रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते। प्रारम्भ से ही वह इस कहानी पर मुग्ध थे, इतने कि शरत् के स्वभाव को जानने के बावजूद उन्होंने इस रहस्य की चर्चा दूसरे साथियों से करनी शुरू कर दी। लेकिन किसी को विश्वास नहीं आया। वे यह कैसे मान सकते थे कि उनका एक साथी क्लर्क इतनी अच्छी कहानी लिख सकता है। केवल पोस्ट आफिस के विभूति बाबू ही उस दिन उनकी बात पर विश्वास कर सके। बोले, “योगेन दा, बात तो तुम ठीक कहते हो । शरत् दा के भीतर कुछ असाधारण है, यह सन्देह मुझे बहुत दिन से हो रहा था। विशेषकर उनके छवि-अंकन को देखकर अब सोचता हूं, तुम जो कहते हो वह ठीक ही होगा।”
लेकिन धीरे-धीरे दस दिन बीत गए कहानी पूरी न हो सकी। केवल आधी ही लिखी जा सकी। एक अंक के लिए काफी होगी यह सोचकर वह आधी कहानी ही शरत् ने फणीन्द्रनाथ को भेज दी। नाम रखा 'रामेर सुमति' । वह निरन्तर ही कुछ न कुछ लिखता आ रहा था। लेकिन उसके नये जीवन की यह पहली रचना थी। इसे पाकर 'यमुना' के सम्पादक गद्गद हो उठे थे। इसे पढ़कर पाठक विस्मित-विभोर हो उठे। बंगाल में हचलच मच गई।
कलकत्ता में एक दिन 'जाहवी' के कार्यालय में अनेक साहित्यिक एकत्रित हुए थे। प्रभातकुमार गंगोपाध्याय ने आकर सूचना दी, ““यमुना' में 'रामेर सुमति' नाम की एक अद्भुत कहानी प्रकाशित हुई है। ऐसी कहानी मैंने कहीं और नहीं पढ़ी।”
उनकी यह बात सुनकर सभी लोग चकित हो उठे। हेमेन्द्रकुमार राय ने पूछा, " किसकी कहानी है?”
प्रभात ने उत्तर दिया, “कोई शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय है।”
मेन्द्र को सहसा विश्वास नहीं आया। वह तुरन्त कहानी लेकर पढ़ने बैठ गए। उन्होंने लिखा है, “पढ़ते-पढ़ते मन अद्भुत विस्मय से परिपूर्ण हो उठा। बंगला भाषा में सचमुच ही ऐसी कहानी भी प्रकाशित नहीं हुई। एकदम असाधारण श्रेणी के लेखक का दान जान पड़ा। लेकिन यह शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय है कौन? क्या यह किसी लेखक का छद्म नाम है? किसी नये लेखक का हाथ एकदम इतना सधा हुआ नहीं हो सकता। जो इतने प्रतिभावान हैं, उन रवीन्द्रनाथ प्रारम्भिक रचनाओं में वयसोचित दुर्बलता का अभाव नहीं है। बत्तख का बच्चा जन्म लेते ही तैर सकता है, किन्तु एक साहित्यिक कलम पकड़ते ही ऐसी प्रौढ़ रचना का सृजन नहीं कर सकता। कितनी चेष्टा और परिश्रम, कितनी सुदीर्घ साधना के बाद एक श्रेष्ठ साहित्यिक परिपूर्णता प्राप्त करता है।"
उन्होंने तुरन्त लेखक की खोज आरम्भ कर दी। दो दिन के भीतर ही वह जान गए कि शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय निश्चय ही नये लेखक हैं, लेकिन यौवनावस्था से वह चुपचाप नियमित रूप से साहित्य - साधना करते आ रहे है। छः वर्ष पूर्व उनकी लिखी हुई एक कहानी 'बड़ी दीदी' 'भारती' में प्रकाशित हुई थी। उसने भी सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था।
