साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में एक विद्यार्थी ने उनसे पूछ। था, "मैं आपके उपन्यासों में वर्णित मानवता सं बहुत प्रभावित हूं लेकिन कुत्तों पर आप जो इतना पेसा व्यय करते हैं, वह समझ मे नही आता ।” शरत्चन्द्र मुस्कराये, बोले, “तुम ठीक कहते हो, पर शायद तुम नहीं जानते कि मनुष्यों पर मैंने इससे भी अधिक खर्च किया है।"
उन्होंने गलत नहीं कहा था। मानवीय करुणा का जो पाठ उन्होंने बचपन में राजू की पाठशाला में पढ़ा था, जीवन भर वे उसी को आकार देते रहे। रंगून में भी सर्वहारा ही उनके सब कुछ थे। बंगाल लौटने के बाद उन्होंने गांववालों के लिए विद्यालय खोले, पथ-घाट बनवाये। उनकी ओर से मुकदमे लड़े। नाना प्रकार से नाना लोगों की आर्थिक सहायता की। उस दिन पौष के महीने में जब रिमझिम रिमझिम वर्षा हो रही थी तो छाता लेकर वे कवि नरेन्द्रदेव के साथ खरीदारी करने के लिए निकल पड़े। सहसा उनकी दृष्टि एक भिखारिन पर पड़ी। वर्षा से उसके सारे कपड़े भीग गये थे। वह शीत से थर थर कांप रही थी। उन्होंने तुरन्त बटुआ निकालकर उसकी हथेली पर उलट दिया। नोट, रुपये, रेजगारी, काफी धन था। नरेन्द्रदेव ने आपत्ति की, “दादा, क्या करते हैं ?”
उनकी ज़रा भी चिन्ता न करते हुए शरबाबू ने भिखारिन से कहा, “ऐसे शीत में बाहर मत निकला करो। जब तक चले इनसे चलाओ, फिर और दूंगा।”
और उसे उन्होंने अपना पता लिखकर दे दिया।
एक और दिन इन्हीं कवि नरेन्द्रदेव के घर पर गपशप में बहुत रात बीत गई। कवि दम्पत्ति उन्हें छोड़ने दूर तक साथ आये। महानिर्वाण मठ तक पहुंचते-पहुंचते सहसा कानों में किसी शिशु का क्रन्दन पड़ा। वे ठिठक गये। तब न वहां पक्का घेरा था और न फुटपाथ । कीर की बाड़ थी। उसी के पास शरत् बाबू खोज पाए एक पोटली में बंधे नवजात शिशु को। वहीं बैठ गये। खोलकर देखा, कोमल शरीर में असंख्य चींटियां चिपटी हुई थीं । करुण स्वर में 'मेरे बच्चे, मैं मर जाऊं कहते हुए उसे साफ करने लगे। फिर राधारानी देवी की ओर देखकर बोले, "राधू, गर्म दूध और रुई की बत्ती बनाकर तो ले आओ।"
तुरन्त सब कुछ आ गया। उसे दूध पिलाते- पिलाते वे बोले, “तुम थाने जाकर खबर तो करो। " राधानानी देवी ने कहा, "न, न, ऐसा न करो। मैं पाल लूंगी।"
शरत् बोले, "नहीं, यह परित्यक्त शिशु है। इसके पीछे कोई करुण इतिहास छिपा है। हो सकता है हम किसी झगड़े में फंस जाए। "
रात का समय था। एक दुकान पर जाकर पहले अस्पताल में फोन किया। जवाब मिला, “इस प्रकार पाये गये अवांछित नवजात शिशु को सीधे अस्पताल में लेने का नियम है । "
फिर पुलिस को फोन किया। वह भी तत्काल आने को तैयार नहीं थी, लेकिन जब उनका नाम सुना तो तैयार हो गई। थोड़ी देर बाद दो सिपाही आये और बच्चे को लेकर चले गये, तब तक वे वहीं पर बैठे रहे। इतना ही नहीं, अगले दिन चिलचिलाती धूप में दुकानदार को टेलीफोन के पैसे देने के लिए भी स्वयं आये ।
