shabd-logo

अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023

59 बार देखा गया 59

अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न रहने के कारण उसे बहुत असुविधा होती थी। इसलिए कुछ ही दिन बाद उसने प्रमथ को लिखा, "चाहता हूं इनको भेज ही दो । मेरा काम नहीं चल रहा है। इनकी तो भूख-प्यास और नींद सब बन्द हो गई......। इनके न आने से लिखना नहीं हो सकता । मेस में नहीं होता। सब देखना चाहते हैं, इसलिए यह सब उत्पात होता है। मैंने जिस हालत में बहुत लिखा है, ठीक वैसी हालत न होने पर कुछ नहीं होता है

वह अपने पात्र और घटनाएं किस प्रकार वास्तविक जीवन से लेता था, "पल्ली समाज इसका एक और उदाहरण है। इसमें शवदाह और प्रायश्चित्त की घटनाएं आती हैं। उन दिनों बंगाल में दमे आदि कई रोगों के रोगियों को प्रायश्चित कराने की प्रथा थी। उसी की चर्चा करते हुए उपन्यास का एक पात्र गोपाल सरकार रमेश से कहता है, इस लड़के के बाप द्वारका चक्रवर्ती छ: महीने से दमे की बीमारी के कारण खाट पर पड़े थे। आज सेवेरे वे मर गए। उनका प्रायश्चित नहीं हुआ था, इसलिए कोई उनकी लाश नहीं छूना चाहता। इस समय वह करना बहुत आवश्यक है। कामिनी की मां छ: महीने से बराबर इस गरीब ब्राह्मण परिवार की सहायता करती आ रही है और इसी में वह अपना सर्वस्व लगा चुकी है। अब उसके पास कुछ भी नहीं बचा है, इसलिए वह इस लड़के को लेकर आपके पास आई है। ' रमेश ने कुछ देर तक चुप रहकर पूछा, अब तो दो बज रहे है। अगर प्रायश्चित न हो तो क्या मुर्दा पड़ा ही रहेगा?.

सरकार ने हंसकर कहा, बाबूजी, और उपाय ही क्या है? शास्त्र के विरुद्ध तो काम हो ही नहीं सकता। और फिर इसमें गांव के लोगों को ही क्या दोष दिया जा सकता है? जो हो, मुर्दा पड़ा नहीं रहेगा। जिस तरह से हो, इन लोगों को काम करना ही पड़ेगा। इसीलिए तो भीख ...... मुड़कर) कामिनी की मां और कहीं भी गई थी?.

लड़के ने मुट्ठी खोलकर एक चवन्नी और चार पैसे दिखा दिए । कामिनी की मां ने कहा, रवन्नी तो मुकर्जी के यहां से मिली है और चार पैसे हाल्दार ने दिए हैं, लेकिन नौ चवन्नियों से कम में तो काम चल ही नहीं सकता, इसलिए बाबूजी अगर....

रमेश ने जल्दी से कहा, अच्छा तुम लोग घर जाओ। अब और कहीं जाने की जरूरत नहीं। मैं अभी इंतजाम करके आदमी भेजता हूं।'

इस घटना का चित्रण करते समय शरत् को अपने एक नाना महेन्द्रनाथ की मृत्यु की निश्चय ही याद आई होगी। बहुत वर्ष पहले जगद्धात्री पूजा के अवसर पर जब ब्राह्मणों को परोसने के लिए नाना के घर गया था तब मुखिया के आपत्ति करने पर इन्हीं नाना ने उसे रोक दिया था। इन्हीं की मृत्यु पर ब्राह्मणों ने हंगामा खड़ा कर दिया। वे बीमार थे। ज्वर के साथ रक्त उभरता था। कविराज ने बताया 'रक्त पित्त' है। पुरातनपंथियों के मुखिया लोग खूब आने-जाने लगे। हालत निरन्तर खराब होती जा रही थी। तभी एक दिन मुखियाओं में से कोई नहीं आया। आया उनका सन्देश - "जल्दी से प्रायश्चित्त कर डालो, नहीं तो शवदाह के समय मुसीबत होगी।.

कैसी मुसीबत?.

