मनोविज्ञान की रहस्यमयी राहें,
जहाँ विचारों के खेल की बाहें।
भावनाओं का है अदृश्य जाल,
मन की गहराइयों में लगे पाल।
विचारों की धारा जब थमती,
अध्यात्म दीप लौ है जलती।
मौन के मधुर स्वर में कहीं,
अंतस का सागर छलके यहीं।
प्रश्नों की उलझन से परे जब,
आत्मा का स्वर है यों गूंजता।
मनोविज्ञान की सीमाओं में,
अध्यात्म का संगीत झूमता है।
स्वयं की खोज में रत ये मन,
हर विचार से ऊपर उठता है।
अहंकार की दीवार गिराकर,
चेतना का आकाश खुलता है।
मनोविज्ञान की इस यात्रा में,
अध्यात्म का स्पर्श जब मिलता।
जीवन के हर कण में तब फिर,
सत्य का अनुभव है खिलता।
यह कविता मन और आत्मा के बीच के गहरे संबंध को उजागर करती है, जहाँ मनोविज्ञान और अध्यात्म एक-दूसरे के पूरक बनकर जीवन को नई दिशा देते हैं।
स्वरचित डा.विजय लक्ष्मी