कालान्तर में इस घटना के साथ जो अपवाद जुड गये थे, उनमें एक यह भी था कि वहां पर जो छोटी-सी भीड़ इकट्ठी हो गई थी, उसमें से एक व्यक्ति ने उन्हें बिना पहचाने कहा था, था, "जीते रहें शरत् बाबू बंगाल में घर-घर के आगे ऐसे ही बच्चे मिला करेंगे।"
पता नहीं इस अपवाद में कितनी सच्चाई है, लेकिन उनकी प्रसिद्धि का यह एक प्रबल प्रमाण है । लेकिन उस समय तो उस विद्यार्थी के प्रश्न का उत्तर देते हुए शरत् बाबू ने आगे यही कहा था, "इन्सान और कुत्ते में मैं कुछ अधिक भेद नहीं कर पाता। दोनों ही जानवर हैं। इन दोनों में से मैं कुत्ते को अधिक पसन्द करता हूं, क्योंकि वे तभी भौंकते-काटते हैं जब उन्हें क्रोध आता है। लेकिन मनुष्य जिस समय मन ही मन घृणा करता है, प्रकट में उस समय खूब हंसता है।"
लू की कहानी अपवाद नहीं है। कुत्तों को वे बचपन से ही बहुत प्यार करते थे। बर्मा से लौटने पर भागलपुर के एक वन्धु को उन्होंने एक कुत्ता दिया था । जव वे वहां जाते थे तो वह वहुत खुश होता था। वे भी उसे देखकर कहते, “क्यों पपी, कैसा है ? अब तक कहां था ? आ, आ, बीमार
है शायद। अहा, कितनी धूल है शरीर में ! ओह, यह कया ! घाव ? मारपीट की है शायद ? ना, कुछ नहीं देखा ! कितना बड़ा ज़ख्म है ! कितना कष्ट होता है ! कुत्ते का तुम कुछ ध्यान नहीं रखते।“ दोनों आखें भर आतीं। फिर सुश्रूषा चलती गर्म जल, तेल, साबुन, औषध, बैंडेज सब करके बांधकर सुला देते।
बच्चों को मिठाई खिलाते समय वे उसे नहीं भूलते थे। कहते, "लो, भूल ही गया, पपी को भी दो भाई ।" रोज स्नान करके उसे अपने हाथ से दाल-भात खिलाते। इसी पपी को किसी कारण श्री शरत् मजूमदार के लड़के ने गोली से मार दिया। शायद वह उनके घर चला गया था। इस पर उन बंधु ने उसकी बंदूक छीन ली, उसे पीटा। झगड़ा यहां तक बढ़ा कि अदालत जाने की नौबत आ गई। उन्हीं दिनों अचानक शरत् बाबू भागलपुर आये। उन्होंने यह कहानी सुनी। क्य होकर बोले, "मैं होता तो रिवाल्वर से उसे भी मार देता । तुम डरो मत । यदि वह नालिश करेगा तो पैसा हम देंगे। उसने हमारे लड़के को मारा है। "
वे शरत् मजूमदार के मित्र थे। जब भी आते, उनसे मिलने जाते, लेकिन इस घटना के बाद वे कभी उधर नहीं गये। बुलाने पर भी नहीं गये। कहा, "उन्हें ही भेज दो। उनके लड़के ने पपी को मारा है।"
काशी प्रवास में उन्होंने शैलेश विशी से कहा, "काशी में आकर ब्राह्मण भोज करना पड़ता है, लेकिन मैंने क्या निश्चय किया है जानते हो ? मैं कुत्तों का भोज करूंगा। काशी के कुत्ते बहुत दुखी हैं। छुआछूत का यहां बहुत विचार है। कुत्तों को छूने मात्र से यहां स्नान करना होता है। बेचारे बिना खाये ही मर जाते हैं। उन्हें ही खिलाना चाहिए।"
और विशी महाशय प्रत्येक मोड़ पर कुत्तों की खोज करते फिरे । उनको इकट्ठा करके उन्हें भूरि भोजन खिलाया गया। उनकी आज्ञा थी कि जब तक कुत्तों का खाना-पीना नहीं हो जाता तब तक कोई मनुष्य नहीं खा सकता।