रोगी के रक्त उभरता है। उसे कोई छुएगा नहीं।

घर में चारों ओर मौत की छाया मंडरा रही थी। सभी दुखी थे। इस बात पर किसी बड़े ने कान नहीं दिया, फिर भी कानाफूंसी चलती रही। महेन्द्रनाथ ठीक नहीं हो सके। अष्टमी को उनकी मृत्यु हो गई। विपक्षी दल शायद यही चाहता था। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। अष्टमी के दिन प्रायश्चित्त की व्यवस्था नहीं है, इसलिए शव पड़ा रहेगा मुखियाओं ने अपने-अपने घर जाकर एक फतवा जारी कर दिया। फलस्वरूप शवदाह के लिए लोगों को ढूंढना एक समस्या हो गई। श्मशान भूमि वहां से तीन-साढ़े तीन मील दूर थी। रास्ता भी सुगम नहीं था। गांगुली परिवार मुसीबत में पड़ गया। लेकिन शरत् के छोटे नाना अघोरनाथ साहसी व्यक्ति थे। उन्होंने कहा, -हिन्दू शास्त्र तो कामधेनु है, जो चाहोगे वही मिलेगा। नाना मुनियों के नाना मत हैं। डरी नही, व्यवस्था निश्चित ही होगी। .

और अन्त में व्यवस्था हुई । तर्करत्न महोदय ने कहा, 'वह साला काव्यतीर्थ, वह न्याय क्या जाने? उसको हस्व-दीर्घ का ज्ञान तो है ही नहीं। अष्टमी, चतुर्दशी, शनिवार और मंगलवार को जीवित देह का प्रायश्चित्त नहीं होता | मुर्दे को सड़ने देना हिन्दू शास्त्र और न्याय के विरुद्ध है। यह नहीं हो सकता, युक्ति सबसे बड़ी है।

"युक्तिहीने विचारेतु धर्महानि प्रजायते । '

तर्करत्न ने व्यवस्था लिख दी और उनके शिष्य ने आकर प्रायश्चित्त करा दिया। तब घर से शव उठाया गया।

इस उपन्यास की रचना-प्रक्रिया और कथानक के विकास की चर्चा करते हुए शरत् ने अपने एक मित्र से कहा था - "पल्ली समाज' को मैंने दूसरे ढंग से खत्म कर दिया। उस दिन जिस तरह से समाप्त करके भेज रहा था, वह अच्छा न लगने के कारण उपसंहार दूसरे ढंग प्रस्तुत किया गया है। मैं यह अवश्य बता दूं कि 'सरस' शब्द से मैं जो अर्थ समझता हूं, यह कहानी उसके पास भी नहीं फटकती । बहुत ही किरकिरापन लिए हुए पदार्थ से इसका ताना-बाना बुना गया है। चलो, दो-एक इंट्रेस्टिंग कहानियां भी होनी चाहिए। निबन्ध तो बहुतेरे पढ़ते है। "

एक और पत्र में उसने लिखा, “मेरी तो इतनी इच्छा है कि लोग गांव की बातों में दिलचस्पी लें। इस पुस्तक में एक मूल बात यानी विवाह के बारे में कुछ नहीं कहा गया। इच्छा है कि इस प्रसंग को मैं किसी दूसरी पुस्तक में उठाऊं। वहां पल्ली समाज' को लोगों ने किस रूप में लिया, मैं नहीं जानता ।....... . जानना चाहता हूं।”

'पल्ली समाज' में केवल दुख - दैन्य से पीड़ित, संकीर्ण सांस्कृतिक घेरे के भीतर बंधे हुए, परम्परा-प्रचलित कुसंस्कारों से घिरे हुए बंगाल के निम्न मध्यवर्गीय देहाती समाजा सीधा-सादा यथार्थ चित्रण है। शरत् का बचपन और यौवन का भी कुछ समय गांव में ही कटा था। गांव को वह प्यार करता था। उसी के आधार पर उसने इस पुस्तक की रचना की।

लेकिन उसने इस बात को स्वीकार किया है कि गांव के बारे में गांवों के लोगों को ही लिखना चाहिए। कलकत्ता नगर के बड़े लोगों के कल्पना करके लिखने से वह कहीं अधिक सत्य होगा। गांवों में फैले अज्ञान का प्रतिकार ज्ञान के विस्तार से ही हो सकता है। जो यह काम करना चाहते हैं उन्हें गांव से दूर विदेशों में जाकर मनुष्य होना होगा। लेकिन काम करना होगा गांवों में बैठकर ही और गांवों के अच्छे-बुरे लोगों से भली भांति मेल करके। 4

बर्मा में पल्लीसमाज का स्वागत हुआ पर कलकत्ता में तीव्र आलोचना हुई। विधवा रमा रमेश से क्यों प्रेम करने लगी- इस पर नाना प्रकार के लोगों ने नाना प्रकार के आक्षेप किए। साहित्य के एक प्रवीण समालोचक ने 'साहित्य की स्वास्थ्यरक्षा' नामक ग्रन्थ में रमा का इस तरह तिरस्कार किया है- “ ठकुरानी, तुम बुद्धिमती हो न? अपनी बुद्धि के जोर से पिता की जमींदारी का शासन प्रबन्ध कर सकीं और तुम्हीं अपने बाल्य सखा, पर पुरुष रमेश को प्यार कर बैठी। यही तुम्हारी बुद्धि है, छि: ......”

