जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व की शान्ति जैसी थी। शीघ्र ही क्रान्ति का स्वर फिर फूटने लगा। साहित्य में इस स्वर की सबसे पहले अभिव्यक्ति हुई बंकिमचन्द्र के ‘आनन्दमठ' में। इसी उपन्यास ने आधुनिक बंगाल को जन्म दिया जो कालान्तर में सारे देश की प्रेरणा बन गया। लेकिन तुरन्त इस असफलता का परिणाम यह भी हुआ कि लोगों का ध्यान राजनीतिक उथल-पुथल से हटकर सामाजिक क्रान्तिको ओर उन्मुख हुआ। सामाजिक क्रान्ति के बिना राजनैतिक क्रान्ति सफल नहीं हो सकती, यह सत्य जैसे अब स्पष्ट हो गया। इसलिए 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में सारा देश सामाजिक क्रान्ति की पुकार से गूंज उठा और शीघ्र ही उसके रंगमंच पर उस क्रान्ति के अनेकानेक मानसिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उत्तराधिकारी प्रकट होने लगे। एक के बाद एक इन उत्तराधिकारियों ने मानसिक स्वाधीनता का जो बीज बोया उससे देश की चेतना को जैसे मार्ग मिल गया। वह नाना रूपों में अपना अस्तित्व सिद्ध करने लगी।
इस क्षेत्र में भी बंगाल सबसे आगे रहा। राजा राममोहनराय भारतीय राष्ट्रीयता के जनक माने जाते हैं। परन्तु सबसे पहले उनकी दृष्टि धर्म की ओर ही आकृष्ट हुई थी। इसक कारण खोज लेना कठिन नहीं है। उन दिनों देश में पश्चिम की सभ्यता और संस्कृति शासकों के कारण उतनी नहीं फैली जितनी पादरियों के कारण। बंगाल इन पादरियों का प्रधान केन्द्र बन गया था। आरम्भ में इनका स्वागत नहीं हुआ। परन्तु इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि इनके कारण ही देश में, विशेषकर बंगाल में, सामाजिक चेतना का उत्थान और विकास हुआ।
ये चेतना पैदा करना उनका ध्येय नहीं था परन्तु अपने धर्म का प्रचार करने के लिए उन्हें शिक्षा और सुधार का काम करने के लिए बाध्य होना पड़ा। अपने धर्म की श्रेष्ठ दिखाने के लिए वे हिन्दू धर्म की कुरीतियों का प्रदर्शन करते थे। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप भी समझदार लोगों के मन में चेतना जागी और अनायास ही अपने धर्म में सुधार करने का प्रश्न उनके सामने आ गया। उस समय धर्म ही व्यक्ति और समाज का मूलाधार था। उसके बिना समाज-सुधार की कल्पना हो ही नहीं सकती थी । इसलिए राममोहनराय ने अपने धर्म- संस्कार की ओर ध्यान दिया। उन्होंने निराकार ब्रह्म की साधना, एकेश्वरवाद और अद्वैतवाद को हिन्दू धर्म का शुद्ध रूप प्रमाणित करने की चेष्टा की। और इसी उद्देश्य से उन्होंने 'आत्मीय सभा' की स्थापना की। इस सभा में धर्म-चर्चा के अतिरिक्त जाति-भेद - समस्या, सहमरण, कुलीन प्रथा, सहभोज, निषिद्ध खाद्य समस्या, बाल विधवा, बहु विवाह और सतीप्रथा आदि सामाजिक कुप्रथाओं पर भी विचार किया जाता था । यही समाज-सुधार का श्रीगणेश था जो बाद में सारे भारत में व्याप्त हो गया और ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज तथा थियोसोफी आदि संस्थाओं के रूप में प्रकट हुआ। स्वामी विवेकानन्द के गुरु रामकृष्ण परमहंस की जीवन-दृष्टि सहित ये सब इस काल के महाप्रयाण हैं।
