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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023

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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।"

एक और पत्र में उन्होंने लिखा, "उसके बाद मैं कलकत्ता नहीं गया। इधर छोटी परिधि में जैसे-तैसे दिन कट जाते हैं, लेकिन एक बार शहर का मुख देख आने पर संभलने में पांच-सात दिन लग जाते हैं। इसके अलावा वर्षा, बादल और कीचड़ में रास्ता चलना कठिन है। उतनी शक्ति भी नहीं है। उद्यम भी नहीं है। कुछ दिन पहले अंधेरी रात में सीढ़ियों को एक समझकर उतरने में जो होना चाहिए था वही हुआ। हां, बाहर उसके लक्षण नहीं, पर पीठ और कमर का दर्द आज भी पूरी तरह दूर नहीं हुआ है। सभी मुझे लिखने के लिए कहते हैं, लेकिन समझ में नहीं आता क्या लिखूं। सब कुछ अर्थहीन - अनावश्यक लगता है। और ग्रन्थकारों की तरह अपने मन में अगर एक बार फिर अपने आपको पुराने ज़माने की साहित्य-सेवा के बीच खींच ले जा सकता तो शायद कितने ही “बिन्दो का लल्ला' और 'चरित्रहीन' लिखे जा सकते थे। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि इस जीवन में वह बात फिर निरन्तर सोचता हूं कि लिखकर क्या होगा? लोगों को आनन्द मिलता है, भले ही न मिले। पहले पाने का अधिकार प्राप्त करें, उसके बाद बिन्दो का लल्ला' और 'राम की सुमति' लिखनेवाले बहुतेरे पैदा होंगे। मुझे तो हाथ देखना सीखने की बड़ी इच्छा हो रही है । "

'बिन्दो का लल्ला' या चरित्रहीन' लिखने की स्थिति में वे भले ही न रहे हों, गांववालों के जीवन को समझने का यह स्वर्ण अवसर था । बर्मा में रहते समय जैसे वे अपने सर्वहारा पड़ोसियों की सहायता करने के लिए सदा तैयार रहते थे, वैसे ही यहां भी कोई अवसर नहीं चूक थे। आयु काफी हो गई थी। नाम भी बहुत हो गया था। सभी सुविधाएं थीं जो एक समृद्ध व्यक्ति को हो सकती हैं। फिर भी मन से वे वही शरत् थे जो रंगून प्रवास में थे। आसपास किसी को भी कष्ट होता तो 'बामन की बेटी के डा० प्रियनाथ की तरह दौड़ पड़ते।

उस दिन मनोज बसु मिलने के लिए आए। देखते क्या है कि बरामदा गांव के अनेक स्त्री-पुरुषों से भरा हैं और उनके बीच में आरामकुर्सी पर बैठे हैं उनके दादा ठाकुर शरतचन्द्र । एक-एक व्यक्ति से घर-गृहस्थी की बातें चल रही हैं। सहसा एक स्त्री से उन्होंने पूछा, “छवि की मां, तेरी बेटी कैसी है?"

“ठीक है दादा ठाकुर। आपकी दवा तो बस धन्वंतरी है । "

इस पर शरत् बाबू से कहा, "लेकिन तुमने बच्चे को बड़ी असावधानी से नदी में फेंक दिया था। बहता - बहता वह अन्त में इस चड़े में अटक गया। कौवे और गिद्ध मांस नोचने को मंडरा रहे थे। मैं यह सब नहीं देख सका। नदी में उतर कर बीच धारा में डाल आया । "

बूढ़ी मां ने आंचल से आखें ढक लीं।

ये लोग कुलीन नहीं हैं। छवि का आठ वर्ष की उम्र में विवाह हुआ था। पति थे दादा की उम्र के जल्दी मर गये। रह गई बिचारी मां और उसकी स्वस्थ बेटी । किसी युवक को बर्बाद करेगी, इसलिए उसे गांव से बाहर निकाल दिया गया था। बेचारी दादा ठाकुर की दया के सहारे रहती थी। छवि का एक बेटा था, वह भी कल मर गया। उसी को बुढ़िया ने असावधानी से नदी में फेंक दिया था.....

कहानियों का कोई अन्त नहीं था। उस दिन सुना, एक व्यक्ति को हैजा हो गया है। कोई भी उसके पास नहीं जाता। अकेला फूस के छप्पर के नीचे पड़ा कराह रहा है। रंगून में न जाने कितने प्लेग के रोगियों को उन्होंने दवा दी थी। कितने ही व्यक्तियों ने उनकी गोद में प्राण छोड़े थे। 'गृहदाह' के सुरेश की तरह मृत्यु का भय उनके मन को कभी नहीं जीत पाया। तुरन्त उस व्यक्ति के पास गए। उसे दवा दी। डा० प्रियनाथ का होमियोपैथी का बक्स अभी भी उनके पास था। वह मानो उसी की तरह रोगियों को ढूंढते फिरा करते थे।

इतना ही नहीं, इनके लिये पथ्य का प्रबन्ध करने का भार भी वे संभाल लेते थे । नाना प्रकार की मछलियां, बेदाना, सेब, साबूदाना, मिश्री आदि सब कुछ खरीदकर भेज देते थे। यदि उनकी दवा से लाभ न होता तो वे पाणित्रास के स्थानीय डा० रमेशचन्द्र मुखोपाध्याय को बुलाते। वे भी सफल न हो पाते तो नूण्टेरहटा, हावड़ा से डा० गोपीकृष्ण चक्रवर्ती आते। उनकी फीस भी वे स्वयं देते थे पर अपने हाथ से नहीं, मरीज़ के ही हाथ से दिलवाते थे।

वे केवल उनके शरीर का ही ध्यान नहीं रखते थे, बल्कि बालिकाओं की शिक्षा-दीक्षा के लिए एक विद्यालय भी उन्होंनें खोल दिया था। पथ - घाट बनवाते रहते थे। बच्चों के प्रति उनके प्रेम की थाह नहीं थी । न जाने क्या-क्या खरीदकर उनको देते रहते थे। प्रारम्भ में एक गांव वाले उन्हें नहीं चाहते थे, परन्तु जैसे-जैसे ये उनके सुख-दुख में एकाकार होते गए वे सबके प्रिय हो उठे। मामले मुकदमे में ज़ालिम ज़मींदार के विरुद्ध उनका पक्ष लेने से वे यहां भी पीछे नहीं हटे। सब काम छोड़कर वे अन्याय का प्रतिरोध करने को कटिबद्ध हो जाते थे। इसीलिए वे गांव वालों के 'आपुन जन' हो गए थे।

