् को पीटा और चीखती-चिल्लाती विधवा को वापस ले गए।
फिर उसका क्या हुआ, शरत् कभी नहीं जान सका । लेकिन वह समझ गया कि एक- दूसरे के विरोधी होते हुए भी लुच्चे - लफंगों में एका होता है और भले लोग अधिक होते हुए भी एक-दूसरे से छिटके-छिटके रहते है। कथाशिल्पी शरत्चन्द्र के प्रसिद्ध उपन्यास 'चरित्रहीन' का आधार ये ही घटनाएं बनीं और इसी समय उसकी रूपरेखा उसके मस्तिष्क में उभरी।
वह पुरी के मार्ग पर आगे बढ़ गया। फिर गांव-गांव में आतिथ्य लाभ कर जब वह घर लौटा तो उसका चेहरा इतना विकृत हो गया था कि पहचाना तक न जाता था। सुना गया कि प्रसिद्ध गणितज्ञ पी० बसु के घर उसने आश्रय लिया था।
एकाध बार चोर-डाकुओं के दल में भी पड़ जाने की बात सुनी जाती है। असल में वह इतना दुस्साहसी था कि उसके बारे में नाना प्रकार की कथाएं चल निकली थीं। उसका स्वभाव था कि अपने मन की बात कभी किसी से नहीं कहता था । परन्तु अभिनय करना उसे खूब आता था। झूठ को सच बनाकर चलाने की कला में वह निष्णात था।
इस सब अभिज्ञता के पीछे परिवार की स्थिति थी जो सचमुच बहुत खराब हो चुकी थी। दादी का देहान्त हो चुका था। वे थी तो किसी तरह परिवार के मान की रक्षा करती आ रही थीं। पर अब सबके सामने एक बहुत बड़ा शून्य था । कर्ज़ मिलने की एक सीमा होती हे । निश्चय ही 'शुभदा' की कृष्णा बुआ की तरह किसी ने कहा होगा "अपने बाप से उपाय करने को, कुछ कमाने को कहो । नहीं तो मैं दुःखी गरीब, रुपया-पैसा कुछ न दे सकूंगी।"
कुछ इस प्रकार दरिद्रता ओर अपमान को सहन करने की उसकी मां की शक्ति सीमा का अतिक्रमण कर गई थी। पर जाए तो वह कहां जाए? उसके माता-पिता कभी के स्वर्गवासी हो चुके थे। परिवार छिन्न-भिन्न हो गया था। भाइयों की आर्थिक स्थिति ज़रा भी उत्साहजनक नहीं थी। फिर भी जब उसके लिए देवानन्दपुर में रहना असम्भव हो गया तो डरते-डरते उसने अपने छोटे काका अघोरनाथ को चिट्ठी लिखवाई। अघोरनाथ ने उत्तर दिया, "चली आओ!"
शरत् फिर देवानन्दपुर नहीं लौटा। यहां उसका सारा जीवन घोर दारिद्रय और अभाव में ही बीता। मां और दादी के रक्त और आंसुओं से इस गांव के पथ-घाट भीगे हुए हैं। दरिद्रता के जो भयानक चित्र कथाशिल्पी शरत् ने 'शुभदा' में खींचे हैं उनके पीछे निश्चय ही उसकी यह अभिज्ञता रही है। इसी यातना की नींव में उसकी साहित्य-साधना का बीजारोपण हुआ। यहीं उसने संघर्ष और कल्पना से प्रथम परिचय पाया। इस गांव के ऋण से वह कभी मुक्त नहीं हो सका।