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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023

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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में एक विद्यार्थी ने उनसे पूछ। था, "मैं आपके उपन्यासों में वर्णित मानवता सं बहुत प्रभावित हूं लेकिन कुत्तों पर आप जो इतना पेसा व्यय करते हैं, वह समझ मे नही आता ।” शरत्चन्द्र मुस्कराये, बोले, “तुम ठीक कहते हो, पर शायद तुम नहीं जानते कि मनुष्यों पर मैंने इससे भी अधिक खर्च किया है।"

उन्होंने गलत नहीं कहा था। मानवीय करुणा का जो पाठ उन्होंने बचपन में राजू की पाठशाला में पढ़ा था, जीवन भर वे उसी को आकार देते रहे। रंगून में भी सर्वहारा ही उनके सब कुछ थे। बंगाल लौटने के बाद उन्होंने गांववालों के लिए विद्यालय खोले, पथ-घाट बनवाये। उनकी ओर से मुकदमे लड़े। नाना प्रकार से नाना लोगों की आर्थिक सहायता की। उस दिन पौष के महीने में जब रिमझिम रिमझिम वर्षा हो रही थी तो छाता लेकर वे कवि नरेन्द्रदेव के साथ खरीदारी करने के लिए निकल पड़े। सहसा उनकी दृष्टि एक भिखारिन पर पड़ी। वर्षा से उसके सारे कपड़े भीग गये थे। वह शीत से थर थर कांप रही थी। उन्होंने तुरन्त बटुआ निकालकर उसकी हथेली पर उलट दिया। नोट, रुपये, रेजगारी, काफी धन था। नरेन्द्रदेव ने आपत्ति की, “दादा, क्या करते हैं ?”

उनकी ज़रा भी चिन्ता न करते हुए शरबाबू ने भिखारिन से कहा, “ऐसे शीत में बाहर मत निकला करो। जब तक चले इनसे चलाओ, फिर और दूंगा।”

और उसे उन्होंने अपना पता लिखकर दे दिया।

एक और दिन इन्हीं कवि नरेन्द्रदेव के घर पर गपशप में बहुत रात बीत गई। कवि दम्पत्ति उन्हें छोड़ने दूर तक साथ आये। महानिर्वाण मठ तक पहुंचते-पहुंचते सहसा कानों में किसी शिशु का क्रन्दन पड़ा। वे ठिठक गये। तब न वहां पक्का घेरा था और न फुटपाथ । कीर की बाड़ थी। उसी के पास शरत् बाबू खोज पाए एक पोटली में बंधे नवजात शिशु को। वहीं बैठ गये। खोलकर देखा, कोमल शरीर में असंख्य चींटियां चिपटी हुई थीं । करुण स्वर में 'मेरे बच्चे, मैं मर जाऊं कहते हुए उसे साफ करने लगे। फिर राधारानी देवी की ओर देखकर बोले, "राधू, गर्म दूध और रुई की बत्ती बनाकर तो ले आओ।"

तुरन्त सब कुछ आ गया। उसे दूध पिलाते- पिलाते वे बोले, “तुम थाने जाकर खबर तो करो। " राधानानी देवी ने कहा, "न, न, ऐसा न करो। मैं पाल लूंगी।"

शरत् बोले, "नहीं, यह परित्यक्त शिशु है। इसके पीछे कोई करुण इतिहास छिपा है। हो सकता है हम किसी झगड़े में फंस जाए। "

रात का समय था। एक दुकान पर जाकर पहले अस्पताल में फोन किया। जवाब मिला, “इस प्रकार पाये गये अवांछित नवजात शिशु को सीधे अस्पताल में लेने का नियम है । "

फिर पुलिस को फोन किया। वह भी तत्काल आने को तैयार नहीं थी, लेकिन जब उनका नाम सुना तो तैयार हो गई। थोड़ी देर बाद दो सिपाही आये और बच्चे को लेकर चले गये, तब तक वे वहीं पर बैठे रहे। इतना ही नहीं, अगले दिन चिलचिलाती धूप में दुकानदार को टेलीफोन के पैसे देने के लिए भी स्वयं आये ।