मकान ठीक रूपनारायण नद के ऊपर था । ज्वार और बन्या का प्रकोप अक्सर होता रहता था। बंगाल में वर्षा ऋतु का क्या अर्थ है यह एकाध वर्ष गांव में रहकर ही जाना जा सकता है। उस बार इतना तीव्र ज्वार आया कि बांध भी बह गया। चारों ओर जल ही जल । मिट्टी खोद-खोदकर यहां-वहां गड्ढों को पाटने में ही दस-पन्द्रह दिन निकल गए। एक रात सूचना मिली कि जल बांध तोड़कर खेतों में घुस आया है। फसल को बचाने का प्रश्न था । किसी न किसी तरह बांध बांधना था। लेकिन सभी गांव वाले सहसा इसके लिए राज़ी नहीं हुए। तब शरत् बाबू ने साम दाम दण्ड भेद से, जैसे भी हो सका, उनको तैयार किया और वे बांस काटने और मिट्टी खोदने में जुट गए। आसपास मिट्टी कम थी। इसलिये श्मशान की ऊंची भूमि की खुदाई शुरू की। खोदते खोदते सहसा क्या देखा कि गड्ढे में शिशु का शव है। क्षणभर में बचपन आंखों के सामने घूम गया। राजू के साथ मिलकर न जाने कितनी लावारिश लाशों का संस्कार किया था। बड़े प्यार से मृत शिशु को एक सुरक्षित स्थान पर रखा, जब बांध पूरा हो गया तब एक बड़ा-सा गहरा गड्ढा खोदकर उसे गाड़ दिया।

यद्यपि वे शहर से दूर रहने लगे थे, लेकिन मित्रों का आना-जाना कम नहीं हुआ। बल्कि ऐसा होता कि सवेरे ही व लोग आ जाते ओर फिर दिन-भर अड्डा जमाने के बाद ही शाम को लौटते। आने वालों में मित्र, रिश्तेदार, प्रशंसक सभी होते । शिवपुर की तरह कुछ रचनाएं मांगने आते, कुछ आते किसी सभा का सभापति बनने का आग्रह लेकर, कुछ सम्पादक बन जाने की प्रार्थना करते। उन्हें यह सब तो अच्छा न लगता, पर आना अवश्य अच्छा लगता। स्वयं शहर जाकर निमंत्रित कर

आते कि वे लोग आकर उनका बाग देखें, तालाब के माछ देखें। खिलाते-पिलाते भी खूब थे। उनकी घर की गाय का मीठा दूध बहुतों को प्रिय था और हर आने वाले को छ: बड़े-बड़े बताशे अवश्य दिए जाते थे। एक बन्धु ने कहा, "ये बताशे क्यों?"

उत्तर मिला, "यह तो भाई, गांव का शिष्टाचार है।" पास में बाज़ार नहीं था । देने को मिठाई हमेशा कैसे मिलती, सो बताशे तैयार रखते थे। कहते, "खूब खाएंगे तभी तो लोग यहां आरंगे ।” फिर गल्प पर गल्प सुनाकर सवेरा कर देते। अन्दर से तकाज़ा आता, 'ओ जी, सवेरा हो गया, सोओगे कब?"

घंटों पर घंटे पंख लगाकर उड़ जाते। काम में हानि होती है, होने दो। बैठना ही होगा। कितनी कहानियां कहते - अपने बारे में, अपने आसपास के बारे में। कोई बोल उठता, “आपकी कहानियां हम मग्न होकर सुनते तो हैं, पर विश्वास नहीं करते। सब झूठ, झांसा - पट्टी, आप बना-बनाकर बोलते हैं।"

वे उत्तर देते, "जीवन भी तो झांसा पट्टी देकर काट दिया है, भाई। तुम सब स्कूल- कालेजों में कितना खटे हो, वह सब समय मैंने झांसा पट्टी देकर और तम्बाकू खाकर ही तो काटा है। उसके बाद सारा जीवन खाली झूठी कथाएं लिख-लिखकर इतना प्यार इकट्ठा का लिया।

फिर कहते, मैंने शायद मिथ्या तो कुछ नहीं लिखा। कितने मनुष्यों से मिला हूं। कितनों को देखा है। लिखते समय वे ही सब मेरे मन में उभर उठते है। फिर मैं अपने को रोक नहीं सकता।"

कहते-कहते वे उठकर बेचैनी से बरामदे में टहलने लगते। उत्तेजित होते तो माथे पर आए बालों को उंगली में लपेट लेते। सिगरेट पर सिगरेट पीते जाते और बोलते जाते ।

लोग प्रश्न पर प्रश्न करके उन्हें परेशान कर देते, पर वे मृदु-मृदु मुस्कराते ही रहते। कोई पूछता, “आपने किरणमयी को पागल क्यों नहीं किया?” कोई जवाब तलब करता, "आपने फिर अन्नदा दीदी की खोज-खबर क्यों नहीं ली? इन्द्रनाथ को कहां निर्वासित कर दिया ? आपके 'शेष प्रश्न' का समाधान क्या है?"

लेकिन एक दिन एक ऐसे ही आने वाले के साथ एक अघटित घटना घट गई। दस बजे का समय होगा। बाहर के बरामदे में आरामकुर्सी पर लेटे-लेटे कोई पुस्तक पढ़ रहे थे, तभी किसी के आने की पदचाप सुनाई दी। किताब हटाकर आने वाले को देखा, फिर वैसे ही पढ़ने में व्यस्त हो गाए ।

आगन्तुक और कोई नहीं चिर परिचित मामा उपेन्द्रनाथ थे। उन्हीं दिनों "विचित्रा' - पत्र के प्रकाशन की योजना सामने आई थी। इसके स्वप्नद्रष्टा थे उपेन्द्रनाथ के समधी योगीन्द्रनाथ मुकर्जी। इस योजना को कार्यरूप देने से पूर्व ही वे स्वर्गवासी हो गए। तब उनके पुत्र ने इसे कार्यान्वित करने का बीड़ा उठाया। सम्पादक के पद पर प्रतिष्टित हुए उपेन्द्रनाथ। जैसा कि स्वाभाविक था उन्होंने पहले से ही रवीन्द्रनाथ और शरत्चन्द्र दोनों को लिखने के लिए आमन्त्रित किया, परन्तु बार-बार पत्र लिखने पर भी शरत्चन्द्र ने कोई जवाब नहीं दिया। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और वे स्वयं उनसे मिलने के लिए पाणित्रास 2 आए। आश्चर्य! महान आश्चर्य !! शरत् ने उन्हें देखकर भी अनदेखा कर दिया। अल्छा नहीं लगा। फिर भी एक कुर्सी पर बैठते ही उन्होंने पूछा, "कैसे हो शरत्?”