शरत् का जन्म राजा राममोहनराय की मृत्यु के 43 वर्ष बाद हुआ था और जब वह दिशाहारा होकर मार्ग की खोज में भटक रहा था तथा उसकी साहित्य-साधना प्रेम की पीड़ा के भीतर से उन्मुख हो रही थी, तब दूसरे अधिकंश सुधारक भी स्वर्गवासी हो चुके थे, परन्तु उनकी जलाई हुई बौद्धिक स्वातंत्र्य, देशप्रेम और समाज-सुधार की ज्योति प्रखर रूप में प्रदीप्त हो रही थी। इसी महामन्थन का प्रभाव जीवन के सभी अंगों पर पड़ रहा था। पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने भारतीय नारी के कष्टों को दूर करने के लिए संभवत: सबसे पहले कोई ठोस कदम उठाया। इस क्षेत्र में उनका सबसे बड़ा कार्य था विधवा-विवाह का समर्थन। बहु विवाह और कुलीन प्रथा पर भी उन्होंने प्रहार किया। परन्तु विचारोत्तेजना के अतिरिक्त इसका कोई परिणाम नहीं निकला। बल्कि कुछ देर तक प्रतिक्रिया ही प्रबल रही। परन्तु फिर ब्रह्म समाज के स्त्री-शिक्षा और स्त्री-स्वातंत्र्य पर ज़ोर देने के कारण सामाजिक कुप्रथाएं आपसे-आप खंडित होने लगीं। इसी आन्दोलन के फलस्वरूप सिविल मैरिज 2 कानून बना और नारी के स्वतन्त्र व्यक्तित्व को स्वीकृति मिली।
बंगाल में नई चेतना को जन्म देने में हिन्दू कालेज का भी प्रमुख हाथ रहा है। यद्यपि उसकी स्थापना शरत् के जन्म से 60 वर्ष पूर्व 2 हुई थी, परन्तु कालान्तर में यह बांगला में पाश्चात्य विद्या और शिक्षा का प्रधान केन्द्र बन गया था। इस कालेज के शिक्षक हेनरी डिरोज़ियो ने बड़ी निर्भीकता से विद्यार्थियों का परिचय बेकन, रूसो और टामस पेन जैसे नवयुग के मनीषियों से कराया और 'एकेडेमिक एसोसिएशन' की स्थापना करके दार्शनिक, सामाजिक और राजनैतिक विषयों पर आलोचना आरम्भ की। इस संस्था के जो प्राण थे, वहीं ‘यंग बंगाल’ के नाम से प्रसिद्ध हुए और प्राचीन-पंथियों के लिए आतंक बन गए। यह कहना अत्युक्ति न होगी कि इन युवकों में जहां स्वतन्त्र चिन्तन और प्रगति की ज्योति प्रज्वलित हुई वहां पश्चिम के कुसंस्कार भी उन्होंने ग्रहण कर लिए। कुछ लोग ईसाई भी हो गए। ये नवयुवक इतने जोशीले थे कि इन्होंने शराब पीना भी आरम्भ कर दिया। ऐसा करके वे अपने माता-पिता पर यह प्रकट करना चाहते थे कि वे प्रगतिशील हैं और उनसे भिन्न हैं। शराब पीने की यह प्रवृत्ति बहुत देर तक प्रगति का लक्षण समझी जाती रही । तन से भारतीय किन्तु मन से अंग्रेज़ इन व्यक्तियों के प्रति असन्तोष भी कम नहीं था। उस समय के एक समाचारपत्र के संपादक ने लिखा था, “क्या हिन्दू कालेज में एक नये ढंग के मनुष्यों की नींव नहीं रखी जा रही है? हिन्दू कालेज से समाज की धार्मिक भावनाओं को जैसे गहरी ठेस पहुंची है, क्या उसका शतांश भी मिशनरियों के आन्दोलनों से पहुंची थी?”