नाटककार द्विजेन्द्रलाल राय ने भी 'रामेर सुमति' पढ़ी और आत्मविभोर होकर 'इवनिंग क्लब' में इसकी प्रशंसा की। उन्होंने प्रमथनाथ से कहा, “तुम इनकी रचनाओं को 'भारतवर्ष' के लिए पाने की चेष्टा करो, ये भविष्य में बंगला साहित्य में नये युग का सूत्रपात करेंगे।”
सचमुच शरत्चन्द्र की कहानी ने उस समय के सुप्रसिद्ध कथाकार प्रभातकुमार मुखोपाध्याय को बहुत पीछे छोड़ दिया । दुर्दान्त राम को घर के भीतर बन्द करके नरायनी को एक पर एक बेंत मारते और राम को भागते-भागते रोते देखकर राय महोदय इतने प्रभावित हुए कि कह उठे “एकदम फर्स्ट क्लास भाषा हे प्रमथ, इस आदमी से मिलने की इच्छा होती है।"
वह नाटककार थे। इस कारण कहानी के नाटकीय रस ने उनके मन को अभिभूत कर दिया। इतना कि उन्होंने लड़की माया को बुलाकर पूछा, “'रामेर सुमति' कैसी लगी?” माया बेचारी लड़की ही तो थी। बोली, “बहुत अच्छी है पिताजी ।”
राय महोदय हंसकर बोले, “बहुत अच्छी क्या री? कह, चमत्कार है।”
महोदय के पुत्र दिलीपकुमार भी इस कहानी से बहुत प्रभावित हुए। कुछ दिन पूर्व ही वह प्रमथनाथ से प्रभात और शरत् को लेकर वाद-विवाद कर चुके थे। वह प्रभात के प्रशंसक थे और प्रमथ शरत् के। लेकिन दिलीपकुमार ने 'रामेर सुमति' पढ़ी, तो प्रभात बाबू को बिलकुल ही भूल गए। पढ़ते-पढ़ते आंखों के जल में शब्द डूब जाते। ऐसी कहानी तो कभी नहीं पढ़ी। न है तरुण-तरुणी का उच्छूवास, न पुलिस - कारिन्दे का गर्जन-तर्जन है बस मातृस्वरूपा भाभी का स्नेह, और दुर्दान्त बच्चे का कुरुक्षेत्र काण्ड |
प्रमथ ने पूछा, “क्यों, कैसी लगी शरत् की 'रामेर सुमति ? प्रभात बाबू से कुछ कम है?"
दिलीप ने पुलकित होकर पूछा, “वे बर्मा में कैसे रहते हैं?”
प्रमथ ने उत्तर दिया, “वह एक ही पागल है, नहीं तो इस तरह दुर्गति होती? बर्मा तो भेड़-बकरियों का बाड़ा है। दुख की बात क्या कहूं, वह रंगून में है।"
दिलीप बोले, “क्या कहते हैं? सुना है रंगून तो प्रकाण्ड नगर है, कलकत्ता से भी बड़ा।”
“बड़ा होने से क्या बाड़ा नहीं होता, सुन्दर वन भी तो कलकत्ता से बड़ा है? उससे क्या वह ईडेन गार्डेन हो जाएगा?”
“वह नहीं हो सकता, किन्तु रंगून पर आप इतने क्रुद्ध क्यों है?"
“मैं क्रुद्ध नहीं हूं, फिर भी रंगून की बात सोचते ही कांप उठता हूं। वहां लोग नाप्पि 2 खाते हैं, उसकी दुर्गन्ध से भूत भी भाग जाएं। फिर, वह तो उस किष्किन्धा में रहकर पड़ता ही रहता है। मैं उसे लिखता हूं, 'ओरे न्याड़ा ±, इतनी किताबें पढ़ने से क्या होगा? तू कलम पकड़, कलाम!” लेकिन क्या वह सुनता है? आजकल उस पर एक और भूत सवार हुआ है। वह चित्र बनाता है।”
“चित्र बनाते है? क्या कहते हो?”
