shabd-logo

अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023

11 बार देखा गया 11

रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते। प्रारम्भ से ही वह इस कहानी पर मुग्ध थे, इतने कि शरत् के स्वभाव को जानने के बावजूद उन्होंने इस रहस्य की चर्चा दूसरे साथियों से करनी शुरू कर दी। लेकिन किसी को विश्वास नहीं आया। वे यह कैसे मान सकते थे कि उनका एक साथी क्लर्क इतनी अच्छी कहानी लिख सकता है। केवल पोस्ट आफिस के विभूति बाबू ही उस दिन उनकी बात पर विश्वास कर सके। बोले, “योगेन दा, बात तो तुम ठीक कहते हो । शरत् दा के भीतर कुछ असाधारण है, यह सन्देह मुझे बहुत दिन से हो रहा था। विशेषकर उनके छवि-अंकन को देखकर अब सोचता हूं, तुम जो कहते हो वह ठीक ही होगा।”

लेकिन धीरे-धीरे दस दिन बीत गए कहानी पूरी न हो सकी। केवल आधी ही लिखी जा सकी। एक अंक के लिए काफी होगी यह सोचकर वह आधी कहानी ही शरत् ने फणीन्द्रनाथ को भेज दी। नाम रखा 'रामेर सुमति' । वह निरन्तर ही कुछ न कुछ लिखता आ रहा था। लेकिन उसके नये जीवन की यह पहली रचना थी। इसे पाकर 'यमुना' के सम्पादक गद्गद हो उठे थे। इसे पढ़कर पाठक विस्मित-विभोर हो उठे। बंगाल में हचलच मच गई।

कलकत्ता में एक दिन 'जाहवी' के कार्यालय में अनेक साहित्यिक एकत्रित हुए थे। प्रभातकुमार गंगोपाध्याय ने आकर सूचना दी, ““यमुना' में 'रामेर सुमति' नाम की एक अद्भुत कहानी प्रकाशित हुई है। ऐसी कहानी मैंने कहीं और नहीं पढ़ी।”

उनकी यह बात सुनकर सभी लोग चकित हो उठे। हेमेन्द्रकुमार राय ने पूछा, " किसकी कहानी है?”

प्रभात ने उत्तर दिया, “कोई शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय है।”

मेन्द्र को सहसा विश्वास नहीं आया। वह तुरन्त कहानी लेकर पढ़ने बैठ गए। उन्होंने लिखा है, “पढ़ते-पढ़ते मन अद्भुत विस्मय से परिपूर्ण हो उठा। बंगला भाषा में सचमुच ही ऐसी कहानी भी प्रकाशित नहीं हुई। एकदम असाधारण श्रेणी के लेखक का दान जान पड़ा। लेकिन यह शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय है कौन? क्या यह किसी लेखक का छद्म नाम है? किसी नये लेखक का हाथ एकदम इतना सधा हुआ नहीं हो सकता। जो इतने प्रतिभावान हैं, उन रवीन्द्रनाथ प्रारम्भिक रचनाओं में वयसोचित दुर्बलता का अभाव नहीं है। बत्तख का बच्चा जन्म लेते ही तैर सकता है, किन्तु एक साहित्यिक कलम पकड़ते ही ऐसी प्रौढ़ रचना का सृजन नहीं कर सकता। कितनी चेष्टा और परिश्रम, कितनी सुदीर्घ साधना के बाद एक श्रेष्ठ साहित्यिक परिपूर्णता प्राप्त करता है।"

उन्होंने तुरन्त लेखक की खोज आरम्भ कर दी। दो दिन के भीतर ही वह जान गए कि शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय निश्चय ही नये लेखक हैं, लेकिन यौवनावस्था से वह चुपचाप नियमित रूप से साहित्य - साधना करते आ रहे है। छः वर्ष पूर्व उनकी लिखी हुई एक कहानी 'बड़ी दीदी' 'भारती' में प्रकाशित हुई थी। उसने भी सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था।

नाटककार द्विजेन्द्रलाल राय ने भी 'रामेर सुमति' पढ़ी और आत्मविभोर होकर 'इवनिंग क्लब' में इसकी प्रशंसा की। उन्होंने प्रमथनाथ से कहा, “तुम इनकी रचनाओं को 'भारतवर्ष' के लिए पाने की चेष्टा करो, ये भविष्य में बंगला साहित्य में नये युग का सूत्रपात करेंगे।”