उसी तरह किताब से मुंह ढके ढके शरत् बाबू बोले, वैसा ही हूं।"

उपेन्द्रनाथ ने कहा, "वह तो मैं अपनी आखों से देख रहा हूं। पूछाता हूं कैसे हो? और तुमने मेरी चिट्ठी का जवाब क्यों नहीं दिया?"

शरत् बाबू पूर्ववत् बोले, "क्या जवाब देता?"

उपेन्द्रनाथ को और भी आश्चर्य हुआ, लेकिन फिर भी मुस्कराकर कहा, "जवाब देते, तुम्हारी चिट्ठी पाकर खुशी हुई। उपन्यास लिखना शुरू कर दिया है। एक संख्या के जितना होने पर भेज दूंगा।"

शरत् बाबू ने धीरे-धीरे पुस्तक बन्द करके मेज़ के ऊपर रख दी। सीधे होकर बैठ गए और फिर तीक्ष्ण दृष्टि से मामा की ओर देखते हुए बोले, “उस कोयलेवाले के बेटे के पत्र में मुझसे उपन्यास लिखने के लिए कहते हो?”

इस अकारण क्रोध के विरुद्ध उपेन्द्रनाथ का अहंकार फुंकार उठा। उसी तरह तीव्र दृष्टि से देखते हुए वे बोले, "कोयलेवाला कौन है? जोगिन मुकुज्जे ! उसका बेटा मेरा दामाद है, यह तो जानते हो?”

शरत् बोले, “जानता हूं या नहीं जानता हूं, मैं उसके पत्र में नहीं लिखूंगा।"

"जानते हो, वह कोयलेवाला अब इस संसार में नहीं है।

शरत् बाबू ने कोई उत्तर नहीं दिया। उपेन्द्रनाथ के मन में अभिमान और क्रोध उमड़ आया। मन ही मन उन्होंने कहा, “देखता हूं, तुम्हें छोड़कर अखबार निकाला जा सक्ता है या नहीं। जहां प्यार बहुत होता है वहां आशा करना असंगत नहीं होता। तुम यदि मेरे नातेदार नहीं होते, बन्धु नहीं होते, दोनों के बीच ग्रेम का सहज सुदृढ़ बन्धन न होता तो तर्क-वितर्क और झगड़ा कर सका था। झगड़ा निपटा भी सकता था......."

मन में और भी न जाने क्या-क्या विचार आए, पर कहा उन्होंने कुछ नहीं । उठकर खडे हो गए। शरत् बाबू ही बोले, "कहां जाते हो?"

उपेन्द्रनाथ ने उत्तर दिया, “अपने घर जाता हूं।”

शरत् बाबू बोले, “खा-पीकर जाना ।”

उपेन्द्रनाथ व्यंग्य से मुस्कराए। कहा, "इस किताबवाले के घर खाना-पीना करने के लिए कहते हो?"

शरत् बाबू को ये शब्द निश्चय ही बुरे लगे। फिर भी उन्होंने कहा, "बहुत दूर से आए हो बहुत दूर जाना है। आखिर चाय नाश्ता लेकर जाओ।"

लेकिन जैसा स्वागत हुआ था उसके देखते हुए उपेन्द्रनाथ का रुकना असम्भव था। वे नहीं रुके। शरत् बाबू फिर बोले, "तुम गुस्सा हो गए उपेन्द्र !”

उपेन्द्रनाथ ने कहा, "हो गया हूं किन्तु वह अकारण तो नहीं है।”

“अन्याय कर रहे हो।”

उपेन्द्रनाथ बोले, "मैं अन्याय नहीं कर रहा हूं। अन्याय मेरे साथ हुआ है। भविष्य में शायद इस पर विचार हो सकेगा।”

शरद बोले, “ऐसा होने पर भविष्य की ओर देखते बैठे रहना पड़ेगा।”

उपेन्द्रनाथ चले गए। इस घटना - विशेष में अपराध किसका हैं, यह चर्चा अभी असंगत है। स्पष्ट इतना ही है कि वे जब दृढ़ होना चाहते थे हो सकते थे। इसी प्रवृत्ति के कारण कई बार उन्हें गांववालों के मुकदमों में भी फंस जाना पड़ता था। पुराने ज़मींदार ने गोविन्दपुर में कुछ भूमि भगवान शिव के नाम अर्पित कर रखी थी । निचान में होने के कारण उसमें प्राय: जल भर जाता था। नये ज़मींदार ने इसका लाभ उठाना चाहा ! जल से भरी वह भूमि उसने मछली पकड़ने के लिए ठेके पर उठा दी। अब तक गांव के लोग स्वेच्छापूर्वक मछली पकड़ते थे। इस ठेक से उनका वह अधिकार छिन गया.

यही झगड़े का आरम्भ था। लेकिन शीघ्र ही बात हाथापाई और मारपीट तक पहुंच गई। ठेकदार शिकायत लेकर ज़मींदार के पास पहुंचे। वह क्रुद्ध हो उठा और तुरन्त कचहरी जाकर उसने पच्चीस व्यक्तियों पर फौजदारी मुकदमा दायर कर दिया। इनमें शरत् बाबू की दीदी के एक देवर भी थे। वे एक स्कूल में मुख्याध्यापक थे। उन सहित कई लोग, जिन पर मुकदमा दायर किया गया, घटनास्थल पर मौजूद भी नहीं थे।

जब यह समाचार शरत् बाबू को मिला तो उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा। चुपचाप जमींदार के पास गए और उसे समझाने की चेष्टा की। लेकिन ज़मींदार तो मदान्ध था। तीव्र होकर बोला, "मैं किसी का उपदेश नहीं सुनना चाहता। जो मुझे ठीक लगेगा करूंगा गोविन्दपुर के लोगों को सबक सिखाऊंगा। सुनता हूं, आप उनके सलाहकार हैं! रहिए, मैं डरता नहीं हूं।"

इसका जो परिणाम हो सकता था वही हुआ। दोनों ओर से फौजदारी तथा दीवानी दोनों प्रकार के मुकदमे चलने लगे। उस स्थान पर शिवपूजा को लेकर एक उत्सव भी मनाया जाता था। इस बार गांववालों ने निश्चय किया कि जिन लोगों ने ठेका लिया है, उन्हें किसी भी शर्त पर उत्सव में भाग लेने की अनुमति नहीं दी जाएगी। इस बात पर फिर झगड़ा बढ़ा। ज़मींदार के पास पैसा ही नहीं था, वह यूनियन बोर्ड का प्रज़ीडेण्ट भी था । पुलिस के अधिकारियों से उसका खूब परिचय था। इसीलिए झगड़े की सम्भावना बाताकर वह वहां धारा 144 लगवाने में सफल हो गया। गांव में यहां-वहां सब कहीं पुलिस दिखाई देने लगी।