कालान्तर में इस घटना के साथ जो अपवाद जुड गये थे, उनमें एक यह भी था कि वहां पर जो छोटी-सी भीड़ इकट्ठी हो गई थी, उसमें से एक व्यक्ति ने उन्हें बिना पहचाने कहा था, था, "जीते रहें शरत् बाबू बंगाल में घर-घर के आगे ऐसे ही बच्चे मिला करेंगे।"

पता नहीं इस अपवाद में कितनी सच्चाई है, लेकिन उनकी प्रसिद्धि का यह एक प्रबल प्रमाण है । लेकिन उस समय तो उस विद्यार्थी के प्रश्न का उत्तर देते हुए शरत् बाबू ने आगे यही कहा था, "इन्सान और कुत्ते में मैं कुछ अधिक भेद नहीं कर पाता। दोनों ही जानवर हैं। इन दोनों में से मैं कुत्ते को अधिक पसन्द करता हूं, क्योंकि वे तभी भौंकते-काटते हैं जब उन्हें क्रोध आता है। लेकिन मनुष्य जिस समय मन ही मन घृणा करता है, प्रकट में उस समय खूब हंसता है।"

लू की कहानी अपवाद नहीं है। कुत्तों को वे बचपन से ही बहुत प्यार करते थे। बर्मा से लौटने पर भागलपुर के एक वन्धु को उन्होंने एक कुत्ता दिया था । जव वे वहां जाते थे तो वह वहुत खुश होता था। वे भी उसे देखकर कहते, “क्यों पपी, कैसा है ? अब तक कहां था ? आ, आ, बीमार

है शायद। अहा, कितनी धूल है शरीर में ! ओह, यह कया ! घाव ? मारपीट की है शायद ? ना, कुछ नहीं देखा ! कितना बड़ा ज़ख्म है ! कितना कष्ट होता है ! कुत्ते का तुम कुछ ध्यान नहीं रखते।“ दोनों आखें भर आतीं। फिर सुश्रूषा चलती गर्म जल, तेल, साबुन, औषध, बैंडेज सब करके बांधकर सुला देते।

बच्चों को मिठाई खिलाते समय वे उसे नहीं भूलते थे। कहते, "लो, भूल ही गया, पपी को भी दो भाई ।" रोज स्नान करके उसे अपने हाथ से दाल-भात खिलाते। इसी पपी को किसी कारण श्री शरत् मजूमदार के लड़के ने गोली से मार दिया। शायद वह उनके घर चला गया था। इस पर उन बंधु ने उसकी बंदूक छीन ली, उसे पीटा। झगड़ा यहां तक बढ़ा कि अदालत जाने की नौबत आ गई। उन्हीं दिनों अचानक शरत् बाबू भागलपुर आये। उन्होंने यह कहानी सुनी। क्य होकर बोले, "मैं होता तो रिवाल्वर से उसे भी मार देता । तुम डरो मत । यदि वह नालिश करेगा तो पैसा हम देंगे। उसने हमारे लड़के को मारा है। "

वे शरत् मजूमदार के मित्र थे। जब भी आते, उनसे मिलने जाते, लेकिन इस घटना के बाद वे कभी उधर नहीं गये। बुलाने पर भी नहीं गये। कहा, "उन्हें ही भेज दो। उनके लड़के ने पपी को मारा है।"

काशी प्रवास में उन्होंने शैलेश विशी से कहा, "काशी में आकर ब्राह्मण भोज करना पड़ता है, लेकिन मैंने क्या निश्चय किया है जानते हो ? मैं कुत्तों का भोज करूंगा। काशी के कुत्ते बहुत दुखी हैं। छुआछूत का यहां बहुत विचार है। कुत्तों को छूने मात्र से यहां स्नान करना होता है। बेचारे बिना खाये ही मर जाते हैं। उन्हें ही खिलाना चाहिए।"