स्वास्थ्य सुधारने के लिए वे देवघर गये थे। वहां भी जब वे घूमने जाते थे, न जाने कहां से आकर एक कुत्ता उनके साथ हो लेता था। लेकिन घर के मालिक और नौकर के डर के कारण मकान के अन्दर प्रवेश नहीं कर पाता था। सारा खाना स्वयं पाने के लालच से मालिन उसे भगा देती थी। एक दिन शरत् बाबू ने न जाने कैसे उसकी आखों में आसू देख लिये और उन्होंने नौकरों से पूछताछ शुरु कर दी। शोर सुनकर मित्र वहां आए, जब उन्होंने यह कहानी सुनी तो मुसकराकर बोले, "दादा की बातें निराली होती हैं। आदमियों को तो खाने को मिलता नहीं और आप राह के कुत्ते को बुलाकर खिलाते हैं! खूब !”
लेकिन शरत् नहीं माने। उन्होंने उस कुत्ते को पेट भर खाना खिलाया। उसके प्रेम के कारण वे दो दिन और रुके रहे। तीसरे दिन जब वे चले तो सचमुच ही वह कुत्ता उन्हें छोड़ने स्टेशन तक आया। उसकी स्मृति को अमर करते हुए उन्होंने लिखा है, "साथ में जो लोग सवार कराने आये थे, उन सबको मैंने इनाम दिया। कुछ पाया नहीं तो केवल मेरे अतिथि गर्म हवा में धूल उड़कर सामने पर्दे की तरह छा गई। जाने के पहले इसी पर्दे के भीतर से मैंने अस्पष्ट देखा कि स्टेशन के फाटक के बाहर मेरा अतिथि खड़ा एकटक मेरी ओर ताक रहा है। ट्रेन सीटी देकर चल दी। घर लौटने का आग्रह या उत्साह मुझे अपने मन के भीतर कहीं ढूंढ़े नहीं मिला। केवल यही ख्याल आने लगा कि मेरा अतिथि आज लौटकर देखेगा कि घर का लोहे का फाटक बन्द है, उसके भीतर आने का कोई उपाय नहीं है। शायद रास्ते में खड़े होकर दो-तीन दिन मेरी राह देखेगा। शायद सन्नाटे की दोपहरी में किसी समय फाटक खुला पाकर चुपचाप ऊपर चढ़ जाएगा और मेरे रहने के कमरे को खोजेगा। मुझे न पाकर फिर राह का कुत्ता राह में ही आश्रय ग्रहण करेगा।"
श्रीकान्त भी संयोगवश जब अपने बचपन के गांव में पहुंच जाता है तो एक घर के टूटे छप्पर के नीचे एक कंकालशेष कुत्ते को देखता है। तब यही दर्द उसे भी कचोटता है, "वह कुत्ता कुछ देर तक साथ-साथ आया और ठहर गया। जब तक दिखाई पड़ा तब तक बेचारा इस ओर टकटकी लगाये खड़ा देखता रहा। उसके साथ का यह परिचय प्रथम भी है और अन्तिम भी । फिर भी वह कुछ आगे बढ़कर विदा देने आया है। मैं जा रहा हूं किसी बन्धुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास के लिए और वह लौट जाएगा अपने अंधकारपूर्ण निराले टूटे हुए मकान में दोनों के ही संसार
ऐसा कोई नहीं है जो राह देखते हुए प्रतीक्षा कर रहा हो। बगीचे के पार हो जाने पर वह आंखों से ओझल हो गया। परन्तु पांच ही मिनट के उस अभागे साथी के लिए हृदय के भीतर ही भीतर से उठा । ऐसी दशा हो गई कि आँखों के आसू न रोक सका।"