धर्म के मामले में पुलिस का यह हस्तक्षेप देखकर गांववाले भड़क उठे। दोनों दलों में फिर उत्तेजना बढ़ गई। तब कई भद्र पुरुष फिर शरत् बाबू के पास आए। वे क्रोध और दृढ़ संकल्प से भर उठे और उन्होंने निर्णय किया कि उन्हें डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के पास जाना ही होगा। सब लोगों को शान्त रहने को कहकर वे तुरन्त चल पड़े। उन्होंने मजिस्ट्रेट को सब कुछ बता दिया। बंगाल के अपराजेय कथाशिल्पी को इस मामले में रुचि लेते देखकर मजिस्ट्रेट व्यस्त हो उठा। उसने तुरन्त पुलिस कप्तान को बुलाया और उसे सब कुछ समझाकर कहा, "आप शरत् बाबू को एक चिट्ठी लिखकर दे दीजिए कि थानेदार पुलिस को लेकर वहां से चला जाए। मेले की व्यवस्था शरत् बाबू स्वयं कर लेंगे।“

उधर थानेदार ने ऊपर रिपोर्ट करके अतिरिक्त पुलिस बुलाने का प्रबन्ध कर लिया था। लेकिन संयोग ऐसा हुआ कि शरत् बाबू और पुलिस के नये अफसर भुवनेश्वर बाबू एक ही ट्रेन और एक ही डिब्बे में सवार होकर गोविन्दपुर के लिए रवाना हुए। भुवनेश्वर बाबू शरत बाबू के भक्त थे, लेकिन उन्हें पहचानते नहीं थे। एक मित्र के माध्यम से उसी डिब्बे में उनका उनसे प्रथम साक्षात् परिचय हुआ। स्वाभाविक था कि झगड़े की बात सामने आती, शरत् बाबू ने भुवनेश्वर को सब कुछ बता दिया।

गांव पहुंचकर दोनों एक साथ ही झगड़े के स्थान की ओर रवाना हुए। शरत् बाबू कुछ आगे थे। लोगों ने पहले उन्हीं को देखा और थानेदार को सूचना दी, “शरत् बाबू आ रहे हैं।” थानेदार बिगड़ उठा। बोला, "रहने दे रहने दे शरत् बाबू को दो-चार किताबें लिख ली हैं तो उससे यहां नेतागिरी नहीं चलेगी। अपमानित होकर लौटना होगा । "

तब तक भुवनेश्वर बाबू भी सामने आ गए थे। अब तो थानेदार की सिट्टी गुम हो गई। थर-थर कांपने लगा। भुवनेश्वर बाबू सब कुछ सुन जो चुके थे। क्रुद्ध होकर उन्होंने दरोगा से कहा, “वर्तमान बंगाल के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार के प्रति ज़रा भी शालीनता नहीं बरत सके ! ज़मींदार से घूस खाकर तुमने यह सब हंगामा किया है। अच्छा, अब यहां से इसी वक्त चले जाओ। और पाणित्रास के हाई स्कूल में मेरी राह देखो।”

डरते - कांपते थानेदार साहब वहां से चले गए। मेला खुशी-खुशी सम्पन्न हुआ। शरत् बाबू के अनुरोध पर गांववालों ने ठेकेदारों को भी उसमें भाग लेने की अनुमति दे दी। भगवान शिव के लिस समर्पित भूमि फिर से शिव के लिए समर्पित हो गई। लेकिन इससे पहला मामला हाईकोर्ट तक पहुंच चुका था। बार-बार हारने के बाद अंतत: ज़मींदार की बुद्धि लौट आई। वह शरत् बाबू के घर आया और उस झगड़े को समाप्त कर दिया।

मेलेवाली उस घटना के बाद एक दिन एक भद्र पुरुष सपत्नीक शरत् बाबू से मिलने के लिए आए। आते ही दोनों ने शरत् बाबू के चरण पकड़ लिए। बहुत पूछने पर उन्होंने कहा, "मैं वही थानेदार हूं, जिसने आपके साथ उस दिन अभद्रता का व्यवहार किया था। आप मुझे क्षमा कर दीजिए।"

शरत् बाबू ने उत्तर दिया, “अरे भाई, वह बात तो उसी दिन समाप्त हो गई थी। मुझे उसका कुछ भी गिला नहीं है।”

दरोगा ने कहा, “पर मेरी नौकरी तो खतरे में पड़ गई है। वह चली गई तो मेरे बच्चे भूखे मर जायेंगे। ज़मींदार से घूस लेने के अपराध में भुवनेश्वर बाबू ने मुझे निलम्बित कर दिया है। आप मुझ पर कृपा कीजिए।"

शरत् बाबू बोले, "मैं क्या कर सकता हूं, बताओ तो!"

“आप कृपाकर एक चिट्ठी भुवनेश्वर बाबू को लिख दीजिए कि आपने मुझे क्षमा कर दिया है।..... और यह कि वे भी मुझे क्षमा कर दें।"

बिना एक शब्द बोले शरत् बार ने वैसी ही चिट्ठी लिख दी और उन लोगों को वहां से तभी जाने दिया जब वे भोजन कर चुके ।

लेकिन ये समस्याएं हमेशा नहीं रहती थीं, न मित्र बन्धु ही हमेशा आ पाते थे। जब गांव में किसी प्रकार का आमोद-आनन्दोत्सव न होता तो गांव निर्जीव निस्पन्द हो उठता । तब उनका थका तन-मन संध्या के समय रेडियो संगीत के लिए उत्सुक हो आता। श्रावण के घने मेघ चारों ओर से घिर आए हैं। कीचड़ भरा जनहीन ग्राम्य पथ दुर्गम हो उठा है। निबिड़ अंधकार छाती पर भार बनकर बैठ गया है। तय रेडियो की तरंगों पर बहती हुई संगीत की धारा को सुनकर ऐसा लगता जैसे दूर कहीं संगीत की महफिल में भाग ले रहे हों। फिर किसी दिन वर्षा के बाद आकाश में छोटे-छोटे मेघों की दरारों से चांद का प्रकाश दिखाई देता। वर्षा के जल से पूरम्पार भरी नदी पर मलिन ज्योत्स्ना उभर आती। तब शरत् बाबू उस एकांत नदी-तट पर, आरामकुर्सी पर आंखें मूंदे लेटे हुए, ऐसा अनुभव करते मानो तम्बाकू के धुएं के साथ मिलकर रेडियो से उठती बांसुरी के स्वर किसी मायाजाल का निर्माण कर रहे हों।