और विशी महाशय प्रत्येक मोड़ पर कुत्तों की खोज करते फिरे । उनको इकट्ठा करके उन्हें भूरि भोजन खिलाया गया। उनकी आज्ञा थी कि जब तक कुत्तों का खाना-पीना नहीं हो जाता तब तक कोई मनुष्य नहीं खा सकता।

स्वास्थ्य सुधारने के लिए वे देवघर गये थे। वहां भी जब वे घूमने जाते थे, न जाने कहां से आकर एक कुत्ता उनके साथ हो लेता था। लेकिन घर के मालिक और नौकर के डर के कारण मकान के अन्दर प्रवेश नहीं कर पाता था। सारा खाना स्वयं पाने के लालच से मालिन उसे भगा देती थी। एक दिन शरत् बाबू ने न जाने कैसे उसकी आखों में आसू देख लिये और उन्होंने नौकरों से पूछताछ शुरु कर दी। शोर सुनकर मित्र वहां आए, जब उन्होंने यह कहानी सुनी तो मुसकराकर बोले, "दादा की बातें निराली होती हैं। आदमियों को तो खाने को मिलता नहीं और आप राह के कुत्ते को बुलाकर खिलाते हैं! खूब !”

लेकिन शरत् नहीं माने। उन्होंने उस कुत्ते को पेट भर खाना खिलाया। उसके प्रेम के कारण वे दो दिन और रुके रहे। तीसरे दिन जब वे चले तो सचमुच ही वह कुत्ता उन्हें छोड़ने स्टेशन तक आया। उसकी स्मृति को अमर करते हुए उन्होंने लिखा है, "साथ में जो लोग सवार कराने आये थे, उन सबको मैंने इनाम दिया। कुछ पाया नहीं तो केवल मेरे अतिथि गर्म हवा में धूल उड़कर सामने पर्दे की तरह छा गई। जाने के पहले इसी पर्दे के भीतर से मैंने अस्पष्ट देखा कि स्टेशन के फाटक के बाहर मेरा अतिथि खड़ा एकटक मेरी ओर ताक रहा है। ट्रेन सीटी देकर चल दी। घर लौटने का आग्रह या उत्साह मुझे अपने मन के भीतर कहीं ढूंढ़े नहीं मिला। केवल यही ख्याल आने लगा कि मेरा अतिथि आज लौटकर देखेगा कि घर का लोहे का फाटक बन्द है, उसके भीतर आने का कोई उपाय नहीं है। शायद रास्ते में खड़े होकर दो-तीन दिन मेरी राह देखेगा। शायद सन्नाटे की दोपहरी में किसी समय फाटक खुला पाकर चुपचाप ऊपर चढ़ जाएगा और मेरे रहने के कमरे को खोजेगा। मुझे न पाकर फिर राह का कुत्ता राह में ही आश्रय ग्रहण करेगा।"

श्रीकान्त भी संयोगवश जब अपने बचपन के गांव में पहुंच जाता है तो एक घर के टूटे छप्पर के नीचे एक कंकालशेष कुत्ते को देखता है। तब यही दर्द उसे भी कचोटता है, "वह कुत्ता कुछ देर तक साथ-साथ आया और ठहर गया। जब तक दिखाई पड़ा तब तक बेचारा इस ओर टकटकी लगाये खड़ा देखता रहा। उसके साथ का यह परिचय प्रथम भी है और अन्तिम भी । फिर भी वह कुछ आगे बढ़कर विदा देने आया है। मैं जा रहा हूं किसी बन्धुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास के लिए और वह लौट जाएगा अपने अंधकारपूर्ण निराले टूटे हुए मकान में दोनों के ही संसार

ऐसा कोई नहीं है जो राह देखते हुए प्रतीक्षा कर रहा हो। बगीचे के पार हो जाने पर वह आंखों से ओझल हो गया। परन्तु पांच ही मिनट के उस अभागे साथी के लिए हृदय के भीतर ही भीतर से उठा । ऐसी दशा हो गई कि आँखों के आसू न रोक सका।"