आक्रमण का एक और भी पक्ष है- रमा और रमेश में जब इतना प्रेम हो गया था, तो लेखक उनका विवाह क्यों नही करा सका । शरत् ने इन सब अभियोगों का उत्तर देते हुए लिखा है - "पल्ली समाज' नाम की मेरी छोटी-सी पुस्तक है। उसकी विधवा रमा ने अपने बाल्य बन्धु रमेश को प्यार किया था। इसके लिए मुझे बहुत झिड़कियां और तिरस्कार सहना पड़ा है। एक विशिष्ट समालोचक ने ऐसा अभियोग भी लगाया था कि इतनी दुर्नीति को प्रश्रय देने से गांव में कोई विधवा नहीं रहेगी। मरने- जीने की बात कही नहीं जा सकती। प्रत्येक पति के लिए यह गहरी दुश्चिन्ता का विषय है। इसका एक और पहलू भी तो है। इसको प्रश्रय देने से भला होगा या बुरा ? हिन्दू समाज स्वर्ग में जाएगा या नरक में, इस मीमांसा का भार मेरे ऊपर नहीं है। रमा जैसी नारी और रमेश जैसे पुरुष किसी भी समाज

दल के दल नहीं जनमते। दोनों के सम्मिलित पवित्र जीवन की कल्पना करना कठिन नही है। किन्तु हिन्दू समाज में इस समाधान के लिए जगह न थी । इसका परिणाम यह हुआ कि इतने बड़े महाप्राण नरनारी इस जीवन में विफल, व्यर्थ और पंगु हो गए। मनुष्य के बन्द हृदय-द्वार तक वेदना की यह खबर अगर मैं पहुंचा सका हूं तो इससे अधिक और कुछ मुझे नहीं करना है। इस लाभ-हानि को खतियाकर देखने का भार समाज का है, साहित्यिक का नहीं। रमा के व्यर्थ जीवन की तरह यह रचना वर्तमान में व्यर्थ हो सकती है, किन्तु भविष्य की विचारशाला में निर्दोष के लिए इतनी बड़ी सजा का भोग एक दिन किसी तरह मंजूर न होगा। यह बात मैं निश्चय के साथ जानता हूं। यह विश्वास यदि न होता तो साहित्यसेवी की कलम उसी दिन वहीं संन्यास ले लेती।” 5

'पल्ली समाज' के अतिरिक्त वह अपने दो और उपन्यासों पर काम कर रहा था, 'गृहदाह' और 'श्रीकान्त'। 'गृहदाह' के संबंध में बहुत-से प्रवाद प्रचलित हो गए थे और इसका कारण वह स्वयं ही था। कब क्या बात कह देता था और कब उसका खण्डन करके दूसरी बात कह देता था, यह शायद वह जानबूझ कर ही करता था । ऐसा करने में उसे आनन्द आता था। एक पत्र में उसने लिखा- “इस कहानी का भाव 'गोरा' के परेश बाबू से लिया गया है- अर्थात् अपने कहने के लिए यह अनुकरण है, पर पकड़ा नहीं जा सकता। सामाजिक-पारिवारिक कहानी है। मेरे मन में बड़ा उत्साह है कि सुन्दर होगी, पर क्या से क्या हो जाएगा, कहा नहीं जा सकता।

इस प्रकार के पत्रों से एक बात को निश्चय ही बल मिलता है कि वह रवीन्द्रनाथ से अत्यन्त प्रभावित था। किसी सीमा तक आक्रान्त था। कोई भी रचना करते समय उसकी उपचेतना में निश्चय ही यह बात 'घुमड़ती रहती थी कि यह रचना रवीन्द्रनाथ की अमुक रचना से अच्छी होनी चाहिए या कम से कम उनके जैसी तो होनी ही चाहिए। बार-बार उसने अपने मित्रों को लिखा, "मुझसे तभी रचना मांगी जाए जब यह विश्वास हो जाए रवीन्द्रनाथ को छोड़कर ऐसी रचना और कोई नहीं कर सकता