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रचनाएँ
आवारा मसीहा
5.0
मूल हिंदी में प्रकाशन के समय से 'आवारा मसीहा' तथा उसके लेखक विष्णु प्रभाकर न केवल अनेक पुरस्कारों तथा सम्मानों से विभूषित किए जा चुके हैं, अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है और हो रहा है। 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा ' पाब्लो नेरुदा सम्मान' के अतिरिक्त बंग साहित्य सम्मेलन तथा कलकत्ता की शरत समिति द्वारा प्रदत्त 'शरत मेडल', उ. प्र. हिंदी संस्थान, महाराष्ट्र तथा हरियाणा की साहित्य अकादमियों और अन्य संस्थाओं द्वारा उन्हें हार्दिक सम्मान प्राप्त हुए हैं। अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, पंजाबी, सिन्धी , और उर्दू में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं तथा तेलुगु, गुजराती आदि भाषाओं में प्रकाशित हो रहे हैं। शरतचंद्र भारत के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे जिनका साहित्य भाषा की सभी सीमाएं लांघकर सच्चे मायनों में अखिल भारतीय हो गया। उन्हें बंगाल में जितनी ख्याति और लोकप्रियता मिली, उतनी ही हिंदी में तथा गुजराती, मलयालम तथा अन्य भाषाओं में भी मिली। उनकी रचनाएं तथा रचनाओं के पात्र देश-भर की जनता के मानो जीवन के अंग बन गए। इन रचनाओं तथा पात्रों की विशिष्टता के कारण लेखक के अपने जीवन में भी पाठक की अपार रुचि उत्पन्न हुई परंतु अब तक कोई भी ऐसी सर्वांगसंपूर्ण कृति नहीं आई थी जो इस विषय पर सही और अधिकृत प्रकाश डाल सके। इस पुस्तक में शरत के जीवन से संबंधित अंतरंग और दुर्लभ चित्रों के सोलह पृष्ठ भी हैं जिनसे इसकी उपयोगिता और भी बढ़ गई है। बांग्ला में यद्यपि शरत के जीवन पर, उसके विभिन्न पक्षों पर बीसियों छोटी-बड़ी कृतियां प्रकाशित हुईं, परंतु ऐसी समग्र रचना कोई भी प्रकाशित नहीं हुई थी। यह गौरव पहली बार हिंदी में लिखी इस कृति को प्राप्त हुआ है।
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भूमिका

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संस्करण सन् 1999 की ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था । पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को । इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं। जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही म

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भूमिका : पहले संस्करण की

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कभी सोचा भी न था एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी

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तीसरे संस्करण की भूमिका

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" प्रथम पर्व : दिशाहारा " अध्याय 1 : विदा का दर्द

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जिस समय शरत्चन्द का जन्म हुआ क वह चहुंमुखी जागृति और प्रगति का का था। सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम की असफलता और सरकार के तीव्र दमन के कारण कुछ दिन शिथिलता अवश्य दिखाई दी थी, परन्तु वह तूफान से पूर्व

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अध्याय 10: नाना परिवार का विद्रोह

22 अगस्त 2023
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शरत जब दूसरी बार भागलपुर लौटा तो यह दलबन्दी चरम सीमा पर थी। कट्टरपन्थी लोगों के विरोध में जो दल सामने आया उसके नेता थे राजा शिवचन्द्र बन्दोपाध्याय बहादुर । दरिद्र घर में जन्म लेकर भी उन्होंने तीक्ष्ण

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अध्याय 11: ' शरत को घर में मत आने दो'

22 अगस्त 2023
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उस वर्ष वह परीक्षा में भी नहीं बैठ सका था। जो विद्यार्थी टेस्ट परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे उन्हीं को अनुमति दी जाती थी। इसी परीक्षा के अवसर पर एक अप्रीतिकर घटना घट गई। जैसाकि उसके साथ सदा होता था, इ

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अध्याय 12: राजू उर्फ इन्द्रनाथ की याद

22 अगस्त 2023
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इसी समय सहसा एक दिन - पता लगा कि राजू कहीं चला गया है। फिर वह कभी नहीं लौटा। बहुत वर्ष बाद श्रीकान्त के रचियता ने लिखा, “जानता नहीं कि वह आज जीवित है या नहीं। क्योंकि वर्षों पहले एक दिन वह बड़े सुबह

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अध्याय 13: सृजिन का युग

22 अगस्त 2023
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इधर शरत् इन प्रवृत्तियों को लेकर व्यस्त था, उधर पिता की यायावर वृत्ति सीमा का उल्लंघन करती जा रही थी। घर में तीन और बच्चे थे। उनके पेट के लिए अन्न और शरीर के लिए वस्त्र की जरूरत थी, परन्तु इस सबके लि

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अध्याय 14: 'आलो' और ' छाया'

22 अगस्त 2023
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इसी समय निरुपमा की अंतरंग सखी, सुप्रसिद्ध भूदेव मुखर्जी की पोती, अनुपमा के रिश्ते का भाई सौरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय भागलपुर पढ़ने के लिए आया। वह विभूति का सहपाठी था। दोनों में खूब स्नेह था। अक्सर आना-ज

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अध्याय 15 : प्रेम के अपार भूक

22 अगस्त 2023
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एक समय होता है जब मनुष्य की आशाएं, आकांक्षाएं और अभीप्साएं मूर्त रूप लेना शुरू करती हैं। यदि बाधाएं मार्ग रोकती हैं तो अभिव्यक्ति के लिए वह कोई और मार्ग ढूंढ लेता है। ऐसी ही स्थिति में शरत् का जीवन च

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अध्याय 16: निरूद्देश्य यात्रा

22 अगस्त 2023
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गृहस्थी से शरत् का कभी लगाव नहीं रहा। जब नौकरी करता था तब भी नहीं, अब छोड़ दी तो अब भी नहीं। संसार के इस कुत्सित रूप से मुंह मोड़कर वह काल्पनिक संसार में जीना चाहता था। इस दुर्दान्त निर्धनता में भी उ

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अध्याय 17: जीवनमन्थन से निकला विष

24 अगस्त 2023
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घूमते-घूमते श्रीकान्त की तरह एक दिन उसने पाया कि आम के बाग में धुंआ निकल रहा है, तुरन्त वहां पहुंचा। देखा अच्छा-खासा सन्यासी का आश्रम है। प्रकाण्ड धूनी जल रही हे। लोटे में चाय का पानी चढ़ा हुआ है। एक

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अध्याय 18: बंधुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास की ओर