“कहूंगा क्या, मतिभ्रष्ट है। कहता हूं कलकत्ता आ जा, पर वह तो उत्तर ही नहीं देता । " इन बातों का कोई अन्त नहीं था। उस दिन बंगाल को पता लगा कि शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय नाम के एक असाधारण प्रतिभाशाली कथाशिल्पी का जन्म हो चुका है और अतीत के दिये बुझ गए हैं। 4 यमुना' की ग्राहक संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ने लगी । अ पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक आग्रहपूर्वक शरत् बाबू को कहानियां भेजने के लिए पत्र लिखने लगे। ‘चरित्रहीन' छापने से जिन्होंने इनकार कर दिया था, उन समाजपति का पत्र भी आया। उस समय साहित्यिक क्षेत्र में उनकी दुन्दुभी बोलती थी। जिस लेखक पर उनकी कृपा हो जाती वह मानो तर जाता। उन जैसे प्रतापी पुरुष ने रचना भेजने का अनुरोध करते हुए जिस प्रकार विनयपूर्वक शरत्चन्द्र को पत्र लिखा, उससे उनके मित्र अवाक् रह गए। लेकिन शरत् नितांत निस्संग बना रहा। कम-से-कम प्रकट में किसी प्रकार की कोई उत्तेजना उसने नहीं दिखाई। एक मित्र को उसने लिखा, “मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है, इसके अलावा किस्से-कहानियां लिखने की प्रवृत्ति नहीं होती । मुसीबत में पड़कर मुझे कहानियां लिखनी पड़ती हैं। फिर भी लिखूंगा। इस बीच कहानी भेजने के बहुत-से अनुरोध आए, लेकिन मैं निरुपाय हूं। इतनी कहानियां लिखने बैठूं तो मेरा पढ़ना बन्द हो जाए। मैं प्रतिदिन दो घंटे से अधिक नहीं लिखता । दस-बारह घंटे पढ़तां हूं।”
लेकिन इस अहंकार के बावजूद लिखना आरम्भ हो चुका था । अन्तर में सोई इच्छा फिर जाग उठी थी । इसीलिए स्वास्थ्य खराब हाने पर भी वह बराबर लिखता रहा । 'यमुना' से जैसे उसे मोह हो गया था। उसने फणीन्द्रनाथ को लिखा, “ यधपि कहानी लिखने का अभ्यास कम हो गया है, लेकिन आशा है कि दो-एक माह में ठीक हो जाएगा। प्रतिमास एक छोटी कहानी (दस-बारह पन्ने की) और प्रबंध भेजूंगा। कहानी अवश्य भेजूंगा, क्योंकि आजकल इसका विशेष आदर है।”
फिर लिखा, तीन नामों से रचनाएं भेजूंगा :
1. समालोचना- प्रबन्ध आदि अनिला देवी
2. छोटी कहानियां शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय
3. बड़ी कहानियां अनुपमा देवी
यह प्रस्ताव उसने इसलिए किया था कि यदि सब रचनाएं एक ही नाम से प्रकाशित होंगी तो पाठक सोचेंगे कि इस व्यक्ति को छोड़ उनके पास कोई और लेखक नहीं है
उसकी इस अप्रत्याशित लोकप्रियता का एक और परिणाम यह हुआ कि बचपन की उसकी रचनाएं, जो उसके मित्रों के पास पड़ी हुई थीं, उन्हें निकाल- निकालकर अब वे लोग इधर-उधर प्रकाशित करने लगे। 'बोझा' के बाद 'बाल स्मृति', 'हरिचरण’, ‘काशीनाथ’, 'अनुपमा का प्रेम', 'चन्द्रनाथ', 'प्रकाश और छाया' एक-सवा वर्ष के भीतर ही भीतर ‘साहित्य’ और ‘यमुना’ में प्रकाशित हो गईं। लेकिन उसे यह अच्छा नहीं लगा। वह नहीं चाहता था कि उसकी ये रचनाएं अब प्रकाशित हों। वह मानता था कि वे अपरिपक्व अवस्था की रचनाएं हैं। भावना की अतिशय मुलायमियत और नवयुवकोचित अतिरंजना का उनमें प्राधान्य है। बार-बार पत्रों द्वारा वह अपना क्रोध और व्यथा प्रकट करने लगा।
“तुमने समाजपत को 'काशीनाथ' देकर अच्छा काम नहीं किया। वह 'बोझा' का जोड़ीदार है। बचपन में अभ्यास के लिए लिखी गई कहानी है। छपवाना तो दूर रहा, लोगों को दिखाना भी उचित नहीं है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि वह न छपे और मेरे नाम को मिट्टी में न मिलाया जाए.. |”
“इस बार 'साहित्य' ने मेरे नाम से न जाने क्या-क्या कूड़ा-करकट छापा है। वह क्या मेरा लिखा हुआ है? मुझे तनिक भी याद नहीं और अगर है भी तो उसे छापा क्यों? आदमी बचपन में बहुत कुछ लिखता है। तो क्या उसे प्रकाशित करना चाहिए? वह छापकर मानो मुझे लज्जित कर दिया है। ”