उसके अन्तर की यह विचित्र मनोग्रन्थि उससे इस प्रकार के अनेक काम करवाती रहती थी।

कलकत्ता लौटने से पूर्व 'श्रीकान्त' का सृजन भी आरम्भ हो चुका था। और वह 'भारतवर्ष ' में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हो रहा था। उसकी दूसरी रचनाओं की तरह इनका आरम्भ भी दफ्तर में ही हुआ था। उसकी प्रारम्भिक कहानियों के साथ जिस प्रकार योगेन्द्रनाथ सरकार का नाम जुड़ा हुआ है उसी प्रकार 'श्रीकान्त' के साथ कुमदिनीकान्त कर का नाम जुड़ा है। बहुत से लोगों का विश्वास है कि इस उपन्यास में श्रीकान्त वह स्वयं है और राजलक्ष्मी उसकी प्रेयसी है। इस राजलक्ष्मी की खोज में न जाने कितने लोग पागल हो गए। लेकिन उसकी खोज-खबर कोई नहीं पा सका। पाता कैसे? वह तो लेखक की कल्पना मात्र थी, अतृप्त कामनाओं की कल्पना । उसने अपने बचपन की साथिन धीरू को आधार मानकर पहले 'देवदास' की पारो और फिर 'श्रीकान्त' की राजलक्ष्मी का चित्रण किया। सुना यह भी गया कि धीरू का वास्तविक नाम राजलक्ष्मी ही था । यौवन के प्रथम चरण में उसका जो एक प्रेम असफल हो गया था उसकी नायिका भी तो राजलक्ष्मी हो सकती है। और मुजफ्फरपुर की राजबाला क्यों नहीं हो सकती?

इस प्रकार अनेक व्यक्तियों ने स्वयं ही अनेक प्रकार की बातें नहीं कही हैं, उसके मुख से भी न जाने क्या-क्या कहलवाया है। कुछ व्यक्ति हिरण्मयी देवी को ही राजलक्ष्मी मानते हैं। प्यार से उसने कभी उन्हें 'लक्ष्मी' कहकर पुकारा होगा, बस उसी के आधार पर उन्हें राजलक्ष्मी मान लिया गया। एक मित्र ने उससे यहां तक कहा, "विवाह करके इस महान् प्रेम की आपने अमर्यादा की है। जो कभी पुण्य भागीरथी का निबन्ध स्वच्छ जल था, उस पर बांध बांधकर आपने उसे तालाब और गड्ढे का रूप दे दिया है।"

कई क्षण मौन रहकर शरत् ने इतना ही कहा, “और कोई रास्ता भी तो नहीं था, लेकिन मैंने उसे छोड़ा तो नहीं।”

क्या इसे सत्य माना जा सकता है? नहीं माना जा सकता। अगर यह बात सत्य होती तो शरत् अपने एक पत्र में यह क्यों लिखता “राजलक्ष्मी कहां मिलेगी ? वह तो सब मनगढ़न्त झूठी कहानी हैं। 'श्रीकान्त केवल एक उपन्यास मात्र ही तो हैं। झूठी अफवाहें न सुनना ही बेहतर है।"

लेकिन जो खोज करनेवाले थे, वे इस निषेध से कैसे चुप रह सकते थे। वे हिरण्मयी देवी के पास जाते और पूछते, "आप ही राजलक्ष्मी हैं?"

ऐसे प्रश्न सुन-सुनकर वह इतनी दुखी हुई कि लोगों से मिलना-जुलना ही छोड़ दिया। बेचारी न तो 'श्रीकान्त' की राजलक्ष्मी की तरह रूपसी ही थीं और न ऐस्वर्यमयी । नृत्य-गान तो क्या, बातचीत करने में भी इतनी चतुर नहीं थीं। वह अत्यन्त साधारण, सरल और अशिक्षित पर धर्मशीला, पतिव्रता और सेवापरायण महिला थीं। शरत् बाबू के प्रति उनमें अगाध प्रेम और श्रद्धा थी। उस दिशाहारा निराश्रित व्यक्ति का जीवन सुखी बनाने में अपनी दृष्टि और अपनी समझ में उन्होंने कुछ भी उठा न रखा था। वह सही अर्थो में अर्पिता थीं। भावुक अर्पिता, जो प्रायः अति का शिकार हो जाती है, लेकिन यह उन्हीं की तपस्यामयी श्रद्धा का परिणाम था कि जो शरत् अपने यौवन में उपेक्षा और अपमान के कारण दिशाहारा होकर जीवन को व्यर्थ कर रहा था, वही पहले शान्ति देवी और फिर हिरण्मयी देवी का सम्पर्क पाकर प्राणवान साहित्य का प्रणेता बना। वह तेजपुंज था और तेजपुंज को नारी का स्पर्श चाहिए ही । नहीं तो वह तेज न केवल उसी को भस्म कर देता हे बल्कि उसके आसपास भी जो कुछ होता है, उसको भी दिशाभ्रष्ट और नष्ट करता रहता है।