24 अगस्त 2023
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इस जीवन का अन्त न जाने कहा जाकर होता कि अचानक भागलपुर से एक तार आया। लिखा था—तुम्हारे पिता की मुत्यु हो गई है। जल्दी आओ। जिस समय उसने भागलपुर छोड़ा था घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके आने के बाद स्थित

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" द्वितीय पर्व : दिशा की खोज" अध्याय 1: एक और स्वप्रभंग

24 अगस्त 2023
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श्रीकान्त की तरह जिस समय एक लोहे का छोटा-सा ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर शरत् जहाज़ पर पहुंचा तो पाया कि चारों ओर मनुष्य ही मनुष्य बिखरे पड़े हैं। बड़ी-बड़ी गठरियां लिए स्त्री बच्चों के हाथ पकड़े व

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अध्याय 2: सभ्य समाज से जोड़ने वाला गुण

24 अगस्त 2023
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वहां से हटकर वह कई व्यक्तियों के पास रहा। कई स्थानों पर घूमा। कई प्रकार के अनुभव प्राप्त किये। जैसे एक बार फिर वह दिशाहारा हो उठा हो । आज रंगून में दिखाई देता तो कल पेगू या उत्तरी बर्मा भाग जाता। पौं

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अध्याय 3: खोज और खोज

24 अगस्त 2023
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वह अपने को निरीश्वरवादी कहकर प्रचारित करता था, लेकिन सारे व्यसनों और दुर्गुणों के बावजूद उसका मन वैरागी का मन था। वह बहुत पढ़ता था । समाज विज्ञान, यौन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, दर्शन, कुछ भी तो नहीं छू

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अध्याय 4: वह अल्पकालिक दाम्पत्य जीवन

24 अगस्त 2023
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एक दिन क्या हुआ, सदा की तरह वह रात को देर से लौटा और दरवाज़ा खोलने के लिए धक्का दिया तो पाया कि भीतर से बन्द है । उसे आश्चर्य हुआ, अन्दर कौन हो सकता है । कोई चोर तो नहीं आ गया। उसने फिर ज़ोर से धक्का

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अध्याय 5: चित्रांगन

24 अगस्त 2023
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शरत् ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ के समान न केवल साहित्य में बल्कि संगीत और चित्रकला में भी रुचि ली थी । यद्यपि इन क्षेत्रों में उसकी कोई उपलब्धि नहीं है, पर इस बात के प्रमाण अवश्य उपलब्ध है

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अध्याय 6: इतनी सुंदर रचना किसने की ?

24 अगस्त 2023
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रंगून जाने से पहले शरत् अपनी सब रचनाएं अपने मित्रों के पास छोड़ गया था। उनमें उसकी एक लम्बी कहानी 'बड़ी दीदी' थी। वह सुरेन्द्रनाथ के पास थी। जाते समय वह कह गया था, “छपने की आवश्यकता नहीं। लेकिन छापना

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अध्याय 7: प्रेरणा के स्रोत

24 अगस्त 2023
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एक ओर अंतरंग मित्रों के साथ यह साहित्य - चर्चा चलती थी तो दूसरी और सर्वहारा वर्ग के जीवन में गहरे पैठकर वह व्यक्तिगत अभिज्ञता प्राप्त कर रहा था। इन्ही में से उसने अपने अनेक पात्रों को खोजा था। जब वह

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अध्याय 8: मोक्षदा से हिरण्मयी

24 अगस्त 2023
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शांति की मृत्यु के बाद शरत् ने फिर विवाह करने का विचार नहीं किया। आयु काफी हो चुकी थी । यौवन आपदाओं-विपदाओं के चक्रव्यूह में फंसकर प्रायः नष्ट हो गया था। दिन-भर दफ्तर में काम करता था, घर लौटकर चित्र

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अध्याय 9: गृहदाद

24 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' प्रायः समाप्ति पर था। 'नारी का इतिहास प्रबन्ध भी पूरा हो चुका था। पहली बार उसके मन में एक विचार उठा- क्यों न इन्हें प्रकाशित किया जाए। भागलपुर के मित्रों की पुस्तकें भी तो छप रही हैं। उनस

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अध्याय 10: हाँ , अब फिर लिखूंगा

24 अगस्त 2023
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गृहदाह के बाद वह कलकत्ता आया । साथ में पत्नी थी और था उसका प्यारा कुत्ता। अब वह कुत्ता लिए कलकत्ता की सड़कों पर प्रकट रूप में घूमता था । छोटी दाढ़ी, सिर पर अस्त-व्यस्त बाल, मोटी धोती, पैरों में चट्टी

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अध्याय 11: रामेर सुमित शरतेर सुमित

24 अगस्त 2023
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रंगून लौटकर शरत् ने एक कहानी लिखनी शुरू की। लेकिन योगेन्द्रनाथ सरकार को छोड़कर और कोई इस रहस्य को नहीं जान सका । जितनी लिख लेता प्रतिदिन दफ्तर जाकर वह उसे उन्हें सुनाता और वह सब काम छोड़कर उसे सुनते।

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अध्याय 12: सृजन का आवेग

24 अगस्त 2023
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‘रामेर सुमति' के बाद उसने 'पथ निर्देश' लिखना शुरू किया। पहले की तरह प्रतिदिन जितना लिखता जाता उतना ही दफ्तर में जाकर योगेन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए दे देता। यह काम प्राय: दा ठाकुर की चाय की दुकान पर हो

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अध्याय 13: चरितहीन क्रिएटिंग अलामिर्ग सेंसेशन

25 अगस्त 2023
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छोटी रचनाओं के साथ-साथ 'चरित्रहीन' का सृजन बराबर चल रहा था और उसके प्रकाशन को 'लेकर काफी हलचल मच गई थी। 'यमुना के संपादक फणीन्द्रनाथ चिन्तित थे कि 'चरित्रहीन' कहीं 'भारतवर्ष' में प्रकाशित न होने लगे।

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अध्याय 14: ' भारतवर्ष' में ' दिराज बहू '

25 अगस्त 2023
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द्विजेन्द्रलाल राय शरत् के बड़े प्रशंसक थे। और वह भी अपनी हर रचना के बारे में उनकी राय को अन्तिम मानता था, लेकिन उन दिनों वे काव्य में व्यभिचार के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे थे। इसलिए 'चरित्रहीन' को स्वी

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अध्याय 15 : विजयी राजकुमार

25 अगस्त 2023
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अगले वर्ष जब वह छः महीने की छुट्टी लेकर कलकत्ता आया तो वह आना ऐसा ही था जैसे किसी विजयी राजकुमार का लौटना उसके प्रशंसक और निन्दक दोनों की कोई सीमा नहीं थी। लेकिन इस बार भी वह किसी मित्र के पास नहीं ठ

