इंसाफ की पुकार में खो गया न्याय,
सत्ता की गलियों में बिछा डर स्याह।
वहाँ की सड़कों पर उठी एक चीख,
राजनीति में गुम होती उसकी भीख।
लालच और सत्ता की बिछी बिसात
पीड़िता का दर्द छिपा गोटी हर बात।
चुनावी वादों के मोल ही क्या रह गये?
सच्चाई खुद को छलती मुंह मोड़ गये।
चुनावी वादों के नारों में खोई वो रात,
दर्दी चीखें रह गयीं बस सियासी बात।
कभी विरोध, कभी समर्थनी चले खेल,
इंसाफ बन गया केवल मुद्दों का मेल।
वो चीख़-चीख़ ,मांगती , अपना इंसाफ
संवेदन शून्य जग में कौन बोले खिलाफ?
नारे लगते, बयान बदलते रहते प्रति कूल,
पर इंसाफ अभी दूर, ज्यों हो गूलर फूल।
कहां है वो न्याय, कहां है वो इंसानियत?
जो कभी था हमारी असली पहचानियत।
सत्ता के खेल में खो गयीं हृदय संवेदनाएं
पर पीड़िता के परिजनों की रोती भावनाएँ।
कोलकाता की गर्म रातों में वो दर्द का साया,
कब मिलेगा उसे न्याय,कब हटेगी ये छाया?
राजनीति की दुनिया से तो बची न उम्मीद ,
न्याय के नेत्रों की कब टूटेगी कुंभकर्णी नींद
स्वरचित डा. विजय लक्ष्मी