गांव में आकर उनका जीवन बिलकुल ही बदल गया। इस बदले हुए जीवन की चर्चा उन्होंने अपने बहुत-से पत्रों में की है, “रूपनारायण के तट पर घर बनाया है, आरामकुर्सी पर पड़ा रहता हूं।"
एक और पत्र में उन्होंने लिखा, "उसके बाद मैं कलकत्ता नहीं गया। इधर छोटी परिधि में जैसे-तैसे दिन कट जाते हैं, लेकिन एक बार शहर का मुख देख आने पर संभलने में पांच-सात दिन लग जाते हैं। इसके अलावा वर्षा, बादल और कीचड़ में रास्ता चलना कठिन है। उतनी शक्ति भी नहीं है। उद्यम भी नहीं है। कुछ दिन पहले अंधेरी रात में सीढ़ियों को एक समझकर उतरने में जो होना चाहिए था वही हुआ। हां, बाहर उसके लक्षण नहीं, पर पीठ और कमर का दर्द आज भी पूरी तरह दूर नहीं हुआ है। सभी मुझे लिखने के लिए कहते हैं, लेकिन समझ में नहीं आता क्या लिखूं। सब कुछ अर्थहीन - अनावश्यक लगता है। और ग्रन्थकारों की तरह अपने मन में अगर एक बार फिर अपने आपको पुराने ज़माने की साहित्य-सेवा के बीच खींच ले जा सकता तो शायद कितने ही “बिन्दो का लल्ला' और 'चरित्रहीन' लिखे जा सकते थे। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि इस जीवन में वह बात फिर निरन्तर सोचता हूं कि लिखकर क्या होगा? लोगों को आनन्द मिलता है, भले ही न मिले। पहले पाने का अधिकार प्राप्त करें, उसके बाद बिन्दो का लल्ला' और 'राम की सुमति' लिखनेवाले बहुतेरे पैदा होंगे। मुझे तो हाथ देखना सीखने की बड़ी इच्छा हो रही है । "
'बिन्दो का लल्ला' या चरित्रहीन' लिखने की स्थिति में वे भले ही न रहे हों, गांववालों के जीवन को समझने का यह स्वर्ण अवसर था । बर्मा में रहते समय जैसे वे अपने सर्वहारा पड़ोसियों की सहायता करने के लिए सदा तैयार रहते थे, वैसे ही यहां भी कोई अवसर नहीं चूक थे। आयु काफी हो गई थी। नाम भी बहुत हो गया था। सभी सुविधाएं थीं जो एक समृद्ध व्यक्ति को हो सकती हैं। फिर भी मन से वे वही शरत् थे जो रंगून प्रवास में थे। आसपास किसी को भी कष्ट होता तो 'बामन की बेटी के डा० प्रियनाथ की तरह दौड़ पड़ते।
उस दिन मनोज बसु मिलने के लिए आए। देखते क्या है कि बरामदा गांव के अनेक स्त्री-पुरुषों से भरा हैं और उनके बीच में आरामकुर्सी पर बैठे हैं उनके दादा ठाकुर शरतचन्द्र । एक-एक व्यक्ति से घर-गृहस्थी की बातें चल रही हैं। सहसा एक स्त्री से उन्होंने पूछा, “छवि की मां, तेरी बेटी कैसी है?"
“ठीक है दादा ठाकुर। आपकी दवा तो बस धन्वंतरी है । "
इस पर शरत् बाबू से कहा, "लेकिन तुमने बच्चे को बड़ी असावधानी से नदी में फेंक दिया था। बहता - बहता वह अन्त में इस चड़े में अटक गया। कौवे और गिद्ध मांस नोचने को मंडरा रहे थे। मैं यह सब नहीं देख सका। नदी में उतर कर बीच धारा में डाल आया । "
बूढ़ी मां ने आंचल से आखें ढक लीं।
ये लोग कुलीन नहीं हैं। छवि का आठ वर्ष की उम्र में विवाह हुआ था। पति थे दादा की उम्र के जल्दी मर गये। रह गई बिचारी मां और उसकी स्वस्थ बेटी । किसी युवक को बर्बाद करेगी, इसलिए उसे गांव से बाहर निकाल दिया गया था। बेचारी दादा ठाकुर की दया के सहारे रहती थी। छवि का एक बेटा था, वह भी कल मर गया। उसी को बुढ़िया ने असावधानी से नदी में फेंक दिया था.....
