शब्दों में दिल की ये दस्तक बोली,
अहसासों ने चुप्पी की गांठें खोलीं,
वो साक्षात्कार था कुछ अलौकिक,
आत्मा से आत्मा बोलीं हो दैविक।
न सवाल सरल,न जवाब आसान,
दिल से छलके ,जज्बाती दास्तान।
कभी हंसी में ढलते जज़्बाती ढोल,
कभी आँखों में छलकते ये बेतौल।
वक़्त ठहर गया था उस पल हरशय,
जहाँ न कोई छल था,न ही कोई भय,
सिर्फ सच का सामना करता भयभीत,
एक नयी राह की चाहत ये अचंभित।
हर लफ्ज़ ने जैसे नया रंग था चढ़ाया,
रुकी हुई धड़कनों को फिर से जगाया,
अनोखासाक्षात्कार आत्मा का आत्मा से,
जहाँ खुद को खोकर,खुद को है पाया।
स्वरचित डॉ विजय लक्ष्मी