कुछ महिलाएं उनका साहित्य पढ़कर इतनी प्रसन्न हुईं कि एक दिन उन्होंने उन्हें भोजन के लिए निमन्त्रित किया। वहां जाकर शरत् बाबू ने देखा कि संगमरमर की मेज़ पर सुन्दर आसन लगा है। खाने का सामान इतना है मानो किसी दानव की दावत हो । सोचने लगे, क्या किया जाए। हठात् उनकी दृष्टि गली के कुत्तों पर गई। भूख से वे पंजर हो रहे थे। जैसे कई दिनों से पेट भर खाना न मिला हो। उन्होंने गृहस्वामी से कहा, 'महाशय, एक बड़ा गमला हो तो मंगवा दीजिए।"
गृहस्वामी को कुछ आश्चर्य तो हुआ, पर आग्रह अतिथि का था। उन्होंने गमला मंगवा दिया। शरत् बाबू ने उसमें दाल, भात, मांस, तरकारी, मिठाई और खीर, जो कुछ भी था सब भर दिया और फिर गली में ले जाकर कुत्तों के सामने रख दिया। अहा, उस दिन वे जी उठे। लेकिन गृहस्वामी तो अवाक् रह गये। कुछ देर बाद इतना ही कह सके, "इसको तो बाल-बच्चे भी खा सकते थे।' शरत् बाबू ने उत्तर दिया, "वे तो रोज़ ही खाते है, लेकिन कुत्तों को तो आज ही मिला है। बेचारे जी गये।"
एक बार न जाने कहां से आकर एक कुतिया उनके बाग में बच्चे दे गई। रोज़ समय पर आकर वह उन्हें दूध पिला जाती थी, लेकिन एक दिन वह समय पर नहीं आई। बस वे व्यस्त हो उठे। बच्चों को दूध पिलाया और फिर निकल पड़े उनकी मां की खोज करने। तीन दिन तक यह खोज जारी रही। उन्होंने घोषणा की, जो खोजेगा, उसे दस रुपये मिलेंगे।"
_हांफते हांफते दो व्यक्ति हाज़िर हुए। बोले, "मिल गई, एक सूखे कुएं में गिर पड़ी है। पर जिन्दा है ।" शरत् बाबू बोले, "तो अभी ले आओ, और पांच रुपये मिलेंगे।"
कुछ देर बाद कुतिया वहां आ गई। मां को देखकर बच्चे कितने खुश हुए। 'कई-कुई' करने लगे। शरत् बाबू भी आनन्द से उल्लसित हो उठे।
सामताबेड़ में उन्होंने एक और लालरंग का देसी कुत्ता पाला था। नाम था उसका 'बाघा'। वह भेलू का स्थान तो न ले सका फिर भी उसके लिए आदर-सत्कार का अभाव न था। एक दिन उसे पागल गीदड़ ने काट लिया और चिकित्सा कराने पर भी वह बच नहीं सका। दर्द भरे हृदय से अपने खाते में उन्होंने लिखा, "आज बाधा मर गया है। मोहिनी घोषाल के घर के सामने न जाने कब उसे पागल गीदड़ ने काट लिया था । "
ये कथाएं एक मुंह से दूसरे मुंह होती यात्रा करती हैं, इसीलिए अतिरंजना अनिवार्य है। रूप भी कहीं-कहीं बदल सकता है, पर इसी कारण वे मिथ्या नहीं हो जातीं। और कुत्ते ही क्यों दूसरे पशु भी तो उन्हें इतने ही प्रिय थे। एक बार वे भागलपुर के एडवोकेट श्री चण्डीचरण घोष के साथ बिहार शरीफ देखने के लिए गए थे। उन्हें एक टण्डुम पर सवार होना था, लेकिन घोड़ा चलने को तैयार नहीं था। टण्डुम वाले ने उसे तीन-चार सांटे दे मारे । शरत् बाबू जैसे कांप उठे और बोले, "मारो मत मारो मत। नहीं चलता तो नहीं सही नहीं जाएंगे।"
टण्डुम वाले ने जवाब दिया, "अजी, यह तो ऐसे ही चलते हैं।"
और फिर तीन-चार सांटे मार दिये। शरत् बाबू तुरन्त नीचे उतर पड़े। बोले, "हम नहीं जाएंगे।" घोष बाबू ने बहुत समझाया। तब इस शर्त पर तैयार हुए कि टण्डुमवाला घोड़े को न मारने की प्रतिज्ञा करे। उसने ऐसा ही किया, तब कहीं जाकर वे उसमें बैठे। बोले, "ये बेचारे जानवर, हमारी तरह चीख-चिल्लाकर अत्याचार और अनाचार का विरोध तो कर नहीं सकते। इसलिए मेरी इनसे सहानुभूति है।"