इसमें सन्देह नहीं कि 'श्रीकान्त उन्हीं के समान आवारा है। और इस उपन्यास में वर्णित अनेक घटनाएं सत्य के आधार पर लिखी गई हैं। अपने एक मित्र से इसकी चर्चा करते हुए उसने एक बार कहा था, आप मेरा उपन्यास पढ़ते समय कृपया घटना और परिस्थिति पर जोर न दें। मैं घटना को उपन्यास की असली वस्तु नहीं मानता। मेरा एकमात्र उद्देश्य चरित्र-सृष्टि है। उसके साथ-साथ घटना स्वयं ही आ जाती है। चेष्टा नहीं करनी होती । मेरे चरित्रों के अन्तराल में कौन-कौन-से स्थल यथार्थ हो सकते है, वे चित्र की पृष्ठभूमि के रूप में ही हैं, इससे अधिक नहीं।

इन घटनाओं को लेकर उसने अपने एक और मित्र से इस बात को स्वीकार किया कि 'श्रीकांत' में उसकी अपनी कथा कुछ तो है ही। जीवन की किसी घटना को साहित्य के स्तर पर लाते समय कभी-कभी खण्ड-खण्ड घटनाओं को सम्बद्ध करने अथवा पूर्ण रूप से कहानी का रूप देने के लिए कल्पना का सहारा लेना ही पड़ता है। उसने कहा, तुम शिक्षक हो। मान लो तुम एक विद्यार्थी को 'अपना गांव विषय पर एक निबन्ध लिखने को कहते हो । उस गांव में न कोई नदी है, न कोई मन्दिर, पर वह अच्छे नम्बर पाना चाहता है। अब सोचो, वह क्या करेगा? आसपास के गांवों में जो नदियां जो मन्दिर उसने देखे हैं, उन्हीं को अपने गांव से सम्बद्ध करता हुआ वह निबन्ध लिखेगा। साहित्य के संबंध में ही वही बात लागू होती है।.

यहां 'श्रीकान्त में वर्णित कुछ घटनाओं पर भी विचार किया जा सकता है। इसमें एक पात्र है इन्द्रनाथ | वह श्रीकांत का बचपन का साथी हे। एक दल कहता है, शरत् ने भागलपुर के अपने बचपन के साथी राजेन्द्रनाथ मजूमदार उर्फ राजू की ही इन्द्रनाथ के रूप में चित्रित किया है। राजू और इन्द्रनाथ दोनों की प्रकृति एक-सी ही है। स्वयं शरत् ने भी इस बात को स्वीकर किया है।

दूसरा दल मानता है कि इन्द्रनाथ शरत् की जन्मभूमि देवानन्दपुर के सतीशचन्द्र भट्टाचार्य के अतिरिक्त और कोई नहीं है। गांव में रहते हुए शरत् सतीश के सम्पर्क में आया था.। यद्यपि बहुमत राजेन्द्रनाथ के पक्ष में ही है, लेकिन फिर भी यह मानने में क्या हानि है कि शरत् ने इन्द्रनाथ का चरित्रचित्रण वास्तविक जगत् के दो व्यक्तियों के आधार पर किया था।

इसी प्रकार अन्नदा दीदी के वास्तविक अस्तित्व से भी शरत् ने इन्कार नहीं किया। वह देवानंदपुर की रहनेवाली उसकी नाते की एक बहन थी या भागलपुर की कोई लड़की, यह प्रश्न असंगत है। नाम बदलकर बहुत से वास्तविक स्थान भी 'श्रीकांत' में वैसे के वैसे ही आए है। अनेक घटनाओ को उसने अपनी सुविधा के अनुसार परिवर्तित भी कर दिया है। उसकी लेखनी के चमत्कार ने उन्हें इतना मनोरम बना दिया है कि सत्य क्या है यह पता लगा लेना असम्भव हो गया है। अपनी प्रकृति का स्वयं चित्रण करना दुस्तर कार्य है। किसी भी वस्तु को अच्छी तरह देखने के लिए, अच्छी तरह जानने के लिए कुछ दूरी और अलगाव अत्यन्त आवश्चक है। आख के सबसे पास रहने पर क्या उसको सबसे अच्छी तरह देखा जा सकता है? एक चित्रकार के लिए अपनी आकृति आकना जितना कठिन है, लेखक के लिए भी अपना चित्रण करना उतना ही कठिन है।'