कुछ महिलाएं उनका साहित्य पढ़कर इतनी प्रसन्न हुईं कि एक दिन उन्होंने उन्हें भोजन के लिए निमन्त्रित किया। वहां जाकर शरत् बाबू ने देखा कि संगमरमर की मेज़ पर सुन्दर आसन लगा है। खाने का सामान इतना है मानो किसी दानव की दावत हो । सोचने लगे, क्या किया जाए। हठात् उनकी दृष्टि गली के कुत्तों पर गई। भूख से वे पंजर हो रहे थे। जैसे कई दिनों से पेट भर खाना न मिला हो। उन्होंने गृहस्वामी से कहा, 'महाशय, एक बड़ा गमला हो तो मंगवा दीजिए।"

गृहस्वामी को कुछ आश्चर्य तो हुआ, पर आग्रह अतिथि का था। उन्होंने गमला मंगवा दिया। शरत् बाबू ने उसमें दाल, भात, मांस, तरकारी, मिठाई और खीर, जो कुछ भी था सब भर दिया और फिर गली में ले जाकर कुत्तों के सामने रख दिया। अहा, उस दिन वे जी उठे। लेकिन गृहस्वामी तो अवाक् रह गये। कुछ देर बाद इतना ही कह सके, "इसको तो बाल-बच्चे भी खा सकते थे।' शरत् बाबू ने उत्तर दिया, "वे तो रोज़ ही खाते है, लेकिन कुत्तों को तो आज ही मिला है। बेचारे जी गये।"

एक बार न जाने कहां से आकर एक कुतिया उनके बाग में बच्चे दे गई। रोज़ समय पर आकर वह उन्हें दूध पिला जाती थी, लेकिन एक दिन वह समय पर नहीं आई। बस वे व्यस्त हो उठे। बच्चों को दूध पिलाया और फिर निकल पड़े उनकी मां की खोज करने। तीन दिन तक यह खोज जारी रही। उन्होंने घोषणा की, जो खोजेगा, उसे दस रुपये मिलेंगे।"

_हांफते हांफते दो व्यक्ति हाज़िर हुए। बोले, "मिल गई, एक सूखे कुएं में गिर पड़ी है। पर जिन्दा है ।" शरत् बाबू बोले, "तो अभी ले आओ, और पांच रुपये मिलेंगे।"

कुछ देर बाद कुतिया वहां आ गई। मां को देखकर बच्चे कितने खुश हुए। 'कई-कुई' करने लगे। शरत् बाबू भी आनन्द से उल्लसित हो उठे।

सामताबेड़ में उन्होंने एक और लालरंग का देसी कुत्ता पाला था। नाम था उसका 'बाघा'। वह भेलू का स्थान तो न ले सका फिर भी उसके लिए आदर-सत्कार का अभाव न था। एक दिन उसे पागल गीदड़ ने काट लिया और चिकित्सा कराने पर भी वह बच नहीं सका। दर्द भरे हृदय से अपने खाते में उन्होंने लिखा, "आज बाधा मर गया है। मोहिनी घोषाल के घर के सामने न जाने कब उसे पागल गीदड़ ने काट लिया था । "

ये कथाएं एक मुंह से दूसरे मुंह होती यात्रा करती हैं, इसीलिए अतिरंजना अनिवार्य है। रूप भी कहीं-कहीं बदल सकता है, पर इसी कारण वे मिथ्या नहीं हो जातीं। और कुत्ते ही क्यों दूसरे पशु भी तो उन्हें इतने ही प्रिय थे। एक बार वे भागलपुर के एडवोकेट श्री चण्डीचरण घोष के साथ बिहार शरीफ देखने के लिए गए थे। उन्हें एक टण्डुम पर सवार होना था, लेकिन घोड़ा चलने को तैयार नहीं था। टण्डुम वाले ने उसे तीन-चार सांटे दे मारे । शरत् बाबू जैसे कांप उठे और बोले, "मारो मत मारो मत। नहीं चलता तो नहीं सही नहीं जाएंगे।"