कहानियों का कोई अन्त नहीं था। उस दिन सुना, एक व्यक्ति को हैजा हो गया है। कोई भी उसके पास नहीं जाता। अकेला फूस के छप्पर के नीचे पड़ा कराह रहा है। रंगून में न जाने कितने प्लेग के रोगियों को उन्होंने दवा दी थी। कितने ही व्यक्तियों ने उनकी गोद में प्राण छोड़े थे। 'गृहदाह' के सुरेश की तरह मृत्यु का भय उनके मन को कभी नहीं जीत पाया। तुरन्त उस व्यक्ति के पास गए। उसे दवा दी। डा० प्रियनाथ का होमियोपैथी का बक्स अभी भी उनके पास था। वह मानो उसी की तरह रोगियों को ढूंढते फिरा करते थे।
इतना ही नहीं, इनके लिये पथ्य का प्रबन्ध करने का भार भी वे संभाल लेते थे । नाना प्रकार की मछलियां, बेदाना, सेब, साबूदाना, मिश्री आदि सब कुछ खरीदकर भेज देते थे। यदि उनकी दवा से लाभ न होता तो वे पाणित्रास के स्थानीय डा० रमेशचन्द्र मुखोपाध्याय को बुलाते। वे भी सफल न हो पाते तो नूण्टेरहटा, हावड़ा से डा० गोपीकृष्ण चक्रवर्ती आते। उनकी फीस भी वे स्वयं देते थे पर अपने हाथ से नहीं, मरीज़ के ही हाथ से दिलवाते थे।
वे केवल उनके शरीर का ही ध्यान नहीं रखते थे, बल्कि बालिकाओं की शिक्षा-दीक्षा के लिए एक विद्यालय भी उन्होंनें खोल दिया था। पथ - घाट बनवाते रहते थे। बच्चों के प्रति उनके प्रेम की थाह नहीं थी । न जाने क्या-क्या खरीदकर उनको देते रहते थे। प्रारम्भ में एक गांव वाले उन्हें नहीं चाहते थे, परन्तु जैसे-जैसे ये उनके सुख-दुख में एकाकार होते गए वे सबके प्रिय हो उठे। मामले मुकदमे में ज़ालिम ज़मींदार के विरुद्ध उनका पक्ष लेने से वे यहां भी पीछे नहीं हटे। सब काम छोड़कर वे अन्याय का प्रतिरोध करने को कटिबद्ध हो जाते थे। इसीलिए वे गांव वालों के 'आपुन जन' हो गए थे।
मकान ठीक रूपनारायण नद के ऊपर था । ज्वार और बन्या का प्रकोप अक्सर होता रहता था। बंगाल में वर्षा ऋतु का क्या अर्थ है यह एकाध वर्ष गांव में रहकर ही जाना जा सकता है। उस बार इतना तीव्र ज्वार आया कि बांध भी बह गया। चारों ओर जल ही जल । मिट्टी खोद-खोदकर यहां-वहां गड्ढों को पाटने में ही दस-पन्द्रह दिन निकल गए। एक रात सूचना मिली कि जल बांध तोड़कर खेतों में घुस आया है। फसल को बचाने का प्रश्न था । किसी न किसी तरह बांध बांधना था। लेकिन सभी गांव वाले सहसा इसके लिए राज़ी नहीं हुए। तब शरत् बाबू ने साम दाम दण्ड भेद से, जैसे भी हो सका, उनको तैयार किया और वे बांस काटने और मिट्टी खोदने में जुट गए। आसपास मिट्टी कम थी। इसलिये श्मशान की ऊंची भूमि की खुदाई शुरू की। खोदते खोदते सहसा क्या देखा कि गड्ढे में शिशु का शव है। क्षणभर में बचपन आंखों के सामने घूम गया। राजू के साथ मिलकर न जाने कितनी लावारिश लाशों का संस्कार किया था। बड़े प्यार से मृत शिशु को एक सुरक्षित स्थान पर रखा, जब बांध पूरा हो गया तब एक बड़ा-सा गहरा गड्ढा खोदकर उसे गाड़ दिया।