इसके प्रतिक्रियास्वरूप भी भारत में नवोत्थान की लहर उठी। इसे 'पुनर्जागरणवाद' कहना सत्य के साथ अन्याय होगा । वास्तव में यह सत्यों का पुनर्जन्म था । यह क्रान्ति नये युग की सूचक थी और बंगाल था उसमें अग्रणी एक तो कलकत्ता अंग्रेज़ी शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र बन गया था, दूसरे बंगालियों में भावुक प्रवृत्ति के कारण बड़े प्रभावशाली भाषणकर्ता और लेखक बनने की क्षमता थी । ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, माइकेल मधुसूदनदत्त और कुमारी तोरूदत्त आदि कुछ नाम इस क्षेत्र में पर्याप्त होंगे।
लेकिन ये आन्दोलन जनता के मन के भीतर से होकर प्रकट नहीं हुए थे। इसलिए व्यावहारिक रूप में समाज का एक छोटा-सा भाग ही इनसे आन्दोलित हुआ और शेष पुरानी रूढ़ियों से चिपका रहा । जो व्यक्ति सुधारक दल में शामिल हुए उन्हें पुरातनपंथियों ने जाति-बहिष्कृत करके अपमानति लांछित करने की चेष्टा की।
बिहार में सुधार का यह स्वर बहुत बाद में प्रकट हुआ। वहां के प्रवासी बंगालियों के एक बहुत ही अल्पसंख्यक भाग ने इन आन्दोलनों में रुचि ली। उन बंगाली भद्र लोगों की लड़कियों को पढ़ने के लिए पाठशाला में जाते देखकर बिहारी लोग बहुत कुद्ध होते थे। कहते थे, “ये बंगाली लड़कियां, बंगालियों की कोई जाति नहीं, मांस-मछली खाते हैं, लड़कियों को बाहर भेजते हैं।”
स्वयं बंग समाज में सुधार को बहुत अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था। वह अन्धविश्वास और कुसंस्कारों से पूर्णतया घिरा हुआ था। विधवा-विवाह, जाति-विचार, कुलीनता, धर्म-आडम्बर के विषयों में लोगों की भावनाएं एक अत्यन्त संकीर्ण दायरे में सीमित थीं। प्रभुपाद श्री हरिदास गोस्वामी के शब्दों में "जिस परिवार में विधवा नहीं होती उस परिवार में सदाचार से देव-सेवा आदि कार्य सुसम्पन्न होना दुष्कर है। इसके लिए गृहस्थाश्रम में विधवा की आवश्यकता है। यह श्री भगवान की अपूर्व सृष्टि तथा विशिष्ट दान है। यह बात सहज ही समझ में नहीं आती।”
इसीलिए नवजागरण के विश्वासी व्यक्तियों को बुरी दृष्टि से देखा जाता था । पद-पद पर नारियों को अपमानति होना पड़ता था। वे घर के एक कोठे में दुबकी बैठी रहती थीं। पुरुष की छाया के स्पर्श मात्र से वे कलंकिनी हो जातीं। दूसरी ओर कुलीनता उनके जीवन का अभिशाप हो गई थी। अनेक कारणों से जिन लड़कियों का विवाह नहीं हो पाता था कुलीन रसोइये कुछ रुपयों के बदले पाटे पर बैठकर उनको पार कर देते थे। मांग में सिन्दूर भरे वे सधवायें फिर सारा जीवन पति की न समाप्त होने वाली प्रतीक्षा में बिता देती थीं। एक ओर संस्कार के आतंक और दूसरी ओर धर्म के ठेकेदारों के बीच साधारण जनता भ्रान्त हो रही थी।
समुद्र यात्रा करना पाप था। छोटे भाई की पत्नी से बात करना पाप था। नाच, गान, नाटक, क्लब, पार्टी, सब कुछ पाप था। भागलपुर के प्रवासी बंगाली बिहार के मुंगेर आदि अन्य नगरों के बंगालियों की अपेक्षा और भी अधिक कट्टर थे। और इस दल के नेता थे शरत् के नाना केदारनाथ गंगोपाध्याय । शास्त्रसम्मत आचार विचार उन्हें प्रिय था। उसका वे कठोरता से पालन करते और कराते थे। परन्तु अंग्रेजी शिक्षा के कारण स्वाधीन चिन्तन का आरम्भ हो चुका था। प्राचीन आचार संहिता प्रभावहीन होती जा रही थी लेकिन नई का रूप भी अभी स्पष्ट नहीं हुआ था। इसीलिये अराजकता के इस वातावरण में बंगाली समाज दो दलों में बंट गया था।