टण्डुम वाले ने जवाब दिया, "अजी, यह तो ऐसे ही चलते हैं।"

और फिर तीन-चार सांटे मार दिये। शरत् बाबू तुरन्त नीचे उतर पड़े। बोले, "हम नहीं जाएंगे।" घोष बाबू ने बहुत समझाया। तब इस शर्त पर तैयार हुए कि टण्डुमवाला घोड़े को न मारने की प्रतिज्ञा करे। उसने ऐसा ही किया, तब कहीं जाकर वे उसमें बैठे। बोले, "ये बेचारे जानवर, हमारी तरह चीख-चिल्लाकर अत्याचार और अनाचार का विरोध तो कर नहीं सकते। इसलिए मेरी इनसे सहानुभूति है।"

यह सहानुभूति उनके लिए इतनी सहज हो गई थी कि जहां कहीं भी किसी प्राणी को कष्ट में देखते तो उनकी आत्मा चीख उठती। पड़ौसी की गाय एक बार सारी रात प्रसव वेदना से छटपटाती रही। उस रात वे सो नहीं सके। वे कुछ कर नहीं सकते थे, इसलिए भगवान को कोसते रहे कि क्यों उसने धरती पर इतनी पीड़ा पैदा की।

और गाय ही क्यों? विषधर भुजंग के प्रति भी उनकी ममता वैसी ही असीम थी। शीत ऋतु में दोपहर के समय सामताबेड़ के मकान के सामने बाग की घास के ऊपर बड़े-बड़े सांप धूप में जाकर लेटते थे। शरत् बाबू उस समय वहां बैठकर पहरा देते थे और बच्चों को रोकते थे, “तुम लोग उधर न जाओ अहा, वहां वे धूप खा रहे हैं। तुम्हारे जाने पर भाग जाएंगे।”

चिड़ियों के प्रति भी उनकी ममता कम नहीं थी। 'देवघर की स्मृति' नामक अपने निबन्ध में उन्होंने कुत्ते की कहानी के साथ-साथ पक्षियों का भी मनोहर वर्णन किया है, “मैं देखता था, उन चिड़ियों का गाना शुरू हो जाता है। उसके बाद एक-एक करके बुलबुल, श्यामा, सालिख और टुनटुन नाम की चिड़ियां आती हैं। पास के घर में जो आम का पेड़ था, मेरे घर के बकुल कुंज में, सड़क किनारे के पीपल की चोटी पर वे सब चिड़ियां जमा होती थीं। सबको मैं आंखों से देख नहीं पाता था, लेकिन हर रोज़ बोली सुनते-सुनते ऐसा अभ्यास हो गया था, , जैसे उनमें से हरेक चिड़िया मेरी पहचानी हुई है।

"पीले रंग की बनबहू नाम की चिड़िया का एक जोड़ा ज़रा देर करके आता था। दीवार के किनारे युकलिप्टस नाम के विलायती वृक्ष की सबसे ऊंची डाल पर यह जोड़ा बैठता और अपनी हाज़िरी दे जाता था। एकाएक ऐसा हुआ कि न जाने क्यों वह जोड़ा दो दिन तक नहीं आया। यह देखकर मैं व्यस्त हो उठा। मन में सोचने लगा कि किसी ने उन्हें पकड़ तो नहीं लिया। इस तरफ चिड़ीमारों की कमी नहीं है। चिड़ियों को पकड़कर बाहर भेजना ही इन चिड़ीमारों की जीविका है। लेकिन तीन दिन के बाद यह जोड़ा फिर आया। उसे देखकर जान पड़ा कि सचमुच एक भारी चिन्ता दूर हो गई।”