यद्यपि वे शहर से दूर रहने लगे थे, लेकिन मित्रों का आना-जाना कम नहीं हुआ। बल्कि ऐसा होता कि सवेरे ही व लोग आ जाते ओर फिर दिन-भर अड्डा जमाने के बाद ही शाम को लौटते। आने वालों में मित्र, रिश्तेदार, प्रशंसक सभी होते । शिवपुर की तरह कुछ रचनाएं मांगने आते, कुछ आते किसी सभा का सभापति बनने का आग्रह लेकर, कुछ सम्पादक बन जाने की प्रार्थना करते। उन्हें यह सब तो अच्छा न लगता, पर आना अवश्य अच्छा लगता। स्वयं शहर जाकर निमंत्रित कर
आते कि वे लोग आकर उनका बाग देखें, तालाब के माछ देखें। खिलाते-पिलाते भी खूब थे। उनकी घर की गाय का मीठा दूध बहुतों को प्रिय था और हर आने वाले को छ: बड़े-बड़े बताशे अवश्य दिए जाते थे। एक बन्धु ने कहा, "ये बताशे क्यों?"
उत्तर मिला, "यह तो भाई, गांव का शिष्टाचार है।" पास में बाज़ार नहीं था । देने को मिठाई हमेशा कैसे मिलती, सो बताशे तैयार रखते थे। कहते, "खूब खाएंगे तभी तो लोग यहां आरंगे ।” फिर गल्प पर गल्प सुनाकर सवेरा कर देते। अन्दर से तकाज़ा आता, 'ओ जी, सवेरा हो गया, सोओगे कब?"
घंटों पर घंटे पंख लगाकर उड़ जाते। काम में हानि होती है, होने दो। बैठना ही होगा। कितनी कहानियां कहते - अपने बारे में, अपने आसपास के बारे में। कोई बोल उठता, “आपकी कहानियां हम मग्न होकर सुनते तो हैं, पर विश्वास नहीं करते। सब झूठ, झांसा - पट्टी, आप बना-बनाकर बोलते हैं।"
वे उत्तर देते, "जीवन भी तो झांसा पट्टी देकर काट दिया है, भाई। तुम सब स्कूल- कालेजों में कितना खटे हो, वह सब समय मैंने झांसा पट्टी देकर और तम्बाकू खाकर ही तो काटा है। उसके बाद सारा जीवन खाली झूठी कथाएं लिख-लिखकर इतना प्यार इकट्ठा का लिया।
फिर कहते, मैंने शायद मिथ्या तो कुछ नहीं लिखा। कितने मनुष्यों से मिला हूं। कितनों को देखा है। लिखते समय वे ही सब मेरे मन में उभर उठते है। फिर मैं अपने को रोक नहीं सकता।"
कहते-कहते वे उठकर बेचैनी से बरामदे में टहलने लगते। उत्तेजित होते तो माथे पर आए बालों को उंगली में लपेट लेते। सिगरेट पर सिगरेट पीते जाते और बोलते जाते ।
लोग प्रश्न पर प्रश्न करके उन्हें परेशान कर देते, पर वे मृदु-मृदु मुस्कराते ही रहते। कोई पूछता, “आपने किरणमयी को पागल क्यों नहीं किया?” कोई जवाब तलब करता, "आपने फिर अन्नदा दीदी की खोज-खबर क्यों नहीं ली? इन्द्रनाथ को कहां निर्वासित कर दिया ? आपके 'शेष प्रश्न' का समाधान क्या है?"
लेकिन एक दिन एक ऐसे ही आने वाले के साथ एक अघटित घटना घट गई। दस बजे का समय होगा। बाहर के बरामदे में आरामकुर्सी पर लेटे-लेटे कोई पुस्तक पढ़ रहे थे, तभी किसी के आने की पदचाप सुनाई दी। किताब हटाकर आने वाले को देखा, फिर वैसे ही पढ़ने में व्यस्त हो गाए ।
आगन्तुक और कोई नहीं चिर परिचित मामा उपेन्द्रनाथ थे। उन्हीं दिनों "विचित्रा' - पत्र के प्रकाशन की योजना सामने आई थी। इसके स्वप्नद्रष्टा थे उपेन्द्रनाथ के समधी योगीन्द्रनाथ मुकर्जी। इस योजना को कार्यरूप देने से पूर्व ही वे स्वर्गवासी हो गए। तब उनके पुत्र ने इसे कार्यान्वित करने का बीड़ा उठाया। सम्पादक के पद पर प्रतिष्टित हुए उपेन्द्रनाथ। जैसा कि स्वाभाविक था उन्होंने पहले से ही रवीन्द्रनाथ और शरत्चन्द्र दोनों को लिखने के लिए आमन्त्रित किया, परन्तु बार-बार पत्र लिखने पर भी शरत्चन्द्र ने कोई जवाब नहीं दिया। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और वे स्वयं उनसे मिलने के लिए पाणित्रास 2 आए। आश्चर्य! महान आश्चर्य !! शरत् ने उन्हें देखकर भी अनदेखा कर दिया। अल्छा नहीं लगा। फिर भी एक कुर्सी पर बैठते ही उन्होंने पूछा, "कैसे हो शरत्?”
उसी तरह किताब से मुंह ढके ढके शरत् बाबू बोले, वैसा ही हूं।"
उपेन्द्रनाथ ने कहा, "वह तो मैं अपनी आखों से देख रहा हूं। पूछाता हूं कैसे हो? और तुमने मेरी चिट्ठी का जवाब क्यों नहीं दिया?"
शरत् बाबू पूर्ववत् बोले, "क्या जवाब देता?"
उपेन्द्रनाथ को और भी आश्चर्य हुआ, लेकिन फिर भी मुस्कराकर कहा, "जवाब देते, तुम्हारी चिट्ठी पाकर खुशी हुई। उपन्यास लिखना शुरू कर दिया है। एक संख्या के जितना होने पर भेज दूंगा।"
शरत् बाबू ने धीरे-धीरे पुस्तक बन्द करके मेज़ के ऊपर रख दी। सीधे होकर बैठ गए और फिर तीक्ष्ण दृष्टि से मामा की ओर देखते हुए बोले, “उस कोयलेवाले के बेटे के पत्र में मुझसे उपन्यास लिखने के लिए कहते हो?”
इस अकारण क्रोध के विरुद्ध उपेन्द्रनाथ का अहंकार फुंकार उठा। उसी तरह तीव्र दृष्टि से देखते हुए वे बोले, "कोयलेवाला कौन है? जोगिन मुकुज्जे ! उसका बेटा मेरा दामाद है, यह तो जानते हो?”