सचमुच शरत्चन्द्र की कहानी ने उस समय के सुप्रसिद्ध कथाकार प्रभातकुमार मुखोपाध्याय को बहुत पीछे छोड़ दिया । दुर्दान्त राम को घर के भीतर बन्द करके नरायनी को एक पर एक बेंत मारते और राम को भागते-भागते रोते देखकर राय महोदय इतने प्रभावित हुए कि कह उठे “एकदम फर्स्ट क्लास भाषा हे प्रमथ, इस आदमी से मिलने की इच्छा होती है।"

वह नाटककार थे। इस कारण कहानी के नाटकीय रस ने उनके मन को अभिभूत कर दिया। इतना कि उन्होंने लड़की माया को बुलाकर पूछा, “'रामेर सुमति' कैसी लगी?” माया बेचारी लड़की ही तो थी। बोली, “बहुत अच्छी है पिताजी ।”

राय महोदय हंसकर बोले, “बहुत अच्छी क्या री? कह, चमत्कार है।”

महोदय के पुत्र दिलीपकुमार भी इस कहानी से बहुत प्रभावित हुए। कुछ दिन पूर्व ही वह प्रमथनाथ से प्रभात और शरत् को लेकर वाद-विवाद कर चुके थे। वह प्रभात के प्रशंसक थे और प्रमथ शरत् के। लेकिन दिलीपकुमार ने 'रामेर सुमति' पढ़ी, तो प्रभात बाबू को बिलकुल ही भूल गए। पढ़ते-पढ़ते आंखों के जल में शब्द डूब जाते। ऐसी कहानी तो कभी नहीं पढ़ी। न है तरुण-तरुणी का उच्छूवास, न पुलिस - कारिन्दे का गर्जन-तर्जन है बस मातृस्वरूपा भाभी का स्नेह, और दुर्दान्त बच्चे का कुरुक्षेत्र काण्ड |

प्रमथ ने पूछा, “क्यों, कैसी लगी शरत् की 'रामेर सुमति ? प्रभात बाबू से कुछ कम है?"

दिलीप ने पुलकित होकर पूछा, “वे बर्मा में कैसे रहते हैं?”

प्रमथ ने उत्तर दिया, “वह एक ही पागल है, नहीं तो इस तरह दुर्गति होती? बर्मा तो भेड़-बकरियों का बाड़ा है। दुख की बात क्या कहूं, वह रंगून में है।"

दिलीप बोले, “क्या कहते हैं? सुना है रंगून तो प्रकाण्ड नगर है, कलकत्ता से भी बड़ा।”

“बड़ा होने से क्या बाड़ा नहीं होता, सुन्दर वन भी तो कलकत्ता से बड़ा है? उससे क्या वह ईडेन गार्डेन हो जाएगा?”

“वह नहीं हो सकता, किन्तु रंगून पर आप इतने क्रुद्ध क्यों है?"

“मैं क्रुद्ध नहीं हूं, फिर भी रंगून की बात सोचते ही कांप उठता हूं। वहां लोग नाप्पि 2 खाते हैं, उसकी दुर्गन्ध से भूत भी भाग जाएं। फिर, वह तो उस किष्किन्धा में रहकर पड़ता ही रहता है। मैं उसे लिखता हूं, 'ओरे न्याड़ा ±, इतनी किताबें पढ़ने से क्या होगा? तू कलम पकड़, कलाम!” लेकिन क्या वह सुनता है? आजकल उस पर एक और भूत सवार हुआ है। वह चित्र बनाता है।”

“चित्र बनाते है? क्या कहते हो?”