और उस दिन तो उनकी यह परदुखकातरता चरम सीमा पर पहुंच गई। एक बन्धु के साथ श्याम बाज़ार की ओर जा रहे थे कि सहसा कानों में काकातुआ की करुण चीत्कार सुनाई दी। वह चीत्कार एक विशाल भवन के अन्दर से आ रही थी। शरत् बाबू एकाएक व्यग्र होकर भीतर चले गये। क्रुद्ध दरबान भी उनको रोकने में समर्थ नहीं हो सका। जाकर देखा, काकातुआ का गला किसी तरह एक रस्सी में फंस गया है और फंदे से निकलने में असमर्थ हो आर्तनाद कर रहा है। वे तुरन्त गले से फंदा निकालने लगे। दरबान ने सोचा हो न हो यह चोर है। काकातुआ को ले जाना चाहता है। वह उन्हें मारने के लिए दौड़ा। तभी शोर सुनकर घर के मालिक बाहर आ गये। शरत् बाबू को देखकर उन्होंने पूछा, “आप कौन हैं, और किसको चाहते हैं?"

उत्तर में शरत् बाबू ने प्रश्न किया, “यह पक्षी आपका है? पक्षी पालने का आपको बड़ा शौक हे?"

भद्र पुरुष अवाक् रह गये। बोले, “आप क्या कह रहे हैं?"

शरत् बाबू ने जवाब दिया, “जीव-जन्तु पालने के लिए हृदय में बड़ी ममता चाहिए। कब से पक्षी चिल्ला रहा था, किसी का ध्यान ही नहीं गया।”

भद्र पुरुष ने समझा कि निश्चय ही यह कोई पागल है। तब तक शरत् बाबू के बन्धु भी भीतर आ गये थे। उन्होंने भद्र पुरुष से कहा, “ये हैं शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय !”

सुनकर भद्र पुरुष बड़े व्यथित हुए । क्षमा मांगने लगे और शरत् बाबू भी सब कुछ भूलकर शान्त हो गये।

रंगून में उनके पास एक नूरी पक्षी था वैसा पक्षी तो उन्हें फिर नहीं मिला। लेकिन उसकी जाति का एक मिल गया उसका भी नाम उन्होंने 'बाटू बाबा' रखा। बेटे से अधिक वे उसे प्यार करते थे। एक दिन शैलेश विशी उनसे मिलने के लिए आये। देखा अमरूद के पेड़ पर बहुत अच्छे फल

लगे हुए हैं। तोड़कर खाने लगे। तभी आ गये शरत् बाबू। न जाने क्या हुआ, उन्होंने चिल्लाकर नौकर को पुकारा और कहा, “सब अमरूद तोड़कर मोहल्ले में बांट दो।”

विशी महोदय हतप्रभ अपराधी की तरह उनकी ओर देखने लगे। वही बोले, “तुमने बिना पूछे अमरूद क्यों तोड़े? न हो, तुम्हीं अब इन सबको ले जाओ।"

यह कहकर वे विशी महोदय को घर के अन्दर ले गये। वहां आले में छोटी-छोटी चार-पांच कटोरियां रखी थीं। किसी में अनार के दाने थे, किसी में पिश्ता और बादाम और किसी में किशमिश। बोले, “ये सब बाटू बाबा का खाना है। प्रति घंटे बारी-बारी वह इनको खाता है। उसके खाने से पहले घर के फल कोई नहीं खा सकता, लेकिन तुमने खा लिये।”

एक दिन वही पाखी उड़ गया। तब वे शतरंज खेल रहे थे। अन्यमनस्क हो उठे। बीच-बीच में बाहर झांककर देख लेते। कोई उठता तो कहते, “न, न, चिन्ता मत करो, आ जाएगा। कई बार चला जाता है।”

लेकिन वे स्वयं न बैठे रह सके। बार-बार बाहर जाकर देखने लगे। संध्या हो आई मित्र लौट चले लेकिन कुछ ही दूर गये होंगे कि शरत् बाबू का उल्लसित स्वर कानों में पड़ा, “पाखी आ गया। यहीं पेड़ पर बैठा था।”