शरत् बोले, “जानता हूं या नहीं जानता हूं, मैं उसके पत्र में नहीं लिखूंगा।"
"जानते हो, वह कोयलेवाला अब इस संसार में नहीं है।
शरत् बाबू ने कोई उत्तर नहीं दिया। उपेन्द्रनाथ के मन में अभिमान और क्रोध उमड़ आया। मन ही मन उन्होंने कहा, “देखता हूं, तुम्हें छोड़कर अखबार निकाला जा सक्ता है या नहीं। जहां प्यार बहुत होता है वहां आशा करना असंगत नहीं होता। तुम यदि मेरे नातेदार नहीं होते, बन्धु नहीं होते, दोनों के बीच ग्रेम का सहज सुदृढ़ बन्धन न होता तो तर्क-वितर्क और झगड़ा कर सका था। झगड़ा निपटा भी सकता था......."
मन में और भी न जाने क्या-क्या विचार आए, पर कहा उन्होंने कुछ नहीं । उठकर खडे हो गए। शरत् बाबू ही बोले, "कहां जाते हो?"
उपेन्द्रनाथ ने उत्तर दिया, “अपने घर जाता हूं।”
शरत् बाबू बोले, “खा-पीकर जाना ।”
उपेन्द्रनाथ व्यंग्य से मुस्कराए। कहा, "इस किताबवाले के घर खाना-पीना करने के लिए कहते हो?"
शरत् बाबू को ये शब्द निश्चय ही बुरे लगे। फिर भी उन्होंने कहा, "बहुत दूर से आए हो बहुत दूर जाना है। आखिर चाय नाश्ता लेकर जाओ।"
लेकिन जैसा स्वागत हुआ था उसके देखते हुए उपेन्द्रनाथ का रुकना असम्भव था। वे नहीं रुके। शरत् बाबू फिर बोले, "तुम गुस्सा हो गए उपेन्द्र !”
उपेन्द्रनाथ ने कहा, "हो गया हूं किन्तु वह अकारण तो नहीं है।”
“अन्याय कर रहे हो।”
उपेन्द्रनाथ बोले, "मैं अन्याय नहीं कर रहा हूं। अन्याय मेरे साथ हुआ है। भविष्य में शायद इस पर विचार हो सकेगा।”
शरद बोले, “ऐसा होने पर भविष्य की ओर देखते बैठे रहना पड़ेगा।”
उपेन्द्रनाथ चले गए। इस घटना - विशेष में अपराध किसका हैं, यह चर्चा अभी असंगत है। स्पष्ट इतना ही है कि वे जब दृढ़ होना चाहते थे हो सकते थे। इसी प्रवृत्ति के कारण कई बार उन्हें गांववालों के मुकदमों में भी फंस जाना पड़ता था। पुराने ज़मींदार ने गोविन्दपुर में कुछ भूमि भगवान शिव के नाम अर्पित कर रखी थी । निचान में होने के कारण उसमें प्राय: जल भर जाता था। नये ज़मींदार ने इसका लाभ उठाना चाहा ! जल से भरी वह भूमि उसने मछली पकड़ने के लिए ठेके पर उठा दी। अब तक गांव के लोग स्वेच्छापूर्वक मछली पकड़ते थे। इस ठेक से उनका वह अधिकार छिन गया.