श्रीकान्त के चरित्र में शरत् ने अपने को चित्रित किया है या नहीं, इसका यदि सीधा उत्तर देना हो तो यही होगा कि यदि चीनी को सन्देश - कहा जा सकता है तो अवश्य किया है। अन्यथा सत्य इतना ही है कि बीच-बीच में झलकमात्र मिल जाती है। वह चरित्र-सृष्टि को ही उपन्यास में महत्वपूर्ण मानते थे। घटनाएं तो अनायास ही आ जाती थीं। कहीं-कहीं वास्तविकता दिखाई दे सकती है लेकिन वह मात्र चित्रसृष्टि की पृष्ठभूमि के रूप में होती है। सभी लेखक अपनी अभिज्ञता के सहारे लिखते हैं। इस प्रकार उनकी हर रचना ही उनकी अपनी जीवनी है। लेकिन शरत् उपन्यास के माध्यम से छद्म रूप में आत्मचरित्र लिखना से कायरता मानता था। बहुत दिन बाद हिन्दी के सुप्रसिद्ध कथाकार श्री इलाचन्द्र जोशी से उसने कहा, जिन लोगों में जीवन को व्यापक और गहरे रूप में देखने की शक्ति नहीं है, जो अपने अहं की चारदीवारी के बाहर झांककर जीवन के सिंहावलोकन का दम नहीं रखते, वे अपनी कला में निरपेक्षता लाने में असमर्थ हैं। वे ही जीवन की गुप्त कथा को उपन्यास का रूप देते हैं।.

उसने स्पष्ट कहा "श्रीकान्त में जीवन के उन्हीं रूपों का वर्णन मैंने किया है, जिनसे मेरा व्यक्तिगत परिचय है, और उन्हीं चरित्रों को मैंने लिया है जिनका अध्ययन निकट से करने का अवसर मुझे मिला है, पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह मेरा आत्मचरित . है । फिर भी मुझे लोगों की यह धारणा जानकर प्रसन्नता ही होती है, क्योकि उससे प्रमाणित होता है कि मेरे पात्र पाठकों को सजीव लगते है और मेरा जीवन-वर्णन और चरित्रांकन यथार्थ जीवन के बहुत निकट है।.

मामा सुरेन्द्रनाथ ने लिखा है, पहुत-से लोग कहते है कि शरत्चन्द्र ने साहित्य में अपने को जितना प्रकाशित किया है जीवनी के रूप में उतना ही यथेष्ट है । स्वतन्त्र जीवनचरित्र की कोई आवश्यकता नहीं। लेकिन शरतचन्द्र ने तो साहित्य में अपने को अद्भुत रूप से छिपाया है, जो यह बात नहीं जानते उनसे भूल होना स्वाभाविक है।'

जैसा कि प्रत्येक रचना के साथ होता था, 'श्रीकान्त के संबंध में भी वह आश्वस्त नहीं था। अपने प्रकाशक को उसने लिखा था, "श्रीकान्त की भ्रमण क्कानी सचमुच छापने के योग्य है, ऐसा मैंने नहीं समझा था। अब भी नहीं समझता । पर सोचा था कि शायद कोई छाप दे, इसी आशा से लिखा था.........। उसके प्रारम्भ में ही जो श्लेष थे, वे सब किसी भी दशा में आपकी पत्रिका के स्थान नहीं पा सकेंगे, यह तो जानी हुई बात है, पर दूसरी किसी पत्रिका मे शायद वह आपत्ति न उठे, इसी का भरोसा था। इसीलिए आपकी मार्फत भेजा। अगर कहें तो और लिखूं। बहुत-सी बातें कहने को हैं। पर व्यक्तिगत श्लेष विद्रुप यहीं तक। आखिर तक सारी बातें सच कही जाएंगी। मेरा नाम किसी भी हालत में प्रकट न होने पाए ।. ...हां 'श्रीकांत' की आत्मकथा से इसका कोई संबंध तो रहेगा ही, परन्तु यह मूलतः भ्रमण कहानी है। '

कुछ दिन बाद फिर लिखा, "अगर अभय दें तो इस संबंध में एक बात कहूं। सम्पादक गण इस कहानी की नितान्त अवज्ञा न करें। मुझे आशा है जो रचनाएं प्रकाक्षित होती हैं। और हुई है, उनसे यह बहुत नीचे आसन पाने योग्य नहीं है। अनेक सामाजिक इतिहास इसके भविष्य के गर्भ में प्रच्छन्न है। मेरी बहुत चेष्टा और यत्न की यह वस्तु कम से कम मित्रों से कद्र पाने योग्य होगी ही। हां, प्रारम्भ खराब है, हर यथार्थ में अच्छी चीज का प्रारम्भ खराब होता है। यही मेरी कैफियत है। क्या अबकी बार छपेगी? हाथ की लिखावट को छपे अक्षरों में देखने की आशा से ही उसे भेजा है।

इन पत्रों में उसने इस बात का संकेत किया है कि इस कहानी का श्रीकान्त की आत्मकथा से संबंध हे। लेकिन यह संबंध इतना ही है, जितना एक उपन्यास क्त वास्तविक जीवन से होता है। उसका जीवन इतना रोमांचक, इतना वैविध्यपूर्ण रहा है कि श्रीकान्तको पढ़कर इस भ्रम में पड़ जाना अस्वाभाविक नहीं। श्रीकान्त शरत् नहीं है लेकिन दोनों की प्रकृति में अद्भुत समानता है, यह स्वीकार करना ही पड़ेगा। इसे सहज भाव से आत्म- जीवनीमूलक उपन्यास की श्रेणी में रखा जा सकता है।

एक दिन उसने कहा था, "मुझे लोग मेरी रचनाओं में खोजते हैं। कोई कहता है, मैं कट्टर हिन्दू हूं कोई कहता है, नास्तिक हूं। कोई कहता है, चरित्रहीन मेरी ही कहानी है, कोई मानता है कि 'श्रीकान्त ' मेरी आत्मकथा है। मुझे लेकर यह सब वितण्डावाद चलता है और मैं दूर खड़ा हंसता हूं।.

हर प्राणवान व्यक्ति की यही नियति होती है। जिस गांधी को लोगों ने सन्त कहा उसी गांधी को ढोंगी, दम्भी, धोखेबाज़ तक कहा। गांधी ही ऐसा व्यक्ति था जो सब कुछ हो सकता था। सब कुछ होने के लिये हिया चाहिए। वह हिया शरत् के पास भी था। उसने जीवन में बहुत दुख भोगा था, बहुत-सा पाप भी किया था, पर उससे ऊपर उठकर उसे अभिज्ञता में रूपान्तरित करने की प्राणशक्ति भी उसमें थी। क्योकि वह मात्र भोक्ता ही नही, द्रष्टा भी था, इसीलिए अन्तत: साहित्य की मंजिल ने उसे खोज लिया। जो परम्पराओं का किसी न किसी रूप में विरोध करते हैं वे अन्तर की अज्ञात शक्तियों को मुक्त कर देते है। कोई नही जानता, उनका क्या परिणाम होगा । स्वतन्त्रता शक्तिशाली के लिए, योग्य के लिए ही अच्छी है। शरत् में वह असीम शक्ति थी, इसीलिए वह सष्टा बन सका।

68
रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
1

भूमिका

21 अगस्त 2023
42
1
0

संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

2

भूमिका : पहले संस्करण की

21 अगस्त 2023
19
0
0

कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

3

तीसरे संस्करण की भूमिका

21 अगस्त 2023
11
0
0

लगभग साढ़े तीन वर्ष में 'आवारा मसीहा' के दो संस्करण समाप्त हो गए - यह तथ्य शरद बाबू के प्रति हिन्दी भाषाभाषी जनता की आस्था का ही परिचायक है, विशेष रूप से इसलिए कि आज के महंगाई के युग में पैंतालीस या,

4

" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

21 अगस्त 2023
11
0
0

किसी कारण स्कूल की आधी छुट्टी हो गई थी। घर लौटकर गांगुलियो के नवासे शरत् ने अपने मामा सुरेन्द्र से कहा, "चलो पुराने बाग में घूम आएं। " उस समय खूब गर्मी पड़ रही थी, फूल-फल का कहीं पता नहीं था। लेकिन घ

5

अध्याय 2: भागलपुर में कठोर अनुशासन

21 अगस्त 2023
8
0
0

भागलपुर आने पर शरत् को दुर्गाचरण एम० ई० स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती कर दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे, इसलिए बालक की शिक्षा-दीक्षा कहां तक हुई है, इसकी किसी ने खोज-खबर नहीं ली। अब तक उसने

6

अध्याय 3: राजू उर्फ इन्दरनाथ से परिचय

21 अगस्त 2023
7
0
0

नाना के इस परिवार में शरत् के लिए अधिक दिन रहना सम्भव नहीं हो सका। उसके पिता न केवल स्वप्नदर्शी थे, बल्कि उनमें कई और दोष थे। वे हुक्का पीते थे, और बड़े होकर बच्चों के साथ बराबरी का व्यवहार करते थे।

7

अध्याय 4: वंश का गौरव

22 अगस्त 2023
7
0
0

मोतीलाल चट्टोपाध्याय चौबीस परगना जिले में कांचड़ापाड़ा के पास मामूदपुर के रहनेवाले थे। उनके पिता बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय सम्भ्रान्त राढ़ी ब्राह्मण परिवार के एक स्वाधीनचेता और निर्भीक व्यक्ति थे। और वह

8

अध्याय 5: होनहार बिरवान .......

22 अगस्त 2023
4
0
0

शरत् जब पांच वर्ष का हुआ तो उसे बाकायदा प्यारी (बन्दोपाध्याय) पण्डित की पाठशाला में भर्ती कर दिया गया, लेकिन वह शब्दश: शरारती था। प्रतिदिन कोई न कोई काण्ड करके ही लौटता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया उस

9

अध्याय 6: रोबिनहुड

22 अगस्त 2023
4
0
0

तीन वर्ष नाना के घर में भागलपुर रहने के बाद अब उसे फिर देवानन्दपुर लौटना पड़ा। बार-बार स्थान-परिवर्तन के कारण पढ़ने-लिखने में बड़ा व्याघात होता था। आवारगी भी बढ़ती थी, लेकिन अनुभव भी कम नहीं होते थे।

10

अध्याय 7: अच्छे विद्यार्थी से कथा - विद्या - विशारद तक

22 अगस्त 2023
5
0
0

शरत् जब भागलपुर लौटा तो उसके पुराने संगी-साथी प्रवेशिका परीक्षा पास कर चुके थे। 2 और उसके लिए स्कूल में प्रवेश पाना भी कठिन था। देवानन्दपुर के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट लाने के लिए उसके पास पैसे न

11

अध्याय 8: एक प्रेमप्लावित आत्मा

22 अगस्त 2023
5
0
0

इन दुस्साहसिक कार्यों और साहित्य-सृजन के बीच प्रवेशिका परीक्षा का परिणाम - कभी का निकल चुका था और सब बाधाओं के बावजूद वह द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया था। अब उसे कालेज में प्रवेश करना था। परन्तु

12

अध्याय 9: वह युग

22 अगस्त 2023
5
0
0

जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

13

अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
5
0
0

शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

14

अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
4
0
0

उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

15

अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
4
0
0

इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

16

अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
4
0
0

इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

17

अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
4
0
0

इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

18

अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
3
0
0

एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

19

अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
5
0
0

गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

20

अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
5
0
0

घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

21

अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
4
0
0

इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

22

" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
4
0
0

श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

23

अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
4
0
0

वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

24

अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
4
0
0

वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

25

अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
4
0
0

एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

26

अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
4
0
0

शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

27

अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
5
0
0

रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

28

अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
3
0
0

एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

29

अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
3
0
0

शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

30

अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
3
0
0

'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

31

अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
3
0
0

गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

32

अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
3
0
0

रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

33

अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
3
0
0

‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

34

अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
2
0
0

छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

35

अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
3
0
0

द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

36

अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
2
0
0

अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

37

अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
2
0
0

' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

38

अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
2
0
0

अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

39

अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
2
0
0

वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

40

" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

41

अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

42

अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
2
0
0

'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

43

अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

44

अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
2
0
0

चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

45

अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
2
1
0

उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

46

अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

47

अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

48

अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
2
0
0

अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

49

अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
2
0
0

किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

50

अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
2
0
0

राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

51

अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
2
0
0

देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

52

अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
2
0
0

जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

53

अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

54

अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

55

अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
2
0
0

किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

56

अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
2
0
0

शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

57

अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
2
0
0

केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

58

अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
2
0
0

चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

59

अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
2
0
0

साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

60

अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
2
0
0

जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

61

अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
2
0
0

शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

62

अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
2
0
0

शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

63

अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
2
0
0

गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

64

अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
2
0
0

राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

65

अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
2
0
0

सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

66

अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
2
0
0

हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

67

अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
2
0
0

कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

68

अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
2
0
0

इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए