मित्रता बेमिसाल
ऐतिहासिक पृष्ठों में नजर डालें तो मित्रता की बहुत सी मिसालें देखने को मिलेंगी जो जनसामान्य में किवदंतियों के रूप में प्रचलित है ।श्री कृष्ण-अर्जुन की महाभारत कालीन मित्रता किसी से छिपी नहीं है । श्री कृष्ण जी का द्वारकाधीश होकर के भी अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार करना , कृष्ण-सुदामा की मित्रता राजा-रंक की , दुर्योधन-कर्ण की मित्रता जिसने अपने मित्र को अंगराज ही बना दिया, श्रीराम-विभीषण की मित्रता जिन्होने जीती हुयी लंका का राजा विभीषण को बनाया ।
हनुमान जी-सुग्रीव की मित्रता के कुछ उदाहरण हैं ।पर एक ऐसी मित्रता जो कुछ लोगों को ही पता है ।
चैतन्य महाप्रभु सोलवीं सदी के वैदिक आध्यात्मिक वेत्ता वैष्णव धर्म के प्रचारक महान संत कवि थे । उन्होंने गौड़ीय संप्रदाय की नींव रखी थी कृष्ण के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा थी ।उन्हें कृष्णावतार व राधा अवतार भी कहा जाता है ।
चेतन नाम का अर्थ है चेतन जागरूक हरे कृष्ण नाम को मंत्र रूप देने का श्रेय उन्हीं को जाता है । पिता का नाम श्री जगन्नाथ मिश्र था और माता का नाम शशि देवी था । उनका जन्म मायापुर नवदीप पश्चिम बंगाल के शहर में हुआ था ।
वे विलक्षण प्रतिभा के धनी थे उनके बचपन का नाम निमाई था । न्याय शास्त्र में इनको प्रकांड पांडित्य प्राप्त था । बचपन के मित्र रघुनाथ पंडित जी से इनकी घनिष्ठ मित्रता थी । दोनों को ही सरस्वती का वरदान प्राप्त था ।
एक बार दोनों मित्र गंगा पार जाने के लिए नदी से जा रहे थे । उस समय चैतन्य महाप्रभु ने बड़ी साधना लगन के साथ अपने ज्ञान और अनुभव का उपयोग करते हुए न्याय शास्त्र के अद्भुत ग्रंथ की रचना की थी ।ग्रंथ पूर्ण हो चुका था ।
नाव में बैठे बैठे उनके मन में विचार आया की रघुनाथ जी भी न्याय शास्त्र के परम ज्ञाता हैं इनसे विचार विमर्श कर ग्रंथ के बारे में राय लेनी चाहिए । उन्होंने अपने मित्र रघुनाथ शास्त्री से कहा, "भाई इस शास्त्र को पढ़ो मैंने अपनी कड़ी मेहनत व लगन से इसे लिखा है मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह लोगों को बहुत पसंद आएगा । अगर इसमें कोई कमी हो तो तुम जैसा ज्ञाता ही दूर कर सकेगा "।
अपने मित्र निमाई के कहने पर शास्त्री जी ने उस ग्रंथ को पढ़ना शुरू कर दिया पढ़ते-पढ़ते शास्त्री जी की आंखों से अनवरत आंसू बहने लगे ।
निमाई बोले, "मित्र ऐसा क्या हुआ जो तुम फूट-फूट कर रोने लगे । क्या ग्रंथ में मुझसे लेखन में अक्षम्य गलती हुई "?
तब पंडित जी बोले ,"तुमको शायद मालूम नहीं मैंने भी बहुत परिश्रम के बाद न्याय विषय पर ही एक ग्रंथ की रचना की है मेरा भी यही विचार था इस ग्रंथ से मुझे यश और अर्थ दोनों की प्राप्ति होगी । लेकिन तुम्हारा ग्रंथ पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि तुम्हारे सूर्य प्रकाश जैसे ग्रंथ के सामने मेरा ग्रन्थ छोटे से जुगनू की तरह है । मेरे इस ग्रंथ को कौन पढ़कर सराहेगा ?
निभाई बोले," बस मित्र इतनी सी बात मेरे कारण मेरे मित्र का दिल दुखा," यह कहकर उन्होंने अपना ग्रंथ उठाकर बहती गंगा की लहरों में विसर्जित कर दिया ।
कुछ क्षणों तक रघुनाथ पंडित निमाई को आवाक निःशब्द देखते रहे । नदी की लहरों में तैरते पन्नों को देखकर वह स्तंभित हो गए थे । अपने मित्र के उस अकल्पनीय असीम त्याग को देखकर नतमस्तक हो उनके चरणों में गिर
पड़े ।
निमाई ने उन्हें उठाकर अपनी छाती से लगा लिया अगर आज यदि वह ग्रंथ होता तो निश्चय ही असाधारण , दुर्लभ सर्वश्रेष्ठ की कोटि में गिना जाता ।
मित्र के प्रति निःस्वार्थभाव ने निमाई को चैतन्य महाप्रभुकी उपाधि तक पहुँचाया।
एक मित्र के प्रति दूसरे मित्र का यह भाव कभी-कभी कहीं-कहीं ही बिरला देखने को मिलेगा । सच्ची मित्रता हमारी प्रशंसा निजी संबंधों से ऊपर
है ।