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अध्याय 16: नये- नये परिचय

25 अगस्त 2023
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' यमुना' कार्यालय में जो साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, उन्हीं में उसका उस युग के अनेक साहित्यिकों से परिचय हुआ उनमें एक थे हेमेन्द्रकुमार राय वे यमुना के सम्पादक फणीन्द्रनाथ पाल की सहायता करते थे। ए

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अध्याय 17: ' देहाती समाज ' और आवारा श्रीकांत

25 अगस्त 2023
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अचानक तार आ जाने के कारण शरत् को छुट्टी समाप्त होने से पहले ही और अकेले ही रंगून लौट जाना पड़ा। ऐसा लगता है कि आते ही उसने अपनी प्रसिद्ध रचना पल्ली समाज' पर काम करना शरू कर दिया था, लेकिन गृहिणी के न

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अध्याय 18: दिशा की खोज समाप्त

25 अगस्त 2023
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वह अब भी रंगून में नौकरी कर रहा था, लेकिन उसका मन वहां नहीं था । दफ्तर के बंधे-बंधाए नियमो के साथ स्वाधीन मनोवृत्ति का कोई मेल नही बैठता था। कलकत्ता से हरिदास चट्टोपाध्याय उसे बराबर नौकरी छोड़ देने क

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" तृतीय पर्व: दिशान्त " अध्याय 1: ' वह' से ' वे '

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत् ने कलकत्ता छोडकर रंगून की राह ली थी, उस समय वह तिरस्कृत, उपेक्षित और असहाय था। लेकिन अब जब वह तेरह वर्ष बाद कलकत्ता लौटा तो ख्यातनामा कथाशिल्पी के रूप में प्रसिद्ध हो चुका था। वह अब 'वह'

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अध्याय 2: सृजन का स्वर्ण युग

25 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र के जीवन का स्वर्णयुग जैसे अब आ गया था। देखते-देखते उनकी रचनाएं बंगाल पर छा गई। एक के बाद एक श्रीकान्त" ! (प्रथम पर्व), 'देवदास' 2', 'निष्कृति" 3, चरित्रहीन' और 'काशीनाथ' पुस्तक रूप में प्रक

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अध्याय 3: आवारा श्रीकांत का ऐश्वर्य

25 अगस्त 2023
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'चरित्रहीन' के प्रकाशन के अगले वर्ष उनकी तीन और श्रेष्ठ रचनाएं पाठकों के हाथों में थीं-स्वामी(गल्पसंग्रह - एकादश वैरागी सहित) - दत्ता 2 और श्रीकान्त ( द्वितीय पर्वों 31 उनकी रचनाओं ने जनता को ही इस प

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अध्याय 4: देश के मुक्ति का व्रत

25 अगस्त 2023
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जिस समय शरत्चन्द्र लोकप्रियता की चरम सीमा पर थे, उसी समय उनके जीवन में एक और क्रांति का उदय हुआ । समूचा देश एक नयी करवट ले रहा था । राजनीतिक क्षितिज पर तेजी के साथ नयी परिस्थितियां पैदा हो रही थीं। ब

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अध्याय 5: स्वाधीनता का रक्तकमल

26 अगस्त 2023
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चर्खे में उनका विश्वास हो या न हो, प्रारम्भ में असहयोग में उनका पूर्ण विश्वास था । देशबन्धू के निवासस्थान पर एक दिन उन्होंने गांधीजी से कहा था, "महात्माजी, आपने असहयोग रूपी एक अभेद्य अस्त्र का आविष्क

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अध्याय 6: निष्कम्प दीपशिखा

26 अगस्त 2023
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उस दिन जलधर दादा मिलने आए थे। देखा शरत्चन्द्र मनोयोगपूर्वक कुछ लिख रहे हैं। मुख पर प्रसन्नता है, आखें दीप्त हैं, कलम तीव्र गति से चल रही है। पास ही रखी हुई गुड़गुड़ी की ओर उनका ध्यान नहीं है। चिलम की

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अध्याय 7: समाने समाने होय प्रणयेर विनिमय

26 अगस्त 2023
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शरत्चन्द्र इस समय आकण्ठ राजनीति में डूबे हुए थे। साहित्य और परिवार की ओर उनका ध्यान नहीं था। उनकी पत्नी और उनके सभी मित्र इस बात से बहुत दुखी थे। क्या हुआ उस शरतचन्द्र का जो साहित्य का साधक था, जो अड

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अध्याय 8: राजनीतिज्ञ अभिज्ञता का साहित्य

26 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र कभी नियमित होकर नहीं लिख सके। उनसे लिखाया जाता था। पत्र- पत्रिकाओं के सम्पादक घर पर आकर बार-बार धरना देते थे। बार-बार आग्रह करने के लिए आते थे। भारतवर्ष' के सम्पादक रायबहादुर जलधर सेन आते,

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अध्याय 9: लिखने का दर्द

26 अगस्त 2023
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अपनी रचनाओं के कारण शरत् बाबू विद्यार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय थे। लेकिन विश्वविद्यालय और कालेजों से उनका संबंध अभी भी घनिष्ठ नहीं हुआ था। उस दिन अचानक प्रेजिडेन्सी कालेज की बंगला साहित्य सभा

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अध्याय 10: समिष्ट के बीच

26 अगस्त 2023
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किसी पत्रिका का सम्पादन करने की चाह किसी न किसी रूप में उनके अन्तर में बराबर बनी रही। बचपन में भी यह खेल वे खेल चुके थे, परन्तु इस क्षेत्र में यमुना से अधिक सफलता उन्हें कभी नहीं मिली। अपने मित्र निर

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अध्याय 11: आवारा जीवन की ललक

26 अगस्त 2023
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राजनीतिक क्षेत्र में इस समय अपेक्षाकृत शान्ति थी । सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसा उत्साह अब शेष नहीं रहा था। लेकिन गांव का संगठन करने और चन्दा इकट्ठा करने में अभी भी वे रुचि ले रहे थे। देशबन्धु का यश ओर प

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अध्याय 12: ' हमने ही तोह उन्हें समाप्त कर दिया '

26 अगस्त 2023
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देशबन्धु की मृत्यु के बाद शरत् बाबू का मन राजनीति में उतना नहीं रह गया था। काम वे बराबर करते रहे, पर मन उनका बार-बार साहित्य के क्षेत्र में लौटने को आतुर हो उठता था। यद्यपि वहां भी लिखने की गति पहले

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अध्याय 13: पथेर दाबी

26 अगस्त 2023
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जिस समय वे 'पथेर दाबी ' लिख रहे थे, उसी समय उनका मकान बनकर तैयार हो गया था । वे वहीं जाकर रहने लगे थे। वहां जाने से पहले लगभग एक वर्ष तक वे शिवपुर टाम डिपो के पास कालीकुमार मुकर्जी लेने में भी रहे थे