“कहूंगा क्या, मतिभ्रष्ट है। कहता हूं कलकत्ता आ जा, पर वह तो उत्तर ही नहीं देता । " इन बातों का कोई अन्त नहीं था। उस दिन बंगाल को पता लगा कि शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय नाम के एक असाधारण प्रतिभाशाली कथाशिल्पी का जन्म हो चुका है और अतीत के दिये बुझ गए हैं। 4 यमुना' की ग्राहक संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ने लगी । अ पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक आग्रहपूर्वक शरत् बाबू को कहानियां भेजने के लिए पत्र लिखने लगे। ‘चरित्रहीन' छापने से जिन्होंने इनकार कर दिया था, उन समाजपति का पत्र भी आया। उस समय साहित्यिक क्षेत्र में उनकी दुन्दुभी बोलती थी। जिस लेखक पर उनकी कृपा हो जाती वह मानो तर जाता। उन जैसे प्रतापी पुरुष ने रचना भेजने का अनुरोध करते हुए जिस प्रकार विनयपूर्वक शरत्चन्द्र को पत्र लिखा, उससे उनके मित्र अवाक् रह गए। लेकिन शरत् नितांत निस्संग बना रहा। कम-से-कम प्रकट में किसी प्रकार की कोई उत्तेजना उसने नहीं दिखाई। एक मित्र को उसने लिखा, “मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है, इसके अलावा किस्से-कहानियां लिखने की प्रवृत्ति नहीं होती । मुसीबत में पड़कर मुझे कहानियां लिखनी पड़ती हैं। फिर भी लिखूंगा। इस बीच कहानी भेजने के बहुत-से अनुरोध आए, लेकिन मैं निरुपाय हूं। इतनी कहानियां लिखने बैठूं तो मेरा पढ़ना बन्द हो जाए। मैं प्रतिदिन दो घंटे से अधिक नहीं लिखता । दस-बारह घंटे पढ़तां हूं।”

लेकिन इस अहंकार के बावजूद लिखना आरम्भ हो चुका था । अन्तर में सोई इच्छा फिर जाग उठी थी । इसीलिए स्वास्थ्य खराब हाने पर भी वह बराबर लिखता रहा । 'यमुना' से जैसे उसे मोह हो गया था। उसने फणीन्द्रनाथ को लिखा, “ यधपि कहानी लिखने का अभ्यास कम हो गया है, लेकिन आशा है कि दो-एक माह में ठीक हो जाएगा। प्रतिमास एक छोटी कहानी (दस-बारह पन्ने की) और प्रबंध भेजूंगा। कहानी अवश्य भेजूंगा, क्योंकि आजकल इसका विशेष आदर है।”

फिर लिखा, तीन नामों से रचनाएं भेजूंगा :

1. समालोचना- प्रबन्ध आदि                             अनिला देवी

2. छोटी कहानियां                                           शरत्चन्द्र   चट्टोपाध्याय

3. बड़ी कहानियां                                            अनुपमा देवी 

यह प्रस्ताव उसने इसलिए किया था कि यदि सब रचनाएं एक ही नाम से प्रकाशित होंगी तो पाठक सोचेंगे कि इस व्यक्ति को छोड़ उनके पास कोई और लेखक नहीं है

उसकी इस अप्रत्याशित लोकप्रियता का एक और परिणाम यह हुआ कि बचपन की उसकी रचनाएं, जो उसके मित्रों के पास पड़ी हुई थीं, उन्हें निकाल- निकालकर अब वे लोग इधर-उधर प्रकाशित करने लगे। 'बोझा' के बाद 'बाल स्मृति', 'हरिचरण’, ‘काशीनाथ’, 'अनुपमा का प्रेम', 'चन्द्रनाथ', 'प्रकाश और छाया' एक-सवा वर्ष के भीतर ही भीतर ‘साहित्य’ और ‘यमुना’ में प्रकाशित हो गईं। लेकिन उसे यह अच्छा नहीं लगा। वह नहीं चाहता था कि उसकी ये रचनाएं अब प्रकाशित हों। वह मानता था कि वे अपरिपक्व अवस्था की रचनाएं हैं। भावना की अतिशय मुलायमियत और नवयुवकोचित अतिरंजना का उनमें प्राधान्य है। बार-बार पत्रों द्वारा वह अपना क्रोध और व्यथा प्रकट करने लगा।

“तुमने समाजपत को 'काशीनाथ' देकर अच्छा काम नहीं किया। वह 'बोझा' का जोड़ीदार है। बचपन में अभ्यास के लिए लिखी गई कहानी है। छपवाना तो दूर रहा, लोगों को दिखाना भी उचित नहीं है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि वह न छपे और मेरे नाम को मिट्टी में न मिलाया जाए.. |”