यही झगड़े का आरम्भ था। लेकिन शीघ्र ही बात हाथापाई और मारपीट तक पहुंच गई। ठेकदार शिकायत लेकर ज़मींदार के पास पहुंचे। वह क्रुद्ध हो उठा और तुरन्त कचहरी जाकर उसने पच्चीस व्यक्तियों पर फौजदारी मुकदमा दायर कर दिया। इनमें शरत् बाबू की दीदी के एक देवर भी थे। वे एक स्कूल में मुख्याध्यापक थे। उन सहित कई लोग, जिन पर मुकदमा दायर किया गया, घटनास्थल पर मौजूद भी नहीं थे।
जब यह समाचार शरत् बाबू को मिला तो उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा। चुपचाप जमींदार के पास गए और उसे समझाने की चेष्टा की। लेकिन ज़मींदार तो मदान्ध था। तीव्र होकर बोला, "मैं किसी का उपदेश नहीं सुनना चाहता। जो मुझे ठीक लगेगा करूंगा गोविन्दपुर के लोगों को सबक सिखाऊंगा। सुनता हूं, आप उनके सलाहकार हैं! रहिए, मैं डरता नहीं हूं।"
इसका जो परिणाम हो सकता था वही हुआ। दोनों ओर से फौजदारी तथा दीवानी दोनों प्रकार के मुकदमे चलने लगे। उस स्थान पर शिवपूजा को लेकर एक उत्सव भी मनाया जाता था। इस बार गांववालों ने निश्चय किया कि जिन लोगों ने ठेका लिया है, उन्हें किसी भी शर्त पर उत्सव में भाग लेने की अनुमति नहीं दी जाएगी। इस बात पर फिर झगड़ा बढ़ा। ज़मींदार के पास पैसा ही नहीं था, वह यूनियन बोर्ड का प्रज़ीडेण्ट भी था । पुलिस के अधिकारियों से उसका खूब परिचय था। इसीलिए झगड़े की सम्भावना बाताकर वह वहां धारा 144 लगवाने में सफल हो गया। गांव में यहां-वहां सब कहीं पुलिस दिखाई देने लगी।
धर्म के मामले में पुलिस का यह हस्तक्षेप देखकर गांववाले भड़क उठे। दोनों दलों में फिर उत्तेजना बढ़ गई। तब कई भद्र पुरुष फिर शरत् बाबू के पास आए। वे क्रोध और दृढ़ संकल्प से भर उठे और उन्होंने निर्णय किया कि उन्हें डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के पास जाना ही होगा। सब लोगों को शान्त रहने को कहकर वे तुरन्त चल पड़े। उन्होंने मजिस्ट्रेट को सब कुछ बता दिया। बंगाल के अपराजेय कथाशिल्पी को इस मामले में रुचि लेते देखकर मजिस्ट्रेट व्यस्त हो उठा। उसने तुरन्त पुलिस कप्तान को बुलाया और उसे सब कुछ समझाकर कहा, "आप शरत् बाबू को एक चिट्ठी लिखकर दे दीजिए कि थानेदार पुलिस को लेकर वहां से चला जाए। मेले की व्यवस्था शरत् बाबू स्वयं कर लेंगे।“
उधर थानेदार ने ऊपर रिपोर्ट करके अतिरिक्त पुलिस बुलाने का प्रबन्ध कर लिया था। लेकिन संयोग ऐसा हुआ कि शरत् बाबू और पुलिस के नये अफसर भुवनेश्वर बाबू एक ही ट्रेन और एक ही डिब्बे में सवार होकर गोविन्दपुर के लिए रवाना हुए। भुवनेश्वर बाबू शरत बाबू के भक्त थे, लेकिन उन्हें पहचानते नहीं थे। एक मित्र के माध्यम से उसी डिब्बे में उनका उनसे प्रथम साक्षात् परिचय हुआ। स्वाभाविक था कि झगड़े की बात सामने आती, शरत् बाबू ने भुवनेश्वर को सब कुछ बता दिया।
गांव पहुंचकर दोनों एक साथ ही झगड़े के स्थान की ओर रवाना हुए। शरत् बाबू कुछ आगे थे। लोगों ने पहले उन्हीं को देखा और थानेदार को सूचना दी, “शरत् बाबू आ रहे हैं।” थानेदार बिगड़ उठा। बोला, "रहने दे रहने दे शरत् बाबू को दो-चार किताबें लिख ली हैं तो उससे यहां नेतागिरी नहीं चलेगी। अपमानित होकर लौटना होगा । "