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अध्याय 14: रूप नारायण का विस्तार

26 अगस्त 2023
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गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।" एक और पत्र में उन्होंने लिख

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अध्याय 15: देहाती शरत

26 अगस्त 2023
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गांव में रहने पर भी शहर छूट नहीं गया था। अक्सर आना-जाना होता रहता था। स्वास्थ्य बहुत अच्छा न होने के कारण कभी-कभी तो बहुत दिनों तक वहीं रहना पड़ता था । इसीलिए बड़ी बहू बार-बार शहर में मकान बना लेने क

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अध्याय 16: दायोनिसस शिवानी से वैष्णवी कमललता तक

26 अगस्त 2023
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किशोरावस्था में शरत् बात् ने अनेक नाटकों में अभिनय करके प्रशंसा पाई थी। उस समय जनता को नाटक देखने का बहुत शौक था, लेकिन भले घरों के लड़के मंच पर आयें, यह कोई स्वीकार करना नहीं चाहता था। शरत बाबू थे ज

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अध्याय 17: तुम में नाटक लिखने की शक्ति है

26 अगस्त 2023
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शरत साहित्य की रीढ़, नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण है। बार-बार अपने इसी दृष्टिकोण को उन्होंने स्पष्ट किया है। प्रसिद्धि के साथ-साथ उन्हें अनेक सभाओं में जाना पडता था और वहां प्रायः यही प्रश्न उनके साम

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अध्याय 18: नारी चरित्र के परम रहस्यज्ञाता

26 अगस्त 2023
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केवल नारी और विद्यार्थी ही नहीं दूसरे बुद्धिजीवी भी समय-समय पर उनको अपने बीच पाने को आतुर रहते थे। बड़े उत्साह से वे उनका स्वागत सम्मान करते, उन्हें नाना सम्मेलनों का सभापतित्व करने को आग्रहपूर्वक आ

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अध्याय 19: मैं मनुष्य को बहुत बड़ा करके मानता हूँ

26 अगस्त 2023
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चन्दन नगर की गोष्ठी में उन्होंने कहा था, “राजनीति में भाग लिया था, किन्तु अब उससे छुट्टी ले ली है। उस भीड़भाड़ में कुछ न हो सका। बहुत-सा समय भी नष्ट हुआ । इतना समय नष्ट न करने से भी तो चल सकता था । ज

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अध्याय 20: देश के तरुणों से में कहता हूँ

26 अगस्त 2023
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साधारणतया साहित्यकार में कोई न कोई ऐसी विशेषता होती है, जो उसे जनसाधारण से अलग करती है। उसे सनक भी कहा जा सकता है। पशु-पक्षियों के प्रति शरबाबू का प्रेम इसी सनक तक पहुंच गया था। कई वर्ष पूर्व काशी में

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अध्याय 21:  ऋषिकल्प

26 अगस्त 2023
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जब कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्तर वर्ष के हुए तो देश भर में उनकी जन्म जयन्ती मनाई गई। उस दिन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट, कलकत्ता में जो उद्बोधन सभा हुई उसके सभापति थे महामहोपाध्याय श्री हरिप्रसाद शास्त

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अध्याय 22: गुरु और शिष्य

27 अगस्त 2023
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शरतचन्द्र 60 वर्ष के भी नहीं हुए थे, लेकिन स्वास्थ्य उनका बहुत खराब हो चुका था। हर पत्र में वे इसी बात की शिकायत करते दिखाई देते हैं, “म सरें दर्द रहता है। खून का दबाव ठीक नहीं है। लिखना पढ़ना बहुत क

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अध्याय 23: कैशोर्य का वह असफल प्रेम

27 अगस्त 2023
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शरत् बाबू की रचनाओं के आधार पर लिखे गये दो नाटक इसी युग में प्रकाशित हुए । 'विराजबहू' उपन्यास का नाट्य रूपान्तर इसी नाम से प्रकाशित हुआ। लेकिन दत्ता' का नाट्य रूपान्तर प्रकाशित हुआ 'विजया' के नाम से

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अध्याय 24: श्री अरविन्द का आशीर्वाद

27 अगस्त 2023
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गांव में रहते हुए शरत् बाबू को काफी वर्ष बीत गये थे। उस जीवन का अपना आनन्द था। लेकिन असुविधाएं भी कम नहीं थीं। बार-बार फौजदारी और दीवानी मुकदमों में उलझना पड़ता था। गांव वालों की समस्याएं सुलझाते-सुल

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अध्याय 25: तुब बिहंग ओरे बिहंग भोंर

27 अगस्त 2023
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राजनीति के क्षेत्र में भी अब उनका कोई सक्रिय योग नहीं रह गया था, लेकिन साम्प्रदायिक प्रश्न को लेकर उन्हें कई बार स्पष्ट रूप से अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला। उन्होंने बार-बार नेताओं की आलोचना की

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अध्याय 26: अल्हाह.,अल्हाह.

27 अगस्त 2023
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सर दर्द बहुत परेशान कर रहा था । परीक्षा करने पर डाक्टरों ने बताया कि ‘न्यूरालाजिक' दर्द है । इसके लिए 'अल्ट्रावायलेट रश्मियां दी गई, लेकिन सब व्यर्थ । सोचा, सम्भवत: चश्मे के कारण यह पीड़ा है, परन्तु

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अध्याय 27: मरीज की हवा दो बदल

27 अगस्त 2023
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हिरण्मयी देवी लोगों की दृष्टि में शरत्चन्द्र की पत्नी थीं या मात्र जीवनसंगिनी, इस प्रश्न का उत्तर होने पर भी किसी ने उसे स्वीकार करना नहीं चाहा। लेकिन इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि उनके प्रति शरत् बा

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अध्याय 28: साजन के घर जाना होगा

27 अगस्त 2023
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कलकत्ता पहुंचकर भी भुलाने के इन कामों में व्यतिक्रम नहीं हुआ। बचपन जैसे फिर जाग आया था। याद आ रही थी तितलियों की, बाग-बगीचों की और फूलों की । नेवले, कोयल और भेलू की। भेलू का प्रसंग चलने पर उन्होंने म

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अध्याय 29: बेशुमार यादें

27 अगस्त 2023
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इसी बीच में एक दिन शिल्पी मुकुल दे डाक्टर माके को ले आये। उन्होंने परीक्षा करके कहा, "घर में चिकित्सा नहीं ही सकती । अवस्था निराशाजनक है। किसी भी क्षण मृत्यु हो सकती है। इन्हें तुरन्त नर्सिंग होम ले

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