“इस बार 'साहित्य' ने मेरे नाम से न जाने क्या-क्या कूड़ा-करकट छापा है। वह क्या मेरा लिखा हुआ है? मुझे तनिक भी याद नहीं और अगर है भी तो उसे छापा क्यों? आदमी बचपन में बहुत कुछ लिखता है। तो क्या उसे प्रकाशित करना चाहिए? वह छापकर मानो मुझे लज्जित कर दिया है। ” 

““देवदास' अच्छा नहीं है, अच्छा नहीं है। सुरेन आदि मेरी सब रचनाओं की बड़ी तारीफ करते हैं। उनके अच्छा कहने का मूल्य मेरे लिए नहीं है! उसे छापा जाए यह भी मेरी इच्छा नहीं है। " 

““देवदास' मत लो। लेने की चेष्टा मत करो। यह निराशा की अवस्था में लिखा हुआ ही नही है, मुझे उस पर लज्जा भी आती है। वह अनैतिक है। उसमें वैश्या का चरित्र तो है ही, वह छोड़कर और क्या-क्या है यह बताने को भी जी नहीं करता। मुझे अपनी पुरानी रचनाओं को प्रकाशित कराने के संबंध में विशेष आपत्ति है। आषाढ़ की 'यमुना' में 'आलो को छाया' नामक एक अधूरी अल्प प्रकाशित हुई है। क्या वह मेरी ही लिखी हुई है ...... हो न हो मेरे बचपन की लेखन शैली का अनुकरण करके किसी और ने लिखा है।” 

उसमें अब रवीन्द्रनाथ जैसा लिखने का विश्वास पैदा हो गया था। इसलिए वह चाहता था कि उसकी बचपन की रचनाओं को यदि प्रकाशित करना ही है तो एक बार फिर से देख लेना आवश्यक है। इस दृष्टि से 'काशीनाथ' जब पुस्तकाकार छापा तो उसमें उसने काफी संशोधन किए। पत्रिका में छपते समय इस रचना का अन्त काशीनाथ की हत्या और कमला की आत्महत्या से होता है, परन्तु पुस्तक रूप में आने पर वह कथा सुखान्त हो गई।

जब वह ‘साहित्य' में प्रकाशित हुआ था तब एक युवक हरिकृष्ण मुखोपाध्याय उससे मिलने आया था। उसे यह रचना बहुत अच्छी लगी थी। परन्तु उसके अन्त पर उसे आपत्ति थी। उसकी यह आपत्ति सुनते ही शरत् बोल उठा, “केवल काशीनाथ' ही नही 'साहित्य' में और भी कई कहानियां छपी है। वे सब मेरी बचपन की रचनाएं हैं। मुझे बिना बताए एकदम छाप दीं। प्रूफ भी पढ़ लेता तो एक बार देख तो लेता।”

हरिकृष्ण ने सुझाव दिया, “क्या जब अंत नहीं बदला जा सकता?”

शरत् ने कहा, “पता नहीं पुस्तक रूप में छपेगी भी या नहीं । छपी तो अवश्य परिवर्तन करूंगा।”

केवल 'काशीनाथ' में ही नहीं, 'चन्द्रनाथ' में भी उसने काफी परिवर्तन किए। इसके प्रकाशन को लेकर काफी हंगामा मचा। उपेन्द्रनाथ उसे 'यमुना' में प्रकाशित करवाना चाहते थे। इस प्रकार का विज्ञापन भी उसमें निकाल चुका था, परन्तु सुरेन्द्र और गिरीन्द्र इस बात से बहुत दुखी हुए। उपेन्द्र से उनका झगड़ा भी हो गया । चन्द्रनाथ' की पाण्डुलिपि उन्हीं से मांगकर तो वह ले गए थे। उन्होंने शरत् को लिखा और अन्तत: वह इस बात पर राज़ी हो गया कि जो अंश छप चुका है उसे छोड़कर शेष पाण्डुलिपि उसे भेज दी जाए। उचित संशोधन करके वह उसे 'यमुना' को भेजता रहेगा।

संशोधित अंश फणीन्द्रनाथ को भेजते हुए उसने लिखा, “कहानी के तौर पर ‘चन्द्रनाथ' बहुत मधुर है। लेकिन उसमें अतिरेक है। लड़कपन अथवा जवानी में इस तरह की रचना स्वाभाविक होने के कारण शायद ऐसा हुआ है। अब जब हाथ में आ गया है तो उसे अच्छा उपन्यास बना डालना ही उचित है। कम-से-कम दूना बढ़ जाना सम्भव है....... . इस कहानी की विशेषता यह है कि किसी प्रकार की अनैतिकता से इसका संबंध नहीं है, सभी पढ़ सकेंगे.............”