““देवदास' अच्छा नहीं है, अच्छा नहीं है। सुरेन आदि मेरी सब रचनाओं की बड़ी तारीफ करते हैं। उनके अच्छा कहने का मूल्य मेरे लिए नहीं है! उसे छापा जाए यह भी मेरी इच्छा नहीं है। "
““देवदास' मत लो। लेने की चेष्टा मत करो। यह निराशा की अवस्था में लिखा हुआ ही नही है, मुझे उस पर लज्जा भी आती है। वह अनैतिक है। उसमें वैश्या का चरित्र तो है ही, वह छोड़कर और क्या-क्या है यह बताने को भी जी नहीं करता। मुझे अपनी पुरानी रचनाओं को प्रकाशित कराने के संबंध में विशेष आपत्ति है। आषाढ़ की 'यमुना' में 'आलो को छाया' नामक एक अधूरी अल्प प्रकाशित हुई है। क्या वह मेरी ही लिखी हुई है ...... हो न हो मेरे बचपन की लेखन शैली का अनुकरण करके किसी और ने लिखा है।”
उसमें अब रवीन्द्रनाथ जैसा लिखने का विश्वास पैदा हो गया था। इसलिए वह चाहता था कि उसकी बचपन की रचनाओं को यदि प्रकाशित करना ही है तो एक बार फिर से देख लेना आवश्यक है। इस दृष्टि से 'काशीनाथ' जब पुस्तकाकार छापा तो उसमें उसने काफी संशोधन किए। पत्रिका में छपते समय इस रचना का अन्त काशीनाथ की हत्या और कमला की आत्महत्या से होता है, परन्तु पुस्तक रूप में आने पर वह कथा सुखान्त हो गई।
जब वह ‘साहित्य' में प्रकाशित हुआ था तब एक युवक हरिकृष्ण मुखोपाध्याय उससे मिलने आया था। उसे यह रचना बहुत अच्छी लगी थी। परन्तु उसके अन्त पर उसे आपत्ति थी। उसकी यह आपत्ति सुनते ही शरत् बोल उठा, “केवल काशीनाथ' ही नही 'साहित्य' में और भी कई कहानियां छपी है। वे सब मेरी बचपन की रचनाएं हैं। मुझे बिना बताए एकदम छाप दीं। प्रूफ भी पढ़ लेता तो एक बार देख तो लेता।”
हरिकृष्ण ने सुझाव दिया, “क्या जब अंत नहीं बदला जा सकता?”
शरत् ने कहा, “पता नहीं पुस्तक रूप में छपेगी भी या नहीं । छपी तो अवश्य परिवर्तन करूंगा।”
केवल 'काशीनाथ' में ही नहीं, 'चन्द्रनाथ' में भी उसने काफी परिवर्तन किए। इसके प्रकाशन को लेकर काफी हंगामा मचा। उपेन्द्रनाथ उसे 'यमुना' में प्रकाशित करवाना चाहते थे। इस प्रकार का विज्ञापन भी उसमें निकाल चुका था, परन्तु सुरेन्द्र और गिरीन्द्र इस बात से बहुत दुखी हुए। उपेन्द्र से उनका झगड़ा भी हो गया । चन्द्रनाथ' की पाण्डुलिपि उन्हीं से मांगकर तो वह ले गए थे। उन्होंने शरत् को लिखा और अन्तत: वह इस बात पर राज़ी हो गया कि जो अंश छप चुका है उसे छोड़कर शेष पाण्डुलिपि उसे भेज दी जाए। उचित संशोधन करके वह उसे 'यमुना' को भेजता रहेगा।
संशोधित अंश फणीन्द्रनाथ को भेजते हुए उसने लिखा, “कहानी के तौर पर ‘चन्द्रनाथ' बहुत मधुर है। लेकिन उसमें अतिरेक है। लड़कपन अथवा जवानी में इस तरह की रचना स्वाभाविक होने के कारण शायद ऐसा हुआ है। अब जब हाथ में आ गया है तो उसे अच्छा उपन्यास बना डालना ही उचित है। कम-से-कम दूना बढ़ जाना सम्भव है....... . इस कहानी की विशेषता यह है कि किसी प्रकार की अनैतिकता से इसका संबंध नहीं है, सभी पढ़ सकेंगे.............”
जिस व्यक्ति पर अनैतिकता का दोष लगाया गया और जिसने नैतिकता को नये अर्थ देने की चेष्टा की, उसी के मस्तिष्क को अब स्वयं यह प्रश्न झकझोरने लगा | दिशाहीन प्रारंभिक भावुकता तथा आवेशपूर्ण उग्रता जैसे अब संयत रूप लेने लगी थी । इसलिए नई रचनाएं लिखने में वह बहुत परिश्रम करता था। जब तक सही अर्थ देने वाला मनचाहा शब्द न मिल जाता, उसे काटता ही रहता। मन के सुर के संग शब्द का सुर मिल जाता है कि नही, इसका उसे बहुत ध्यान रहता । मिलने पर ही शान्ति मिलती। इसलिए कभी-कभी पांडुलिपि इतना कट जाती कि कोई दूसरा पढ़ भी नहीं पाता। उस दिन एक पाण्डुलिपि अपने प्रिय मित्र और सहकर्मी कुमुदिनीकान्त कर को देते हुए उसने कहा था, “यह देख, कितना काटा हे। काटने की और जगह नहीं है। चेष्टा करने पर भी तुम पढ़ नहीं पाओगे।”