मत रो बहन सुभद्रे ,पावस सम अवनी मन भीग रहा ,
जीवन विषाद से जर्जित प्राण तन को ही अब भेद रहा ।
उत्तरा को दो जीवनदान श्रांत क्लांत सी थकित मानिनी,
हर्ष विषाद दो पहलू हैं नश्वर जीवन के ये परम भामिनी ।
दूरागत ये क्रन्दन ध्वनि उत्तरा के मन को बेध रही ,
कैसा नियति रची कुचक्र चुभन हृदय को छेद रही ।
कितनी मादकता थी वीरता भरे उस धीर के वचनों में
संचित अभिलाषा सिंचित काली-काली सर्पिल अलकों में ।
उलझ गया प्रेमी मन चपल भ्रमर सा बंद कमल में ।
भर चली सिन्धु सरिता उस नव ब्याहता के रुदन में ।
विवशित वेदना हो विकल,विषाद रूप में सिसक रही ।
उन्मीलित नेत्र ,भयाक्रांत हिरणी सी दप्त सिंहनी विचल रही ।
मत रो बहन सुभद्रे आज अवनी का मन डोल रहा ,
जीवन विषाद से जर्जर प्राण तन को अब भेद रहा ।
स्वरचित डा.विजय लक्ष्मी