जिस व्यक्ति पर अनैतिकता का दोष लगाया गया और जिसने नैतिकता को नये अर्थ देने की चेष्टा की, उसी के मस्तिष्क को अब स्वयं यह प्रश्न झकझोरने लगा | दिशाहीन प्रारंभिक भावुकता तथा आवेशपूर्ण उग्रता जैसे अब संयत रूप लेने लगी थी । इसलिए नई रचनाएं लिखने में वह बहुत परिश्रम करता था। जब तक सही अर्थ देने वाला मनचाहा शब्द न मिल जाता, उसे काटता ही रहता। मन के सुर के संग शब्द का सुर मिल जाता है कि नही, इसका उसे बहुत ध्यान रहता । मिलने पर ही शान्ति मिलती। इसलिए कभी-कभी पांडुलिपि इतना कट जाती कि कोई दूसरा पढ़ भी नहीं पाता। उस दिन एक पाण्डुलिपि अपने प्रिय मित्र और सहकर्मी कुमुदिनीकान्त कर को देते हुए उसने कहा था, “यह देख, कितना काटा हे। काटने की और जगह नहीं है। चेष्टा करने पर भी तुम पढ़ नहीं पाओगे।”

68
रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
1

भूमिका

21 अगस्त 2023
42
1
0

संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

2

भूमिका : पहले संस्करण की

21 अगस्त 2023
19
0
0

कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

3

तीसरे संस्करण की भूमिका

21 अगस्त 2023
11
0
0

लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

4

" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

21 अगस्त 2023
11
0
0

किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

5

अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

21 अगस्त 2023
8
0
0

भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

6

अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
7
0
0

नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

7

अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
7
0
0

मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

8

अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
4
0
0

शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

9

अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
4
0
0

तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

10

अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
5
0
0

शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

11

अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
5
0
0

इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

12

अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
5
0
0

जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

13

अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
5
0
0

शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

14

अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
4
0
0

उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

15

अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
4
0
0

इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

16

अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
4
0
0

इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

17

अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
4
0
0

इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

18

अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
3
0
0

एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

19

अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
5
0
0

गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

20

अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
5
0
0

घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

21

अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
4
0
0

इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

22

" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
4
0
0

श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

23

अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
4
0
0

वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

24

अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
4
0
0

वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

25

अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
4
0
0

एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

26

अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
4
0
0

शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

27

अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
5
0
0

रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

28

अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
3
0
0

एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

29

अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
3
0
0

शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

30

अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
3
0
0

'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

31

अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
3
0
0

गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

32

अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
3
0
0

रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

33

अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
3
0
0

‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

34

अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
2
0
0

छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

35

अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
3
0
0

द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

36

अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
2
0
0

अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

37

अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
2
0
0

' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

38

अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
2
0
0

अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

39

अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
2
0
0

वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

40

" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

41

अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

42

अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
2
0
0

'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

43

अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

44

अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
2
0
0

चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

45

अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
2
1
0

उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

46

अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

47

अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

48

अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
2
0
0

अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

49

अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
2
0
0

किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

50

अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
2
0
0

राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

51

अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
2
0
0

देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

52

अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

53

अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

54

अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

55

अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
2
0
0

किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

56

अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

57

अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
2
0
0

केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

58

अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
2
0
0

चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

59

अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
2
0
0

साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

60

अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
2
0
0

जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

61

अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

62

अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
2
0
0

शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

63

अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

64

अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
2
0
0

राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

65

अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
2
0
0

सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

66

अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
2
0
0

हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

67

अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
2
0
0

कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

68

अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
2
0
0

इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए