अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न रहने के कारण उसे बहुत असुविधा होती थी। इसलिए कुछ ही दिन बाद उसने प्रमथ को लिखा, "चाहता हूं इनको भेज ही दो । मेरा काम नहीं चल रहा है। इनकी तो भूख-प्यास और नींद सब बन्द हो गई......। इनके न आने से लिखना नहीं हो सकता । मेस में नहीं होता। सब देखना चाहते हैं, इसलिए यह सब उत्पात होता है। मैंने जिस हालत में बहुत लिखा है, ठीक वैसी हालत न होने पर कुछ नहीं होता है
वह अपने पात्र और घटनाएं किस प्रकार वास्तविक जीवन से लेता था, "पल्ली समाज इसका एक और उदाहरण है। इसमें शवदाह और प्रायश्चित्त की घटनाएं आती हैं। उन दिनों बंगाल में दमे आदि कई रोगों के रोगियों को प्रायश्चित कराने की प्रथा थी। उसी की चर्चा करते हुए उपन्यास का एक पात्र गोपाल सरकार रमेश से कहता है, इस लड़के के बाप द्वारका चक्रवर्ती छ: महीने से दमे की बीमारी के कारण खाट पर पड़े थे। आज सेवेरे वे मर गए। उनका प्रायश्चित नहीं हुआ था, इसलिए कोई उनकी लाश नहीं छूना चाहता। इस समय वह करना बहुत आवश्यक है। कामिनी की मां छ: महीने से बराबर इस गरीब ब्राह्मण परिवार की सहायता करती आ रही है और इसी में वह अपना सर्वस्व लगा चुकी है। अब उसके पास कुछ भी नहीं बचा है, इसलिए वह इस लड़के को लेकर आपके पास आई है। ' रमेश ने कुछ देर तक चुप रहकर पूछा, अब तो दो बज रहे है। अगर प्रायश्चित न हो तो क्या मुर्दा पड़ा ही रहेगा?.
सरकार ने हंसकर कहा, बाबूजी, और उपाय ही क्या है? शास्त्र के विरुद्ध तो काम हो ही नहीं सकता। और फिर इसमें गांव के लोगों को ही क्या दोष दिया जा सकता है? जो हो, मुर्दा पड़ा नहीं रहेगा। जिस तरह से हो, इन लोगों को काम करना ही पड़ेगा। इसीलिए तो भीख ...... मुड़कर) कामिनी की मां और कहीं भी गई थी?.
लड़के ने मुट्ठी खोलकर एक चवन्नी और चार पैसे दिखा दिए । कामिनी की मां ने कहा, रवन्नी तो मुकर्जी के यहां से मिली है और चार पैसे हाल्दार ने दिए हैं, लेकिन नौ चवन्नियों से कम में तो काम चल ही नहीं सकता, इसलिए बाबूजी अगर....
रमेश ने जल्दी से कहा, अच्छा तुम लोग घर जाओ। अब और कहीं जाने की जरूरत नहीं। मैं अभी इंतजाम करके आदमी भेजता हूं।'
इस घटना का चित्रण करते समय शरत् को अपने एक नाना महेन्द्रनाथ की मृत्यु की निश्चय ही याद आई होगी। बहुत वर्ष पहले जगद्धात्री पूजा के अवसर पर जब ब्राह्मणों को परोसने के लिए नाना के घर गया था तब मुखिया के आपत्ति करने पर इन्हीं नाना ने उसे रोक दिया था। इन्हीं की मृत्यु पर ब्राह्मणों ने हंगामा खड़ा कर दिया। वे बीमार थे। ज्वर के साथ रक्त उभरता था। कविराज ने बताया 'रक्त पित्त' है। पुरातनपंथियों के मुखिया लोग खूब आने-जाने लगे। हालत निरन्तर खराब होती जा रही थी। तभी एक दिन मुखियाओं में से कोई नहीं आया। आया उनका सन्देश - "जल्दी से प्रायश्चित्त कर डालो, नहीं तो शवदाह के समय मुसीबत होगी।.
कैसी मुसीबत?.
रोगी के रक्त उभरता है। उसे कोई छुएगा नहीं।
घर में चारों ओर मौत की छाया मंडरा रही थी। सभी दुखी थे। इस बात पर किसी बड़े ने कान नहीं दिया, फिर भी कानाफूंसी चलती रही। महेन्द्रनाथ ठीक नहीं हो सके। अष्टमी को उनकी मृत्यु हो गई। विपक्षी दल शायद यही चाहता था। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। अष्टमी के दिन प्रायश्चित्त की व्यवस्था नहीं है, इसलिए शव पड़ा रहेगा मुखियाओं ने अपने-अपने घर जाकर एक फतवा जारी कर दिया। फलस्वरूप शवदाह के लिए लोगों को ढूंढना एक समस्या हो गई। श्मशान भूमि वहां से तीन-साढ़े तीन मील दूर थी। रास्ता भी सुगम नहीं था। गांगुली परिवार मुसीबत में पड़ गया। लेकिन शरत् के छोटे नाना अघोरनाथ साहसी व्यक्ति थे। उन्होंने कहा, -हिन्दू शास्त्र तो कामधेनु है, जो चाहोगे वही मिलेगा। नाना मुनियों के नाना मत हैं। डरी नही, व्यवस्था निश्चित ही होगी। .
और अन्त में व्यवस्था हुई । तर्करत्न महोदय ने कहा, 'वह साला काव्यतीर्थ, वह न्याय क्या जाने? उसको हस्व-दीर्घ का ज्ञान तो है ही नहीं। अष्टमी, चतुर्दशी, शनिवार और मंगलवार को जीवित देह का प्रायश्चित्त नहीं होता | मुर्दे को सड़ने देना हिन्दू शास्त्र और न्याय के विरुद्ध है। यह नहीं हो सकता, युक्ति सबसे बड़ी है।
"युक्तिहीने विचारेतु धर्महानि प्रजायते । '
तर्करत्न ने व्यवस्था लिख दी और उनके शिष्य ने आकर प्रायश्चित्त करा दिया। तब घर से शव उठाया गया।
इस उपन्यास की रचना-प्रक्रिया और कथानक के विकास की चर्चा करते हुए शरत् ने अपने एक मित्र से कहा था - "पल्ली समाज' को मैंने दूसरे ढंग से खत्म कर दिया। उस दिन जिस तरह से समाप्त करके भेज रहा था, वह अच्छा न लगने के कारण उपसंहार दूसरे ढंग प्रस्तुत किया गया है। मैं यह अवश्य बता दूं कि 'सरस' शब्द से मैं जो अर्थ समझता हूं, यह कहानी उसके पास भी नहीं फटकती । बहुत ही किरकिरापन लिए हुए पदार्थ से इसका ताना-बाना बुना गया है। चलो, दो-एक इंट्रेस्टिंग कहानियां भी होनी चाहिए। निबन्ध तो बहुतेरे पढ़ते है। "
एक और पत्र में उसने लिखा, “मेरी तो इतनी इच्छा है कि लोग गांव की बातों में दिलचस्पी लें। इस पुस्तक में एक मूल बात यानी विवाह के बारे में कुछ नहीं कहा गया। इच्छा है कि इस प्रसंग को मैं किसी दूसरी पुस्तक में उठाऊं। वहां पल्ली समाज' को लोगों ने किस रूप में लिया, मैं नहीं जानता ।....... . जानना चाहता हूं।”
'पल्ली समाज' में केवल दुख - दैन्य से पीड़ित, संकीर्ण सांस्कृतिक घेरे के भीतर बंधे हुए, परम्परा-प्रचलित कुसंस्कारों से घिरे हुए बंगाल के निम्न मध्यवर्गीय देहाती समाजा सीधा-सादा यथार्थ चित्रण है। शरत् का बचपन और यौवन का भी कुछ समय गांव में ही कटा था। गांव को वह प्यार करता था। उसी के आधार पर उसने इस पुस्तक की रचना की।
लेकिन उसने इस बात को स्वीकार किया है कि गांव के बारे में गांवों के लोगों को ही लिखना चाहिए। कलकत्ता नगर के बड़े लोगों के कल्पना करके लिखने से वह कहीं अधिक सत्य होगा। गांवों में फैले अज्ञान का प्रतिकार ज्ञान के विस्तार से ही हो सकता है। जो यह काम करना चाहते हैं उन्हें गांव से दूर विदेशों में जाकर मनुष्य होना होगा। लेकिन काम करना होगा गांवों में बैठकर ही और गांवों के अच्छे-बुरे लोगों से भली भांति मेल करके। 4
बर्मा में पल्लीसमाज का स्वागत हुआ पर कलकत्ता में तीव्र आलोचना हुई। विधवा रमा रमेश से क्यों प्रेम करने लगी- इस पर नाना प्रकार के लोगों ने नाना प्रकार के आक्षेप किए। साहित्य के एक प्रवीण समालोचक ने 'साहित्य की स्वास्थ्यरक्षा' नामक ग्रन्थ में रमा का इस तरह तिरस्कार किया है- “ ठकुरानी, तुम बुद्धिमती हो न? अपनी बुद्धि के जोर से पिता की जमींदारी का शासन प्रबन्ध कर सकीं और तुम्हीं अपने बाल्य सखा, पर पुरुष रमेश को प्यार कर बैठी। यही तुम्हारी बुद्धि है, छि: ......”
आक्रमण का एक और भी पक्ष है- रमा और रमेश में जब इतना प्रेम हो गया था, तो लेखक उनका विवाह क्यों नही करा सका । शरत् ने इन सब अभियोगों का उत्तर देते हुए लिखा है - "पल्ली समाज' नाम की मेरी छोटी-सी पुस्तक है। उसकी विधवा रमा ने अपने बाल्य बन्धु रमेश को प्यार किया था। इसके लिए मुझे बहुत झिड़कियां और तिरस्कार सहना पड़ा है। एक विशिष्ट समालोचक ने ऐसा अभियोग भी लगाया था कि इतनी दुर्नीति को प्रश्रय देने से गांव में कोई विधवा नहीं रहेगी। मरने- जीने की बात कही नहीं जा सकती। प्रत्येक पति के लिए यह गहरी दुश्चिन्ता का विषय है। इसका एक और पहलू भी तो है। इसको प्रश्रय देने से भला होगा या बुरा ? हिन्दू समाज स्वर्ग में जाएगा या नरक में, इस मीमांसा का भार मेरे ऊपर नहीं है। रमा जैसी नारी और रमेश जैसे पुरुष किसी भी समाज
दल के दल नहीं जनमते। दोनों के सम्मिलित पवित्र जीवन की कल्पना करना कठिन नही है। किन्तु हिन्दू समाज में इस समाधान के लिए जगह न थी । इसका परिणाम यह हुआ कि इतने बड़े महाप्राण नरनारी इस जीवन में विफल, व्यर्थ और पंगु हो गए। मनुष्य के बन्द हृदय-द्वार तक वेदना की यह खबर अगर मैं पहुंचा सका हूं तो इससे अधिक और कुछ मुझे नहीं करना है। इस लाभ-हानि को खतियाकर देखने का भार समाज का है, साहित्यिक का नहीं। रमा के व्यर्थ जीवन की तरह यह रचना वर्तमान में व्यर्थ हो सकती है, किन्तु भविष्य की विचारशाला में निर्दोष के लिए इतनी बड़ी सजा का भोग एक दिन किसी तरह मंजूर न होगा। यह बात मैं निश्चय के साथ जानता हूं। यह विश्वास यदि न होता तो साहित्यसेवी की कलम उसी दिन वहीं संन्यास ले लेती।” 5
'पल्ली समाज' के अतिरिक्त वह अपने दो और उपन्यासों पर काम कर रहा था, 'गृहदाह' और 'श्रीकान्त'। 'गृहदाह' के संबंध में बहुत-से प्रवाद प्रचलित हो गए थे और इसका कारण वह स्वयं ही था। कब क्या बात कह देता था और कब उसका खण्डन करके दूसरी बात कह देता था, यह शायद वह जानबूझ कर ही करता था । ऐसा करने में उसे आनन्द आता था। एक पत्र में उसने लिखा- “इस कहानी का भाव 'गोरा' के परेश बाबू से लिया गया है- अर्थात् अपने कहने के लिए यह अनुकरण है, पर पकड़ा नहीं जा सकता। सामाजिक-पारिवारिक कहानी है। मेरे मन में बड़ा उत्साह है कि सुन्दर होगी, पर क्या से क्या हो जाएगा, कहा नहीं जा सकता।
इस प्रकार के पत्रों से एक बात को निश्चय ही बल मिलता है कि वह रवीन्द्रनाथ से अत्यन्त प्रभावित था। किसी सीमा तक आक्रान्त था। कोई भी रचना करते समय उसकी उपचेतना में निश्चय ही यह बात 'घुमड़ती रहती थी कि यह रचना रवीन्द्रनाथ की अमुक रचना से अच्छी होनी चाहिए या कम से कम उनके जैसी तो होनी ही चाहिए। बार-बार उसने अपने मित्रों को लिखा, "मुझसे तभी रचना मांगी जाए जब यह विश्वास हो जाए रवीन्द्रनाथ को छोड़कर ऐसी रचना और कोई नहीं कर सकता
उसके अन्तर की यह विचित्र मनोग्रन्थि उससे इस प्रकार के अनेक काम करवाती रहती थी।
कलकत्ता लौटने से पूर्व 'श्रीकान्त' का सृजन भी आरम्भ हो चुका था। और वह 'भारतवर्ष ' में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हो रहा था। उसकी दूसरी रचनाओं की तरह इनका आरम्भ भी दफ्तर में ही हुआ था। उसकी प्रारम्भिक कहानियों के साथ जिस प्रकार योगेन्द्रनाथ सरकार का नाम जुड़ा हुआ है उसी प्रकार 'श्रीकान्त' के साथ कुमदिनीकान्त कर का नाम जुड़ा है। बहुत से लोगों का विश्वास है कि इस उपन्यास में श्रीकान्त वह स्वयं है और राजलक्ष्मी उसकी प्रेयसी है। इस राजलक्ष्मी की खोज में न जाने कितने लोग पागल हो गए। लेकिन उसकी खोज-खबर कोई नहीं पा सका। पाता कैसे? वह तो लेखक की कल्पना मात्र थी, अतृप्त कामनाओं की कल्पना । उसने अपने बचपन की साथिन धीरू को आधार मानकर पहले 'देवदास' की पारो और फिर 'श्रीकान्त' की राजलक्ष्मी का चित्रण किया। सुना यह भी गया कि धीरू का वास्तविक नाम राजलक्ष्मी ही था । यौवन के प्रथम चरण में उसका जो एक प्रेम असफल हो गया था उसकी नायिका भी तो राजलक्ष्मी हो सकती है। और मुजफ्फरपुर की राजबाला क्यों नहीं हो सकती?
इस प्रकार अनेक व्यक्तियों ने स्वयं ही अनेक प्रकार की बातें नहीं कही हैं, उसके मुख से भी न जाने क्या-क्या कहलवाया है। कुछ व्यक्ति हिरण्मयी देवी को ही राजलक्ष्मी मानते हैं। प्यार से उसने कभी उन्हें 'लक्ष्मी' कहकर पुकारा होगा, बस उसी के आधार पर उन्हें राजलक्ष्मी मान लिया गया। एक मित्र ने उससे यहां तक कहा, "विवाह करके इस महान् प्रेम की आपने अमर्यादा की है। जो कभी पुण्य भागीरथी का निबन्ध स्वच्छ जल था, उस पर बांध बांधकर आपने उसे तालाब और गड्ढे का रूप दे दिया है।"
कई क्षण मौन रहकर शरत् ने इतना ही कहा, “और कोई रास्ता भी तो नहीं था, लेकिन मैंने उसे छोड़ा तो नहीं।”
क्या इसे सत्य माना जा सकता है? नहीं माना जा सकता। अगर यह बात सत्य होती तो शरत् अपने एक पत्र में यह क्यों लिखता “राजलक्ष्मी कहां मिलेगी ? वह तो सब मनगढ़न्त झूठी कहानी हैं। 'श्रीकान्त केवल एक उपन्यास मात्र ही तो हैं। झूठी अफवाहें न सुनना ही बेहतर है।"
लेकिन जो खोज करनेवाले थे, वे इस निषेध से कैसे चुप रह सकते थे। वे हिरण्मयी देवी के पास जाते और पूछते, "आप ही राजलक्ष्मी हैं?"
ऐसे प्रश्न सुन-सुनकर वह इतनी दुखी हुई कि लोगों से मिलना-जुलना ही छोड़ दिया। बेचारी न तो 'श्रीकान्त' की राजलक्ष्मी की तरह रूपसी ही थीं और न ऐस्वर्यमयी । नृत्य-गान तो क्या, बातचीत करने में भी इतनी चतुर नहीं थीं। वह अत्यन्त साधारण, सरल और अशिक्षित पर धर्मशीला, पतिव्रता और सेवापरायण महिला थीं। शरत् बाबू के प्रति उनमें अगाध प्रेम और श्रद्धा थी। उस दिशाहारा निराश्रित व्यक्ति का जीवन सुखी बनाने में अपनी दृष्टि और अपनी समझ में उन्होंने कुछ भी उठा न रखा था। वह सही अर्थो में अर्पिता थीं। भावुक अर्पिता, जो प्रायः अति का शिकार हो जाती है, लेकिन यह उन्हीं की तपस्यामयी श्रद्धा का परिणाम था कि जो शरत् अपने यौवन में उपेक्षा और अपमान के कारण दिशाहारा होकर जीवन को व्यर्थ कर रहा था, वही पहले शान्ति देवी और फिर हिरण्मयी देवी का सम्पर्क पाकर प्राणवान साहित्य का प्रणेता बना। वह तेजपुंज था और तेजपुंज को नारी का स्पर्श चाहिए ही । नहीं तो वह तेज न केवल उसी को भस्म कर देता हे बल्कि उसके आसपास भी जो कुछ होता है, उसको भी दिशाभ्रष्ट और नष्ट करता रहता है।
इसमें सन्देह नहीं कि 'श्रीकान्त उन्हीं के समान आवारा है। और इस उपन्यास में वर्णित अनेक घटनाएं सत्य के आधार पर लिखी गई हैं। अपने एक मित्र से इसकी चर्चा करते हुए उसने एक बार कहा था, आप मेरा उपन्यास पढ़ते समय कृपया घटना और परिस्थिति पर जोर न दें। मैं घटना को उपन्यास की असली वस्तु नहीं मानता। मेरा एकमात्र उद्देश्य चरित्र-सृष्टि है। उसके साथ-साथ घटना स्वयं ही आ जाती है। चेष्टा नहीं करनी होती । मेरे चरित्रों के अन्तराल में कौन-कौन-से स्थल यथार्थ हो सकते है, वे चित्र की पृष्ठभूमि के रूप में ही हैं, इससे अधिक नहीं।
इन घटनाओं को लेकर उसने अपने एक और मित्र से इस बात को स्वीकार किया कि 'श्रीकांत' में उसकी अपनी कथा कुछ तो है ही। जीवन की किसी घटना को साहित्य के स्तर पर लाते समय कभी-कभी खण्ड-खण्ड घटनाओं को सम्बद्ध करने अथवा पूर्ण रूप से कहानी का रूप देने के लिए कल्पना का सहारा लेना ही पड़ता है। उसने कहा, तुम शिक्षक हो। मान लो तुम एक विद्यार्थी को 'अपना गांव विषय पर एक निबन्ध लिखने को कहते हो । उस गांव में न कोई नदी है, न कोई मन्दिर, पर वह अच्छे नम्बर पाना चाहता है। अब सोचो, वह क्या करेगा? आसपास के गांवों में जो नदियां जो मन्दिर उसने देखे हैं, उन्हीं को अपने गांव से सम्बद्ध करता हुआ वह निबन्ध लिखेगा। साहित्य के संबंध में ही वही बात लागू होती है।.
यहां 'श्रीकान्त में वर्णित कुछ घटनाओं पर भी विचार किया जा सकता है। इसमें एक पात्र है इन्द्रनाथ | वह श्रीकांत का बचपन का साथी हे। एक दल कहता है, शरत् ने भागलपुर के अपने बचपन के साथी राजेन्द्रनाथ मजूमदार उर्फ राजू की ही इन्द्रनाथ के रूप में चित्रित किया है। राजू और इन्द्रनाथ दोनों की प्रकृति एक-सी ही है। स्वयं शरत् ने भी इस बात को स्वीकर किया है।
दूसरा दल मानता है कि इन्द्रनाथ शरत् की जन्मभूमि देवानन्दपुर के सतीशचन्द्र भट्टाचार्य के अतिरिक्त और कोई नहीं है। गांव में रहते हुए शरत् सतीश के सम्पर्क में आया था.। यद्यपि बहुमत राजेन्द्रनाथ के पक्ष में ही है, लेकिन फिर भी यह मानने में क्या हानि है कि शरत् ने इन्द्रनाथ का चरित्रचित्रण वास्तविक जगत् के दो व्यक्तियों के आधार पर किया था।
इसी प्रकार अन्नदा दीदी के वास्तविक अस्तित्व से भी शरत् ने इन्कार नहीं किया। वह देवानंदपुर की रहनेवाली उसकी नाते की एक बहन थी या भागलपुर की कोई लड़की, यह प्रश्न असंगत है। नाम बदलकर बहुत से वास्तविक स्थान भी 'श्रीकांत' में वैसे के वैसे ही आए है। अनेक घटनाओ को उसने अपनी सुविधा के अनुसार परिवर्तित भी कर दिया है। उसकी लेखनी के चमत्कार ने उन्हें इतना मनोरम बना दिया है कि सत्य क्या है यह पता लगा लेना असम्भव हो गया है। अपनी प्रकृति का स्वयं चित्रण करना दुस्तर कार्य है। किसी भी वस्तु को अच्छी तरह देखने के लिए, अच्छी तरह जानने के लिए कुछ दूरी और अलगाव अत्यन्त आवश्चक है। आख के सबसे पास रहने पर क्या उसको सबसे अच्छी तरह देखा जा सकता है? एक चित्रकार के लिए अपनी आकृति आकना जितना कठिन है, लेखक के लिए भी अपना चित्रण करना उतना ही कठिन है।'
श्रीकान्त के चरित्र में शरत् ने अपने को चित्रित किया है या नहीं, इसका यदि सीधा उत्तर देना हो तो यही होगा कि यदि चीनी को सन्देश - कहा जा सकता है तो अवश्य किया है। अन्यथा सत्य इतना ही है कि बीच-बीच में झलकमात्र मिल जाती है। वह चरित्र-सृष्टि को ही उपन्यास में महत्वपूर्ण मानते थे। घटनाएं तो अनायास ही आ जाती थीं। कहीं-कहीं वास्तविकता दिखाई दे सकती है लेकिन वह मात्र चित्रसृष्टि की पृष्ठभूमि के रूप में होती है। सभी लेखक अपनी अभिज्ञता के सहारे लिखते हैं। इस प्रकार उनकी हर रचना ही उनकी अपनी जीवनी है। लेकिन शरत् उपन्यास के माध्यम से छद्म रूप में आत्मचरित्र लिखना से कायरता मानता था। बहुत दिन बाद हिन्दी के सुप्रसिद्ध कथाकार श्री इलाचन्द्र जोशी से उसने कहा, जिन लोगों में जीवन को व्यापक और गहरे रूप में देखने की शक्ति नहीं है, जो अपने अहं की चारदीवारी के बाहर झांककर जीवन के सिंहावलोकन का दम नहीं रखते, वे अपनी कला में निरपेक्षता लाने में असमर्थ हैं। वे ही जीवन की गुप्त कथा को उपन्यास का रूप देते हैं।.
उसने स्पष्ट कहा "श्रीकान्त में जीवन के उन्हीं रूपों का वर्णन मैंने किया है, जिनसे मेरा व्यक्तिगत परिचय है, और उन्हीं चरित्रों को मैंने लिया है जिनका अध्ययन निकट से करने का अवसर मुझे मिला है, पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह मेरा आत्मचरित . है । फिर भी मुझे लोगों की यह धारणा जानकर प्रसन्नता ही होती है, क्योकि उससे प्रमाणित होता है कि मेरे पात्र पाठकों को सजीव लगते है और मेरा जीवन-वर्णन और चरित्रांकन यथार्थ जीवन के बहुत निकट है।.
मामा सुरेन्द्रनाथ ने लिखा है, पहुत-से लोग कहते है कि शरत्चन्द्र ने साहित्य में अपने को जितना प्रकाशित किया है जीवनी के रूप में उतना ही यथेष्ट है । स्वतन्त्र जीवनचरित्र की कोई आवश्यकता नहीं। लेकिन शरतचन्द्र ने तो साहित्य में अपने को अद्भुत रूप से छिपाया है, जो यह बात नहीं जानते उनसे भूल होना स्वाभाविक है।'
जैसा कि प्रत्येक रचना के साथ होता था, 'श्रीकान्त के संबंध में भी वह आश्वस्त नहीं था। अपने प्रकाशक को उसने लिखा था, "श्रीकान्त की भ्रमण क्कानी सचमुच छापने के योग्य है, ऐसा मैंने नहीं समझा था। अब भी नहीं समझता । पर सोचा था कि शायद कोई छाप दे, इसी आशा से लिखा था.........। उसके प्रारम्भ में ही जो श्लेष थे, वे सब किसी भी दशा में आपकी पत्रिका के स्थान नहीं पा सकेंगे, यह तो जानी हुई बात है, पर दूसरी किसी पत्रिका मे शायद वह आपत्ति न उठे, इसी का भरोसा था। इसीलिए आपकी मार्फत भेजा। अगर कहें तो और लिखूं। बहुत-सी बातें कहने को हैं। पर व्यक्तिगत श्लेष विद्रुप यहीं तक। आखिर तक सारी बातें सच कही जाएंगी। मेरा नाम किसी भी हालत में प्रकट न होने पाए ।. ...हां 'श्रीकांत' की आत्मकथा से इसका कोई संबंध तो रहेगा ही, परन्तु यह मूलतः भ्रमण कहानी है। '
कुछ दिन बाद फिर लिखा, "अगर अभय दें तो इस संबंध में एक बात कहूं। सम्पादक गण इस कहानी की नितान्त अवज्ञा न करें। मुझे आशा है जो रचनाएं प्रकाक्षित होती हैं। और हुई है, उनसे यह बहुत नीचे आसन पाने योग्य नहीं है। अनेक सामाजिक इतिहास इसके भविष्य के गर्भ में प्रच्छन्न है। मेरी बहुत चेष्टा और यत्न की यह वस्तु कम से कम मित्रों से कद्र पाने योग्य होगी ही। हां, प्रारम्भ खराब है, हर यथार्थ में अच्छी चीज का प्रारम्भ खराब होता है। यही मेरी कैफियत है। क्या अबकी बार छपेगी? हाथ की लिखावट को छपे अक्षरों में देखने की आशा से ही उसे भेजा है।
इन पत्रों में उसने इस बात का संकेत किया है कि इस कहानी का श्रीकान्त की आत्मकथा से संबंध हे। लेकिन यह संबंध इतना ही है, जितना एक उपन्यास क्त वास्तविक जीवन से होता है। उसका जीवन इतना रोमांचक, इतना वैविध्यपूर्ण रहा है कि श्रीकान्तको पढ़कर इस भ्रम में पड़ जाना अस्वाभाविक नहीं। श्रीकान्त शरत् नहीं है लेकिन दोनों की प्रकृति में अद्भुत समानता है, यह स्वीकार करना ही पड़ेगा। इसे सहज भाव से आत्म- जीवनीमूलक उपन्यास की श्रेणी में रखा जा सकता है।
एक दिन उसने कहा था, "मुझे लोग मेरी रचनाओं में खोजते हैं। कोई कहता है, मैं कट्टर हिन्दू हूं कोई कहता है, नास्तिक हूं। कोई कहता है, चरित्रहीन मेरी ही कहानी है, कोई मानता है कि 'श्रीकान्त ' मेरी आत्मकथा है। मुझे लेकर यह सब वितण्डावाद चलता है और मैं दूर खड़ा हंसता हूं।.
हर प्राणवान व्यक्ति की यही नियति होती है। जिस गांधी को लोगों ने सन्त कहा उसी गांधी को ढोंगी, दम्भी, धोखेबाज़ तक कहा। गांधी ही ऐसा व्यक्ति था जो सब कुछ हो सकता था। सब कुछ होने के लिये हिया चाहिए। वह हिया शरत् के पास भी था। उसने जीवन में बहुत दुख भोगा था, बहुत-सा पाप भी किया था, पर उससे ऊपर उठकर उसे अभिज्ञता में रूपान्तरित करने की प्राणशक्ति भी उसमें थी। क्योकि वह मात्र भोक्ता ही नही, द्रष्टा भी था, इसीलिए अन्तत: साहित्य की मंजिल ने उसे खोज लिया। जो परम्पराओं का किसी न किसी रूप में विरोध करते हैं वे अन्तर की अज्ञात शक्तियों को मुक्त कर देते है। कोई नही जानता, उनका क्या परिणाम होगा । स्वतन्त्रता शक्तिशाली के लिए, योग्य के लिए ही अच्छी है। शरत् में वह असीम शक्ति थी, इसीलिए वह सष्टा बन सका।