यह सहानुभूति उनके लिए इतनी सहज हो गई थी कि जहां कहीं भी किसी प्राणी को कष्ट में देखते तो उनकी आत्मा चीख उठती। पड़ौसी की गाय एक बार सारी रात प्रसव वेदना से छटपटाती रही। उस रात वे सो नहीं सके। वे कुछ कर नहीं सकते थे, इसलिए भगवान को कोसते रहे कि क्यों उसने धरती पर इतनी पीड़ा पैदा की।
और गाय ही क्यों? विषधर भुजंग के प्रति भी उनकी ममता वैसी ही असीम थी। शीत ऋतु में दोपहर के समय सामताबेड़ के मकान के सामने बाग की घास के ऊपर बड़े-बड़े सांप धूप में जाकर लेटते थे। शरत् बाबू उस समय वहां बैठकर पहरा देते थे और बच्चों को रोकते थे, “तुम लोग उधर न जाओ अहा, वहां वे धूप खा रहे हैं। तुम्हारे जाने पर भाग जाएंगे।”
चिड़ियों के प्रति भी उनकी ममता कम नहीं थी। 'देवघर की स्मृति' नामक अपने निबन्ध में उन्होंने कुत्ते की कहानी के साथ-साथ पक्षियों का भी मनोहर वर्णन किया है, “मैं देखता था, उन चिड़ियों का गाना शुरू हो जाता है। उसके बाद एक-एक करके बुलबुल, श्यामा, सालिख और टुनटुन नाम की चिड़ियां आती हैं। पास के घर में जो आम का पेड़ था, मेरे घर के बकुल कुंज में, सड़क किनारे के पीपल की चोटी पर वे सब चिड़ियां जमा होती थीं। सबको मैं आंखों से देख नहीं पाता था, लेकिन हर रोज़ बोली सुनते-सुनते ऐसा अभ्यास हो गया था, , जैसे उनमें से हरेक चिड़िया मेरी पहचानी हुई है।
"पीले रंग की बनबहू नाम की चिड़िया का एक जोड़ा ज़रा देर करके आता था। दीवार के किनारे युकलिप्टस नाम के विलायती वृक्ष की सबसे ऊंची डाल पर यह जोड़ा बैठता और अपनी हाज़िरी दे जाता था। एकाएक ऐसा हुआ कि न जाने क्यों वह जोड़ा दो दिन तक नहीं आया। यह देखकर मैं व्यस्त हो उठा। मन में सोचने लगा कि किसी ने उन्हें पकड़ तो नहीं लिया। इस तरफ चिड़ीमारों की कमी नहीं है। चिड़ियों को पकड़कर बाहर भेजना ही इन चिड़ीमारों की जीविका है। लेकिन तीन दिन के बाद यह जोड़ा फिर आया। उसे देखकर जान पड़ा कि सचमुच एक भारी चिन्ता दूर हो गई।”
और उस दिन तो उनकी यह परदुखकातरता चरम सीमा पर पहुंच गई। एक बन्धु के साथ श्याम बाज़ार की ओर जा रहे थे कि सहसा कानों में काकातुआ की करुण चीत्कार सुनाई दी। वह चीत्कार एक विशाल भवन के अन्दर से आ रही थी। शरत् बाबू एकाएक व्यग्र होकर भीतर चले गये। क्रुद्ध दरबान भी उनको रोकने में समर्थ नहीं हो सका। जाकर देखा, काकातुआ का गला किसी तरह एक रस्सी में फंस गया है और फंदे से निकलने में असमर्थ हो आर्तनाद कर रहा है। वे तुरन्त गले से फंदा निकालने लगे। दरबान ने सोचा हो न हो यह चोर है। काकातुआ को ले जाना चाहता है। वह उन्हें मारने के लिए दौड़ा। तभी शोर सुनकर घर के मालिक बाहर आ गये। शरत् बाबू को देखकर उन्होंने पूछा, “आप कौन हैं, और किसको चाहते हैं?"
उत्तर में शरत् बाबू ने प्रश्न किया, “यह पक्षी आपका है? पक्षी पालने का आपको बड़ा शौक हे?"
भद्र पुरुष अवाक् रह गये। बोले, “आप क्या कह रहे हैं?"
शरत् बाबू ने जवाब दिया, “जीव-जन्तु पालने के लिए हृदय में बड़ी ममता चाहिए। कब से पक्षी चिल्ला रहा था, किसी का ध्यान ही नहीं गया।”
भद्र पुरुष ने समझा कि निश्चय ही यह कोई पागल है। तब तक शरत् बाबू के बन्धु भी भीतर आ गये थे। उन्होंने भद्र पुरुष से कहा, “ये हैं शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय !”
सुनकर भद्र पुरुष बड़े व्यथित हुए । क्षमा मांगने लगे और शरत् बाबू भी सब कुछ भूलकर शान्त हो गये।
रंगून में उनके पास एक नूरी पक्षी था वैसा पक्षी तो उन्हें फिर नहीं मिला। लेकिन उसकी जाति का एक मिल गया उसका भी नाम उन्होंने 'बाटू बाबा' रखा। बेटे से अधिक वे उसे प्यार करते थे। एक दिन शैलेश विशी उनसे मिलने के लिए आये। देखा अमरूद के पेड़ पर बहुत अच्छे फल
लगे हुए हैं। तोड़कर खाने लगे। तभी आ गये शरत् बाबू। न जाने क्या हुआ, उन्होंने चिल्लाकर नौकर को पुकारा और कहा, “सब अमरूद तोड़कर मोहल्ले में बांट दो।”
विशी महोदय हतप्रभ अपराधी की तरह उनकी ओर देखने लगे। वही बोले, “तुमने बिना पूछे अमरूद क्यों तोड़े? न हो, तुम्हीं अब इन सबको ले जाओ।"
यह कहकर वे विशी महोदय को घर के अन्दर ले गये। वहां आले में छोटी-छोटी चार-पांच कटोरियां रखी थीं। किसी में अनार के दाने थे, किसी में पिश्ता और बादाम और किसी में किशमिश। बोले, “ये सब बाटू बाबा का खाना है। प्रति घंटे बारी-बारी वह इनको खाता है। उसके खाने से पहले घर के फल कोई नहीं खा सकता, लेकिन तुमने खा लिये।”
एक दिन वही पाखी उड़ गया। तब वे शतरंज खेल रहे थे। अन्यमनस्क हो उठे। बीच-बीच में बाहर झांककर देख लेते। कोई उठता तो कहते, “न, न, चिन्ता मत करो, आ जाएगा। कई बार चला जाता है।”
लेकिन वे स्वयं न बैठे रह सके। बार-बार बाहर जाकर देखने लगे। संध्या हो आई मित्र लौट चले लेकिन कुछ ही दूर गये होंगे कि शरत् बाबू का उल्लसित स्वर कानों में पड़ा, “पाखी आ गया। यहीं पेड़ पर बैठा था।”
उसकी मृत्यु पर अपने खाते में उन्होंने जो कुछ लिखा, उससे उसके प्रति उनके प्रेम का पता लगता है, “आज रात 10-45 पर बाटू की मृत्यु हुई - मंगलवार, 24 फाल्गुन, 1338 (सन् 1931 ई०) सामताबेड़, हावड़ा। उसने बन्धन से स्वयं ही मुक्ति नहीं पाई, मुझे भी एक बड़ी मुक्ति दे गया। प्रभास के पास ही उसे समाधिस्थ किया। अब बाकी केवल एक और रह गया है।”
उन्होंने बाकी एक और रहने की बात लिखी है। शायद उनके पास वैसा ही एक और पक्षी हो या शायद उनका इशारा अपनी ओर हो। पक्षी उनके पास कम नहीं थे। मोर था, मैना थी। बडे मियां छोटे मियां नाम के दो बकरे थे और स्वामीजी की कहानी भी कम रोचक नहीं है। यह भी उनके एक बकरे का नाम था। कसाई की छुरी से बचाकर वे उसे खरीद लाये थे। उसके प्रति भी उनका प्रेम वैसा ही असीम था। उसकी मृत्यु का सम्बाद भी उनके खाते में लिखा है, “13 माघ, 1339 (1932 ई०), वेला 11 - 3, बृहस्पतिवार, स्वामीजी की मृत्यु। एक और भावना समाप्त हो गई। सामताबेड़, हावड़ा।”
अक्षयकुमार मित्र ने अपनी डायरी में लिखा है, “एक भैंसा हावड़ा पुल पर गाडी खींच रहा था। गाड़ी भारी थी। भैंसा गिर पड़ा। उसकी नाक से खून बहने लगा। तब भी गाडीवान उसे निर्दयता से पीटता रहा। शरत् बाबू उधर से जा रहे थे। यह दृश्य देखकर स्तब्ध- अवाक् खड़े रह गये | वेदना से चेहरा विवर्ण हो उठा।”
पूजा के लिए पशुबलि देने के वे सदा विरुद्ध थे। उस बार उनके बीमार हो जाने पर हिरण्मयी देवी ने काली मन्दिर में दो बकरे बलि देने की मानता मानी थी। उन्हें जब पता लगा तो उन्होंने दो बकरों का मूल्य भिजवा दिया । बलि देना वे नहीं सह सकते थे। 'लालू' कहानी में उन्होंने अपनी इस वेदना को व्यक्त किया है। इन घटनाओं का कोई अन्त नहीं है। प्रत्येक घटना एक ही कहानी कहती है, मज्जागत सहज करुणा की कहानी। यह जितनी असीम है उतनी ही अतलस्पर्शी । इसमें न ढोंग है न प्रदर्शन। इसी असीम करुणा के भीतर से इस कथाशिल्पी का जो चित्र उभरता है, वह क्या सचमुच ही किसी कुगढ़ - कुमार्गी का चित्र है? क्या यह स्नेह केवल इसीलिए था कि जीवन में उन्हें घोर उपेक्षा मिली थी? या उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी इसलिए?
ऐसा होना बहुत सम्भव है, लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट है कि यह करुणाधारा उनकी सहज मानवता का एक अंग मात्र है।
एस०पी०सी०ए० जानवरों के प्रति निर्दयता रोकने वाली सुप्रसिद्ध संस्था है। वर्षों तक वे इसके अध्यक्ष रहे। उनके कार्यकाल में इस संस्था के अधिकारियों के विरुद्ध कलकत्ता के गाड़ीवालों ने सत्याग्रह किया था। एक समय तो यह इतना हिंसक हो उठा था कि गोली चलानी पड़ी थी। चार व्यक्ति मार गये थे। हावड़ा में भी दंगा होते-होते बचा था। अध्यक्ष होने के नाते शरत बाबू को बहुत कुछ सहना और करना पड़ा था। लेकिन निरीह पशुओं के प्रति निर्दयता वे किसी भी तरह स्वीकार नहीं कर सकते थे।