उसकी मृत्यु पर अपने खाते में उन्होंने जो कुछ लिखा, उससे उसके प्रति उनके प्रेम का पता लगता है, “आज रात 10-45 पर बाटू की मृत्यु हुई - मंगलवार, 24 फाल्गुन, 1338 (सन् 1931 ई०) सामताबेड़, हावड़ा। उसने बन्धन से स्वयं ही मुक्ति नहीं पाई, मुझे भी एक बड़ी मुक्ति दे गया। प्रभास के पास ही उसे समाधिस्थ किया। अब बाकी केवल एक और रह गया है।”

उन्होंने बाकी एक और रहने की बात लिखी है। शायद उनके पास वैसा ही एक और पक्षी हो या शायद उनका इशारा अपनी ओर हो। पक्षी उनके पास कम नहीं थे। मोर था, मैना थी। बडे मियां छोटे मियां नाम के दो बकरे थे और स्वामीजी की कहानी भी कम रोचक नहीं है। यह भी उनके एक बकरे का नाम था। कसाई की छुरी से बचाकर वे उसे खरीद लाये थे। उसके प्रति भी उनका प्रेम वैसा ही असीम था। उसकी मृत्यु का सम्बाद भी उनके खाते में लिखा है, “13 माघ, 1339 (1932 ई०), वेला 11 - 3, बृहस्पतिवार, स्वामीजी की मृत्यु। एक और भावना समाप्त हो गई। सामताबेड़, हावड़ा।”

अक्षयकुमार मित्र ने अपनी डायरी में लिखा है, “एक भैंसा हावड़ा पुल पर गाडी खींच रहा था। गाड़ी भारी थी। भैंसा गिर पड़ा। उसकी नाक से खून बहने लगा। तब भी गाडीवान उसे निर्दयता से पीटता रहा। शरत् बाबू उधर से जा रहे थे। यह दृश्य देखकर स्तब्ध- अवाक् खड़े रह गये | वेदना से चेहरा विवर्ण हो उठा।”

पूजा के लिए पशुबलि देने के वे सदा विरुद्ध थे। उस बार उनके बीमार हो जाने पर हिरण्मयी देवी ने काली मन्दिर में दो बकरे बलि देने की मानता मानी थी। उन्हें जब पता लगा तो उन्होंने दो बकरों का मूल्य भिजवा दिया । बलि देना वे नहीं सह सकते थे। 'लालू' कहानी में उन्होंने अपनी इस वेदना को व्यक्त किया है। इन घटनाओं का कोई अन्त नहीं है। प्रत्येक घटना एक ही कहानी कहती है, मज्जागत सहज करुणा की कहानी। यह जितनी असीम है उतनी ही अतलस्पर्शी । इसमें न ढोंग है न प्रदर्शन। इसी असीम करुणा के भीतर से इस कथाशिल्पी का जो चित्र उभरता है, वह क्या सचमुच ही किसी कुगढ़ - कुमार्गी का चित्र है? क्या यह स्नेह केवल इसीलिए था कि जीवन में उन्हें घोर उपेक्षा मिली थी? या उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी इसलिए?

ऐसा होना बहुत सम्भव है, लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट है कि यह करुणाधारा उनकी सहज मानवता का एक अंग मात्र है।

एस०पी०सी०ए० जानवरों के प्रति निर्दयता रोकने वाली सुप्रसिद्ध संस्था है। वर्षों तक वे इसके अध्यक्ष रहे। उनके कार्यकाल में इस संस्था के अधिकारियों के विरुद्ध कलकत्ता के गाड़ीवालों ने सत्याग्रह किया था। एक समय तो यह इतना हिंसक हो उठा था कि गोली चलानी पड़ी थी। चार व्यक्ति मार गये थे। हावड़ा में भी दंगा होते-होते बचा था। अध्यक्ष होने के नाते शरत बाबू को बहुत कुछ सहना और करना पड़ा था। लेकिन निरीह पशुओं के प्रति निर्दयता वे किसी भी तरह स्वीकार नहीं कर सकते थे।

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
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मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

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अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
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इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

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अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

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अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
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शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

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अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
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उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

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अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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