तब तक भुवनेश्वर बाबू भी सामने आ गए थे। अब तो थानेदार की सिट्टी गुम हो गई। थर-थर कांपने लगा। भुवनेश्वर बाबू सब कुछ सुन जो चुके थे। क्रुद्ध होकर उन्होंने दरोगा से कहा, “वर्तमान बंगाल के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार के प्रति ज़रा भी शालीनता नहीं बरत सके ! ज़मींदार से घूस खाकर तुमने यह सब हंगामा किया है। अच्छा, अब यहां से इसी वक्त चले जाओ। और पाणित्रास के हाई स्कूल में मेरी राह देखो।”
डरते - कांपते थानेदार साहब वहां से चले गए। मेला खुशी-खुशी सम्पन्न हुआ। शरत् बाबू के अनुरोध पर गांववालों ने ठेकेदारों को भी उसमें भाग लेने की अनुमति दे दी। भगवान शिव के लिस समर्पित भूमि फिर से शिव के लिए समर्पित हो गई। लेकिन इससे पहला मामला हाईकोर्ट तक पहुंच चुका था। बार-बार हारने के बाद अंतत: ज़मींदार की बुद्धि लौट आई। वह शरत् बाबू के घर आया और उस झगड़े को समाप्त कर दिया।
मेलेवाली उस घटना के बाद एक दिन एक भद्र पुरुष सपत्नीक शरत् बाबू से मिलने के लिए आए। आते ही दोनों ने शरत् बाबू के चरण पकड़ लिए। बहुत पूछने पर उन्होंने कहा, "मैं वही थानेदार हूं, जिसने आपके साथ उस दिन अभद्रता का व्यवहार किया था। आप मुझे क्षमा कर दीजिए।"
शरत् बाबू ने उत्तर दिया, “अरे भाई, वह बात तो उसी दिन समाप्त हो गई थी। मुझे उसका कुछ भी गिला नहीं है।”
दरोगा ने कहा, “पर मेरी नौकरी तो खतरे में पड़ गई है। वह चली गई तो मेरे बच्चे भूखे मर जायेंगे। ज़मींदार से घूस लेने के अपराध में भुवनेश्वर बाबू ने मुझे निलम्बित कर दिया है। आप मुझ पर कृपा कीजिए।"
शरत् बाबू बोले, "मैं क्या कर सकता हूं, बताओ तो!"
“आप कृपाकर एक चिट्ठी भुवनेश्वर बाबू को लिख दीजिए कि आपने मुझे क्षमा कर दिया है।..... और यह कि वे भी मुझे क्षमा कर दें।"
बिना एक शब्द बोले शरत् बार ने वैसी ही चिट्ठी लिख दी और उन लोगों को वहां से तभी जाने दिया जब वे भोजन कर चुके ।
लेकिन ये समस्याएं हमेशा नहीं रहती थीं, न मित्र बन्धु ही हमेशा आ पाते थे। जब गांव में किसी प्रकार का आमोद-आनन्दोत्सव न होता तो गांव निर्जीव निस्पन्द हो उठता । तब उनका थका तन-मन संध्या के समय रेडियो संगीत के लिए उत्सुक हो आता। श्रावण के घने मेघ चारों ओर से घिर आए हैं। कीचड़ भरा जनहीन ग्राम्य पथ दुर्गम हो उठा है। निबिड़ अंधकार छाती पर भार बनकर बैठ गया है। तय रेडियो की तरंगों पर बहती हुई संगीत की धारा को सुनकर ऐसा लगता जैसे दूर कहीं संगीत की महफिल में भाग ले रहे हों। फिर किसी दिन वर्षा के बाद आकाश में छोटे-छोटे मेघों की दरारों से चांद का प्रकाश दिखाई देता। वर्षा के जल से पूरम्पार भरी नदी पर मलिन ज्योत्स्ना उभर आती। तब शरत् बाबू उस एकांत नदी-तट पर, आरामकुर्सी पर आंखें मूंदे लेटे हुए, ऐसा अनुभव करते मानो तम्बाकू के धुएं के साथ मिलकर रेडियो से उठती बांसुरी के स्वर किसी मायाजाल का निर्माण कर रहे हों।